वर्ष २०१० मेरठ की घ...
 
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वर्ष २०१० मेरठ की घटना

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श्रीशः उपदंडक
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उन्होंने अपनी आँखें पोंछीं! और हमारी गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ी!

हम पहुंचे नवीन के घर! घर में जैसे खुशियों की दीवाली मनाई जा रही थी, नवीन के छोटे भाई और उनका परिवार भी आ गया था वहाँ! दो चार और लोग भी आये हुए थे! अरुणा हमारे आते ही अपने पिता जी से लिपट गयी! दोनों बाप-बेटी इस तरह से रोये जैसे घर से बेटी विदा होती है! मेरा भी ह्रदय द्रवित हो उठा, मै शर्मा जी को लेकर बाहर आ गया! कुछ देर बाद नवीन आये और मुझे अन्दर ले गए, अरुणा ने मुझे देखा और मेरे पांव पड़ने लगी मैंने उसे उठा लिया!

"अब कैसी हो अरुणा?" मैंने पूछा,

"बिलकुल पहले की तरह!" उसने बताया!

मुझे खुशी हुई!

"अब बिलकुल ठीक रहोगी तुम, अब पढ़ाई पर ध्यान दो!" मैंने कहा,

"जी" उसने कहा,

अरुणा की माता जी आयीं मेरे पास, आँखों में आंसू लिए और हाथ जोड़े, बहुत मुश्किल होता है किसी अपने से बड़े को अपने सामने हाथ जोड़े देखना! मैंने उनके हाथ नीचे का दिए, काफी लोग थे वहाँ!

"गुरु जी, आपने बहुत बड़ा उपकार किया है हम सब पर" वे रोते रोते बोलीं,

"कोई उपकार नहीं, यूँ मानो की इस मर्ज की दवा थी मेरे पास! और क्या! कैसा उपकार!" मैंने कहा,

"नहीं गुरु जी, आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह ये चार महीने हमने गुजारे हैं, अरुणा की चिंता में घुल गए हम सारे, कहाँ कहाँ इलाज नहीं करवाया? किसको नहीं दिखाया, और देखिये आप स्वयं मेरे घर तक आ गए, ये बहुत बड़ा उपकार है" नवीन ने कहा अब!

"अच्छा छोडिये, सुनिए, अरुणा के गले में बंधी माला टूटे नहीं, ना वो उतारे, जब तक कि मै ना कहूँ" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

"ठीक है, अब चलिए, वासुदेव से मिल लें!" मैंने कहा,

"चलिए" नवीन ने कहा और अपनी पत्नी को बताया कि हम कहाँ जा रहे हैं!

हम अब निकले वहाँ से, मेरठ से हापुड़ जाने वाले रास्ते पर ही गाँव पड़ता था वासुदेव का, शर्मा जी ने गाड़ी दौड़ाई और फिर एक ढाबे के पास रोक दी, वहाँ चाय-पानी के लिए रुके थे हम, चाय पी और थोड़ा सा विश्राम भी किया! अब आगे के लिए चले!

"ये वासुदेव थोडा गुंडा किस्म का आदमी है गुरु जी" नवीन ने कहा, "कोई बात नहीं उसकी गुंडई भी देख लेंगे" मैंने कहा,

"नेता बना फिरता है आजकल, मेरठ में ही मुलाकात होती है उस से, घर भी आया है एक दो बार लेकिन हम थोडा दूरी बना के ही रखते हैं इस से" नवीन ने बताया,

"ऐसे घटिया लोगों से दूरी बना के ही रखनी चाहिए" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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रास्ते में एक खाली जगह रुकवा कर मै बाहर गया, एक खेत में और अपना कारिन्दा हाज़िर किया, उसके वासुदेव का पता काढने ले लिए भेज, वो दो मिनट में ही वापिस हाज़िर हुआ, कारिंदे से कुछ जानकारी जुटाई मैंने, फिर उसको वापिस किया, और गाड़ी में आकर बैठ गया!

"चलिए, गाँव में ही है वो" मैंने कहा,

"चलिए" शर्मा जी ने कहा और गाड़ी की रफ़्तार बढ़ाई अब!

