वो रात का समय था, और सितम्बर का महीना था वो, रात के करीब ग्यारह बजे थे, आबादी से दूर कुछ श्मशान पुजारी, चिताओं के समक्ष नाच-गा रहे थे, साध्वियां बैठी थीं, श्रृंगार चल रहा था सभी का! इंतज़ार था वो बाबा अंगिरा नाथ जी का, वृद्ध औघड़ थे, करीब अस्सी वर्ष के, आज उनके नेतृत्व में, एक घाड़-क्रिया की जानी थी, कुछ प्रश्नों के उत्तर थे, प्राप्त किये जाने थे! हम कुल आठ लोग थे वहाँ, पास ही नदी बह रही थी, बीच में कुछ बड़े बड़े से पत्थर थे, पानी टकराता तो शोर मचाता था! मांस-मदिरा का भोग चल रहा था! मैं एक साथी औघड़, प्रबुद्ध के साथ आया था यहां! शर्मा जी, आवास-स्थल में आराम कर रहे थे, उनका भोग, उन तक पहुंचा दिया गया था!
"उसको देखना?" कहा मैंने,
"वो, श्रंग नाथ है!" बोला वो,
"कहाँ का?" पूछा मैंने,
"गोहाटी का!" बताया उसने,
"बड़ा ही बद्तमीज़ है, इसको नियम नहीं पता क्या?" बोला मैं,
"अब क्या करें जी!" बोला वो,
"निकालो साले को यहां से!" कहा मैंने,
"अब रहने दो, थोड़ी देर की बात है!" बोला वो,
दरसल वो, एक साध्वी को लिए बैठा था अपने ऊपर, और उसकी सारी हरकतें, नियमों से परे थीं, वो साध्वी भी कम न थी, उसका साथ दिए जा रही थी! वो प्रणय-मुद्रा में आता था बार बार! जी तो किया उन दोनों को वहां से लात बाहर निकाल फेंकूं! फिर सोचा, चलो बड़े बाबा ही भगा देंगे उसे!
लेकिन हद हो गयी! वो तो नशे में ऐसे धुत्त हो गए, ऐसी हरकतें करने लेग कि अब तो दूसरे भी देखने लगे, एक ने टोका, तो अपना त्रिशूल दिखा दिया उसने उसे! अब आया मुझे गुस्सा! मैं हुआ खड़ा, और उसको बालों से पकड़ कर, खींचता चला, वो साध्वी भी, खिंची चली आई, उसने उठने की कोशिश की, तो गिर गयी, और मैं उसको खींचता रहा, फिर रुका, और दी एक गरदन पर लात! होश उड़ गए उसके! कांपने लगा, बोला न जाए!
मारे नशे के, खड़ा न हुआ जाए! जैसे ही हाथ जोड़े, एक और लात दी सीने में उसकी! वो अब लेट गया नीचे!
और मैं आ गया वापिस फिर!
सभी खुश हुए,
और वो साध्वी, भगा दी गयी थी बाकियों द्वारा वहां से!
और अब सब सतर्क हो चले थे!
घाड़-पूजन हो चुका था,
मैंने भी प्रणाम किया और बैठ गए चारों ओर उसके!
"सही किया आपने!" बोला प्रबुद्ध!
"करना ही पड़ा!" कहा मैंने,
"ये साले खाली आदमी हैं, आ जाते हैं बस तमाशा बनने!" बोला वो,
"अब बन गया न तमाशा उसका!" बोला मैं,
तो हंस पड़ा खुल कर!
और कोई थी बढ़ बजे, आ गए बाबा अंगिरा नाथ जी! कद्दावर देह है उनकी! संग में उनकी चार साध्वियां, आसन आदि लिए हुए, आसन लगाया उनका,
और सबसे परिचय हुआ!
"ये मेरी बावनवीं क्रिया है!" बोले वो,
ऐसे प्रबल!
बावनीं घाड़-क्रिया!
मैंने हाथ जोड़, प्रणाम किया उन्हें!
आसन लगाया गया उनका,
और फिर कुछ अन्य पूजन,
और उसके बाद, चिता में अग्नि प्रज्ज्वलित की उन्होंने!
आग भड़क उठी!
और सब, चारों ओर बैठ गए!
मंत्र ध्वनियां गूँज उठीं!
चिता में सामग्रियाँ आदि डाली जाने लगीं!
