वर्ष २०११ असम की एक...
 
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वर्ष २०११ असम की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"मुझे शोर सुनाई दिया, मैं आया, जब देखा, तो फूटा गुस्सा!" कहा मैंने,
गले से लगा लिया उन्होंने मुझे!
"मेरे होते हुए आपको हाथ लगाये कोई?" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
और हम बैठ गए वहीँ, अभी बुलावा आना था, पंचायत का!!

और कुछ ही देर में, आ गया बुलावा!
"आओ" कहा मैंने,
"चलो" बोले वो,
और हम चल पड़े,
जा पहुंचे उस कक्ष में,
तावक नाथ बैठा था कुर्सी पर,
और मेरे लिया जगह न थी बैठने की,
एक कुर्सी मंगाई गयी, मैंने बिठाया शर्मा जी को उस पर,
मना करने लगे, लेकिन मैंने बिठा ही दिया उन्हें!
बाबा काली और बाबा लाल बैठे थे सामने,
"हाँ जी? की हुआ था?" पूछा बाबा लाल ने,
"बताओ शर्मा जी" कहा मैंने,
अब शर्मा जी ने सिलसिलेवार सब बता दिया उन्हें!
जो घायल थे, उनमे से एक था वहीं, उसी से अब पूछा,
"कोई पानी से फिसल गया, पानी तुम्हारे ऊपर गिरा गया, तुम उसे उठाने से तो रहे, उसको ही पीटने लगे?" बोले लाल बाबा!
"इन्होने झापड़ मारा था कलुआ के" बोला वो,
"तुमसे बड़े हैं या नहीं?" बोले लाल बाबा,
अब चुप वो!
तावक नाथ को देखे, कनखियों से,
"बोल?" बोले गरज कर बाबा!
न बोला कुछ!
"खड़ा हो? चल, माफ़ी मांग?" बोले वो,
हुआ खड़ा!
"रुक जा!" बोला तावक नाथ!
वो रुक गया, बैठ गया!
अब तावक नाथ ने मुझे देखा!
और फिर लाल बाबा को!
"इसने भी झापड़ मारा या नहीं?" बोला वो,
"सुन ओये? ज़ुबान से तमीज़ से बात कर, अगर नहीं होती, तो दफा हो जा यहां से!" कहा मैंने उस से, उसी के लहजे में!
"ये मेरे आदमी हैं, जानता है?" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कैसे आदमी हैं? जानता है? हराम के जने हैं!" कहा मैंने,
"फालतू न बोल?" बोला चीख कर वो,
"चुप हो जाओ दोनों!" बोले बाबा काली,
"क्यों? सर नहीं फाड़ा इसने एक का? एक को चीरा नहीं? इसकी हालत देखी है किसी ने?" बोला वो, उस बैठे हुए 'आदमी' की तरफ इशारा करते हुए,
"क्या करता! शुक्र कर कि त्रिशूल था, कुल्हाड़ा होता, तो दो-फाड़ कर देता मैं तेरे इन आमदियों के!" बोला मैं!
"जानता है मुझे तू?" बोला वो, मुझसे!
"तू जानता है इन्हें?" पूछा बाबा काली ने!
" ** है ये!" बोला वो,
गुस्सा तो बहुत आया! जी तो किया, साले अंडकोष काट कर, उसके मुंह में ठूंस दूँ! लेकिन चुप रहा मैं, बाबा काली बात कर रहे थे उस से!
"गाली-गलौज नहीं! सुन तावक, तू जितना है न, ज़मीन से ऊपर, उतना तो क्या, सौ गुना, ज़मीन में होगा, अगर इनके गुरु श्री को भान हो गया तनिक भी!" बोले वो,
श्री श्री श्री जी के विषय में कहा था उन्होंने!
"मेरे पिता का नाम सुना है न? इसका गुरु * एक क्षण में ही!" बोला वो, छाती पर हाथ मारते हुए!
"सूअर की औलाद! रांड के दल्ले जंवाई! तेरी माँ की ** में ** मेरा!" कहा मैंने, और बढ़ा उसकी तरफ!
अब पकड़ा मुझे सभी ने!
"चुप रहो" बोले बाबा लाल!
माहौल हुआ गरम अब!
उठे बाबा काली!
