वर्ष २०१० हस्तिनापु...
 
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वर्ष २०१० हस्तिनापुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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 मुझे हंसी आ गयी!

 "ऐसा न कहो! धन देख लिया है उसने!" मैंने हँसते हुए कहा!

 वे भी ज़ोर से हँसे!

 और हम अपने कक्ष में आ गए!

 "साला कितना झूठ बोल रहा है!" वे बोले!

 ''अरे बोलने दो! कल पता चल ही जाएगा!" मैंने कहा,

 "हाँ! कल खुल जाएगा सारा भेद!" वे बोले,

 अब मोहन जी आये वहाँ, खाना पूछा तो हमने हाँ कही, फिर खाना लगवा दिया गया! हम दोनों ने फिर खाना खाया!

 अभी मैं लेटा ही था कि वो बाबा भूरा आ गया वहाँ, उसने कहा कि मुझे तारा जी ने बुलाया है! शर्मा जी ने मुझे हाथ से इशारा करके भेजा! मैं चला गया उसके साथ!

 वहाँ पहुंचा!

 वो वहीँ बैठी थी, मैं भी बैठ गया!

 "मुझे बुलाया?" मैंने पूछा,

 "हाँ" उसने कहा,

 "बताइये?" मैंने कहा,

 "बाबा का फ़ोन आया था, मैंने बता दिया है कि कल आप मेरे साथ क्रिया में बैठेंगे" उसने कहा,

 "अच्छा! ठीक किया" मैंने कहा,

 "अब आप भी तैयारी कर लीजिये, मंत्र आदि जागृत कर लीजिये" उसने कहा,

 "मैं जागृत करके ही यहाँ के लिए चला था" मैंने कहा,

 "तब ठीक है" वो बोली,

 "खाना खा लिया आपने?" उसने पूछा,

 "हाँ" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ''अच्छा, मैं खाने ही वाली थी" उसने कहा,

 "आप खाइये, मैं बाद में आता हूँ" मैंने कहा,

 "ठीक है" वो बोली,

 और तभी भूरा खाना ले आया!

 और मैं वापिस हुआ वहाँ से!

 अपने कक्ष में पहुंचा!

 "क्या कह रही थी?" शर्मा जी ने पूछा,

 "कह रही थी बाबा को बता दिया है क्रिया के लिए" मैंने कहा,

 ''अच्छा" वे बोले,

 "हाँ, बाबा को भी पता चले कि मैं आ गया हूँ इसके साथ!" मैंने कहा,

 "ठीक है" वे बोले,

 और फिर तभी सोहन आ गए वहाँ!

 "आइये सोहन जी" वे बोले,

 "वो गुरु जी, ज़रा बाज़ार जाना है, कुछ सामान लाने के लिए" वे बोले,

 "अच्छा, तारा ने लिखा होगा?" मैंने कहा,

 "हाँ" वे बोले,

 "कोई बात नहीं, हम भी चलते हैं, घूम ही आयेंगे!" मैंने कहा,

 "हाँ जी चलिए" वे बोले,

 अब हम खड़े हुए बाज़ार जाने के लिए! कुछ सामान मुझे भी चाहिए था! कल के लिए! दरअसल सोहन जी आये इसीलिए थे कि शर्मा जी गाड़ी से चलें, चलो सही भी था, वहाँ बैठे बैठे कौन सा हमने तीर मार लिया था!

 हम बाज़ार चले गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 मैंने अपना सामान भी खरीद लिया जो आवश्यक था! सोहन जी ने तारा वाला सामान खरीद लिया! सोहन जी ने मुझे पैसे नहीं खर्च करने दिए थे, खुद ही खर्चे उन्होंने! बाज़ार में कुछ खाया-पिया भी हमने! उसके बाद हम फिर से वापिस हुए घर के लिए!

 घर पहुंच गए!

 मैंने अपना सामान भी रखवा दिया सोहन जी के पास! और फिर हम अपने कक्ष में आ गए, मैं आते ही लेट गया!

