वर्ष २०१० लखीमपुर ख...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०१० लखीमपुर खीरी के पास की एक घटना

69 Posts
2 Users
0 Likes
1,442 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और मैं सभी को ले चला अपने संग! वहीं, जहां मुझे वो ताप वाला गड्ढा मिला था, जहां वो कलश था! 

और जैसे ही आये उधर, सभी के होश उड़ गए वो दृश्य देखकर! हम वहाँ पहुंचे, और ठिठक के सभी खड़े हो गए! सामने का नज़ारा ही कुछ ऐसा था! लगता था कि उस जंगल के सभी सर्प वहाँ एकत्रित हो गए हों! क्या छोटे और क्या बड़े! अत्यंत ही विषैले सर्प! कोई साधारण हो तो गश खा, वहीं गिर जाए! होश में आये तो हर चीज़ सर्प ही लगे उसे! हर आवाज़ सर्प की फुफकार ही सी लगे! वे गुथे पड़े थे एक दूसरे में! चढ़ रहे थे एक दूसरे के ऊपर! जैसे कोई होड़ मची हो वहाँ! जहां रौशनी मारो, वहीं सर्पः सभी, घबरा से गए थे। और थोड़ा पीछे हो लिए थे! गंध फैली थी वहाँ 

सौ की! खट्टी सी! "यहां कई गड्ढे हैं, उनमे से मार्ग हो सकता है कोई!" कहा मैंने, "आपने पहले क्यों नहीं बताया?" पूछा कौशुकि ने, "आप को इतना आत्म-विश्वासी देख कर, मैंने कुछ नहीं कहा!" कहा मैंने, "अब ये कब हटेंगे?" बोले बाबा दास, "हट जाएंगे!" बोली कौशुकि, 

और अपने थैले से एक सुगन्धि निकाली, उसको अपने माथे से छुआया, मंत्र जपा, और फेंक दी वो सुगन्धि उन सो के बीच! काई सी फ़टी! सांप दौड़ चले, चारों दिशाओं में! कुछ हमारी तरफ से भी चले, लेकिन किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया किसी ने भी! 

कोई दस मिनट में, सारे सर्प गायब हो गए! भूमि पर उनके रेंगने के अनगिनत चिन्ह बन गए थे! 

और तब नज़र आये हमें वो पांच गड्ढे, एक छोटा वाला भी, जिसमे ताप था बहुत! 

और चार, बड़े गड्ढे! अब गयी आगे कौशुकि, 

और एक एक गड्ढे की जांच की, कोई आधा घंटा लगा था उसे, और उसने, एक गड्ढा चुना, 

और ली वेदिका, बुलाया बाबा दास को, और दोनों ने ही अब मंत्रोच्चार आरम्भ किया! हम एक जगह बैठ गए, सारे, और देखते रहे उनका क्रिया-कलाप! आधा घंटा लगा, 

और उस गड्ढे से धुंआ निकलने लगा! उठी कौशकि, और परिक्रमा की उस गड्ढे की, फेंके फूल उसमे, 

जैसे ही फूल फेंके, फट फट की आवाज़ आने लगी! बैठ गयी उस गड्ढे के करीब! 

और किये मंत्रोच्चार फिर से आरम्भ! सुबह तक यही कार्यवाही चलती रही, फिर कुछ न हुआ, और सुबह, फिर हम लौट चले वापिस! 

आये वहाँ, नहाये-धोये, चाय-नाश्ता किया, और फिर हम सोये आराम से! दोपहर को भोजन किया, और मैं चला ज़रा कौशुकि से मिलने, कौशुकि आराम कर रही थी, मुझे बुला लिया था उसने, मैं अंदर जाकर बैठा, और अब उस से बातें करने लगा उस से, "अब आपको मुहाना मिल गया है न?" पूछा मैंने, "हाँ, उम्मीद है!" बोली वो, "दस दिन हो गए हैं, अब भी उम्मीद?" कहा मैंने, "उम्मीद तो रखनी पड़ती है!" कहा मैंने, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"वो तो सही है, लेकिन अब कुछ करो आप!" कहा मैंने, "मैं कर रही हूँ" बोली वो, "आज देख लो, हो जाए तो बहुत अच्छा, नहीं तो मैं कुछ करता हूँ फिर" कहा मैंने, "आप से बात करूंगी मैं" बोली वो, "ठीक है" बोला मैं, और उठ गया वहां से, 

अब गया बाबा के पास में, बैठा वहाँ, उन्होंने दूध मंगवाया था, मुझे भी दिया गिलास में, मैंने दूध लिया और पीने लगा, "बाबा? क्या लगता है?" बोला मैं, "आज देखो, क्या होता है!" बोले वो, "लेकिन बाबा, वो स्थान भी न चुन पायी?" कहा मैंने, "हाँ, ये हैरत की बात है" बोले वो, "सच कहूँ तो मुझे यकीन नहीं!" कहा मैंने, "अभी उम्मीद न छोड़ो!" बोले बाबा, अब क्या करता, चला आया वापिस फिर! शाम के समय ही निकल पड़े थे हम वहाँ से, 

और करीब एक घंटे में पहुँच गए थे वहां, आज दूसरी जगह हमारा और उनका तम्बू लगा! वो तो मच्छरदानी थी उसमे, नहीं तो, मच्छर काट काट के हमसे ही गड्ढा खुदवा देते! 

और कोई जगह शेष न थी! फिर दूसरे कीड़ों से भी बचाव कर देती थी, वे लग गए अपने अपने काम पर, और हम अपने तम्बू में जा लेटे, जुगाड़ कर लाये थे, तो हम जुगाड़ में मस्त रहे! एक घंटा बीत गया था, कोई हरक़त न हुई, हमारी लगी आँख तब, और हम दोनों ही, चादर ओढ़,सो गए! रात कोई बारह बजे, एक चीख सुनाई दी हमें! 

हम दोनों ही उठ गए, जूते पहने और भागे वहां से, बाबा दास, करीब बीस मीटर दूर पड़े थे, किनारे के पास, पाँव मुड़े तुड़े थे उनके! कौशुकि खड़ी हुई थी! बाबा और सहायक आ गए थे! हम फौरन भागे बाबा दास को उठाने के लिए! वो कराह रहे थे, दर्दे से, कौशुकि भी आ गयी थी वहां, 

और वो सहायक भी, अब सहायकों ने उनको उठाया, और ले चले वापिस तम्बू में, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "किसी ने उठाकर फेंक दिया बाबा को" बोली वो, "तो क्या आत्म-रक्षण नहीं किया था?" पूछा मैंने, "किया था, लेकिन भेद दिया" बोली वो, "भेद दिया?" पूछा मैंने, "हाँ, रक्षण-चक्र काट दिया" बोली वो, "आप तो ठीक हो?" पूछा मैंने, "हाँ, ठीक हँ" बोली वो, "एक काम करो अब" कहा मैंने, "क्या?" बोली वो, "आप हट जाओ, मैं देखता हूँ" कहा मैंने, उसने थोड़ा सोचा, विचारा! "आप एक काम करें, मेरे साथ वहाँ बैठे" बोली वो, अब मैंने सोचा, विचारा थोड़ा! "ठीक है" कहा मैंने, 

और अब चले हम गड्ढे की तरफ! कौशुकि बैठी, मैं उसके दायें बैठा, उसने आरम्भ किये मंत्रोच्चार! 

करीब पंद्रह मिनट में, भूमि में कम्पन्न सी हुई! मैंने फौरन ही एवांग-मंत्र जप लिया! 

और हो गया मन्त्र जागृत! अब अपना शरीर पुष्ट कर लिया उस से! भूमि में, लगातार कम्पन्न होते रहे! जैसे नीचे हलचल सी मची हो! मंत्रोच्चार आगे बढ़ा! 

और तभी! तभी कौशुकि पीछे फेंक दी गयी! करी दस मीटर! मैं भागा उसकी तरफ! वो पेट के बल गिरी थी, चोट तो न लगी थी, लेकिन मिट्टी में नहा गयी थी! उसको उठाया, उसने वस्त्र झाडे, अपना चेहरा पौछा! 

