"मैं नहीं जाऊँगा साधिके!" मैंने कहा,
"जाओ यहाँ से?" उसने कहा,
अभी मैंने इतना ही कहा कि वहाँ वे लपटें फिर से दहक उठीं! ताप बढ़ गया फिर से, तंत्राभूषण फिर से दहक उठे! लाग जाली हुई अस्थियां गल्ले में धागा पिरोकर बाँध ली हों!
साध्वी ने आव देखा न ताव!
तभी मिट्टी की एक चुटकी उठायी उसने, मंत्र पढ़ा, और फिर से अलख में फेंक मारी!
लेकिन!
कुछ न हुआ!
कुछ भी नहीं हुआ!
जैसे तेज हो जाती है धौंकनी हवा भरने पर वैसे ही वो लपटें भड़क उठीं!
"अभी भी समय है साध्वी!" मैंने कहा,
नहीं मानी वो!
लपटें अब हुईं विकट!
साध्वी ने खंजर लिया और अपना हाथ छेदा उस से, और फिर रक्त की बूँदें अलख में टपका दीं, और फिर!
लपटें एकदम शांत हो गयीं!
एकदम शांत!
वो टक्कर ले रही थी!
मैं भी विस्मित था!
"साध्वी! कुछ नहीं होगा! लौट चलो!" मैंने कहा,
"तुम जाओ यहाँ से!" वो चिल्ला के बोली!
''मारी जाओगी" मैंने कहा,
"सुना नहीं? जाओ यहाँ से?" उसने कहा,
"बहस न करो! नहीं भेद पाओगी ये डोरा!" मैंने समझाया उसको!
"जाते हो या नहीं?" उसने अपने केश पकड़ कर खींचते हुए कहा! वो अपने आपे से बाहर थी अब! एक दम बाहर!
और तभी जैसे गरम वायु का एक बवंडर उठा वहाँ! शान्ति सी छा गयी! हर हिलती-डुलती चीज़ को जड़ मार गया!
ये किसी अनहोनी की सूचक थी!
और जैसे कहीं पीछे हमारे पेड़ उखड़े! जैसे किसी ने गुस्से में आ कर वे उखाड़ फेंके हों!
"साध्वी? चलो यहाँ से, अभी?" मैंने कहा,
वो खड़ी हुई, उसने तेज तेज साँसें लेकर जैसे गंध ली! और फिर धम्म से नीछे बैठ गयी, मदिरा का एक गिलास बनाया और मंत्र पढ़ते हुए सामने भूमि पर बिखेर दिया, अलख से एक लकड़ी निकाली और वहाँ उसको रख दिया, ये एक और क्रिया थी, एक विशेष क्रिया!
मैं समझ गया!
अब उसने एक मंत्र पढ़ा, एक विशेष मंत्र था जो कि एक साधक अपनी रक्षा करने हेतु पढ़ा करता है, और साथ ही साथ अपने शत्रु के सामने डट जाता है! ऐसा करना मूर्खता का लक्षण है, वो भी क्षेत्रपाल की क्षेत्राणि के आगे!
"भूरा?" उसने पुकारा!
भूरा सामने आया!
"कंटक-गान आरम्भ कर!" उसने कहा,
और उस मूर्ख ने फिर से आरम्भ कर दिया गान!
अब तो ये सिद्ध हो गया, कि मैं ही श्री यम के मार्ग में बाधा हूँ! मैं ही हूँ जो उनके मार्ग को अवरुद्ध कर रहा है! मैं ही हूँ जो यहाँ सबसे उच्च-कोटि का मूर्ख प्राणी हूँ!
"मान जाओ साध्वी?" मैंने कहा,
कुछ न बोली!
"साध्वी?" मैंने फिर पुकारा!
कोई उत्तर नहीं!
"तारा?" मैए गुस्से से कहा,
उसने नेत्र खोले, मुझे देखा, और फिर नेत्र बंद कर लिए!
वो बाबा भूरा कंटिका पढ़े जा रहा था!
और तभी वहाँ ऐसी ध्वनि हुई जैसे किसी बड़ी सी सेना ने हुंकार भरी हो! सिहरन दौड़ गयी शरीर में मेरे वो सुनकर!
"साध्वी, मान जाओ?" मैंने फिर से कहा,
नहीं मानी वो!
और मित्रगण!
