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वर्ष २०१० लखीमपुर खीरी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और हम चले अब बाबा के पास, वहीं लेटे थे बाबा गोपाल भी, बुला लिया अंदर, जूते खोल अंदर चले गए, बैठे वहाँ, बाबा गोपाल उठ कर, बैठ गए! "अब और कितना?" पूछा मैंने, बाबा, बाबा गोपाल को देखें तब! "हाँ बाबा?" पूछा मैंने, "वो द्रौंच हैं! इतने सरल नहीं!" बोले वो, "तो कितना समय?" पूछा मैंने, "आज सुबह तक!" बोले वो, सुबह तक? सारी रात यहां जंगल में? "ऐसी क्या मुसीबत है?" पूछा मैंने, "है कोई बात" बोले वो, "अच्छा" कहा मैंने, कुछ समझ न आया मुझे तो, भूख लगी थी अलग से, वो और तंग करे! उठ आये वहाँ से हम, गए अपनी झोंपड़ी में, और लेट गए, कोई आधे घंटे के बाद, एक सहायक आया, भोजन लाया था, पूरियां और आलू की सूखी सब्जी! चलो! कुछ तो मिला! खाया हमने, पेट भरा, पानी पिया, 

और फिर लेट गए आराम से, अब वो साधिका जाने, या फिर वो बाबा! जो होगा, चल जाएगा पता! हम तो सो गए थे फिर उसके बाद। कोई चार बजे नींद खुली मेरी! बाहर झांका, 

तो कौशुकि बैठी थी गड्ढे पर अकेले! मैं चला ज़रा उसके पास, पहुंचा, तो गड्ढे में फूल डाले जा रही थी। "कुछ संकेत?" पूछा मैंने, न बोली कुछ! मैं चुप खड़ा रहा! उसने मंत्र पढ़ा! जल लिया हाथ में, 

और डाल दिया गड्ढे में! फिर अंदर झाँका! एक कीड़ा भी नज़र न आया मुझे तो! मैं तो वापिस आ गया तभी! अभी तक एक चुटकी मिट्टी भी न हिली थी! शर्मा जी सो रहे थे, मैं भी सो गया वापिस आकर, ओढ़ी चादर, और आई नींद! सुबह हुई, बजे कोई छह! बाहर आये हम, वहां तो कोई भी नहीं था! गए ज़रा उस झोपड़ी तक, तो सभी आराम से सो रहे थे! किसी को भी देख ये नहीं लगता था कि वो नींद के सागर में डूबा हआ है! क्या बाबा लोग! क्या वो साधिका! क्या वो सहायक! चादर ओढ़, आराम से सो रहे थे! "ये तोऊँट बेच सोरहे हैं!" बोले शर्मा जी, "रात भर सोये नहीं होंगे!" कहा मैंने, "यहां कुछ नहीं होना इनसे!" बोले वो, 

और हम चले वापिस अपनी झोपड़ी में! फिर से जा लेटे वहीं,ओढ़ ली चादर, बाहर ठंड थी! थोड़ी ही देर में फिर से नींद आ गयी! चलो अच्छा था! हमें कौन से धान रोपने थे खेत में सारा दिन! करीब ग्यारह बजे, नींद खुली! मैंने शर्मा जी को उठाया, वे भी उठ गए, "ये तो दिन चढ़ आया!" बोले वो, बाहर झाँक कर! "हाँ, ग्यारह बज गए हैं!" बोला मैं, 

और हम चले बाहर,आये तो दो सहायक, सामान बांध रहे थे, अब तक सभी जाग गए थे वहाँ, 

बाबा गोपाल अंगड़ाई ले रहे थे, साधिका अपने केश बाँध रही थी, मैं तब गड्ढे तक गया, अंदर झाँका, फूल पड़े थे उसमे, कुछ सामग्री इत्यादि भी! 

आया वापिस वहाँ पर, अब तक साधक, वो इंडे और तिरपाल उठा चुके थे! "आओ जी" बोले बाबा, "चलो बाबा!" कहा मैंने, हम चलने लगे वापिस, मैं साधिका के करीब पहुंचा, "कुछ हुआ?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, "कहीं कोई बंधन तो नहीं?" पूछा मैंने, "पता नहीं" बोली वो, मुझ पर ही खीझ उतार रही थी, ऐसा लगा! "कब तक की उम्मीद है?" पूछा मैंने, "मुझे नहीं मालूम" बोली वो, "मुझे अवसर दें?" कहा मैंने, "क्यों?" पूछा उसने, "हो सकता है कुछ मदद मिले?" पूछा मैंने, "कोई आवश्यकता नहीं" बोली वो, "वो क्यों?" पूछा मैंने, "हम कर लेंगे"


   
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श्रीशः उपदंडक
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बोली वो, "तीन-चार दिन हो लिए!" कहा मैंने, "महीना भी लग सकता है!" बोली वो, "महीना?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, 

और धड़धड़ाते हए, चली गयी आगे! "क्या कहा उसने?" पूछा उन्होंने, "कह रही है महीना लग सकता है!" बोला मैं, 

"महीना?" वो भी चौंके! "हाँ!" कहा मैंने, "बाबा को बोलो, ये रहा आपका कमंडल और सोटा, हम चले!" बोले वो, "और क्या!" कहा मैंने, इस तरह आ गए जीप तक, बैठे, और उस हाड़-तोड़ यात्रा को सहा हमने! जा पहुंचे वहाँ, औ फिर निवृत हो, भोजन किया! और फिर से आराम! कोई काम तो था नहीं! पांच बजे करीब आये बाबा अंदर, बैठे, मैंने उनसे बात की, "महीना कह रही है!" कहा मैंने, "न! न! आज ही होगा!" बोले वो, "कैसे?" पूछा मैंने, "वो गोपाल बाबा कह रहे हैं!" बोले वो, "आज कब?" पूछा मैंने, "रात को" बोले वो, "यानी आज की रात फिर काली?" पूछा मैंने, "न! आज तो होगा है!" बोले वो, "और जो न हुआ?" कहा मैंने, "तब तो मैं ही करूँगा!" बोले वो, "यही ठीक है!" कहा मैंने, अब और भी बातें हुई हमारी, मैंने बता दिया, कि आज न हुआ कुछ, तो हम कल चले जाएंगे वापिस! कर लिए द्रौंच-दर्शन! बाबा हंस पड़े! 

और सामान भिजवाने की कह, चले गए वापिस! थोड़ी ही देर में, सहायक आ गया, पानी और गर्मागर्म माल दे गया था, साथ में मदिरा भी! हमने छक के खाया। पीया और फिर हाथ-मुंह धोये। 

करीब नौ बजे, हम चल पड़े वहाँ के लिए! आज सामान और ले लिया था उन्होंने, हण्डे, तिरपाल आदि! गाड़ी में बैठे, और चल पड़े, उस हड्डी-खोल रास्ते ने जम कर सवाल पूछे! 

और हम अब जा पहुंचे उधर ही, टोर्च जलाईं हमने, 

और श्रीचंद आगे आगे चला, हम उसके पीछे पीछे पौने घंटे में जा पहुंचे वहाँ, 

अब तिरपाल से, झोंपड़ी बनायी गयीं! हमारी भी बना दी थी, हम तो घुस गए उसमे! 

आज हवा ठंडी चल रही थी! कोई आधे घंटे में उन्होंने फिर से वही सब किया! कभी बाबा, कभी साधिका! यूँ ही चलता रहा! बज गया एक! 