मुझे चुप रहने को कहा,
"तावक?" बोले वो,
"हाँ, बोलो?" बोला वो,
"इसी क्षण क्षमा मांग ले, तेरे पिता को ज़रा सा भी पता लगता इनके गुरु श्री के विषय में, तो वो भी पाँव पकड़ लेते! तेरे जैसे उनकी एक माला के एक दाने बराबर भी नहीं! मैं भी उनका ही शिष्य रहा हूँ! यदि क्रोध में आये वो, तो तेरा वो हाल होगा, कि तू अपने जन्म को कोसेगा!" बोले बाबा काली!
"अच्छा?" बोला वो,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"बुलाओ उसे! देखूं कौन है!" बोला वो, 
"बहन के **! ज़ुबान में गाँठ मार ले, नहीं तो मादर** यहीं गाड़ दूंगा तुझे!" मैं क्रोध से बोला!
"बकवास बंद कर ****!" बोला वो,
अब ऐसा क्रोध!
ऐसा क्रोध, कि कुल्हाड़ा हो तो,
इसके इतने टुकड़े करूँ कि,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई गिन भी न पाये!
"तू नहीं मानेगा?" बोले बाबा,
"चलो हटो!" बोला वो,
"ठीक है, तू अभी, इसी वक़्त, निकल जा यहां से!" बोला वो,
"जा रहा हूँ!" बोला वो,
और थूका उसने मेरी तरफ!
"सुन ले! तेरे और तेरे गुरु की मैं आंतें न उबाल कर खा जाऊं, तो मैं अपने पिता की औलाद नहीं!" बोला वो,
"मुझे तो लगता भी नहीं कि तू किसी इंसान की औलाद है! * ***!!" कहा मैंने,
"चुप! चुप तावक?" बोले बाबा लाल,
हुए खड़े,
आये उस तक,
"तू जानता है तू क्या कह रहा है?" बोले वो,
"जो कहा, सच कहा!" बोला वो,
"मूर्ख!" बोले वो,
तावक नाथ देखे उन्हें!
"इनके गुरु श्री, प्रणाम उन्हें! क्षमा मांग ले!" बोले वो,
"क्षमा!! हा! हा! हा!" बोला वो,
मुझे अब भयानक क्रोध!
"साले, ऐसे आदमी को लाते हैं डेरे पर, जिसे क-ख नहीं पता! और वो, तावक नाथ के आदमी पर, हाथ उठाये? ऐसी मजाल?" बोला वो,
"वो हमसे अलग नहीं!" बोले बाबा काली!
"अब हो जाएगा!" बोला वो,
और तभी!
एक लात!
तावक नाथ के पेट में एक कसकर लात!
नीचे बैठा,
तो मुंह पर लात!
अब शर्मा जी उठे!
और हम दोनों ने,
जबतक, बीच बचाव होता, तब तक तो उसका चेहरा सुजा दिया!
हुआ बीच बचाव!
खून उगल रहा था मुंह से!
शर्मा जी ने, दांत हिला दिए थे उसके!
और हुए हम फिर अलग!
और भेज दिए गए वापिस कक्ष में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सही किया आपने!" बोले शर्मा जी!
"बहन का **! श्री श्री श्री जी को बोलता है?" बोला मैं,
"हाँ! बे-औक़ात!" बोले वो,
"इसका तो साले का कुछ करना ही पड़ेगा!" मैंने कहा,
"अभी रुको" बोले वो,
और मैं बैठा!
आये बाबा काली,
बैठे,
"क्या चाहते हो?" बोले वो,
"इस माँ के ** को निकालो यहां से!" बोला मैं,
"कह दिया है" बोले वो,
"न माने तो?" बोला मैं,
"तो देख लेंगे!" बोले वो,
"आदमी बदज़ात है!" कहा मैंने,
"ये, खण्डार पर उछल रहा है!" बोले वो,
"खण्डार? और ये?" मैंने अचरज से पूछा,
"हाँ!" बोले वो,
"तभी!" कहा मैंने,
"बताता हूँ!" बोले वो!
ऐसा क्रोधी, बद्तमीज़ और ज़ाहिल इंसान और खण्डार? कैसे सम्भव है? कैसे प्राप्प्त की इसने ये खण्डार? कैसे किया साधन?
