वर्ष २०१० मेरठ की घ...
 
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वर्ष २०१० मेरठ की घटना

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श्रीशः उपदंडक
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वैसे तो दिन के तीन बजे का समय था, परन्तु तेज बहेती रेतीली हवाओं ने और गगन में छाये काले बादलों ने दिन में ही शाम को आमंत्रित कर दिया था! बादल उमड़-घुमड़ रहे थे और हवा जैसे सड़क पर चलती हर गाड़ी को छूना चाहती थी, पकड़ पकड़ कर! माहौल में ठंडक आ चुकी थी, और कुछ ही देर में वर्षा-कुमारी अपनी नृत्यमुद्रा में आ धमक सकती थी! बादलों ने जैसे बिजली कड़काकर उसके नृत्य हेतु मृदंग-ताल छेड़ दी थी! लहलहाते पेड़ जैसे अपने ऊपर जमी गर्द को धो देना चाहते थे वर्षा-रानी के बूंद रुपी मोतियों से! पक्षियों में आमोद-प्रमोद देखा जा सकता था! कोई किसी डाल पर बैठा झूल रहा था तो कोई अपने पंख फडफडाकर अपना संतुलन कायम करता हवा के थपेड़ों से! सड़क किनारे बने छोटे छोटे ढाबे और होटल के लोग अपने अपने उड़ते कपडे-लत्ते पकड़ते घूम रहे थे! कुछ सड़क किनारे बैठे ऑटो-मिस्त्री आदि अपने अपने सामान को समेट रहे थे! विहंगम दृश्य था! हम जा रहे थे मेरठ, किसी कार्यवश, किसी जानकर के कहने पर हमे वहाँ रह रहे नवीन से मिलना था, उनकी बड़ी बेटी अरुणा करीब चार महीनों से बीमार थी, सभी उपचार के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, और तो और, पैतालीस किलो वाली वो लड़की इन चार महीनों में साठ किलो की हो गयी थी! बड़ी अजीब बात थी, रोग होने पर आदमी घटता है और यहाँ उल्टा हो रहा था! कुछ और भी विचित्र बातें थीं जिनसे मै काफी प्रभावित हुआ था! इसी विशेष कारण से हम वहाँ जा रहे थे!

"शर्मा जी, गाड़ी लगाओ किसी ढाबे में" मैंने कहा,

"अभी लगाता हूँ" वे बोले,

थोडा आगे चलने के बाद उन्होंने गाड़ी लगा दी एक ढाबे के पास! वहाँ कई और भी लोग थे, हमारे जैसे! और तभी, वर्षा-कुमारी का जैसे श्रृंगार पूर्ण हुआ और फिर नृत्य! ताबड़तोड़ बरसात! बादल अपने अपने मृदंग में दामिनी रुपी ताल ठोंक रहे थे! होटल के अन्दर आसपास के कुत्ते भी आ गए! कुछ चारपाई के नीचे आ बैठे कुछ वहीं अपने बाल फटकारने लगे! बिजली कडकी! प्रकाश में नहा गया वो स्थान!

"लो बताओ गुरु जी, जब चले थे तो ऐसा आभास ही नहीं था!" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ! ये ही तो प्रकृति हैं! कब क्या और कब क्या!" मैंने कहा,

शर्मा जी ने चाय के लिए कहा वहाँ एक लड़के को, वो चला गया,

"लगता नहीं बारिश थमने वाली है" मैंने कहा,

"देख लेते हैं, आधे रास्ते में हैं, रुकी तो ठीक नहीं तो देखते हैं फिर" वे बोले,

"हाँ, देखते हैं" मैंने कहा,

चाय आ गयी, हमने चाय पीनी शुरू की, फिर से ज़ोरदार बिजली कडकी! बारिश ऐसी कि जैसे बादलों में से बड़े बड़े परदे लटके हों और उन्मत्त-वायु उनको उखाड़ फेंकने को आमादा हो! सड़क पर पानी की बूंदे थिरक रही थीं! एक का स्थान फ़ौरन ही दूसरी बूंद ले लेती थी! सड़क के दूसरी तरफ भी एक ढाबा था, वहां भी जिसको जहां जगह मिली थी सट गया था! झमाझम बारिश थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चाय ख़तम की हमने, वहां पड़े अख़बार उठाये और उनको नज़रों से कुरेदने लग गए! तभी बिजली फिर से कडकी! और जैसे कोई मालगाड़ी तेजी से गुजरती है और उसकी जो आवाज़ आती है निरंतर, ऐसी  आवाज़ छोड़ गयी! आज तो वर्षा-कुमारी का नृत्य पूर्ण यौवन पर था! एक एक थाप पर वायु बह बह कर उसका साथ देती थी!

तभी शर्मा जी का फ़ोन बजा, फ़ोन नवीन का था, शर्मा जी ने बता दिया कि हम आधे रास्ते में अटके हैं और एक ढाबे में रुके हुए हैं, बारिश कम होने पर आगे के लिए बढ़ जायेंगे, और फ़ोन काट दिया!

आधा घंटा बीत गया, बारिश हाँ, हलकी तो हुई लेकिन रुकी नहीं, कुछ लोगों के सब्र का बांध टूट गया, वो वैसी बारिश में ही चल निकले!