आँखों में नींद के झटके लगने लगे! मैं तो लेट गया फिर! शर्मा जी भी लेट गए! सो गए हम आराम से, चादर तान! अब तक नागराज तो क्या, कोई जंगली सांप भी न दिखा था! मेरी नीदं खली करीब दो बजे! बाबा गोपाल और कौशुकि, वहीं गड्ढे पर बैठे थे! वेदिका में, सामग्री झोंके जा रहे थे! मैं चला उधर तब, तभी एक सहायक आया दौड़ा दौड़ा! रोका मुझे! मैं रुका! "वहां न जाइए!" बोला वो, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "मना किया है" बोला वो, "किसने?" पूछा मैंने, 

"वो साध्वी ने" बोला वो, "अच्छा!" कहा मैंने, 

और लौट पड़ा वापिस, शर्मा जी उठ गए थे, पानी पी रहे थे! मुझे देखा तो पानी दिया मुझे! तब मैंने पानी पिया! "भोंक दिया ऊंटनी की ** में भाला इन्होने?" बोले वो, मेरी हंसी छूटी! "साले तमाशा बना रहे हैं। यहां सुला रहे हैं, नदी किनारे!" बोले वो, "अब करें क्या?" बोला मैं, "आप बाबा से कहें?" बोले वो, "कहता हूँ, रुको!" कहा मैंने, उठा, और चला बाबा के पास! मैं पहुंचा बाबा के पास, हण्डा जल रहा था अंदर, एक सहायक औंधा पड़ा था, और बाबा, चादर ओढ़े,


   
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श्रीशः उपदंडक
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खर्राटे बजा रहे थे! अब क्या जगाता उन्हें, वापिस आ गया मैं, सीधा अपनी ही झोंपड़ी के पास, शर्मा जी बीड़ी पी रहे थे, बाहर खड़े हो, "क्या हुआ?" पूछा उन्होंने, "कुछ नहीं!" कहा मैंने, "सो रहे हैं क्या?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "लो! यहां** का फलूदा बनने में कसर नहीं, और वो खर्राटे बजारहे हैं!" बोले वो, "आओ यार!" कहा मैंने, "चलो!" बोले वो, हम पहुंचे गड्ढे तक, अब न रोका किसी ने, शायद वो भी सो गया होगा! बाबा और कौशुकि गड्ढे के पास ही बैठे थे, मंत्रणा कर रहे थे! "कुछ हुआ पंडित जी?" बोले शर्मा जी, बाबा ने पीछे देखा, और फेर ली गरदन, "जवाब तो दो? या यूँ ही ऐसे ही आएंगे और चले जाएंगे?" बोले वो, "आप बैठो वहाँ" बोले वो, "बैठे तो हैं ही! कितनी देर लगेगी?" बोले वो, 

"पता नहीं" बोले वो, "पता नहीं? क्या धूल में लड भांज रहे हो?"बोले अब ज़रा गुस्से से! "आपसे क्या मतलब?" बोले वो, "मतलब न होता तो उस पन्नी की झोपड़ी में न सो रहे होते हम?" बोले वो, "जाओ, बाबा से बात करो" बोले पंडित जी, "वो तो खुद खर्राटे बजा रहे हैं!" बोले शर्मा जी, "तो आप भी बजाओ!" बोले वे, "बजा लेंगे, लेकिन आप हमारी भी समझो, चार-पांच दिन हो गए, एक रेत का कण भी न हिला!" बोले गुस्से से, "तो आप हिला लो?" बोले वो भी खीझ से! "आप हटो फिर अपना टाट-कमंडल लेकर यहां से!" बोले वो, "आप जाइए यहां से?" बोली अब वो, "चले जायंगे, लेकिन आप हटो!" बोले वो, "आपका यहां क्या काम?" बोली वो, "काम न होता तो इस नदी के किनारे न खानाबदोशों की तरह पड़े होते!" बोले वो, "अरे जाओ आप,अपना काम करो, हमें न सिखाओ!" बोले पंडित जी! "पंडित जी! पकड़ने चले हो शेर! वो भी चूहे के पिंजरे में!" बोले वो, अब खड़ी हुई वो, मुझे देखा, "आप जाओ यहां से, अभी के अभी!" चुटकी बजाते हुए कहा उसने! "जाते हैं, कोई बात नहीं!" कहा मैंने, 

और मैं शर्मा जी के साथ लौट आया! हम अंदर गए, चादर ओढ़ी, और लेट गए, "बहन ** ! मथुरा से आया है अजगर पकड़ने, केंचुआ पकड़ने में पेचिश उठ जाती होगी!" बोले वो, मुहे हंसी आई! "यहां, ये देखो, यहां, यहां डाल रखा है पांच दिनों से!" बोले वो, "कुछ तो कर ही रहे होंगे?" कहा मैंने, "कुछ कर रहे हैं? हमारी ** में मिट्टी घुसेड़ रहे हैं यहाँ लिटा के!" बोले वो, फिर से हंसी आई मुझे! 

"और वो साधिका, ऐसे बात कर रही है जैसे विश्व मांत्रिक संस्था की प्रधान हो! फूल फेंक रही है अंदर! इस पंडित को फेंक दे, हो सकता है कोई सांप-सूप निकल आये!" बोले वो, मैं हंसा अब! हंसी रोके न रुकी! "ऐसे नागराज आएंगे? खाली बैठे हैं वो?" बोले वो, फिर से बीड़ी सुलगा ली थी उन्होंने, "आप साफ़ साफ़ बात करो बाबा से कल, नहीं तो निकलें यहां से, हो गए दर्शन, कहीं ऐसा न हो, रात को बढ़ जाए पानी, और हम डुब्बक डुब्ब!" बोले वो, बात तो सही थी, नदी में पानी घट-बढ़ रहा था! "करता हूँ बात!" कहा मैंने, उन्होंने कुल्ला किया, पानी पिया, मैंने भी बोतल ले ली पानी की, पानी पिया, "करो जी बात, ऐसे नहीं होता!" बोले वो, 

और हम लेट गए फिर, आ गयी नींद! नींद खली कोई सात बजे! उठे, हाथ-मुंह धोये! सहायक जाग चुके थे, बाबा भी वहीं बैठे थे बाहर, हम चले उनके पास, बैठे उनकी चादर पर, "हो गयी


   
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श्रीशः उपदंडक
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रात काली?" कहा मैंने, "अब क्या कहूँ?" बोले वो, "इनके बस में नहीं है, ये तो लगा देंगे एक महीना!" कहा मैंने, "आज करूँगा बात!" बोले वो, 

और फिर कोई आठ बजे, हम लोग चल दिए वापिस, खजाना लूट रहे थे रोज अलीबाबा का! रोज जाते, और रोज लाते! बिना नागा! दोपहर में खाना खाया, और फिर से आराम किया! शर्मा जी भुनभुनाये हुए थे उन सभी पर। 

चार बजे करीब बाबा आये हमारे पास, "कुछ बात हुई?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोले वो, "क्या?" पूछा मैंने, "कह रहे हैं आज चाक तोड़ देंगे!" बोले वो, "आज फिर?" कहा मैंने, "हाँ, मानना तो पड़ेगा!" बोले वो, "क्या बाबा?" कहा मैंने,सर हिलाते हुए! "आज और देख लो" बोले वो, 'चलो जी" कहा मैंने, 

और बाबा चले गए वहाँ से फिर, "अँधा बाँटे रेवड़ी, फिर फिर अपनन को दे!" बोले वो, "आज और देख लो!" कहा मैंने, "ये साले रोज हमारी* * पर प्याज रखकर काट रहे हैं। इन्हें क्या पता?" बोले वो, "आज और कटवा लो!" कहा मैंने, हंस कर! "अगर आज कुछ नहीं हुआ न, तो इस महंत से बात करूँगा मैं फिर!" बोले वो, "कर लेना!" बोला मैंने, तो शाम का भोजन किया हमने! और फिर चल पड़े वहां के लिए! छाती और कमर को एक करने वाले उस रास्ते ने भी कसम खायी थी कि, बिना खबर लिए तो जाने नहीं देगा वो! 

और ऊपर से वोजीप ऐसी, कि झटका लगे, तो नीचे ज़मीन चाट लो! इसीलिए हम पीछे बैठते थे वहां! 

और इस तरह फिर से पहुँच गए हम उधर! लगाए गए तम्बू! जलाये गए हंडे! 

और हम घुसड़े अपनी झोपड़ी में! "चल दिए महंत साहब! नागराज थाली लिए खड़े होंगे।" बोले वो, 

हंसी छूट गयी मेरी! 