और फिर से चली गड्ढे पर, अब मैं खड़ा हो गया उसके पीछे! उसने हाथ में जल लिया, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अभिमंत्रण किया उसका, और फेंका गड्ढे में! भम्म की सी आवाज़ हुई उसकी क्षण! 

और गड्ढे में आग भड़क गयी! कौशुकि पीछे हुई। मैं भी पीछे हुआ! वो हई खड़ी! एक फूल लिया, उसको माथे से लगाया, 

और फेंक दिया गड्ढे में! पल भर में ही आग बंद हुई। मैंने तब दहित्र-मनता का जाप किया, और नेत्र पोषित कर डाले उसी क्षण! 

गड्ढे के नीचे, सर्प ही सर्प थे! सफेद से सर्प! पीली धारियां बनी थीं उनके ऊपर! लेकिन वो सब,जंगली ही लगते थे! कोई दिव्य नहीं! आसपास देखा, तो दूर एक जगह, भूमि में से प्रकाश उठता दिखा, अब मैं चला उसकी तरफ! 

आया वहा तक, और रुकना पड़ा! एक सर्प था वो, कुंडली मारे बैठा था, मुंह में एक मणि दबाये! सन्तरी रंग का प्रकाश फूट रहा था उसमे से, वो सर्प,आयु में जवान था! उसके नेत्र पीले चमक रहे थे! फन बहुत चौड़ा था उसका, 

और सर भी काफी बड़ा! उसके शल्क, नीले रंग की आभा झलका रहे थे! वो रुक गया था और मैं भी! वो मेरा इंतज़ार करे, 

और मैं उसका! मणिधारी सर्प, अत्यंत विषैला होता है! ये मणि उसके ही विष से बनती है! वो इसको मुंह में छिपा के रखता है! गले में, हलक में, और जब कुछ खाना-पीना होता है, तो उसको बाहर निकालता है! यदि मणि प्राप्त करने के लिए, सर्प को मार दिया जाए तो मणि भी नष्ट हो जाती है। मणि की आयु, उस सर्प की आयु समान ही होती है। कोबरा की मणि से संतरी प्रकाश निकलता है! ये पानी में नहीं डूबती! गिलास में डालिए तो नीचे तल को छूकर ऊपर आ जाती है। इसमें स्वतः ही प्रकाश होता है। ये परावर्तित 

नहीं करती प्रकाश को! बल्कि सोख लेती है! तो उस समय वो सर्प उसको मुंह में उठाये जा रहा था कहीं! मैं बीच रास्ते में आ गया था उसके! ऐसे में कोई भी सर्प यही सोचता है कि वो व्यक्ति उसकी मणि लेना चाहता है! तब वो, अत्यंत ही क्रोधित हो जाता है! 

और देखिये! एकाँकी जीव है सर्प, यदि उस सर्प से मणि छीनी जाए, और विभिन्न प्रजाति के सर्प वहाँ आ जाएँ, तो वे सभी उस सर्प के संग हो जाते हैं! ऐसा मैंने देखा है, आप पीछे हटेंगे, तब भी आपको कई किलोमीटर दूर तक नज़रों में ही रखा जाएगा! इसीलिए, कभी भी बलात मणि नहीं छीननी चाहिए! आप अपने रास्ते हो जाइए! कुछ नहीं कहेंगे! तो उसने अपनी मणि कुंडली के बीच रखी! प्रकाश ऐसा तेज था उस मणि का, कि पूरा सर्प रौशन हो उठा था! ठीक वैसे ही, जैसे किसी जलती टोर्च पर हाथ रखा जाए तो! यदि मणि आपको मिल जाए, तो धन-धान्य की कभी कमी न रहेगी! निरोगी रहेगा समस्त परिवार! इच्छाएं पूर्ण होती चली जाएंगी, कोई भी विषैला कीट, जीव आपको कभी नहीं काटेगा, जल में आप डूबोगे नहीं! आयु का जैसे स्तम्भन हो जाएगा! स्वर्ण घर में ऐसे बरसेगा कि आप बर्तन भी स्वर्ण के रखने लगोगे! विष आपको असर ही नहीं करेगा कुछ! ऐसे बहुत से उपयोग हैं इसके! ये बहुमूल्य ही नहीं, अपितु एक खजाने के समान है। किसी मणिधारी सर्प की सेवा सुश्रुषा की जाए, तो वो आपको अपनी मणि दे सकता है! ये बस विश्वास के कारण है! मेरे एक जानकार हैं, अशोक जैन, उनके खेतों में एक मणिधारी


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

सर्प रहता है,पूरा पांच बीघे का खेत, उसके लिए ही छोड़ा है! वो सर्प, उनके साथ ऐसा घुल-मिला है कि उनकी गरदन में जाकर, कुंडली मार आराम से सो जाता है। वे उसको दुग्ध-पान करवाते हैं, दिन में तीन बार! केसर मिला शुद्ध दूध! एक मवेशी उसके लिए ही रखा गया है विशेष तौर पर! नौ वर्ष हो गए हैं सेवा करते करते उनको! आज उन जैसे धनी, सुखी दूर दूर तक नहीं! एक पुत्र आई.ए.एस. है, एक पुत्री आई.पी.एस है! छोटा पुत्र सरकारी अभियंता है! खेत इतने, कि आध-बटाई में दे देते हैं! भूमि इतनी, कि याद भी न रहे! घर में कोई रोगी नहीं, साठ वर्ष के हैं, चालीस के दीखते हैं! वो सर्प, उनको अपनी मणि भी दे देता है हाथों में चला जाता है, और अगले दिन या रात्रि में, फिर से ले लेता है! ऐसा ही चल रहा है! मैं दंग रह गया था ये सब देखकर! वो सर्प बारह फ़ीट का तो होगा ही! भक्क काला! फन ऐसा चौड़ा कि मेरा सीना भी ढक ले! और किसी को नहीं देखने दिया उन्होंने आज तक! उनका परिवार ही देखता है, उनके खेतों में बने मकान में, वो अक्सर विश्राम किया करता है। 

खैर, तो वो सर्प, मेरे सामने था, कुंडली मारे! वो मुझे देखे, और मैं उसे! उसने मारी फुकार! उडी मिटटी! धुल उठ गयी! 

और मैं पीछे हटा! और पीछे, और पीछे, उसने उठायी मणि, मुंह में रखी, और चला मेरी तरफ! मैं रुक गया! करीब पांच फीट दूर था वो मुझसे! अब उसने लहराना शुरू किया! मतलब साफ़ था, कि अब वो कभी भी दंश मार सकता है! मैंने पाँव पीछे किया अपने! और वो आगे बढ़ा! 

मैं रुका, तो वो भी रुका! मैं फिर पीछे हटा! वो रुका रहा! मैं हटता रहा! वो रुका रहा! 

और इस तरह, वो पीछे मुड़ा, और झाड़ियों में ओझल हो गया! अपनी मणि, अपने गले में रख ली थी उन्होंने! मैं वापिस हुआ, 

और आया उधर गड्ढे के पास! कौशुकि नहीं थी वहां, दीपक भी मंगल हो गए थे, खबर पता चली कि बाबा दास के टखने की हड्डी टूट गयी है, उनको अस्पताल ले जाना ही होगा, मेरा इंतज़ार हो रहा था वहां, अब मज़बूरी थी, लौटना पड़ा! 

