वर्ष २०११ अजमेर के ...
 
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वर्ष २०११ अजमेर के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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“तुम चार ही थे या और भी थे?” मैंने पूछा,

“और भी थे” वो बोला,

“वो कहाँ हैं?” मैंने पूछा,

“यहीं हैं” उसने कहा,

“कहाँ?” मैंने पूछा,

“यहीं हैं” वो बोला,

अब मामला उलझा!

क्या सोचा, क्या हुआ!

और भी हैं!

उनमे से बस ये चार ही ढूंढ रहे हैं वो माल! बाकी और भी हैं, और उनके अनुसार यहाँ हैं, यहीं! और भी!

“अच्छा! एक बात बताओ?” मैंने कहा,

“पूछो?” उसने कहा,

“अगर माल मिल जाए तो मुझे क्या मिलेगा?” मैंने पूछा,

“जो मांगोगे!” वो बोला,

“अच्छा! क्या?” मैंने पूछा,

“जो चाहिए! ज़ुबाँ दी!” उसने कहा,

“माल मिलेगा?” मैंने पूछा,

“बिलकुल मिलेगा!” उसने कहा,

“ठीक है राम लुभाया! मैं तुम्हारा माल पता करता हूँ!” मैंने कहा,

वे खुश!

कब से भटक रहे थे वो उस माल के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चलो, कोई तो मिला, जिसको पता है!

“अच्छा, एक बात और?” मैंने कहा,

“बोलो?” वो बोला,

“उसको तंग नहीं करोगे अब” मैंने कहा,

“नहीं करेंगे!” वो बोला,

“उसको कुछ नहीं पता सच में!” मैंने कहा,

“नहीं करेंगे” वो बोला,

“तुमने पिटाई और कर दी उसकी!” मैंने कहा,

“धमकी दे रहा था हमको!” वो बोला,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“हाँ, कह रहा था वापिस नहीं जा पाओगे यहाँ से, वो तो लड़का समझ के छोड़ दिया नहीं तो गाड़ देते उसको वहीँ काट के, बहुत गाड़े हैं हमने!” वो मुस्कुरा के बोला,

खतरनाक थे वे!

वास्तव में खतरनाक!

लेकिन मैं अपना उल्लू सीधा करने में सफल हो गया था!

“सुनो?” मैंने कहा,

“मुझे एक दिन चाहिए, फिर मैं बताता हूँ” मैंने कहा,

“ठीक है” वो बोला,

“कहाँ मिलोगे?” मैंने कहा,

“बैसा की हवेली में” उसने कहा,

“कौन बैसा?” मैंने पूछा,

“चलो हमारे साथ अभी” उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“कहाँ है?” मैंने पूछा,

“वहीँ जहां पहले मिले थे” वो बोला,

“और मैं पहचानूँगा कैसे?” मैंने पूछा,

“मैं वहीँ मिलूंगा” वो बोला,

“ठीक है” मैंने कहा,

“चलते हैं” उसने कहा,

“ठीक है” मैंने कहा,

उसके बाद वो चढ़ गए छत पर, उछल कर! कमाल के डाकू थे वो! डाकुओं की साड़ी खूबी कूट कूट के भरी थी उनमे!

वे गए, तो मैं भी चला अपने कमरे में!

 

मैं कमरे में लौटा, शर्मा जी बेचैनी से बैठे थे, मेरा इंतज़ार करते हुए, मैं आया तो खड़े हुए, मैं बैठा, तो उन्होंने पूछा, “क्या रहा?”

“बात बन गयी!” मैंने कहा,

“अच्छा! कैसे?” पूछा उन्होंने,

“अब वो इसको तंग नहीं करेंगे!” मैंने कहा,

“शुक़्र है!” वे बोले,

और अब मैंने उनको बता दिया सबकुछ! उन्होंने सुना!

“तो अब बात ये कि गुरु जी आप बताओगे कि माल कहाँ है?” वे बोले,

“हाँ” मैंने कहा,

“कैसे बताएँगे?” उन्होंने पूछा,

“हाँ, ये मुश्किल सवाल है” मैंने कहा,

“एक सुझाव दूँ?” उन्होंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“बोलो?” मैंने कहा,

“पकड़ लो सभी को!” वे बोले,

“नहीं!” मैंने कहा,

“क्यों नहीं?” वे बोले,

“नहीं, यहाँ ज़ुबाँ दी है, मैंने भी और उन्होंने भी” वे बोले,

”अच्छा!” वे बोले,

“वे मुझसे ज़ुबाँ लेके गये हैं और अपनी ज़ुबाँ देके गए हैं!” मैंने कहा,

“वो तो ठीक है, लेकिन??” वो बोले,

“उन्हें सच्चाई बताएँगे हम” मैंने कहा,

“ओह!” वे बोले,

“हाँ” मैंने कहा,

“तब बात बन सकती है” वे बोले,

“बात ज़रूर बनेगी” मैंने कहा,

फिर हम लेट गए!