"थाली किसलिए?" पूछा मैंने, "कि महंत साहब आये है, मथुरा से, पेड़े लाया हूँ आपके लिए!" बोले वो, अब हंसा मैं खुलकर! पेड़े! मथुरा के पेड़े! "और देखो! वो प्रधान भी चल पड़ी! धोती-लत्ते लाये हैं पोटली में बाँध कर नागराज इनके लिए!" बोले वो, मैं हंसा बहुत तेज! धोती-लत्ते! "देखो! झाँक रहे हैं अंदर! कि सूक्ष्म रूप में तो नहीं आये वो?" बोले वो, "बस यार! जांच रहे होंगे!" कहा मैंने, मैंने बाहर झाँका तभी! 

और वे दोनों वहीं बैठ गए! कपड़ा बिछा कर, दीपक जलाये, वेदिका सुलगाई! सामग्री डाली! 

और पढ़े मंत्र! "लो जी! हो गया आहवान शुरू!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "जो आज कुछ न हुआ न, तो मथुरावासी ऐसे श्लोक सुनेगा कि पंडताई छोड़ देगा 

आज से ही!" बोले वो, 

और मैं हंसा! श्लोक! मथुरावासी! शर्मा जी उन दोनों के पीछे पड़े थे, और मैं हंस रहा था पेट पकड़ कर! उनकी एक एक हरकत पर नज़र थी उनकी! बात बात में जुमले सुना देते थे मुझे! वो गोपाल बाबा 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और कौशुकि, वहीं बैठे थे, वेदिका में सामग्रियाँ डालते जा रहे थे! "राजसूय यज्ञ चल रहा है भाई! हट जाओ!आज तो खैर नहीं किसी की भी!" बोले वो! राजसूय यज्ञ! मैं फिर से हंसा! "कैसा राजसूय यज्ञ?" पूछा मैंने, "आहुति देखो कैसे दे रहा है, जैसे कपड़े धो रहा हो!" बोले वो, सच में, आहुति देनेका एक अलग ही अंदाज़ था गोपाल जी का! मैंने देखा तो हंसी फूट 

ही गयी! "कर ले! जो करना है कर ले! आज तेरे आलू न उबाल दिए तो देखना!" बोले वो! 

अब नहीं रहा गया। आलू उबाल दिए। "बस यार!" कहा मैंने! "कैसे बस? ये तो साले तिरपाल में में रहते हैं, हमें पन्नी में डाल रखा है। हवा चलने पर 

ये पन्नी ही भूत जैसी आवाज़ करती है!" बोले वो, आवाज़ तो करती थी! जब हवा चलती थी तो भर-भर्र की सी आवाज़ आतीथी! "हो गया खड़ा! अब हार डालेगा नागराज के गले में! वो भी हो गयी खड़ी!" बोले वो, मैंने बाहर झांक कर देखा,अब दोनों ही खड़े थे, मंत्रोच्चार कर रहे थे खड़े खड़े! और फिर लौट पड़े तिरपाल के लिए! "चल दिए वापिस! ऊंटनी उठी नहीं, नहीं तो आज उसकी** का चित्तौड़गढ़ बना जाता! लहू-लुहान कर देते आज तो!" बोले वो! ** का चित्तौड़गढ़!! ऐसी हंसी आई कि पेट में दर्द सा होने लगा! खांसी उठ गयी 

अचानक से ही! "आने दो इस पण्डे को! अबकी बार मैं ही जाऊँगा! पूछंगा कि पण्डे जी, नागराज जी नींद से जागे या नहीं!" बोले वो, "कुछ ज़्यादा ही खीझ गए हो आप!" कहा मैंने, "यहां, ये रेत के पत्थर, ** में घुसे जा रहे हैं! एक चादर ही तो है! वहां तो गद्दा डाल रखा है! अब गुस्सा आएगा या नहीं?" बोले वो, 

हाँ! वहाँ पत्थर से, छोटे छोटे से, चुभते थे बहुत ज़्याद लेटने पर! 

और फिर बाबा गोपाल कुछ सामान लाये गड्ढे पर, बैठे, और गड्ढे में डालते रहे! "हाँ, भर दे! ताकि निकल ही न सके! तब गुहार लगाएं वो! हे पण्डेराज मथुरावारे! दम घुट गया है, उपकार करो! निकालो ऊपर अब!" बोले वो, हँसते हुए। फिर से हंसी छटी मेरी! पण्डेराज मथुरावारे! 

और इस तरह से, चार घंटे और बीत गए! एक पत्ता तक न हिला! अब आया शर्मा जी को गुस्सा! उठे, जूते पहने और चल पड़े उधर गड्ढे तक! मैंने भी जूते पहने, और भागा उनके पीछे! "ओ पण्डे बाबा?" बोले शर्मा जी, बाबा ने कोई जवाब न दिया! 

"अरे सुन रहा है?" बोले वो, कोई जवाब नहीं दिया! "कुछ होना भी है या हमें डालेगा अब इस गड्ढे में?" बोले वो, "जाओ यहां से?" बोले बाबा! "गड्ढा तो भर दिया तूने इस अटरम-शटरम से, निकलेंगे क्या ख़ाक? या दूसरा गड्ढा बनाएंगे वो?" बोले वो, "आओ, चलो वापिस" कहा मैंने, "पांच दिन हो गए हैं। इनकी तपस्या ने हमारी ऐसी की तैसी कर दी है! न कुछ बता रहा है, न कुछ हो ही रहा है!" बोले वो, "आप जाइए यहां से?" बोली वो! "आओ शर्मा जी!" कहा मैंने, "सुन ले बे ओ पण्डे! आज जो कुछ न हुआ, तो धोती उतार कर, सामने नदी में फेंक दूंगा तुझे!" बोले वो, कौशुकि ने आवाज़ लगाई! दो सहायक आये, कहा कि ले जाओ इन्हें वापिस! मैंने भी समझाया! और ले आया वापिस! "इसकी माँ की ** में बीसा कछुआ! देखो आज आप!" बोले वो, बहुत समझाया उनको! सहायक भोजन दे गया था, मूली की भुजिया थी, रोटी के संग, वही खायी और फिर लेट गए! पेट भरा, लेटे तो आँखें भारी हुई और हम सो गए! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और सोये भी ऐसा, कि चार घंटे और बीत गए! बाहर अँधेरा हो गया था, मैंने मोबाइल चालू किया, और देखा बाहर, गड्ढे के बाहर कौशुकि बैठी थी अकेले! बाबा नहीं थे! शर्मा जी को जगाया मैंने, वो जागे, समय देखा, फिर बाहर झाँका! "एक मिनट हटना? इस पण्डे की माँ की ** में फेविकोल, अभी आया!" बोले वो, 

और दौड़ पड़े! मैंने भी जूते पहने और भागा उनके साथ! वे गए सीधा तिरपाल में! बाबा तो सोये हए थे! आवाज़ दी उन्हें, और जगा लिया! "आइयो ज़रा बाहर?" बोले वो, पण्डे जी डर गए! कैसे आएं बाहर? जगा दिया बाबा को! और आये दोनों ही बाहर! "एक बात बताओ बाबा? ये तो यहां चालीस दिन का यज्ञ करने आया है, हमारी ** पर 

क्यों रंदा चलाया जा रहा है? रोज आओ, यहां सो जाओ, सुबह, अपनी ** उठा, फिर चले जाओ! फिर आ जाओ! अब हटाओ इस पण्डे को, और आप जाओ अब!" बोले गुस्से से! "शर्मा जी समझिए आप!" बोले बाबा, "क्या समझू? इनके बस में कुछ है क्या? इस से तो अब तक सपेरा ही बुला लेता कोई सांप-संप?" बोले वो, बाबा भी हंस पड़े! मैं भी! "अरे आज हो जाएगा!" बोले गोपाल बाबा! "क्या हो जाएगा? अब तक कुछ हआ?"बोले वो, "थोड़ा सा इंतज़ार तो करो?" बोले वो, "कुछ दिखे तो इंतज़ार करूँ, यहां तो एक केंचुआ तक न दिखा?" बोले वो, "आपको द्रौंच दीखेंगे!" बोले गोपाल जी! "द्रौंच को रखो अपने पास, एक पानी वाला सांप तक नहीं दिखा? गड्ढा पूज रहे हो या कुआं-पूजन चल रहा है?" बोले वो, "आज हो जाएगा!" बोले वो, "हो जाएगा मेरा घंटा! जो न हुआ तो मेरे घंटे से लटक कर रस्साकस्सी करते रहना! सुन बे पण्डे! तू होगा पंडा मथुरा का, अब साफ़ साफ़ बता कितनी देर और?" बोले वो, "सुबह तक" बोले बाबा गोपाल! "ले फिर, चार घंटे हैं सुबह होने में, चल, देखता हूँ मैं!" बोले वो, 

और लौट पड़े मेरे संग! "हाँ यार! पांच दिन से पागल बना रखा है, अब होगा, कि तब होगा! साला एक कीड़ा 

भी नहीं आया!" बोले वो, और हम आ गए अपनी झोपड़ी में। लेट गए! थोड़ी देर में शांत हुए वो, और मैं भी सो गया था तब तक! नींद खली कोई साढ़े पांच बजे! मैं उठ बैठा, कुल्ला किया, और पानी पिया! शर्मा जी भी उठ बैठे! फौरन बाहर झाँका, कोई न था वहाँ गड्ढे पर! 