करीब आधे घंटे के बाद,
बाबा खड़े हुए, त्रिशूल साधा अपना,
और चिता के पांवों की तरफ खड़े हुए!
एक मंत्र पढ़ा, और मंत्र पढ़ते ही,
अपनी गरदन हिलाता वो घाड़, हलाहल करता, बैठ गया चिता पर!
आग ही आग लगी थी,
वो आराम से, आलती-पालती मारे बैठा था!
अब बाबा ने उस से प्रश्नोत्तर किये!
उसने सभी उत्तर दिए!
गरज कर, धाड़ मार कर!
फिर भोग माँगा, उसको भोग दिया!
स्त्री-भोग माँगा, मना किया गया!
वो जैसे बिफरा! और सभी स्त्रियों को देखने लगा!
जैसे ही नीचे उतरने लगे,
बाबा ने लिया त्रिशूल और उसकी कमर से छुआ!
वो दहाड़ मार उठा!
अब ललचाया उसको! कि स्त्री-भोग तब,
जब हमें अभीष्ट प्राप्त हो!
हो गया समझौता!
और अब, भिन्न भिन्न प्रश्न हुए!
क्रियायों का ज्ञान प्राप्त हुआ!
मेरे प्रश्नों के भी उत्तर मिले,
इस से मैंने दो साधनाएं सम्पूर्ण कीं बाद में!
मध्य-रात्रि, उसको सुला दिया गया!
उसने विरोध किया, लेकिन बाबा ने एक न सुनी!
और दाह-संस्कार कर दिया गया, आदर-सम्मान युक्त!
क्रिया पूर्ण हुई,
और अब सब चले वहाँ से,
मैंने भी स्नान किया और आया शर्मा जी के पास,
उनसे बातें हुईं,
और फिर हम सो गए आराम से!
अगली सुबह,
फारिग हुए,
और हुए चलने को तैयार!
और फिर, निकल आये!
अब यहां से हमें अपने एक जानकार के यहां जाना था!
वहां पहुंचे, चाय-नाश्ता किया,
और फिर आराम!
"हो गयी पूर्ण?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"निर्विघ्न?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
और उस श्रंग नाथ की हरक़त बता दी!
"फेंक देते साले को पीछे नदी में!" बोले वो,
"सही सेंका मैंने उसे!" कहा मैंने,
"बढ़िया किया! कुत्ता कहीं का!" बोले वो,
"हाँ, हरामी साला!" कहा मैंने,
उसके बाद भोजन किया,
फिर चले ज़रा बाहर, मिलना था किसी से,
वहां पहुंचे,
मिले, कुछ सामान खरीदा,
और वापिस हुए हम,
दिन में, कोई चार बजे, मुझे बुलाया बाबा फक्कड़ नाथ ने,
उनसे बात हुई,
कहीं भेजना चाहते थे, कुछ समस्या थी,
मैंने सुनी पूरी उनकी बात,
और हाँ कह दी, समस्या कोई ऐसी बड़ी नहीं थी!
आया वापिस,
बताया शर्मा जी को, वो भी तैयार थे चलने को,
कल निकलना था, कोई पचास किलोमीटर दूर!
अगले दिन कोई ग्यारह बजे मैं और शर्मा जी, निकल गए वहाँ के लिए, जहां हमें भेजा जाना था, बस पकड़ी और चल पड़े, कोई दो घंटे में बस ने हमें उतार कर एहसान किया! एक तो उस डेढ़ घंटे की यात्रा में, बस की कमानियाँ तो क्या ढीली हुईं, हमारी धुरियां घिस गयी थीं! नीचे उतरे तब जाकर चैन आया! पानी पिया एक जगह, और खरीद भी लिया, फिर एक जगह चाय पी, वहाँ से स्थानीय साधन लिया, और जा पहुंचे उस स्थान पर, वहाँ प्रवेश किया, और बाबा के विषय में पूछा, एक सहायक हमें ले गया उनके पास, बाबा बैठे हुए थे एक अन्य बाबा के संग, हमें बुलाया, नमस्कार हुई और बिठाया! अब मैंने अपने आने का प्रयोजन बताया उन्हें, और ये भी कि किसने भेजा है, वो दूसरे वाले बाबा उठे, चल दिए प्रणाम कर उन्हें, अब रह गए हम तीन, पानी आया, पानी पिया, और फिर थोड़ी देर बाद चाय भी आ गयी, सो, फिर चाय पी, बाबा ने मेरे विषय में पूछताछ की, और मैंने उन्हें अपना परिचय दिया, अब पहचान गए थे! और अब, सहज हो गए!