 "कुछ कमी तो नहीं पड़ेगी?" शर्मा जी ने पूछा,

 "नहीं तो" मैंने कहा,

 "हाँ, कल निबटे ये काम और चलें हम यहाँ से!" वे बोले,

 "हाँ, सही कहा आपने!" मैंने कहा,

 इसके बाद बातें हुईं हमारी और मेरे आँखें भारी हुईं, मैं सो गया फिर उसके बाद! और फिर शर्मा जी भी एक आद झपकी लेने के लिए लेट गए!

 आँख खुली! छह बजे थे! मौसम बढ़िया हो गया था, हलकी-फुलकी घटाएं छायीं थी आसमान में! राहत मिली थी! हम बाहर आये! और एक चारपाई बिछा कर वहीँ बैठ गए, मोहन जी चाय ले आये, हमने फिर चाय पी! दिल खुश हो गया दूध में पत्ती लगी हुई चाय पीकर!

 तभी वहाँ से साध्वी गुजरी, मुझे इशारा किया और बुला लिया, मैं चल पड़ा उसके पास, वो रुक गयी थी, मैं उस तक पहुंचा,

 ''आइये मेरे साथ" उसने कहा,

 "चलो" मैंने कहा,

 वो मुझे क्रिया-स्थल पर ले आयी!

 "कैसी जगह है?" उसने पूछा,

 "बहुत बढ़िया, मैंने सुबह ही देख ली थी" मैंने कहा,

 "हाँ, भूरा ने बताया मुझे" वो बोली,

 "कल यहाँ से ही सारा काम होगा!" वो बोली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 'अच्छा, बढ़िया है" मैंने कहा,

 'यहाँ, मुझे लगता है, खेड़ा-पलट का मामला है" उसने कहा,

 "लेकिन ऐसा होता तो वो मूर्ति?" मैंने पूछा,

 "हो सकता है बाद में गाड़ी हो वो?" उसने कहा,

 "हाँ, हो सकता है" मैंने कहा,

 "ये तय है कि यहाँ अकूत धन है!" उसने कहा,

 "अच्छा है!" मैंने कहा,

 "आप कल खुद ही देख लेना!" उसने कहा,

 "हाँ! ये तो है!" मैंने कहा,

 "कल यहाँ मैं वो काम करुँगी कि डोरा तो क्या, कोई शक्ति हमको रोक नहीं पायेगी!" उसने मुट्ठी भींच के कहा ऐसा!

 "ठीक है!" मैंने कहा,

 फिर वो मुड़ी और हम वापिस हुए वहाँ से!

 अब जो करना था वो कल ही!

और फिर कल भी आ गया! मैं यहाँ दोपहर से आरम्भ कर रहा हूँ! आज घर से सोहन जी और मोहन जी अपने अपने परिवारों को लेकर जा रहे थे कुनबे के ही कुछ रिश्तेदारों के पास, ये सलाह मैंने ही दी थी उनको, न जाने क्या हो जाये वहाँ? कहीं छत ही ढह जाए? कोई लपेटे में ही आ जाए? यही संदेह थे मेरे मन में, इसीलिए मैंने उनको भेज दिया था वहाँ से, वे जा रहे थे, और फिर करीब आधे घंटे के बाद घर खाली हो गया, वे चले गए थे, अब सिर्फ दो ही कक्ष खुले थे, एक जिसमे हम ठहरे थे और एक जिसमे वो साध्वी ठहरी थी! बाकी सभी में ताला लटक रहा था अब! अब वो घर, घर न होकर किसी डेरे का कोई स्थान सा लग रहा था! मैंने अपने ही कक्ष में शर्मा जी के साथ बैठा था, अब हम चार ही थे वहाँ, दो वो और दो हम! करीब दो बजे, वो बाबा भूरा आया मेरे पास, उसने मुझे नमस्ते की और मुझे उस साध्वी ने बुलाया है, ऐसा कहा उसने, मैं उठा और चल पड़ा उसके साथ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 साध्वी के कक्ष में पहुंचा! वो खड़ी हुई अपना सामान संजो रही थी! मैेन उसको आवाज़ दी तो उसने मुझे अंदर बुलाया, मैं अंदर चला गया और भूरा वहीँ बाहर ही रहा, वो नहीं आया अंदर!