"अब साले खुद ही तो नहीं कूद गए अंदर?" बोले वो, 

और चले बाहर, पानी पिया, वहाँ गड्ढे पर, दीपक जल रहे थे! मैं भी चला बाहर उनके साथ! पहुंचे गड्ढे तक, फूल पड़े थे अंदर! "इसकी बहन की ** ! इस पण्डे को देखता हूँ मैं!" बोले वो, 

और गुस्से में चले तिरपाल की तरफ! बाबा तो खर्राटे बजा रहे थे दोनों ही! "ओ मथुरावारे पण्डे?" चीखे वो, पण्डे जी की आँख खुली! शर्मा जी को देखा, जैसे ही देखा, बाबा को जगा दिया! "सोने आया है यहां?" बोले वो, बगलें झांके वो! "बाहर आ तू पहले!" बोले वो, अब डरे वो! बाबा से बार बार बात करे! आये फिर दोनों ही बाहर, "हाँ शर्मा जी?" बोले बाबा, "सुबह हो गयी, अब इस पण्डे को यहां से दफा करो! साले के कपड़े उतार लो! फूल मुफ्त में नहीं आये, ये ऐसे ही जाएगा मथुरा!" बोले वो, अब गोपाल बाबा को आया क्रोध! कहा सुनी हो गयी दोनों में! न वो मेरी सुनें, न वो बाबा की! 


   
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और तब आई वो साधिका उधर, गुस्से में! "ये क्या बदतमीज़ी है?" बोली गुस्से से, "बदतमीज़ी? घर से खाली हैं क्या तुम्हारी तरह?" बोले वो, "ऐसा है तो जाओ यहां से?" बोली वो, "जाना ही होगा! इस पण्डे सहित तुम भी करो यज्ञ!" बोले वो, "तो जाओ?" बोली वो, "न तुमसे पूछ के आया था, न तुमसे पूछ के जाऊँगा, समझी?" बोले वो, "संस्कार नहीं सीखे?" बोली वो, 

"तुम सिखाओगी मुझे संस्कार?" बोले अब गुस्से से! "इंतज़ार नहीं होता तो जाओ वापिस!" बोली वो, "इन बाबा के चक्कर में आ गए हम, पता होता ढोलक-पीटा आ रहे हैं तो आते ही नहीं!" बोले वो, "आओ बाबा!" बोली वो, 

और गोपाल बाबा अपना सामान ले, चल दिए गड्ढे पर! "किन चू*यों को ले आये आप?" बोले वो, "बाबा जसवंत ने भेजा है!" बोले बाबा, । "जसवंत ही आता तो अच्छा था!" बोले वो, 

और हम फिर से लौटे! आये झोपड़ी में, कुल मिलाकर, उस रात भी कुछ काम न हुआ! छह दिन ऐसे ही चले गए! नागराज के दर्शन तो दूर, 

आहट भी न सुनी हमने तो! और इस तरह, कोई दस बजे, हम वापिस हो लिए! रास्ते भर गाड़ी में माहौल तनावग्रस्त ही रहा! शर्मा जी बीच बीच में चुटकुला सुना देते थे! हम आ गए वापिस! निवृत हुए, चाय-नाश्ता भी कर लिया! पकौड़े आये थे, गोभी और बैंगन के! चाय के साथ कुर्रम-कुर हो गयी! और क्या चाहिए था! और फिर किया 

आराम हमने,रात भर, कंकड़ों पर सो, नींद आती नहीं थी सही ढंग से, अब समतल बिस्तर मिला, तो सो गए! बारह बजने में दस मिनट पहले नींद खुली हमारी, हम उठे,और चले ज़रा बाबा के पास, हफ्ता सारा बेकार हो गया था! ज़रा सा भी आभास होता तो कोई मलाल न रहता, लेकिन आभास तो छोड़िये,रत्ती भर भी कुछ नहआ था! आये हम बाबा के पास, अकेले ही बैठे थे, दूध पी रहे थे! "आओ" बोले वो, 

और हम बैठ गए, "बाबा? ऐसा ही चलेगा?" पूछा मैंने, "न! आज एक और बाबा आ रहे हैं" बोले वो, "एक और पंडा?" बोले शर्मा जी, "हाँ!" बोले वो, "कहाँ से?" पूछा मैंने, "कानपुर से, गोपाल बाबा ने बुलाया है!" बोले वो, "सुनो! एक काम करते हैं, हम चलते हैं वापिस दिल्ली, जब कुछ होगा, तो बता देंगे बाबा, हम आ जाएंगे! ये पण्डे यज्ञ कर रहे हैं चालीस दिन का! और कुछ नहीं!" बोले वो मुझसे! "न! आज तो होगा ही! साधिका ने कहा है!" बोले वो, "हो तो रोज रहा है! सब देख रहे हैं हम! ** सूज के काशीफल हो गयी है! इस से पहले कि कटहल हो, निकल लो यहां से!" बोले शर्मा जी! ये सुन हम दोनों भी हंस पड़े! "आज हो जाएगा!" बोले बाबा, दूध पीते हए! "और जो न हुआ?" बोले वो, "हो जाएगा!" बोले वो, "न, और जो न हआ तो?" बोले वो, "तब मैं ही मना कर दूंगा इन्हें, और खुद करूंगा!" बोले वो, "कर लो बाबा, रहम खाओ! ये अंडे-पण्डे हमारा चू*या खींच रहे हैं!" बोले वो, "चलो ठीक है, आज और सही!" बोला मैं, "हाँ जी! कोई बात नहीं, जब लट्ठ घुसड़वा लिया तो मूसल से क्या डर!" बोले वो, हंसी छूट पड़ी हम दोनों की! 

और हम उठ चले वहाँ से, आये अपने झोंपड़े में, बैठे, पानी पिया, और लेट गए! "बहन** ! अगर आज नहीं हुआ न, तो आज दोनों ही पण्डे ऐसी सुनेंगे, ऐसी सुनेंगे कि खुद ही नदी में छलांग


   
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श्रीशः उपदंडक
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मार लेंगे!" बोले वो, मेरी हंसी निकली! "वैसे प्रत्यक्ष-मंत्र से कितना समय लगेगा?" पूछा उन्होंने, "कोई आधा घंटा!" कहा मैंने, 

 

"ज़्यादा से ज़्यादा घंटा, डेढ़-घंटा मान लो? तो काहे अपनी माँ की ** में पीपनी बजा रहे हैं ये? माँ के ** ने हफ्ता घुसेड़ दिया अपनी मैय्या के कोठरे में!" बोले ज़रा गुस्से 

मैं हंस पड़ा! ज़ोर से हंसा! तभी सामने से वो गोपाल बाबा गुजरे, हाथ में पपीता लिए! "देखो! यहां भी पंडागीरी कर ली इसने तो! पपीता मार लाया कहीं से!" बोले वो, "पपीते तो यहां भी बहुत है?" कहा मैंने, "ये पपीता खाने आया है यहां! अबे भो* के, नीचे से खाइयो पूरा!" बोले वो, गुस्सा आ गया था उन बाबा को देख कर उन्हें! "मथुरा से यहां पपीता खाने आया है, अपनी सास का रांड-जंवाई! वहाँ गइढे पर वेदिका में पता नहीं क्या क्या स्वाहा कर देता है! लेकिन हिला एक पत्ता भी नहीं! आज जो कुछ न हुआ, तो सच में, आज पपीता ही घुसेडूंगा इसकी * में!" बोले वो, मैं हँसता रहा! कुछ बोले न बन पड़ा! फिर से गुजरे बाबा गोपाल वहाँ से, इस बार पपीता नहीं था पास में! "ओरा तेरी तो! भसक आया बहनिया का ** सारा पपीता! अब और लेने जा रहा है।" बोले वो, जिस लहजे में बोला, वो बड़ा ही अलग था! मैं तो हंसी के मारे दुल्लर हो गया! 

