वर्ष २०१० पानीपत की...
 
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वर्ष २०१० पानीपत की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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सूक्ष्म-वाहिनी! किसी भी साधक ले लिए जैसे अनमोल हीरा! मै असमंजस में पड़ा तो विवेक ने चांटा जड़ा!

"नहीं शम्स!" मैंने कहा,

"कई जन्म बीत जायेंगे, नहीं मिलेगी!" उसने हंस के कहा!

"मुझे स्वयं पर विश्वास है!" मैंने कहा,

"उड्डयन-तंत्र? क्या विचार है?" उसने कहा,

उड्डयन-तंत्र! मेरे दिमाग में जैसे हथौड़ा मारा उसने! कौन नहीं चाहेगा उड्डयन-तंत्र का ज्ञान! मेरे सिर्फ एक हाँ कहने की देर थी और मै उड्डयन-तंत्र का ज्ञाता हो जाता! परन्तु फिर से विवेक ने झिंझोड़ दिया!

"नहीं शम्स!" मैंने कहा,

"मूरख है तू!" वो बोला,

"कह सकते हो" मैंने कहा,

"ज़िद छोड़ दे!" उसने कहा,

"तुम ये स्थान छोड़ दो सारे के सारे!" मैंने कहा,

"कभी नहीं" वो बोला,

"छोड़ना पड़ेगा!" मैंने कहा,

"नहीं" उसने मना किया!

"मान जा, अन्य कोई विकल्प नहीं!" मैंने कहा,

"नहीं! नहीं! नहीं!" वो दहाड़ा! बार बार!

वो नहीं नहीं चिल्लाता रहा! और मैं उसको विवश करता रहा! वो कभी अपने हाथ में दूसरे हाथ से मुक्का मारता कभी गुस्से में यहाँ से वहाँ भागता! पिंजरे में कैद तेंदुए जैसी हालत थी उसकी! एक वक्त का खूब लड़ाका आज स्वयं हार की कगार पर खडा था!

"मान जाओ शम्स!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं ये संभव नहीं!" उसने कहा,

"तो मै वही करूँ जो मै नहीं करना चाहता?" मैंने पूछा,

वो चुप हो गया!

"बोल शम्स?" मैंने पूछा,

"नहीं, असंभव!" उसने कहा,

"शम्स, तुम सभी वक़्त के गर्त में समा जाओगे! शम्स, तुफंग, हलिया और बाबा डार! सब के सब!" मैंने कहा!

"नहीं! नहीं!" वो चिल्लाया!

और तभी सब के सब कोई बीस प्रेत वहाँ प्रकट हो गए! अवाक!

"ठीक है, तुमने मुझे विवश किया है!" मैंने कहा,

"नहीं!" वे सभी चिल्लाए!

"मेरे पास अन्य कोई विकल्प नहीं है हे महानुभवो!" मैंने कहा

अब सभी ने घेरा शम्स को!

कुछ क्षण बीते!

"शम्स?" मैंने कहा,

उसने मुझे देखा!

"तुम सब अब कहानी बनने वाले हो!" मैंने कहा,

वे सभी चुपचाप खड़े देखते रहे मुझे! मजबूर और बेबस!

अब मैंने जेब से भस्म निकाली! हाथ पर रखी ब्रह्म-कीलन मंत्र से उसको पोषित करने लगा!

"रुक जा! रुक जा!" शम्स बोल!

मै रुक गया!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कीलन मत कर" वो बोला!

"तो मेरी बात मानो तुम सब!" मैंने कहा,

"नहीं, नहीं मानेंगे!" वो अभी भी गुस्से में था!

"फिर मै नहीं रुकुंगा!" मैंने कहा,

"रुकना पड़ेगा!" वो बोला,

"बहुत रोका तूने" मैंने कहा,

"रुकना पड़ेगा तुझे!" वो ऊँगली हिलाता हुआ बोला!

"मै क्यों रुकूँ?" मैंने कहा,

"मेरी बात सुन पहले!" उसने कहा,

"सुना!" मैंने कहा,

"तुझे ये ज़मीन चाहिए?" वो बोला,

"नहीं" मैंने कहा,

"तो यहाँ क्यों आया था तू?" उसने पूछा,

"अपनी मर्जी से आया था!" मैंने कहा,

"नहीं! ऐसा नहीं है!" वो बोला,

"फिर? फिर कैसा है?" मैंने पूछा,

"तुझे किसने बुलाया था?" उसने पूछा,

ओह! मै समझ गया!