"निकलें क्या गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,

"अभी और रुकिए" मैंने कहा,

एक एक चाय और मंगवा ली! क्या करते! चाय आई और हमने पीना शुरू किया, बिजली कड़कनी बंद हो गयी थी वैसे तो, परन्तु बारिश अभी भी बनी हुई थी! हाँ धीरे धीरे लगा रहा था कि वर्षा-कुमारी के नृत्य का अंतिम चरण आ चुका है!

"गुरु जी, ये जो नवीन की लड़की है, क्या नाम है उसका....उम्म......" वे आँखें बंद कर के बोले,

"अरुणा" मैंने कहा,

"हाँ अरुणा, कैसी बीमारी है इसे?" उन्होंने पूछा,

"ये तो देखने से पता चलेगा" मैंने कहा,

"शरीर से हृष्ट-पुष्ट है, फिर भी रोग! कौन सा रोग है ये! विचित्र है!" वे बोले,

"देखते हैं!" मैंने कहा,

"मैंने ऐसा रोग अपने पूरे जीवन में नहीं देखा! यहाँ भी और जब में बाहर था तब भी!" वे बोले,

"मैंने भी नहीं!" मैंने कहा,

"और चिकित्सक क्या कहते हैं?" उन्होंने पूछा,

"नवीन ने बताया कि चिकित्सक कहते हैं कि लड़की को थाइरोइड है वो भी उच्चतम श्रेणी का, और मानसिक अवसाद से ग्रस्त है!" मैंने कहा,

"ऐसा कैसे हो सकता है?" वे बोले,

"हो भी सकता है" मैंने कहा,

"थाइरोइड अनुवांशिक है" वे बोले,

"हम्म, अब ये तो उसको देख कर ही पता चलेगा" मैंने कहा,

"नवीन ने और भी कुछ बातें बतायीं थी, समझ से परे!" वे बोले,

"वो उसके निकट है, जो देखा बता दिया!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने बाहर सड़क पर नज़र दौडाई, यातायात सामान्य सा लगा,

"शर्मा जी, अब निकलते हैं" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले और हम दोनों उठे गए, चाय के पैसे चुकाए और बाहर आ गए, बारिश तो थी, लेकिन उतनी नहीं कि अवरोध उत्पन्न करे! शर्मा जी ने गाड़ी स्टार्ट की और हम स्वर हो चल पड़े मेरठ की तरफ, दरअसल नवीन का घर मेरठ से भी कोई पंद्रह किलोमीटर आगे था!

"शुक्र है" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

गाड़ी धीरे ही चलाई, भीड़ थी वहाँ!

"नवीन का अपना व्यवसाय है ना?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, मोटर-पार्ट्स का" वे बोले,

"मेरठ में?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"हम्म!" मैंने कहा,

अब शर्मा जी ने गाड़ी बढ़ा दी! अपने गंतव्य की ओर! नवीन का घर!

भीड़-भाड़ से बचते बचाते, पानी से बचते बचाते किसी तरह पहुँच गए हम नवीन के घर, नवीन हमे बाहर ही लेने आ गए थे, बारिश अब भी हो रही थी, हाँ थी किनकी ही! हम घर में घुसे सभी से नमस्कार हुई, मैंने और शर्मा जी ने अपने अपने रुमाल से चेहरा पोंछा और बैठ गए वहाँ! नवीन के छोटे भाई अमित भी वहां आ गए थे, नवीन के घर से बस दो घर दूर ही उनका घर था, वे काफी शांत और सुलझे हुए व्यक्ति लगे मुझे!

चाय आ गयी, साथ में पकौड़े भी थे, अब बारिश का मौसम हो और साथ में गरमागरम चाय-पकौड़े हों तो क्या। कहना! मैंने गोभी का एक पकौड़ा उठाया और खाया फिर चाय का एक बूंट!

"अब बताइये नवीन जी, क्या समस्या है?" मैंने पूछा,

"जी, मेरी एक बेटी है, अरुणा, उम्र है बीस वर्ष, पढाई कर रही है अभी, लेकिन पिछले चार महीनों से उसका हाल खराब है, न पढ़ाई और न सुध" वे बोले,

"हाल खराब? मतलब?" मैंने पूछा,

"मतलब ये कि कोई चार महीने पहले वो शिकायत करती थी कि उसके सर में दर्द है, कभी गोलियां ले लिया करती थी तो आराम पड़ जाता था, लेकिन बाद में उसकी ये समस्या बढती गयी, हमने चिकित्सक को दिखाया, उसने बताया कि संभवतः माइग्रेन की समस्या है, इलाज चला, लेकिन कोई लाभ न हुआ, हम उसको दिल्ली ले गए, फिर से कोई लाभ ना हुआ, रात भर तड़पती थी, सर पर चुन्नी बांधे सर पटकती रहती थी, हमे बड़ी तक़लीफ़ होती थी उसको इस हालत में देखकर, सारे इलाज करा लिए हमने, लेकिन सब बेकार" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा, समस्या वाक़ई गंभीर है" मैंने कहा,

"हाँ जी, हमने हर इलाज करवाया उसका लेकिन कोई काम ना आया" वे बोले,

"ऊपरी इलाज भी करवाया?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, यहाँ मेरठ में एक मुल्ला जी हैं, काफी लोग आते हैं उनके पास, मेरी दुकान में काम करने वाले एक लड़के ने मुझे उनके बारे में बताया तो मैं अरुणा को वहाँ ले गया" वे बोले,

