"महासिद्ध वीर!" मैंने कहा,
''तो क्या हुआ?" उसने कहा,
"अब जो मैं कहता हूँ, ध्यान से सुनना! तुम मृत्यु के पालने में झूल रही हो तारा! बेहतर होगा कि यहाँ से आज ही कूच कर जाओ!" मैंने कहा,
"आप कीजिये कूच!" उसने हँसते हुए कहा,
"मैं तो आज ही चला जाऊँगा! मुझे किसी की अनुमति की आवश्यकता नहीं!" मैंने कहा,
"तो ठीक है, एक विनती है मेरी, विनती? सुना? विनती?" उसने कहा,
"क्या और कैसी विनती?" मैंने पूछा,
"जब तक मैं कहती हूँ रुको यहाँ, देखो मैं क्या करती हूँ!" उसने कहा,
अंधी हो गयी थी वो! या उसको मतिभ्रम हो गया था! रास्ते का सांप भी रस्सी दिखायी दे रहा था! "मेरे रुकने से क्या होगा तारा?" मैंने पूछा,
"आपका भ्रम मिट जाएगा!" उसने कहा,
"भ्रम?" मैंने पूछा,
"हाँ, भ्रम!" उसने कहा,
"भ्रम तो आपको हुआ है तारा!" मैंने कहा,
"किसको भ्रम हुआ है परसों पता चल जाएगा!" उसने कहा,
"परसों?" मैंने पूछा,
"हाँ, मैं उस दिन यहाँ खुदाई करवाउंगी!" उसने कहा,
बस!
जिसका डर था, वही होने जा रहा था! ये अनभिज्ञ साध्वी जानती नहीं थी कि मणिभद्र क्षेत्रपाल के डोरे को भेदना इतना सरल कार्य नहीं! बड़े से बड़े साधक भी हाथ खड़े कर देते हैं अपने!
"साध्वी?" मैंने कहा,
"तारा! तारा बोलो!" उसने कहा,
वाह! एक और दम्भी रूप!
"हाँ! तारा!" मैंने कहा,
"अब बोलो?" उसने कहा,
"ये नहीं सोचा कि वो डोरा डाला किसने होगा?" मैंने कहा,
"इस से क्या फ़र्क़ पड़ता है?" उसने कहा,
"पड़ता है!" मैंने कहा,
"कैसे?" उसने पूछा,
"ये भी नहीं सोचा कि क्यों डाला होगा वो डोरा?" मैंने कहा,
"मैंने कहा न, क्या फ़र्क़ पड़ता है?" उसने कहा,
"बहुत फ़र्क़ पड़ता है साध्वी!" मैंने कहा,
"अच्छा! मुझे तनिक बताओ तो?" उसने कहा,
"क्षेत्रपाल का डोरा डालना, खींचना अपने आप में ही एक क्लिष्ट कार्य है! यदि पता हो तो कई कलाप होते हैं इसमें, उसके बाद इसको खींचा जाता है, और आप सोच रहे हो कि एक ही रात के क्रिया से आप भेद लोगे उसको?" मैंने कहा,
"क्या कहना चाहते हो, साफ़ साफ़ कहो?" उसने अब खड़े होते हुए पूछा,
"पहले बाबा से पूछो, क्षेत्रपाल के बारे में, कुछ भी करने से पहले! आप अबी तक अनभिज्ञ हो उनसे!" मैंने कहा,
"अच्छा?" उसने कहा,
"हाँ!" मैंने कहा,
'अच्छा?" उसने फिर से कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"चौंसठ के आठ ठहरे और आठ के आठ साध लिए तो?" उसने कहा,
उसने अपने उत्तर से मुझे चौंका दिया! सच में!
"धन के लिए साधोगी?" मैंने पूछा,
"नहीं, लक्ष्य के लिए!" उसने कहा,
"कैसा लक्ष्य?" मैंने पूछा,
"जिसके लिए मैं यहाँ आयी हूँ!" उसने कहा,
"गलत कर रही हो तुम!" अब मैंने कहा दिया!
"अच्छा! तो, गलत ही सही!" उसने कहा,
"पछताना होगा!" मैंने कहा,
"मुझे न? कोई बात नहीं!" उसने कहा,
"इसे कहते हैं जानबूझकर घर में सिंह को आमंत्रित करना!" मैंने कहा,
"कौन सिंह है और कौन नहीं, ये परसों पता चल जाएगा!" वो बोली!
