पुत्री!
अब तो समझ लेती वो!
"कौन हो बाबा आप?" साध्वी ने पूछा,
"हरदेव!" स्वर गूंजा!
बाबा हरदेव!
अब मुझसे रहा न गया!
मैं खड़ा हुआ और उनमे समक्ष झुक कर मैंने नमस्कार किया! उन्होंने मुझे देखा, और फिर साध्वी को!
"जाओ, पुत्री! यहाँ तेरे लायक कुछ नहीं!" वे बोले,
लायक?
कैसे?
"बाबा, मेरे लायक यहाँ बहुत कुछ है!" वो न डिगी! ऐसा बोल ही दिया!
"कुछ नहीं है पुत्री!" वे बोले,
"ये धन?" उसने कहा,
"सब मिथ्या है!" बाबा ने कहा,
"मिथ्या?" साध्वी ने पूछा,
"हाँ पुत्री, मिथ्या!" वे बोले,
"कैसे मिथ्या?" उसने पूछा,
"ये तुम्हारे लायक नहीं है!" वे फिर बोले,
"लेकिन यहाँ तो बहुत धन है?" उसने कहा,
"बताया न, मिथ्या है?" बाबा ने कहा,
न समझी वो!
क्या मिथ्या है ये न समझी वो!
उन्होंने दया-दृष्टि दिखायी थी!
समझ जाना चाहिए था इसको!
नहीं समझी!
"अब जाओ यहाँ से!" फिर से स्वर गूंजा!
और वे सब लोप!
लोप!
सब शांत!
धुंआ! वो शोर! वो अग्नि! सब शांत!
मुझे अब संतोष हुआ! कि चलो अब भान हो गया है साध्वी को! अब कैसे मना करेगी! अब तो मानना ही होगा! अन्य कोई विकल्प नहीं!
"प्राण बच गए साध्वी!" मैंने जानबूझकर ऐसा कहा!
साध्वी खामोश!
शून्य में ताकती रही!
वहीँ जहां पल भर पहले वे सब थे!
हम वापिस सोहन जी की भूमि पर आ गए!
"अब चलो साध्वी!" मैंने कहा,
भूरा भी आ गया सामने! हाथ जोड़ते हुए!
अर्थात, अब भूरा भी मेरा समर्थन करने लगा था! ये अच्छी बात थी!
"अब क्या सोच रही हो साध्वी?" मैंने कहा,
वो नीचे बैठी रही!
अब मैं भी नीचे बैठा!
उसको देखा!
"क्या हुआ साध्वी?" मैंने पूछा,
किसी अंदेशे से मेरा मन डरा!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
वो शान्त सी बैठी रही! सामने देखते हुए!
"अब उठ जाओ साध्वी?" मैंने कहा,
नहीं! कोई प्रतिक्रिया नहीं!
और तभी उसने उस मद्धम अलख में ईंधन डाल दिया! मैं समझ गया! ये नहीं मानने वाली, इसने जो ठाना है ये वो ही करेगी! मन किया, मैं भाग जाऊं वहाँ से! मरने दूँ इसको! चढ़ने दूँ बलि! जितना समझाना था समझा चुका! अब न माने तो मैं क्या करूँ?
"ध्यान रहे साध्वी? जीवन-दान मिला है तुमको!" मैंने कहा,
कोई भाव नहीं!
और ईंधन डाला उसने अलख में!
"अब उठ जाओ साध्वी?" मैंने अब गुस्से से कहा!
नहीं उठी!
उसने नेत्र बंद किये!
और मंत्रोच्चार में लिप्त हुई!
क्या करूँ?
"भूरा, चल, चल मेरे साथ?" मैंने कहा,
भूरा ने मुझे देखा, जैसे दुविधा में हो!
"चल?" मैंने कहा,
उसने फिर से मुझे देखा!
"सोच नहीं, चल मेरे साथ?" मैंने कहा,
उसने फिर तारा को देखा!
और मैंने भूरा का हाथ पकड़ा अब!