"अच्छा, क्या बताया उन्होंने?" मैंने पूछा,

"उन्होंने देखा, कुछ पढ़ा फिर पानी दम किया और उसको पिलाया, और फिर बताया कि इस लड़की पर एक चुडैल का साया है" वे बोले,

"चुडैल का साया?" मुझे हैरत हुई,

"हाँ जी, यही बताया उन्होंने" वे बोले,

"हम्म, फिर, इलाज करवाया?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, हम उसको रोज ले जाने लगे वहाँ, कुछ फर्क पड़ रहा है, ऐसा लगा हमको, लेकिन एक रात उसकी तबियत ऐसी बिगड़ी कि अस्पताल की नौबत आ गयी!" वे बोले,

"ओह, क्या हुआ था?" मैंने पूछा,

"उसको उलटी-दस्त लग गए, बड़ा बुरा हाल था उसका, तीन दिन अस्पताल में रहने के बाद वो ठीक हुई" वे बोले,

"और फिर मुल्ला जी का इलाज?" मैंने पूछा,

"जब हम उसको मुल्ला जी के पास ले गए तो उन्होंने बताया कि उस चुडैल ने ही इसका ये हाल किया, ताकि ये मेरे पास ना आये" वे बोले,

"हम्म, फिर?" मैंने पूछा,

"मुल्ला जी ने फिर से इलाज शुरू किया, अब कोई आराम नहीं पड़ा, हाँ एक बात हुई, उसका वजन बढ़ने लगा अपने आप" वे बोले,

बस! यही तो मै जानना चाहता था! कि ऐसा क्यों!

"खान-पान कैसा है उसका?" मैंने पूछा,

"वही सामान्य, कोई बाहर का खाना नहीं, रोज जैसा खाना ही खाती है, कोई विशेष नहीं" उन्होंने बताया,

"अच्छा, उसके बाद और कोई इलाज?" मैंने पूछा

"हाँ जी, मेरी पत्नी के भाई ने मुझे एक जगह बताई, कि वहाँ अरुणा को ले जाइये, वो आदमी एक तांत्रिक है, हम ले गए उसको वहां" वे बोले,

"फिर?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उस तांत्रिक ने लड़की को देखा और फिर कुछ पढ़ा, लिटाया और उसके ऊपर से पांच बार गुजरा फिर बताया कि लड़की पर तंत्र-प्रयोग कराया गया है। वे बोले,

"प्रयोग?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, यही बताया उसने" वे बोले,

"फिर?" मैंने पूछा,

"उसने इलाज शुरू किया, उसने उसको अपने स्थान पर, हम रोज ले जाते, वो मंत्र पढता और मुर्गा-मांस प्रयोग करता, लेकिन उसके बाद भी कोई हल नहीं निकला, मेरे हिसाब से वो सक्षम नहीं लगा मुझे" वे बोले,

"हम्म! अच्छा मुझे अरुणा से मिलवाइये" मैंने कहा,

"जी अभी" वो उठे और एक तरफ चल दिए,

थोड़ी देर में एक भारी भरकम लड़की आई उधर उनके साथ, बदन काफी भारी हो चुका था इसका, और ये भारीपन उसका किसी रोग के कारण नहीं था! मुझे अचम्भा हुआ! अरुणा ने नमस्कार किया तो मैंने भी उसको नमस्ते कहा!

"बैठो अरुणा" मैंने कहा,

वो बैठ गयी,

"कैसी हो?" मैंने पूछा,

"मैं मर रही हूँ" उसने कहा और आँखों में आंसू भर लाई!

"अरे! अरुणा! रोइये मत!" मैंने कहा,

तब अरुणा की मम्मी ने चुप कराया उसको!

"अरुणा? एक बात बताइए, तबियत ख़राब होने से पहले, याद करो, कहीं बाहर गयीं थीं घूमने, या किसी गाँव में?" मैंने पूछा,

उसने कयास लगाया और फिर गर्दन ना में हिला दी!

"किसी के घर कुछ खाया हो?" मैंने पूछा,

"मुझे याद नहीं" उसने बताया,

कहीं आना-जाना नहीं, खाने का याद नहीं! कोई सूत्र हाथ ना लगा!

"ठीक है, जाइये अब" मैंने कहा,

वो उठी और चली गयी!

"एक व्यक्तिगत प्रश्न है, पूछना उपयुक्त है, क्या कोई प्रेम-सम्बन्ध?" मैंने पूछा,

अब नवीन और उनकी पत्नी ने एक दूसरे को देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ जी, था, वर्ष भर पहले, अब नहीं है" उन्होंने बताया!

अब मुझे एक आशा की किरण दिखाई दी!

"तो प्रेम-सम्बन्ध का अंत हो गया, आपने मना किया? आपत्तिजनक बात थी?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, वो लड़का मुझे पसंद नहीं था, आवारा किस्म का था" उन्होंने बताया,

"अरुणा का पक्ष सुना?" मैंने पूछा,

"हाँ, जब उसको समझाया तो वो मान गयी" वे बोले,

"क्या लड़के ने कभी कोशिश की मिलने की?" मैंने पूछा,

"नहीं" उन्होंने कहा!

यहीं है कुछ गड़बड़! यही से सूत्र मिलेगा आगे के लिए!

"आप उस लड़के का नाम बताइए, पता मालूम हो तो वो भी बताइए" मैंने कहा,

उन्होंने बताया और शर्मा जी ने लिख लिया!