अभी सुबह होने में समय था, थोड़ी नींद और मिल जाती तो बढ़िया था,

खैर,

सो गए हम!

जब आँख खुली सुबह, तो आठ बजे थे, नितेश उठ चुका था, शर्मा जी भी उठ चुके थे, अब मैं उठा और फिर नित्य-कर्मों से फारिग हुआ, तब चाय-नाश्ता आ गया, चाय-नाश्ता करने लगे हम, अब मैंने सभी को बुला लिया वहाँ, अशोक जी चकित थे! सभी आ गए वहाँ, और फिर मेरे कहने पर शर्मा जी ने रात वाली बात बता दी सभी को! चैन की सांस ली सभी ने! नितेश अब उनके चंगुल से पूरी तरह से आज़ाद था! लेकिन! अब एक सवाल था! सबसे अहम्! सेठ छेदी लाल!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैंने उनसे सेठ छेदी लाल के बारे में पूछा, कोई नहीं बता सका, कोई बूढा-बुज़ुर्ग मदद कर सकता था, पता करने पर पता चला कि वहाँ पड़ोस में हैं एक बाबा, करीब पिचानवें साल में हैं वो, उनको पता हो क्या पता?

चाय-नाश्ता करने के बाद हम उन बुज़ुर्ग के पास गए, वे लेते हुए थे, नमस्कार हुई, फिर उन बुज़ुर्ग के बेटे से बात हुई, उनको बताया गया, फिर उन्होंने अपने पिता जी से उस सेठ छेदी लाल के बारे में पूछा, बाबा ने सुना और फिर सहारा लेकर बैठ गए! उन्होंने बता उस सेठ के बारे में, वे जानते तो थे, नाम पहचान गए थे, लेकिन उन्होंने देखा नहीं था, बस इतना पता था कि सेठ छेदी लाल के यहाँ अब तक कि सबसे बड़ी डकैती पड़ी थी! तब उनकी उम्र कोई आठ-दस बरस रही होगी, उनके पिता जी आदि बात करते थे तो उन्हें याद है, हाँ, वो पंडित रामसरन और बलदेव के बारे में नहीं बता सके! खैर, अब एक सूत्र हाथ लगा, कि सेठ छेदी लाल करीब सौ साल पहले हुआ करते थे, उनके यहाँ उस वक़्त सबसे बड़ी डकैती पड़ी थी, वो भी तीज के त्यौहार के दिन! ये सही पता चल गया था! हमने बाबा से नमस्ते की और उनके घर से आ गए बाहर!

हम घर लौट आये!

सौ साल पहले हुई लूट के माल को अब ढूंढने आये थे वे डकैत!

यही है रहस्य!

कि इतने साल कहाँ रहे?

यहीं विज्ञान अपना गुणा-भाग करता है!

यहीं पेंच निकाले जाते हैं!

यहीं उपहास उड़ाया जाता है!

मैं बताता हूँ कि ऐसा क्यों होता है!

जब किसी की अचानक से मृत्यु होती है और उसकी कारण का पता नहीं रहता, वो अपने आपको जीवित ही समझता है! उसका विवेक उसके साथ नहीं रहता! सोचने समझने की शक्ति भी नहीं रहती! बस यूँ समझ लीजिये कि उस समय केवल वो उसी काल के खंड में फंस के रह जाते हैं और क्षण प्रत्येक क्षण उसी में जीते हैं! इसी को भटकाव कहते हैं! उन्हें लगता है वो सही हैं! वे वैसा ही करते है जैसा एक जीवित व्यक्ति करता है! उनके लिए आज भी वही दिनांक है जो उस दिन था, कल भी और भविष्य में भी! अब रही सौ वर्ष की बात, तो वर्ष या काल अब


   
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श्रीशः उपदंडक
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उनके लिए मायने नहीं रखता! कहीं विश्राम किया, कहीं छिपे और कहीं सोये, इसी में कई बार सैंकड़ों वर्ष बीत जाया करते हैं! ऐसा ही इनके साथ भी हुआ! इनकी मृत्यु अचानक से ही हुई होगी! जैसे कहीं डूबकर, या पीछे से वार कर अचानक, या किसी धमाके में, कुल मिलकर उनको कारण ज्ञात नहीं, कोई ऐसा कारण जिसके कारण वे मृत्यु को प्राप्त हुए हों!