और हम लौट पड़े बाबा दास का पाँव सूज चला था बुरी तरह से, कराह रहे थे, हालांकि कपड़े से बाँध दिया गया था, लेकिन चीखें मार रहे थे! जीप दौड़ पड़ी! करीब दो घंटे में हम शहर आये, 

एक अस्पताल गए, और उनको दाखिल करवाया, सुबह तक, प्लास्टर चढ़ा दिया था, दर्द के इंजेक्शन आदि दे दिए गए थे उन्हें, हड्डी बुरी तरह से दो जगह टूटी थी, चिकित्सकों ने रात में ही शल्य-चिकित्सा कर दी थी, अब ये नयी मुसीबत आ खड़ी हुई थी हमारी जान को, उनको, बिठाया गया, 

और हम चले वापिस अब बाबा के यहां! पहुंचे, हाथ-मुंह धोये, 

और फिर सोने चले गए हम! सो गए थे! हुई दोपहर, हम उठे, स्नानादि से फारिग हुए, चाय-नाश्ता किया, बाबा दास के यहां खबर कर दी गयी थी, उनको लेने आ रहे थे दो लोग, बाबा गोपाल भी जा रहे थे वापिस, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और दो नए बाबा आ रहे थे, उनको सबकुछ बता दिया गया था! "दो और आ गए!" बोले शर्मा जी, "हाँ!" कहा मैंने, "ये ऐसे ही पिटते रहेंगे?" बोले वो, "पता नहीं!" कहा मैंने, 

और तब मैंने उन्हें रात वाले, उस मणिधारी के विषय में बताया! "मुझे क्यों नहीं बुलाया?" बोले वो, "अरे वो रुका हुआ था!" कहा मैंने, "मैं भी हाथ जोड़ लेता!" बोले वो, "आज देख लेना!" कहा मैंने, "वहीं होगा वो?" पूछा उन्होंने, "हो सकता है!" कहा मैंने, "चलो! आज देखते हैं!" बोले वो, 

शाम हुई फिर रात! बाबा दास चले गए थे, गोपाल जी भी, 

और अब दो नए बाबा आये थे! तोंद ऐसी कि टक्कर मार दें तो आदमी फुटबॉल बन जाए! "इनकी तोंद देखना!" बोले वो, "हाँ! कतई घड़ा!" बोले वो, "इन्हें तो अपना 'सामान' देखे भी बरसों हो गए होंगे!" बोले वो, मैं हंसा! सामान! बरसों! "सच में, टटोलते होंगे बस!" बोले वो, 

और हंसी छूटी! "कोई सांप पड़ गया न इनके पीछे तो, खुद ही बैठ जाएंगे नीच!" बोले वो, 'वो क्यों?" पूछा मैंने, "भागा जाएगा नहीं! कहेंगे, भाई तू काट ले, लेकिन भगवा मत!" बोले वो, अब हंसी छूटी मेरी ज़ोर से! "है या नहीं?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, 

और फिर हुई शाम, किया जुगाड़! 

और चल पड़े फिर से, अपनी दिहाड़ी पर! यही काम था हमारा बस! जाओ, सो जाओ! सुबह वापिस हो जाओ! बस यही काम! लगाया गया तम्बू! उसमे घुसे हम! 

और उन दोनों बाबाओं ने गड्ढों का मुआयना किया। 

आपस में बतियाये वो! एक ने, कुछ फेंका गड्ढे में, 

और बैठ गया नीचे, लगाया ध्यान अब! कोई आधा घंटा बैठरहा हो! जो बैठा था, उसका नाम अवध प्रसाद था, जो खड़ा था, उसका नाम आचार्य गिरीश था, दोनों ही, गोंडा जिले के थे! 

और फिर चली कौशुकि उधर! लगाई वेदिका, और हुआ पूजन शुरू! घंटा बीता! 

और हमें आये अब नींद! क्या करें? "आओ" कहा मैंने, "कहाँ?" बोले वो, "उस सर्प को देखने?" कहा मैंने, "अच्छा! चलो!" बोले वो, जूते पहने, पानी पिया, 

और मैंने कलुष से नेत्र पोषित किये, अपने भी, और उनके भी! चल दिए वहीं के लिए, 

आ पहुंचे, सामने देखा तो एक बाम्बी थी, काफी बड़ी! "ये तो बाम्बी है" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "यहीं देखा था?" पूछा उन्होंने, "हाँ!" कहा मैंने, "अच्छा! यही रहता होगा!" बोले वो, 

"हो सकता है!" कहा मैंने, "छेद तो बहुत हैं यहां!" कहा मैंने, "हाँ! आपको पता है?" कहा मैंने, "क्या?" बोले वो, "जिसको सूखा रोग हो, सेहत न बनती हो, बार बार नज़र लगती हो, बदन में हड्डियां बढ़ रही हों, मधुमेह पकड़ में न आ रहा हो, कमज़ोरी हो, तो बाम्बी की मिट्टी की एक चुटकी चाटकर, और पांच चुटकी काले रंग के कपड़े में बांधकर, दायीं भुजा पर बांधे, तो ये रोग हमेशा के लिए कट जाएंगे!" कहा मैंने, "अरे वाह!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, तब उन्होंने, दो मुट्ठी मिट्टी ले ली, बाँध ली रुमाल में, "काम की चीज़ है!" बोले वो, "बहुत काम की!" बोला मैं, 

और हम वहाँ से आगे चले फिर! "एक चीज़ और!" कहा मैंने, "वो क्या?" बोले वो, जेब में रखते हुए उस मिट्टी को! "इस मिट्टी को यदि नाग-पंचमी के दिन उठाया जाए, तो घर से दारिद्रय का


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

नाश होता है! रुके हुए सभी कार्य बन जाते हैं! कोई असाध्य बीमारी से ग्रस्त हो, तो ठीक होने लगता है! यदि सोमवती अमावस के दिन उठाया जाए, तो भूमि-लाभ होता है! नया 

आवास खरीदने में कोई समस्या नहीं होती! खेती हो, तो चार गुना लाभ होता है। और यदि, होली के दिन उठाया जाए, तो धन-धान्य से घर भर जाता है! ऐसी है ये चमत्कारिक मिट्टी!" कहा मैंने, "और दीपावली को?" पूछा उन्होंने, "नहीं! दीपावली को निषिद्ध है ये उठाना! चूंकि उस दिन नागराज वासुकि पृथ्वी पर ही होते हैं, तक्षक संग! और मध्यान्ह में वे असुरराज बलि के अतिथि हुआ करते हैं। इसीलिए!" कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो, 

और हम उस बाम्बी को पार कर, आगे आ गए थे। लेकिन आज तो कुछ नहीं था वहाँ, कोई प्रकाश नहीं, कोई आभास नहीं! हमने करीब आधा-पौना घंटा इंतज़ार किया, लेकिन नहीं था वो वहाँ! आज शायद निकला ही नहीं था बाहर! "आओ, चलें वापिस" बोले वो, "चलो, आज आया ही नहीं" कहा मैंने, "हाँ" बोले वो, 

और हम चले वापिस, आये अपने तम्बू में, बैठ गए, पानी पिया हमने, वो मिट्टी अपने बैग में रख ली थी उन्होंने, उसके बाद हम लेट गए थे। गड्ढे पर काम चल रहा था, वे तीनों बारी बारी से मंत्रोच्चार कर रहे थे। इसी बीच हमें आ गयी नींद! और हम सो गए फिर! करीब बारह बजे से थोड़ा बाद में, शर्मा जी की नींद खुली, कुछ सुना था उन्होंने, मुझे जगाया, मैं जागा, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "ध्यान से सुनो?" बोले वो, मैंने सुना, कान लगाए अपने, मंत्रोच्चार बंद थे, लेकिन बैठे वो तीनों वहीं गड्ढे पर थे, हिल भी न रहे थे, एक अजीब सी 'हहहह्ह' जैसी आवाज़ आ रही थी, हल्की सी! "आना ज़रा?" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, जूते पहने हमने, 

और चले गड्ढे की तरफ, वहाँ पहुंचे, तो देखा, उस गड्ढे में सांप ही सांप आ बैठे थे! सफ़ेद से रंग के सांप, वे दोनों बाबा जैसे घबरा गए थे और पत्थर सा बन, देखे जा रहे थे उन साँपों को! कौशुकि ने नेत्र बंद कर रखे ये अपने! उन सॉं में से चंदन जैसी गंध आ रही थी! वे सर गड्ढे में सर हिला रहे था अपना, ज़ोर ज़ोर से! दृश्य तो भयावह था, लेकिन ये भी जानना था की ये सर्प मायावी हैं या फिर असली! कोई पांच मिनट के बाद कौशुकि ने नेत्र खोले! पास रखे सकोरे में दूध रखा था, उसने उठाया उसे, 

और वो दूध उस गड्ढे में डाल दिया। 

सर्प एक एक कर, लोप होते चले गए। वे मायावी थे! या पता चल गया था! अब वे दोनों तोंदू बाबा खड़े हुए, और चले तम्बू की तरफ! फिर कौशुकि भी खड़ी हुई, चेहरा पोंछा और सामान उठाया उसने, जैसे ही वो चली, मैंने रोका उसे, वो रुकी, मैं पहुंचा उसके पास, "अब कितना समय?" पूछा मैंने, "सुबह से पहले दर्शन होंगे!" बोली वो, विश्वास से कहा था उसने, अब यकीन करना ही था! 