"आप एक काम और कीजिये, मुझे थोड़े से बाल काट कर दे दीजिये अरुणा के, मै जाँच करने के बाद ही आपको बताऊंगा" मैंने कहा,

अरुणा की माता जी गयीं और उसके कोई इंच भर बाल काट कर ले आयीं, मैंने वो एक कागज़ में लपेट कर रख लिए,

"ठीक है, मै आज जाँच कर लूँगा, उसके बाद फिर आपको बताऊंगा" मैंने कहा,

"जी गुरु जी" नवीन ने कहा,

उसके बाद हम निकले वहाँ से, बारिश तो थी अभी लेकिन यातायात के लिए असुविधा नहीं होनी थी उसे, हालांकि नवीन ने रोका हमको, पर हम रुके नहीं, विवशता थी!

हम वापिस चल पड़े वहाँ से, जब अपने स्थान पर आये तब भी बारिश पड़ रही थी, ऐसे में अलख नहीं उठ सकती थी, तो भोजन कर सो गए हूँ! शेष कार्य कुछ था नहीं!

सारी रात मेह बरसा! जब आँख खुली तो पांच बजे थे, हवा में ठंडक थी, हाँ बारिश नहीं थी, ये तो भला हो गया था! मै नित्य-कर्मों से निवृत हुआ और फिर शर्मा जी को भी जगाया, वे जागे और बाहर चले गए, जब आये तो स्नानादि से फारिग हो चुके थे!

"सारी रात बरसा है ऐसा लग रहा है" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"चलो कुछ तो राहत मिली गर्मी से" वे बोले,

"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,

तभी सहायक चाय ले आया, नमस्ते हुई और चाय रख गया, हमने चाय पीनी शुरू कर दी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गुरु जी, आज देखेंगे उस अरुणा के बारे में?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, अगर बारिश न हुई तो दोपहर में ही देख लूँगा" मैंने कहा,

"हम्म! वैसे लगता नहीं बारिश आएगी" वे बाहर देखते हुए बोले,

"ना ही आये तो बेहतर है" मैंने कहा,

"वैसे लड़की शरीर से रोगी नहीं लगती" वे बोले,

"यही तो हैरत है!" मैंने कहा,

"शरीर से तंदुरुस्त लगती है, कोई कह नहीं सकता कि ये लड़की रोगी है!" वे बोले,

"सही कहा आपने" मैंने कहा,

"उसने बोला था कि मैं मर रही हूँ, याद है?" मैंने पूछा,

"हाँ" वे बोले,

"इसका मतलब वो होशोहवास में तो है अपने" मैंने कहा,

"मै नहीं समझा" वे बोले,

"मतलब उस पर कोई लपेट-झपट नहीं है, अगर होती तो मुझसे बात नहीं करती, और उसको अपना होशोहवास नहीं रहता!" मैंने कहा,

"हाँ! समझ गया!" वे बोले,

"अब मै अलख पर बैठूँ तो जानूं!" मैंने कहा!

"हम्म!" वे बोले,

"क्या लगता है उस लड़के के बारे में?" उन्होंने पूछा,

"नवीन ने हमको आधी-अधूरी बात बताई है, पूरी बात नहीं!" मैंने कहा,

"यही तो बात है, लोग छिपाते हैं और फिर नुकसान उठाते हैं" वे बोले,

"सही बोले आप" मैंने कहा,

"चलो, बैठते ही मालूम हो जायेगा" वे बोले, .

"हाँ, मै कारिन्दा रवाना करूँगा" मैंने कहा,

"ठीक है, अब मै चलता हूँ, शाम तक आ जाऊंगा" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

फिर वो चले गए! अभी उनको गए हुए आधा घंटा बीता होगा कि मेरे एक जानकर आ गए, उनसे बातचीत हुई करीब एक घंटा! अब तक नौ बज चुके थे, वे गए तो मै अपने क्रिया कक्ष में पहुंचा और आवश्यक वस्तुएं आदि का प्रबंध किया! और वापिस अपने कक्ष में आ गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर बजे दो, अब मै अलख उठा सकता था, मौसम साफ़ था, मै स्नान करने गया और उसके बाद सीधे क्रियास्थल में! वहाँ मैंने वो कागज़ खोला और वो बाल निकाले, अब मैंने अलख उठाई! अलख-भोग दिया और फिर मैंने अपना कारिन्दा सुजन हाज़िर किया! सुजान ने आते ही अपना भोग लिया और मस्त हुआ! मैंने उसको वो बाल दिखाए, उनसे गंध ली और फिर मेरे प्रश्न सुने, और फिर वो उड़ चला वहाँ से! मै बैठ गया अलख के पास, अलख में ईंधन डालता रहा मंत्र पढ़ पढ़ कर!

करीब पंद्रह-बीस मिनट में सुजान वापिस आया! उसने जो खबर दी वो बड़ी माकूल और सटीक दी थी! बकौल सुजान, मैंने उस प्रेमी लड़के को संदेह से बरी कर दिया! उसका इसमें कोई किरदार नहीं था! उन दोनों में प्रेमप्रसंग अवश्य था, परन्तु नवीन के समझाने के बाद दोनों ही अलग हो गए थे! ये लड़की किसी और की ही शिकार थी! और शिकार भी एक औरत की! और ये औरत उसकी ताई थी! उस पर मारण नहीं हुआ था, बल्कि उच्चाटन हुआ था! और उच्चाटन में वो लड़की कई प्रेतों आदि का शिकार हो रही थी! ये प्रेत उसको भोगते थे!

