हम पांच आदमी थे वहाँ, एक पुरानी सी हवेली के पीछे की ओर चले जा रहे थे हम! शाम का समय था, मौसम भी गरम था, लेकिन वहाँ गर्मी इतनी नहीं लग रही थी, वो इलाका वैसे तो उजाड़ था लेकिन जिस वजह से मैं यहाँ आया था उसके अनुसार यहाँ अभी भी पुरानी चहल-पहल थी! पुरानी चल-पहल! समझे आप? मतलब कि अभी भी वहाँ कुछ रूहें थीं, जो यहाँ भटक रही थीं! ये भी ऐसा ही मामला था! मेरे साथ शर्मा जी, नितेश जी, और उनके दो छोटे भाई थे, हम वहाँ पहुंचे, और नितेश रुक गए!
“ये है जी वो जगह” वो बोले,
मैंने आसपास देखा,
झाड़-झंखाड़ और टूटे-फूटे खंडहरों के अलावा कुछ नहीं था वहाँ!
“यहाँ भिड़े थे आपसे वो?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
ये कोई पुराना सा रास्ता था, पत्थर बिछे हुए थे वहाँ! दूर सूखी और निर्जन पहाड़ियां थीं! और कुछ नहीं था वहाँ!
हाँ, सांप और अन्य कीड़े-मकौड़ों की नहीं कह सकता मैं!
अब बताता हूँ कि हुआ क्या था वहाँ!
दिल्ली में एक शाम की बात है, मैं और शर्मा जी बैठे हुए थे, तभी मेरे एक जानकार अशोक जी का फ़ोन आया मेरे पास, उन्होंने बताया कि उनके साले साहब के साथ एक अजीब हादसा पेश आया है, और अब वे बहुत परेशान हैं! उनका इलाज करवाया है लेकिन असर अधिक दिनों तक नहीं रहता, मैं एक बार देख लूँ उनको!
मैंने उन्हें एक बार मिलने के लिए कह दिया, कि वे ले आयें उनको दिल्ली, मैं देख लेता हूँ कि क्या समस्या है उनके साथ!
और फिर तीन दिन के बाद वे आ गए!
नितेश जी बहुत घबराये हुए थे!
मैंने उनको पानी पिलवाया!
उन्होंने पानी पिया,
“अब बताइये” मैंने पूछा,
वे सोच में डूबे!
थोड़े से विचार में डूबे,
सोच रहे थे कि कहाँ से शुरू किया जाए,
“गुरु जी” वे बोले,
“जी बोलिये” मैंने कहा,
“कोई चार महीने पहले की बात होगी ये” वे बोले और रुके,
मैंने इंतज़ार किया,
“अच्छा” मैंने ही कहा,
“मैं अक्सर अपने घर से दूर चला जाता हूँ घूमने-फिरने, खाना खान एके बाद, या कभी सुबह सुबह” वे बोले,
“ये तो अच्छी बात है!” मैंने कहा,
“जी” वे बोले,
“बताइये” मैंने कहा,
“एक शाम मैं घर से अपनी मोटरसाइकिल से निकला घूमने के लिए, हमारे वहाँ कुछ पुराने खंडहर हैं, वहाँ शांति रहती है बहुत, मैं उस रोज आगे तक निकल गया, एक जगह मोटर साइकिल खड़ी की और बैठ गया वहाँ, काफी देर बैठा रहा, फिर अँधेरा घिरा” वे बोले,
“अच्छा” मैंने कहा,
“मैंने घड़ी में समय देखा, साढ़े सात हो चुके थे, मैंने सोच कि अब चला जाए वापिस, मैंने मोटरसाइकिल स्टार्ट की, आगे चला, तो पता चला कि पंक्चर हो गया है पिछला पहिया, कुछ किया नहीं जा सकता था सो पैदल ही खींचने लगा, बहुत दिक्कत हुई” वे बोले,
“अच्छा” मैंने कहा,
“मुझे बहुत देर हो गयी, साढ़े आठ बज गए, पसीने के मारे हाल खराब हो गया, फिर में एक जगह पहुंचा, वहाँ सड़क पर चार आदमी खड़े थे, मैंने सोच वहीँ पास के ही होंगे, मैं उनके साथ से निकला, आगे तक पहुंचा ही होउंगा कि मुझे किसी ने आवाज़ दी” वे बोले,
”अच्छा!” मैंने कहा,