मैंने सामने देखा!
जैसे काल खड़ा हो सामने!
हँसता हुआ!
अट्ठहास लगाता हुआ!
और तभी!
तभी अलख भक्क की आवाज़ करते हुए बुझ गयी!
तारा के नेत्र खुल उठे!
मेरी नज़रें वहीँ अलख पर टिक गयीं!
अलख बुझ गयी थी! ये एक महा-अपशकुन था! अलख ने साथ छोड़ दिया था! ऐसा होगा, ये मैं जानता था! हाँ, तारा के होश अब उड़ चले थे! उसने फ़ौरन ही अलख को ज़िंदा रखने के लिए जोड़-तोड़ शुरू किये, लेकिन अलख जैसे निस्तेज हो चुकी थी! और वहाँ संकट के बादला गहराते जा रहे थे! कंटिका छोड़ अब भूरा भी अलख के पास आ जुटा! दोनों किसी भी तरह से अलख को बचाने के लिए प्रयासरत थे और तभी अलख में स एक छोटी सी चिंगारी फूटी, एक लौ बाहर निकली और अब अट्ठहास किया उस साध्वी ने! अलख-ईंधन डाला गया और अलख भड़क उठी! जान में जान आ गयी साध्वी के उसी क्षण!
"अब वीर-साधन होगा!" उसने कहा,
वीर-साधन?
कैसा वीर-साधन?
वे वीर जो यहाँ खेल दिखाने वाले थे?
"साधिका?" मैंने पूछा,
"बोलो?" उसने कहा,
"कैसा वीर-साधन?" मैंने पूछा,
''दीखता नहीं?" उसने कहा,
"मृत्यु को आमंत्रित करोगी?" मैंने पूछा,
"भीरु हो तो भाग जाओ!" उसने हँसते हुए कहा!
"नहीं करो ऐसा!" मैंने कहा,
'हट जाओ!" उसने गुस्से से कहा!
उसने तभी वीर-साधन मंत्रोच्चार आरम्भ कर डाला! एक एक शब्द मेरे कान फोड़ता हुआ अंदर तक घुस गया!
और तभी जैसे वहाँ चक्रवात आने से पहले की शान्ति छा गयी! मैं भांप गया! मैं सचेत हो गया! मैंने अपना त्रिशूल उखाड़ लिया और खड़ा हो गया! अब मेरे बस में नहीं था वहाँ डटे रहना!
तभी भूमि डोली, मेरे पाँव के पंजे भूमि में गहरे बैठ गए! मैं किसी अनहोनी की आशंका से चौंक गया! लगा आकाश नीचे आने वाला है, भूमि ऊपर उठने वाली है, और हम सब इसके बीच जैसे पिसने वाले हैं!
"साध्वी? होश में आओ?" मैंने कहा,
उसने एक न सुनी!
''साध्वी?" मैंने चिल्ला के बोला!
अनसुना कर गयी वो!
तभी मेरे सामने की हर वस्तु घूमने लगी! जैसे घूम घूम के एक केंद्र में समाती जा रही हो, मुझे मतिभ्रम नहीं हुआ था, वो वास्तविक था! मैं थोडा सा घबराया और उसी क्षण नीचे बैठ गया! अपने आसन पर और मैंने अब उस चित्र-पट्ट की ओर देख लगायी, वो भयानक अग्नि के हवाले थे! जैसे किसी ने उसको तेल में डुबोकर अग्नि के सुपुर्द कर दिया हो! जले हुए कपडे की तरह से उसके टुकड़े नीचे गिरते जा रहे थे! भूमि में से जगह जगह जैसे भाप निकल रही थी, धुंआ, हाँ धुंआ कहना सही रहेगा! धुंआ निकल रहा था!
भूमि फिर से हिली वहाँ!
सभी ने झटका खाया वहाँ!
वो साध्वी डटी रही!
मैं हैरान था!
मृत्यु को इतने पास देखकर भी किंचितमात्र भी उसके चेहरे के हाव-भाव में कोई परिवर्त्तन नहीं आया था! वो निरंतर अपने मंत्रोच्चार में लिप्त थी!
इसे मैं क्या कहूं?
जोश?
जुनून?
हठधर्मिता?
अथवा मूर्खता?
उस समय तो कुछ सोचना ही मूर्खता थी!
प्राण बच जाएँ किसी तरह यही प्राथमिकता थी!