और इस लड़की को याद नहीं रहता था! बहुत सटीक चाल चली थी चलने वाले ने! उच्चाटन के साथ उसने प्रेतचाल भी चल दी थी! लेकिन वजह क्या थी? क्यों किया उसकी ताई ने ऐसा? क्यों करवाया? एक वजह स्पष्ट थी! ज़मीन! ये ही वो वजह थी! नवीन के बड़े भाई जीवित नहीं थे! उनका देहांत हो चुका था! नवीन ने उनको सदैव सहायता की थी, हारी-बीमारी में, पैसे से उनकी लड़की ब्याहने में भी नवीन ने सहायता की थी! इसी से खुश होकर उन्होंने अपनी ज़मीन अपने छोटे भाई के नाम कर दी थी! नवीन के बड़े भाई के कोई लड़का नहीं था, उसकी ताई को ये बात अखर गयी, और फिर ऐसा निर्णय ले लिया! नवीन के बड़े भाई की मृत्यु जनवरी के माह में हुई थी, जब तक वो जीवित थे, उसकी ताई कभी कुछ नहीं कर पाई, अब उसने निशाना साधा, उसे माहौल मिल गया था! मेरे पास उस व्यक्ति का नाम भी था, वासुदेव, ये संभवतः अरुणा की ताई का भाई ही लगता था, इसी ने ये काम करवाया था! योजना तो बहुत मजबूत और अभेद्य बनाई थी, लेकिन सुजान ने भेद डाला उनका योजना-भांड! अब मेरे पास लक्ष्य था! और उद्देश्य भी! सबसे पहले उस लड़की को ठीक करना था!

मुझे उस औरत पर बहुत क्रोध आ रहा था! मन कर रहा था कि अभी तातार-खबीस को बुलाऊं और इतना तुड़वा दूं कि हड्डियों के नाम पर बस उनका बुरादा ही बचे! और साथ ही साथ उस तांत्रिक को भी जो अभी भी सक्रिय था, परन्तु आवरण में बैठा था! लोभ-लालच के नाम पर ना जाने ऐसे कलंकित लोग कितने मासूमों की जान ले लेते हैं! और वैसे तांत्रिक भी जो मात्र कुछ रकम के लिए इस विद्या को कलंकित करते हैं! एक सत्य है, कोई नहीं समझ पाता! भूमि ये भूमि! इस पर कई राजाओं ने राज किया, युद्ध लड़े गए, वंश समाप्त हो गए, सब मर-खप गए! परन्तु ये भूमि! वहीं की वहीं है आज तक! समझदार समझ जाता है, और जो समझ के भी नहीं समझता वो होता है इस लोभ-लालच का शिकार! और उसका हश्र सदैव वैसा ही होता है जैसे एक क्षण के लिए पानी का बुलबुला छाती चौड़ी करता है और और दूसरे ही क्षण अस्तित्व-हीन हो जाता है! कोई नामोनिशान बाकी नहीं रहता!

खैर, शाम को शर्मा जी आये, मैंने सारी सूचना उनको दी, सुनते ही उनकी त्योरियां चढ़ गयीं! उस औरत और उस तांत्रिक को कर दी शुरू गालियाँ!

"कौन है वो बहन का *?" वो बोले,


   
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"वो तांत्रिक एक आवरण में बैठा है, कौन है ये नहीं पता, आज क्रिया में बैठूँगा तो भेदूँगा उसका आवरण!" मैंने कहा,

"और ये कमीन हरामजादी औरत उस लड़की अरुणा की ताई है, है ना?" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"क्या नाम है उसका?" उन्होंने पूछा,

"अशर्फी देवी" मैंने बताया,

"हूँ! तो करो सालों की ख़ास ख़िदमत!" उन्होंने कहा,

"बिलकुल करूँगा! आप देखते रहो!" मैंने कहा,

"और ज़रा मुझे उस तांत्रिक का मुखड़ा दिखा देना गुरु जी, रंग-रोगन करना है!" वे बोले,

मुझे हंसी आई अब!

"हाँ, बिलकुल!" मैंने कहा,

उसके बाद शर्मा जी ने अपना बैग खोला, मदिरा निकाली और साथ में लाया हुआ 'प्रसाद' भी!

ठंडा पानी एक सहायक से मंगवा लिया, और कुछ बर्तन भी, 'प्रसाद' परोस दिया गया और फिर एक एक गिलास तैयार कर दिया शर्मा जी ने! हमने अपने अपने गिलास उठाये और हो गए शुरू!

"वैसे गुरु जी, ये है सेवा का मेवा!" शर्मा जी बोले,

"मतलब?" मैंने पूछा,

"नवीन ने बड़े भाई की सेवा की और क्या मिला उसे?" वे बोले,

"हाँ, सही कहा!" मैंने कहा,

"मर गयी है इंसानियत या मरने वाली है, अंतिम सांसें ले रही है" वे बोले,

"बात तो सही कही अपने!" मैंने कहा,

"बताओ, उसकी ताई को ज़मीन चाहिए, अरे तो मुंह से मांग? ये कौन सा तरीक़ा है, उसकी भी तो बेटी है ना वो, है कि नहीं?" वे बोले,

"हाँ, अगर माने तो" मैंने कहा,

"यही तो बात है" वे बोले,

"आज मै क्रिया करूँगा, उस लड़की के लिए, उसे ठीक कर दूं पहले" मैंने कहा,

"हाँ, बहुत तड़प ली बेचारी" वे बोले,

"हाँ, उस हरामजादे ने बहुत देह-मर्दन करा दिया इस लड़की का" मैंने कहा,

"खून खौल जाता है गुरु जी मेरा!" वे बोले,


   
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"किसी भी सभ्रांत इंसान का खून खौल उठेगा ये जानकर" मैंने कहा,

"मेरे सामने जब आएगा ना, क्या हाल करूँगा उसका, आप देखना!" वे बोले,

मुझे फिर से हंसी आ गयी!

