मैं फिर रुका,
अब मैं उनसे कोई छह फीट दूर था, वहाँ झाड़-झंखाड़ थे, कुछ जंगली रमास के पेड़ थे, बर्रे उड़ रहे थे, शायद छत्ता था उनका वहाँ,
“कौन हो तुम लोग?” मैंने पूछा,
उन्होंने मुझे देखा,
ऊपर से नीचे तक!
“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,
“राम लुभाया” उसने कहा,
“उस लड़के को क्यों पीटा?” मैंने पूछा
“पता नहीं बता रहा” वो बोला,
“किसका पता?” मैंने पूछा,
“बलदेव का” वो बोला,
“कौन है ये बलदेव?” मैंने पूछा,
अब उनसे अपने तीनों साथियों को देखा,
उनमे से एक आया आगे,
पहलवान!
बड़ा ताक़तवर!
“बलदेव के पास हमारा कुछ सामान है” उसने कहा,
“क्या सामान?” मैंने पूछा,
“है सामान” उसने कहा,
“मुझे बताओ?” मैंने पूछा,
वो चुप!
अब दूसरा आगे आया,
“पंडित रामसरन कहाँ रहते हैं?” उसने पूछा,
“यहाँ कोई पंडित रामसरन नहीं” मैंने कहा,
“है कैसे नहीं?” उसने गुस्से से कहा,
“नहीं हैं” मैंने कहा,
“तूने कही और हमने मानी!” वो बोला,
अब चारों हँसे!
ठहाका सा मारते हुए!
“बता?” उसने अब मुझसे पूछा,
“क्या?” मैंने पूछा,
“पंडित का पता बता?” उसने पूछा,
“पंडित का पता? किसलिए?” मैंने पूछा,
“वो ले जायेगा हमको बलदेव के पास” वो बोला,
ये बलदेव को ढूंढ रहे थे, पंडित जी को उसका पता था, अब मुझसे पूछने लगे थे! अब पक्का था, ये कोई डाकू ही हैं, कोई लुटेरे! और वो सामान ज़रूर कोई लूट का ही होगा! जिसको ये ढूंढ रहे हैं!
“बलदेव के पास क्या सामान है?” मैंने पूछा,
“है” उसने कहा,
“बताओ तो?” मैंने पूछा,
“क्यों बताऊँ?” उसने पूछा,
“फिर मैं कैसे बताऊंगा बलदेव का पता?” मैंने पूछा,
“तुझे पता है?” उसने पूछा,
“मुझे बताओ कुछ, फिर हो सकता है मैं पता लगा लूँ?” मैंने कहा,
“उसकी एक लड़की है, वो हमारे गाँव में ब्याही है, बलदेव से हमारी दोस्ती है, दोस्त है हमारा वो” उसने कहा,
“कौन सा गाँव है?” मैंने पूछा,
“बोहड़ा” उसने कहा,
ये नाम तो मैंने पहली बार सुना था!
“अब याद आया?” उसने पूछा,
“नहीं” मैंने कहा,
वो मुझे देखें!
मैं उन्हें!
“उसका एक भाई है, वीर सिंह, छोटा भाई” वो बोला,
मुझे कैसे पता होता!
“अच्छा, मुझे सामान बताओ, क्या सामान है?” मैंने पूछा,
अब दूसरा आगे आया,
“तू भेदिया तो नहीं है?” उसने पूछा,
“नहीं” मैंने कहा,
“माल है हमारा, सोना-चांदी, पत्थर!” वो बोला,
यही मैंने भी अनुमान लगाया था!
”अच्छा!” मैंने कहा,
“अब बता?” उसने पूछा,
“बताता हूँ” मैंने कहा,
और थोडा सा आगे आया मैं! उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई!
