वो एक गड्ढा था, करीब पांच फीट गुणा पांच फीट, मैंने गौर से उसकी जांच की थी, उसके अंदर कहीं कहीं चूना भी था, और टेल में लाल रंग की बजरी भी थी, यहाँ कहीं इस स्थान पर ऐसी बजरी नहीं होती थी, ये अवश्य ही यहाँ लायी गयी होगी, मेरे साथ एक साध्वी भी खड़ी थी, जिसने ये काम सम्भाला था, और उसके साथ एक और बाबा भी था, ये बाबा पश्चिमी बंगाल का रहने वाला था, जिला बागडोरा से आया था, ये साध्वी भी वहीँ की ही थी, मै उस समय गड्ढे को ही देख रहा था, गड्ढा कोई चार फीट गहरा था और उसमे से एक मूर्ति निकली थी, टूटी हुई, बिलकुल खंडित, शायद उसको इसी अवश्था में दबाया गया था, वे साध्वी और वो बाबा आपस में बातें कर रहे थे, लेकिन मै उनसे बेखबर गड्ढे को ही देखे जा रहा था, शर्मा जी भी मेरे साथ ही थे, उस मूर्ति को एक बोरे में भर लिया गया था, अब मै वो मूर्ति ही देखना चाहता था! सो मैंने सोहन साहब से इच्छा जताई कि मुझे वो मूर्ति दिखाएँ, वे मुझे वहाँ बने एक कमरे में ले गए, और सोहन साहब ने वो बोरा खोला, उसमे से कई टुकड़े बाहर आ गए, ये पत्थर के नौ टुकड़े थे! मै बैठा, और उनको देखा, फिर मैंने और शर्मा जी ने उस मूर्ति को जोड़ने का प्रयास किया, मूर्ति आकार लेने लगी, ये किसी पुरुष की आकृति थी, नग्न रूप में, लेकिन ऐसी मूर्ति मैंने पहले कभी नहीं देखी थी, ये न तो किसी देवता का ही स्वरुप-चित्रण था और न ही किसी अन्य यक्ष अथवा गांधर्व का! हाँ, मूर्ति के एक हाथ में एक बक्सा सा बना था छोटा सा, लेकिन इसका क्या अर्थ था, ये समझना बहुत मुश्किल काम था! न तो ये कोई बीजक ही था और न ही कोई अन्य नक्श! अब यहाँ से मुझे जांच करनी थी और इसीलिए मुझे यहाँ खेमचंद बाबा ने भेजा था! बाबा खेमचंद बंगाल के बागडोरा में रहा करते थे, उनका एक डेरा था अपना, मै कई बार वहाँ रुका था, बाबा बहुत ही विनम्र और शांत प्रवृति के थे! मेरे से अक्सर खूब निभती थी उनकी! वाराणसी ने मैंने और उन्होंने कई माह भी बिठाये थे और मेरे एक गुरु-भाई के वे कनिष्ठ गुरु भी रह चुके थे! इसीलिए मै उनका समग्र आदर करता था, उनका आदेश हुआ तो मै वहाँ चला आया था! शर्मा जी मेरे साथ ही थे! उन्होंने ही मुझे यहाँ का पता दिया था और उन्ही के कहने पर इस बाबा, जिसका नाम भूरा बाबा था, मैंने बात भी की थी!
यहाँ जब मै आया तो रहस्य बना हुआ था! उन्होंने सोचा क्या था और हुआ क्या था! ये तो मै समझ ही चुका था कि ये धन से सम्बंधित ही मामला था, वैसे मै धन से सम्बंधित मामले नहीं सुलझाता लेकिन बाबा खेमचंद ने कहा था सो मुझे आना पड़ा!
अब मैंने सोहन साहब से पूछा, "सोहन साहब, ये सारी भूमि आपकी ही है?"