 "आइये, बैठिये" उसने कहा,

 मैं बैठ गया!

 "आपको कुछ दिखाती हूँ" सुने कहा,

 "दिखाओ" मैंने कहा,

 उसने एक संदूकची सी खोली, उसमे से एक बड़ा सा कपाल निकाला! और संदूकची पर रख दिया!

 "जानते हैं ये कौन सा कपाल है?" उसने पूछा,

 "हाँ" मैंने कहा,

 "कौन सा?" उसने पूछा,

 "खेड़िया!" मैंने कहा,

 वो अवाक!

 "आपको कैसे मालूम?" उसने पूछा,

 "साध्वी, आप मुझे क्या समझती हैं?" मैंने पूछा,

 "मतलब?" उसने पूछा,

 "मुझे किस श्रेणी में रखती हो?" मैंने पूछा,

 "मैं नहीं समझी अभी भी?" उसने पूछा,

 "बताता हूँ, आप मेरे बारे में क्या जानती हैं?" मैंने पूछा,

 ''वही जो बाबा ने बताया" उसने कहा,

 "क्या बताया?" मैंने पूछा,

 "यही कि आपमें छियासी का सामर्थ्य है?" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 ''छियासी जानती हो आप?" मैंने पूछा,

 "हाँ, जानती हूँ" उसने कहा,

 "क्या होता है छियासी?" मैंने पूछा,

 ''छियासी डौला में पारंगत" उसने कहा,

 "डौला नहीं तारा!" मैंने उसको सुधारा अब!

 "द्यौला!" मैंने कहा,

 मुंह फटा रह गया उसका अब!

 "जानती हो न द्यौला?" मैंने पूछा,

 चुप!

 "बताओ तो?" मैंने पूछा,

 "जानती हूँ" उसने कहा,

 "तो ये भी जान लो, कि अगर मुझे यहाँ बाबा ने भेजा तो उनका क्या उद्देश्य था!" मैंने कहा,

 "क्या उद्देश्य था?" उसने पूछा,

 "तुम्हारी रक्षा करना!" मैंने कहा,

 सन्न!

 "तुम सोच रही हो कि मैं झुक गया हूँ, भूरा की तरह हाँ-हाँ किये जा रहा हूँ तो तुम गलत हो!" मैंने कहा,

 चुप!

 "जितनी बात मैंने तुम्हारी सुनी, उतनी मैंने आजतक किसी की भी नहीं सुनी! मैं तो उस रोज ही यहाँ से चला जाता वापिस जब मेरी पहली बार तुमसे बात हुई थी! लेकिन बाबा ने मुझे रोका यहाँ!" मैंने कहा,

 अब मेरे शब्द गम्भीर और स्पष्ट हुए जा रहे थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैंने आजतक बहुत भण्डार देखे हैं धन के! अकूत! एक से एक लालच मिले हैं मुझे! महा-सिद्धियों के भी लालच, लेकिन मैं न तो झुका और न ही कभी किसी लालच में ही आया!" मैंने कहा,

 चुप!

 चुप सुन रही थी!

 सब!

 "अब सुनो! जैसा तुमने निर्णय लिया है वो करके देखो! बस में हो, तभी आगे बढ़ना, नहीं तो क्षमा मांग लेना, हट जाना!" मैंने कहा,

 चुप!

 ''सुन रही हो?" मैंने कहा,

 वो सब सुन रही थी!

 चुपचाप!

 "तुम दीपचंद बाबा की बेटी हो न?" मैंने पूछा,

 उसने सर उठाया अपना और मुझे देखा!

 "हो या नहीं?" मैंने पूछा,

 चुप!

 "वही आज़मगढ़ वाले दीपचंद बाबा?" मैंने कहा,

 ''हाँ" उसने कहा,

 "मैं उन्हें और वो मुहे भी जानते हैं!" मैंने कहा,

 सन्न फिर से!

 ''एक बार उनसे ही पूछ लेतीं मेरे बारे में!" मैंने कहा,

 फिर से एक और प्रहार!