तभी साध्वी ने अपने नेत्र खोले!
एक अस्थि उठायी और भूमि से छुआ दी!
लहर सी उठी वहाँ!
और सबकुछ शांत हो गया!
सबकुछ!
ये क्या किया उसने?
स्तम्भन?
वीर-स्तम्भन?
क्या ऐसा सम्भव है?
अब मैं भी उलझा!
ये कैसे?
क्या कर दिखाया था उसने?
और तभी मैंने देखा!
मैंने देखा, कि कुछ घड़े घूमते हुए भूमि फाड़कर ऊपर आ गए थे! कम से कम चौदह या पंद्रह तो रहे होंगे!
इनमे भरा था धन! अथाह धन! चमचमाते हुए सोने के जेवर! चांदी की छड़ें और बर्तन! अकूत धन-सम्पदा!
मैं तो जैसे निःशब्द हो गया ये सब देखकर!
उसने कारनामा कर दिखाया था! सच में ही कर दिखाया था! इस प्रबल साध्वी ने कर दिखाया था! जो असम्भव था वो हो चुका था! मेरी आँखों के सामने!
अब उसने नेत्र खोले अपने!
खड़ी हुई!
और ऊपर देखते हुए अट्ठहास किया उसने!
''औघड़?" उसने मुझ से कहा,
मैंने अचरज से उसको देखा!
"क्या ये असम्भव है?" उसने कहा,
मैं चुप!
क्या जवाब दूँ!
उसने मुझे कटाक्ष भरी निगाहों से छलनी कर दिया! सही में मित्रगण!
"भूरा?" उसने पुकारा!
भूरा सामने आया!
"जाओ! और लेकर आओ!" उसने कहा,
भूरा ने सर झुकाया और भाग एक घड़े की तरफ! उसने कुछ जेवर उठाये और उनको ले आया साध्वी के पास!
मैं हैरान!
और जैसे ही साध्वी के हाथ में भूरा ने वो जेवर दिए, वे लोप! घड़े घूमते हुए वापिस हुए भूमि के अंदर! जैसे कोई चक्की सी चली!
"नहीं! नहीं!" चिल्लाई साध्वी!
भाग पड़ी उन घड़ों की तरफ!
पागल सी!
और भूरा!
भूरा के तो जैसे प्राण अटक कर गले में आ गए!
हाथ आया धन फिर से लोप हो गया!
मैं खड़ा हुआ!
साध्वी को देखा!
वो गुस्से से पाँव पटकती हुई वहाँ आयी!
और अपने आसन पर बैठ गयी!
फिर से गहन मंत्रोच्चार! अलख में भोग दिया उसने!
मैं सब देख रहा था! सब!
स्तम्भन भेद डाला था किसी ने!
लेकिन किसने?
कोई तो था?
कोई तो?
लेकिन कौन?
साध्वी इस से अनभिज्ञ थी, वो तो फिर से स्तम्भन कर सारा धन एकत्रित करना चाहती थी! उसन एस विषय में ध्यान नहीं दिया था कि कौन है जिसने वो स्तम्भन भेदा? कौन है वो?
मैंने फ़ौरन ही उर्वा-मंत्र का जाप किया और नेत्र खोले, और जो सामने देखा उसको देखकर मुझे जैसे काठ मार गया! सामने दो बाबा खड़े थे, दो क्या, एक खड़ा था और एक उसके कंधे के ऊपर बैठा था! दोनों ही अत्यंत वृद्ध थे! जो कंधे पर बैठा था वो अत्यंत वृद्ध था, उसके आँखों की पलकें इस क़दर ढिलिन थीं की आँखों के ऊपर आयी हुईं थीं, उसके हाथ में एक काठ-दंड था, और जिसके कन्धों पर वो चढ़ा हुआ था, वो भी वृद्ध था, लेकिन बलशाली था! सारे शरीर पर भस्म मली थी! अस्थियों के महा-आभूषण धारण किये हुए था! हाथ में एक लौह-दंड था! और कोहनी तक मालाओं से पटे पड़े थे उसके हाथ!
दृश्य बड़ा ही भयावह था! वे क्रोधित थे! दोनों ही! उनकी मुख-मुद्रा यही बता रही थी! वे तो मुझे अत्यंत रौद्र और परम प्रबल औघड़ से लगे थे उस समय!
