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वर्ष २०१० लखीमपुर खीरी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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आवाजें आयीं! हम आ गए घेरे में! अलख में ईंधन झोंका! ठीक सामने, प्रकाश कौंधा! एक जगह से नहीं, चार जगह से! हरा और नीला सा! 

और आ रहा था उधर ही! हमारे पास! 

"कोई आ रहा है!" बोला मैंने, "क्या दिख रहा है?" पूछा कौशुकि ने, "अभी तो कुछ नहीं!" कहा मैंने, "वो देखो!" बोले शर्मा जी! मैंने देखा, सामने तोजो दृश्य था, वो बड़ा ही ज़बरदस्त था! वे पांच फन वाले सर्प थे! बड़े और विशाल! पांच फन वाले सर्प मैंने देखे हैं, लेकिन ऐसे विशाल नहीं! ये तो मुझे शेषनाग-सखा समान लग रहे थे। उनके आदर में मेरे हाथ अकस्मात ही जुड़ गए थे! मैंने जोड़े तो शर्मा जी ने भी जोड़े! कौशुकि ने भी जोड़े ही होंगे! हालांकि वो देख नहीं पा रही थी, लेकिन वो सर्प तो उसको देख ही रहे थे! मन में खोट न हो, तो 'उस' से भी झगड़ लो! लड़ लो! मन में खोट हो, तो क्या मजाल कि वो अपना एक खरबवाँ अंश भी आपको छुने देगा! इस संसार में याचक तो बहुत हैं, देने वाला कोई नहीं! हैं, तो मात्र उंगलिओं पर गिन लो! उनका छाजन करो, तो कोई स्वार्थ से, कोई यश हेतु ऐसा करता है! कई बार कहता हूँ मैं! उसको आपके धन से, वस्त्रों से, छप्पन भोगों से कुछ लेना देना नहीं! बस, एक पल भी, यदि स्वच्छ मन से, एक पल भी आपने स्मरण किया उसका, तो वो अपना सुलोक छोड़, इस मृत्युलोक में आने से भी गुरेज नहीं करेगा! आपका एक पल, आपका जीवन उसके पालने में डाल देगा! ऐसे ही ये दिव्य-सर्प! कोई शत्रु नहीं हैं मेरे! कोई शत्रु नहीं! मैं तो बस, उन नागराज के दर्शन कर लूँ, बस! इसका लालच है बस! वे चारों आ गए थे समीप! जिव्हा ऐसे लपलपायें कि जैसे तलवारें! कोई देख ले, तो मूर्छित हो, देह-त्याग कर दे! या, रक्त की पेचिश लग जाएँ उसे! जीवन पर्यन्त, यही दिखे उसको! उठ उठ चिल्लाये! जीवन नरक हो जाए! वे चारों सामने ही खड़े थे! लेकिन क्रोध में नहीं थे वे! जैसे कोई मसौदा लेकर आये हों, ऐसा लगता था। 

एक आगे बढ़ा, 

और घेरे के समीप आ गया! फन नीचे किया अपना, 

सर पर, पीले रंग का एक छल्ला था उसके! हर एक फन पर! जैसे अक्सर पद्म-नाग में हुआ करता है! वे सभी शांत थे! सभी के सभी! आँखों में क्रोध नहीं था उनके! मुझे न जाने क्या हुआ, शायद उनका प्रभाव रहा हो वो, मैं घेरे से बाहर चला आया! उसने फन उठाये अपने! मेरे से भी ऊंचे! जैसे कोई बड़ी सी छतरी हो मेरे सर पर! 

और फन नीचे किये उसने! अब आँखों से, वे दस आँखें मिलीं! गुलाबी, चटख रंग की! "क्षमा हे नाग-वल्ल्भ!" कहा मैंने, हाथ जोड़ते हुए, वो चाहता, तो एक स्पर्श करता मुझे, और मैं धूल चाट रहा होता! उसने,अपना बीच वाला फन, सामने किया मेरे, 

और मेरे माथे पर अपनी जिव्हा से चाटा! बेहद गर्म थी उसकी जिव्हा! मेरे तो निशान पड़ गया था उसी क्षण! लाल रंग का! जले का निशान, एक मिट्टी का मानव, कैसे झेले उनकी दिव्यता! वो झट से, पीछे हटा! 