"इसके पिता थे, एक प्रबल औघड़, खण्डार के माहिर, उन्होंने ही पुत्र-प्रेम के कारण इसको खण्डार प्रदान की!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं तो ये है इस लायक?" बोले वो,
"यही तो मैं सोच रहा था!" कहा मैंने,
"क्या करें, तभी से ऐसा अहंकार चढ़ा है!" बोले वो,
"कोई बात नहीं, भोगेगा ये भी!" कहा मैंने,
फिर बाबा उठे, जाने लगे,
"साढ़े ग्यारह बजे, तैयार रहना" कहा उन्होंने,
"ठीक यही" कहा मैंने,
वे बाहर गए, तो दरवाज़े पर, वो हरामजादा आ खड़ा हुआ, मैं उठा और चल उसकी तरफ, शर्मा जी भी चल दिए!
"तुझे इसका मोल चुकाना होगा!" कहा मैंने,
"जब चाहे तब!" कहा मैंने,
"तूने अभी जाना नहीं मुझे!" बोला वो,
"जानना भी नहीं है मुझे!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जब ये ज़ुबान खींच ली जायेगी बाहर, तब जानेगा तू!" बोला वो,
"शर्मा जी, मेरा त्रिशूल लाओ, इसकी हगनी से इसकी ज़ुबान बाहर निकालूँ मैं!" कहा मैंने,
वो अब पीछे हटा! लेकिन गया नहीं, बाहर फिर से दूसरे लोग आ खड़े हुए थे!
"अब चला जा इस स्थान से बाहर, इस से पहले तुझे धक्के मारते हुए निकालें ये सब!" कहा मैंने,
नहीं गया, वहीँ खड़ा रहा, दांत भींचते हुए!
मैंने उसको श्री श्री श्री जी के डेरे का पता बता दिया!
"यहां मिलूंगा मैं! जब आना चाहे, आ जाना!" कहा मैंने,
उसने दी गाली, और मैं चला आगे, उस आदमी आ गए, घेर लिया उसको!
तभी लाल बाबा आ पहुंचे, और उस डाँट मार, निकाल दिया बाहर!
मैं आया कमरे में वापिस,
और तैयारियों में जुट गया!
ठीक साढ़े ग्यारह बजे, श्मशान की ओर चल पड़ा,
वहाँ चिताएं सुलग ही थीं!
आसन बिछे थे!
चिताओं में से लकड़ियाँ निकाल, चूल्हे बना लिए गए थे,
बर्तनों में, चावल बन रहे थे, मांस पक रहा था, भूना जा रहा था!
कई साध्वियां एक तरफ खड़ी थीं, श्रृंगार सभी ने किया था,
मैं चला वहां, और जैसे ही भस्म-स्नान करना चाहा,
"क्या मैं करूँ? आप आज्ञा दें तो?" एक साध्वी बोली,
मैंने पलट के देखा उसे,
पच्चीस बरस की रही होगी वो,
व्यवहार से शांत और सुलझे हुए व्यक्तित्व की मालूम पड़ती थी,
"मुझे जानती हो तुम?" पूछा मैंने,
"नहीं, शाम से जाना!" बोली वो,
"समझा नहीं?" कहा मैंने,
"आपने तावक नाथ को जैसे भगाया, तभी से!" बोली वो,
और आगे आई, और मेरे जिस्म पर, भस्म मलने लगी,
"तुम कैसे जानती हो तावक नाथ को?" पूछा मैंने,
"मेरे पिता को बहुत पीटा था उसने, कोई दो माह पहले" बोली वो,
"ओह..क्यों?" पूछा मैंने,
"उन्होंने भी एक बार उसका विरोध किया था, उनकी टांगें तोड़ डाली थीं" बोली वो,
"हरामजादा!" कहा मैंने, मुंह से निकला,
भस्म मल दी थी, अब गले पर मेरे माल उठा, भस्म-लेप चल रहा था,
"नाम क्या है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"चारु" बोली वो,
"किसकी साधिक हो?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"किसी की नहीं" बोली वो,
"तो यहां कैसे?" पूछा मैंने,
"सहायिका के तौर पर" बोली वो,
"अच्छा!" मैंने कहा,
और उसके गले में पड़ा एक श्वेत-माल देखा,
ऐसा एक साधक, अपनी साधिका को विशिष्ट रूप से देता है!
"ये किसका है?" पूछा मैंने,
"किसी का नहीं" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"ऐसे ही पहना!" मुस्कुराते हुए बोली,
भोली-भाली सी थी, कोई भी झपट पड़ता उसके ऊपर, धुत्त होते ही!
"आओ चारु, आओ मेरे संग, और वस्त्र पहन लो अपने!" कहा मैंने,
वो खुश हो गयी! झटपट से वस्त्र पहन लिए!
