वर्ष २०१० पानीपत की...
 
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वर्ष २०१० पानीपत की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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गर्मी का मौसम था, चिलचिलाती हुई गर्मी, इतनी भयानक कि जैसे धूप खाल उतारने को आमादा हो! ऐसी गर्मी में बाहर आना जाना मुश्किल ही होता है, और दिल्ली की गर्मी तो वैसे ही माशा-अल्लाह अव्वल दरजे की होती है! क्या पशु, क्या पक्षी और क्या कीड़े-मकोड़े! सभी अपनी अपनी पनाहगाह में अपनी देह बचाए पड़े थे! मै भी अपने विश्राम-कक्ष में कूलर के सामने बैठा था, कूलर को जैसे गर्मी ने धमका दिया हो! वो अपनी चाल भूल कर गर्मी के हुक्म का ही पालन कर रहा था! पौ फटते ही जैसे रात्रि में कुपित सूर्य दिन में अपना क्रोध पृथ्वी पर बरसाते थे! ना ही दिन का चैन और ना ही रात का आराम! उस समय दिन का एक बज रहा था! तभी सहायक ठंडी शिकंजी लेकर आया, मैंने पिया तो गला तर हुआ! तभी मेरे पास शर्मा जी का फ़ोन आया, उन्होंने बताया कि वो अपने साथ किसी नीलम नाम कि महिला और उनके पति विनोद को ला रहे हैं, कोई बड़ी समस्या है, उसी विषय में वे लोग मिलने आ रहे हैं, मैंने हामी भर दी, और फिर कोई एक घंटे के बाद नीलम और उसके पति विनोद आ गए वहाँ, मैंने बिठाया उनको, विनोद की आयु कोई पैंतालिस वर्ष और उनकी पत्नी की आयु कोई चालीस वर्ष के आसपास होगी, सहायक आया और पानी दे गया ठंडा, सभी ने पानी पिया! तब शर्मा जी ने मेरा परिचय उनसे करवाया!

"जी विनोद जी, बताएं क्या समस्या है?"

"गुरु जी, मैं अपने परिवार समेत पानीपत में रहता हूँ, ये मेरी पत्नी हैं, मेरे दो लड़के हैं, दोनों ही पढाई कर रहे हैं, मेरा ज़मीन के खरीद-फरोख्त का काम है वहां, छोटा परिवार है, माता जी बड़े भाई के साथ सोनीपत में रहती हैं, कभी मेरे पास भी आ जाती हैं" वे बोले,

"अच्छा" मैंने कहा,

"मैं पानीपत में करीब दो साल पहले आया था, किसी काम के सिलसिले में, यहाँ एक मित्र के साथ ये ज़मीन का काम केया, काम बढ़िया चला, मैंने भी अपना एक मकान बनवा लिया और परिवार को सोनीपत से यहाँ ले आया" वे बोले,

"अच्छा" मैंने कहा,

"गुरु जी, कोई डेढ़ साल भर पहले में एक सौ गज जमीन खरीदी थी सस्ते दाम पर, और अच्छे पैसे मिले तो बेच दी, जिसको बेची, उसके एक महीने में ही उस घर में दो मौत हो गयीं! आखिर उन्होंने वो


   
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श्रीशः उपदंडक
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ज़मीन बेचनी चाही तो मैंने ही खरीद ली, उसके बाद वो ज़मीन या घर को उसको, मैंने एक मुस्लिम परिवार को बेच दी, वहाँ भी ऐसा ही हुआ, उनके परिवार में भी दो मौत हो गयीं एक ही महीने में, कारण दोनों का एक ही था सड़क-दुर्घटना!" वे बोले,

"कुल चार मौतें?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"हैरत की बात है!" मैंने कहा, "गुरु जी, अब वो ज़मीन वापिस मैंने खरीद ली, एक महिना पड़ी रही, मकान अच्छा बना था उस पर, एक परिवार और आया तो उसको मैंने वो ज़मीन बेच दी, गुरु जी फिर वही हुआ, उनके परिवार में फिर से दो मौतें हुईं! कारण वही, सड़क दुर्घटना!" वे बोले,

"ओह!!" मेरे मुंह से निकला, "अब ज़मीन फिर से मेरे पास आ गयी, अब तक अफवाहें ज़ोर पकड़ चुकी थीं, कुल मिलाकर वो मकान मानो जैसे भुतहा, श्रापित और अशुभ हो गया, बाज़ार में बदनाम हो गया, पचास लाख के मकान को कोई बीस लाख में लेने को तैयार नहीं है आज" वे बोले,