और जब वो आये तो दो पपीते थे हाथों में! "उरा बहन* * ! दो ले आया अबकी बार! एक कम रह गया था! तेरी मईया की ** में पपीते का पेड़!" बोले वो, कम से कम एक एक पपीता पांच किलो का तो होगा ही! पता नहीं कहाँ से इकट्ठा कर रहे थे वो! "आया मैं ज़रा!" बोले वो, 

और चले बाहर! मैं देखता रहा उनको! जहां पपीते के पेड़ थे, वहीं गए थे! जब आये वापिस, तो कोई दो किलो का एक पपीता ले आये थे! "मोटे मोटे खुद ले गया वो! ये मिला!" बोले वो, "काट लो" कहा मैंने, उन्होंने तब काटा और फांकें बनायीं, और हमने खाया। 

क्या मिठास थी उसमे! रस ऐसे टपके जैसे तरबूज हो! हाथ चिपचिपा गए थे! ऐसी मिठास थी उसमे! 

अब शहर में तो ऐसे पपीते मिलते ही नहीं! कारण, आयुर्वेदिक कंपनियां उनका दूध पहले से ही इकट्ठा कर लेती हैं, डाबर, चरक, सन्यासी, झंडू, बैद्यनाथ आदि कंपनियां ठेका उठाती हैं। झांसी के आसपास ऐसे बहुत से फ़ार्म मैंने देखे हैं! यही वजह है, इसीलिए उनमे बीज नहीं मिलता! और जो मिठास होती है, वो बनावटी होती है, इंजेक्शन से डाली जाती है। इसीलिए वो जल्दी ही, सड़ने लगता है। लेकिन ये तो पेड़ से टूटा था! ताज़ा और मीठा! चलो जी! पपीता भी खा लिया, भोजन भी कर लिया! 

और फिर आराम किया हमने, कोई छह बजे, खबर मिली कि एक और बाबा आ गए हैं। नाम है भगवान दास, वे माहिर हैं, काम हो जाएगा आज! 

और ठीक सात बजे, हम चल पड़े वहां के लिए! आज वैसे सातवां दिन था! आज कुछ होता तो ठहरते, नहीं तो कल हम हाथ जोड़, चले जाते वापिस! फिर से हाड़-पीस रास्ता शुरु हुआ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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धचकियां ऐसी कि गाड़ी से अब गिरे बाहर, और तब गिरे! हर धचकी पर, शर्मा जी 'हरे मेरे रा००म' कहा करते थे! जैसी धचकी, वैसी ही आवाज़! हल्की तो हल्की, भारी तो भारी! 

और इस तरह, हम पहुँच गए उधर, फिर पैदल मार्च, और आ गए उधर ही! गाड़ दिए गए तम्बू वहां! हम अपने तम्बू में घुस गए! आज हवा भी तेज थी! कुछ ही देर में अँधेरा छा जाने वाला था! हमने बाहर झाँका, 

वे तीनों गड्ढे पर खड़े थे, बाबा दास को कुछ बताया जा रहा था! मंत्रणा चल रही थी आपस में! "बड़ा पंडा कह रहा है छोटे वाले से कि अंदर घुस जा! पूंछ पकड़ ला उनकी!" बोले वो, मेरी हंसी छूटी! "छोटा वाला कह रहा है कि जी मैंने तो अभी क्रैश-कोर्स किया है, मैं नहीं घुसने वाला!" बोले वो! "क्रैश कोर्स!" कहा मैंने, "हाँ! ये सारे पण्डे यही करते हैं!" बोले वो, वैसे बात तो सही थी! ऐसा ही होता है! 

जब धन इकट्ठा हो जाता है तो, हैड-पंडा उसे लेता है, और दिहाड़ी दे देता है सभी पंडों को! ये आम व्यवसाय है आजकल हर जगह! "वो देखो!"बोले वो, मैंने बाहर झाँका, तीनों बैठ गए थे! मंत्रोचार चल रहा था ज़ोर ज़ोर से! "ये तो सप्तशती के मंत्र हैं?" बोले वो, "कोई बात नहीं!" कहा मैंने, "गड्ढे से डर गए शायद!" बोले वो, "डर कैसा?" पूछा मैंने, "कहीं को भुजंग आ गया तो?" बोले वो, "वो तो आएगा ही!" कहा मैंने, "बस! ये दोनों पण्डे धोती उठा भाग लेंगे!" बोले वो, मित्रगण! 

दो घंटे बीत गए! वेदिका में स्वाहा स्वाहा होती रही! लेकिन कुछ न हुआ! 

हम तो लेट गए थे अंदर ही, 

एक घंटा और बीता, बाहर झाँका मैंने, अब कौशुकि न थी वहाँ! बस वे दोनों ही थे! "वो कहाँ गयी?" पूछा मैंने, "अंदर, तिरपाल में, थक गयी होगी!" बोले वो, मंत्रोच्चार चलता रहा वहाँ! यज्ञ जैसा! एक घंटा और बीता! कुछ न हुआ! कौशुकि आ पहुंची थी वहाँ! गोपाल बाबा उठ चुके थे! और फिर, थोड़ी देर बाद, दास बाबा भी उठ गए! कौशुकि अकेली ही बैठी रही उधर! 

और हम, बगुले की तरह, वहीं दृष्टि जमाये, देखते रहे! "कल करवाओ टिकट! और निकलो यहां से! नहीं तो हमें ही कूदना होगा उस गड्ढे में!" बोले शर्मा जी! "हाँ, सही कह रहे हैं आप!" कहा मैंने, "इनकी भली चलायी, ये तो लगा देंगे दो महीने!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "जो काम आधे घंटे में होता है, उसमे सात दिन लगा दिए इन्होने!" बोले वो, "अब मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता!" कहा मैंने, "कल निकल चलो!" बोले वो, "ठीक है" कहा मैंने, "अब ओढो चादर, और सो जाओ! आ गए नागराज!" बोले वो, मैं हंसा! चादर ओढ़ी, और सोने का प्रयास करने लगा! 

आ गयी थी नींद, नींद तो वैसे भी आ रही थी, ऐसा सुस्त माहौल था कि जहां बैठो, वहीं 

मह फ़टे! उबासी के मारे! तो हम सो गए थे। रात कोई तीन बजे, मर नींद खुली! चीख-पुकार सी मची थी बाहर! बाहर झाँका तो देखा, गड्ढे में से तेज आग की लपटें निकल रही थीं! वे तीनों वहीं खड़े थे उस गड्ढे के पास! बाबा और दो सहायक भी वहीं पहुँच गए थे! "आओ शर्मा जी!" कहा मैंने, "चलो!" बोले वो, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम दोनों ही, जूते पहन, भाग निकले वहां के लिए! वहाँ पहुंचे, और खड़े हुए उनके साथ! मैं बाबा के पास गया, "ये क्या हुआ?" पूछा मैंने, "अभी अभी आग लगी गड्ढे में अपने आप!" बोले वो, मैं आगे बढ़ा, ताप बहुत था वहाँ! दूर से ही देखा, आग तो जैसे खेल रही थी वहाँ! वो उस गड्ढे में ही जैसे कैद थी! सामग्री, वेदिका आदि सब जला डाले थे उसने! लपटें भी करीब आठ फीट की होंगी! प्रकाश हो उठा था वहां! कुछ नहीं किया जा सकता था! न ही वे तीनों ही कुछ कर रहे थे! वो भी खड़े थे, और हम भी! और कोई आधे घंटे के बाद, वो आग थमी! जब गड्ढा ठंडा हुआ, तो सारे फूल 