 "खैर, अब जाने दो, जो ठाना है, उस पर बढ़ो आगे!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने अब पहली बार गम्भीर होकर और बिना अल्हड़ता के सर हिलाकर हाँ कहा!

 "फिर से कहता हूँ, क्षमा मांग लेना, सुरक्षित रहोगी, नहीं तो तुम आयीं तो थी यहाँ ये तंत्र-साधिका बन कर, वापिस गयीं तो साधारण ही हो जाओगी! वो भी यदि प्राण बचें तो!" मैंने कहा,

 "अब इस खेड़िया कपाल को रख लो! ये काम नहीं आने वाला वहाँ!" मैंने कहा,

 उसने मुझे देखा!

 मैंने उसे देखा!

 "तुमने बहुत कम आँका है क्षेत्रपाल के डोरे को तारा!" मैंने कहा,

 चुपचाप सुनती रही!

 "अब मैं चलता हूँ, रात्रि समय मैं आउंगा वहाँ, क्रिया-स्थल पर! वहीँ मुलाक़ात होगी अब!" मैंने कहा,

 और मैं वहाँ से डिगर आया!

 वापिस!

 अपने कक्ष में!

 "अब क्या कह रही थी?" शर्मा जी ने लेटे लेटे ही पूछा!

 "कुछ नहीं कहा उसने अब!" मैंने कहा,

 ''मतलब?" वे उठ बैठे ये कहते हुए!

 अब मैंने उनको सब बता दिया!

 "खुल गयीं न आँखें उसकी?" उन्होंने पूछा,

 "पता नहीं" मैंने कहा,

 "आपने जो समझाना था, समझा दिया, अब वो जाने!" वे बोले,

 "हाँ शर्मा जी!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर मैंने अपना बैग खोला! अपना सामान निकाला! ये तैयारी ही थी! आज मुझे वहाँ क्रिया मैं बैठना था! तारा के साथ!

 "मैं जाऊं क्या?" उन्होंने पूछा,

 "नहीं! मैंने कुछ नहीं करना, मैं सब करके आया हूँ जागृत!" मैंने कहा,

 "अच्छा गुरु जी!" वे बोले,

 "शर्मा जी, आज रात अपने कक्ष में ही रहना, बाहर नहीं जाना, चाहे कुछ भी हो! आज तारा को सब पता चलने वाला है कि क्षेत्रपाल से टकराने का नतीजा क्या होता है! आप नहीं निकलना कहीं भी! जब तक मैं न आऊँ वापिस!" मैंने कहा,

 ''ठीक है गुरु जी!" वे बोले,

 और मैंने अब अपना सामान आदि संजोना शुरू किया!

और फिर हुई रात! क्रिया-समय में बस आधे घंटे का ही समय शेष था, मैंने कभी भी किसी डोरे को नहीं भेदा था, न कभी चेष्टा ही की थी, आज ये मेरा पहली बार का अवसर था, हाँ, मैं व्यक्तिगत रूप से इसके विरुद्ध था लेकिन उस साध्वी को सबक मिलना भी अत्यंत आवश्यक था, मैं बस उसकी रक्षा हेतु ही वहाँ था, न मुझे उस स्थान से कुछ लेना था और न ही वहाँ गड़े धन से! मैंने अब अपने तन्त्राभूषण धारण किये और फिर अपना त्रिशूल, चिमटा और एक कपाल और आसन लेकर वहाँ से क्रिया-स्थल की ओर चला! मैं वहाँ पहुंचा, वहाँ सबकुछ तैयार था, अलख भड़क रही थी! वहाँ अभी भूरा बाबा बैठा था, तारा वहाँ नहीं आयी थी अभी, मैंने अपना आसन वहाँ लगाया और एक मंत्र पढ़ा, ये आसन के लिए मंत्र था, मैंने उस भूमि को नमन किया जहां मैंने आसन लगाया था, फिर मैंने अपना त्रिशूल वहाँ गाड़ा, फिर अपना चिमटा वहाँ रखा! उसके बाद सामने रखे थाल से चिता-भस्म उठायी और भस्म-स्नान किया, और एक और मंत्र पढ़ा, दश-दिशा पूजन किया, प्राण-रक्षा मंत्र से देह-पुष्ट की, और अब अपना चिमटा खड़खड़ाया! एक महानाद किया! और अब उसके बाद अघोर-पुरुष को नमन किया, गुरु-वंदना की और मैं तैयार हो गया!