"तुम्हारा जो हाल होगा, सो तो होगा ही, लेकिन साथ में ये बेचारे भी पछतायेंगे!" मैंने कहा,
"आपको कैसी फ़िक्र?" उसने पूछा,
"इनकी तो होगी न?" मैंने पूछा,
"तो इनको बचा लेना!" वो बोली,
"हाँ! सो तो है ही" मैंने कहा,
"सुनिये, अब मेरे मार्ग में न आइये आप!" उसने कहा,
"मैं तो हट चुका हूँ!" मैंने कहा,
"अच्छा हुआ!" उसने कहा,
"लेकिन आपके साथ अच्छा नहीं होने वाला!" मैंने कहा,
"उसकी चिंता आप न करें!" उसने कहा,
ज़िद्दी! हठी!
अब मैं क्या कहता!
वहाँ से चला आया!
सीधा शर्मा जी के पास!
"क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,
"इसने तो ठान लिया है!" मैंने कहा,
"मरना?" उन्होंने कहा!
"हाँ!" मैंने कहा,
"मैं जानता था, उसके हाव-भाव यही बता रहे थे!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
"अब क्या करना है?" उन्होंने पूछा,
"रुकना तो होगा, नहीं तो ये मारी जायेगी!" मैंने कहा,
"हम्म" वे बोले,
"समझ इसको आ नहीं रहा, मान किसी कि है नहीं रही? क्या करें?" मैंने कहा,
"बाबा से बात कीजिये आप गुरु जी!" वे बोले,
"हाँ, सही कहा!" मैंने कहा,
और मैंने तभी बाबा को फ़ोन किया, फ़ोन मिल गया, मैंने अब सारी बात बता दी बाबा को, बाबा ने कहा कि वो अभी बात करते हैं तारा से, यदि ऐसी बात है तो, और फ़ोन काट दिया, हम अपने कक्ष में आकर बैठ गए!
और थोड़ी ही देर बाद कक्ष में धड़धड़ाती हुई तारा आ पहुंची! क्रोधित! लाल चेहरा उसका!
"बैठिये?" मैंने कहा,
वो नहीं बैठी!
"क्या कहा बाबा से आपने?" उसने पूछा,
'वही जो सच है" मैंने कहा,
"मैंने क्या कहा था? मेरे आड़े नहीं आओ, मेरा रास्ता अलग और तुम्हारा अलग!" वो बोली,
"तो मैं क्यों आड़े आया?" मैंने पूछा,
"क्या अनाप-शनाप कहा है आपने बाबा को?" उसने पूछा,
"अपनी ज़ुबान सम्भालो साध्वी! हद से बाहर न निकलो! मैं यहाँ तुम्हारे कहने से नहीं, बाबा के कहने से आया हूँ!" अब मुझे क्रोध आया तो मैंने ऐसा कहा!
"अब मेरे रास्ते में नहीं आना, समझे?" उसने जैसे झिड़का मुझे!
और ये कहते हुए, पाँव पटकते, सर को झटका देते चली गयी वो वहाँ से!
मुझे हंसी आ गयी!
"क्या बला है ये!" शर्मा जी बोले!
"अला-बला कुछ नहीं, बस अंधी हो गयी है!" मैंने कहा,
"अब भाड़ में जाने दो उसको, अब बोलिये चलें वापिस?" उन्होंने कहा,
"नहीं शर्मा जी, ये अपने साथ यहाँ के मासूमों को भी दांव पर लगा रही है, हमको रुकना होगा!" मैंने कहा,
"जैसी आपकी इच्छा!" वे बोले,
तभी सोहन जी आ गए! और अब मैंने सारा सच उनको बता दिया! उनके पाँव तले ज़मीन खिसक गयी ये सुनकर! मैंने उनको कह दिया कि परसों इस घर में कोई न रहे, वे उस रात कहीं और ठिकाना देख लें!