"साध्वी?" मैं चिल्लाया!
नहीं सुना उसने!
"साधिके?" मैं फिर से चिल्लाया!
नहीं सुना उसने!
वो स्तम्भन में मगन थी!
और मैं यहाँ व्याकुल!
मेरा दम सा फूला अब! अब जो यहाँ होने जा रहा था वो अतयनत भयानक लग रहा था, एक तरफ वे दोनों प्रबल औघड़ और एक तरफ ये दम्भ से पूर्ण साध्वी! वो क्या कर रही थी? उसकी एक न चलनी थी! वे दोनों औघड़ बहुत क्रोधित थे! यूँ कहना चाहिए के हमारी बलि लेने को आतुर! कभी भी किसी क्षण कुछ भी हो सकता था! मैंने हिम्मत जुटाई! और साध्वी के पास तक पहुंचा!
''साधिके?" मैंने चिल्ला के बोला,
कोई उत्तर नहीं!
"तारा?" मैंने कहा,
कोई प्रतिक्रिया नहीं!
"तारा? उठो?" मैं घबरा के बोला!
कोई जवाब नहीं!
"तारा?'' मैंने फिर से पुकारा!
कोई प्रतिक्रिया नहीं!
मैंने तभी सामने रखी मदिरा की बोतल ली और उस से मदिरा निकाली और एक प्याले में डाली, घबराहट के मारे वो आधी बाहर गिरी और आधी प्याले में, मैंने फिर भी भर दिया प्याला और खींच के उस साधिका के मुंह पैर मदिरा मारी! उसने नेत्र खोले! गुस्से में और मुझ पर हाथ उठाने के लिए उसने जैसे ही हाथ उठाया, मुझे गुस्सा आया और मैंने उसका हाथ पकड़ के सामने खींच दिया, उसको ऐसा अंदेशा नहीं था, वो फिर से संयत हुई और मुझ पर फिर से हाथ उठाना चाहा, अब मैंने ज़ोर से एक झापड़ उसके कान के नीचे रख दिया! भूरा मुझे पकड़ने आया तो मैंने भूरा को भी एक लात जमा दी! भूरा दोहरा होकर नीचे गिर पड़ा!
"साधिके? उर्रा-देख लगाओ, अभी?" मैंने कहा,
उसने फ़ौरन ही मेरा आशय समझा और तत्क्षण ही उसने उर्रा-देख लगायी! देख लगते ही और नेत्र खोलते ही उसके हाथ से वो खेड़िया-कपाल नीचे गिर पड़ा, उसने वो कपाल उठाया हुआ था, और अपनी जाँघों के मध्य रखा हुआ था!
उसने नेत्र खोले!
सामने का दृश्य देखकर ठिठक गयी!
उसको ऐसा संदेहा था ही नहीं कि बात यहाँ तक है!
मैं ठिठक कर वहीँ देख रहा था!
वे दोनों भूमि से उठते हुए धुंए से लिपटे खड़े थे! भयावह दृश्य था! मैं फौरन ही बचाव-मुद्रा में आया और अपना आसन ग्रहण किया, साध्वी उस बाबा से नज़रें मिलाती हुई वहीँ खड़ी रही!
"कौन हो तुम दोनों?" साध्वी ने प्रश्न किया!
मैं चौंका!
वे चुप खड़े रहे!
"उत्तर दो?" उसने फिर से कहा,
अब तक भूरा खड़ा हो गया, उसने कुछ नहीं दिख रहा था, वो भाग कर तारा के पीछे आ खड़ा हुआ!
"उत्तर दो?" तारा ने पूछा!
वे दोनों चुपचाप!
चुपचाप हमे ही देखते रहे!
मुझे आशंका हुई!
आशंकाओं ने छाती पर मेरी कब्ज़ा कर लिया बुरी तरह! मुझे खांसी उठ गयी! मैंने अपने आपको संयत किया और सामने देखा!
"उत्तर दो?" तारा ने फिर से पूछा!
कोई उत्तर नहीं!
और मित्रगण!
वहाँ न जाने कहाँ कहाँ, किस किस कोने से ऐसे ही बाबा दिखायी देने लगे, कुछ बैठे हुए, कुछ खड़े हुए! कम से कम दस बारह हो गए होंगे! सभी क्रोधित! सभी हमें ही घूरते हुए!