"जी हम तीन भाई हैं, मै बड़ा हूँ उनमे से, हम तीनों ही मिलकर यहाँ इस भूमि पर खेती करते हैं" वे बोले,
"अच्छा, और इस गड्ढे की खुदाई किसके कहने पर करवाई गयी थी, बाबा भूरा के कहने पर?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"कब?" मैंने पूछा,
"जी कोई पांच दिन हुए" वे बोले,
"किसने बताया कि यहाँ धन है?" मैंने पूछा,
"जी जिसने भी देखा उनसे यही कहा" वे बोले,
"मुझे पूरी बात बताओ" मैंने कहा,
हम अब चारपाई पर बैठ गए!
"जी बात ऐसी है, कि कोई डेढ़ महीने पहले हमारे यहाँ एक साधू-महात्मा आये, मैंने दान दिया उनको, तो वो बोले, कि तेरे यहाँ इतनी संपत्ति गड़ी है उसे निकाल क्यों नहीं लेता? मैंने पूछा, जी कहाँ? तो वे मुझे इसी स्थान तक ले गए, और फिर कुछ भभूत डाली इसके ऊपर और बोले, कि यहाँ, किसी भी पूर्णिमा की रात को यहाँ से वो संपत्ति निकाल लेना!" वे बोले,
''अच्छा! फिर?" मैंने पूछा,
"जी ये बात मैंने अपने भाइयों को बताई, उन्होंने भी यही कहा कि इस पूनम की रात को ऐसा कर लिया जाए" वे बोले,
"तो आपने खोदा?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, लेकिन गुरु जी, जैसे ही खोदा, बड़ी अजीब सी बात हुई!" वे बोले,
"क्या बात हुई?" मैंने पूछा,
"जी हमारे घर में जैसे भूकम्प सा आ गया, हम सबने महसूस किया, घर के सारे जानवर रम्भाने लगे, हमे लगा कि कोई अपशकुन है ये, फिर तो हिम्म्त ही नहीं हुई हमारी" वे बोले,
"तो छोड़ दिया?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"तो ये बाबा और वो साध्वी?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, मेरे छोटे भाई के एक गुरु जी हैं वाराणसी में, ये वहाँ गया, उन्होंने दो आदमी भेजे, दो बाबा, उन्होंने भी कहा कि यहाँ धन है लेकिन पहले पूजा करनी पड़ेगी, और फिर उन्होंने पूजा की, और एक दिन निश्चित कर दिया, और जिस रात वो खुदाई होनी थी, उसी दिन एक बाबा बीमार पड़ गए, उनको दस्त लग गए, उनको अस्पताल ले जाना पड़ा, अब हम और घबरा गए" वे बोले,
'अच्छा!" मैंने कहा,
"तो वे नहीं खुदवा सके?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, वो बाबा मरते मरते बचे, फिर वो भी चले गए चार दिन बाद" वे बोले,
''अच्छा! फिर?" मैंने पूछा,
"अब छोटे भाई ने फिर से अपने गुरु से संपर्क साधा, कई आदमी आये लेकिन कोई सफल नहीं हुआ, तब जाकर बाद में एक बाबा मिले, उन्होंने ये बात भूरा बाबा, जो ये हैं, इनको बताई, तो ये यहाँ आ गए" वे बोले,
'अच्छा, तो फिर खुदाई हुई?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, पांच दिन पहले खुदाई हुई, इन्होने सब बाँध लिया था, इसीलिए कुछ नहीं हुआ, लेकिन धन तो नहीं निकला, बस ये टूटी हुई मूर्ति बाहर आयी" वे बोले,
'अच्छा!" मैंने कहा,
मैंने फिर से उस मूर्ति को देखा!
"सोहन जी, इसको वापिस रख दो इसी बोरे में" मैंने कहा,
उन्होंने वे टुकड़े वापिस उस बोरे में डाल दिए!
और मै शर्मा जी को लाकर बाहर आ गया! अब मुझे ज़रा उन दोनों से बात करनी थी! कहानी धन से शुरू हुई थी, लेकिन बाबा खेमचंद को धन की क्या आवश्यकता? यही दिमाग में खटक गयी बात!