वे मान गए! उस रात मैं और शर्मा जी बेचैन थे बहुत, मैं जानता था कि वहाँ क्या होने वाला है, क्षेत्रपाल का डोरा भेदना इतना आसान होता तो अभी तक सभी गड़े खजाने प्राप्त हो गए होते! चाहे भूकम्प आये या बाढ़, यदि कोई खजाना इस डोरे से बंधा है तो कदापि नहीं हिलेगा! और जो इसको भेदने का प्रयास करेगा उसको मृत्यु-तुल्य कष्ट उठाना होगा! साधक की मृत्यु भी सम्भव है! क्षेत्रपाल के एक सौ आठ परम-योद्धा वीर उसकी रक्षा करते हैं, एक एक को साधना इतना सरल कार्य नहीं! ये कोई भूत-प्रेत नहीं जो मंत्र से भागते चले
जायेंगे और मन के माफ़िक़ काम करेंगे! ये आन के वीर हैं, भिड़ना इनका जौहर है और इनसे भिड़ने का अर्थ है मृत्यु-वरण करना! लेकिन ये साध्वी अड़ी थी अपनी ज़िद पर! अब उसने क्या सोचा था ये तो वही जाने, मैं तो यही कहूंगा कि उसने एक गहरे कुँए में छलांग लगा दी थी बिना बाहर आने के सोचे! मुझे उस पर दया भी आ रही थी और मैं क्रोधित भी था, लेकिन दया का क्षेत्र क्रोध से कहीं अधिक विस्तृत होता है, दया में क्रोध ऐसे घुल जाता है जैसे दूध में पानी! मैंने बहुत विचारा और फिर यही निर्णय लिया कि इस साध्वी को बचाया जाए! इसके लिए अब मुझे वैसा ही करना था जैसा ये साध्वी कहे! और मैं इसके लिए तैयार था! किसी के प्राण आहूत न हों, यही प्राथमिकता थी और यही औघड़-निर्णय हुआ करता है! मैं कदापि नहीं चाहता था कि इस साध्वी का कोई अहित हो, हालांकि उसने इस बारे में कोई क़सर नहीं छोड़ी थी! उसका तो ये हाल था कि बलि के लिए बलि-स्थल पर चल दी है वो भी अपना ही खड्ग लिए!
मैंने अपना निर्णय शर्मा जी को बताया! उन्होंने भी थोड़ी बहुत बहस की लेकिन फिर वे मान गए, यहाँ किसी के प्राण बचाने वाली बात थी और ये सत्य भी था! इसीलिए मैं तैयार हो गया था! मैंने कभी ऐसा डोरा नहीं भेदा था, मैं नहीं जानता था कि क्या होगा भेदन-क्रिया में! इसीलिए मैं उठा और फिर निकल पड़ा उस ज़िद्दी साध्वी के कक्ष की ओर!
उसके कक्ष का दरवाज़ा बंद था! मैंने खटखटाया!
"कौन?" अंदर से उसी की आवाज़ आयी!
"मैं!" मैंने कहा,
"क्या करने आये हो?" उसने पूछा,
''आपसे कुछ बात करने" मैंने कहा,
"मुझे कोई बात नहीं करनी आपसे" उसने कहा,
"पहले दरवाज़ा खोलो" मैंने कहा,
"आप चले जाइये वापिस" उसने कहा,
"सुनो तो सही?" मैंने कहा,
"आपने सुना नहीं?" उसने कहा,
"सुन लिया मैंने, अब दरवाज़ा खोलो" मैंने कहा,
"आप जाइये यहाँ से" वो बोली,
''सुनो मेरी बात, एक बार!" मैंने कहा,
"मुझे नहीं सुननी" उसने कहा,
गुस्सा तो मुझे बहुत आया! लेकिन शांत रहा मैं!
"तारा, एक बार मेरी बात सुनो" मैंने कहा,
"नहीं, मैं नहीं खोलूंगी" उसने कहा,
"तारा, केवल एक बार ही सही?" मैंने कहा,
"क्या काम है?" उसने पूछा,
"है कोई काम" मैंने कहा,
"काम बताइये?" उसने कहा,
"पहले दरवाज़ा तो खोलो?" मैंने कहा,
"काम बताइये" उसने कहा,
"आपका ही काम है" मैंने कहा,
"कैसा काम?" उसने पूछा,
"मैं साथ हूँ आपके!" मैंने कहा,
शान्ति!
कुछ पल शान्ति!
फिर दरवाज़े की कुण्डी खुलने की आवाज़ आयी!
और दरवाज़ा खुल गया!
वो सामने खड़ी थी!