तारा भी पीछे हटी अब!
पीछे हटते हुए अपने आसन पर आ बैठी!
"तारा! क्षमा, क्षमा मांग लो!" मैंने कहा,
फिर से अनसुना कर दिया उसने!
"तारा! मान जाओ!" मैंने कहा,
नहीं मानी!
ज़िद पर अड़ी रही वो!
यहाँ हम फंस गए थे!
उठ सकते नहीं थी, डोरे के मध्य थे!
और डोरा खींचे वाले सामने थे!
अब केवल क्षमा-याचना से ही बात बन सकती थी!
और वो, ये मान नहीं रही थी!
गेंहू के साथ घुन पिसने की बारी आ गयी थी!
मुझे तो यही लगा उस समय!
"तारा?" मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा!
उसने अपने बाएं हाथ से मेरा हाथ झिड़क दिया!
"मान जाओ तारा!" मैंने जैसे उस से याचना ही की!
"कौन हो तुम?" गरजी तारा!
कोई जवाब नहीं!
वे पत्थर की मूर्तियों सामान सब वैसे ही खड़े थे!
जस के तस!
"बताओ?" फिर से पूछा तारा ने!
कोई भी नहीं हिला!
समय ठहर गया वहाँ!
उस क्षण!
"कौन हो तुम लोग?" वो गरजी फिर से!
पुनः कोई उत्तर नहीं!
भय की नैया ने हिचकोले खाये!
नैया में सवार हम तीन लोग!
कहाँ डूबेंगे कुछ नहीं पता!
"तारा?" मैंने फिर से फुसफुसाया!
कोई ध्यान नहीं दिया उसने!
अब वो बैठी! एक टुकड़ा लिया मांस का, अलख को छुआया और फिर एक मंत्र पढ़ते हुए फेंक दिया सामने! ये देख मैं जहां था वहीँ गड़ के रह गया! ये क्या कर दिया इसने? सिंह को अपनी ही गंध दे दी?
टुकड़ा सामने गिरा!
कंधे पर बैठे औघड़ ने अब गर्दन हिला के हमे देखा शायद, उसकी आँखें तो दिख नहीं रही थीं, उसने गर्दन ऊंची की और फिर सामने की ओर, जिसने उसको उठाया हुआ था उसके सर पर टिका दी!
सिट्टी-पिट्टी गुम!
करूँ तो क्या करूँ?
किसका आह्वान करूँ जो प्राण बचाये?
क्या करूँ?
कुछ समझ न आया!
"क्षमा मांग लो तारा?" मैंने फिर से कहा,
कहाँ मांगे वो क्षमा!
उसने तो ठान लिया था, हलाक़ होना है! साथ में हमे भी हलाक़ करवाने वाली थी वो! साँसें ऐसे कूद रही थीं सीने में जैसे लुकाछिपी खेल रही हों!
"कौन हो तुम लोग? उसने झुंझला के पूछा!
तब एक जवान सा औघड़ सामने आया! उन दोनों के सामने, सांस जहां थीं वहीँ रुक गयीं! नेत्र जितना खुलकर देख सकते थे, खुल के देखने लगे!
"तू कौन है?" उसने अपना त्रिशूल तारा को दिखाते हुए पूछा!
"मैं? तारा! साध्वी तारा! बाबा दीपचंद पुत्री तारा!" उसने कहा,
"जा लौट जा!" वो बोला,
"लौट जाऊं? क्यों?" उसने पूछा,
"बालिका!" वो कह कर हंस पड़ा!
बालिका!
हाँ!
वो बालिका ही तो थी उनके सामने! क्या बिसात!
"जा! चली जा!" वो बोला,
"मैं कहीं नहीं जाउंगी!" अड़ गयी! ऐसा बोली वो!
शान्ति!
असीम सी शान्ति वहाँ!
"हठ छोड़! जा!" वो बोला,
"तुम कौन हो ये कहने वाले?" पलट के जवाब दिया तारा ने!
"मैं!" उसने अब अट्ठहास किया!
और अट्ठहास करते ही लौ जैसे शरण ढूंढने लगी!
मैंने साफ़ साफ़ देखा अलख की लौ को!