"आओ, चलो मेरे साथ!" कहा मैंने,
और उसका हाथ पकड़, मैं ले चला उसको अपने संग, अपने आसन पर बिठा दिया, एक माल उतार कर, उसको पहना दिया!
"कहाँ की रहने वाली हो चारु?" पूछा मैंने,
"बंगाल" बोली वो,
"अच्छा! और पिता जी का नाम?" पूछा मैंने,
"कीरत नाथ" बोली वो,
"अच्छा! और यहां कहाँ रहती हो?" पूछा मैंने,
"वो, दीवार के पीछे एक डेरा है न? वहाँ" बोली वो, इशारा करके,
तभी शराब परोसी गयी,
उसके लिए भी, तो मना कर दिया मैंने उसको,
"मैं पी लेती हूँ" बोली वो,
"आज नहीं" कहा मैंने,
"जैसा आप कहें" बोली वो,
और तब बाबा काली आ गए, और आते ही, कई पूजन हुए,
और उसके बाद महाक्रिया!
सुबह तीन बजे तक चली!
उसके बाद कई वहीँ सो गए,
कोई उठकर चला गया,
कोई बीच में ही गिर के सो गया,
और मैं, चारु को संग ले, चला वापिस,
तभी एक औघड़ ने, उसका हाथ पकड़ लिया,
उसने आह सी निकाली! मैंने देखा उसे,
नशे में खड़ा हुआ जा नहीं रहा था, और ऐसी हरक़त!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसका हाथ छुड़ाया मैंने, किया एक तरफ,
और औघड़ की दाढ़ी पकड़ी, और फेंक मारा पीछे!
वो चिल्लाया! मैंने पहुंचा उसके पास, और दी एक लात!
बोलती बंद! दूसरे भी देख तो रहे थे, लेकिन बोले कुछ नहीं!
आया चारु के पास,
"आओ!" कहा मैंने,
"मेरे लिए मारा उसे?" पूछा उसने,
"नहीं, उसकी वाहियात हरक़त के लिए!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"अब कहाँ जाओगी?" पूछा मैंने,
"सुबह तक यहीं हूँ" बोली वो,
"किसके पास?" कहा मैंने,
"हम तीन हैं वहाँ" बोली वो,
"चलो, छोड़ दूँ वहां" कहा मैंने,
"मैं चली जाउंगी!" बोली वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और ले चला उसको,
और जहां लाया, वो जगह तो खुली ही थी!
टीन पड़ी थी छत के नाम पर,
उसमे भी छेद थे, अंदर गया, तो दो सो रही थीं,
दीवार जैसे कनातों से बनी थीं!
"यहाँ हो तुम?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"यहां तो जगह भी नहीं?" कहा मैंने,
"कर लेते हैं व्यवस्था!" बोली वो,
"चादर लो अपनी" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं न?" बोली वो,
"अब अगर एक बार भी प्रश्न किया न चारु??" कहा मैंने,
"अच्छा! अच्छा!" बोली वो,
चादर ली अपनी,
"कपड़े भी लो" कहा मैंने,
ले लिए उसने,
"चलो मेरे संग!" कहा मैंने,
और मैं ले आया उसको संग अपने,
"ये लो तौलिया, और स्नान कर लो" कहा मैंने,
वो चली गयी अंदर,
शर्मा जी सो रहे थे आराम से,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं बैठ गया वहाँ,
अपने माल-संभाले, और रखे संभाल कर,
थोड़ी देर में,
चारु आ गयी बाहर, अब खिला था रूप उसका!
मुस्कुराई, बाल पोंछे,
और फिर मैं चला अंदर, स्नान करने!
स्नान किया, और बाहर आया!
मैं जब बाहर आया, तो चारु ने अपनी चादर बिछा ली थी नीचे, और अपने बाल संवार रही थी, मेरा सामान बाक़ायदा संभाल कर रख दिया था उसने! मैंने वस्त्र पहने, और बैठ गया, पांच बजने को थे,
"अब सो जाओ चारु" कहा मैंने,
"जी, आप भी सोइये!" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने, और लेट गया,
अपनी एक चादर ली, और बैठा फिर,
"चारु?" बोला मैं,
"जी?" बोली वो,
"ये लो चादर, ओढ़ लो" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं न?" बोली वो,
"फिर से प्रश्न?" कहा मैंने,
मुस्कुरा गयी!