और करीब आधे घंटे में हम गाँव की मुख्य सड़क तक पहुँच गए, अब यहाँ से अन्दर जाना था, गाड़ी मोड़ी और अन्दर चले अब!

कोई बीस मिनट में पहुंचे हम गाँव में! नवीन हमे लेकर चलते गए और फिर एक चौड़े से फाटक वाले घर के सामने गाड़ी लगवा दी! यही था वासुदेव का घर! नवीन ने दरवाजा खटखटाया, अन्दर से वासुदेव ही बाहर आया! उसने हम तीनों को गौर से देखा फिर मुस्कुराया और बोला, "आइये! आइये भाई साहब! आज कैसे रास्ता भूले!"

वो आगे चला और हम पीछे, बैठक में ले आया हमको, हम वहीं बैठ गए बेंत के बने मूढों पर!

"और सुनाइए, बेटी कैसी है?" उसने नवीन से पूछा,

इतने में उसकी लड़की पानी ले आई, किसी ने भी पानी नहीं पिया, हाँ रख ज़रूर लिया अपने पास! वासुदेव की उम्र होगी कोई पैंतालिस वर्ष, शक्ल से ही किस फितरत का है ये झलक रहा था, उसने सिगरेट का पैकेट सामने टेबल पर रखा, लाइटर के साथ! और खुद एक सिगरेट सुलगा ली!

"कैसी है बेटी?" उसने दोबारा पूछा,

"अब बिलकुल ठीक है!" मैंने कहा,

उसके माथे पर शिकन पड़ी!

"क्या हुआ था उसे?" उसने पूछा,

"किसी ने कोई तंत्र-प्रयोग करवाया था" मैंने कहा,

"अच्छा? किसने?" उसने पूछा और अपनी सिगरेट फेंकी, आधी ही पी थी!

"तीन लोग हैं, एक को तो सीधा कर दिया, दो बाकी हैं!" मैंने कहा और मन ही मन भंजन-मंत्र पढ़कर उसको जागृत कर लिया!

"कौन हैं वो तीनों?" उसने पूछा,

"एक तो मेरे सामने बैठा है!" मैंने कहा,

ये सुन खड़ा हुआ वो! अंट-शंट बकने लगा!

"भाई साहब के साथ आये हो, इसीलिए कुछ नहीं कहा, नहीं तो इस गाँव से बाहर नहीं निकल सकते तुम लोग" उसने धमकाते हुए कहा!

"अच्छा?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"हाँ!" उसने कहा!

अब मै खड़ा हुआ! भंजन मंत्र पढ़ते हुए थूक दिया उस पर! मंत्र ने अचूक प्रभाव किया, वो अपना पेट पकड़ कर बैठता गया नीचे! मुंह से एक शब्द नहीं निकला उसके! एक हाथ से उसने नवीन को पकड़ा! दम घुटने लगा उसका! बड़ी मुश्किल से साँस लेता और छोड़ता था! उदर-शूल उठ गया!

खांसने लगा! मैंने चुटकी बजा कर मंत्र-प्रभाव रोका! वो लेटा चार पाई पर! साँसें तेज़ हो गयीं उसकी!

हाथ जोड़कर बैठा, आँखों में आंसू लिए!

"तेरा पाप दंड लायक है! इसको मै क्षमा नहीं करूँगा!" मैंने कहा और नवीन और शर्मा जी को भी खड़ा किया!

"अब जिंदगी भर अधरंग का शिकार रहेगा तू!" मैंने कहा और पुनः थूक दिया उस पर! वो पीछे झुकता चला गया, बोलती बंद!

हम फ़ौरन निकले वहाँ से! गाड़ी में बैठे और वापिस हो लिए! दो हाथ आ गए थे! शेष था एक! इस से ही टक्कर थी!

हम फ़ौरन निकले वहाँ से!