“मैं रुक गया” वे बोले,
“फिर?” मैंने पूछा,
“मैंने उनसे बात की, एक ने पूछा कि यहाँ बलदेव का घर कौन सा है?” वे बोले,
“बलदेव?” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
“फिर?” मैंने पूछा,
“मैंने कहा यहाँ तो कोई बलदेव नहीं है, उनको यक़ीन नहीं हुआ, उन्होंने पूछा कि यहाँ पंडित रामसरन का घर कहाँ है?” वे बोले,
“पंडित रामसरन?” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“मैंने ये नाम नहीं सुने थे, मैंने मना कर दिया, और आगे चलने लगा, तभी एक आदमी ने मेरे कंधे को पकड़ लिया, फिर बोला, तू जानता है, बता नहीं रहा? मैंने मना किया, वो नहीं माना और इतने में एक ने मुझे थप्पड़ मार दिया” वे बोले,
“थप्पड़?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“फिर?” मैंने पूछा,
“मैंने ऐतराज जताया, तो एक ने मेरे सर के बाल पकड़ कर कहा कि अगर मैं नहीं बताऊंगा तो वे मुझे मार कर गाड़ देंगे ज़मीन में, मैं डर गया, मैंने हाथ जोड़ लिए, वे नहीं माने, फिर उन चारों ने मेरी पिटाई कर डाली” वे बोले,
“ओह” मैंने कहा,
“एक ने तलवार निकाल ली, और मेरी गर्दन पर रख दी, बोला कि अगर मैंने नहीं बताया तो अबकी मार ही देंगे मुझे, मैं रो पड़ा, पाँव पकड़ लिए उनके, वे नहीं माने, फिर एक ने कहा, कि जा हम बाद में आयेंगे, पता करके रखना नहीं तो तुझे तेरे घर से ही खींच कर ले आयेंगे यहाँ” वे बोले,
इतना बोल चुप हुए वो!
मैं भी चुप!
“कौन थे वो लोग?” शर्मा जी ने पूछा,
“पता नहीं जी, लेकिन हैं वो भूत ही” वे बोले,
“कैसे पता?” मैंने पूछा,
“वो मुझे नज़र आते हैं” वे बोले,
“क्या?” मैंने पूछा,
“हाँ, वे चारों, कभी दूर खड़े, कभी छत पर, कभी चौराहे पर” वे बोले,
“ओह!” मैंने कहा,
बड़ा अजीब!
ऐसा कैसे सम्भव है?
क्या कह रहे हैं ये?
ऐसा नहीं होता,
लेकिन..
ये भी तो झूठ नहीं बोल रहे!
हो सकता है,
ऐसा हो!
बड़ा अजीब!
“अच्छा, फिर?” मैंने पूछा,
“मैं घर पहुंचा किसी तरह, घर पर भाइयों ने मेरा हाल देखा, वे गुस्सा हो गए कि कौन है ऐसा वहाँ? उन्होंने अपने साथ चार आदमी और लिए फिर लाठी-डंडा लेकर चल दिए उधर, मैं भी गया, लेकिन कोई नहीं था वहाँ, वे जा चुके थे वहाँ से” वे बोले,
“मैं समझ गया” मैंने कहा,
वे चुप हुए!
“कोई इलाज नहीं करवाया इसका?” मैंने पूछा,
“करवाया, हर जगह गया, लेकिन हफ्ते दो हफ्ते में फिर ऐसा होने लगा, मुझे डर लगता है, वे हमेशा मुझ पर निगाह रखते हैं” वे बोले,
“यहाँ तो नहीं है कोई?” मैंने पूछा,
“नहीं” वे बोले,
“रास्ते में कोई नज़र आया?” मैंने पूछा,
“नहीं” वे बोले,
“पिछली बार कब दिखे थे?” मैंने पूछा,
“एक हफ्ते पहले” वे बोले,
“कहाँ?” मैंने पूछा,
“एक पेड़ के पास” वे बोले,
“कहाँ है वो पेड़?” मैंने पूछा,
“घर से बाहर शहर जाने के रास्ते में पड़ता है” वे बोले,
“उन्होंने रोका नहीं?” मैंने पूछा,
“मैं बस में था” वे बोले,
“चारों थे?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“अच्छा!” मैंने कहा,
वे चुप!