"चल मेरे साथ?" मैए उसको खींचते हुए कहा,
वो खिंचा और फिर दूसरे हाथ से मेरा हाथ हटा दिया!
वो नहीं मानने वाला था! तारा का शिष्य था, कैसे छोड़ता?
अभी मैं सोच ही रहा था कि क्या करूँ तभी वहाँ फिर से अग्नि जल उठी! वही शोर! वही लपटें! वही ताप!
मैं भय के मारे बैठ गया!
नीचे अपने आसन पर!
और सामने का दृश्य फिर से स्पष्ट हुआ, अब तो उर्रा-विद्या की भी आवश्यकता नहीं पड़ी! भूरा भी वही देख रहा था जो हम देख रहे थे! मैंने तब कुछ सोचा, और अपना त्रिशूल उठाकर अपने बाएं गाड़ दिया!
तारा ने नेत्र खोले और जम कर एक अट्ठहास किया!
पागल हो चुकी थी तारा!
कम से कम उस क्षण तो!
और सामने, बाबा किरपाल और हरदेव सामने खड़े थे! क्रोधित मुद्रा में! अब मैंने भी उनको आँखों से आँखें मिला कर देखा! उन्होंने मुझे भी देखा और भूरा को भी! और फिर तारा ने एक मांस का टुकड़ा अपने सामने एक मंत्र पढ़कर फेंक दिया! टुकड़ा गिरा और जलकर खाक़ हो गया!
टकराव आरम्भ हो गया!
वे दोनों सामने खड़े थे! क्रोधित! सभी और शांत वहाँ! अग्नि दहक रही थी! कभी भी कुछ भी हो सकता था, अब मैं भी मुस्तैद हुआ! मैंने अब ईंधन उठाया और अलख की भेंट कर दिया! अलख भड़क उठी! अब मैंने अभय-मंत्र पढ़ा, दीपाल-मंत्र पढ़ा! ये देखा उस साध्वी ने! उसने मुझे देखा और मेरी कलाई थाम ली! मैंने भी उसके कंधे पर हाथ रखा और उसको जताया कि मैं अब
उसके साथ हूँ! मैंने जो सोचा था वही कर रहा था मैं, मैं इस साध्वी को जीवित रहने देना चाहता था और यही लक्ष्य था इस समय!
अब साध्वी ने अमूमाक्ष-मंत्र पढ़ा! ये मंत्र महा-मंत्र की श्रेणी का है! इसका प्रयोग इसी प्रकार के अवसर के लिए किया जाता है, इसमें पंचतत्व को आन लगायी जाती है श्री महा-औघड़ की! और फिर आगे बढ़ा जाता है! अब मैं और वो साध्वी एक ही मार्ग पर थे! डटे हुए! अब जो होना था वो मैं जानता था, हाँ! वो साध्वी क़तई नहीं! ऐसे महा-प्रबल को शक्ति और सामर्थ्य से नहीं अपितु आदर से मनाना पड़ता है! शक्तियों के सहारे जीत सम्भव नहीं! और फिर ये तो पूर्ण-औघड़ थे! अपना जीवन चहुँ-ओर से अघोर को समर्पित करने वाले! हम कहाँ टिक पाते उनके समक्ष! डोरा भेदने की हमारी कोई औक़ात या हैसियत नहीं थी, और इनसे भिड़ना और जीतना भी दूर की कौड़ी के समान था! ये मैं जानता था, वो अल्हड़ साधिका नहीं!
"अंतिम बार कहता हूँ, चले जाओ!" बाबा हरदेव ने कहा!
"हम कहीं नहीं जायेंगे!" साधिका बोली,
"समझाने का कोई प्रभाव नहीं हुआ?" उसने पूछा,
''आपको क्या लगता है?" साध्वी ने पूछा,
"प्राणों से कोई मोह नहीं?" अब आयी धमकी!
"कोई मोह नहीं!" बोली साधिका!
गम्भीर!
गम्भीर माहौल वहाँ!