और वो चली गयी तम्बू की तरफ अपने! और फिर हम भी वापिस हए वहाँ से, आये तम्बू में अपने! "आज सुबह से पहले, हम्म, तो इसका मतलब है साढ़े चार घंटे में!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "ठीक है! तब तक सो लो!" बोले वो, "यही ठीक है" कहा मैंने, 

और हमने तब ओढ़ी चादर, और लगाई लेट! दस-पंद्रह मिनट में ही नींद आ गयी! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

आज ठंडक थी वहाँ, चादर भी ठंडी होने लगी थी, हमने अपने तम्बू का मुंह ढक दिया था कैसे न करके! लेकिन हवा जगह ढूंढ ही लेती है! 

खैर, चार, साढ़े चार घंटे की बात थी, सो हम लेटे ही रहे! शर्मा जी की नींद खुली कोई सवा पांच बजे! मुझे जगाया, मैंने घड़ी देखी, पांच बीस हुए थे सुबह के, अब सुबह होने में कोई देर न थी, बाहर झाँका, तो कौशुकि अकेली ही बैठी थी गड्ढे पर! स्पष्ट था, आज की रात भी काली हो चली थी! खिन्न हो गया मन उसी क्षण! बारह-तेरह दिन हो गए थे हमें! 

जैसे मछली पकड़ने का जाल डाला हो बारह-तेरह दिन से, 

और फंसा एक केकड़ा या झींगा भी न हो! फिर कुछ ही देर बाद, सूर्य महाराज ने पूर्वी क्षितिज से झाँका अपनी प्रेयसि पृथ्वी को। 

आज तो अरुण खूब हाँक रहे थे उनके सप्ताश्व-रथ को! चढ़े आ रहे थे आकाश में! "आओ शर्मा जी!" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, 

और हम दोनों चले उस गड्ढे के पास! कौशुकि, सामग्री इकट्ठी कर रही थी! हम पहुंचे वहाँ! उसने देखा हमें, मुस्कुराई, "सुबह हो गयी है!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "दर्शन?" पूछा मैंने, "अभी विरोध है!" बोली वो, "तो हटाओ विरोध को?" कहा मैंने, "हट जाएगा!" बोली वो, "कब?" पूछा मैंने, "आज रात" बोली वो, "दो हफ्ते होने को आये!" कहा मैंने, "महीना भी लग सकता है!" बोली वो, झंझला गया मैं उसी क्षण! "ठीक है, लगाओ दो हफ्ते और, हम आज वापिस जा रहे हैं!" कहा मैंने, "जाइए" बोली वो, 

और चली गयी, मुंह बनाकर, हम देखते रहे उसको जाते हुए! "इसको बोलो, कि दो कमंडल, दो कटोरे और दो धोती, दे जाए हमें!" बोले शर्मा जी, मेरी हंसी छूटी तब! "महीना लगेगा! तब तक हम सड़कों पर, कटोरा लिए घूमते हैं। समय कट जाएगा!" बोले वो, "आज वापिस चलते हैं। बहुत हुआ!" कहा मैंने, "आप पकड़ो बाबा को!" बोले वो, "हाँ, चलो!" बोला मैं, 

और हम चले बाबा के पास, सामान बाँधा जा रहा था वापिस जाने के लिए, बाबा से प्रणाम हुई। "बाबा ऐसा ही चलेगा?" पूछा मैंने, "अब क्या कहूँ?" बोले वो, "इनको भगाओ यहां से!" कहा मैंने, "नहीं भगा सकता!" बोले वो, "तो हम चलते हैं फिर" कहा मैंने, "कहाँ?" पूछा उन्होंने, "वापिस, अपने यहां!" कहा मैंने, "किसलिए?" बोले वो, "कह रही है महीना लगेगा!" कहा मैंने, "मज़ाक कर रही होगी!" बोले वो, "ऐसा क्या मज़ाक?" पूछा मैंने, "पहले स्थान पर चलो, बात करते हैं"बोले वो, 

और फिर तम्बू उखाड़ दिए गए! सामान बाँध लिया गया, हम बैठे गाड़ी में, और चले वापिस! "कर ली कमाई रात भर! दो हफ्तों से बेगार कर रहे हैं!" बोले शर्मा जी! "तो जाइए वापिस?" बोली कौशुकि, "जा ही रहे हैं!" बोले वो, "जाइए" बोली वो, "आपसे पूछ के तो जाऊँगा नहीं?" बोले वो, कुछ न बोली वो, "दो हफ्तों से नदी पर सुलवा रही हो आप, नतीजा क्या? एक संपोला भी हाथ नहीं 

आया!" बोले वो, अब गुस्से से देखा उसने शर्मा जी को! "क्या है?" बोले वो, गुस्से से दांत भींचते हुए, आगे कर लिया मुंह! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"ये गुस्सा गड्ढे पर दिखाओ?" बोले वो, अब कुछ न बोली! "बाबार" बोले वो, "हाँ जी?" बोले बाबा, "आप भी कहाँ से बंदर पकड़ने वालों से, मगरमच्छ पकड़वा रहे हो?" बोले वो, अब उन तोंदुओं ने देखा उन्हें! "तमीज भी कोई चीज़ है!" एक बोला, "अच्छा! धन्यवाद! आज ही पता चला!" बोले वो, "जाना है तो जाओ!" बोला वो, "तू भी जाएगा! जैसे वो दोनों गए न! तू भी जाएगा!" बोले वो, अब हो गयी कहा-सुनी! खूब समझाया दोनों को! "कैसे इसके ढब हैं न? साल भर बैठा रह! अगर एक केंचआ भी निकल आये!" बोले शर्मा जी, वो तोंदू बोले कुछ, तो शर्मा जी दहाई! इस तरह, रास्ता कटा, आ गए वापिस हम! और सीधा अपने कक्ष में! "इस बहन के ** को भी पता चलेगा!" बोले वो, "अब जाने दो!" कहा मैंने, "मुझे तमीज सीखा रहा है माँ का ** !" बोले गुस्से में, "अब खत्म हई बात!" कहा मैंने, "साले ने अगर देखा मुझे, तो आज इसकी ** फाड़ के वो हल डाल दूंगा!" बोले वो, हल रखा था वहीं, बाहर! मेरी हंसी छूटी! "इसकी माँ की ** में हाथी का ** अंडमान-निकोबार के साथ!" बोले वो! मैं हंसा ज़ोर से! "मुझे तमीज सिखाएगा? बहन के **, तेरे जैसों को मूत में बहा दिया मैंने! माँ का 

** !" बोले वो, गुस्से में थे, छान रहे थे अपना गुस्सा! 

और उसी शाम, हम फिर से चल पड़े उधर के लिए! ये अब अपना रोजाना का नियम बन गया था! शाम को यहां से निकलो, रैन-बसेरा बनाओ, और काटो रात वहाँ! सुबह, उठो, और फिर निकल लो! ये था नियम! और शाम को, फिर वहीं आ जाओ, कहने का मतलब, बस भोजन करने जाओ, और आ जाओ यहां वापिस! दो हफ्ते हो चले थे! 