"तो तू उनका क्या करेगा?" मैंने पूछा,

"क़त्ल कर दूंगा उसके पूरे परिवार को!" उसने कहा,

और वो सच में ही धमकी नहीं दे रहा था, बल्कि जो कह रहा था सौ फीसदी सच था! वो ऐसा


   
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श्रीशः उपदंडक
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कर सकता था!

"तू कलंक है औघड़ के नाम पर शम्स! क़ायर औघड़ है तू!" मैंने कहा,

अपनी जीत का ढोल सुन वो हंसा अब जोर से!

"मै कत्ल कर दूंगा सभी को, सभी को जो यहाँ आएगा!" उसने छाती पर हाथ मारा!

"तू अब कुछ भी नहीं कर सकता शम्स!" मैंने कहा,

"अच्छा?" उसने हंस कर पूछा,

"हाँ!" मैंने कहा,

"वो कैसे?" उसने फिर से व्यंग्य में पूछा,

"तूने मुझे आँका है या नहीं अभी तक?" मैंने पूछा ज़ोर से!

"हाँ, देख लिया! जान लिया! आंक लिया!" उसने ठहाका लगाते हुए कहा!

"ये नहीं जाना की तुम प्रेत-पाश में बंधे हुए हो?" मैंने कहा!

उसने फ़ौरन भूमि पर पड़े अस्थियों के टुकड़े देखे! सभी ने गौर किया वहाँ!

"मेरे यहाँ रहते तू कहीं नहीं जा सकता! न ये सब के सब! न वापिस मुल्तान!" मैंने कहा!

अब उसे जैसे सांप सूंघा!

"शम्स! अभी भी समय है! मै भेज देता हूँ वापिस, यहाँ कभी न आने के लिए!" मैंने कहा,

"ऐसा नहीं हो सकता!" उसने कहा,

"क्यों?" मैंने पूछा,

"ये मेरा गुरु-स्थान है" उसने कहा,

"तो क्या बाबा डार से पूछा था उन छह मासूमों को मारने के लिए शम्स?" मैंने पूछा,

"यहाँ, मेरा राज है, समझा?" उसने कहा,

"बेशक! परन्तु था, अब नहीं!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तू नहीं जानता!" वो बोला,

"मै सब जानता हूँ!" मैंने कहा,

"कुछ नहीं जानता तू!" वो बोला और फिर से हंसा! अब मुझे क्रोध आ गया!

मैंने अब भस्म को अभी मंत्रित करना आरंभ किया!

वे 'रुक जा' ठहर जा' कहते रहे!

भस्म अभिमंत्रित हो गयी! और जैसे ही मैंने उसको भूमि पर फेंका, वो वापिस लौट मेरे चेहरे पर गिरी!

और मै गिरा पीछे! करीब छह फीट! उठा तो सामने देखा! सामने एक बुजुर्ग औघड़ खड़ा था! करीब साढ़े छह फीट का! काले रंग के चोगे में! जटाजूटधारी! पूरे शरीर पर केसर और चिताभस्म लपेटे! एक हाथ में चिमटा और त्रिशूल लिए! असंख्य मालाएं धारण किये!

ये था बाबा डार!

बाबा डार! आ गए थे बाबा डार! वहाँ खड़े सभी ने प्रणाम किया बाबा डार को! डार ने सभी को अभय-मुद्रा में हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया! सभी शांत हो गए वहाँ! मेरे महामंत्र से अभिमंत्रित भस्म मेरे ही मस्तक पर आ पड़ी थी! मात्र बाबा डार की उपस्थिति से ही! बाबा डार आये वहाँ आगे, मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर चिमटा मेरी तरफ कर के पूछा, "कौन हो तुम?"

मैंने अपना परिचय दे दिया उनको! और प्रणाम किया! मुझे भी अभय-मुद्रा में प्रणाम का उत्तर मिला!

"किसलिए आये हो?" उन्होंने पूछा,

मैंने सारी कहानी बता दी! उन्होंने एक एक शब्द बड़े इत्मीनान से सुना! मैंने सारी कहानी, आरम्भ से अंत तक सब सुना दी उनको!

त्योरियां चढ़ गयीं उनकी! अब मै भी एक अनजान बही से ग्रस्त हुआ! ना जाने अगले पल क्या हो? मेरी बात मानेंगे अथवा अपने डेरे वासियों और अपने शिष्यों की ही मानेंगे? कुछ समझ नहीं आ रहा था! वो पीछे हटे और जो मैंने देखा वो कल्पना से परे था! उन्होंने शम्स, तुफंग, एराल और हलिया को आगे बुलाया, वो घबरा के आगे बढे!