अब बाबा हरदेव ने अपने कमर में बंधे झोले में हाथ डाला, और कुछ दाने निकाल कर हमारी ओर फेंक दिए, ये मक्की के दाने जैसे थे, धुंआ उठा और वहाँ तत्क्षण ही गड्ढे बन गए! कोई दो दो फीट के गड्ढे! मैंने और तारा ने आँखें फाड़कर उन गड्ढों को देखा, तब तक मैं आक्क्षुण-मंत्र जप चुका था! गड्ढों में तरल उभरा! तरल बाहर को बह चला, ये रक्त था, और देखते ही देखते वहाँ फव्वारे से फूट पड़े! रक्त के फव्वारे, मैं और साधिका उठ के खड़े हुए और पीछे हुए, इस से पहले कि वो रक्त हम पर पड़ता! मैंने फ़ौरन ही अपना त्रिशूल उठाया और अलख-अग्नि से छुआ कर भूमि से स्पर्श कर दिया! फव्वारे वापिस हुए! गड्ढे भरने लेगे! साधिका ने विस्मय से मुझको देखा! आँखे फाड़ कर! ये वार मैं झेल गया था उनका! ये विद्या प्राचीन विद्या तो नहीं, लेकिन अत्यंत घातक विद्या है, ये फव्वारे जब शरीर पर पड़ते हैं तो शरीर को आघात पहुँचता हैं
बहुत! छेद हो जाते हैं, यदि जीवित रहे भी तो सदैव रिसते रहते हैं! इसको भर्दन-क्रिया कहा जाता है! आज से तीन-चार सौ वर्ष पहले ये क्रिया हुआ करती थी, इसके जानकार आज भी हैं वैसे तो, लेकिन इसका प्रयोग अब न के बराबर ही हुआ करता है!
उनका वार असफल हुआ!
वे शांत से हुए!
"अभी भी समय शेष है!" बाबा किरपाल ने कहा अब!
अब साधिका वापिस अपने स्थान पर बैठी, मुझे हाथ पकड़ के बिठाया, मैं बैठ गया, अब उसने अपना झोला खोला और फिर कुछ भस्म सी निकाली, समझ गया, ये रक्त-भस्म थी, उसकी गोलियां बना ली गयीं थीं, सबकुछ तैयार था साधिका के पास! मैं जान गया कि वो क्या करने वाली है आगे!
साधिका ने मंत्र पढ़ा!
गोलियां हाथ में लीं और फेंक दी सामने!
लेकिन!
गोलियां इस से पहले भूमि पर गिरतीं वे राख हो गयीं!
चौंका मैं!
चौंकी वो!
साध्वी ने मुझे देखा और मैंने साध्वी को!
वार चलने से पहले ही धराशायी हो गया था!
अब मैंने कमान सम्भाली वहाँ! मैंने अलख में ईंधन झोंका और अलख-महागान गाया! अब मैं अपने औघड़-रूप में था! एक मद होता है, जो ऐसी परिस्थितियों में चढ़ जाता है, वही हुआ उस समय!
तभी!
बिजली सी कौंधी वहाँ!
एक तेज चकाचौंध सी उठी वहाँ!
मैंने आकाश को देखा!
वो जस का तस था!
फिर सामने देखा, सामने बाबा किरपाल त्रिशूल लिए खड़ा था, इस से पहले उसके हाथ में त्रिशूल नहीं था! वो अब वार करने की मुद्रा में था! मैं तैयार था, साध्वी ने मंत्र पढ़ने आरम्भ किया तो मैंने अलख से एक लकड़ी निकाल कर उसको दखा दिया, वो आशय समझ गयी और मंत्र जपना बंद कर दिया! आशय था कि मोर्चा मैंने सम्भाल लिया है, अब वो खेल देखे! खेल जो उसने आरम्भ किया था और अंत मुझे करना था उस खेल का!
मित्रगण! यही मेरी सोची-समझी राजनीति थी! प्राण-भय तो था लेकिन यदि मैं सफल हुआ तो मेरे दोनों ही उद्देश्य पूर्ण हो जाते! डोरे का मान भी रह जाता और उस साध्वी के प्राण भी बच जाते!