अब?

अब मेरे सामने एक और प्रश्न मुंह बाए खड़ा था!

वो!

बैसा की हवेली!

वहीँ जाना था मुझे कल!

और मैं जाऊँगा भी!

शर्मा जी के साथ!

वो दिन हमने काटा किसी तरह! शाम को महफ़िल सजाई! खाया-पिया! और फिर आराम से फन्ना के सो गए!

अगले दिन!

दोपहर बीती, शाम हुई!

और फिर ढली रात!

बैसा की हवेली जाने का समय हो गया!

अब मैंने अपना बैग खोला,

उसमे से अपना तंत्राभूषण निकाले, स्व्यं धारण किये और शर्म अजी को भी धारण करवा दिए, और फिर नमन करने के पश्चात हम चले दिए उस बैसा की हवेली के लिए! जहां हमको वो राम लुभाया मिलने वाला था! मैंने मोटरसाइकिल स्टार्ट की, शर्मा जी को बिठाया, लाइट जलायी और चल दिए घुप्प अँधेरे को चीरते हुए, दस बजे का समय था वो!

हम करीब पच्चीस मिनट में वहाँ पहुँच गए!

मैंने एक जगह रुक कर, कलुष-मंत्र पढ़ा और दोनों के नेत्र पोषित कर लिए! और फिर धीरे धीरे चल पड़े, एक जगह हमने मोटरसाइकिल रोक दी, ताला लगा दिया और वहीँ खड़े हो गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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दस-पंद्रह मिनट बीते,

हम आगे बढ़े,

और तभी मुझे सामने कोई खड़ा दिखायी दिया!

हम वहीँ चल पड़े!

वहाँ पहुंचे!

ये राम लुभाया था!

“आओ” उसने कहा,

हम चल पड़े उसके साथ,

वो आगे आगे और हम पीछे पीछे,

वो हमको एक टूटे से खंडहर में ले गया, केवल चांदनी का प्रकाश था वहाँ, और कुछ भी नहीं, झींगुर तान छेड़े हुए थे! झाड़-झंखाड़ से बचते बचाते हुए हम एक जगह पहुंचे!

कमाल था!

वो जगह तो रौशन थी!

हंडे जल रहे थे!

चहल-पहल थी वहाँ!

जैसे कोई आयोजन हो!

“आओ” वो बोला,

हम चले आगे!

वो एक गलियारे से होता हुआ एक अहाते में आ गया!

और!

वहाँ तो जैसे डाकुओं की पूरी टोली थी! सारे डील-डौल वाले! तलवार आदि हथियार लिए! सभी चेहरे पर बुक्कल मारे! जो कुछ बोलता वो बुक्कल हटाता और बात करता! कम से कम पच्चीस तो होंगे ही वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“बैठो” वो बोला,

हम बैठ गए!

हाथ लगा के देखा तो ये एक टाट सा था! सूती टाट, दरी सा!

तभी मेरे सामने दो गिलास रखे गये!

उनमे कुछ तरल परोसा गया!

गंध आयी तो ये शराब थी! उम्दा पुरानी शराब! समझते ही देर न लगी कि ये भी लूट की ही होगी! अब डाकू तो खरीदने से रहे!

“लो” उसने कहा,

हमने गिलास उठाये!

“पियो” उसने हंसते हुए कहा,

मैंने गिलास उठाया, और आधा खींच गया! गला भर्रा गया! बहुत तीखी थी वो शराब! मैंने शर्मा जी को देखा, वो भी आधा गिलास खींच गये थे!

 

शराब बहुत तीखी थी! अंदर तक हिला गयी! लेकिन स्वाद में बहुत बढ़िया थी, खुश्बू उसकी ऐसी कि जैसे दही और शहद आपस में मिलाये गए हों! मैंने बचा हुआ गिलास भी खाली कर दिया! शर्मा जी भी गटक गए!

तभी किसी ने ताली बजायी!

तीन बार!

सभी चुप हो गए!

और फिर एक ने सामने एक गठरी फेंकी!

वहाँ बैठे एक आदमी ने वो गठरी उठायी, एक तसला लिया, पीतल का तसला, और वो गठरी खोल दी उसमे! आभूषण निकले उसमे से! सोने, चांदी के! कीमती पत्थर और कुछ छोटी छोटी मूर्तियां, सभी सोने की बनी हुईं!