 ठीक पौने बारह बजे, तंत्राभूषणों में सजी-धजी तारा ने वहाँ प्रवेश किया, वो भस्म-स्नान करके आयी थी, देखने में एक प्रबल साध्वी लग रही थी! उसने आते ही अपना स्थान ग्रहण किया और फिर आरंभिक मंत्रोच्चार किया! मैं उसके समक्ष बैठा था और भूरा उसके दायें, अलख भड़क रही थी, थाल सजाये गए थे, अपने त्रिशूल पर उसने तंत्र-बेलिया बाँध रखी थीं! खेड़िया-कपाल वहीँ उसकी जाँघों पर रखा था! उसने अपने खंजर से सामने की ओर एक चिन्ह बनाया भूमि


   
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श्रीशः उपदंडक
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पर और फिर वहाँ वो खेड़िया-कपाल स्थापित कर दिया! वो वैसा ही नियमपूर्वक कर रही थी जैसा उसने सीखा था, सवा हाथ से अधिक दूर नहीं होना चाहिए कपाल, ऐसा ही उसने किया था, अपने दायें हाथ की जद में ही त्रिशूल गड़ा होना चाहिए, उसने वैसा ही किया! पाँव आसन से दूर नहीं होने चाहियें, ऐसा ही किया उसने!

 "तैयार हो औघड़?" उसने पूछा,

 "हाँ!" हमने कहा,

 और अब परोसा हुआ मदिरा का प्याला, अपना अपना उठाकर खाली कर दिया हमने! क्रिया आरम्भ हो चली थी!

 "औघड़?" उसने कहा,

 मैंने आँखें उस पर जमायीं!

 "अपनी देख खोलो!" उसने कहा,

 अब मैंने अपना देख-मंत्र चलाया! नेत्र बंद किया और फिर कोई पांच मिनट के बाद नेत्र खोल दिए! सामने का दृश्य बदल गया था! वहा घड़े भरे पड़े थे अकूत धन से! भूमि में करीब दस बारह फीट नीचे! छोटी छोटी मटकियों से लेकर बड़े बड़े घड़ों तक, कच्ची मिट्टी से बने हुए और पकाये हुए बड़े बड़े घड़े! अब मैं समझ गया कि इस साध्वी की लार क्यों टपक रही थी इस स्थान पर आगे! मैंने और देख बढ़ायी और फिर एक जगह, एक जगह जाकर मेरी देख अटक गयी! वहाँ एक बड़ा सा लकड़ी का चित्र-पट्ट सा था, आधा भूमि में धंसा हुआ, या यूँ कहिये कि ज़मीन में गाड़ा हुआ! उस पर मणिभद्र क्षेत्रपाल का चिन्ह बना था और संस्कृत में वैसा ही मंत्र लिखा था जैसा मैंने उन ईंटों पर देखा था, उस चबूतरे की ईंटों पर! ये था वो डोरा! ये था डोरे का केंद्र! यहाँ से रक्षण करने हेतु ये डोरा खींचा गया था! सारा धन उसी डोरे के मध्य था! बहुत चाक-चौबंद सुरक्षा की गयी थी! डोरा खींचने वाले ने कोई भी चूक की न तो कोई गुंजाइश ही छोड़ी थी और न ही कोई अन्य विकल्प! ये लगभग असम्भव था! अब केवल एक ही प्रकार से इस धन को उठाया जा सकता था, कि ये डोरा भेदा जाए! और ये डोरा भेदना अत्यंत दुष्कर कार्य था!

 "देखा औघड़?" उसने पूछा,

 मैंने हाँ में गर्दन हिलायी!

 "शंका कोई?'' उसने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 अलख में ईंधन डाला उसने!

 अलख भड़की!

 अब मैंने अपना हाथ उठाते हुए, उसके बायीं तरफ इशारा किया, और फिर अपनी तर्जिनी ऊँगली से उस चित्र-पट्ट की ओर इंगित किया! उसने तभी बाएं घूमकर वो चित्र-पट्ट सा देखा!