अब हमे चलना था उस खिलाड़ी के पास! वो खिलाड़ी जो इसका मुख्य पात्र था! इत्मीनान से बैठा हुआ वो सोच रहा होगा कि कैसे बचाव हो और क्या किया जाए! क्यूंकि उसको खबर तो अब तक लग चुकी थी! उसका अड्डा वहाँ से करीब पैंतीस किलोमीटर था, शर्मा जी ने एक ढाबे के पास गाड़ी रोकी, वहाँ खाना खाया और थोडा आराम किया, मै तो लेट गया वहाँ चारपाई पर! टेबल-फैन की हवा हिमालय की हवा लग रही थी उस समय! करीब आधा घंटा आराम किया हम सभी ने! और फिर चल पड़े आगे के लिए! एक खाली सुनसान जगह पर मैंने फिर से कारिन्दा हाज़िर किया और उस पूरन के बारे में मालूमात की, पता चल गया मुझे! मैंने कारिंदे को वापिस भेज दिया! और वापिस गाड़ी में बैठ गया आकर, मैंने उनको उस जगह चलने को कहा जहां वो इस समय अलख पर बैठ चुका था! वासुदेव ने उसको फ़ोन कर दिया होगा और वो मुस्तैद हो गया होगा! यदि वो मज़बूत हुआ तो टक्कर ख़तरनाक होने वाली थी! खैर, अब जब सर दिया ओखली में तो मूसल से क्या डर!

"शर्मा जी, हो जाइये तैयार!" मैंने कहा,

"मै तैयार हूँ गुरु जी!" वे बोले,

"नवीन साहब, ये जो आदमी है ना, यही है असली बीज!" मैंने कहा!

"हाँ जी, जाने कैसा ईमान है इन लोगों का" नवीन ने कहा,

"ईमान होता तो ऐसी नौबत ही नहीं आती!" मैंने कहा,

"सही कहा जी" वे बोले,

अब रस्ते में मैंने एक जगह गाड़ी रुकवाई, शर्मा जी उतरे तो नवीन भी उतर गए, शर्मा जी को नहीं करने दिया खर्च कुछ भी, एक बोतल ले आये, मदिरा-पान के बाद ही तामसिक-विद्याएँ जागती हैं! हमने गाड़ी में ही मदिरापान आरम्भ कर दिया, नवीन ने भी पी, आवश्यक भी था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बोतल निबटाई हमने और मैंने अब विद्याएँ जागृत करनी आरम्भ की! करीब पंद्रह मिनट में आवश्यक विद्याएँ जागृत कर ली! अब मै तैयार था उस दुष्ट तांत्रिक का मुक़ाबला करने के लिए!

गाड़ी चलती रही और फिर उस रास्ते पर आ गयी जहां ये बाबा रह रहा था, सक्रिय था! यहीं से ये अपनी तंत्र क्रियाएं सम्पूर्ण किया करता था! सामने ही उसका अड्डा था, पीपल के पेड़ लगे थे, एक आद बरगद भी था वहाँ, कुछ अनार के पेड़ भी लगे थे! हमने गाड़ी रोकी वहाँ! अड्डा क्या था ऐसा था जैसे कि कोई पुराना सा मंदिर! अन्दर पिंडियाँ बनी थीं और कुछ कमरे भी थे, सीमेंट की चादरों से बनाये गए थे! अन्दर कोई हलचल नहीं। मालूम पड़ रही थी, मै गाड़ी से उतरा और अन्दर गया, मेरे साथ शर्मा जी भी आये और नवीन भी!

"यहाँ तो कोई नहीं है, ऐसा लगता है" नवीन ने कहा,

"अभी देखते हैं" शर्मा जी ने कहा,

तभी सामने एक वृद्धा को देखा, वो बैठ कर झाडू लगा रही थी! शर्मा जी वहाँ गए और उस से पूरन के बारे में पूछा, उस स्त्री ने पीछे बने कुछ कमरों की तरफ इशारा किया, दरअसल जहां हम थे, हमारे सामने कमरे बने थे, और उनके पीछे भी कमरे थे! शर्मा जी आये मेरे पास!

"आइये" वे बोले,

मै और नवीन उनके पीछे चले!

वहाँ दो चेले बैठे थे पूरन के, पहलवान जैसे! शायद उसने ही बुलाये हों! मैंने तभी भंजन-मंत्र जागृत कर लिए, हम उनके पास तक गए!