और तभी फ़ोन आ गया नवीन का! बात शर्मा जी ने करी, शर्मा जी ने कहा कि चोर पकड़ा गया है, अब रिमांड पर लेना है, फिर सच कुबूलेगा! ये जानकर नवीन खुश हो गए! जब किसी परेशान व्यक्ति को अपनी परेशानी का कारण पता चल जाता है तो उसके मन में खुशी ज़ोर मारने लगती है!

"शर्मा जी, आज रात यहीं रहोगे?" मैंने पूछा,

"हाँ, और कल निकल पड़ेंगे वहाँ के लिए" वे बोले,

"ये ठीक रहेगा" मैंने कहा,

अब तक हम बोतल ख़तम करने के करीब ही थे!

"वैसे ये अशर्फी रहती कहाँ है?" उन्होंने पूछा,

"अपने गाँव में, नवीन के गाँव में" मैंने स्पष्ट किया,

"अच्छा! और ये ज़मीन-खेत वहीं होंगे" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"और ये वासुदेव?" उन्होंने पूछा,

"इसका नहीं पता" मैंने बताया,

"वो तो नवीन बता देगा" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"हो जाइये तैयार आप!" मैंने कहा,

"मै तो तैयार हूँ!" वे बोले,

"बस! अब देखना उनका हाल!" मैंने कहा!

"ऐसा करना है कि कभी सपने में भी ना सोचें!" वे बोले!

"अवश्य!" मैंने कहा,

अब तक हमने बोतल निबटा ली थी!

"ठीक है, मै चलता हूँ क्रिया-स्थल में" मैंने कहा और खड़ा हुआ!

"जी गुरु जी!" वे बोले,

मै अब स्नान करने चला गया! तदोपरान्त क्रिया-स्थल में जाना था!


   
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मै क्रिया में बैठा! अलख उठायी और अलख भोग दिया! मुझे अरुणा का उच्चाटन भंग करना था शीघ्रातिशीघ्र, इसके लिए मैंने कच्छप-नख ( कछुए का पंजा) बनी एक माला को अभिमंत्रित कर उसमे मंत्र-शक्ति स्थापित करनी थी, प्रेत सहवास नहीं कर पाएंगे उसके बाद, और उसका वजन अपने शरीर के हिसाब से सामान्य होता जायेगा, रहा सर-दर्द वो तो माला के धारण करते ही छू हो जाएगा! मैंने उसको अभिमंत्रित किया और फिर समस्त उद्देश्य हेतु उसमे मंत्र-शक्ति स्थापित कर दी! करीब डेढ़ घंटा लगा मुझे! एक आवश्यक कार्य निबट गया था! अब उस तांत्रिक का वो आवरण भेदना था, इसके लिए मैंने इबु-खबीस को हाज़िर किया, उसको उसका भोग दिया, उद्देश्य जान उड़ चला मेरा सिपहसिलार अपनी मंजिल को! उसके साथ मैंने व्योम-भंग शक्ति और लगा दी थी! करीब दस मिनट बीते, इबु वापिस हाज़िर हुआ, उसने आवरण भेदा और उस तांत्रिक का अता-पता ले आया! इस तांत्रिक का नाम पूरन बाबा था, उम्र होगी उसकी कोई साठ साला, कुशल तांत्रिक था वो, कोई संदेह नहीं था! परन्तु उसने लालच के कारण एक अपनी बुद्धि खो दी थी! ये तांत्रिक रहता था, मेरठ से कोई बीस किलोमीटर दूर अपने अड्डे पर! मैंने इबु-खबीस को और भोग दिया, आज तक इबु ने मुझे कभी निराश नहीं किया! और उस रात भी नहीं किया था! मैंने उसके हाथ के कड़ों को छुआ और आपस में टकरा के बजाये, ढम्म-ढम्म की आवाज़ हुई! वो मुस्कुराया और मैं भी! फिर वो लोप हुआ! रात के दो बज चुके थे, मै अब उठा और अलख नमन किया और फिर कक्ष से निकल कर स्नान करने चला गया! वापिस आया तो शर्मा जी सो रहे थे, मैंने भी वही किया, एक मच्छर वाली कोइल और जलाई और सो गया!

सुबह उठा तो सात बजे थे, शर्मा जी उठ चुके थे, नित्य-कर्मों से निवृत भी हो चुके थे, मै भी बाहर गया, नहाया धोया और नित्य-कर्मों से फारिग हो गया! आ बैठ शर्मा जी के पास!

"गुरु जी कुछ पता चला?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, सब कुछ पता चल गया!" मैंने कहा,

"वाह!" वे बोले,

तभी सहायक आया और चाय रख गया!