"ये समस्या है आपकी?" मैंने पूछा,

"नहीं गुरु जी" वे बोले,

"तो फिर?" मैंने पूछा,

"समस्या तो तब शुरू हुई जब हमने वहाँ पूजा-पाठ करवाया! बहुत विघ्न आये, चलो जी, पूजा भी हो गयी, घर की शुद्धि भी हो गयी, सभी लोग चले गए, पंडित जी भी, रह गए मै और मेरी पत्नी वहाँ और जब मै सामग्री उठा रहा था तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे किसी ने मुझे पीछे गर्दन से पकड़ लिया है और नीचे गिराए जा रहा है, मेरी चीख भी ना निकली! किसी ने मुझे दीवार में इतनी ज़ोर से मारा फेंक कर कि मेरी कोहनी जा दीवार से टकराई तो मेरी कोहनी टूट गयी, इसकी कटोरी टूट गयी!" वे बोले,

अब मुझे उत्सुकता हुई "फिर?" मैंने पूछा,

"तब मेरी चीख निकली! मै चिल्लाया दर्द के मारे, मेरी पत्नी दौड़ी दौड़ी आई वहाँ, मुझे नीचे गिरा देख, और कराहता देख घबरा गयीं, मैंने कहा कि मुझे अस्पताल ले चलो, वो मुझे तभी अस्पताल ले गयीं, डॉक्टर ने जब एक्सरे किया तो कोहनी की कटोरी के नौ हिस्से हो चुके थे! तब वो बदली गयी, धातु से, ये देखिये" उन्होंने मुझे अपनी कमीज़ खोलकर अपनी कोहनी दिखाई, शल्य-चिकित्सा के निशान थे वहाँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बहुत बुरा हुआ ये तो" मैंने कहा,

"गुरु जी, उस दिन के बाद से मै भी समझ गया कि वो मकान भुतहा है, मैं नहीं गया वहाँ उसके बाद से!" वे बोले,

"तो कोई ऊपरी-चक्कर सुलझाने वाले को नहीं बुलाया आपने?" मैंने पूछा,

"बुलाये गुरु जी, बहुत बुलाये, लेकिन कोई टिक नहीं सका!" वे बोले,

"ओह!" मैंने कहा,

"परन्तु हां, एक मौलवी साहब आये थे, उन्होंने बताया कि वहाँ जो कोई भी है वो क्रोधित है, बहुत क्रोधित" वे बोले,

"कौन है वो?" मैंने पूछा,

"ये नहीं बता पाए वो" वे बोले,

"अच्छा " मैंने कहा,

"तब से मकान खाली पड़ा है" वे बोले,

"समझ सकता हूँ मै" मैंने कहा!

"क्यूँ किसी की जान से खेला जाये?" उसने कहा,

"सही बात है" मैंने कहा,

"और कोई बात?" मैंने पूछा,

"हाँ, मेरी पत्नी को स्वपन आते हैं, तभी से" वे बोले,

"कैसे स्वपन?" मैंने नीलम को देखते

"कैसे स्वपन नीलम जी?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, जिस दिन से उस मकान में पूजा हुई, जिस दिन इनकी कोहनी में चोट आई उसी दिन से मुझे रात में, दिन में बुरे बुरे स्वपन आते हैं" वे बोलीं,

"कैसे स्वपन?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मै देखती हूँ कि मेरा परिवार एक कमरे में बंद है, अँधेरा है, हम एक दूसरे से चिपक के बैठे हैं, बाहर कई लोग खड़े हैं, कह रहे हैं, मार डालो सभी को, हम डर जाते हैं, और मेरी नींद खुल जाती है" मैंने कहा,

"वो कमरा कौन सा है?" मैंने पूछा,

"जी उसी नए मकान का" वे बोलीं,

"अच्छा " मैंने कहा,

"और गुरु जी, एक सपना तो बार बार आता है" वे बोलीं,

"कौन सा?" मैंने पूछा,

"मेरे सामने मेरे पति को दो आदमी मार रहे हैं, मेरे पति को बाँधा हुआ है एक पेड़ से, मै चिल्ला रही हूँ और वो मेरे पति को लात, चूंसे मार रहे हैं, मुझे दो आदमियों ने पकड़ा हुआ है" वे बोलीं,

"वो आदमी कैसे हैं?" मैंने पूछा,

शायद कोई सूत्र हाथ आये मेरे!