“वो बलदेव? उसके पास आपका सामान है? है न?” मैंने पूछा,
“हाँ” उसने कहा,
“अब वो तुमको वापिस चाहिए?” मैंने कहा,
“हाँ” वो बोला,
“तो ये पंडित जी कौन हैं?” मैंने पूछा,
“वो सामान हमने पंडित को ही दिया था, बलदेव को देने को” वो बोला,
“अच्छा! समझ गया!” मैंने कहा,
“हाँ! अब बता?” उसने पूछा,
“देखो, यहाँ अब वो पंडित जी नहीं रहते, वो चले गये यहाँ से, और न ही बलदेव यहाँ रहता, वो भी नहीं है, कहीं चला गया होगा” मैंने कहा,
“ऐसा नहीं हो सकता” वो बोला,
“क्यों?” मैंने पूछा,
“वो यहीं पूजा करता है” वो बोला,
“कहाँ?” मैंने पूछा,
“यहाँ” उसने कहा,
वाक़ई वहाँ एक ध्वस्त मंदिर था!
“अच्छा!” मैंने कहा,
“अब बता?” उसने कहा,
अब क्या बताऊँ?
मैंने फिर बात घुमाई!
“आप सभी बोहड़ा से हो?” मैंने पूछा,
“हाँ” वे बोले,
“कहाँ मारी डकैती?” मैंने दबी सी आवाज़ में पूछा,
वे चुप!
अवाक!
गुस्से में!
“बताओ तो?” मैंने पूछा,
कोई न बोला!
“डाका मारा था की नहीं?” मैंने पूछा,
“नहीं” एक बोला,
“तो वो माल?” मैंने पूछा,
फिर से चुप!
“अब बता दो!” मैंने कहा,
वे पीछे हटे!
सभी!
“क्या हुआ?” मैंने फिर से पूछा,
“हाँ, डाका मारा था” एक बोला,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“तो राम लुभाया जी, अब वो माल आपको नहीं मिलेगा!” मैंने कहा,
मैंने इतना कहा और उस तलवार वाले ने तलवार निकाल ली, मैं पीछे हुआ! वार तो वो क्या करता, लेकिन मैं देखना चाहता था उनका खेल!
“तेरी गरदन उड़ा दूंगा मैं अभी!” उसने कहा,
मैं हंसा!
“अच्छा?” मैंने कहा,
उसने गुस्से से देखा!
“मेरी गरदन उड़ाएगा न तू?” मैंने पूछा,
“यहीं धड़ से अलग कर दूंगा, सर साथ ले जाऊँगा!” वो बोला,
“अच्छा!” मैंने कहा,
इतने में दूसरे ने अपशब्द कहे और उस तलवार वाले ने मुझपर वार किया! जैसे ही वो तलवार मुझसे टकरायी वो जाकर गिरा बहुत दूर पीछे!
सन्न!
वे सब!
सभी!
तीनों भाग निकले!
अपने साथी तक पहुंचे!
वो खड़ा हो गया था,
हाँ, तलवार गिर गयी थी कहीं!
मैं भाग उनकी तरफ!
वो वो मुझे आता देखा, लोप हुए!
चले गए!
तलवार!
वो कहाँ है?
मैं वहीँ गया,
आसपास देखा,
लेकिन कुछ नहीं था वहाँ!
जैसे वो भी लोप हो गयी थी!
इस सब के बीच ख़राब चालीस मिनट लगे थे! वे लोग बस मुझे ही देख रहे थे और किसी को नहीं! अब मैं वापिस आया वहाँ से, उनके पास, नितेश ने सबकुछ देखा था, क्योंकि नितेश पहले से ही उनको देख रहा था, वो स्तब्ध था! डरा हुआ!
अब मैंने सारी बात उनको बता दी!
शर्मा जी को छोड़कर सभी घबरा गए!
“वे फिर आयेंगे?” अशोक जी ने पूछा,
“ज़रूर आयेंगे!” मैंने कहा,
“ओह!” वे बोले,
अब शर्मा जी ने वापिस चलने को कहा,
हम चलने लगे,
तभी अशोक जी रुके,
“वैसे जब उनका ये हाल हुआ तो वो अब कैसे आयेंगे? जान नहीं गए होंगे?” उन्होंने पूछा.
“प्रेत इतनी आसानी से हार नहीं मानते!” अब शर्मा जी बोले,
“और फिर यहाँ उनका माल भी है!” मैंने कहा,
“अच्छा!” वे बोले,
“लेकिन खतरा है अभी नितेश को” अशोक जी ने कहा,
“हाँ, ये तो है” मैंने कहा,
अब नितेश डरा!