ले ली चादर,
"अब लेटो, और सो जाओ" कहा मैंने,
फिर मैं खड़ा हुआ, दरवाज़ा बंद कर दिया अंदर से,
और लेट गया, उसने मुंह ढक लिया था अपना,
उसको देखा, चेहरा ढके, घुटने मोड़े, सो गयी थी!
कैसा शोषण होता है इस नारी का!
कैसी सोच है पुरुष की इस नारी के विषय में!
कैसी घृणित सोच, विषय-भोग का साधन मात्र!
इसे ही हम नारी-शक्ति कहते हैं!
और असल में?
कितने तुच्छे हैं हम और हमारे विचार!
क्या क्या सहा होगा इस चारु ने भी!
मैं देख ही रहा था, की धीरे से चादर उठायी उसने,
चेहरा निकाला बाहर, और मुझे देखने लगी!
मैं मुस्कुरा गया उसको देख कर,
लेकिन वो नहीं! अपने अंदर ही खोयी थी वो,
और मुझे देख रही थी, घूर रही थी, ऐसा कहना ठीक रहेगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक मिनट, बिना पलकें मारे!
दो मिनट, बिना पलकें मारे!
फिर मैं उठा गया, लेकिन नज़रें उलझी रहीं उस से मेरी!
आखिर में रहा न गया मुझसे!
"क्या हुआ चारु?" पूछा मैंने,
उसने अपनी ऊँगली, अपने होंठों पर छुआ दी, कि नहीं बोलो!
अब मैं उतरा नीचे, बैठा उसके पास, वो खिसकी पीछे,
मुझे जगह देते हुए, जगह बनाते हुए,
लेकिन नज़रें न हटाये अपनी!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
फिर से ऊँगली कर दी होंठों पर अपने,
मैंने ऊँगली हटाई उसकी,
"बताओ?" पूछा मैंने,
वो बैठी फिर, अब हटाईं नज़रें,
फिर मुझे देखा,
"बताओ?" कहा मैंने,
"आप कहाँ के हैं? " पूछा उसने,
"दिल्ली का" कहा मैंने,
"इतनी दूर से?" बोली वो,
"कहाँ दूर? कभी गयी नहीं दिल्ली?" पूछा मैंने,
"मैं कभी अपने गाँव भी नहीं गयी" बोली वो,
"अरे! और परिवार में?" पूछा मैंने,
"मेरे पिता और एक बड़ा भाई, जो अब कहाँ है, पता नहीं" बोली वो,
"माँ?" पूछा मैंने,
"माँ नहीं है, आठ बरस पहले गुजर गयीं" बोली वो,
"यहां किसके पास रहतो हो?" पूछा मैंने,
"पिता के संग, वहीँ, उधर" बोली वो,
मेरी नज़र, उसके गले पर पड़ी, उसका सूट उधड़ रहा था वहां से,
वो मोड़कर रखती थी उसे, 
मैंने छुआ उसके उस उधड़े कपड़े को, तो देखा, वो अब सीला भी नहीं जा सकता था!
बहुत दया आई उस पर उस समय मुझे...........
"यहां सहायिका का कार्य करती हो?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"और मिलता क्या है?" पूछा मैंने,
"भोजन, वस्त्र और कुछ धन भी" बोली वो,
"भोजन? वहाँ उस डेरे पर नहीं मिलता?" पूछा मैंने,
"वही यहां भेजते हैं" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कितना पढ़ी हो?" पूछा मैंने,
"नौ तक" बोली वो,
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"माँ गुजरी, पढ़ाई बंद" बोली वो,
कैसी मज़बूरी! कोई पढ़ना चाहता है, तो पढ़ नहीं पाता!
जिसके पास सबकुछ है, साधन हैं, वो पढ़ता नहीं!
कैसी विडंबना है ये!
"छोडो ये सब अब तुम!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी वो!
"फिर क्या करूँ?" बोली वो,
"सबसे पहले अपने लिए कपड़े खरीदो! अपने पिता के लिए भी!" कहा मैंने,
"मैं नहीं खरीद सकती" बोली वो,
"चुप! कल चलो मेरे साथ!" कहा मैंने,
आँखों में आंसू भर लायी, सच्चे आंसू थे, विवशता के,
पोंछने से ही, पुण्य प्राप्त होता है, सो, पोंछे मैंने!