और भूमि में एक छेद हुआ! धुंआ निकला! 

और निकले, अठारह बड़े बड़े बर्तन! स्वर्णाभूषण! बहुमूल्य रत्न! और नमिषा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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नमिषा, एक द्रव्य! इसको चाटने से कभी रोग नहीं होगा! कलुष की आवश्यकता ही न होगी! नाग-विद्या स्वतः ही सिद्ध होंगी! काम-वर्धक! नाग-सुंदरी, ऐच्छिक रूप से प्रकट होंगी! मैं हंस पड़ा! "हे नाग-वल्ल्भ! नहीं!" कहा मैंने, मैंने कहा, और वो लोप! फिर से वो सर्प आगे आया! ठीक मेरे सामने, मुझे घूरा उसने, मैंने हाथ आगे किया अपना, 

और छू लिया उसका गला! ठंडा था! बहुत ठंडा! उसने मुझे कुछ न कहा! मैंने उसके सर पर हाथ फेरा! उसकी ठुड्डी पर हाथ फेर! एक एक शल्क, मेरी छाती के बराबर! उसने मुझ पर विश्वास किया था! मेरे अश्रु छलक उठे! जब पोंछे, तो हल्की सी फंकार भरी उसने! पीछे हटा, 

और वे, चारों लोप हुए! प्रेम! श्रद्धा! आस्था! इनका कोई मोल नहीं! मैं आया वापिस, घेरे में घुसा! शर्मा जी ने कस कर, गले लगा लिया। 

मेरी रुलाई फूट गयी! मैं चिपक गया उनसे! 

आंसू पोंछे मेरे उन्होंने! माथा चूमा मेरा! "आप, सच में विलक्षण हो!" बोले वो! मैं लिपट गया उनसे! उन महाभट्ट सर्पो ने, एक मिट्टी के मानव पर विश्वास किया था! कैसा परम भाग्यशाली था मैं! कैसा सुख मिला था मुझे! जीते जी, स्वर्गानन्द मिला मुझे! शर्मा जी ने मेरी कमर ठोंकी! "आप सफल हुए!" बोले वो, 

शब्द न निकल रहे थे मेरे मुंह से! शर्मा जी, बार बार मुझे देखे जाएँ! कौशुकि, मेरे आंसू पोंछे जाए! मैं भावुक हो उठा था! काश, संसार में प्रेम ही प्रेम बसता! सब मेरे होते! हर घर, मेरा होता! काश.. 

और तब, सहसा ही, भूमि में कम्पन्न हुए! संतुलन बनाना मुश्किल हुआ! मैंने त्रिशूल उखाड़ लिया था, जानता था, कोई ऐसा तो नहीं होगा, 

कि कोई अहित करे! लेकिन, सतर्क रहना आवश्यक था! वे सर्प, चले गए थे, ये उनका सीमा अधिकार था, अब आगे कौन? ये जानना था मुझे! मित्रगण! मेरी अलख! झक्क से शांत हो गयी! मैंने इंधन झोंका! कुछ न हो! कोई आ रहा था! कोई प्रबल! मैं तैयार था! किया महानाद! उखाड़ा त्रिशूल! पंच-लेक्ष का जाप किया! 

और हुआ मुस्तैद! कोई बढ़ा आ रहा था! कोई विशेष ही! मुझे सच में उस समय अत्यंत ही तीव्र उत्कंठा चढ़ी थी! कि कौन है वो! और जो आया, वो सच में अद्वितीय था! ये एक सर्प था! लाल और पीले रंग का! धारियां थीं लाल रंग की! बहुत विशाल था! सुगंध फूट रही थी! माहौल सुगंधित हो चला था! वो आया तेजी से! और रुक गया कुछ दूर आकर ही! मैंने प्रणाम किया उसे! उसकी पूंछ देखी तो समझ आया, वो दिव्य कुहुक था! उसने कोई फुकार नहीं भरी! न ही जिव्हा लपलपाई! शांत पीली आँखों से, हमें ही देखता रहा! वो आगे बढ़ा, और चला आया एकदम आगे! इतना आगे कि मैं छू भी सकता था उसको! मैंने सर झुका दिया! शर्मा जी ने भी! उसने कुंडली जमाई अपनी उधर, और बैठ गया शांत! हम्म भी बैठ गए थे! उसने हमारा जैसे मुआयना किया था कुछ पल, उसके बाद, वो मड़कर, चल दिया वापिस! कोई अहित नहीं, कोई शक्ति-प्रदर्शन नहीं! कोई बल-प्रदर्शन नहीं! सब शान्ति से निबट गया था! अलख बुझ गयी थी, पुनः उठायी मैंने, शर्मा जी ने ईंधन झोंका उसमे! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तो कौशुकि भी अलख में ईंधन झोंकने लगी थी! उसको ऐसा करते देख, अच्छा लगने लगा था मुझे भी! वो सामग्री उठाती, और जैसे मैं डालता था झटके से, ऐसे ही डालती थी वो भी! मैं देख लेता था उसको कभी-कभार! 