"मेरी एक साधिका है, नाम है दीप्ति, उम्र को चालीस बरस है, उसकी एक छोटी बहन है, पैंतीस वर्ष की, उसको अचानक से कुछ समस्या हो गयी है!" बोले वो,
"क्या समस्या?" पूछा मैंने,
"उसने एक साधक संग, साधना पूर्ण की थी, उसके अगले दिन से, उसका बदन ऐंठने लगा,
और शरीर पर, बड़े बड़े काले से धब्बे भी बन गए हैं" बोले वो,
"ऐसा क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"बहुत इलाज किया, करवाया, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ, खूब 'इलाज' भी करवाया, लेकिन रोग पकड़ में नहीं आया, अब वो बहुत दुखी है" बोले वो,
"वो साधक कौन था?" पूछा मैंने,
"खेम नाथ" बोले वो,
"कहाँ का है?" पूछा मैंने,
"भुवनेश्वर का" बोले वो,
"क्या उस से पूछा?" मैंने पूछा,
"हाँ, वो आया भी, इलाज भी किया, लेकिन कोई लाभ नहीं" बोले वो,
"ऐसा क्या हो गया? कोई 'पूछताछ' नहीं करवाई?" पूछा मैंने,
"करवाई, लेकिन नतीजा न निकला" बोले वो,
अब मैं भी सोच में पड़ा! ऐसा क्या हो गया?
"कहाँ है वो साधिका?" पूछा मैंने,
"आओ" बोले वो,
"चलिए" कहा मैंने,
हम उठे, और उनके संग चल पड़े,
हम जहां आये, वो एकांत सी जगह थी,
एक कमरे के पास रुके, आवाज़ दी, एक महिला आई, प्रणाम किया उसने, और बाबा ने बात की उस से,
"आओ" बोले वो,
और हम चले अंदर,
पलंग पर, एक स्त्री लेटी थी, चादर ओढ़े,
"देविया?" बोले वो,
वो उठ गयी, आँखें खोलीं, और उठ बैठी,
रंग-रूप तो अच्छा था उसका, बदन भी अच्छा ही था, स्वस्थ थी बदन से, चेहरा भी अच्छा था, आँखें छोटी छोटी थीं उसकी, और चेहरा-मोहरा तीखा था उसका, नैन-नक्श,
अब मेरा परिचय दिया उसको, उसने देखा मुझे, मैं पलंग पर बैठ गया, और बाबा, शर्मा जी, बाहर चले गए, मैंने पर्दा लगा दिया दरवाज़े का,
"देविया नाम है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"जी हाँ" बोली वो,
"समस्या क्या है?" पूछा मैंने,
"बाबा ने बताया होगा?" बोली वो,
"हाँ, लेकिन तुम बताओ?" कहा मैंने,
उसने पांवों से चादर हटाई, तो बड़े बड़े, कोई ढाई ढाई इंच के काले-सफेद से धब्बे थे, मैंने छूकर देखा, त्वचा सामान्य ही थी उसकी, न सूजन ही थी, न कोई खुजली इत्यादि,
"ऐसा और कहाँ कहाँ है?" पूछा मैंने,
अब उसने चार जगह बतायीं,
एक वक्ष-स्थल, एक ऊपरी कमर, एक नितम्बों के नीचे और एक पांवों पर,
"ऐसा कब से है?" पूछा मैंने,
"तीन माह से" बोली वो,
"चिकित्स्क क्या कहते हैं?" पूछा मैंने,
"त्वचा रोग" बोली वो,
"इलाज कराया?" पूछा मैंने,
"हाँ, अभी भी चल रहा है" बोली वो,
"एक मिनट, ज़रा लेटो" कहा मैंने,
वो लेट गयी,
मैं बैठा उसके पास,
उसकी साड़ी हटाई पेट से,
और उसकी नाभि में, अपनी कनिष्ठा ऊँगली डाली, धड़कन तो मिली, लेकिन कड़क-कड़क की आवाज़ की! इसका अर्थ था, कि उसके शरीर में कोई दोष लगा है! ते त्वचा-रोग नहीं है! ये तंत्र-दोष हुआ था उसे!