और सामग्री, जल कर राख हो चुके थे! बाबा दास ने, एक फूल लिया और कुछ पढ़ा, फेंका गड्ढे में, भक्क से जल उठा वो! बाबा गोपाल की तो आँखें फटी रह गयी! अब कौशुकि आगे गयी! एक फूल अभिमंत्रित किया, 

और फेंका गड्ढे में! वो नहीं जला! अब उसने बाबा दास से बातें की कुछ! तब बाबा ने, सिन्दूर निकाला झोले से, 

और उस गड्ढे में फेंक दिया अभिमंत्रित कर। 

चटक-चटक की आवाजें आने लगी! वे वहीं खड़े रहे, और हम लौट पड़े, घुसे अंदर! "ये आग कैसे लगी?" पूछा उन्होंने, "शायद विरोध है ये!" कहा मैंने, "अच्छा !" बोले वो, "आपको देखना था न, देख लिया अब तो?" बोला मैं, "कहीं उस पण्डे ने ही तो नहीं जला दी आग?" बोले वो, "अरे नहीं! आग बहुत खौफनाक थी!" कहा मैंने, "अब देखो क्या करते हैं ये?" बोले वो, "हाँ, बैठे तो हैं!" कहा मैंने, कोई साढ़े चार बजे, आग फिर से लगी गड्ढे में! शोर-गुल हुआ, और हम भागे उधर ही! फिर से आग लगी थी, वैसी ही भयानक! कौशुकि एक जगह बैठ कर, मंत्र पढ़ती जा रही थी! उसने एक लकड़ी ली, अपने झोले में से, 

अभिमंत्रण किया उसका और फेंक दी गड्ढे में! आग बंद उसी क्षण! अब उठी वो, और चली गड्ढे की तरफ! झाँका अंदर, और फिर से एक लकड़ी फेंकी! धूल का गुबार सा उठा एकदम! और चारों तरफ, धूल ही धूल! रुमाल रखने पड़े हमें नाक और मुंह पर! अब वहीं बैठी वौ! 

और डाला कुछ गड्ढे में! फिर एक शीशी खोली, डाल दिया उसका सारा द्रव्य उस गड्ढे में 

जैसे ही डाला! भूमि में जैसे स्पंदन हुआ! काँप सी गयी भूमि! ये कौशुकि का मंत्र-प्रभाव था! अब उसने हाथ जोड़े, नमन किया! 

और तेज तेज 'प्रकट-प्रकट' बोलने लगी! बीस मिनट हो गए! कोई प्रकट न हुआ! उसने फिर से शीशी खोली एक और, और डाल दिया सारा द्रव्य! पेड़ हिलने लगे! वायु बहने लगी तेज! तम्बू फ़ड़फड़ा उठे! मित्रगण! सुबह हो गयी! कोई प्रकट न हुआ! उसके बाद, कौशुकि भी उठ गयी! चली गयी अपने तम्बू की ओर, आज का काम समाप्त हुआ! 

और हम लोग वापिस हुए वहाँ से! जा पहंचे अपने ठहरने के स्थान पर, निवृत हुए, चाय-नाश्ता किया, और फिर सो गए! हमने कौन से मवेशी चराने थे! नींद खुली दो बजे! फिर मंगवाया भोजन! भोजन किया! पता चला कि कौशुकि कहीं गयी हुई है किसी काम से, शायद किसी से मिलने गयी थी वो! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर हुई शाम, भोजन कर लिया था, पता नहीं आज रात को क्या हो! फिर कोई आठ बजे, हम निकल पड़े वहाँ के लिए! 

नौ बजे वहाँ पहुंचे,नदी के तट पर! वे जुटे अपने काम पर, 

और हम अपनी झोपड़ी में चले! आज अपना सामान ले आये थे साथ में, खाने का भी और पीने का भी! हम तो दोनों ही अलग रंग में मदिरापान करते रहे। 

अब वो जो करें, करें! वे लगे रहे मंत्रोचार में, 

और कोई गयरह बजे,आग फिर से भड़क गयी! गोपाल बाबा के तो केश ही जल गए! त्वचा भी झुलस उठी! दास बाबा पीछे गिर पड़े थे, बच गए! लेकिन कौशुकि! वो बैठी रही उधर ही! मारा एक फूल फेंक कर गड्ढे में, आग झट से बंद! "ये तो ज़ोर-आजमाइश चल रही है!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "आग बुझा देती है! वाह!" बोले वो, "हाँ! मैंने क्या कहा था, दम है इसमें!" कहा मैंने, "हाँ, अब लगता है!" बोले वो, "बाकी दोनों डरपोक से लग रहे हैं!" बोला मैं, "गोपाल, पपीतेबाज तो अपनी चाँद जलवा बैठा! वो न आय अब!" बोले वो, "हाँ, झुलस गया है!" कहा मैंने, "दास भी उठ गया है!" कहा उन्होंने, "हाँ!" कहा मैंने फिर दो घंटे तक कुछ न हुआ! हमारी आँख लग गयी थी! सो गए थे हम! कोई ढाई बजे होंगे, कि मुझे कुछ आवाजें आयीं। मैं उठा, बाहर झाँका, कौशुकि बैठी थी वहाँ गड्ढे पर, दीपक जल रहे थे वहाँ! 

और आवाजें, कहाँ से आ रही थीं, पता नहीं चल पा रहा था, ये साँपों के हिसहिसाहट से भरे स्वर थे! लेकिन सांप तो एक भी न था वहाँ! 

मैं चला बाहर, गड्ढे की तरफ, आवाजें और तेज हुई! अब चल गया था पता कि, वे आवाजें, उसी गड्ढे से आ रही थीं! कौशुकि ने नेत्र बंद किये हुए थे अपने, हाथ में एक माला थी, जप रही थी कुछ मन ही मन! मैंने गड्ढे में झाँका! सांप ही साप! सैंकड़ों सांप! हर तरह के! छोटे-बड़े, पतले-मोटे! काले-पीले, नील आभा लिए, सुनहरी से! फनधर, बिना फन के! ज़हरीले! सभी इकट्ठा थे वहाँ! तभी कौशुकि ने नेत्र खोले! मुझे देखा! क्रोध से! नथुने फड़क उठे उसके! इशारे से जाने को कहा उसने! मैं हट गया पीछे! कौशुकि ने, एक लकड़ी ली, और डाल दी गड्ढे में! सांप जैसे क्रोध में आये! बढ़ बढ़ कर ऊपर को आएं वो! लेकिन वो न डरी! डटी ही रही! तभी दास बाबा आये उधर, हाथ में एक झोला लिए! मुझे देखा, 

और वहां से जाने को कहा, मैं चल दिया वापिस वहाँ से, आया अपनीझोंपड़ी तक, 

और जगाया शर्मा जी को! 

शर्मा जी जाग गए थे! मैंने सबकुछ बता दिया था उनको! वे भी हैरान रह गए थे! बाहर झाँक कर देखा उन्होंने, कौशुकि अकेली ही बैठी थी वहाँ, दास बाबा शायद सामान 

आदि ला रहे थे वहाँ, उसके लिए! साँपों की हिसहिसाहट सुनाई दे रही थी अभी भी! "ये हैं कहाँ?" पूछा उन्होंने, "वहीं, गड्ढे में" कहा मैंने, "जहां वो बैठी है?" पूछा मुझसे, "हाँ!" कहा मैंने, "बड़ा तगड़ा जीवट है!" बोले वो, "हाँ, ये तो है!" बोला मैं, तब कौशुकि उठी, 

और उस गड्ढे की तीन परिक्रमा लगाई! और अब बैठी गड्ढे के मुहाने पर, अंदर हाथ डाला उसने, और एक सांप पकड़ लिया! निकाला उसे बाहर, उठाया, उस से भी लम्बा था वो! मैं तो देखता


   
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श्रीशः उपदंडक
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ही रह गया! शर्मा जी भी वाह कह उठे! उसने उस सांप को दोनों हाथों में पकड़ लिया था! सांप, सांप न होकर, उसका पालतू कोई जीव बन गया था! कोई सर्प-विदया प्रयोग की थी उसने अवश्य ही! उसने उसको पकड़ के, एक हाथ से कुछ उठाया, 