आखिर सब्र करें तो भी कितना! शर्मा जी का अब सब्र का प्याला छलक चला था! यदि कोई उन तोंदुओं में से कुछ बोल जाता उन्हें, तो चटिया ही देते उसको! ऐसे पक गए थे वो! तो हम पहुँच गए वहां! आज कंबल ले आये थे,रात को चादर संभाल नहीं पायी थी हवा का ज़ोर! रैन-बसेरा बना जी हमारा, और हम रोजाना की तरह से, उस दड़बे में घुस गए! हवा आज भी तेज थी! लेकिन आज कंबल था हमारे पास! उसी में घुस गए थे, मुंह पर चादर टांग दी थी, और उस पर जूते रख दिए थे नीचे की तरफ, ताकि उड़े नहीं! और फिर निकाल लिया जुगाड़ अपना, बाँध लाये थे साथ में कुछ खाने को, तो हम हो गए शुरू! इसके बिना उस बियाबान में नींद ही नहीं आती! बाबा तो पहले से ही कड़क हो कर आते थे! तो हम करीब एक घंटे तक, आराम से जुगाड़ में लीन रहे! वहां तैयारी चल रही थी, वे दोनों मोटू बाबा और वो कौशुकि, अपने अपने विधानों में लगे हुए थे! वेदिका प्रज्ज्वलित थी, सामग्री डाली जा रही थी! हम बार बार बाहर झाँक कर देख लेते थे! "इसमें से निकलें सांप! अजगर जैसे, और लपेट लें उस आचार्य को कुंडली में! मैं तो जाऊं नहीं बचाने बहन के ** को!" बोले वो, मैं हंस पड़ा! ज़ोर से! "तब पूछंगा उस से, कि इसे सिखा तमीज अब!" बोले वो, अभी तक गुस्सा शांत नहीं हुआ था उनका! खासतौर पर उस आचार्य के ऊपर! जिस से कहा-सुनी हुई थी उनकी! मैं हँसता रहा, धीरे धीरे अपना गिलास खत्म किया मैंने! निबट गए हम! और अब लगाई लेट हमने! लेटे तो नींद ने घेरा! सोचा थोड़ा-बहुत ले ही ली जाए नींद! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और सो गए इस तरह हम! हवा का ज़ोर बहुत था! तम्बू फ़ड़फड़ा जाता था हवा से! खैर, सोही गए थे। 

रात करीब डेढ़ बजे, चीख-पुकार सी मची! हम उठे! बाहर झाँका! 

गड्ढे के बाहर अंगार पड़े थे। कौशुकि वहीं खड़ी थी, बाबा भी और वे दोनों मोटभी, सहायक उठा रहे थे उनको! हमने जल्दी से जूते पहने, और भागे उधर! गड्ढे से धुंआ निकल रहा था! अंगार दहक रहे थे! वे दोनों मोटू, झुलस गए थे, केश आदि जल गए थे, मानव-चर्म के जलने की दुर्गन्ध आ रही थी! उन दोनों को उठाया गया, अंगार के कण हटाये गए, उनकी हालत खराब हो चली थी, छाती, पेट सब झुलस गए थे! वे कराहते हुए, सहारा लेते हुए जा रहे थे वहां से! "इन्होने सीख ली तमीज़ आज! धन्य हो नागराज! धन्यवाद आपका!" बोले हाथ जोड़कर वो! मैं चला कौशुकि के पास, बाबा वहीं खड़े थे, "क्या हुआ था?" पूछा मैंने, "मैं विश्राम कर रही थी, कि अचानक से झम्म की आवाज़ आई, यहां देखा तो नीचे गिरे पड़े थे दोनों, ये अंगार पड़ा था हर तरफ!" बोली वो, "कौशुकि! अब आप रहने दो! आप मुझे दो बागडोर! रहो मेरे साथ ही, मुझे भी देखने दो अब! कृपा करें अब आप!" बोला मैं, उसने सोचा कुछ, गड्ढा देखा, 

और हाँ में सर हिला दिया! "बाबा! आप चलें, विश्राम करें! अब मैं देखता हूँ!" कहा मैंने, "आओ शर्मा जी!" कहा मैंने, 

और तब मैंने कलुष-मंत्र साधा! नेत्र पोषित किये अपने भी, और उनके भी! कलुष जागृत हुआ, मुंह में कसैलापन आया! तब खोले नेत्र! गड्ढे के नीचे अभी भी अंगार सुलग रहे थे। 

यदि ये कुछ और करते, तो अंगार ही निकलते! अब उस भूमि का निरीक्षण किया! चले आगे, वहाँ सुरंगें बनी हुई थीं! वे सुरंगें एक दूसरे को काट रही थीं! ये तो स्पष्ट था कि वे सौ के आने-जाने का मार्ग हैं! 

और ये भी, कि यहां से, वे बाहर भी आते होंगे! लेकिन निकास कहाँ है? इस गड्ढे में तो नहीं है! यहां तो अंगार हैं और कुछ नहीं! अचानक से कुछ याद आया मुझे! वो छोटा गड्ढा! जिसमे ताप था! जो दहक रहा था! 

मैं वहीं गया, कौशुकि भी संग चली मेरे! शर्मा जी भी आ गए उधर! "ये है निकास!" कहा मैंने, "कैसे पता?" बोली वो, "दिखाता हूँ" कहा मैंने, 

और आसपास देखा, एक सूखा पत्ता मिला, लाया उसे, और रख दिया गड्ढे पर! धुंआ उड़ा और पत्ते में आग लगी! कौशुकि ये देख हैरान! "मैं प्रयास करूं?" बोली वो, अब शर्मा जी मुझे देखें। मैंने उन्हें! 

और कौशुकि, हमें देखे! "महीना तो नहीं लगेगा?" बोले शर्मा जी! हँसते हुए! "नहीं!" बोली वो, "ठीक है!" कहा उन्होंने, 

और वो बैठने लगी वहाँ, मैंने पकड़ लिया, 

"नहीं! बैठो नहीं!" कहा मैंने, "क्यों?" बोली वो, "कहीं फिर से अंगार फूटे तो?" कहा मैंने, "उसके लिए मैं हूँ" बोली वो, 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और बैठ गयी वो वहीं! और हम, उसकी देख-रेख करते रहे! उसने न जाने क्या क्या फेंका उस गड्ढे में! डाले और राख हो! फिर डाले, फिर राख! 

आधा घंटा बीता! अब तो टांगें जवाब देबे लगी! हम भी बैठ गए वहीं! देखते रहे उसको! कोई तीन बजे, उस गड्ढे की मिट्टी उठने लगी ऊपर! हम हुए खड़े तब! देखते जाएँ उस गड्ढे को! मिट्टी उठती जाए और अब बाहर निकले! धुंआ उठे और चिंगारियां सौ फूटें "कौशुकि?" बोला मैंने, मुझे देखा एक झटके से उसने! "हटो वहां से?" कहा मैंने, वो न हटे! मैं बार बार चिल्लाऊं! न सुने! सफ़ेद चूना सा बाहर आने लगा था उस समय! "हटो?" चीखा मैं, 

और जब न हटी, तो मैं भागा आगे, उसको उसकी बाजू से पकड़ा, और खींच लिया! उसी क्षण,गड्ढे में से आग निकलने लगी! चूना बिखर गया हर तरफ! गरम दहकता हुआ चूना! 

पिघले लोहे जैसा गर्म! हम समय रहते हट लिए थे वहाँ से! नहीं तो झुलस ही जाते! कौशुकि एकटक ये सब देख रही थी! झाग से निकलने लगे थे उसमे से! वे झाग बुलबुले से बनाते और फूट जाते! जैसे सफेद लावा निकल रहा हो वहाँ! 

और फिर अचानक ही! एक एक करके, उन सभी गड्ढों में से धुंआ निकलने लगा! 

अब हम भागे वहाँ से, नदी किनारे आ गए! हो गए खड़े! आग के फव्वारे से फूट पड़े अचानक ही! सभी आ गये वहाँ दौड़े दौड़े! 

और उस विस्मयकारी दृश्य को देखें! झाग बनें। फिर फूटें! 