मुझे अब ऐसी उम्मीद बंध चली थी!
और फिर!
बाबा किरपाल आगे आया!
"साधक? चला जा यहाँ से, इसी क्षण!" किरपाल ने कहा!
मैंने कुछ नहीं कहा, बस मुस्कुराया!
मैं उनको भड़का रहा था! ताकि उनका रूप ये साधवी देखे! परन्तु मेरे हृदय में उन सभी लिए आदर था! सम्पूर्ण आदर, जैसा एक मनुष्य को प्रबल-औघड़ को देना चाहिए! मैंने अलख में ईंधन झोका! अलख लपलपाई!
'साधका?" उसने फिर से पूछा!
"हाँ जी?" मैंने कहा,
"चला जा यहाँ से, इनको भी ले जा!" वो बोला,
"मैं नहीं जा सकता!" मैंने, जो सच था कहा!
"जाना होगा?" उसने धमकाया!
"नहीं बाबा! नहीं जा सकता!'' मैंने कहा,
तब बाबा हरदेव ने उस बाबा किरपाल को पीछे किया और खुद आगे आ गया!
"सुन साधक! मैंने समझाया, यहाँ कुछ नहीं तुम्हारे लायक, अब जाओ!" वो बोला,
बात तो सही थी! मैंने इंकार नहीं किया, बस गर्दन नीचे झुकला ली अपनी!
कुछ पल शान्ति!
और फिर!
"जाओ! जाओ! जाओ!" ऐसी कई आवाज़ें आयीं वहाँ और फिर से सबकुछ शांत! सब ख़तम सा हुआ! हम फिर से सोहन जी के उस स्थान पर आ गए जहां बैठे थे!
"प्रज्ज्वलित करो!" साधिका ने कहा,
मेरी हिम्म्त टूटी अब!
दूसरा अवसर मिला था प्राण बचाने का! क्यों गंवाया जाए?
"साधिका?" मैंने कहा,
"बोलो?" उसने कहा,
"अब समय खतम हुआ" मैंने कहा,
'कैसा समय?" उसने पूछा,
"मैंने हार मान ली" मैंने कहा,
उसे जैसे यक़ीन नहीं हुआ!
"क्या कहना चाहते हो?" उसने पोछा,
"मैं जा रहा हूँ" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"हाँ! मैं जा रहा हूँ" मैंने उठते हुए कहा,
"मैं नहीं जाने वाली!" उसने ठहाका लगाते हुए कहा!
और फिर से जुट गयी क्रिया-कलाप में!
भूरा उसके सामने आ बैठा! मदद के लिए!
"भूरा? सोच ले?" मैंने कहा,
उसने अनसुना कर दिया!
अब उस साधिका ने मुझे अपशब्द कहे! कटु-शब्द! अत्यंत कटु-शब्द! मेरे बर्दाश्त से बाहर हाउ ये सब और मैं बिफर उठा! उसको भी मैंने अपशब्द कह डाले, वैसी ही वाणी जैसी उसने बोली थी! वो खड़ी हुई, गुस्से में, वो गुस्सा थी कि मैं वहाँ से जा रहा था! मेरे सामने तक आयी और जैसे ही मेरे मुंह पर थप्पड़ मारने आयी, मैंने उसका वो हाथ पकड़ा और एक खींच के दिया उसके कान के नीचे! वो नीचे गिरी, गुस्से में उठी, मैंने एक और दिया उसको खींच कर! अब भूरा उठा बीच-बचाव करने को तो मैंने अपना त्रिशूल उखाड़ लिया, उन दोनों की तरफ कर दिया!
"एक कदम भी बढ़ी तो ये तेरे आरपार कर दूंगा ******!" मैंने गाली देते हुए कहा!
मैंने भूरा को देखा, वो डर गया था!
"तुझे मरना है, मर!" मैंने कह दिया!