कम से कम कोई दो ढाई किलो सोना होगा वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ताली बज उठीं!

अब समझा!

ये तो नुमाइश लगी थी!

अपनी अपनी लूट की!

फिर उस आदमी ने वो सारा सामान उसी गठरी में डाल दिया, बाँध दिया और जिसकी थी, उसको दे दिया!

मैं ये देख हैरान रह गया!

प्रेतों के पास ऐसा माल!

कमाल है!

“लो” राम लुभाया की आवाज़ गूंजी,

मैंने देखा,

उसने गिलास भर दिए थे फिर से!

“पियो” वो बोला,

“एक बात बताओ, राम लुभाया?” मैंने पूछा,

“पूछो?” उसने कहा,

“ये हवेली किसकी है?” मैंने पूछा,

“बैसा की” वो बोला,

“बैसा कहाँ है?” मैंने पूछा,

“वो” उसने कहा,

मैंने देखा,

एक पहलवान!

कद्दावर आदमी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कसरती जिस्म!

कम से कम सात फीट का!

घोड़े जैसी देह उसकी!

“अच्छा!” मैंने कहा,

दरअसल ताली बैसा ने ही बजायी थी!

“तो ये बैसा आपका सरदार है?” मैंने पूछा,

“हाँ” उसने कहा,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“वैसे क्या करता है बैसा? दिखाने को?” मैंने पूछा,

वो समझ गया!

मुझे देख मुस्कुरा गया!

“जिमीदार है!” उसने कहा,

जिमीदार! यही बोला वो! यानि ज़मींदार!

“अच्छा!” मैंने कहा,

“हाँ!” उसने कहा,

तभी एक और खड़ा हुआ, अपने कंधे पर एक बोरा लिए,

उसकी मदद को दूसरा भी खड़ा हुआ,

और फिर दो आदमियों ने वो बोरा ले लिया,

उस बड़े से तसले के पास रखा,

उसमे से दो पोटलियाँ निकलीं!

वो खोली गयीं!

और!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अथाह दौलत! सोना! चांदी! बर्तन! मूर्तियां! एक छोटा झूला! सोने की छड़ें!

कहीं मोटा हाथ मारा था उन डाकुओं ने!

सभी अवाक रह गए!

सभी एक एक सामान देखने लगे उठा उठा कर!

उनका देखने का तरीक़ा बड़ा बढ़िया था!

वे अपने बगल वाले को देते वो सामान, पहले खुद देखते, फिर बगल वाले को देते, फिर वो अपने बगल वाले को, ऐसे ही मेरे हाथ में भी वो सामान आया, सोने की एक मूर्ति, ये हाथी था, कम से कम किलो भर का होगा, नीले रंग से काम किया गया था उस पर! बेहतरीन कलाकृति थी वो! ऐसे और भी सामान!

मैं सन्न!

शर्मा जी भी सन्न!

बैसा के पास अथाह दौलत थी!

दिन में ज़मींदार और रात को डाकुओं का सरदार!

तभी राम लुभाया ने अपनी जेब में हाथ मारा,

और कुछ सूखे मेवे निकाले,

“लो” वो बोला,

मैंने लिए,

उसने शर्मा जी को भी दिए,

मैंने खाये!

“ये लो?” उसने गिलास उठा के दिया,

मैंने लिया,

और फिर आधा ख़त्म कर दिया!

गर्मी आ गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मदिरा टक्कर मारने वाली थी, थोड़ी ही देर में!

फिर से ताली बजी!

मैंने वहीँ देखा,

एक ने एक पोटली दी,

उस तसले में रख दी गयी!

खोला गया,

टन्न टन्न की आवाज़ गूँज उठी!

वे हीरे-जवाहरात थे!

बहुमूल्य!

झिलमिला रहे थे!

सभी ने देखे!

एक एक करके!

एक मेरे पास भी आया,

बढ़िया, एकदम शफ्फ़ाफ़ हीरा, वास्तव में बड़ा, कोई दो सौ ग्राम का!

मुंह खुला रह गया!

मेरा भी और शर्मा जी का भी!

ये राजस्थान की भव्य दौलत थी!

कैसा होगा मेरा देश उस समय!

इतनी दौलत!

इसीलिए फिरंगी यहाँ आये थे!

अथाह धन-सम्पदा!

ये तो भारत के एक हिस्से की थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“लो?” उसने फिर से कहा,

मेवे दिए मुझे,

मैंने लिए,

शर्मा जी ने भी लिए,

फिर मैंने बचा हुआ गिलास भी खाली कर दिया!

टक्कर लगी!

डकार आयी!