"आओ" उसने कहा,
अंदर बैठा वो बाबा मुझे उल्लू की तरह से देख रहा था!
"हाँ, अब बोलो?" उसने कहा,
"सुनो तारा!" मैंने कहा,
"बोलो?" उसने कहा,
"मैं तुम्हारे साथ हूँ" मैंने कहा,
वो मुस्कुरायी!
"किसलिए?" उसने पूछा,
बड़ा ही तीक्ष्ण प्रश्न किया था उसने!
"मैंने देखना चाहता हूँ" मैंने कहा,
"क्या देखना?" उसने पूछा,
"कि डोरा कैसे भेदा जाता है!" मैंने कहा,
"आ गयी अक्ल?" उसने पूछा,
निरा घमंड का भाव!
मुझे अपमान महसूस तो हुआ लेकिन मैं वो घूँट पी गया!
"हाँ तारा!" मैंने कहा,
"अच्छा हुआ!" उसने कहा,
अब वो बैठ गयी वहीँ पर!
उसने भूरा से मेरा गिलास भरने को कहा! भूरा ने बड़ी ही अजीब सी नज़र से मुझे देखा, साले को एक झापड़ रसीद करने का मन हुआ, लेकिन उस से बात बिगड़ जाती! इसलिए उस भूरा को भी बर्दाश्त किया!
भूरा ने गिलास भरा और मुझे दिया, मैंने ककड़ी का एक टुकड़ा उठाया और खाया, फिर गिलास खाली कर दिया, और रख दिया!
"परसों में वो क्रिया करुँगी" उसने कहा,
''हाँ, आपने बताया था" मैंने कहा,
"आप अब तो बैठ रहे हैं?" उसने फिर से उपहास सा किया मेरे साथ!
"हाँ!" मैंने कहा,
"अब सही निर्णय है आपका" उसने कहा,
"धन्यवाद!" मैंने कहा,
"कोई आवश्यकता नहीं" उसने कहा,
घमंड के मारे फूली हुई थी! मैं सब देख रहा था!
उसने फिर से भूरा को गिलास भरने को कहा, उसने भर दिया और मुझे दे दिया! मैंने वो भी खाली कर दिया!
"ये डोरा दो तरीक़े से भेदा जाता है!" उसने कहा,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"सम्मान के साथ, या फिर भिड़ कर!" उसने हँसते हुए कहा,
"सम्मान के साथ ही ठीक है!" मैंने भी हँसते हुए कहा,
"क्यों? भिड़ने से डरते हैं आप?" उसने प्रहार किया!
"हाँ!" मैंने कह दिया!
जो सच है सो है!
वो कुटिल हंसी हंसी! मेरे मन को छिद्रित कर दिया उसकी इस हंसी ने!
"मैं दोनों तरह से तैयार हूँ!" उसने कहा,
"बढ़िया है!" मैंने कहा,
''लेकिन आप अभी भी तैयार नहीं हैं!" उसने कहा,
"मैं हूँ न!" मैंने कहा,
'आपने पूछा था कि मैंने कभी धन निकाला है? हाँ, निकाला है, लेकिन वो मेरे हाथ नहीं लगा, खराब हो गया!" उसने कहा,
"खराब? कैसे?" मैंने पूछा,
"वहाँ मुझसे ही गलती हुई" उसने कहा,
"कैसी गलती?" मैंने पूछा,
"अब हो गयी एक गलती!" उसने कहा,
अब मैंने और सवाल नहीं पूछा!
अब एक और गिलास! वो भी खाली किया!
"सुनिये, जैसा मैं कहूं ऐसा करना होगा आपको" उसने कहा,
"मैं करूँगा" मैंने कहा,
"बस! अब कोई अवरोध नहीं!" उसने कहा,
अवरोध! उसने अभी अवरोध देखा ही कहाँ था!
"जैसी आपकी इच्छा!" मैंने कहा,
"आप देखते जाइये!' वो बोली,
मैं तो देख ही रहा था!