तभी सोहन के छोटे भाई मोहन आ गए, वे दूध लाये थे, उन्होंने एक एक गिलास सभी को दिया, हमने भी लिया और पी लिया! फिर उन्होंने खाने को पूछा तो मैंने मना कर दिया! अभी भूख नहीं थी!
अब मैंने उस बाबा को बुलाया, वो आया,
"भूरा आप ही हो?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
''और ये?" मैंने साध्वी के बारे में पूछा,
"ये तारा है" वो बोला,
''अच्छा!" मैंने कहा,
"आपको ही भेजा है न बाबा खेमचंद ने?" तारा ने पूछा,
"हाँ, आज ही आया हूँ" मैंने कहा,
और फिर हम बात करते हुए आगे चले!
"तारा? तुम्हे कैसे पता चला कि यहाँ धन है?" मैंने पूछा,
"ताड़क-विधि से" उसने कहा,
"क्या आया उत्तर?" मैंने पूछा,
"पीला रंग" उसने कहा,
"तो क्या इसका अर्थ धन या सोना हो गया?" मैंने पूछा,
"अक्सर तो यही होता है, ताड़क-विधि गलत नहीं बोलती" उसने कहा,
"लेकिन पीला तो कुछ और भी हो सकता है?" मैंने कहा,
"क्या जैसे?" उसने पूछा,
"पीला तो कोई सात्विक-स्थल भी हो सकता है" मैंने कहा,
'हाँ हो सकता है" उसने कहा,
'तो तुमने इसको खुदवा दिया!" मैंने कहा,
"हाँ, क्योंकि कोई चोट नहीं हुई" उसने कहा,
"हो सकता है कि जानबूझकर ही न की हो?" मैंने कहा,
"ऐसा नहीं होता" उसने कहा,
"पक्का?" मैंने रुक कर पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
मैं समझ गया, धन ने सारा विवेक हर लिया था इस साध्वी का!
"तो तुमने पांच दिन पहले यहाँ खुदाई करवायी?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"पूजन करने के बाद ही?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"लेकिन धन तो नहीं मिला न!" मैंने कहा,
उसने मुझे देखा!
मैंने भी देखा!
"मिलेगा!" उसने कहा,
"यहाँ मिलेगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"ये जो जगह है, किसी ज़माने में या तो कोई मंदिर था या कोई इमारत आदि, यहाँ धन की गंध है" उसने कहा,
"मुझे तो ऐसा नहीं लगा?" मैंने कहा,
"देख लगाओ पहले" उसने कहा,
"हाँ, आवश्यकता हुई तो लगाऊंगा" मैंने कहा,
"तब कहना ऐसा" उसने कहा,
वो बड़ी ही तीक्ष्ण वाणी बोल रही थी! या तो अभी अनुभव नहीं था या धन का लोभ अधिक था!
"क्या देखा तुमने देख में?" मैंने पूछा,
"जो मैंने बताया, यहाँ नीचे एक इमारत का हिस्सा दफ़न है" उसने कहा,
"अच्छा! लेकिन मुझे बाबा खेमचंद ने कहा कि मैं जाकर देखूं वहाँ, जो बन पड़े वो मदद कर दूँ" मैंने कहा,
''जब आवश्यकता होगी तो आपको बुलाया जाएगा" उसने कहा,
भूरा बाबा भी पीछे पीछे आ रहा था हमारे!
"लेकिन एक बात समझ नहीं आयी तारा?" मैंने पूछा,
"क्या, पूछो?" उसने कहा,
"बाबा खेमचंद को क्या आवश्यकता पड़ी धन की?" मैंने पूछा,
"ये आप उन्ही से पूछना, मुझे जिसलिए भेजा गया, मैं आ गयी" उसने तपाक से उत्तर दिया!