लेकिन मजा आ गया!

शराब गहरे काले रंग की थी!

फिरंगी शराब थी! खुशबूदार!

फिर से ताली बजी!

मैंने वहीँ देखा!

कोई उठा!

ये कोई औरत थी!

बड़ी लम्बी-चौड़ी औरत थी! तलवार म्यान में डाले हुए!

आँखें जम गयीं उस पर!

उसन इक झोला आगे बढ़ाया!

तसले में रखा गया!

और फिर खोला गया!

सोने के सिक्के!

बेहिसाब! बड़े बड़े! आँखें फटी की फटी रह गयीं!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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सभी वाह वाह कर उठे!

मैंने वैसे सिक्के पहली बार देखे थे, शायद खुद ही ढाले गये थे! कम से कम बीस किलो तो होंगे ही! फिर उसके सामान को भर दिया गया वापिस और उसको दे दिया गया!

“ये लो” फिर से राम लुभाया की आवाज़ आयी!

मैंने देखा, गिलास फिर से भर दिए गये थे!

मैंने और शर्मा जी ने एक दूसरे को देखा, हलकी सी मुस्कुराहट आयी! फिर अपने अपने गिलास पकड़ लिए!

लेकिन अब तक मदिरा कोहराम मचाने लगी थी पेट में!

“राम लुभाया?” मैंने कहा,

“हाँ?” वो बोला,

“कुछ खाने को मिलेगा?” मैंने पूछा,

“हाँ, क्यों नहीं” उसने कहा और हंसा!

अब अगर एक गिलास और अंदर जाती तो यक़ीनन बाहर आ जाती! इसीलिए मैंने कुछ खाने को माँगा था!

उसने अपने एक साथी को कहा,

वो झुका और कान में सुना,

फिर चला गया,

थोड़ी देर में आया,

एक तश्तरी लेकर!

उसमे भाप उड़ता हुआ कुछ था! खुश्बू उसी तो पता चला वो चावल थे, मसालेदार चावल! उसमे मटर और गोभी भी पड़ी हुई थी, मैं तो उस तश्तरी को देखकर चौंक गया! वो इतना सामान था कि मेरे जैसे चार आदमी खा लें और फिर भी बच जाए! उसने वो तश्तरी नीचे रखी, हमारे सामने, और मैंने थोड़ा सा लिया उसमे से, बेहद गरम था! बेहद गरम!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण! जब आप ऐसी किसी केहफ़ील में हों, और आपको पता ही न हो कि ये प्रेतों की महफ़िल है, आप नहीं पता लगा सकते! वे जीवित होते हैं, उनको छुओगे तो स्पष्ट रूप से वो भौतिक अवस्था में ही होंगे! आपको रत्ती भर भी आभास नहीं होगा! मेरे पास कई ऐसे लोग आये जिन्होंने गाँव के बाहर बारात जाती देखी तो कुछ खाने को मिल गया! पेट भर खाया, डकार आने तक! और फिर कुछ रख भी लिया बाँध कर, सुबह हुई तो खोला, क्या निकला? राख! ऐसी ही ये महफ़िल थी! ये चावल क्या थे, मैं जानता था, लेकिन मेरा ये पहला साबका नहीं था, मैं पहले भी देख चुका था!

और तभी फिर से ताली बजी!

एक लम्बा-चौड़ा आदमी उठा, भारी सा सामान लिए! उसके सामान को दो आदमियों ने पकड़ा! सामान खोला गया! उसमे कीमती वस्त्र और सोने के आभूषण निकले! बढ़िया लूट थी उसकी ये!

सभी ने वाह वाह की! कुछ और भी बोले, मुझे समझ नहीं आया! कोई कूट-भाषा रही होगी शायद!

“ये तो लो?” फिर से उसने कहा,

“हाँ!” मैंने कहा,

अब मैंने एक बार में ही गिलास खाली कर दिया! हाँ, शर्मा जी ने नहीं लिया था अभी तक! वो बोतल अब खाली सी हो चुकी थी!

अब शर्मा जी ने अपना गिलास उठाया और खाली कर दिया! नशे ने ज़ोर मारा! मारना ही था, शायद वो बोतल काफी पुरानी थी! रीढ़ की हड्डी तक झुरझुरी सी दौड़ गयी!

“मजा आ गया!” मैंने राम लुभाया के कंधे पर हाथ मारते हुए कहा,

वो हंसा!

“और?” उसने कहा,

“नहीं बस!” मैंने कहा,

“अभी कहाँ?” उसने कहा,

“नहीं, बस!” मैंने कहा,


   
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