अब उसको पेट के बल लिटाया,
और उसके घुटनों के पीछे की तरफ, एक नस को ढूँढा,
मिली, लेकिन धड़कन नहीं थी उसमे!
अब तो निश्चित ही हो गया!
"उठ जाओ" कहा मैंने,
वो हुई सीधी, और उठ गयी,
"ये त्वचा-रोग नहीं है" कहा मैंने,
"फिर?" बोली हैरानी से,
"उस साधक संग, अंतिम रात्रि संसर्ग हुआ था?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो, नज़र नीचे करते हुए,
"स्खलन हुआ था तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तुमने ये बताया उसको?" कहा मैंने,
अब चुप!
यहीं कर गयी थी गलती!
"इस से उस साधक को भी कुछ प्राप्त न हुआ! और तुमने ये दोष, ले लिया!" कहा मैंने,
अब घबरा गयी!
"ऊपर देखो" कहा मैंने,
"सुनो, उसी साधक को बुलाओ, और पुनः साधना करो!" कहा मैंने,
''वो तो नहीं आ सकता?" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वो बदल हुआ था" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अब?" बोली वो,
"उसी श्रेणी के किसी साधक को आमंत्रित करो, निवेदन करो!" कहा मैंने,
"ये भी सम्भव नहीं" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"इस अवस्था में कौन........." बोली वो,
"ठीक है, मैं बाबा को बताता हूँ" कहा मैंने,
"आप बैठिये, क्षमा कीजिये" बोली वो,
मैं बैठ गया फिर,
"तुम्हें बताना चाहिए था उसे" कहा मैंने,
"मैं नहीं बता सकी" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं जानती" कहा उसने,
"जानती हो, बताना नहीं चाहतीं, दूसरी गलती!" कहा मैंने,
चुप बैठी रही!
"इस हालत में, कोई स्पर्श करेगा?" बोली वो,
"कर भी सकता है" कहा मैंने,
"कोई नहीं" कहा उसने,
"कोई हो तुम्हारा विशेष?" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तो फिर?" कहा मैंने,
कुछ न बोली,
"मैं बाबा से कहता हूँ" कहा मैंने,
"नहीं, नहीं कहना........." बोली वो,
"देविया?" बोला मैं,
देखा मुझे,
'एक दिन, ये धब्बे पूरे शरीर पर छा जाएंगे!" कहा मैंने,
अब लायी आंसू आँखों में!
पोंछे, और होंठ दबाये!
मैं उसे ही देखूं!
"बताने दो!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली
"ऐसा क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली तेज इस बार! रुलाई फूटी!
कोई न कोई बात अवश्य ही थी!
जो छिपायी जा रही थी!
अब थी क्या?
ये तो वही जाने!
खैर मैं उठ खड़ा हुआ!
उसने रोकना चाह, रोक न सकी!
और मैं, बाहर चला आया!
बाबा और शर्मा जी वहीँ बैठे थे,
मुझे देख, खड़े हुए,
और हम, लौटे फिर उनके कमरे के लिए,
आ गए वहाँ!
आ गए बाबा के पास हम, और बैठे, अब सबकुछ बता दिया उन्हें, छिपाया कुछ नहीं, कोई लाभ नहीं था, देविया स्वास्थ्य लाभ करे, यही मंशा थी मेरी, और ये उचित भी था,
"ओहो, हमें कभी नहीं बताया उसने" बोले वो,
"मैं तो जान गया था" कहा मैंने,
"बहुत बहुत धन्यवाद जी" बोले वो,
"कोई बात नहीं" कहा मैंने,
"अंधरा हो गया उसे" बोले वो,
"हाँ जी" कहा मैंने,
"ये तो भारी मुसीबत हो गयी!" बोले वो,
"बताना मेरा कर्त्तव्य था, अब आगे आप जानें!" कहा मैंने,
"लेकिन अब खेम नाथ भी क्या करेगा?" बोले वो,
''सम्पर्क साधो उस से" कहा मैंने,
"अब पता नहीं कहाँ है वो" बोले वो,
"आप ढूँढिये" बोला मैं,
"मुसीबत हो गयी जी" बोले वो,
"ये तो है" कहा मैंने,
चाय आ गयी,
तो चाय पीने लगे हम,
"आपने पूर्णांश तो किया होगा?" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
"आप अंश प्रदान कर दें" बोले वो,
मेरे हाथों से तो कप छूटते बचा!