और अपना चिमटा जैसे ही उठाया, वो झप पड़ी मेरे ऊपर, मेरी गर्दन पर उसके हाथ के नाख़ून मुझे चीरते चले गए, मैए उसको उसके केशों से पकड़ कर नीचे खींचा और एक हाथ दिया खींच कर उसके कंधे पर!
धम्म!
धम्म से वो नीचे गिरी नीचे! सर टकराया उसका नीचे और पाँव ऊपर हुए, एक पल को क्रोध में ऐसा लगा कि उसके उदर में वो त्रिशूल घुसेड़ ही दूँ! लेकिन मैं रुक गया! मरना तो उसने था ही, अब न सही कुछ देर बाद ही सही!
मैंने वहाँ रुक कर बहुत बड़ी भूल की थी! बहुत बड़ी भूल!
मुझे रुकना नहीं चाहिए था वहाँ!
मुझे अफ़सोस हुआ और गुस्सा आया अपने निर्णय पर!
वो उठी!
मुझसे गाली-गलौज किया उसने!
मैंने भी किया! उस समय मेरा क्रोध सीमा लांघ चुका था!
मैंने अपना चिमटा उठाया, अपना वो कपाल उठाया और फिर अपना त्रिशूल सम्भाला, और फिर उन दोनों को देखा!
"जाओ! चढ़ो बलि!" मैंने कहा,
और मैं वहाँ से वापिस हो गया!
अब जो होना हो, हो!
मैं वहाँ से वापिस आ गया! बस! बहुत हो गया था, जितना समझा सकता था, समझा लिया था, अब और नहीं, मैं वहाँ से सीधा भागता हुआ सोहन जी के रिहाइशी मकान में आ गया, वहाँ शर्मा जी के कमरे की बत्ती जली थी, अर्थात वे जागे थे अभी, दरवाज़ा बंद था, मैंने दरवाज़ा खटखटाया, उन्होंने दरवाज़ा खोला, उन्होंने मुझे देखा और फिर मेरा सारा सामान पकड़ा, मैं वहाँ से फिर वापिस हुआ, मुझे स्नान करना था, मैं फ़ौरन स्नानालय गया, और स्नान किया, और फिर वहाँ से स्नान कर वापिस अपने कमरे में आ गया! मैंने अब अपने वस्त्र पहने, शर्मा जी आश्चर्यचकित थे, उन्होंने मुझसे सबकुछ पूछा, मैंने उन्हें सबकुछ बता दिया, उनको बहुत दुःख हुआ वो सब जानकर! और मुझे अफ़सोस! घड़ी देखी, सवा तीन हो चुके थे!
"चलो शर्मा जी यहाँ से!" मैंने कहा,
"अभी?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, अभी" मैंने कहा,
"लेकिन..?" उन्होंने पूछा,
"कल तक बहुत बड़ी मुसीबत हो जायेगी शर्मा जी यहाँ, मैं नहीं चाहता उस सब में फंसना, अभी चलिए" मैंने कहा,
वे समझ गए सब!
और फिर मित्रगण!
हम अपना सारा सामान वहाँ से समेट कर, साढ़े तीन बजे ही वहाँ से वापिस चल पड़े, शर्मा जी ने बैग मेरा गाड़ी में पीछे रखा, मैं आगे बैठा, थक गया था, सो आँख बंद कर ली, मैं तारा और भूरा के बारे में नहीं जानना चाहता था, न ही सोचना चाहता था, सो आँखें बंद कर मैं बैठा रहा, शर्मा जी धीरे धीरे गड़ी चलाते हुए उस गाँव के रास्ते से बाहर आकर शहर जाने वाले पक्के रास्ते पर आ गए! और मेरी आँख लग गयी! मैं सो गया!
सुबह सात बजे, मुझे शर्मा जी ने जगाया, मैं जाग, घड़ी देखी, सात बजे थे, हम अपने स्थान पहुँच चुके थे, शर्मा जी ने मेरा सामान उठाया और हम अपने स्थान में प्रवेश कर गए! और जाते ही मैं सो गया! शर्मा जी भी सो गए!