"क्या ये सच है? हिसा इस बालक ने कहा? छह मासूम लोग मारे गए?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब सभी काँपे!

"बोलो?" वो गुस्से से बोले,

"जी हाँ" शम्स ने कहा,

कुछ ना बोले वो अब! मेरे पास तक आये!

"क्या चाहते हो बालक?" उन्होंने पूछा,

"यही कि आप सभी यहाँ से चले जाएँ मुल्तान" मैंने कहा, हाथ जोड़कर,

"ये मेरा समाधी-स्थान है बालक, मै यहाँ हूँ, यहीं रहूँगा" वे बोले,

कुल मिला के उन्होंने अस्वीकार कर दिया! अब मै फंसा!

"मैं सब जानता हूँ बालक! सब कुछ!" वे बोले,

मेरे पास अब मेरा शब्द-कोष रिक्त हो गया था! मै केवल हाथ जोड़े खड़ा रहा!

वो मेरे पास आये और बोले, "आओ मेरे साथ"

मै मंत्रमुग्ध सा चल पड़ा उधर उनके साथ कोई बीस कदम ही गए होंगे, कि उन्होंने मेरे मस्तक पर हाथ रखा और ऊँगली से एक तरफ इशारा करते हुए कहा, "देखो वहाँ"

उनके हाथ रखते ही जैसे दिव्य-दृष्टि जागृत हो गयी मेरी! रात्रि समय में भी दिन जैसा उजाला सा हो गया! मैंने देखा, वहाँ तीन समाधियाँ बनी थीं!

"वो मेरे गुरु की है, वो मेरे पिता जी की और वो मेरी" वे बोले,

मैंने स्वयं देखा! सच कहता हूँ, सन्न रह गया मै! "अब मै कहाँ जाऊँगा, मुझे बताओ!" वे मुस्कुराते हुए बोले!

अकाट्य तर्क था उनका! मेरे जैसे होंठ सिल गए, जिव्हा हलक में उतर गयी!

"मै कहाँ जाऊं?" वे बोले,

"क्षमाप्रार्थी हूँ मै बाबा जी!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरे नेत्रों में जल उतर आया था! उन्होंने मेरे नेत्र देखे और फिर बोले, " जो कुछ भी हुआ यहाँ वो गलत हुआ, मै इसके गुनाहगारों को सजा ज़रूर दूंगा"

मै चुप रहा, क्या कहता?

इस से अनभिज्ञ था बाबा जी" मैंने कहा और उनके पांवों में गिर पड़ा!

"उठो बालक!" उन्होंने कहा और मुझे उठाया,

मै उठ गया!

"तुमने इन सभी को हरा दिया! मै प्रसन्न हुआ, तुम्हारे दादा श्री ने खूब पढाई कराई है तुमको! मै प्रसन्न हुआ!" वे बोले,

मै प्रसन्न तो हुआ, परन्तु धन्यवाद भी ना कह सका! मेरा मुंह लटक गया!

"सुनो बालक!" वे बोले,

"जी?" मैंने उत्तर दिया,

"क्यूँ व्याकुल हो?" उन्होंने पूछा,

"नहीं तो बाबा?' मैंने कहा,

"वचन फिर जायेगा, है ना?" वे बोले,

बिलकुल सही भांपा था बाबा ने!

"इस ज़मीन के मालिक से किया हुआ वचन! है ना!" वे बोले,

"हाँ बाबा!" मैंने बड़ी हिम्मत से कहा,

"तो सुनो! उस क्षेत्र को छुड़वा दो! एक मंदिर का निर्माण करवाओ इस भूमि के मालिक से, वो मंदिर इन्ही समाधियों के ऊपर बने! अन्य स्थान पर नहीं! दिन चौदस, काल रात्रि है उस दिन!" वे बोले!

मै विस्मय के चक्रवात में खो गया! ऐसा तो मै सोच भी नहीं सकता था! सच बात है, सिद्ध महासिद्ध अत्यंत सरल और स्पष्ट स्वाभाव के हुआ करते हैं! यही बताया था मेरे दादा श्री ने! और यही प्रत्यक्ष रूप में मैं देख रहा था! मैं एक दम से झुका! उनके चरण छुए!