"अब सो जाओ चारु" कहा मैंने,
और लिटाया उसको, 
अपना तकिया भी दे दिया उसको,
उसका हाथ देखा,
रेखाएं देखीं,
भाग्यशाली थी, लेकिन सोये हुए भाग्य वाली!
कोई मदद न मिली थी उसको!
नहीं तो, आज यहां न होती वो,
मैं भी लेट गया अपने बिस्तर पर,
वो नज़रें गाढ़े, मुझे देखती रही,
मुझे नींद के झोंके लग रहे थे,
सो मैं तो सो गया!
जब नींद खुली तो दो बजे थे,
शर्मा जी उठ चुके थे,
चारु, पेट के बल सोये पड़ी थी,
शर्मा जी ने बताया कि नींद में पता नहीं क्या क्या बड़बड़ा रही थी वो,
उसकी चादर ठीक की मैंने,
तकिया भी, और उसका सर भी,
तब मैंने शर्मा जी को बताया उसके बारे में,
उन्हें भी बहुत अफ़सोस हुआ उस बेचारी पर!
कोई आधे घंटे बाद उठ गयी वो, आँखें मलती हुई!
तब तक मैं स्नान कर चुका था, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी, चाय-नाश्ता लेने गए थे!
"आ गयी नींद?" पूछा मैंने,
एक ज़बरदस्त अंगड़ाई ली उसने!
खजुराहो की मूर्ति समान!
और तकिया गोद में रख, बैठ गयी!
"हाँ! बहुत अच्छी!" बोली वो,
"नहा-धो लो, और कर चाय-नाश्ता! फिर चलते हैं ज़रा बाहर!" कहा मैंने,
वो चली फिर गुसलखाने! और कुछ गुनगुनाते हुए, स्नान करती रही!
आई बाहर, नाश्ता लग चुका था, बदन ऊपर का, भीग चला था पानी से,
तो अंगोछा दे दिया उसको, उसने शर्मा जी से नमस्कार की, और पाँव छूने चली,
शर्मा जी ने , न छूने दिया, बस सर पर हाथ रखा!
"बैठो, ये लो!" कहा मैंने, और चाय दे दी उसको!
और हम तीनों ने फिर चाय-नाश्ता कर लिया,
उसके बाद, हम बाज़ार चले,
उसके लिए वस्त्रादि खरीदे, कुर्ते आदि,
स्त्री का सामान, जो सूक्ष्म से लकर, मोटा तक होता है, सब!
उसके पिता के लिए भी वस्त्र खरीदे,
वहीं भोजन भी कर लिया था!
आज खुश थी चारु! उसकी आँखों से पता चलता था!
वहां से, सीधा उसके पिता के पास आये,
पिता की टांगें अभी भी ठीक नहीं थीं,
बहुत बातें हुईं और चारु ने सबकुछ बता दिया उन्हें!
वे भी प्रसन्न हुए, धन्यवाद किया हमारा!
उनके वस्त्र उन्हें दे दिए,
और चारु, हमारे संग वापिस आ गयी,
दो रात की साधना और शेष थी, इसीलिए!
कमरे में आये, शर्मा जी बाहर ही बैठ गए थे कुर्सी पर,
मैंने सामान रखा उसका,
और वो बैठी तब! एक लम्बी सांस छोड़ी!
और देखा मुझे! मुस्कुराई!
मैं भी मुस्करा पड़ा, मीठी सी मुस्कान थी उस चारु की!
उसने वो थैले खोले, और निकाले अपने कपड़े, उनको अपने से लगा-लगा के देखा! खो गयी थी उन्हीं में! मुझसे तो देखा भी नहीं जा रहा था उसको, ऐसा करते हुए! फिर एक छांटा, सिलेटी रंग का एक कुरता और सफेद रंग का एक स्लैक्स!
"ये कैसा है?" पूछा उसने!
"बहुत सुंदर! अच्छी लगोगी तुम इसमें!" कहा मैंने,
हंस पड़ी वो! दिल की हंसी! दिल से निकली, एक सच्ची हंसी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसी हंसी की खनक ही अलग हुआ करती है! वही थी, वैसी ही!
"पहन लो!" कहा मैंने,
"पहनती हूँ!" मुस्कुराते हुए बोली,
और चली उनको लेकर, गुसलखाने!
आई वापिस! मैं तो देखता ही रह गया उसको!
सच में जैसे उसके लिए ही बने थे वो!