न उसने मानना ही था और न ही वो मानी! अब मुझे भी उसके साथ ही रहना था, कहीं कोई अनहोनी न घट जाए उसके साथ! मैं नहीं चाहता था कि उसके साथ कोई अहित हो, जोश और जुनून में फ़र्क़ होता है, यहाँ जोश तो था लेकिन जुनून इस क़दर हावी था कि उसको सब दीखना जैसे बंद हो गया था! नया नया जोश था उसको, अब पता नहीं वो क्या सिद्ध करना चाहती थी! हाँ, मुझे क्या करना था वो मैं जान गया था! बखूबी! और वही अब करना था!
"परसों रात्रि वही कोई बारह बजे?" मैंने पूछा,
"हाँ, वही बारह बजे" वो बोली,
"स्थान?" मैंने पूछा,
"वहीँ, पीछे की तरफ" उसने कहा,
'वहाँ छप्पर के पीछे?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
अब भूरा ने एक और गिलास भर दिया, मैंने उठाके खाली कर दिया!
"कोई विशेष तैयारी जो मुझे करनी है?" मैंने पूछा,
''वो तो आप जानते ही हैं" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
"और हाँ! जैसा मैं कहूं, वैसा हो!" उसने कहा,
"अवश्य!" मैंने कहा,
"मैं कल से इसकी तैयारियां आरम्भ कर दूँगी, कुछ सामान मंगवाना है वो ये भूरा सोहन से कह देगा और काम हो जाएगा!" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
"आप परसों आ जाना यहाँ जल्दी ही" वो बोली,
''आ जाऊँगा" मैंने कहा,
फिर एक और गिलास!
वो भी खाली किया!
''अब मैं चलता हूँ" मैंने कहा,
"रुकिए अभी" उसने कहा,
मैं रुक गया,
"आपको अष्ट-वीर का ज्ञान है, इसीलिए मैंने आपको इस क्रिया में शामिल किया है, जानते हैं?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"मुझे किसी भी प्रकार की चूक पसंद नहीं है" उसने कहा,
"नहीं होगी" मैंने कहा,
"एक बात और!" उसने कहा,
"कहिये?" मैंने कहा,
"आप सीधे सीधे इस क्रिया में नहीं हैं, मैंने आपको स्थान दिया है, ये स्मरण रहे!" उसने कहा,
"जानता हूँ" मैंने कहा,
"फिर ठीक है" वो बोली,
"अब मैं चलता हूँ" मैंने कहा,
"ठीक है" उसने कहा,
अब मैं उठ खड़ा हुआ वहाँ से, मेरे पीछे भूरा उठा और दरवाज़ा बंद कर लिया उसने! मैं चल पड़ा अपने कक्ष की ओर!
वहाँ पहुंचा!
वहाँ सोहन और मोहन दोनों बैठे थे, चिंतित, शर्मा जी से बात कर रहे थे वे दोनों! मुझे देख खड़े हुए तो मैंने उनको बैठने को कहा, वे बैठ गए!
"कैसे परेशान हो सोहन जी?" मैंने पूछा,
"आपने जब से बताया है मुझे, तब से भय बैठा हुआ है" वे बोले,
"भय त्याग दो, मैंने तो सुरक्षा के लिए ऐसा कहा था" मैंने कहा,
"फिर भी, डर तो लगता है है" वे बोले,
"घबराइये मत!" मैंने कहा,
बहुत देर तक मैं उनको आश्वस्त करता रहा और तब जाकर वे माने!
वे चले गये!
"कहाँ फंस गए आप भी गुरु जी?" शर्मा जी ने कहा,
"अब क्या करूँ?" मैंने कहा,
"हाँ, अब किया भी क्या जा सकता है?" वे बोले,
"कहीं उस ज़िद्दी साध्वी ने कुछ गड़बड़ कर दी तो इनकी जान पर बन आएगी!" मैंने कहा,
"इसीलिए मैंने इनको कहा कि जैसा गुरु जी ने कहा है, वैसा ही करो!" वे बोले,
"सही समझाया आपने" मैंने कहा,
"मैं जानता था" वो बोले,
अब उन्होंने मदिरा का एक गिलास भरा, मेरे लिए, फिर अपने लिए, वे शायद पहले से ही ले रहे थे, और तभी सोहन आ गए, एक तश्तरी में कुछ सलाद लिए, मैंने उनको भी बिठा लिया वहीं!