"मैं बाबा किरपाल हूँ!" उसने कहा,
"कौन किरपाल?" तारा ने पूछा,
"जा बालिका! जा!" उसने कहा,
"कौन किरपाल?" उसने फिर से पूछा,
''सेवक!" उसने कहा,
"किसका सेवक?" उसने पूछा,
"इस भूमि का सेवक!" उसने कहा,
उनका वार्तालाप किस समय उलझ जाता, पता नहीं चल रहा था, बस आभास था, कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए! मेरे हाथ मेरे त्रिशूल पर कसते चले गए!
उस भूमि का सेवक किरपाल समक्ष खड़ा था! और ये अनभिज्ञ साध्वी उस से वार्तालाप में मगन थी! किसी भी पल बाबा के क्रोध का ढेर एक चिंगारी लेके फूटता और फिर सब खाक़! बस यही एक अंजाना सा डर मन में घर किये हुए था! इस साध्वी को न तो कोई भय था और न ही कोई अंदेशा! मैं भी अपने त्रिशूल को कसता हुआ यही सोचे जा रहा था!
"जाओ, बस बहुत हुआ!" तभी किरपाल बाबा ने कहा,
"मैं नहीं जाउंगी!" भिड़ गयी साध्वी!
बाबा किरपाल पीछे जाकर खड़ा हो गया!
और यहाँ साध्वी उसको ही लगातार देखते रही!
तभी एक और बाबा आगे आया, ये वृद्ध था, करीब सत्तर वर्ष का तो रहा होगा, शरीर से भारी और प्रबल औघड़ प्रतीत होता था वो अपने रूप से! गले में अस्थिमाल और रुद्राक्ष धारण किये हुए थे, भस्म-स्नान से लेपित देह थी उसकी! चौड़ा चेहरा और चौड़े कंधे उसके!
वो आगे आया!
"जाओ यहाँ से!" वो बोला,
"कौन हो तुम?" साध्वी ने पूछा,
"व्यर्थ का विवाद न करो, जाओ यहाँ से" उसने ऐसा कह के अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी!
"हो कौन तुम?" साध्वी ने पूछा,
"बस! जाओ यहाँ से" उसने अब गुस्से से कहा,
"और न जाऊं तो?" साध्वी ने कहा,
मैं ये सुन सकते में आ गया!
ये क्या करवा रही थी साध्वी?
भड़का रही थी साध्वी उन रक्षकों को?
अल्प-बुद्धि का परिचायक था उसका ये कहना!
"तारा! मान जाओ उनकी बात, चलो यहाँ से" मैंने कहा,
नहीं सुना फिर भी उसने!
वो तो जैसे खूंटा गाड़ के बैठी थी वहाँ!
''साध्वी? हम सब मारे जायेंगे!" मैंने चेताया उसको!
नहीं मानी!
तब वो बाबा आगे आया और, करीब तीस फीट दूर रह गया! साध्वी के चेहरे पर चिंताओं की रेखा तो आतीं लेकिन फिर से नदारद हो जातीं!
और तभी!
तभी जैसे एक ज्वाला सी प्रकट हुई वहाँ! उस बाबा और हमारे मध्य! साध्वी ये देख बैठ गयी नीचे, हाथ में एक चुटकी मिट्टी ली और तैयार हो गयी! मैं सबकुछ वहाँ बैठे एक तमाशबीन की तरह देखने लगा, वहाँ का मंजर!
"कौन हो तुम?" अब भी पूछा उस साध्वी ने!
इतना पूछना था कि वो ज्वाला आगे बढ़ी अपना रूप बढ़ाते हुए और जैसे ही साध्वी तक पहुंची, साध्वी ने एक मन्त्र पढ़कर वो मिट्टी की चुटकी सामने उछाल दी! ज्वाला बिखर गयी! उसके लघु रूप हो गए और फिर ज्वाला शांत हो गयी!
मैं विस्मित!
आश्चर्य!
ये क्या हुआ?
कैसे हुआ?
अभी मैं ये सोच ही रहा था कि वहाँ उन सभी औघड़ों के अट्ठहास का स्वर गूंजा! जैसे उन्होंने हमारा उपहास उड़ाया हो! जैसे हम उपहास की वस्तुएं हों! सभी हंस रहे थे! खिलखिलाकर!
लेकिन क्यूँ?
ज्वाला तो उनकी ही भस्म हुई थी, तो अटटहास क्यों?
"जाओ पुत्री जाओ!" अब बाबा का स्वर गूंजा!