मैं भी चुप!
“घर में भी दीखते हैं?” शर्मा जी ने पूछा,
“दो बार दिखे थे” वो बोले,
“कब?” मैंने पूछा,
“शुरू शुरू में” वे बोले,
“अच्छा” मैंने कहा,
“क्या चाहते हैं वो इनसे गुरु जी?” अशोक जी ने पूछा,
“पता!” मैंने कहा,
“कैसा पता?” उन्होंने पूछा,
“बलदेव का पता” मैंने कहा,
“कौन है ये बलदेव?” उन्होंने कहा,
“ये तो मुझे भी नहीं पता” मैंने कहा,
“गुरु जी, पीछा छुड़वाइए इनका अब, बहुत दुखी हो गए हैं ये, साथ में घर के सभी लोग” वे बोले,
“मैं देखता हूँ” मैंने कहा,
अब मैंने एक धागा पढ़ा, और उसको बाँध दिया उनके हाथ पर, अब कमसे कम कोई क्षति नहीं पहुँच सकती थी उनको,
“कब दर्शन देंगे गुरु जी?” अशोक जी ने पूछा,
“मैं फ़ोन कर दूंगा आपको” मैंने कहा,
“मुझे इंतज़ार रहेगा” वे बोले,
फिर मैंने और भी पूछा उनसे, और फिर वे विदा लेकर चले गए!
अब रह गये हम दोनों!
पानी पिया मैंने,
गिलास रखा,
और एक अंगड़ाई ली,
“ये क्या चक्कर है?” शर्मा जी ने पूछा,
“अजीब सा ही चक्कर है” मैंने कहा,
“वो तो है” वे बोले,
“हाँ, बेचारे के पीछे पड़ गये हैं!” मैंने कहा,
“पिटाई और कर दी उसकी” वे बोले,
“हाँ” मैंने कहा,
“कोई गलती तो नहीं कर दी इसने?” उन्होंने पूछा,
“अब पता नहीं” मैंने कहा,
“चलना होगा?” उन्होंने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
शर्मा जी थोड़ी देर और रुके,
फिर चले गए वापिस,
शाम को आये,
तो बताया कि टिकट हो गए हैं, दो दिन बाद के,
ये ठीक था,
हम दो दिन बाद वहाँ के लिए निकल पड़े!
हम अजमेर पहुंचे,
अशोक जी लेने आये थे हमे,
नमस्कार हुई,
और फिर हम चल पड़े उनकी ससुराल!
रास्ते में एक जगह रुके,
चाय-पानी पिया और फिर चल दिए!
आसपास खंडहर थे!
पुराने वक़्त के गवाह!
राजस्थान के भव्य इतिहास के परिचायक!
कभी वे भी ज़िंदा थे!
आज खड़े हैं चुप!
ज़मीन में गड़े हुए!
टूटे-फूटे!
आखिर हम पहुँच गए उनकी ससुराल! पुराना मकान! सच में किसी पुराने स्थान में आ गये थे हम! लेकिन आलीशान! बेहतरीन!
गाड़ी खड़ी की गयी,
और हम अंदर चले!
हमे सभी मिले, नीतेश जी और उनके भाई भी! नमस्कार हुई! फिर हम अंदर बैठे! पानी मंगाया गया, हमने पानी पिया!
फिर चाय आ गयी, वो भी पी! साथ में कचौड़ियां भी खायीं! तीखी! मसालेदार!
हम वहीँ बैठे थे!
एक बैठक में!
नितेश भी वहीँ थे!
“कोई दिखा?” मैंने पूछा,
“नहीं” वे बोले,
“चलो अच्छी बात है” मैंने कहा,
“जी” वे बोले,
“मुझे वो जगह दिखाना जहां ऐसा हुआ था” मैंने कहा,
“जी, शाम को दिखाता हूँ” वे बोले,
“गुरु जी, वे तो पीछे ही पड़ गए हैं इसके” उनके भाई बोले,
“कोई बात नहीं, देख लेंगे” मैंने कहा,
उनकी हिम्म्त बंधी!