वो जीवट वाली थी! ठान ले तो करना ही है, ऐसी सोच थी उसकी! करीब आधा घंटा बीत गया! और वहां दूर, उस बड़े से गड्ढे पर, कुछ प्रकाश के पिंड से नज़र आने लगे! उनका प्रकाश यहां, हमारे पास तक आ रहा था! कौशुकि नहीं देख पा रही थी उस प्रकाश को! वो तो बस, हमें ही देखती रहती थी! जो समझ न आता, वो पूछ लिया करती थी! वे पिंड, रह रह कर, ऊपर उठ रहे थे! पीले पीले से पिंड! जैसे बड़े बड़े गुब्बारे हों वो! 

और उनमे जैसे प्रकाश को कैद कर दिया गया वो! "शर्मा जी! आ गया वो समय!" कहा मैंने, "कैसे?" हैरत से पूछा उन्होंने, "अब कोई विरोध नहीं है! कोई नहीं आ रहा!" कहा मैंने, "तो?" बोले वो, "हमें उस गड्ढे तक चलना होगा!" कहा मैंने, "सुरक्षित होगा?" पूछा उन्होंने, "हाँ! अवश्य ही!" कहा मैंने, "आओ कौशुकि!" कहा मैंने, 

और हाथ बढ़ाया उसकी तरफ! उसने झट से मेरा हाथ थाम लिया! हुई खड़ी, वस्त्र किये ठीक, और चल पड़ी अब हमारे संग! हम उन पत्थरों से निकल, उन झाड़ियों से बचते-बचाते हुए, चले उस बड़े गड्ढे की तरफ! वहां पहुंचे एक एक गड्ढा चमक रहा था। 

जैसे अंदर दीये लगे हों! कौशुकि न देख पा रही थी! मैं उसका हाथ थामे, ले जा रहा था उसको किसी समतल स्थान पर! "कौशुकि! हमारे पीछे ही रहना!" कहा मैंने, उसने मुस्कुरा के हाँ कहा! 

और अब मैं चला उस बड़े गड्ढे पर! जहां वे पिंड तैर रहे थे! मैंने तब, काल-जिहुषा का स्मरण कर, जाप किया! उस स्थान की मिट्टी, अपने मस्तक से लगाई। मैं मंत्रोच्चार करता रहा, करता रहा! तीन से अधिक का समय हो चला था उधर! फिर उस गड्ढे में, जैसे पानी की लहरें थिरकी हों, ऐसी आवाज़ आई! 

सुगन्धि के भभके उठ पड़े! एक बात और, अब वहाँ ओंस भी नहीं पड़ रही थी! तभी धम्म-धम्म की सी आवाज़ हुई! 

और अगले ही पल! अगले ही पल उस गड्ढे के ऊपर, एक अत्यंत ही रूपवान नागकुमार प्रकट हो गए। "प्रणाम!" कहा मैंने, ये थे असली नागकुमार! अपने लोक से प्रकट हुए थे! गौर वर्ण उनका! चेहरा प्रदीप्ति से पूर्ण! उज्जवल श्वेत वस्त्र उनके! देह ऐसी सुगठित कि जैसे अश्व! वे मुस्कुराये, और लोप हुए! तब तक शर्मा जी और कौशुकि दौड़े चले आये थे मेरे पास! "ये कौन थे?" पूछा शर्मा जी ने, "कोई नागकुमार थे! अथवा इस स्थल के प्रहरी!" कहा मैंने, "मझे तो यही लगे थे वो नागराज!" बोले वो, "मुझे भी यही लगा था!" कहा मैंने, 