और फिर उस डिबिया में से कुछ निकाल कर, ऊँगली से लिया, शायद जैसे कोई काजल या सिन्दूर हो वो, फिर उस सांप के सर पर टीका कर दिया, 

और फिर छोड़ दिए गड्ढे में! हिसहिसाहट बंद उसी क्षण! "आवाजें बंद" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, तभी दौड़े दौड़े आये बाबा दास, कुछ दिया उसे, उसने रखा और झोले में डाल लिया। 

और फिर सुबह तक कुछ न हुआ! हमारी आँख लग गयी थी, जब सहायक ने जगाया तो आठ बजे थे! कुल्ला किया, मुंह धोया और पानी पिया फिर, इतने में ही तम्बू उखाड़ लिया गया हमारा, 

और उसके बाद, हम चल पड़े वापिस! आये वहाँ, निवृत हए, और फिर उसके बाद, चाय-नाश्ता भी कर लिया! कच्ची नींद थी, तो फिर से सो गए! डेढ़ बजे मैं उठा! शर्मा जी को भी उठाया, 

और फिर भोजन किया! उसके बाद मैं चला ज़रा कौशुकि से मिलने, पहुंचा, उसकी सहायिका मिली, उसने कौशुकि से पूछा होगा, आई, 

और मुझे अंदर बुला लिया! बिठाया मुझे कौशुकि ने, प्रणाम तो हो ही गयी थी! "वो आग क्यों निकल रही थी?" पूछा मैंने, "विरोध था" बोली वो, "तुमने काट दिया!" कहा मैंने, "हाँ, काटना ही था" बोली वो, "वो सांप पकड़ा था तुमने, किसलिए?" पूछा मैंने, "ताकि सूचना मिले द्रौंच को!" बोली वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "वैसे कब तक की उम्मीद है?" पूछा मैंने, "आज या कल में!" बोली वो, उसके लिए फल आय उस समय, सहायिका ने रख लिए, "ज़रा पानी पिलवा दीजिये" कहा मैंने, "अभी" बोली वो, 

और सहायिका से पानी मंगवा लिया उसने, 

मैंने तब पानी पिया, शहद मिला पानी ही पीती थी वो! 

मीठा पानी था! अच्छा लगा मुझे! "आपने कौन सी विद्या प्रयोग की थी?" पूछा मैंने, "आरंभन!" बोली वो, ये मेरे लिए नयी विद्या थी, नाम ही पहली बार सुना था मैंने तो! "तो आज या कल में, वे प्रकट हो जाएंगे!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "अच्छा है!" कहा मैंने, और उठ लिया फिर, 

आया बाहर, और चला कक्ष में अपने! अब शर्मा जी से सारी बात बताई मैंने! "ये तो अच्छा है!" बोले वो, "और क्या!" कहा मैंने, "आठ दिन में कुछ तो दिखा?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, मित्रगण! शाम हुई, लगी हुड़क! मिटाई हुड़क फिर! 

और चले हम उधर की तरफ! पहुंचे वहाँ, घुसे अपने तम्बू में, लेट गए थे! खुमारी आ रही थी! हमारी तो लग गयी आँख! रात को नींद खुली मेरी, प्यास लगी थी, बाहर झाँका, गड्ढे पर कोई नहीं था! शायद विश्राम कर रहे हों, यही सोचा मैंने, 

और फिर से लेट गया! आ गयी नींद फिर से! तीन बजे करीब, शोरगुल सा हुआ! 

हम दोनों ही जाग गए थे! गड्ढे पर, कौशुकि ही बैठी थी अकेली! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वो दो सहायक, टोर्च ले, कुछ ढूंढ रहे थे! हम भीखड़े हो गए! भागे उधर, पहुंचे, वे घबराये हुए से थे! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "सांप! सांप!" एक बोला, "कहाँ था?" पूछा मैंने, "हमारे तम्बू के पास" बोला वो, "अब तो चला गया होगा!" कहा मैंने, "अरे तीन-चार थे!" बोला वो, "तीन-चार?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोला वो, 

और एक को कुछ दिखा! वो भागा उधर ही, दूसरा भी भागा, हम भी भागे! एक बड़े से पत्थर के नीचे बैठा था एक सांप! "वो रहा!" बोला वो, 

और दूसरे से एक लट्ठ लाने को कहा। "क्या करेगा?" पूछा मैंने, "मारूंगा इसको!" बोला वो! "तेरी क्या बीवी छेड़ दी है इसने?" बोले शर्मा जी, "ये घुस आएंगे अंदर, काट लेंगे!" बोला वो, "हाँ, तुझे तो जानते हैं न ये!" बोले वो, दूसरा ले आया एक बांस! "अरे ओये? खबरदार जो इसे हाथ भी लगाया तो!" बोले शर्मा जी, "ये काट खाएंगे?" बोला वो, "नहीं काटेंगे, जा!" कहा उन्होंने, 

और ले लिया बांस उस से, दे दिया मुझे। 

मैंने टोर्च ली, और मारी उस पर! 

आँखें चमक पड़ी पीली पीली उसकी! वो करैत सांप था, हल्के से चित्तों वाला, अत्यंत विषैला और खतरनाक! गुस्सैल! मैंने छेड़ा उसे बांस से, वो फुफकारा! चला वहाँ से, और दूसरी तरफ भाग गया! अच्छा हुआ चलो, नहीं तो ये मार ही देते उसको! टोर्च से आसपास देखा, 

दो और दिखे! एक करैत और एक राब्ता, पहाड़ी सांप! अत्यंत ही विषैले हैं दोनों के दोनों! राब्ता पीले-भूरे रंग का होता है! पेड़ों पर रहता है, चिड़िया, उसके अण्डों और चमगादड़ों को खाता है! इंसान को काट ले तो, पूरे बदन में खुजली होने लगती है, पसीने छूटने लगते हैं, उल्टियाँ लग जाती हैं, अंग सूजने लगते हैं. दिल तेजी से धड़कता है, उच्च रक्तचाप उठने लगता है! यदि दवा न की गयी तो दो घंटे में मौत पक्की है! वही था यहां! मैंने बांस की सहायता से, एक को उठाया, 

और दूसरी जगह छोड़ दिया! राब्ता तो बांस पर ही चढ़ने लगा! उसको झटके दिए, तब छूटा! उसको भी भगा दिया वहाँ से! 

और तभी हमारे पीछे आग भड़की! वे तीनों पीछे जा गिरे बचाव में! 

मैंने बांस फेंका, और भागा उधर के लिए! दास बाबा का कंधा झुलस गया था! गोपाल बाबा के दोनों हाथ! लेकिन कौशुकि को कुछ न हुआ था! वो उठी, कपड़े झाडे, 

और खोला अपना झोला! निकाला कुछ, अभिमंत्रण किया, 

और उस आग में फेंक दिया! क्षण भर में ही आग बंद हुई। सहायक, उन दोनों बाबाओं को ले गए थे अपने साथ! आग बार बार जलती, और बुझा दी जाती! यही खेल चलता रहा! दो घंटे और बीते, लेकिन कुछ नहीं हुआ फिर भी! मुझे ये विद्या आती नहीं थी, अनजान था मैं इस विद्या से, मात्र दर्शक की तरह से ही देख रहा था सबकुछ! और समय बीता, और मेरी नींद लगी! मैं सो गया था, आँखों में बहुत नींद थी! लेटते ही नींद आ गयी! और जब नींद खुली, तब आठ बजे थे, सहायक ने जगाया था हमें, चादर आदि उठायी गयी, और तम्बू उखाड़ लिए गए, फिर हम हुए


   
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श्रीशः उपदंडक
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वापिस! बैठे गाड़ी में, और जा पहुंचे फिर उसी स्थान पर! जाते ही, ढेर हुए बिस्तर पर! जब नींद खुली तो दो बजे थे! तब नहाये धोये और निवृत हए! चाय पी, और कुछ देर बाद, भोजन भी कर लिया! उसके बाद मैं चला बाबा के पास, वहां पहुंचा, तो कौशुकि भी वहीं बैठी थी, मुझे भी बिठा दिया गया, कौशुकि कुछ चिंतित सी थी, ऐसा ही लगा उसको देख कर, "क्या बात है, चिंतित सी लग रही हो तुम?" पूछा मैंने, "नहीं नहीं, मैं ठीक हँ" बोली वो, आज आवाज़ भी हल्की थी, वो विश्वास नहीं था उसमे, "कुछ तो है कौशुकि, तुम बताना नहीं चाहती?" कहा मैंने, "ऐसा कुछ नहीं है" बोली वो, 

और फिर अपना झोला उठाया, नमस्कार कर, चली गयी, "क्या बात है बाबा? ये ऐसी चिंतित क्यों?" पूछा मैंने, "पता नहीं, मैंने भी पूछा था" बोले वो, 

"आप मोर्चा सम्भालो आज बाबा!" कहा मैंने, "हाँ, कहा तो सही है आपने" बोले वो, "आठ दिन हो गए हैं" बोला मैं, "हाँ, समय बीते जा रहा है" बोले वो, "आज देखता हूँ मैं!" बोले वो, 

और मैं उठ आया वहां से, सीधा शर्मा जी के पास, उन्हें बताया सबकुछ, ध्यान से सुना उन्होंने, फिर हुई शाम, लगी हुड़क! मिटाई हुड़क! 