"धन्य हो गया मै आपके दर्शन करके बाबा जी!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरे नेत्रों में फिर से सैलाब ने ज़ोर मारा! उन्होंने अपने गले से उतार कर एक माला मुझे दी, स्फटिक की माला! एक सिद्ध माला! मेरे सर पर हाथ रख कर उन्नति-मंत्र पढ़ा, मेरे नेत्र बंद हुए, मै खो गया कहीं, जहां मै, मै ना रह गया था! खैर, वो माला मेरे पास आज भी है, इस घटना का स्मरण मुझे तब हुआ अचानक जब एक दिन मैं अपने सामान की जाँच कर रहा था! उसी दिन मैंने ये घटना आरंभ की थी!

मैंने नेत्र खोले, सामने कुछ नहीं! सब लोप हो गया! सभी गायब हो गए वहाँ से! केवल वायु के थपेड़े ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे! मै अवाक था, ऐसे जैसे मुझे किसी हरे-भरे स्थान से एक ही क्षण में किसी तपते रेगिस्तान में पटक दिया गया हो! तभी मेरा हाथ किसी ने पकड़ा! ये बाला थी! मेरे गले लग गयी वो!

"मै सब जानती थी, आदि से अंत तक!" उसने कहा,

"जानती थीं?" मैंने हैरत से पूछा,

"हाँ!" उसने कहा,

"कैसे?' मैंने पूछा,

"आपकी वो कौड़ियों की माला कहाँ है?" उसने पूछा,

मैंने फ़ौरन गले में धारण उस कौड़ियों की माला को टटोला, वो माला वहाँ थी ही नहीं! वो भी लोप हो गयी थी!

बाला हंसी!

"मैं हलिया के पास से नहीं आई थी, मै उस कौड़ियों की माला देने वाले बाबा के पास से आई थी! उन्होंने ही भेजा था मुझे! उसी कौड़ियों की माला से किसी का कोई अस्त्र नहीं चला आप पर!" उसने बताया!

ये सुन मै जैसे अविश्वास रुपी भंवर में फंस गया! कभी ऊपर और कभी नीचे गोते खाता!

"अब आपको मेरा वरण करना होगा, दिन चौदस, काल-रात्रि!" उसने हँसते हुए कहा!

मैं कुछ ना बोला, असल में बोल ही नहीं पाया! मैंने मन ही मन उस माला वाले बाबा को नमन किया!

"करोगे न मेरा वरण?" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ!" मैंने कहा,

"दिन चौदस, काल-रात्रि!" उसने कहा और वो भी लोप हुई!

मै वहीं ज़मीन पर बैठ गया! समय देखा चार से ऊपर का समय था! मुझ पर बेहोशी छाने वाली थी! मै किसी तरह से उठा, शर्मा जी ने संभाला मुझे और फिर मै एक जगह जाकर निढाल हो गया!

अगली सुबह!

जब मेरी नींद खुली तो गत-रात्रि की सारी घटना याद आ गयी, शम्स, उसके साथी, बाबा डार और वो बाला! मैंने उसी समय विनोद को वे बातें बता दी, उसने स्वीकार कर लिया!

फिर आया चौदस का दिन! कालरात्रि! हम फूंच गए थे वहाँ, विनोद ने हमारे सामने नींव भरवाई मंदिर की, मेरा वचन भी पूर्ण हुआ! सब ठीक हो गया! उसके बाद कोई समस्या नहीं हुई वहाँ! और फिर आई चौदस की रात! बाला हाज़िर हुई, मुझे वचनानुसार उसका वरण कर लिया! बाला आज भी संग है!

मित्रगण! ऐसे ना जाने कितने ही स्थान हैं, जहां बाबा डार जैसे कोमल हृदय बाबा भी हैं और शम्स जैसे खतरनाक बाबा भी!

आज पानीपत में विनोद के उस स्थान पर एक मंदिर है, श्री महा औघड़ का! लोग आते हैं वहां पूजा अर्चना करने! मै भी यदा-कदा चला जाता हूँ वहाँ! विनोद के व्यापार में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुई है! उसका समस्त परिवार आज तक हमारा भव्य स्वागत करता है! परिवार जैसे सम्बन्ध हैं हमारे!

कुछ सोये हैं कुछ जाग जायेंगे! प्रतीक्षा है तो फिर एक महासिद्ध बाबा के आशर्वाद की! बाबा डार को मेरा शत शत नमन!

------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------


   
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