"वो तो ठीक है तारा, लेकिन फिर भी? आपका क्या विचार है?" मैंने पूछा,
उसने फिर से मुझे देखा!
मैंने भी आँखें मिलाईं!
"यहाँ धन है, यही जान लो आप" उसने कहा,
और चली गयी वहाँ से, अपनी धोती का पल्लू सम्भालते हुए! उसके साथ वो भूरा बाबा भी दौड़ पड़ा! तेज़-तर्रार थी ये साध्वी! मुझे तो यही लगा! अब पता नहीं उसने कौन सा तरीक़ा लगाया था धन ढूंढने का! लेकिन मेरे मन में अभी भी खटक थी, कि बाबा खेमचंद को क्या आवश्यकता पड़ी यकायक धन की?
खैर,
अब मैं वापिस हुआ, शर्मा जी के पास आया जो निरंतर मुझ पर नज़र टिकाये हुए थे! मैं आया वहाँ, उन्होंने अपने लिए चाय बनवा ली थी, एक गिलास में मुझे भी दे दी! मैं भी चाय पीने लगा!
"क्या कह रही थी ये?" उन्होंने पूछा,
"पता नहीं, अपनी ही धुन में मगन है ये तो!" मैंने कहा,
"इसके हाव-भाव ही ये बता रहे हैं!" वे बोले,
"हाँ, है तो तेज़-तर्रार!" मैंने कहा,
"कुछ मामला समझ आया?" उन्होंने पूछा,
"अभी तक तो कुछ भी नहीं" मैंने कहा,
"ये धन का ही चक्कर है निरा!" वे बोले,
"हाँ ये तो है ही!" मैंने कहा,
"मैंने आपको चलने से पहले ही कहा था!" वे बोले,
"हाँ, वही है ये, अब देखते हैं" मैंने कहा,
"हाँ, देखना तो पड़ेगा ही" वे बोले,
"लेकिन शर्मा जी, बाबा खेमचंद को क्या आवश्यकता पड़ गयी धन की?" मैंने पूछा,
"ये तो बाबा ही बताएं!" वे बोले,
"आज करता हूँ बात" मैंने कहा,
और हमारी चाय ख़तम हुई अब!
और हम उठ गए!
चल दिए फिर से गड्ढे तक!
देखने!
हम गड्ढे तक पहुंचे, और एक बार फिर से जांच की, गड्ढे में वैसा कोई विशेष कुछ भी नहीं था, सामान्य ही था, लेकिन एक खंडित मूर्ति का मिलना भी एक आश्चर्य से कम नहीं था, वो मूर्ति साधारण थी, काले पत्थर की बनी हुई, कोई विशेष रूप से अलंकृत भी नहीं थी वो, न ही कोई आभूषण आदि से श्रृंगार किया हुआ था, बस एक ढाई फीट की मूर्ति और कुछ नहीं! हाँ, उसके
बाएं हाथ में एक छोटा सा बक्सा सा था! ये बक्सा क्या था, ये समझ नहीं आया था! खैर, सबसे पहले तो ये बात कि एक खंडित मूर्ति को दबाने का क्या औचित्य था? उसके नौ टुकड़े किये गए थे? लेकिन किसलिए? क्या अभिशप्त थी वो मूर्ति? सोहन जी ने बताया था कि खुदाई से पहले कुछ अपशकुन हुए थे, वो किसलिए? क्या कोई नहीं चाहता था कि वो मूर्ति बाहर निकले? आखिर क्यों? और सबसे बड़ा रहस्य कि वो मूर्ति आखिर गाड़ी किसने थी? बहुत सारे सवाल थे दिमाग में और उनका उत्तर नहीं मिल पा रहा था! और इस साध्वी तारा ने भी कोई मदद नहीं की थी, वो अपनी ही धुन में लगी हुई थी! और वो बाबा भूरा, वो तो पिछलग्गु था इस तारा का! उस से कुछ पूछना बेमायनी था! खैर, हमने गड्ढा देखा, वहाँ लाल बजरी थी, ऐसी यहाँ तो नहीं मिलती थी, ज़मीन भी रेतीली थी, उसमे क्या किया गया था कि वहाँ पहले लाल बजरी रखी गयी थी, और फिर उसके बाद उस खंडित मूर्ति को उसमे रखा गया था! एक खंडित मूर्ति को दबाने के लिए भी पूरा ध्यान रखा गया था! यही बात खटक रही थी मन में! कि आखिर किसलिए?