“गुरु जी, रात को भी चिल्ला के उठ जाता है ये” उनके भाई बोले,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“बड़ा बुरा हाल है इसका” वे बोले,
“मैं देख लूँगा” मैंने कहा,
उसके बाद वे लोग हमे एक कमरे में ले गए, यहाँ हमारे ठहरने का इंतज़ाम था! मैंने सामान रखा और लेट गया बिस्तर पर!
शर्मा जी भी लेट गए!
शाम हुई!
एकबार फिर से चाय पी, अब शाम का धुंधलका छाने लगा था, नितेश और अशोक वहीँ थे दोनों, अब सलाह हुई कि अब चला जाए वो स्थान देखने जहां वो हादसा पेश आया था, वे तैयार हुए और हम निकल लिए वहाँ के लिए, हम वहाँ पहुंचे, ये जगह उनके घर से कोई दो किलोमीटर के फांसले पर थी, जगह शांत थी, खंडहर ही खंडहर थे वहाँ, टूटे फूटे खंडहर, कोई पुरानी सी हवेली थी वो, और आसपास भी कुछ ऐसी ही हवेलियां सी बनी थीं, अब उजाड़ थीं, कोई नहीं बसता था वहाँ, बसने की छोड़िये, कोई गुजरता भी नहीं था यहाँ से अब, वक़्त ने भुला दिया था ये स्थान अब!
मैंने वो जगह देखी जहां वो हादसा पेश आया था, ये जगह समतल थी, पत्थर बिछे हुए थे वहाँ, झाड़-झंखाड़ का साम्राज्य था वहाँ अब!
“यही वो जगह है?” मैंने नितेश से पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“यहीं मिले थे वे?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“अच्छा” मैंने कहा,
अब वहाँ कोई न था, कोई भी!
अब मुसीबत ये थी कि उनको कैसे ढूँढा जाए?
कैसे पता लगाया जाए?
हाँ,
एक तरीक़ा था, कि अगर वो नितेश को दिखायी दें तो बात बन सकती थी, तब कुछ न कुछ अवश्य ही किया जा सकता था!
लेकिन वो मेरे हाथ में न था!
वो उन्ही चारों के हाथ में था!
कब आये और कब पता चले!
“बलदेव और पंडित रामसरन का पता पूछ रहे थे वो, है न?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“नज़र मारो, कहीं कोई दिख रहा है?” मैंने पूछा,
उन्होंने चारों तरफ देखा,
ऊपर खंडहर के,
आगे,
पीछे,
“कोई नहीं है” वे बोले,
“ठीक है” मैंने कहा,
मैं वहाँ काफी देर तक रहा,
नितेश को कोई नज़र नहीं आया,
“चलिए वापिस अब” मैंने कहा,
“जी” वे बोले,
अब हम वापिस चले,
वापिस घर पहुंचे,
और अपने अपने कमरों में बैठ गए, खाना तैयार हो चुका था, सो अब खाना खाया, और फिर आराम करने के लिए बैठ गए!
“ऐसे तो न जाने कब वो आयें और कब बात बने?” शर्मा जी ने कहा,
“हाँ” मैंने कहा,
“न जाने कितना वक़्त लगे?” वे बोले,
“हाँ” मैंने कहा,
“कैसे बनेगी बात फिर?” उन्होंने पूछा,
“बनेगी” मैंने कहा,
“कैसे?” वे बोले,
“वो पता चल जाएगा” मैंने कहा,
“अच्छा!” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
“बढ़िया!” वे बोले,
“एक काम कीजिये?” मैंने कहा,
“जी?” उन्होंने पूछा,
“नितेश को बुलाइये” मैंने कहा,
“अभी बुलाता हूँ” वे बोले,
और चले गये बुलाने,
थोड़ी देर में दोनों आ गये वहाँ,
बैठे!
“शर्मा जी, इनके हाथ का धागा खोल दीजिये” मैंने कहा,
”अच्छा” वे बोले,
और धागा खोल दिया,
“नितेश जी?” मैंने कहा,
“जी?” वे बोले,
“आज अकेले सोइए आप” मैंने कहा,
वे डरे!
“डरिये मत, कुछ नहीं होगा!” मैंने कहा,
फिर समझाया बुझाया,
समझ गए!