मैंने हिम्म्त बंधाई उसकी!
और फिर मोटरसाइकिल स्टार्ट हुईं,
हम बैठे,
और चल पड़े वहाँ से!
घर पहुंचे,
अशोक जी ने सारा हाल कह सुनाया!
घर में भय का माहौल छा गया!
शर्मा जी ने समझाया अब!
अब मैंने नितेश से कह दिया, कि अब वो हमारे कमरे में ही सोये, वो मान गया,
मानना ही था!
मजबूरी थी!
उस शाम बहुत सवाल किये उनके भाइयों ने! मैंने सब को उनके उत्तर दिए! वे सभी भी अब भय खा गए! लेकिन फिर मैंने उनको आश्वस्त किया!
रात हुई!
हमने खाना खाया और लेट गये!
उस रात नितेश हमारे कमरे में ही सोया, मैंने बराबर नज़र रखी, उस रात कुछ नहीं हुआ, पौ फटी तो चैन आया, मैं उठा, और शर्मा जी को भी उठाया, नितेश को भी जगा लिया, फिर मैं और शर्मा जी एक एक करके स्नान करने चले गये, स्नानादि से फारिग हुए, और फिर चाय आ गयी, हमने चाय पी, और फिर हल्का-फुल्का नाश्ता किया!
तभी अशोक जी आ गए वहाँ!
“हाँ नितेश?”
“जी?” वो बोला,
“कैसी कटी रात?” उन्होंने पूछा,
“ठीक” वो बोला,
“कोई दिक्क़त-परेशानी तो नहीं हुई?” उन्होंने पूछा,
“नहीं” वो बोला,
“डर तो नहीं लगा?” उन्होंने पूछा,
“नहीं” वो बोला,
“जब गुरु जी हैं तो लगेगा भी नहीं” वे बोले,
“हाँ” वे बोले,
उसके बाद हम बैठे रहे, बातें करते रहे,
फिर अशोक और नितेश चले गए,
रह गए मैं और शर्मा जी,
“गुरु जी?” उन्होंने पूछा,
“हाँ?” मैंने कहा,
“वे डाकू हैं?” उन्होंने पूछा,
“हाँ, बेशक़!” मैंने कहा,
“तो ये माल डाके का है!” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
“उन्होंने डाका मारा होगा, बचने के लिए, वो माल दिया होगा पंडित रामसरन को, रामसरन को कहा गया होगा कि वो माल दे दे बलदेव को! वो बाद में आकर ले लेंगे!” वे बोले,
“हाँ, यही कहानी है” मैंने कहा,
“अब ये नहीं पता कि वो माल कहाँ है?” उन्होंने कहा,
“माल तो छोडो, बलदेव और पंडित जी का भी पता नहीं!” मैंने कहा,
“किसी तरह से जाना जा सकता है?” उन्होंने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“वो, आमद से?” उन्होंने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“टेढ़ी खीर है” वे बोले,
“ये तो है” मैंने कहा,
“अब ये डाकू, क्या नाम बताया? राम लुभाया!, ये सरदार है इनका, अब ये माल ढूंढ रहे हैं!” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
“इतिहास वर्त्तमान में आया है” वे बोले,
“यक़ीनन” मैंने कहा,
“अब बताओ कहाँ मिलेगा माल?” वे बोले,
“माल तो मिलने से रहा, लेकिन ये नितेश के पीछे पड़े हैं, इस नितेश का पीछा छुड़वाना है किसी तरह से भी” मैंने कहा,
“हाँ, नहीं तो मार ही डालेंगे इसको” वे बोले,
“हाँ” मैंने कहा,
“एक बात सोचिये, वो माल लिया होगा पंडित जी ने, अब दिया हो या न दिया हो, कैसे पता? और दूसरी सबसे अहम् बात, वे इस नितेश के पीछे ही क्यों लगे?” उन्होंने पूछा,
“भूलवश!” मैंने कहा,
“भूलवश?” उन्होंने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“कैसे?” उन्होंने पूछा,
“प्रेत आकर्षित होते हैं मिलने-जुलने से, नितेश का चेहरा-मोहरा किसी से मिलता होगा, जिसे ये जानते होंगे!” मैंने कहा,
“ओह, ये मारा गया बेचारा!” वे बोले,
“हाँ, फंस गया उनके बीच!” मैंने कहा,
“क्या लगता है, वो आयेंगे?” उन्होंने पूछा,
“ज़रूर आयेंगे!” मैंने कहा,
“कैसे?” उन्होंने पूछा,
“वे माल के लिए आये हैं, और उनको लगता है कि माल का पता ये नितेश बता सकता है, इसीलिए” मैंने कहा,
”अच्छा” वे बोले,
“हाँ” मैंने कहा,
“मामला गम्भीर हैं” वे बोले,
“बहुत गम्भीर” वे बोले,
फिर अशोक जी आये,
वहाँ बैठे,
“खाना लगवा दूँ?” उन्होंने पूछा,
“लगवा दीजिये” मैंने कहा,
“ठीक है” वे बोले,
और उठे और चले गये बाहर,
थोड़ी देर में खाना लगवा दिया गया,
हमने भोजन करना आरम्भ किया,
और भोजन कर लिया!