कौशुकि तो मारे उत्सुकता के, बार बार मेरा हाथ पकड़, खींचे मुझे! "मुझे भी बताइये?" बोली वो, तब मैंने उसको बता दिया सबकुछ! वो एक एक शब्द, सुनती गयी! आश्चर्य में डूबती चली गयी! मित्रगण! उसी क्षण, पुष्प वर्षा होने लगी! आकाश से, लाल-लाल रंग के छोटे पुष्प, गिरने लगे थे वहाँ! पूरा गड्ढा भर चला था उन पुष्पों से! "अद्भुत!" बोले शर्मा जी! "हाँ! अद्भुत!" कहा मैंने, तदोपरांत! वहां, चार नागपुरुष और चार नाग कुमारियाँ प्रकट हुई! साक्षात दिव्यता को


   
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श्रीशः उपदंडक
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देख रहे थे हम! ऐसा रूप, कि जो एक बार देख ले, स्वयं से भी वैरागी हो जाए! संसार तो वो उसी क्षण से छोड़ देगा! रम जाएगा इसी रूप में उनके! 

आंसू बहते जाएंगे! न रुकेंगे कभी फिर! वे नागपुरुष, श्वेत वस्त्रों में सुशोभित थे! 

भूमि से आधा फुट ऊपर थे! चौड़ी देह, चौड़े कंधे! चौड़ा चेहरा और चौड़ा ललाट! केश राशि, कमर तक! यवनिका के रंग की पराकाष्ठा थीये। 

वे नाग कुमारियाँ! साक्षात रति सादृश्य! उन्होंने आभूषण धारण किये थे! दिव्य आभूषण! 

कोई अंग ऐसा नहीं, जहां आभूषण न हों! रूपवान इतनी! कि पलक मारना भूल जाए व्यक्ति! अंग-प्रत्यंग ऐसे, कि कल्पना भी न छू सके! रूप-रंग ऐसा, कि कब सांस थम जाए तो पता भी न चले! गौर-वर्ण! कमर में लाल डोरी सी पहनी थी उन्होंने! उस डोरी से, आभूषण लटके थे, जंघाओं तक! हम तो साँसें थामे देख रहे थे उन्हें! हाथ कब जुड़ गए, पता ही न चला! उन नाग कुमारियों के केश, नीचे पिंडलियों तक थे! आभूषणों से जड़े हए! सुगंध फैली थी! पावन माहौल था! दिव्यता का जैसे चरम था वो दृश्य! 

एक आगे बढ़ी! "हे नाग-सौम्या! आप इन्हें भी दर्शन दें!" मैंने कौशुकि को आगे करते हुए कहा! 

वो आगे आई! स्पर्श किया कौशुकि के सर को 

और कौशुकि! कौशुकि जड़ हो गयी! वो जो देख रही थी, वो स्वर्ग न था! वो धरा थी! मेरे पावन देश की धरा! और ये सब, मेरे देश में हो रहा था! 

अभी मैं कुछ कहने ही वाला था कि, कौशुकि ने संतुलन खोया अपना, इस से पहले वो गिरती, मैंने पकड़ लिया उसका हाथ! वो अचेत हो चली थी! यही तो होता है! जब ऐसी दिव्यता से सामना होता है, तो साधारण मानुष का ऊर्जा क्षय होने लगती ही! रुधिर थमने लगता है! मस्तिष्क, जैसे शिथिल हो जाता है, परिणामस्वरूप,मूर्खा आ जाती है! वो नाग-सौम्या आगे बढ़ी! देखा कौशुकि को, फिर पीछे हुई, जल की सी महीन बौछार पड़ी उसके और हमारे ऊपर! 

और कौशुकि झट से खड़ी हो गयी! चेहरे का रंग बदल गया! मुझे तो कौशुकि, अब कौशुकि ही न लगे! 

वो सभी को देखे! 