एक बात और थी वहाँ, वहाँ चूना भी था, अर्थात वहाँ या तो कोई निर्माण करवाया गया था या फिर कोई छोटा सा चबूतरा बनवाया गया था, खुदाई के समय मैंने कुछ नहीं देखा था, इसलिए मुझे पता नहीं था, सो मैंने और शर्मा जी ने सोहन से ही पूछना उचित समझा, हम सोहन के पास गए, वे अपने कमरे में कुछ हिसाब-किताब सा कर रहे थे, हमको देखा तो खड़े हुए और हमको अंदर बिठाया, हम बैठ गये,
"सोहन जी, कुछ पूछना है, यदि समय हो तो पूछूं?" मैंने कहा,
"ज़रूर गुरु जी" वे बोले,
"जब यहाँ गड्ढे की खुदाई हुई थी, तब आप वहीँ थे?" मैंने पूछा,
"नहीं जी, मुझे मना कर दिया गया था" वे बोले,
"मना? किसने मना किया था?" मैंने पूछा,
"जी भूरा बाबा ने" वे बोले,
"अच्छा! तारा के कहने पर ही!" मैंने कहा,
"हाँ जी, वे बोले कि सुरक्षा का मामला है" वे बोले,
"हम्म" मैंने कहा,
"अच्छा, कौन कौन था वहाँ उस समय?" शर्मा जी ने पूछा,
"वो बाबा जी और तारा और साथ में दो मजदूर भी थे" वे बोले,
"अच्छा, ठीक है" मैंने कहा और हम उठ लिए वहाँ से, अब मुझे तारा से पूछना था, सो हम तारा से मिलने के लिए निकल पड़े! तारा वहीँ पास में बने एक कमरे में ठहरी थी, सो हम वहीँ गए.
उसका दरवाज़ा बंद था, मैंने खटखटाया दरवाज़ा!
"कौन?" अंदर से आवाज आयी,
"मैं हूँ" मैंने कहा,
''आइये अंदर" वो बोली,
अब हम दोनों अंदर चले गए!
अंदर सामान बिखरा पड़ा था, पूजा से सम्बंधित! वस्त्र और अन्य कई वस्तुएं!
"कहिये?" उसने पूछा,
"कुछ पूछना है, यदि इजाज़त है तो" मैंने कहा,
"हाँ, हाँ, पूछिए" वो बोली,
"जब खुदाई हुई थी गड्ढे की तो आप वहीँ थीं?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"क्या गड्ढे में कोई चबूतरा भी था?" मैंने पूछा,
"हाँ था, एक छोटा सा, कच्ची ईंटों से बना हुआ" वो बोली,
''अच्छा! तो वो तोड़ दिया गया?" मैंने पूछा,
"हाँ, उसके बाद ही तो वो मूर्ति निकली थी?'' उसने कहा,
"अच्छा! वो चबूतरा चूने से चिना था?'' मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
"वाह! आपने सोचा यही है वो जगह जहां धन गड़ा है!" मैंने कहा,
"हां, यही सोचा!" उसने कहा,
"चबूतरा कैसा था? मेरा मतलब उस पर कुछ लिखा तो नहीं था, कोई चिन्ह आदि?" मैंने पूछा,
"पता नहीं, मैंने नहीं देखा" उसने कहा,
"उसकी ईंटें कहाँ फेंकी?" मैंने पूछा,
"पता नहीं, सोहन ने फेंकी थी, मजदूरों के साथ" वो बोली,
खीझ गयी थी शायद वो!