"सुनो, बाबा जी से मिलना है" शर्मा जी ने कहा,

"तुम कौन हो?" उनमे से एक ने ताव में पूछा,

"हम दूर से आये हैं" वे बोले,

"किसने भेजा है?" उसने पूछा,

"अबे बताता है सीधी तरह से या नहीं?" शर्मा जी ने धमकाया उसे!

अब दूसरा चेला भी खड़ा हो गया!

"जैसे आये हो, वैसे ही लौट जाओ, अगर जान प्यारी है तो!" उसने धमकाया!

मैंने शर्मा जी और नवीन को पीछे किया और स्वयं आगे खड़ा हो गया!

"कहाँ है तेरा ये बाबा पूरन?" मैंने पूछा,

"क्यों, क्या काम है?" उसने पूछा,

"कहाँ है वो बाबा?" मैंने पूछा,

"क्या काम है?" उसने पूछा,

"कहाँ है वो बाबा?" मैंने फिर पूछा,


   
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"चल, निकल यहाँ से!" बोला और उसने मुझे वहाँ से निकल जाने के लिए ऊँगली दिखाई!

अब मेरी और उसकी आँखें टकरायीं आपस में, मैंने भंजन-मंत्र जागृत कर ही रखा था, दो तीन पल देखते हुए मैंने उस पर थूक दिया! थूक पड़ते ही वो कटे पेड़ सा नीचे गिरा! अपने दोनों घुटने अपने पेट से सटा लिए! तड़प उठा! दूसरे ने जब देखा तो उसकी मदद के लिए नीचे बैठा, उस से चिल्ला चिल्ला के बात करने लगा, नीचे गिरा हुआ लम्बी लम्बी सांसें लेता हुआ वहाँ अलटी -पलटी मार रहा था! उसका कलेजा सूज गया था!

"सुन ओये, अब बता कहाँ है बाबा? नहीं तो तू भी इसके साथ ऐसे ही लेटेगा!" मैंने कहा,

उसने जो देखा था, वो देख के उसकी हालत तो वैसे ही खराब हो चुकी थी! अगर उसे कुछ ऐसा हुआ तो मर ही जाना था! जाना था!

"कहाँ है?" मैंने पूछा, और चुटकी मार के मंत्र वापिस लिया, खून का कुल्ला कर दिया उसने, फिर सुन्न हो कर लेट गया!

"बताता है या?" मैंने पूछा,

वो उठा और इशारा किया अपने साथ चलने को, हम चले, वो हमे एक बड़े से कमरे के सामने ले आया, और इशारा करके भाग खड़ा हुआ!

हम कमरे के अन्दर घुसे! वहां एक बाबा, दाढ़ी वाला बैठा था, अलख भड़की हुई थी! बाबा ने हमे देखते ही चिमटा उठाया! और बजाया!

"खेल ख़तम बाबा पूरन!" मैंने कहा!

उसने कोई जवाब नहीं दिया बस चिमटा बजाया!

"तेरी मदद के लिए कोई महाप्रेत, जिन्न नहीं आएगा, बजा ले जितना चिमटा बजाना है!" मैंने कहा!

उसने ब्रह्म-धूल अलख में डाली!

"ये भी नहीं आयेगी पूरन!" मैंने कहा,

उसकी आँखें फटीं अब!

"तू जिसको बुला रहा है, वो भी नहीं आएगी!" मैंने कहा,

उसने कपाल लिया और अपनी गोद में रखा!

"पूरन! अब तेरा ये प्रपंच नहीं चलने वाला! तू जो भी कर सकता है, कर ले! कोई कसर बाकी न रहे!" मैंने कहा, ।

"तू जानता नहीं है मुझे अभी!" वो बोला और खिसियानी हंसी हंसा!