 चिंतित तो हुई!

 लेकिन!

 अट्ठहास किया उसने!

 मेरी आशा के विपरीत!

 उसकी मूर्खता का एक और प्रमाण!

 "इस से घबरा गए औघड़?" उसने हँसते हुए कहा,

 मैं चुप ही रहा!

 "भूरा! खड़ा हो!" उसने कहा,

 भूरा कुत्ते की तरह से खड़ा हुआ!

 "यव-मालिका मुद्रा बना!" उसने कहा,

 भूरा एक ख़ास मुद्रा में खड़ा हो गया!

 ये क्या कर रही थी? डाका? चोरी? वो भी क्षेत्रपाल से?

 अब मेरा माथा घूमना शुरू हुआ!

 "कंटक-गान आरम्भ कर!" उसने कहा,

 वो रटे-रटाये तोते की तरह से बर्ताव कर रहा था! कमीना भूरा बाबा! धन के लालच में ये भी भूल गया कि कंटक-गान के चोथाई तक आते ही उसका क्या हाल होगा!

 "साधिके?" मैंने कहा,

 "बोलो?" उसने पूछा,

 "उसको मना करो कंटक-गान से" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "नहीं!!" उसने कहा,

 "ये चोरी है" मैंने कहा,

 "कैसी चोरी?" उसने अलख में ईंधन डालते हुए कहा!

 "यहाँ स्थानांतरण सम्भव नहीं!" मैंने चेताया!

 "सम्भव है!" उसने कहा,

 मेरा मन तो किया कि मैं उठ जाऊं वहाँ से, लेकिन फिर भी जिज्ञासावश वहीँ बैठा रहा! अब जो होना था सो हो! उनके साथ!

 मैंने अपना त्रिशूल दायें से उखाड़कर बाएं गाड़ दिया, ये देख वो साधिका चौंक पड़ी! उसने मुझे इशारे से मन किया, लेकिन मैं क्षेत्रपाल का कोपभाजन नहीं बनना चाहता था! इसीलिए मैंने उसको मना कर दिया!

 उसने आँखें तरेड़ी अपनी!

 मैंने कोई ध्यान नहीं दिया!

 "ये मारा जाएगा!" मैंने कहा,

 ''मेरे होते हुए नहीं!" उसने कहा,

 "गलत हो रहा है यहाँ, तुम गलत कर रही हो!" मैंने कहा,

 "मैं घुटने नहीं टेकती!" उसने कहा,

 और अब उसने भी मंत्रोच्चार आरम्भ किया!

 क्लिष्ट मंत्रोच्चार!

 और फिर!

 फिर!

 जैसे ही भूरा चौथाई में आया, उसने झटका खाया और अपने सामने की ओर जा गिरा! ये देख साधिका खड़ी हुई और उसने भूरा को आवाज़ देकर फिर से खड़ा किया! उसके मन्त्रों ने ही जैसे उस से बग़ावत कर दी थी! मैं सब देख रहा था! भूरा खड़ा हुआ और फिर से ख़ास मुद्रा बना कर खड़ा हो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 और फिर मित्रगण!

 जानते हो मैंने क्या देखा?

 जहां तक क्षेत्रपाल का परिसीमन था, वहाँ उस भूमि पर एक घेरे में आग लग उठी! प्रचंड लपटें! नीले रंग की दहकती लपटें! लौह को क्षणों में ही भस्म कर देने वाली लपटें! हमारे चारों ओर! करीब चार सौ फीट के दायरे में! वो सारा स्थान जैसे दहक उठा! ताप हमने महसूस किया!

 "बंद करो!" मैंने कहा,

 नहीं मानी!

 "बंद करो साधिके?" मैंने कहा,

 फिर भी नही मानी!

 और तभी भूरा भड़भड़ाता हुए नीचे गिरा! अपना गला पकड़ कर! आवाज़ न निकली उसके गले से! रुंध गयी आवाज़, क़ैद हो गयी गले में ही! वो तड़पा, लेकिन फिर भी साधिका न मानी!