"ठीक है, धन्यवाद!" मैंने कहा और वहाँ से उठा!
वो पीछे आयी और धाड़ से दरवाज़ा बंद कर दिया!
अब मैं फिर से सोहन के पास गया!
वे कमरे में ही थे!
हमे देखा, खड़े हुए और हम अंदर आ गए!
"सोहन जी, वहाँ एक चबूतरा निकला था, उसकी कुछ ईंटें थीं, वो कहाँ फिकवायीं आपने?" मैंने पूछा,
"वो पीछे पड़ी हैं" वे बोले,
"मुझे दिखाइये" मैंने कहा,
"चलिए" वे बोले और खड़े हुए,
हम वहाँ पहुंचे!
वहाँ ईंटें पड़ी थीं! हलके केसरी रंग की ईंटें थीं वो, कच्ची ईंटें! मैं बैठा वहाँ और ईंटें उठायीं, और एक एक करके देखीं, सहसा मुझे कुछ ईंटों पर कुछ गुदा सा दिखायी दिया, मैंने वो ईंटें एक तरफ रखनी शुरू कर दीं, और जब छांट लीं तो वो छह थीं! अब मैंने उनको जोड़ा, वो ऊपर का हिस्सा था शायद! और अब की उसकी जांच!
वो एक वृत्त की आकृति थी, उसमे एक त्रिभुज बना था, पहली नज़र में ये कोई यन्त्र सा लगा, एक यांत्रिक-चिन्ह! लेकिन इसका कोई महत्त्व अवश्य ही था, और ये सुलझाना आसान काम नहीं था! फिर भी मैंने फौरी तौर पर उसकी जांच शुरू की, उस त्रिभुज में अंदर एक स्वास्तिक का चिन्ह था, और उसके इर्द-गिर्द कुछ लिखा हुआ था, लेकिन ये स्पष्ट नहीं था, इसको किसी पेंसिल की मदद से ही उस पर फेर कर पता किया जा सकता था!
मैंने तभी एक पेंसिल मगवाई, पेंसिल ला दी गयी, अब मैंने उस गुदे हुए अंश पर पेंसिल फेरी, थोडा समय तो लगा लेकिन एक मंत्र सा उभर गया! ये संस्कृत का एक मंत्र था, और उस आरम्भ एक महाप्राण व्यंजन से हुआ था और अंत भी महाप्राण व्यंजन पर! और तब मैंने ध्यान से वो मंत्र पढ़ा! और मैं चौंक पड़ा! ये दग्ध-मंत्र था! अर्थात जिसको दफन किया गया था वो कभी अपना प्रभाव न दिखा सके, ऐसे कई क़िस्से मैंने सुने थे और कुछ एक मैंने देखे भी थे, लेकिन यहाँ अलग बात थी, यहाँ एक खंडित मूर्ति थी! अब एक खंडित मूर्ति क्या प्रभाव दिखा सकती थी? थोडा और दिमाग लगाया, हो सकता है कि इस मूर्ति में ऐसा कुछ था जो अभी तक पकड़ में नहीं आया था! क्या हो सकता था ऐसा? बड़ा उलझा हुआ सवाल था!
अब मैंने वे ईंटें वहीँ रख दीं, और खड़ा हुआ,
"कुछ पता चला?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ, ये मूर्ति किसी प्रकार से अभिशप्त है" मैंने कहा,
''अभिशप्त?" उन्होंने अचरज से पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"वो कैसे?" उन्होंने पूछा,
"यहाँ दो मंत्र गुदा हुआ है वो दग्ध-मंत्र है, इसका प्रयोग ऐसी कि कार्यों के लिए होता है" मैंने कहा,
"इसका मतलब यहाँ कोई बहुत ही बड़ा रहस्य है" वे बोले,
"हाँ, लगता तो ऐसा ही है" मैंने कहा,
"और धन?" उन्होंने पूछा,
"हो सकता है कि यहाँ हो" मैंने कहा,
''अच्छा" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा.