"जान गया हूँ तुझे! अगर तूने गलत काम न किया होता तो तेरा मै सम्मान करता! इतने साल में जो कमाया वो एक गलती से गंवाया!" मैंने कहा,

"बहुत बोल लिया!" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मै तेरा क्या हाल करने वाला हूँ, ये मालूम कर अपने कारिंदे से! हाज़िर कर!" मैंने कहा,

वो बैठा और अलख में अपना हाथ काट कर चाकू से रक्त के छींटे दिए! कपाल जागृत कर रहा था वो! जागृत करने पर वो मेरा तो कुछ नहीं कर पाता, हां, नवीन और शर्मा जी को चोट पहुंचा सकता था! मैं  उसकी अलख तक गया और अलख में थूक दिया! उसको क्रोध आया और उसने अपना त्रिशूल उठाकर मेरी टांग पर मारा, हालांकि मुझे गंभीर चोट तो नहीं आई, फिर भी प्रहार तेज था उसका! अब मेरा पारा चढ़ा! मैंने उसका त्रिशूल उसके हाथ से छीन-झपट कर छीन लिया और फेंक दिया बाहर! योद्धा की एक भुजा कटी! अर्थात एक तांत्रिक अपने त्रिशूल से ही शक्तियों का आह्वान करता हैं! इसमें श्री महाऔघड़ की आन लगती है उस शक्ति को! अब मैंने उसका चिमटा लिया और वो भी छीन लिया! चिमटा भी फेंका बाहर! अब वो हाथापाई पर उतर आया! अब शर्मा जी और नवीन आगे बढे और उसको गिरफ्त में ले लिया!

"छोडूंगा नहीं तुझको!" वो चिल्लाया!

"कुछ करने लायक बचेगा तब ही तो कुछ करेगा!" मैंने कहा,

"जान से मार दूंगा तुझे!" वो गर्राया!

"देखा जायेगा!" मैंने कहा,

अब मैंने भंजन-मंत्र जागृत किया! वो जान गया कि मैं क्या करने वाला हूँ! अब उसने अथाह कोशिश की वहाँ नवीन और शर्मा जी के हाथों से छूटने को! लेकिन उसको नहीं छोड़ा उन्होंने! मैंने मंत्र जागृत कर लिया! वो घबराया! दीदे फाड़ कर देखने लगा! मैं उसके पास गया और थूक दिया उस पर! थूक पड़ते ही कंपकपाया वो, शर्मा जी और नवीन ने छोड़ दिया उसको, अब वो नीचे गिरा और तड़पने लगा! बदन में ऐंठन हो गयी उसको, कभी घुटने मोड़े, कभी खोले, कभी मुंह से कराह निकले! मैंने चुटकी मारी और मंत्र वापिस लिया! सीधा हो गया वो, किसी मृत शरीर की भांति! मैंने उसके पास गया, उसको उसके गिरेबान से उठाया, वो मुश्किल से उठा!

"क्या हुआ पूरन?" मैंने पूछा!

कुछ नहीं बोला वो, बस अपनी कंपकपाते हुए हाथ उठाये उसने और जोड़े! मैंने उसके सामने नवीन को किया और कहा, "माफ़ी मांग इस बाप से जिसकी लड़की के साथ तूने लालच के मारे ये हाल किया!"

उसने नवीन के हाथ जोड़े! और नवीन ने खींच के एक तमाचा लगाया उसको, गाली-गलौज करते हुए! वो नीचे बैठ गया, बोलती बंद हो गयी उसकी! अब शर्मा जी आगे आये और एक लात दी उसकी छाती में, गालियाँ देते हए! फिर उसके सर, पीठ और जांघों पर लातें जमायीं! वो कराहता रहा, बेसुध हो गया! मैंने उसको उसके बालों से पकड़ा और कहा, "अब देख तेरा मै वो हाल करूँगा कि जिंदगी भर अपने इस किये पर आंसू बहायेगा तू!" मैंने कहा,

उसने किसी तरह से हाथ जोड़े! ये गुहार थी उसकी! अब मैंने रिक्ताल-मंत्र पढ़ते हए थूक दिया उस पर! बहुत तेज चिल्लाया वो और उसके बदन ने झटके खाए! उसकी एक एक विद्या कीलित होती चली गयी! और फिर खाली हो गया वो! इतने सालों की मेहनत सब समाप्त हो गयी! जो कमाया था वो सब गँवा दिया! फिर भंजनमंत्र पढ़कर उसपर थूका और उसको भी अधरंग पड़ गया! वो शांत लेट गया!


   
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