अब मैंने उनको अपने साथ वाले कमरे में सोने को कहा, वो कमरा जिसका था वो आज कहीं और सोता,
“कोई भी दिखे, मुझे बताइये, घबराइये नहीं” मैंने कहा,
“जी” वे बोले,
अब वे उठे और सोने के लिए चल दिए,
साढ़े नौ से ज्य़ादा हो चुके थे, हम भी लेट गए फिर,
बातें करते रहे, और फिर कोई साढ़े दस बजे हमारी आँख लग गयी!
हम सो गए!
उस रात कुछ भी नहीं हुआ,
कोई नहीं दिखा उनको!
चलो! एक रात और सही!
दिन में मैंने वहाँ जाने का निर्णय लिया, और फिर करीब ग्यारह बजे नितेश, मैं, शर्मा जी और अशोक वहाँ के लिए निकल पड़े, दो मोटरसाइकिल ले ली गयीं, और हम चल पड़े फिर! उस कच्चे-पक्के रास्ते पर, हम धीरे धीरे आगे बढ़ते चले गए!
वहाँ पहुंचे,
उतरे,
मोटरसाइकिल खड़ी कीं,
और मैं चला उस खंडहर की तरफ,
वे भी मेरे साथ हो लिए,
हम उस हवेली में घुस गए!
कोई भी छत साबुत नहीं थी, सभी से धूप अंदर आ रही थी! दीवारें टूट चुकी थीं, दरवाज़ा कहीं भी नहीं था, दरारे पड़ी हुईं थीं! वहाँ कुछ नहीं था देखने के लिए, कहीं और पत्थर आदि गिर जाते तो और मुसीबत हो जाती!
सो हम वापिस हो लिए वहाँ से,
बाहर आये,
और फिर मैंने आसपास देखा,
सब जगह ऐसा ही नज़ारा था! किसी वक़्त का ज़िंदा शर अब मृत था! कुछ नहीं था वहाँ, बस झाड़-झंखाड़ और उन दीवारों से झांकते जंगली पौधे! मकड़ियों ने जाल बनाये हुए थे वहाँ, खूब छन रही थी वहाँ कीड़े-मकौड़ों की!
“चलिए वापिस” मैंने कहा,
और हम वापिस चले वहाँ से,
अभी आधे रास्ते में ही गए होंगे कि नितेश ने मोटरसाइकिल रोकी, वो दूर एक जगह घूर रहे थे, वहाँ भी एक टूटा सा खंडहर था, आकार से कोई मंदिर लगता था!
वो घबरा गए थे!
वो रुके तो हम भी रुके,
मैं सीधा नितेश के पास गया!
“क्या हुआ?” मैंने पूछा,
“वो..” उसने इशारा किया,
मैं वहीँ देखा,
कुछ नहीं था,
“कौन है वहाँ?” मैंने पूछा,
“वही, सामने” वो बोला,
अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा!
और अपने नेत्र पोषित किये,
और फिर नेत्र खोले,
वहाँ चार आदमी खड़े थे!
दुशाला सी ओढ़े!
वे चार थे!
वे भी हमे ही देख रहे थे!
एक ने दुशाला उठायी,
और अपनी तलवार निकाली!
वे आक्रामक थे, सभी के सभी!
एक बात और,
उनकी कद-काठी बेहद मजबूत थी, पहलवानों जैसी, भारी-भरकम थे वे चारों ही! जैसे डाकू होते हैं, ऐसा वेश था उनका, वे हमे ही देख रहे थे! नीचे धोती पहनी थी सभी ने, और सर पर राजस्थानी साफ़ा!
अब मैंने ताम-मंत्र पढ़ा!
ताम-मंत्र जागृत हुआ!
“आओ मेरे साथ” मैंने नितेश से कहा,
वो पत्थर की तरह जमे थे!
“आओ नितेश?” मैंने कहा,
“नही” वो बोला,
“चलो?” मैंने फिर से कहा,
“नहीं” वो डर के बोला,
अब मैं ही चला उनकी तरफ,
तलवार वाले ने तलवार आगे की,
मैं रुका,
फिर आगे बढ़ा,
उसने तलवार वार करने के मुद्रा में आगे की,