और करीब आधा घंटा ऐसा होने के बाद, सब कुछ शांत हो गया! उस भूमि पर, हर तरफ, सफ़ेद सफ़ेद चूना बैठ गया था! परत जम गयी थी चूने की! एक प्रयोग और बताता हूँ आपको! अक्सर कई मित्रगण इस से समस्याग्रस्त रहते हैं। वो है रोजगार! एक तो नौकरी नहीं मिलती, मिलती है, तो मन-माफ़िक नहीं मिलती, मन-माफ़िक़ मिल भी जाए तो परेशानियां आने लगती हैं। जिनका व्यापार है, वो बरकत नहीं देता! ये चिंता, दिन-रात उनके सर पर चढ़ रहती है। ऐसे में करना क्या है आपको, पहले तो सांप की बाम्बी दूँढिये! जंगलों में मिल जाती हैं। बस ढूंढना है, इंसानी आबादी से दूर ही रहते हैं ये! अब आपने एक ताम्बे का सिक्का लेना है, इस सिक्के को, कच्चे दूध से साफ़ कीजिये, उसके बाद, एक काले कपड़े में बाँध दिए, और 

उस बाम्बी के पास, एक जगह गाड़ दीजिये। ऊपर एक डंडी मज़बूती से गाड़ दें, ताकि निशानी रहे! तीन रात गड़े रहने दीजिये, चौथे दिन, उसको निकाल कर ले आएं! आने से पहले उस बाम्बी को प्रणाम अवश्य करें! एक मंत्र बोल सकें तो सोने पर सुहागा! मंत्र व्यक्तिगत संदेश में ले लें। अब इस सिक्के को, किसी लुहार के पास ले जाएँ! उस से एक छेद करवा लें इसमें, और अब इसको, कच्चे दूध से साफ़ कर लें! फिर एक काले रंग के धागे में, पिरोकर, गले में पहन लें! फिर बताएं कि क्या हुआ! नेत्रों की ज्योति बढ़ानी हो, तो इस सिक्के को साफ़ कर, जल के एक गिलास में, सोने से पहले एक माह तक पियें! लाभ होगा! किसी स्त्री को प्रसव-पीड़ा से मुक्ति दिलानी हो, तो ये सिक्का उसकी कलाई पर बाँध दीजिये! पीड़ा नहीं होगी! विषम-ज्वर चढ़ता हो, तो इस सिक्के को, तीन चम्मच दूध में,इक्कीस बार घुमाएं, पांच दिन सूर्यास्त से पहले पिलायें, विषम-ज्वर दूर होगा! घर से सोना चोरी हो गया हो, तो इस सिक्के को एक 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

चम्मच सिरके में डाल कर, सिरका घर के बाहर फेंक दें,खबर मिल जायेगी! यदि नीच के शनि, नीच के सूर्य और नीच के शुक्र पीड़ित कर रहे हों, तो शनि के लिए, दो धागों में पिरोएँ! सूर्य के लिए लाल धागे में, शुक्र के लिए नीले रंग के चमकदार धागे में! ग्रह-दोष दूर हो जाएगा! कल-सर्प दोष हो, तो दो सिक्के पहनें। दोनों में दो दो छेद हों! कल-सर्प दोष समाप्त हो जाएगा! जब समर्थ हों, तो एक जोड़ा नाग-नागिन का, जंगल में मुक्त करवा दें! आपकी संतति में कभी काल-सर्प दोष न होगा! कन्या का विवाह न हो रहा हो, तो ये सिक्का उसके गले में पहनाएं! तीस दिन, बिना नागा, वो कन्या चन्द्रमा को कच्चे मूंज वाले चावल, एक चुटकी, सिन्दूर एक चुटकी और एक चम्मच दूध, अर्घ्य दे, तो माह भर में योग बन जाएगा विवाह का! ऐसे अनगिनत प्रयोग हैं! ये फलदायी हैं, कोई रुपया-धेला खर्च नहीं होना! आजमाएं! जिस व्यक्ति को फालिज पड़ी हो, अधरंग हो, उस व्यक्ति को, घोड़ा-पछाड़ सर्प की केंचुली खिलाएं शुद्ध शहद में मिला कर, माह भर में लाभ होगा! स्त्री के गर्भ न ठहरता हो तो, नाग की केंचुली, गाय के दूध में मिलाकर खिलें, एक इंच भर, गर्भ ठहर जाएगा! जो स्त्रियां रजोनिवृति की तरफ बढ़ रही हों, और संतान-प्राप्ति न हुई हो, तो वो स्त्रियां, माह भर, कच्चे केले के एक टुकड़े के साथ, एक इंच भर नाग की केंचुली का सेवन करें! शर्तिया गर्भ धारण करेंगी! और रजोनिवृति भी दूर ही रहेगी। नित्य करें! त्वचा पर झुर्रियां नहीं पड़ेंगी! संतान प्राप्ति के बाद की नागपंचमी को, दूध पिलवा दें किसी सर्प को! अब घटना! 

तो वहाँ वो गर्म चूना पड़ा था दहक रहा था! धुंआ उठ रहा था, अजीब सी महक थी उसमे, जैसे चर्म जल रहा हो किसी पशु का! हम सब दूर खड़े थे वहाँ से, तब कौशुकि आगे बढ़ी! मैंने रोकना चाह उसको, नहीं रुकी! बचते-बचाते आगे बढ़ी, और गड्ढे में झाँका! उसके पास टोर्च थी, उसने टोर्च जलायी और गड्ढे में झाँका! फिर मुझे देखा, बुलाया मझे, मैं गया उसके पास, "वो देखो!" बोली वो, नीचे गड्ढा बन गया था एक और! पानी दिख रहा था उसमे हिलता हुआ! "पानी?" पूछा उसने, "नदी की नमी का है!" कहा मैंने, टोर्च मैंने ली, गड्ढे में झाँका, नीचे बैठा! शर्मा जी भी आ गए थे, फिर बाबा भी आ गए वहाँ! 

"ये कोई दस फ़ीट होगा!" बोले शर्मा जी, "हाँ!" कहा मैंने, 

और तभी मेरी नज़र एक सुरंग पर गयी! वो पूर्व दिशा में जा रही थी! जहां बाबा खड़े थे! मैं खड़ा हुआ, शर्मा जी को साथ लिया, और उस सुरंग के ऊपर ही चलने लगा! आगे जाकर, एक और गड्ढा दिखा! उस गड्ढे में झाँका मैंने! बिलकुल वैसा ही था! 

पहले के जैसा! 

"ये तो वैसा ही है!" बोले वो, और तभी आई एक फुकार! मेरे केश हिल गए उस फुकार से! मैं झट से खड़ा हो गया! टोर्च मारी उधर, तो किसी बड़े से,मोटे सर्प को, श्वास लेते देखा मैंने! काले रंग का! पेड़ के लड़े जैसा मोटा! उसका पृष्ठ भाग दीख रहा था! आधा इस सुरंग में, आधा किसी और सुरंग में! पीछे चलने की आवाज़ आई तभी! हमने पीछे देखा! ये कौशुकि थी! "कुछ दिखा?" पूछा उसने, "य देखो" मैंने धीरे से कहा, उसने देखा, समझ नहीं पायी वो! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और जब मैंने समझाया तो! तो एक पल को घबरा गयी वो! रंग उड़ गया चेहरे का उसके! तभी वो सर्प, आगे बढ़ा! जा रहा था आगे, मैंने एक पत्थर उठाया, 

और मारा उसको! वो रुका! और तब पीछे हुआ वो! "हटो!" कहा मैंने, 

और हम भागे फिर वहां से! मैंने तभी सर्प-मोचिनी विदया का संधान किया! 

आधा मिनट! एक मिनट! तीन मिनट! 

पांच मिनट! कोई सर्प नहीं निकला! तब मैं आगे बढ़ा, कंधे झटकाए मैंने अपने, तैयार था उसके लिए मैं! में आया गड्ढे तक! धीरे से अंदर झाँका! वो सर्प अभी भी वैसे ही लेटा था! ऊपर नहीं आया था! मैंने फिर से एक पत्थर लिया! 

और मारा उसको उसकी देह पर! फुकार! एक ज़बरदस्त फुकार! 

और फिर वो, एकदम तेजी से आगे बढ़ गया! चला गया वहां से! "आओ!" कहा मैंने, तो अब वे दोनों भी आ गए! "कहाँ गया?" पूछा शर्मा जी ने, "गया!" बोल मैं, "इधर?" पूछा उन्होंने, "हाँ" कहा मैंने, उधर एक टीला सा बना था, बंजर साटीला, "आना ज़रा?" कहा मैंने, 

और वे दोनों मेरे पीछे पीछे चले तब! हम टीले पर चढ़े! 