भोजन भी कर लिया था, और फिर चले हम उस स्थान की तरफ! जा पहुंचे, नौ बजे थे, आज पूर्णिमा थी, आज अवश्य ही कुछ न कुछ तो होता ही! हमारा तम्बू लगाया गया, और हम घुस गए उसमे, "ये तो हमारा घर बन गया! रोज रात को, इस नदी किनारे सो जाओ!" बोले वो, "हाँ, सच कहा आपने!" कहा मैंने, "आज आठवां दिन है! इतना समय ले लिया!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, वहाँ कौशुकि, लगी तैयारी में, बाबा दास संग ही थे उसके, 

और हुआ उनका क्रिया-कलाप आरम्भ! दस बजे, फिर ग्यारह और फिर बारह! हम तो खैर सो गए थे! नींद खुली बीच बीच में, तो समय देख लेता था मैं, बाहर 

झांकता, कभी कौशुकि बैठी होती, कभी बाबा दास! मंत्रोच्चार चलता रहा! अब तो मंत्रोच्चार सुन सुन कर, नींद आने लगती थी! आठ दिनों से, यही हो रहा था इसीलिए! फिर कोई तीन बजे, नींद खुली मेरी! गड्ढे पर मात्र कौशुकि ही थी, मैं चला बाहर, पहने जूते,और चला उसकी तरफ, वो नेत्र बंद किये, मंत्रोच्चार कर रही थी, मैंने गड्ढे में झाँका, सामग्री पड़ी हुई थी! कोई दस मिनट के बाद उसने नेत्र खोले, मुझे देखा, लेकिन कहा कुछ नहीं उसने, सामग्री ली, और डाल दी अंदर गड्ढे के, 

आधा घंटा हो गया, कुछ भी न हआ वहाँ! तब दास बाबा आये, और बैठ गए, एक फोटो लाये थे धार्मिक, वहां रखी, और पूजन आरम्भ किया उन्होंने! अब चला मैं बाबा के पास, पहुंचा, जगाया उनको, वे जागे, और मैं अंदर चला, "आज की रात भी कलाई होगी!" कहा मैंने, "ज़्यादा ही समय लग रहा है कुछ" बोले उबासी लेते हुए, "आप जाओ बाबा अब" कहा मैंने, "वो बुरा मान जायेगी" बोले वो, "क्यों मानेगी? एक पत्ता भी नहीं हिल रहा!" कहा मैंने, "आओ फिर" बोले वो, 

और चले हम गड्ढे तक, और बाबा ने दास बाबा को बुलाया, वे आये हमारे पास, "अब कितना समय और?" पूछा उन्होंने, "कहा नहीं जा सकता जी" बोले वो, "आप साधिका को हटाइये, अब


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं करूँगा, नौ दिन हए जा रहे हैं आखिर" बोले वो, "बात तो सही है, लेकिन....." बोले वो, "क्या लेकिन?" पूछा मैंने, "आप बात करें उनसे" बोले वो, 

और फिर कोई बीस मिनट बाद वो उठी, तो बाबा ने बुला लिया उसको, अब दस बाबा चले गए उधर, "अब और कितना समय?" पूछा बाबा ने, "पता नहीं, मेरी कुछ विद्याओं को काट दिया गया है" बोली वो, "तो एक अवसर हमें भी दो?" कहा मैंने, "अभी कर्म, मध्य में है" बोली वो, "कब पूर्ण होगा?" पूछा मैंने, "नहीं कहा जा सकता कुछ भी" बोली वो, अब चढ़ा मेरा पारा! 

"कौशुकि जी, आप अपनी विधि कीजिये अलग, और हमें दीजिये अवसर, सुबह से पहले न कुछ हो जाये तो बताना!" कहा मैंने, "जाइए फिर!" बोली वो, 

और बुला लिया बाबा दास को, आये वो, तो मैंने उन्हें वहीं खड़े रहने को कह दिया, "आओ बाबा!" कहा मैंने, अब बाबा ने गुरु-नमन किया! चहँ-दिश नमन क्या! सर झुकाया अपना गड्ढे को देख कर, और खड़े हुए मुहाने पर, "लड़ाओ प्रत्यक्ष मंत्र बाबा!" कहा मैंने, "अभी" बोले वो, नीचे बैठे वो, पढ़ना शुरू किया मंत्र, और मिट्टी की तीन टेरियां बना लीं, कोई बीस मिनट बीते होंगे, कि वो ढेरियां हिलने लगीं! जैसे भूमि में कम्पन्न हो रही हो! सामने से शर्मा जी भी आते दिखाई दिए, 

आ गए हमारे पास ही, हए खड़े! बाबा ने पहली ढेरी फेंकी गड्ढे में! "प्रकट हो!" चीखे वो! फिर दूसरी ढेरी, "प्रकट हो!" चीखे! फिर तीसरी टेरी! "प्रकट हो!" चीखे फिर से, 

और गड्ढे में से भक्क से आग निकली! बाबा ने उठायी मिट्टी, पढ़ा मंत्र, और फेंकी मिट्टी! 

आग बंद! आग लगी थी अचानक से ही, प्रत्यक्ष कोई न हुआ था! अब मुझे देखा उन्होंने, 

मैं जान गया आशय उनका, अब मैंने मिट्टी उठायी! झुका नीचे, गुरु-नमन, श्री महाऔघड़ नमन किया! 

और पढ़ा, कद्रुप-कंशा मंत्र! फेंकी मिट्टी गड्ढे में! 

भयानक सी आवाज़ हई! भम्म जैसी! 

और उस गड्ढे में, एक गहरा गड्ढा खुल गया! उस गड्ढे के तले में! अब सभी आये आगे दौड़े दौड़े! "बाबा?" बोला मैं, "हाँ?" बोले वो, "टोर्च मंगवाओ ज़रा" कहा मैंने, "अभी लाया" बोले वो, उस गड्ढे में से, ऐसी आवाज़ आ रही थी, जैसे कोई पंखा चल रहा हो अंदर! टोर्च ले आये, दी मुझे, मैंने मारी रौशनी नीचे! 

सफेद चूना सा पड़ा था, उस पर, सीपियाँ चिपकी थी, गोल गोल, सुनहरे से रंग की, "ये क्या?" बोले बाबा! "बताता हूँ!" कहा मैंने, 

और मिट्टी उठायी! सर्प-संत्रासक विद्या का संधान किया, 

और फेंक दी मिट्टी नीचे! चूना फट पड़ा! बाहर तक आ गया! और कुछ न हुआ! सभी मुझे देखें। और मैं सभी को! फिर मेरी निगाह रुकी, कौशुकि पर! "कौशुकि! आपने स्थान गलत चुना!" कहा मैंने, 

"नहीं!" बोली वो, "हाँ, गलत चुना!" कहा मैंने, "ऐसा नहीं हो सकता!" बोली वो, "मुहाना ये नहीं! कहीं और है!" कहा मैंने, "कैसे?" पूछा उसने, "आओ ज़रा संग मेरे!" कहा मैंने, 


   
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