"अरे नहीं बाबा!" कहा मैंने,
"विनती है मेरी" बोले हाथ जोड़कर,
"हाथ न जोड़ें आप, लेकिन मैं असमर्थ हूँ" कहा मैंने,
"नहीं, ये उचित नहीं" कहा मैंने,
"जान बच जायेगी उसकी!" बोले वो,
"जान नहीं जायेगी उसकी, हाँ, अब किसी क्रिया लायक शेष नहीं" कहा मैंने,
"यही तो" बोले वो,
"बदल क्या लिया था?" पूछा मैंने,
"अब क्या बताऊँ?" बोले वो,
''फिर भी?" कहा मैंने,
"धन आया था" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"तो कृपा करें!" बोले वो,
"नहीं नहीं!" कहा मैंने,
"आइये मेरे साथ" बोले वो,
"चाय खत्म कर लूँ ज़रा बाबा!" कहा मैंने,
"हाँ, हाँ!" बोले वो,
चाय खत्म हुई, और मुझे ले चले संग,
फिर वहीँ पहुंचे,
गए कमरे में,
बैठ गए,
बुलाया वहीँ दीप्ति को, वो आई,
और अब, सारी बात बता दी,
वो घबरा गयी, बात ही ऐसी थी,
और उधर, वो रोये ही रोये!
उसको चुप कराया, मैंने भी समझाया,
"सुन?" बोले बाबा,
देखा उसने, रोते हुए,
"तू अब शेष नहीं बची, अंधरा लग गया है" बोले वो,
अब तो फूट फूट के रोये!
"मैंने इनसे विनती की है, ये क्रिया करेंगे, तुझे मंजूर है?" बोले वो,
उसने रोते रोते, सर हिलाया,
उस वक़्त मुझे भी दया सी आ गयी उस पर,
इसका अर्थ ये नहीं था कि मैं संसर्ग करता उसके संग,
अपितु ये, कि उसके कुछ सिद्धांश प्रदान करता!
क्या करने काये थे, कहाँ लपेटे गए!
"तो आज यहीं ठहरिये आप" कहा मैंने,
अब तो ठहरना ही पड़ता! क्या करते!
"मैं ज़रा बात करूंगा इस से" कहा मैंने,
और वे चले गए सभी,
और मैं बैठ गया उसके पास,
"अब रोओ नहीं" कहा मैंने,
चुप करवाया उसको, हुई चुप,
"तैयारी तो तुम जानती ही हो?" पूछा मैंने,
उसने सर हिला, हाँ कही,
"रात दस बजे तैयार रहना" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"तो मैं दस बजे आऊंगा" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
और मैं चला गया वहाँ से, जा पहुंचा बाबा के पास,
उन्होंने कक्ष दे दिया था हमें,
हम कक्ष में आये, और आराम किया,
"क्या मसला है?" पूछा उन्होंने,
बता दिया उनको,
"चलो, भला होता है तो कुछ देखना नहीं चाहिए" बोले वो,
"हाँ, बस इसीलिए" कहा मैंने,
शाम कोई सात बजे, बढ़िया माल-मसाला मिला हमें!
हमने उड़ाई मौज!
जम के मदिरा का हुस्न लूटा!
वो बेहया, खुल खुल के नाज़-ओ-नखरे दिखाए!
खैर,
बजे दस, मैं पहुंचा वहाँ, उसके पास,
वो अकेली ही थी,
अब उसकी जांच ज़रूरी थी,
तो उसको नग्न करना आवश्यक था,
मैंने ग्यारह मूल स्थानों की जांच की,
वो सफल हुई,
हाँ एक बात और, उसका श्रोणि-स्थल, अवतल था,
ऐसी स्त्रियां स्खलित आसानी से नहीं हुआ करती,
नाभि भी, कुप्पक थी,
नसें अधिक मोटी और कड़ी थीं नाभि की,
और मैं उसको ले चला क्रिया-स्थल,
उसने सारा सामान सजा दिया था,
और ठीक साढ़े ग्यारह बजे से मैंने क्रिया आरम्भ की,
उस पर शक्ति संचरण किया,
और इस प्रकार, कोई दो बजे, वो धुत्त जा पड़ी नीचे!
अब समापन किया क्रिया का,
उसको वस्त्रों में ढका,
और उठा लाया उसके कक्ष तक,
और स्वयं भी, नहा-धोकर, आ पहुंचा अपने कक्ष!