"गुरु जी, वो लम्बे चौड़े आदमी हैं, सर पर अजीब सी टोपी या फिर साफ़ा बाँध रखा है, देहाती से लगते हैं वो लोग" वे बोली,

"कुल कितने आदमी हैं वहाँ?" मैंने पूछा,

"बस चार" वे बोलीं,

"दाढ़ी है उनके?" मैंने पूछा,

"हाँ, हाँ गुरु जी, है दाढ़ी!" वे बोलीं,

"कपड़े किस रंग के हैं?" मैंने पूछा,

"सफ़ेद रंग के, एकदम सफ़ेद!" वे बोलीं,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"कोई हथियार है उनके पास?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं, कोई हथियार नहीं" वे बोलीं,

"किस बात पर मार रहे हैं? ये सुना आपने?" मैंने पूछा,

"कहते हैं, 'यहाँ कैसे आया'?" वे बोलीं.

"कैसे आया?" मैंने दोहराया और सोच में डूबा,

"एक बात और" वे बोलीं,

"क्या?" मैंने पूछा,

"उनमे से एक बोलता है कि तेरी दो औलाद हैं, वो भी मरेंगी, और ठहाका लगाता है, तभी एन वक्त पर मेरी नींद खुल जाती है!" वे बोलीं,

दो मौतें! हर परिवार में, और अब यहाँ भी दो मौतें! ये तो तय है कि समस्या उसी ज़मीन में है, लेकिन समस्या है क्या? ये प्रश्न मुंह बाये खड़ा था!

अब मै पलटा विनोद की तरफ!

"विनोद जी, काम कैसा है अब आपका?" मैंने पूछा,

"सब चौपट है गुरु जी, सौदे हाथ से निकल रहे हैं, बने बनाए काम बिगड़ रहे हैं, ना जाने क्या हो रहा है, ये ज़मीन बहुत महंगी पड़ी है मुझे" वे बोले,

"हूँ" मैंने कहा,

"जो काम मै नहीं कर पा रहा हूँ वो दूसरे आराम से कर रहे हैं, बड़ी अजीब सी बात है ये" वे बोले.

"और, ऐसा कब से हो रहा है?" मैंने पूछा,

"करीब साल ही समझो, जमापूंजी से ही घर चल रहा है, स्कूल की फीस आदि सभी" वे बोले, "क्या कोई सपना आपको भी आता है?" मैंने पूछा,

"नहीं गुरु जी" वे बोले,

बड़ी अजीब समस्या थी! अभी तक कोई मजबूत सुराग हाथ नहीं लगा था, इनके कहे अनुसार वहाँ कुछ ना कुछ तो है ही, कोई भूत, प्रेत या जिन्न आदि, कुछ ना कुछ ऐसा ही! इसके जानने के दो ही रास्ते थे, या तो कारिंदे को वहाँ भेजा जाए या फिर स्वयं वहाँ जा कर जांच की जाए! तब मैंने विनोद से


   
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श्रीशः उपदंडक
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उनके उस नए मकान का पता ले लिया और शर्मा जी ने लिख लिया. मैंने उनको सख्ती से ताकीद की कि वहाँ कोई ना जाए, ना ही वो मकान बेचें अभी, जब तक कि वहाँ के बारे में पता ना चल जाए!

अब वे उठे, हमारा धन्यवाद किया और विदा हुए! अब शर्मा जी आये मेरे पास, बैठ गए! तब मैंने पूछा,"आप जानते हैं इनको?"

"मेरे एक रिश्तेदार हैं, उन्होंने भेजा है इनको" उन्होंने बताया,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"वैसे क्या समस्या है ये?" उन्होंने पूछा, "सच पूछिए तो मुझे भी नहीं मालूम, आज भेजता हूँ कारिन्दा, तब पता चलेगा" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

"वैसे शर्मा जी, छह मौतें, एक ही मकान से सम्बंधित!" मैंने कहा,

"यही तो हैरत है!" वे बोले,

"ये हैरत से भी बढ़कर है! वहाँ जो कोई भी है, वो गुस्से में है! बहुत गुस्से में!" मैंने कहा,

"ये तो ज़ाहिर ही है" वे बोले,

"अब है क्या? ये देखना है" मैंने कहा,

"हाँ गुरु जी, पता कीजिये" वे बोले,

"आज करूँगा पता" मैंने कहा,

तभी सहायक आया और ठंडाई लाया था!

"अरे दे भाई! सख्त ज़रुरत है इसकी!" शर्मा जी सहायक से बोले!

उन्होंने अपना गिलास खींचा और मैंने अपना!