"वैसे गुरु जी? यहाँ कुछ है भी?" उन्होंने पूछा,
"मुझे नहीं दिखा अभी तक" मैंने कहा,
"आपने देख लगायी?" उन्होंने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
''आप एक बार लगाते तो सही?" उन्होंने कहा,
"अब परसों मैं भी बैठूंगा क्रिया में, वहीँ देख लूँगा!" मैंने कहा,
"ये बढ़िया रहेगा" वे बोले,
"तभी जांच हो जायेगी" मैंने कहा,
और हमने अपने अपने गिलास उठाये और खाली किये!
"हाँ जी" वे बोले,
"वैसे सोहन जी, उन साधू-महात्मा ने कहाँ फंसा दिया आपको!" शर्मा जी ने कहा,
"अब क्या करूँ मैं भी!" वे झेंप कर बोले,
"कोई बात नहीं!" मैंने झेंप हटाई उनकी!
"जो भी हो मुझे बताना गुरु जी, मुझे अब इस साध्वी पर यक़ीन नहीं रहा, दस दिन से हुकम चला रही है यहाँ!" वे बोले,
''कोई बात नहीं, परसों पता चल जाएगा!" मैंने कहा,
"हाँ जी" वे बोले,
अब एक और गिलास!
वो भी खाली किया गया!
"ठीक है जी, मैं चलता हूँ अब" वे उठे और चले गए!
"लालच तो इनको भी है!" शर्मा जी बोले,
"वो तो है ही" मैंने कहा,
"चलो देखते हैं परसों" वे बोले,
"हाँ!" मैंने मुस्कुराते हुए कहा,
अब मैं लेट गया! खुमारी बढ़ गयी थी! सो लेटना ही उचित था! शर्मा जी भी लेट गए और फिर कुछ ही देर में आँख लग गयी!
सुबह उठे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए और फिर चाय-नाश्ता भी किया, और फिर हम दोनों बैठ गए वहीँ!
तभी मुझे कुछ ध्यान आया!
"आना शर्मा जी" मैंने कहा,
"कहाँ गुरु जी?" उन्होंने पूछा,
"चलिए तो सही" मैंने कहा,
वे उठे और मेरे साथ चल पड़े!
हम वहीँ उस छप्पर के पीछे गए! वहाँ का तो नज़ारा ही अलग था! पूरा क्रिया-स्थल बना दिया गया था वहाँ तो! एक बड़ी सी अलख बना दी गयी थी! जगह साफ़-सुथरी और सुरक्षित भी थी, कोई रोक-टोक नहीं कर सकता था वहाँ! बढ़िया जगह चुनी थी उसने!
"जगह तो बढ़िया है!" शर्मा जी बोले,
"हाँ, एकदम माफ़िक़!" मैंने कहा,
"है तो कारगुजार ही!" वे बोले,
"कोई शक़ नहीं" मैंने कहा,
तभी मेरी नज़र वहाँ एक और सामान पर पड़ी, ये तांत्रिक-बेलिया थी, एक केश-चोटी! अर्थात वो किसी शक्ति का आह्वान भी कर सकती थी! सबकुछ तैयार था! अभी हम वहाँ खड़े बातें कर ही रहे थे कि वहाँ भूरा बाबा आ गया, हमे देख चौंका तो सही, लेकिन उसने अपनी
चौंकाहट हटा ली चेहरे से! वो झाड़ू और एक तसला लाया था, साफ़-सफाई करने आया था, उनसे नमस्कार की, तो हमने भी की!
"और भाई भूरा, कैसा है!" मैंने पूछा,
"बढ़िया हूँ" उसने झाड़ू मारते हुए कहा ज़मीन पर!
"और तुम्हारी वो साध्वी?" मैंने पूछा,
"ठीक हैं" वो बोला,
"कल होगी क्रिया!" मैंने कहा,
"हाँ जी" वो बोला,
"वैसे तुझे पता है यहाँ क्या है गड़ा हुआ?" मैंने पूछा,
"हां" उसने कहा,
"क्या?" मैंने पूछा,
"धन है" उसने कहा,
"अच्छा! दिखाया तुझे?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
उसने हाँ कहा, कहना ही था!
"कैसा है धन?" मैंने पुछा,
अब वो रुका, खड़ा हुआ!
"ये तो आप उनसे पूछिए" वो बोला,
उनसे!
"ठीक है भूरा!" मैंने कहा,
और हम चले वापिस वहाँ से!
"पागल है साला!" शर्मा जी ने कहा,