 अब भूरा ने मुंह से रक्त फेंकना आरम्भ किया! वो तड़प रहा था!

 "साधिके?" मैं चिल्ला के खड़ा हुआ!

 वो नहीं मानी!

 "बस करो?" मैंने कहा,

 नहीं मानी!

 सघन मंत्रोच्चार!

 वे घड़े हिलने-डुलने लगे!

 मैंने सबकुछ देखा! सबकुछ!

उसने युक्ति तो सही चली थी, वो स्थानांतरित करना चाहती थी वो धन, परन्तु ये किस भी प्रकार से सम्भव ही नहीं था! इसको ऐसे समझिये कि जैसे उस असली के स्थान पर कुछ अन्य रख दिया जाए, और और असली वहाँ से उठा लिया जाए, लेकिन अभी तो केवल वहाँ ये क्रिया आरम्भ ही हुई थी और क्षेत्रपाल की क्षेत्राणि सजग हो उठी थी! मुझे इसका आभास तो था, लेकिन इतनी शीघ्र ऐसा होगा, ये नहीं अनुमान लगाया था! वहाँ भूरा बाबा तड़प रहा था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उसकी तड़प से बेखबर ये साधिका अपने ही मंत्रोच्चार में मगन थी! मुझसे उस भूरा का दुःख और तड़प नहीं देखा जा रहा था, मैं खड़ा हुआ और अपना त्रिशूल उठाया, और उसको अभिमंत्रित कर उस भूरा की कमर से छुआ दिया, त्रिशूल के छुआते ही उसका शरीर धनुष-टंकार मुद्रा में मुड़ा और वो सीधा हो गया फिर, रक्त बहना बंद हुआ लेकिन वो अचेत हो गया! कम से कम अपनी तड़प से तो मुक्त हो गया था वो! अब मैं मुड़ा उस साधिका की ओर, मैंने उसको देखा, वो निरंतर बैठी हुई जाप कर रही थी, भूमि में जैसे कई चक्कियां चल रही थीं, उनके पाट एक दूसरे को घिस रहे हों, ऐसी ऐसी आवाज़ें आने लगीं थीं! ये भय का माहौल था! कहीं भूमि ही न फट जाए और हम उसी में समा जाएँ! मैं आया तेजी से उस साधिका के पास और खड़ा हुआ उसके पास! उसके नथुने फड़क रहे थे, होंठ मंत्र के जाप से भिन्न-भिन्न मुद्राएं बना रहे थे!

 "साध्वी?" मैं चिल्लाया!

 उसने नहीं सुना!

 "साध्वी?" मैंने फिर से पुकारा!

 कोई उत्तर नहीं!

 तभी जैसे भूमि कांपी!

 मैंने संतुलन बनाया!

 लेकिन वो टस से मस न हुई!

 "साधिके?'' मैं फिर से चिल्लाया!

 कोई उत्तर नहीं!

 अब मुझे क्रोध आ ही गया!

 मैंने उसके केश पकड़ के उसको पीछे फेंक मारा!

 वो नीचे गिरी!

 हतप्रभ!

 खड़ी हुई!

 मुझे आँखें फाड़कर देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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 "वो देखो?" मैंने कहा,

 उसने वहीँ देखा जहां मैंने इशारा किया था!

 लपटें ऊंची हो गयीं थीं!

 वो फिर से अपने आसन पर आ बैठी!

 और उसने मिट्टी की एक चुटकी उठायी और एक मंत्र-पढ़ा! और मिट्टी अलख में फेंक मारी! लपटें शांत हो गयीं!

 मैं विस्मित हुआ!

 सच में!

 सच में!

 ताप शांत हो गया!

 दहक बुझ गयी!

 एक बात और!

 भूरा उठ खड़ा हुआ था!

 "निकल जाओ यहाँ से!" उसने मुझे गुस्से से कहा

 "मैं नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,

 "अभी इसी क्षण निकल जाओ!" उसने कहा,

 वो भूरा, जिसे अभी मैंने बचाया था, उसके पीछे आ खड़ा हुआ! उसने तो जैसे अपनी बलि देने की ठान ही ली थी


   
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