सुबह कोई नौ बजे, फ़ोन बजा शर्मा जी का, शर्मा जी कचमचा के उठे और फ़ोन उठाया, ये फ़ोन सोहन साहब का था, शर्मा जी ने अब सारी बात बता दी उनको और हमको ये खबर मिल गयी कि तारा और वो भूरा वहीं अचेत पड़े मिले थे, सुबह जब वे वहाँ पहुंचे, उनके बदन पर कोई चोट आदि का निशान नहीं था, न ही रक्त जैसी ही कोई बात थी, उन्होंने खबर करवा दी थी बाबा खेमचंद के पास इस बारे में!
अब मुझे बाबा खेमचंद के फ़ोन का इंतज़ार था, और वो बज उठा! मैंने फ़ोन उठाया और सारी बात बता दी उनको, उन्हें बहुत अफ़सोस हुआ उसके लिए कि उसने ऐसा व्यवहार किया मेरे साथ, मैं वहाँ उसकी रक्षा करने गया था, न आत्महत्या करने! ये मैंने कह दिया था, खेमचंद बाबा ने बता दिया कि उन्होंने पास में से ही कुछ लोग भेज दिए हैं वहाँ, सोहन जी के पास!
मित्रगण!
फिर कोई तीन दिन बाद मेरे पास बाबा खेमचंद का फ़ोन आया, तारा और भूरा विस्मित सी अवस्था में वाराणसी के लिए भेज दिए गए थे! बाबा को संदेह था कि तारा का सबकुछ ख़तम हो चुका है, अब कुछ शेष नहीं, और उनको अत्यंत धक्का पहुंचा था इस घटना से!
महीना बीतने को आया!
मुझे वाराणसी जाना पड़ा! मैं वाराणसी गया, खेमचंद बाबा ने जहां मुझे बताया था, मैं वहाँ गया, मैं तारा से मिला, अफ़सोस, वो मुझे पहचान न सकी! और भूरा, भूरा अब विक्षिप्त हो चुका था! उसको उसके बड़े भाई अपने साथ इलाहबाद इलाज के लिए ले गए थे, वो मुझे नहीं मिला वहाँ! तारा! एक खटिया पर लेटी थी, एक और औरत उसको पंखा झेल रही थी! मुझे बहुत अफ़सोस हुआ! वो अल्हड़ता, वो तेज-तर्रारपन सब सोहन जी के यहाँ छूट गया था! मैं तारा के पास बैठा, उसको छुआ, लेकिन उनसे न मुझे पहचाना और न उसने मेरी आवाज़ को!
मुझे अपना काम कर वहाँ से वापिस आना था, सो आ गया, अफ़सोस लिए!
फिर मित्रगण!
एक रात,
कोई तीन महीने बाद, तारा को दौरा पड़ा और उसी दौरे में उसके प्राण-पखेरू उड़ गए! मुझे बहुत दुःख हुआ! बहुत दुःख! मैं उस तारा को आजतक नहीं भूल पाया हूँ! आजतक! अपनी तीव्रता के कारण उसने अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया था, और वो ये दांव उस रात हार गयी!
बाबा दीपचंद ने मुझे इसका दोषी माना, बोले कि मुझे वहाँ से नहीं आना चाहिए था वापिस, मैंने कुछ नहीं किया, और तारा का दोष अपने सर ले लिया! कम से कम बाबा दीपचंद को तो शान्ति मिलती इस से!
कई बार ऐसा दोष या ऐसे दोष लेकर भी जीना पड़ता है, मैं जिए जा रहा हूँ, वो दोष उठाये जो मैंने कभी किया ही नहीं!
वो प्रबल साध्वी, तेज-तर्रार, तीव्र और दम्भी तारा!
आज भी जीवित है मेरे मन में, मेरी सोच में!
हाँ,
आंसू नहीं निकले!
न जाने क्यों!
लेकिन छाप छोड़ गयी मेरे मन पर वो अल्हड़ तारा!
तारा!
एक अल्हड़ साध्वी!
----------------------------------साधुवाद---------------------------------