हाथ-मुंह धोये और तौलिये से पोंछे, और फिर से बैठ गए!
“अशोक जी?” मैंने पूछा,
“हाँ जी?” वे बोले,
“चलो आज शहर चलते हैं, थोडा घूम भी आयेंगे” मैंने कहा,
“बस अभी चलते हैं” वे बोले,
और फिर कुछ ही देर में हम चल पड़े शहर के लिए, वहाँ घूमे थोड़ा बहुत और कुछ नमकीन आदि खाया, फिर कुछ सामान खरीद लिया, ये रात के लिए महफ़िल सजाने में काम आना था! करीब डेढ़ दो घंटे के बाद हम वापिस हुए वहाँ से अब!
वापिस घर पहुंचे!
और फिर आराम किया!
हम कमरे में बैठे तो नितेश भी आ गया!
“आओ बैठो” मैंने कहा,
“गुरु जी?” वो बोला,
“हाँ?” मैंने कहा,
“क्या चाहते हैं वो मुझसे?” उसने पूछा,
“पता पूछना!” मैंने कहा!
“लेकिन मुझे पता नहीं पता!” वो बोला,
“पता है! मुझे पता है!” मैंने कहा,
नितेश ने मुझसे देखा,
मैंने उसे!
“नितेश, घबराओ मत!” मैंने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा,
“जी” वो बोला,
“मैं हूँ आपके साथ” मैंने हिम्मत बंधवाई,
मुझे तरस आ गया नितेश की हालत पर!
“मत डरो, कुछ नहीं होगा” मैंने कहा,
“जी” वो बोला,
फिर चुपचाप बैठ गया!
सभी परेशान थे उसकी ये हालत देखकर!
उसकी हालत वाक़ई में बहुत खराब हो चली थी, उसको हर पल यही लगता था कि कोई उसको देख रहा है, कोई लगातार नज़र रखे हुए है, और मौक़ा पड़ते ही कोई उस पर हमला कर देगा और फिर तब न जाने क्या हो! मामला वाक़ई गम्भीर था, वे क्यों आ रहे थे, ये तो पता चल गया था, लेकिन उन्होंने नितेश को अपना शिकार बनाया था, और अब उसकी जान पर आ बनी थी! मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि सीधे सीधे क्या किया जाए? मानते वे क़तई नहीं, आक्रामक थे वे सभी! समझने को तैयार ही नहीं! कोई न कोई रास्ता अवश्य ही निकाला जाना चाहिए था! और यही मैं ढूंढ रहा था!
रात हुई,
भोजन तो कर ही लिया था हमने, अब केवल आराम करना था! नितेश हमारे ही कमरे में सो रहा था, उसका तख़त बिछा दिया गया था वहाँ पहले ही! दूसरे लोगों को कह दिया गया था कि कोई भी बाहर न निकले रात में, भले कुछ भी हो! करीब ग्यारह बज गए बातें करते करते, अब मैंने सोने की कही, और फिर सभी सो गए, कोशिश की तो आँखें भारी हो गयीं, नींद आ गयी!