क्या खूब लग रही थी! उसने जयपुरी जूतियां ली थीं,
झिलमिला रही थीं वो जूतियां उसके पांवों में!
"कैसी लग रही हूँ?" पूछा उसने!
मैं हंसा!
"बाहर नहीं जाना!" कहा मैंने,
"क्यों?" गंभीर होकर पूछा उसने,
"कहीं एक दो और न लात खा जाएँ!" कहा मैंने हंस कर,
अब वो भी हंसी मेरे संग!
फिर दर्पण में, अपने केश संवारे!
साज-सज्जा, स्त्रियोचित-गुण है!
ऐसे हाथ चला रही थी, जैसे बहुत कुशल हो!
आगे-पीछे, दायें-बाएं घूम-घूम कर देखती थी अपने आपको!
"बस बस! दर्पण चिढ गया तो टूट जाएगा!" कहा मैंने,
खिलखिलाकर हंसी!
और आई मेरे पास, बैठ गयी!
"मैं अब नहीं भूल सकती आपको!" बोली वो,
एकदम से गंम्भीर होकर, मात्र स्त्रियां ही, क्षण के प्रतिक्षण भाग में,
भावों की सीढ़ियां, चढ़-उतर सकती हैं! पुरुष, सहारा लेकर उतरता है!
"मैं कब कहा कि भूल जाना!" कहा मैंने,
उसकी छोटी सी बिंदी, थोड़ा नीचे करते हुए, माथे पर, कहा मैंने,
"मुझे भी नहीं भूलोगे न आप?" पूछा उसने,
"पगली! कैसी भूलूंगा?" कहा मैंने,
और आँखों से पानी!
कुछ ही घंटों में, कैसे अपनापन बना लिया था मेरे संग उसने!
सच कहूँ, तो मुझे भी ऐसा ही लगा था!
आंसू पोंछे उसके! काजल बह चला था, साफ़ किया मैंने,
"आंसू नहीं बहाते!" कहा मैंने,
"मैंने नहीं बहाये, अपने आप बहे!" बोली वो,
"क्यों मुझे मुसीबत में डालती हो चारु!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोली वो,
"वो पता नहीं क्या चाहता है चारु! मेरे सामने ही लाता है ये सबकुछ!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बता दिया उसको सबकुछ!
वो मुस्कुरा पड़ी! 
"वो चाहता था कि मैं मिलूं आपसे, मिल गयी, बस!" बोली वो,
हंसा दिया उसने मुझे इस बात से! खुद भी हंस पड़ी!
"आगे पढ़ाई करोगी?" पूछा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोली वो,
"ठीक है! ज़रूर करना! कम से कम अपने लायक हो जाओ, तो सबसे प्रसन्न मैं ही होऊंगा!" कहा मैंने,
"मैं होउंगी!" बोली वो,
"प्रसन्न?" पूछा मैंने,
"लायक!" बोली वो,
"और सुनो, आज रात नहीं आना वहाँ, अब काम छोड़ दिया है तुमने, समझीं?" कहा मैंने,
"हाँ, समझ गयी!" बोली वो,
और फिर हुई रात,
क्रिया आरम्भ हुई,
और फिर से चार बजे तक चली,
और मैं आया फिर वापिस,
जब आया, तो चारु जागी थी, शर्मा जी सोये थे,
मेरा सामान लिया उसने, रखा संभाल कर,
"तुम सोयी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नींद नहीं आई" बोली वो,
मेरे माल उतारते हुए,
"भोजन किया था?" पूछा मैंने,
"थोड़ा सा" बोली वो,
"थोड़ा सा क्यों?" पूछा मैंने,
"मन नहीं किया" बोली वो,
"कमज़ोर हो जाओगी!" कहा मैंने,
"न!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"आदत है" बोली वो,
मैंने, उसका हाथ पकड़ा, और उसको देखा,
"चारु, आदत थी, अब नहीं, समझीं?" बोला मैं,
उसने होंठ बंद कर, सर हिला हाँ कही!
फिर हटी, और मेरे वस्त्र लायी, दिए मुझे,
"स्नान कर लीजिये" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं चला गया स्नान करने,
आया वापिस, तो मेरा सारा सामान करीने से रख दिया था उसने!