और अब हम अपने कमरे में चले, कमरे में जूते खोल लेट गए, तभी सोहन के छोटे भाई मोहन आये वहाँ, उन्होंने खाने की पूछी तो मैंने हाँ कर दी, हमने पहले हाथ-मुंह धोये और फिर खाना खाया, और फिर आराम करने के लिए लेट गए! आँख लग गयी हमारी और हम सो गए!
जब आँख खुली तब शाम के पांच बज चुके थे, शर्मा जी अभी भी सो रहे थे, मैंने जगाया उनको, वे जागे, घड़ी में समय देखा उन्होंने,
"काफी देर सोये?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
और तभी सोहन जी आ गए वहाँ,
"आइये!" शर्मा जी ने कहा,
अब वो बैठ गए, एक कुर्सी पर!
"गुरु जी?" वे बोले,
"जी बोलिये?" मैंने कहा,
"यहाँ कुछ है भी या फिर ऐसे ही उलझाये हुए हैं ये लोग?" उन्होंने पूछा,
"मैंने अभी कोई देख नहीं लगायी सोहन जी, मुझे यहाँ तारा की मदद करने के लिए भेजा गया है, बस" मैंने कहा,
"गुरु जी, कैसे भी करके देख लगाइये आप" वे बोले,
"ज़रुरत पड़ेगी तो ज़रूर लगाऊंगा" मैंने कहा,
"गुरु जी, घर में सभी परेशान हो गये हैं, मोहल्ले में भी पूछताछ करते हैं लोग, अभी तो बात दबी हुई है, लेकिन कब तक?" वे बोले,
"हाँ, ये बात तो सही है" मैंने कहा,
"इसीलिए मैंने कहा आपसे गुरु जी" वे बोले,
"ये तारा क्या कहती है?" मैंने पूछा,
"कह रही है कि अभी कोई दस दिन और लगेंगे" वे बोले,
"दस दिन?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"मैं बात करूँगा उस से" मैंने कहा,
"जी गुरु जी" वे बोले और खड़े हो गए!
"आइये शर्मा जी" मैंने कहा जूते पहनते हुए,
"चलिए" वे बोले और उन्होंने भी जूते पहने अपने,
और अब हम बाहर चले,
मैंने सोचा क्यों न तारा से इस विषय पर बात के जाए? सो मई तारा के कक्ष की और चला, वहाँ पहुंचा, दरवाज़ा खुला था, अंदर वो बाबा बैठा हुआ था, कुछ भोजन किया था उसने शायद, बरतन वहीँ रखे थे, और तारा फ़ोन पर किसी से बात कर रही थी, उसने मुझे देखा और आँखों के इशारे से अंदर आने को कह दिया, मैं और शर्मा जी अंदर चले गये फिर,
तारा ने बात की और फ़ोन काट कर एक तरफ रख दिया, उस बाबा ने मुझे टुकर-टुकर घूरा! मैंने ध्यान नहीं दिया उस पर!
"तारा?" मैंने कहा,
"बोलो?" उसने कहा,
"सोहन जी ने बताया कि अभी दस दिन और लगेंगे यहाँ? ऐसा क्या है?" मैंने पूछा,
"जैसा मैंने बताया था, यहाँ बहुत कुछ है, उसमे दस दिन तो लग ही जायेंगे कम से कम" वो बोली,
"मतलब और खुदाई करनी है आपको?" मैंने पूछा,
"हाँ, अभी ज़रुरत है" उसे कहा,
मुझे आश्चर्य हुआ ये सुनकर!