और फिर उसने प्रणाम किया! सभी ने उसका प्रणाम स्वीकार किया! कुछ पलों के लिए, नव-चेतना का संचार हो चला था कौशुकि में! "साधक!" बोला एक नागपुरुष! मैं हाथ जोड़े, हुआ उधर! "तुम द्वितीय हो, जो यहां आये! प्रथम, एक साधिका, व्याहवी आई थीं!" बोला वो, 

ओह! व्यावी! प्रणाम उन्हें! अब आ गया था समझ कुछ कुछ। ये स्थल, ढूँढा नहीं गया था! इस स्थल पर, 

आह्वान किया था उस व्याह्वी ने तभी से, ये स्थान जागत है! ये नागों का वास नहीं था! ये तोसींचा था उस व्याहवीने! पता नहीं, कब आई होंगी व्यावी! प्रणाम! पुनः प्रणाम! "आपको, दर्शन अवश्य ही होंगे!" बोला वो, 

और झम्म से लोप हुए वे सब! कौशुकि, शून्य में घूरे! जैसे अभी तक वो देख रही हो उनको! "कौशुकि?" कहा मैंने, हिलाया उसको! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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न देखे हमें! वहीं घूरे जाए! अजीब सी हालत थी उसकी तब! "कौशुकि?" कहा मैंने! न सुने, वहीं घूरे जाएँ! 

आँखें ऐसे बंद करे, जैसे नशा कर लिया हो, "कौशुकि?" मैंने उसे गाल पर, ज़रा चपत सी लगाते हुए कहा, 

आँखें बंद करे वो, लेकिन बोले कुछ नहीं! "कौशुकि?" कहा मैंने, अब ज़रा घबरा गया था मैं! ऐसे में, मस्तिष्क शिथिल हो जाता है, उसी दृश्य में नज़रें बनाये रखता है! अवचेतन अपना खेल खेलता है यहां! यदि ऐसा ही रहा, तो हालात बहत खराब हो सकते थे। मैंने उसको पकड़ा, दोनों भुजाओं से, वो मुड़ी, लेकिन मुझे न देखे, "कौशुकि? देखो मुझे?" कहा मैंने, उसको हिलाया बहत, बहत! 

"शर्मा जी?" कहा मैंने, "हाँ?" बोले वो, "इसकी हालत ठीक नहीं, ये सदमे जैसी हालत है!" कहा मैंने, "हाँ, क्या करें?" बोले वो, "पानी कहाँ है?" पूछा मैंने, "वहीं है" बोले वो, मैंने आसपास देखा, वो एक जगह,मानसरोवर का पौधा लगा था, "उस पौधे में से पानी ले आओ!" कहा मैंने, पानी जमा कर लेता है मानसरोवर! पक्षी आदि पी लेते हैं उसको! इसीलिए भेजा था! शर्मा जी, पानी ले आये, यूंट भर पानी था उसमे, पत्ते का दोना बनवाया उनसे, 

और लगाया कौशुकि के होंठों से, न पिए, होंठ बंद कर ले! अब आया मुझे गुस्सा! सच में ही गुस्सा आया! मैंने गुस्से में एक चांटा कस के रख दिया उसको! उसे होश आया जैसे! तन्द्रा टूटी उसकी! अवचेतन हटा वहाँ से, अब चेतन का काम था! उसके गाल पर, निशान छप आये, दो लकीरें बन गयीं, खून छलक आया था। उसने हाथ लगाकर देखा उधर, "क्षमा कौशुकि!" कहा मैंने, उसके आंसू छलक आये! रोने लगी! "क्षमा! मैं ऐसा नहीं चाहता था!" कहा मैंने, वो झटके से आई, और लिपट गयी मुझसे! रोती रही! और मैं, चुप कराता रहा उसे! "सुनो कौशुकि! अब रोने का समय नहीं! स्वागत करने का है!" कहा मैंने, उसको हटाया, आंसू पोंछे उसके, 

वो गाल पर पड़ा निशान देखा, अब गहरा हो गया था, 

आंसुओं के कारण, जल भी रहा होगा! "आओ इधर!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े उधर ही! कोई दस मिनट के बाद, दो नाग कुमारी प्रकट हुईं! लाल वस्त्रों में सुशोभित! कौशुकि उनको देख, जैसे गड़ जाए उन्हीं में! मैंने हाथ पकड़ रखा था कौशुकि का, कहीं भाग ही न जाए उनके पास, इसीलिए! वे उसी स्थान पर, खड़ी रहीं! फिर कुछ और प्रकट हुए! 