अब मैंने उनको सारी बात बताई, क्या और कैसे और किसने ऐसा किया था, वासुदेव उस पूरन को जानता था, वही गया था पूरन के पास इस काम के लिए, तो मूलरूप से तीन शत्रु थे इस खेल में! इनसे हिसाब करना जायज़ भी था और ज़रूरी भी!

"पूरन बाबा!" शर्मा जी चाय की चुस्की लेते हुए बोले,

"हाँ! पूरन बाबा का जाल है ये!" मैंने कहा,

"ठीक है, बहुत खेल लिया, अब हमारी बारी है चाल चलने की!" वे बोले,

"हाँ! अब हम चलेंगे, नहले पर देहला!" मैंने कहा,

"हूँ!" वे बोले,

"हाँ ये तीन ही हैं, खिलाड़ी!" मैंने कहा,

"और ये वासुदेव! इसको भी चटानी है चटनी!" वे बोले!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मेरी हंसी छूटी!

"हाँ जी" मैंने कहा,

"अच्छा गुरु जी, क्या कार्यक्रम है?" उन्होंने पूछा,

"चलते हैं नौ बजे" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

"नाश्ता कहीं रास्ते में ही कर लेंगे" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

उसके बाद मै उठा और क्रिया-स्थल पहुँच कर अपने तंत्राभूषण उठाये, एक बैग में डाले और वहाँ से बाहर आ गया!

थोड़ी देर और बातें हुईं और फिर बजे नौ, हम निकले वहाँ! नवीन को इत्तला दे दी शर्मा जी ने! ।

रास्ते में एक जगह रुके और थोडा चाय-नाश्ता किया, और फिर चल पड़े आगे नवीन के घर के लिए!

"सबसे पहले लड़की को ठीक करना है?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, सबसे पहले" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

गाड़ी रुकी, सामने कोई दुर्घटना हुई थी, आराम से हम निकले वहाँ से,

"और उस पूरन को तो खबर हो गयी होगी या नहीं?" उन्होंने पूछा,

"अभी नहीं, माला धारण कराते ही जान जाएगा वो" मैंने कहा,

"तब होगा फैंसला!" वे बोले,

"हाँ! सही फैसला!" मैंने कहा,

"ऐसा फैंसला करना गुरु जी कि ऐसे हरामजादे कभी सोच भी न सकें!" उन्होंने गुस्से से कहा,

"बिलकुल" मैंने उत्तर दिया,

और फिर कोई उसके पौने घंटे के भीतर हम खड़े थे नवीन के घर के सामने! वो वहीं मिले, नमस्कार हुई, आदर-सम्मान हुआ, हम अन्दर चले, बैठ गए वहाँ!

"नवीन जी, अरुणा को कहिये कि स्नान कर ले और फिर यहाँ आ जाये" मैंने कहा,

उन्होंने अपनी पत्नी से कहा और वो चली गयीं!

"गुरु जी, क्या पता चला?" उन्होंने पूछा,

"अभी बताता हूँ" मैंने कहा,

चाय आ गयी थी, चाय पी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अरुणा आ गयी थी वहां, टूटी सी, इस संसार से जैसे बेखबर हो!

"आओ बैठो अरुणा! आज से तुम बिलकुल ठीक हो जाओगी!" मैंने कहा,

उसने मुझे देखा, फिर हलकी से हंसी और फिर आँखों में आंसू ले आई!

"रोइये नहीं अरुणा, मैंने सच कहा है!" मैंने कहा,

उसने अपने आंसू पोंछे!

"मेरे पास आओ" मैंने कहा, वो खिसक कर मेरे पास आ गयी,

"आँखें बंद करो!" मैंने कहा,

उसने आँखें बंद की!

मैं अपने साथ लाया हुआ बैग खोला और वो माला निकाली, मंत्र पढ़ते हुए मैंने उसके गले में बांध दी, माला बंधते ही वो नीचे गिरने लगी, मैंने और शर्मा जी ने उसको संभाला! और वहीं सोफे पर लिटा दिया!

"अब जब ये उठेगी तो बिलकुल ठीक होगी!" मैंने कहा,

वहाँ नवीन की आँखों से आंसू बह निकले, उनकी पत्नी के भी, कभी बेटी को देखते तो कभी मुझे!

"इसको ऐसे ही सोने दीजिये" मैंने कहा,

उन्होंने हाँ में गर्दन हिलाई,

"गुरु जी, क्या था ये?" उन्होंने पूछा,

"घर की लड़ाई है!" मैंने बताया,

"घर की लड़ाई?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"मै समझा नहीं?" वे बोले,

"समझाता हूँ" मैंने कहा,

अब मैंने शर्मा जी को देखा और शर्मा जी ने मुझे, मैंने आँखों में देखते हुए ही पत्ते खोल देने की गुजारिश कर दी! अब शर्मा जी ने सारी बातें और सच्चाई खोल दी उनके सामने, उनको और उनकी पत्नी के चेहरे का रंग उड़ता चला गया, कलेजा थाम के बैठ गए! वो जो सुन रहे थे उन्हें जैसे यक़ीन नहीं हो रहा था! ऐसा भी हो सकता है? या होता है? लेकिन जब हमने नाम खोले तो उनको यक़ीन हुआ!