देर रात में, लगा कि कोई छत से नीचे कूदा है, आवाज़ इतनी तेज थी कि मेरी और शर्मा जी की नींद खुल गयी, नितेश सोता ही रहा, सही था, नहीं तो भय के मारे काँप जाता!
फिर कोई दूसरा भी कूदा!
दरवाज़े के बाहर जूतियों की चर्रम-चर आवाज़ गूंजी, कोई चहलकदमी कर रहा था, मेरी और शर्मा जी की आँखें वहीँ टिक गयीं! कान वहीँ गड़ गए! मैं दरवाज़े तक आया, दरवाज़े की झिरी से बाहर झाँका, ये वही दोनों थे, दरवाज़े के सामने खड़े थे, कुछ बतिया रहे थे, मैंने घड़ी देखी, तीन से थोड़ा पहले का वक़्त था, दूर अहाते में लगा बल्ब जल रहा था, उसकी मद्धम रौशनी में ये सब खेल हो रहा था! दो सामने थे और बाकी दो शायद छत पर थे!
मैंने शर्मा जी के कंधे पर हाथ रखा, उनको वहीँ खड़े रहने को कहा, और ताम-विद्या जागृत की, उस से अपने कंधे और छाती फूंकी और मैं झट से दरवाज़ा खोल दिया, अब वो मुझे भी नज़र आ रहे थे, बिना कलुष मंत्र के!
मैंने दरवाज़ा खोला और वे सामने खड़े थे, अहाता काफी बड़ा था! उन्होंने मुझे देखा और मैंने उन्हें! अब दोनों के हाथों में तलवार थीं! मुझे देखा तो चौंक पड़े! मैं आगे बढ़ा! वो पीछे हटे!
“डरो नहीं!” मैंने कहा,
मैं आगे बढ़ा,
वे पीछे हुए,
मैंने अपने कमरे के ऊपर देखा, छत पर दो आदमी खड़े थे! ये वही थे!
मैं और आगे बढ़ा,
वे फिर हटे,
“डरो नहीं!” मैंने कहा,
राम लुभाया झटका खा चुका था, उसको याद था वो!
मैं थोड़ा सा आगे आया,
वे फिर हटे!
“घबराओ नहीं, मैं बात करना चाहता हूँ” मैंने कहा,
फिर आगे बढ़ा,
अब नहीं हटे वो,
“बोलो?” उसने पूछा,
“एक बात बताओ, क्यों इस के पीछे पड़े हो? इसको कुछ नहीं पता, सच में ही नहीं पता” मैंने कहा,
“इसको हमारे माल के बारे में पता है” वो बोला,
“उसको नहीं पता” मैंने कहा,
“नहीं, पता है” वो बोला,
“नहीं पता, मैं झूठ क्यों बोलूंगा?” मैंने कहा,
“फिर तुमको पता है?” उसने पूछा,
“नहीं पता मुझे भी” मैंने कहा,
“ऐसा नहीं हो सकता” वो बोला,
अब मैंने और कुरेदने की सोची! इस से मुझे उनको यक़ीन दिलाने में मदद मिलती, हो सकता है कि वो ऐसे ही मान जाएँ!
“अच्छा एक बात बताओ?” मैंने पूछा,
“पूछो?” उसने कहा,
“माल कब लूटा, कब मारा डाका?” मैंने पूछा,
दोनों ने एक दूसरे को देखा!
“मुझपर विश्वावस करो, कुछ नहीं होगा, मैं किसी को नहीं बताऊंगा” मैंने कहा,
“जुबां देते हो?” उसने पूछा,
“हाँ, देता हूँ” मैंने कहा,
“तीज के दिन” वो बोला,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“किसके यहाँ?” मैंने पूछा,
“इसी गाँव में” वो बोला,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“किसके यहाँ?” मैंने पूछा,
“सेठ छेदी लाल के यहाँ” वो बोला,
एक और नया नाम मिला!
सेठ छेदी लाल!
“ये बतायी न बात!” मैंने कहा,
उन्होंने एक दूसरे को देखा!
“त्यौहार के दिन ही माल उड़ा लिया!” मैंने कहा,
“हाँ” वो बोला,