"देख क्या कहती है आपकी?" मैंने पूछा,
"देख के ही मैंने बताया है" वो बोली,
"मुझे उस टूटे चबूतरे की ईंटें मिली हैं, उन ईंटों पर एक दग्ध-मंत्र खुदा था, आपने देखा?" मैंने कहा,
"दग्ध-मंत्र? नहीं तो?" उसने कहा,
"इसका क्या अर्थ हुआ?" मैंने पूछा,
"किसका?" उसने पूछा,
"दग्ध-मंत्र का" मैंने पूछा,
"अब उसका कोई अर्थ नहीं, हम आगे पहुँच गए हैं उस से और आज रात वहाँ मैं एक और क्रिया करुँगी, ताकि साफ़ साफ़ पता चल जाए" उसने कहा,
"अच्छा!" मैंने कहा,
वो अडिग थी!
"आप बैठेंगे?" उसने पूछा,
"नहीं!" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"मुझे धन का लालच नहीं" मैंने कहा,
उसने अब कटु-दृष्टि से मुझे देखा!
और क्या! सांच को आंच क्या!
"यहाँ अकूत धन है, सुना आपने?" उसने कहा,
"होगा! मुझे नहीं चाहिए" मैंने कहा,
"बाबा से बात कर लेना, पूछ लेना किसलिए बुलाया है आपको यहाँ" उसने कहा,
"धन निकालने के लिए?" मैंने पूछा,
"पहले बात करो उनसे" वो बोली,
अब मुझे कुछ रहस्य लगा इसमें भी! अब बात करना आवश्यक था बाबा से!
अब बाबा से बात करना आवश्यक हो चला था, मैं जानना चाहता था कि बाबा को धन की क्या आवश्यकता और ये कि मेरा यहाँ काम क्या है? तारा तो अपने आप में ही मस्त है, उस से
बात करना कोई सुझाव देना न देना सब बराबर ही है! दरअसल ये तारा उम्र में होगी कोई तीस के आसपास, तेज़-तर्रार थी, काफी विद्याएँ जानती थी, उसने अपने दम पर यहाँ खुदाई करवा दी थी, ये कोई छोटी बात नहीं थी! हाँ उसको अपने दमखम पर कुछ अधिक ही दम्भ था, बस यही एक अवगुण था उसमे!
अब मैंने बाबा को फ़ोन लगाया, फ़ोन व्यस्त था, मैंने काट दिया, थोडा इंतज़ार किया और फिर बाबा का ही फ़ोन आ गया, नमस्कार हुई! कुछ हालचाल की बातें और फिर यही कि कब आये और खबर क्यों नहीं की, हालांकि तारा से उनको पता चल गया था कि मैं वहाँ आ गया हूँ! ये बातें होने के बाद मैंने अब उनसे सबसे पहले ये पूछा कि उनको धन की क्या आवश्यकता है? तो उन्होंने उत्तर दिया, धन की उन्हें नहीं, उनकी इस साध्वी को आवश्यकता है, इसने अपना स्थान बनाना है अपना, और मुझे ये भी बताया कि वो साध्वी तारा बाबा खेमचंद के छोटे भाई की लड़की है! अब मैं समझा कि उसके नखरे इतने बढ़चढ़ के क्यों थे! अब दूसरी बात ये कि मैं यहाँ क्यों भेजा गया हूँ? तो उन्होंने कहा कि जैसा अब तक तारा ने उनको बताया है, वो जगह कीलित तो है ही, साथ ही साथ वहाँ कुछ शक्तियां भी विचरण कर रही हैं! और चूंकि मैं हस्तिनापुर से अधिक दूर नहीं तो इसीलिए उन्होंने मुझे वहाँ भेजा है! बात ख़तम! अब जो जानना था वो जान लिया!
अब मैं गया तारा के पास!
तारा वहीँ बैठी थी, मुझे अंदर बुलाया उसने,
मैं अंदर चला गया!
"बात हो गयी बाबा से?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"अपने सवालों के जवाब मिल गए?" उसने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब क्या कहते हो?" उसने पूछा,
"मैं तो आपकी सहायता के लिए यहाँ आया हूँ तारा" मैंने कहा,
"तो फिर आज बैठिये क्रिया में?" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