सुबह हुई,
तो बाबा को बता दिया,
अब महीने भर उसको सूरज की धूप नहीं देखनी थी!
एक माह बाद,
मुझे भी सूचित करना था उन्हें,
ये सभी बातें बता दी गयीं उन्हें,
और हम, करीब दो बजे, निकल आये वहां से,
और जा पहुंचे अपने यहां,
बाबा को सब बता दिया था,
वे भी खुश हुए बहुत!
मित्रगण!
हम दो दिन और ठहरे वहां,
और फिर वापिस दिल्ली आ गए,
कुछ काम निबटाए,
चण्डीग़ढ भी गए किसी काम से,
और एक महीना बीत गया,
मेरे पास खबर आई,
देविया के निशान और धब्बे, सब गायब हो गए थे!
ये अच्छी खबर थी, मुझे सुकून हुआ!
देविया अब साध्वी न बची थी, अर्थात, वो अब स्वयं साधना नहीं कर सकती थी, हाँ, मृतमूल साधना में किसी साधक के संग अवश्य ही साथ दे सकती थी! इतना भी बहुत था, अन्यथा, वो उस डेरे में, दूसरे अन्य कार्य करती फिर! चलो, तो ठीक हुई, और क्या चाहिए था! कोई डेढ़ माह के बाद, उसका फ़ोन आया मेरे पास, वो दिल्ली में थी, किसी कार्यवश आई थी, मुझे फ़ोन करने का अर्थ था, कि वो मिलना चाहती थी मुझसे, इसमें कोई हर्ज़ा नहीं था, अच्छा ही था, कोई दूर से आया था, मिलने का इच्छुक था, सो मिलना आवश्यक भी था!
तो उसी शाम, मैं मिलने गया उस से,
वो अपनी किसी जानकार महिला के साथ आई थी! जब देखा मैंने उसे, तो मैं तो पहचान भी न सका उसे!
उसका तो रंग-रूप ही बदल गया था! चटक-मटक हो रखा था चेहरा! छोटी छोटी आँखों को, काजल डालकर, बड़ा बना लिया था उसने तो! बेहद सुंदर लगी मुझे वो उस समय! गुलाबी रंग की साड़ी में, बदन का आकर्षण झाँक रहा था उसका बाहर! कुछ ऐसे, कि कुछ दिलफेंक, बार बार देखते थे उसको!
मैं गया उसके पास,
तो मुझे देख, चौंक पड़ी!
बिठाया गाड़ी में उन दोनों को,
और चल पड़े, आगे, जहां आराम से बातें होतीं,
"अब ठीक हो?'' पूछा मैंने,
"हाँ, बिलकुल ठीक!" बोली वो,
"अब तो आवाज़ में भी जान आ गयी देविया!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी वो!
और एक जगह हम आ बैठे, अब उस से बातें हुईं!
करीब एक घंटा, उसने कल लौटना था, और उसने मेरा शुक्रिया अदा किया फिर!
उनको उनके आवास पर छोड़ा, और वापिस हुए हम!
रास्ते से अपना सामान खरीदा और सीधा अपने स्थान पर!
"पहचानी नहीं गयी वो तो!" बोले शर्मा जी,
"हाँ! रूप ही बदल गया!" कहा मैंने,
"चलो बढ़िया है!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
और भी मेरा फ़ोन बजा,
ये फ़ोन, काशी से था,
और ये फ़ोन बाबा काली नाथ का था!
बेहद प्रभावशाली औघड़ हैं वो!
रहते तो बंगाल में हैं, लेकिन काशी आये थे, किसी क्रिया के लिए,
मुझे भी आमंत्रण मिला उनका,
और मैं शीघ्र ही तैयार भी हो गया!
बता दिया शर्मा जी को मैंने, और चलने को तैयार हुए वो,
और इस तरह, हमने दो दिन बाद की टिकट करवा लीं,
और दो दिन बाद, अपना सामान ले, हो गए रवाना!
सबसे पहले श्री श्री श्री जी के यहां पहुंचे, मिले, और ठहरे!
अगले दिन उनसे आज्ञा ली मैंने,
आज्ञा मिल गयी, इसी बीच, देविया का फ़ोन आया कि,
वो भी पहुँच चुकी है अपने स्थान पर,
मैंने भी बता दिया कि, हम उस से बस कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर हैं!
अब उसने पकड़ी ज़िद!