और वो! वो नाग-वल्ल्भ! मुस्कुराते हुए! मैंने प्रणाम किया सभी को! सर झुकाकर! तभी सफेद धुंआ उठा! गड्ढे का स्वरुप ही बदल गया था! वो अब किसी राजभवन का सा फर्श लग रहा था! भीनी भीनी सुगंध फैल रही थी! वायु शांत थी! उधर, समय भी जैसे ठहर गया था! 

आकाश में चन्द्र अपने सभाचरों के संग, जैसे वहीं दृष्टि जमाये थे! वहां की एक एक वनस्पति जैसे, उसी क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी। धूं-धूं की सी आवाज़ हुई! वे सब, आधे आधे बंट गए! 

और तब वहाँ! एक अत्यंत ही सजीले! भीम सरीखी देह वाले, स्वर्णाभूषणों से सजे हुए। 

गौर वर्ण था उनका! केश घंघराले थे! नीचे कमर तक! माथे पर लाल टीका था गोल! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उनके साथ, उनकी दो पत्नियां थीं! उनका रूप, नहीं बखान कर सकता मैं! शब्द ही नहीं हैं मेरे पास! ये थे द्रौंच, ये राजसिक होते हैं। परम बलशाली होते हैं। पौराणिक कथाओं में नायक रहे हैं! महाभारत में इनका उल्लेख मिलता है! ये वही द्रौंच हैं! कद्-वंश के राजसिक नाग! मैं हाथ जोड़, वहीं बैठ गया अपने घुटनों पर! शर्मा जी भी और कौशुकि भी! वे मुस्कुरा रहे थे! हम पर हमारा भाग्य खुल गया था! हम खड़े हुए! एक नाग-कुम्या आगे बढ़ी! "हम धन्य हुए हे कद्रु-वंशज!" कहा मैंने, वे आगे बढ़े, और रुके फिर! "साधक! हम प्रसन्न हए!" बोले वो, 

ओह! हिम सा शीतल जल जैसे उड़ेल दिया गया था हमारे ऊपर! "इच्छा बताओ!" बोले वो, "नहीं! कोई इच्छा नहीं!" कहा मैंने, वे मुस्कुरा पड़े! "बोलो साधक?" बोले वो, "नहीं! एक इच्छा से आये थे हम! पूर्ण हो गयी! अन्य शेष नहीं!" बोला मैं, नाग-कुम्या आगे हुई! 

और रखा कौशुकि पर हाथ! प्रकाश कौंधा! 

आँखें चुंधिया गयीं! और हम पाषाण से वहीं बने रह गए! 

और जब नेत्र खोले! तो ये क्या? ये कौन सा स्थान है? शर्मा जी कहाँ हैं? कौशुकि कहाँ है? माँ कहाँ आ गया? ये स्वर्ण से पर्वत? ये सुनहरी हरे पेड़? ये अमृत समान जल? ये गुलाबी आकाश? ये कौन सा लोक है? नीचे देखा, मैं भूमि से ऊपर? नीचे झुका, मिट्टी उठाने की कोशिश की, उठायी, लेकिन ये मिट्टी नहीं थी! ये तो जैसे रजत-कण थे! नीचे छोड़ दिया। पीछे चला, पुष्प! ऐसे अनोखे पुष्प, जो हमारे लोक में नहीं हैं! वृक्ष! अनोखे, बहत ऊंचे ऊंचे, इतने ऊंचे, कि देखा ही न जाए! ऐसे मोटे के चक्कर लगाना पड़े! छाल लाल उनकी! दूर तलक, पुष्प ही पुष्प! नदी, सच में दिव्य नदी थी वो! जल था उसमे, मैंने छू कर देखा था उसे! हाथ भी गीला हआ था, लेकिन वो जल, आगे नहीं बह रहा था! पर मैं था कहाँ? ये कौन सा लोक था? कहाँ ले आया गया था मझे? दूर दूर तक कोई आवास-स्थल नहीं! 

कोई इमारत नहीं! लेकिन कोई भय भी नहीं! 