और जैसे ही मैंने नीचे रौशनी मारी! रीढ़ की हड्डी में कंपकंपी छूट गयी! हज़ारों सर्प पड़े थे वहाँ! हर तरफ! 

जहां देखो वहीं! कौशुकि ने तो मेरी बाजू ही पकड़ ली थी! "अरे भग* *!!" बोले शर्मा जी! "देखा कौशुकि!" कहा मैंने, "हाँ, विस्मयकारी!" बोली वो, "कितने सारे हैं!" बोला मैं, "मैंने इतने कभी नहीं देखे!" बोली वो, "हाँ! नहीं देखे होंगे!" बोला मैं, 

और तभी पीछे से आई एक ज़ोरदार फुकार! एक बड़ा सा सर्प, कुंडली मारे! 

आँखें दहकाए, जिव्हा लपलपाये, हमें ही देख रहा था! मैंने कौशुकि को अपने पीछे कर लिया तब! वो एक बड़ा सर्प था! काले रंग का, उसके गले पर जो चिन्ह था, वो ही मेरे सर से बड़ा था। उसके शल्क चमक रहे थे। फंकार मारता तो मिट्टी उड़ा देता! वो बार बार मुझे, शर्मा जी को देखता था! हम जैसे खड़े थे, वैसे ही खड़े रहे! कम से कम बीस फीट का तो होगा ही वो, कुंडली मारी हुई थी, पूंछ उठाता था बार बार! उसका आशय स्पष्ट था, कि हमने यदि ज़रा सी भी हरकत की, तो वो इस लेगा हमें उसकी विष-ग्रन्थियां ही इतनी बड़ी होंगी कि एक बार में ही सैंकड़ों व्यस्कों की जान ले ले! अब हम क्या करते! पीछे असंख्य सर्प थे, सामने ये भुजंग खड़ा था रास्ता रोके! "शर्मा जी?" मैंने फुसफुसा के कहा, "हाँ?" बोले वो, "मेरे बाएं सरको!" कहा मैंने, वे धीरे धीरे सरकने लगे! "कौशुकि?" बोला मैंने, "जी?" फुसफुसाई वो! "मेरे बाएं आओ" कहा मैंने, 

आ गए वे दोनों, "अब पीछे देखते हुए हटो यहां से!" बोला मैं, "आप?" बोली वो, "जाओ, मैं आता हूँ!" कहा मैंने, अब मैं खिसका दायें! ये बहुत पुरानी विधि है! यदि आप दो या अधिक हों, और, कोई सांप रास्ता रोक ले, तो ऐसा ही करें! दायें बाएं हो जाएँ, इस से वो भमित हो जाता है, दोनों पर एक साथ दृष्टि नहीं जमा सकता! इस से बचाव हो जाता है! अपनी नज़र न हटायें उस पर से, और भागें नहीं! नहीं तो आपको पराजित समझ पीछा करेगा, और काट भी लेगा!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अब हम थोड़ा दूर हो गए थे उस से! वो पलटा अब! हआ मेरी तरफ! बढ़ा थोड़ा सा आगे, मैंने हाथ झटकाया अपना! वो रुका ये देख! अब वो शर्मा जी और कौशुकि पर नज़र नहीं रख रहा था! अब शर्मा जी ने अपनी चाल चलनी थी! वे घूम के आये उसके पीछे, एक पत्थर उठाया, और फेंका उसकी तरफ! जैसे ही पत्थर टकराया उस से, वो मड़ा पीछे, मुझे मौका मिला, और मैं और पीछे हो गया! वो शर्मा जी को देखने लगा फिर, फन नीचे किया उसने कि मैंने ताली बजाई! मैंने तभी पत्थर फेंका उसके ऊपर! झट से मुझे देखा उसने, फन खोल दिया था! यदि फन खोले वो, तो इसका अर्थ हुआ कि वो स्थिर रह के आपको देखेगा! फन बंद करे, तो समझो वो दौड़ेगा, आपकी तरफ या कहीं और! मैं ज़रा हिला, तो उसने फुफकार भरी! अभी भी गुस्से में ही था वो! शर्मा जी ने फिर से ताली बजाई, ये उनका इशारा था कि वो पत्थर मारेंगे उसे! उन्होंने मारा पत्थर, 

वो पलटा और घूम के उनकी तरफ खड़ा हो गया! मुझे मौक़ा मिला, मैं चला आगे, अब सुरक्षित क्षेत्र में था मैं! अब चला नदी के संग संग! और आया आगे, चला शर्मा जी के पास, वे भी पीछे हट लिए थे। झट से पलटा फिर, मुझे देखने के लिए वो, मैं नहीं था वहां, और चल पड़ा उधर ही! अब कौशुकि को बुलाया मैंने, वो आई भागी भागी! "चलो यहां से! जल्दी!" कहा मैंने, हम चल दिए तेज कदमों से वहाँ, तम्बू के लिए! कौशिक को उसके तम्बू में छोड़ा, बाबा से बात की, बताया उनको सबकुछ! उन्होंने फौरन ही, सर्प-रक्षण घेरा खींच लिया उधर! 

और उधर, मैंने भी खींच लिया! घुस गए तम्बू में! "कितने सारे सर्प हैं यहां?" बोले वो, "बहत हैं!" कहा मैंने, "अब क्या करना है?" पूछा उन्होंने, "यहां जो भी कुछ होगा, वो दिन में होगा अब!" कहा मैंने, "तो कल दिन में आएं?" बोले वो, "हाँ, कल दिन में कहा मैंने, "ठीक है!" बोले वो, उसके बाद, बातें करते करते सो गए हम! नींद खुली सुबह आठ बजे! जब सहायक ने जगाया तो! कुल्ला आदि किया, पानी पिया और फिर चले वहाँ से! बाबा को बता दिया था कि अब दोपहर में आएंगे हम उधर! बाबा तैयार थे, और वो कौशुकि भी! उन दोनों तोंदओं को वहीं छोड़ दिया जाना था अब! इस प्रकार, हम करीब एक बजे दोपहर में, भोजन आदि कर, चले उस स्थान के लिए! 

रास्ते में जीप में कुछ गड़बड़ हो गयी थी, दो बार रुकी, लेकिन श्रीचंद ने, जल्दी ही ठीक कर ली थी! हरफनमौला था श्रीचंद! मिजाज़ का भी हंसमुख था! तो हम पहुँच गए थे उधर! आज वहां पक्षी बैठे थे बहुत सारे! आज से पहले इतने पक्षी न देखे थे मैंने कभी वहाँ! "आज तो मजमा लगा है इनका!" बोले वो, "पता नहीं कहाँ से आ गए!" कहा मैंने, "हैं भी अजीब से!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "जल-पक्षी है ये?" पूछा उन्होंने, "हाँ, वही हैं" कहा मैंने, "कमाल है!" बोले वो, "वो देखो! नीलकंठ!" कहा मैंने, "जय हो!" बोले वो, हाथ जोड़कर! नीलकंठ पक्षी के पंख को, एक खोखले सरकंडे में डालो, एक मंत्र है, एक हजार एक बार जप लो, अब इस सरकंडे को किसी भी बंद ताले से छुआओ, खट से खुल जाएगा! इसके पंख को, जला लो, राख बन जाए, तो किसी भी काजल में मिला लो, काजल लगा, रात में निकलें. आपको दिन जैसा प्रकाश दिखेगा! एक मंत्र है, उसको चार घटी तक जपना है, चाहे कितना ही मंत्रोच्चार हो! काजल सिद्ध हो जाएगा! जिस


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

डाल पर बैठा होये नीलकंठ, उसके उड़ जाने के बाद, उस डाल को तोड़ लो, घर में दीवार पर टांग लो। 

लक्ष्मीजी, बार बार रास्ता भूल आपके घर ही पधारेंगी! ये तांत्रिक प्रयोग हैं! कौए का पंख, ले आइये शनिवार को घर में, उसको ताम्बे के पात्र में, जला लें, 

जब राख हो जाए, तो ताम्बे के तावीज़ मैं भर लें, धागा काला ही हो, इस से जो विद्यार्थी हैं, उनको बहत सफलता मिलेगी! कभी थकेंगे नहीं, स्मरण शक्ति बढ़ जायेगी! 