मैंने बताया उसको काम!
और उसके बाद, उस से मिलना तय हो गया!
अगले दिन, हम पहुंचे बाबा काली नाथ के पास,
बड़े प्रसन्न हुए वो!
अनुभव क्र.९२ भाग २
गले लगाया! और हाल-चाल पूछे,
अब तक साधन के विषयों में चर्चा की,
और तब उन्होंने बताया कि वो, एक दिन बाद,
एक महा-क्रिया करने जा रहे हैं, इसीलिए,
मुझे बुलाया था उन्होंने, ये क्रिया,
तीन दिन चलनी थी!
मैंने बहुत बहुत धन्यवाद किया उनका!
और उसी शाम, खाना-पीना कर, हम आ गए वापिस!
एक दिन बीता,
अगला दिन आया,
और उस दिन, हम कोई शाम सात बजे,
पहुँच गए उनके स्थान!
वहाँ उनसे मिले, और अन्यों से भी मिलवाया!
उन्ही में से एक था तावक नाथ!
गुस्सैल! हठी! और प्रबल!
आयु में पचास बरस का रहा होगा, या थोड़ा ही कम!
उसके आसपास, अन्य औघड़ चिपके रहते थे!
वो हमेशा, बात खत्म करते ही, महानाद किया करता था!
जिस्म से मज़बूत था, मैं ऐसे औघड़ों से दूर रहा करता हूँ!
कारण वही, कि उनका दम्भ उनको देखने नहीं देता!
बस इसीलिए!
उसी रात की बात है,
कोई आठ बजे की,
तैयारियां चल रही थीं,
श्मशान सजाया जा रहा था, साफ़-सफाई चल रही थी,
मैं कक्ष में बैठा, अपना सामान निकाल रहा था,
शर्मा जी, पानी लेने गए थे बाहर,
कि तभी मुझे, बाहर कुछ शोर सा सुनाई दिया,
मेरे हाथ में त्रिशूल था, मैं गया बाहर,
और देखा, नीचे शर्मा जी गिरे हुए थे,
और दो तीन उनसे चिपटे हुए थे!
मैं भागा वहाँ दौड़कर!
आव देखा न ताव!
एक के मारा खोपड़े पर त्रिशूल! सर खुल गया उसका!
नीचे बैठ चला वो तो,
दूसरे के मारा खिंचा के, गरदन पर!
कान फाड़ता हुआ त्रिशूल, उसके गालो को चीरता हुआ, उसके होंठों को चीरता हुआ चला गया था!
वो भी बैठ चला ज़ख्म पकड़ते हुए अपना!
और रहा तीसरा!
अब तक उठ चुके थे शर्मा जी, वे लिपटे हुए थे उस से,
मैंने हटाया उन्हें, वे हटे,
और मैंने उसके घुटनों पर मारा खींच खींच कर!
कर दिया ज़ख्मी हरामज़ादे को!
वो चला लंगड़ाता हुआ!
दो तो बैठ गए थे,
और तभी आया वहां वो तावक नाथ!
उसने सभी को देखा!
मुझे भी!
मैंने अपना त्रिशूल, उस बैठे हुए के कपड़ों से पोंछ रहा था!
वो बार बार हटाता और अपना खून पोंछता!
"कौन है तू?" बोला तावक नाथ!
"बाबा काली से पूछा ले!" कहा मैंने,
"तूने मारा इन्हें?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"ये जो बहन के ** बैठे हैं न? इनसे पूछ, और तू है कौन?" बोला मैं,
आया फिर से गुस्सा मुझे!
"मुझे जानता है?" बोला आगे बढ़ते हुए!
"सुन ओये! ज़रा सा भी आगे बढ़ा, तो तेरे पेट के आरपार कर दूंगा इसको!" कहा मैंने,
त्रिशूल तनाते हुए!
"इसे नीचे कर, मुंह से बात कर!" बोला वो,
अब तक सभी इकट्ठे हो चले थे!
अब हुआ बीच-बचाव!
ले गए अलग अलग!
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"पानी ला रहा था, पाँव फिसला, पानी इनके ऊपर जा गिरा! साले भिड़ ही गए!" बोले वो,
"चोट तो नहीं लगी?" पूछा मैंने,
"नहीं, ज़्यादा नहीं" बोले वो,
कोहनी पर, चोट आई थी, किसी का जूता लगा था शायद,