आनंद ही आनंद! वायु सुगंधित! भीनी भीनी सुगंध! करे मदहोश! "शर्मा जी? कौशुकि?" चिल्लाया मैंने, चारों ओर मेरी गूंज उठने लगी! एक बात और! वहां मेरी परछाईं चार चार थीं! अलग अलग दिशाओं में! ऊपर देखा, तो देखा न गया! ऐसा तेज प्रकाश था वहाँ! तभी एक आहट हुई! मैं चला उधर! नीचे, एक ढलान थी, ढलान पर, फूल पड़े थे, कहीं फिसल न जाऊं, ऐसे आराम से उतरना लगा! तभी ध्यान आया! मैं भूमि को तो स्पर्श कर ही नहीं रहा? अब आहिस्ता से उतरा! और उतरता चला गया! न थकावट! न सांस ही चढ़ी! नीचे आया वो एक चतुर्भुज रुपी, तालाब सा देखा, उसमे ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियां थीं! मैं चढ़ा उन पर! ऊपर पहुंचा, 

सफेद था वहां सबकुछ! क्या वनस्पति! क्या वो भूमि! क्या वो तालाब का तल! गौर से देखा, तो पता चला, कि पानी भी है उसमे! ऐसा साफ़ पानी था वो! फिर वही प्रश्न! हँ कहाँ मैं? कौन सा लोक है ये? मैं नीचे उतरने लगा! नीचे उतरते हए, मुझे एक पौधा दिखा! ये जैसे पपोटन का पौधा होता है, वैसा था, रसभरी मान लीजिये आप उसे! ठीक वैसा ही पौधा था ये, उसमे भी रसभरी सी लगी थीं, लेकिन थीं बड़ी बड़ी! मैंने एक तोड़ी, उसका छिलका छीला, ये ये टमाटर


   
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श्रीशः उपदंडक
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की तरह से लाल थी! चमक रही थी! सूंघ के देखा, तो आलूबुखारे की सी महक आई! मैंने दांत गड़ाए उसमे! क्या मिठास थी! जैसे शहद भरा हो उसमे! मेरे होंठ ही चिपकने लगे थे! और तो और! लगा पेट ही भर गया पूरा! भूख लगी हो और भोजन खाने के बाद का सा एहसास! मैं नीचे चलने लगा! कुल बारह सीढ़ियां थीं वो! मुझे याद है! पत्थर ऐसा था, कि जैसे ओपल पत्थर चमकता है, सतरंगी प्रकाश छोड़ता है, ठीक वैसा! जैसा सारा का सारा, एक ही ओपल के पत्थर से काट कर बनाया गया वो! मैं नीचे बैठा, मेरे पांवों के बीच और भूमि के बीच, छह-आठ इंच का अंतर था! मैं बार बार यही देखता था! और जब चलता था, तो लगता था कि पृथ्वी पर ही चल रहा हूँ! 

अजीब सा एहसास था ये भी! मैंने पानी में हाथ डाला, पानी बेहद ठंडा था! पानी में हाथ डालने से, तरंगें भी नहीं बनती थीं। 

बस थोड़ी सी ही! हाथ के पास ही! तभी हंसी-ठिठोली की सी आवाजें आयीं! मैं उठ खड़ा हुआ, एक पेड़ के पीछे छिपना चाहा! वही मानव की प्रवृति! सहज प्रवृति! यहां तो पृथ्वी के भौतिक नियम कार्य नहीं कर रहे थे! वे चार नाग-कन्या थीं! उनका रूप देख, मैं दंग रह गया था! श्वेत और गौर वर्ण था उनका! कोई आभूषण नहीं था पहना हुआ! बस, एक लाल सा झीना वस्त्र लपेटा हुआ था बदन से! उन्होंने मुझे देखा, मैं थोड़ा घबराया! जैसे, पकड़ा गया होऊ! जैसे, अपराध किया हो मैंने कोई! वे दूसरी तरफ से नीचे आयीं थीं, सीधा मुझे ही देखा था! वे चारों चलीं मेरी तरफ, मैं अब घबराया! वे आयीं, मुस्कुराई! मैं भी मुस्कुराया! उनमे से दो ने, मेरे कन्धों से पकड़, मुझे ले जाने लगीं एक तरफ, यहां सीढ़ियां नहीं थीं, बल्कि एक बड़ा सा गोल रास्ता था! वो भी सफेद ही था, उसमे नीले रंग की रेखाएं बनी थीं! वे मुझे जहां लाईं, वो एक सपाट सा मैदान था! उसकी भूमि चमक रही थी! मुझसे देखा नहीं जा रहा था! जैसे भूमि पर दर्पण लगे हों! ऐसी चमक थी! मैंने आँखें बंद कर ली। 

और जब खोली! जब खोली तो मैं उस गड्ढे पर ही था! आश्चर्य! हम तीनों ने एक साथ ही आँखें खोली थीं! वे सब, मुस्कराते हुए हमें देख रहे थे! हम खड़े हए। उन्होंने हमें वो दिया था, जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे हम! 