जो याद करेंगे वो भूलेंगे नहीं! अब घटना.......... तो हम तीनों, मैं, शर्मा जी और कौशुकि, चले ज़रा उसी गड्ढे पर, वहाँ पहुंचे, गड्ढा देखा, गड्ढा सही था आज तो, पानी नहीं था, पहले वाला देखा, तो उसमे भी पानी नहीं था! लेकिन पक्षियों का शोर बहुत था वहाँ! 

जैसे किसी पक्षी-उद्यान में आ गए हों! और तभी कौशुकि ने, एक फूल निकाला झोले में से, और पढ़ते हुए, डाल दिया अंदर गड्ढे में! फूल जा गिरा दस फीट नीचे! तभी नीचे से फुकार ही फुकार सुनाई दें! जैसे बहुत सारे सर्प नीचे हो! भूमि में आवाज़ सी हुई! भूकम्प सा आया पल भर के लिए! हमारी नज़रें वहीं टिकी रहीं, नीचे! पल भर के लिए फिर शान्ति सी हई! 

और अचानक ही, 

वे सारे पक्षी उड़ चले वहाँ से, एक एक करके! अब एक भी न बचा था वहाँ! फिर से फुफकार आई! इस बार तो बहुत तेज! जैसे प्रेशर-वाल्व खोला गया हो! ऐसे तेज आवाज़! नीचे था कोई! कोई बड़ा सा भुजंग! तभी ऐसी फुफकार थी उसकी ये! फिर से फुफकार आई! बहुत तेज! उसका फन बहुत चौड़ा रहा होगा, और वो सर्प भी काफी बड़ा रहा होगा! हम नजरें गड़ाए नीचे ही देखे जा रहे थे! तब कौशुकि ने, एक फूल और निकाला, और पढ़ उसे, नीचे फेंक दिया! फूल नीचे जा गिरा! वो सर्प, आया उधर! सर देखा उसका! सर देखा तो आँखें खुली रही गयीं हमारी! कम से कम मैं तीस पैंतीस इंच चौड़ा रहा होगा उसका फन! उस रंग, मटमैला था, था नाग ही! उसने ऊपर किया सर, और अब उसकी मोटी मोटी आँखें दिखीं! वी ठहर गया! और उठने लगा ऊपर! हम हए पीछे! एक साथ, टकटकी लगाये! लेकिन पांच मिनट के बाद भी, वो ऊपर नहीं आया! "आया क्यों नहीं?" बोला मैं, "पता नहीं" बोले शर्मा जी, "मैं देखती हूँ" बोली वो, चली आगे, मैंने कंधे से पकड़, रोक लिया उसे, "वापिस आओ, इधर ठहरो" कहा मैंने, वो आ गयी वापिस, हो गयी खड़ी, मैंने मिट्टी उठाइए एक मुट्ठी में, 

और सर्प-मोहिनी विद्या का संधान कर, संचरित कर लिया उसको, "यहीं ठहरो!" कहा मैंने, और मैं चला आगे अब! पहुंचा गड्ढे तक, नीचे झाँका, सर्प नहीं था वहाँ! तभी फुकार की आवाज़ आई बहुत तेज! मैं हआ चौकस! और फिर से वही सर्प आया नज़र! 

मुझे ही घूरता हुआ! आँखें ऐसी पीली जैसे कि, अंडे की ज़र्दी! गोल-गोल! चमकती हुई! कोई साधारण व्यक्ति देख ले, तो बुखार आ जाए उसी क्षण! भरभरा कर गिर जाए नीचे! वो उठा ऊपर, लेकिन मैं नहीं हिला, वहीं खड़ा रहा! वो आता रहा ऊपर, और फिर करीब पांच फ़ीट पर आकर रुक गया! मैंने वो मिट्टी, फेंक मारी उसके फन के पीछे! वो नीचे हुआ, और चला पीछे! गया सुरंग में वापिस! काफी देर हुई, लेकिन कोई नहीं आया! अब वे दोनों आ गए वहाँ! "क्या


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

हुआ?" पूछा कौशुकि ने, "नहीं आया वापिस" कहा मैंने, "इसका मतलब ये हुआ, कि कहीं और भी रास्ता है!" बोले शर्मा जी, बात तो सही थी, ऐसा ही लगता था! "आओ ज़रा तलाश करें!" कहा मैंने, 

और हम चल पड़े आसपास देखते हुए, कोई बीस मिनट के बाद, कौशुकि को कुछ दिखा, वो ले चली उधर हमें, ये एकटीला था, वहाँ, बाम्बी बनी हुई थीं! चार तो वहीं थीं, उसी टीले पर! तभी झाड़ियों में, झर्र झर्र की आवाज़ आई! हम चौकस! मैंने कौशुकि और शर्मा जी को पीछे कर लिया, मिट्टी उठा ली, और पढ़ा लिया मंत्र! 

कर ली जागृत विद्या! विद्या जागृत हो गयी! 

और मिट्टी अभिमंत्रित! और हमारे सामने, कोई दस फ़ीट दूर, एक विशाल से सर्प ने सर उठाया! उसकी दाढ़ी ऐसी सफेद, जैसे कपास लगा रखी को! 

भौहें ऐसी, कि नीचे तक लटकती हुई, दाढ़ी से मिल रही थी फन ऐसा बड़ा, कि दो आदमियों को ढक ले! 

मोटा इतना, जैसे कोई शहतीर पेड़ का! कौशुकि ने तभी मेरा कंधा पकड़ लिया था! शायद पहली बार देखा था उसने ऐसा सर्प! 

और फिर, कौशुकि ने, उसको प्रणाम भी किया! उसने छोड़ी फुफकार! हवा आई गर्म! जीभ लपलपाई उसने! लिया हमारा जायज़ा! ये एक बुजुर्ग सर्प था! आदर करना कर्तव्य था हमारा! मैंने भी सर झुका दिया अपना! शर्मा जी ने भी! वो आगे आया ज़रा, दो फीट तक, फिर मारी कुंडली! वो जब ऐसे बैठा था, तो हमारे सर तक आ रहा था! फन नीचे किया उसने, और सांस छोड़ी! उसने हमें पीछे लौटने के लिए कहा था, लकें हम न लौटे! उसने फन फिर से फैलाया, और मारी फुकार ज़मीन में श्वास छोड़ते हए! बस! यहीं तक है हद हमारी! इस से आगे नहीं! समझा दिया था उसने हमें! अचानक ही, उन बाम्बियों से, ढेरों सर्प निकलने लगे! हो गए इकट्ठे! एक से एक जहरीला सर्प था वहां! जहां देखो, वहीं सांप! सभी सर उठा, हमें देख रहे थे! सर हिलाते,जीभ लपलपाते! "पीछे हटो!" कहा मैंने, 

और हटे फिर हम सब! हम हटें, वो आगे बढ़ें! अब हम रुके! वे भी रुके! हम पीछे चले, तो वो आगे बढ़े! यही मुसीबत होती है सौ के साथ! तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है! 

पिट्स-वाईपर, धौला, मनियार, गेंहअन तो और आगे बढ़ आते हैं! पिट्स-वाईपर नहीं डरता बिलकुल भी! 

ये नहीं परवाह करता! अपनी बिल्लौरी आँखें, हटाता ही नहीं! जहरीला इतना, कि दस मिनट में ही आदमी अंदर से गल जाए! अंदरूनी रक्त-स्राव हो जाता है! ये जब भी काटेगा, अंग्रेजी के एस आकार में अपनी देह मोड़ेगा! 

और फुर्तीला इतना, कि पलक झपकते ही, ज़हर उड़ेल देगा देह में! और वापिस भी हो जाएगा! काटने के बाद, भागेगा नहीं! वहीं बैठा रहेगा! हाँ, तो वे सर्प हमें घेर के आगे बढ़ रहे थे! दो सर्प तो ऐसे, कि पास में आकर, कोई डेढ़ फ़ीट पर, फुकार भरें! गुस्सा करें! 


   
ReplyQuote
Page 3 / 5
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top