"कहाँ रहती है ये अशर्फी देवी?" मैंने पूछा,

"जी, गाँव में, हमारे" वे बोले,

"और ये वासुदेव?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हापुड़ के पास एक गाँव है, वहाँ" उन्होंने बताया,

"चलिए मेरे साथ" मैंने कहा,

"कहाँ?" उन्होंने पूछा,

"अशर्फी के पास" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

"कितनी दूर है गाँव?" मैंने पूछा,

"पास में ही है, कोई दस किलोमीटर" वे बोले,

"चलिए" मैंने कहा,

वो उठे,

"जब इसको होश आये तो खबर करना" मैंने अरुणा की माता जी से कहा,

उन्होंने हामी भरी, ग़मज़दा थीं!

अब हम वहाँ से चले, करीब पौने घंटे में गाँव में घुसे, नवीन के बताये अनुसार हम उसके घर की ओर बढे, घर के सामने गाड़ी लगी, बालकों की भीड़ उमड़ी! हम अशर्फी के घर में घुसे, अशर्फी मिल गयी, उसने दिखावे में अभिनन्दन किया हमारा और नवीन का तो सबसे अधिक!

"अब लड़की कैसी है?" अशर्फी ने पूछा,

"अब बिलकुल ठीक है!" मैंने कहा,

"ठीक हो गयी?" उसे हैरत हुई!

"हाँ, आज बिलकुल ठीक हो गयी!" मैंने कहा,

"क्या हुआ था उसे?" उसने पूछा,

"किसी की योजना थी उसको मारने की!" मैंने कहा,

"योजना? किसकी?" उसने पूछा,

"हैं कोई तीन लोग" मैंने बताया,

"अच्छा? कौन कौन?" उसने पूछा,

"एक तो पूरन है, और एक वासुदेव और एक और औरत है!" मैंने कहा,

अब उसके चेहरे पर भाव आये गए, आये गए! नवीन उसको ही देखता रहा! वो नीचे बैठी अब, पीढ़े से उतर कर!

"कौन है वो औरत?" उसने पूछा,

"जानकार भी अनजान हो?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब उसको काटो तो खून नहीं!

बोलती बंद हो गयी उसकी! काठ मार गया उसे! अवाक!

"पूरन ने योजना बढ़िया बनाई थी जैसा तुमने चाहा था, अफ़सोस! अभी उस लड़की की मौत नहीं आई थी!" मैंने कहा,

सर झुका के बैठ गयी! मेरे पाँव पड़ने के लिए आगे हुई तो मै पीछे हो गया! मेरा कम हो चला था! अब नवीन के घर का मामला था! अब नवीन ने खरी-खोटी सुनानी शुरू की उसे! बहुत जली-कटी सुनाई उसको! कोई और होता तो शर्म और मर्म के मारे डूब मरता! मगर वो निर्लज्ज मुंह नीचे किये हुए सुनती रही! नवीन ने कह सुनाई! अब मै बोला!

"तुम्हारा पाप क्षमा करने लायक नहीं है, परन्तु मै तुम्हारी आयु के कारण ऐसा नहीं कर सकता, तुम्हारे संस्कार भले ही मर गए हों, लेकिन मेरे नहीं! चाहूँ तो फालिज़ डाल दूँ तुमको, अँधा कर दूँ, लंगड़ा-लूला कर दूँ, जिंदगी भर मौत के लिए तरसोगी, और मौत नहीं आयेगी, मौत कभी नहीं आती ऐसे पापियों के पास! मौत से सच्चा और कोई नहीं!" मैंने कहा,

वो अब रोई बुक्का फाड़ कर! हाथ जोड़कर माफ़ी मांगने लगी! कभी मेरे पाँव पड़े और कभी शर्मा जी के! नवीन से माफ़ी मांगे! बार बार!

"क्या करूँ इसका मै शर्मा जी?" मैंने पूछा,

"सजा तो मिलनी ही चाहिए, परन्तु बुढापे में इसकी बुद्धि खराब हो गयी है, इसको इसके हाल पर छोड़ दीजिये, अपने कर्मों का हिसाब खुद भुगतेगी ये" वे बोले,

"इस बार छोड़े देता हूँ, आइन्दा कभी ऐसा हुआ तो तुम्हारा सर कभी तुम्हारे कन्धों पर नहीं सधेगा!" मैंने कहा

"और हाँ, तुम्हारा भाई वासुदेव! और वो पूरन, फ़ोन कर दो उनको, जहां भागना है भाग लें, बचा लें अपने आपको, हम जा रहे हैं उनके पास!" शर्मा जी ने कहा!

"चलिए अब" मैंने कहा,

"चलिए" नवीन ने कहा,

हम बाहर आ गए! गाड़ी में बैठे! तभी अरुणा का फ़ोन आ गया! वो अब बिलकुल ठीक थी, ना सर-दर्द और ना कोई अन्य शिकायत! रो पड़े नवीन बेटी से बात करते करते! नवीन ने बताया की हम लोग वापिस घर आ रहे हैं! हम वापिस चले अब!

"गुरु जी, ये उपकार कैसे उतार पाऊंगा मै?" नवीन ने रोते रोते पूछा,

"कैसा उपकार?" मैंने पूछा,

"आप हमारे लिए भगवान बन कर आये हो" वे बोले,

"नवीन साहब! किसी असहाय की सहायता कर देना, किसी निर्धन की कन्या के ब्याह में सहायता दे देना, किसी भूखे को भोजन करा देना, उतर गया उपकार!" मैंने कहा,


   
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