मुंह से शब्द न निकले किसी के! निकालने भी चाहे तो! हाथ भी कांपने लगे थे मेरे तो! बस अब, अश्रु बहाने की ही देर थीं! सहसा ही प्रकाश मंद हुआ! वे पिंड, लोप हुए! 

और हमें, मुस्कुराते हुए देखते हुए, आये आगे वो! "हम यहीं हैं!" बोले वो, और हुए लोप! हम धम्म से बैठे। दस-पंद्रह मिनट तो दिमाग ही उलझा रहा! 

और उसके बाद, जब बातें हुई हमारी, तो मित्रगण! जहां मैं था, वहीं कौशुकि भी थी! वहीं शर्मा जी भी थे। वो पपोटन जैसे मैंने खायी थी, वैसे उन्होंने भी खायी थी! जैसे पर्वत, वृक्ष, भूमि, वनस्पति और वो तालाब और वो चार नाग-कन्याएं थीं, जिन्हे मैंने देखा था, शर्मा जी और कौशुकि ने भी देखा था! ये थी नाग-माया! हम हए खड़े! कलुष की आवश्यकता नहीं थी अब, 

सो वापिस कर दिया मैंने! कुछ देर बाद ही, पौ फट गयी! वो गत रात्रि अब कभी नहीं भूली जानी थी! हम हो लिए वहाँ से वापिस! कौशुकि, अब मुझे न छोड़े! साथ साथ चिपकी रहे! अब


   
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श्रीशः उपदंडक
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आया बाबा और कौशुकि से विदा लेने का समय! बाबा से तो विदा ले ली, लेकिन कौशुकि के आंसुओं ने हरा दिया मुझे! वो मेरे साथ, काशी चली आई! एक जानकार के डेरे पर रहा मैं, उसने अपने गुरु श्री को बता दिया कि वो, मार्ग बदल रही है अपना! गुरु श्री को जैसे इसका आभास था! आशीर्वाद भी प्रदान कर दिया उसको! 

कौशकि को अब श्री श्री श्रीजी का आशीर्वाद दिलवाया! अब एक वर्ष, यहीं रहना था उसको! जब मैं वहां से चला, तो कौशुकि नहीं रोई! उसमे लगन है! जीवट वाली है। हंसी-खुशी विदा किया! मैं उधर एक वर्ष में पांच बार गया! कौशुकि, बहुत तेजी से आगे बढ़ने लगी थी! कलुष, दुहित्र, एवांग आदि में पारंगत हो गयी थी! 

और आज, खासा नाम रखती है वो! कुछ वर्ष और, और फिर वो एक महासाधिका अवश्य ही बनेगी! मुझे विश्वास है! मित्रगण! 

ये हमारा संसार है! परन्तु, ये बंधा है अन्य संसारों की डोरों से! वो संसार, जो छिपे हुए हैं इन आँखों से! आँखें खोलकर तो, सभी ज्ञान प्राप्त करते हैं! कभी आँखें बंद कर, ज्ञान प्राप्त कीजिये। कौन सा ज्ञान? छिपा हुआ ज्ञान! वो बिखरा है, सर्वत्र! सर्वत्र! इसमें, में, मैं नहीं रहता! अपना सबकुछ भुला देता है ये! 

आपके रहते कोई रात को भूखा न सोये, ठंड में न ठिठुरे! नग्न-देह न रहे! आपके रहते, किसी को कष्ट न हो! ये है आँख बंद कर अर्जित ज्ञान! मानता हूँ, कि ये रेगिस्तान में एक मुट्ठी रेत उठाना हुआ, कोई बात नहीं! कम से कम, कोई देख तो रहा है! और क्या इच्छा भला? प्रयास कजिये! कदम बढ़ाइये! कुछ मार्ग तो छोटा होगा!

------------------------------साधुवाद!------------------------------- 

 


   
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 min
(@min)
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गुरुजी यहां पर जिस मंत्र का ज़िक्र किया गया है कृपाया बताए 🙏


   
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