"क्यों मेरी आदत बिगाड़ रही हो?" कहा मैंने,
"वो कैसे?" बोली वो,
"बाद में क्या होगा?" पूछा मैंने,
"बाद में मतलब?" पूछा उसने,
"बाद में, जब मैं चला जाऊँगा!" कहा मैंने,
"मुझे भी ले जाना!" बोली वो,
"हर जगह?" पूछा मैंने,
"अगर सम्भव हो तो!" बोली शरारत से!
"तुम तो बहुत तेज हो!" कहा मैंने,
"बहुत तेज!" बोली वो,
"दूर रहना पड़ेगा फिर तो!" कहा मैंने,
"वो क्यों?" पूछा उसने,
"धार से बचने के लिए!" कहा मैंने,
हंस पड़ी वो!
बैठ गयी पास मेरे!
मेरे घुटने पर कोहनी रखी,
हाथ में चेहरा थामा अपना,
मुझे देखा,
और मंद मंद मुस्कुराई!
मैंने उसके सर पर हाथ फेरा!
केश बहुत मुलायम हैं उसके!
"चलो अब सो जाओ!" कहा मैंने,
"ठीक है" बोली वो,
और लेट गयी, नीचे, बिस्तर पर,
और देखे जाये, चादर से चेहरा निकाल कर!
मैं उसको, देखते देखते, सो गया आराम से!
नींद खुली एक बजे!
स्नान किया! फिर चाय-नाश्ता!
"शर्मा जी, मैं चारु को ले जा रहा हूँ!" बोला मैं,
"जी!" बोले वो,
"चारु, तैयार हो जाओ!" कहा मैंने,
वो हुई तैयार!
शर्मा जी चले बाहर,
"कहाँ जा रहे हैं?" पूछा उसने,
"चलो तो सही!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताओ तो सही?" बोली वो,
"अगर तुम्हें, तुम्हारे पिता को ऐसी जगह मिले, जहां सारी व्यवस्था हो, तो कैसा रहेगा?" पूछा मैंने,
अब मुझे देखे!
गोल गोल आँखें बनाये!
"कहाँ?" पूछा उसने,
"मेरे स्थान पर!" कहा मैंने,
"यहां?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और बताया उसको अब!
उसने गौर से सुना!
आई मेरे पास, बैठी संग मेरे!
"क्यों कर रहे हैं आप इतना मेरे लिए?" पूछा उसने,
"अब होगा तुम्हारा क़र्ज़ मेरे ऊपर पिछले जन्म का!" कहा मैंने,
"नहीं! बताओ?" बोली वो,
"यही बात है!" कहा मैंने,
"नहीं! बताओ?" बोली वो,
"मुझसे तुम्हारी और पिता जी की दशा नहीं देखी जा रही, इसीलिए!" कहा मैंने,
मुस्कुराई वो! और मेरे गले में हाथ डाल, चिपक गयी वो पगली!
कितना शीघ्र विश्वास करती है स्त्री!
और हम, छेद देते हैं उसे! उसका यही विश्वास उसके लिए,
विवशता बना देते हैं उसकी! ये प्रेम नहीं! ये छल है!
चारु ने मुझ पर विश्वास किया, मुझे ऋणी बना दिया!
और फिर हम निकल आये वहाँ से! सीधा मैं पहुंचा उसको लेकर श्री श्री श्री जी के पास, उंनकी चरण-वंदना की मैंने, और तब उनको बताया चारु के बारे में, उनका भी दिल पसीज गया, और सहर्ष चारु और उसके पिता को वहाँ रहने के लिए राजी हो गए! अब चारु वहाँ सहायिका नहीं, सदस्य हो गयी थी! उसके पिता की भी उचित देखभाल होती! चारु बहुत प्रसन्न हुई! मैं ले आया था उसको अपने कक्ष में, चाय मंगवा ली थी, चाय आई तो चाय पी हमने, साथ में, आलू ले परांठे आये थे, तो दो दो वो खींच दिए!
"ये तो बहुत बड़ा डेरा है!" बोली वो,
"हाँ, मेरे दादा श्री का!" कहा मैंने,
"तो आप कहीं और क्यों ठहरते हो?" पूछा मैंने,
"ताकि कोई चारु शोषण का शिकार न हो!" कहा मैंने,
गंभीर हो गयी वो मेरा उत्तर सुनकर!
"अब आराम से रहना यहां! किसी का कोई आदेश नहीं! जो भी बात हो, बाबा काश्व नाथ, अथवा श्री श्री श्री जी से कहना तुम!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी वो!


   
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