"आज बेहद गर्मी है गुरु जी" वे बोले,

"हाँ, आज तो खतरनाक गर्मी है" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सहायक ने जग में बची हुई ठंडाई बराबर बराबर हमारे गिलासों में डाल दी! हम वो भी पी गए! "गुरु जी, अब मै चलूँगा, रात को आता हूँ, कुछ काम है कहीं" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

"सामान लेता आऊंगा" वे बोले,

"ठीक है, लेते आना" मैंने कहा,

"साथ में आज कुछ नया लाऊंगा!" वे बोले,

"नया मतलब?" मैंने पूछा,

"मतलब आज यहीं बनायेंगे!" वे बोले,

"ये ठीक रहेगा!" मैंने हंस के कहा,

इसके बाद वो उठे, चाबी उठाई और चले गए!

रात हुई, शर्मा जी आये, सामान ले आये थे, उन्होंने एक सहायक को बुलाया और प्याज आदि काटने के लिए कह दिया, और खुद लग गए अन्य काम में, सहायक प्याज आदि काट लाया, अब चढ़ा दी हांडी शर्मा जी ने! लग गए चमचा हिलाने उसमे! मै उस समय क्रिया-स्थल चला गया और आवश्यक तैयारियां करने लगा, मै बैठा अब अलख में, अलख नहीं उठानी थी, कोई क्रिया भी नहीं करनी थी, बस पता लगाना था कि वहाँ है क्या? मैंने तब अपना कारिन्दा सुजान हाज़िर किया, सुजान हाज़िर हुआ, मैंने उसको उसका उद्देश्य बताया और वो उद्देश्य जान उड़ चला अपने गंतव्य की ओर! कोई पांच मिनट में हाज़िर हुआ! खाली हाथ! कोई खबर नहीं! मैंने उसको वापिस किया. अब मै समझ गया कि ये मामला बेहद संगीन है! कारिंदे का वहाँ से खाली हाथ आने का अर्थ यही था कि वहाँ कारिंदे से भी बड़ी कोई शक्ति है, वास है! लेकिन कौन? खबीस को भेजना वाजिब नहीं था, अब खुद ही जाना सही था! मैंने यही निर्णय लिया और उठ गया वहाँ से! शर्मा जी के पास आया, खाना बन रहा था अभी,

"क्या हुआ गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"कारिन्दा वापिस आ गया खाली हाथ" मैंने बताया,

"क्या?" उन्होंने विस्मय से पूछा,

"हाँ, खाली हाथ" मैंने बताया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब वो भी इसका अर्थ समझ गए!

"इसका मतलब अब जाना ही पड़ेगा वहाँ" वे बोले,

"हाँ शर्मा जी, अब हमे स्वयं वहाँ जाना पड़ेगा, देखते हैं कौन है वहाँ" मैंने कहा,

"कब निकलना है?" उन्होंने पूछा,

"मुझे कल रात को सशक्तिकरण करना है, तो परसों निकलते हैं" मैंने बताया,

"ठीक है" वे बोले,

"कोई बड़ी ही ताक़त है वहाँ" वे बोले,

"हाँ, नहीं तो सुजान ऐसे हार मानने वाला नहीं है" मैंने कहा,

"सही बात है" वे बोले और ढक्कन खोल कर सामान की जांच की!

"अभी क़सर है?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

मैं वहाँ से पलटा और अपने कक्ष में आ गया, अपना सामान खोला और कुछ सामग्री निकाली, इसमें एक माला थी, एक सिद्ध माला, वही चाहिए थी मुझे, कल इसको जागृत करना था और फिर धारण करना था! |

तभी शर्मा जी आ गए! दो कटोरे लेकर!

"लीजिये गुरु जी, कलेवा-ए-ख़ास!" वे बोले, "वाह! खुश्बू तो कमाल की है!" मैंने कहा,

"ज़ायक़ा भी कमाल का होगा गुरु जी!" वे बोले,

मैंने चख कर देखा! वाकई में ज़ायका कमाल का था! अब शर्मा जी ने निकाली बोतल और गिलास में डाल कर महफ़िल सजा दी! आराम आराम से पीने लगे हम!

"वैसे गुरु जी, क्या हो सकता है वहाँ?" उन्होंने पूछा,

"भूत-प्रेत, जिन्न आदि तो वहाँ है नहीं, हाँ कोई पीर हो सकते हैं, गुस्सैल पीर, किसी बात पर ख़फ़ा हों शायद" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ओह! पीर बाबा!" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"फिर तो टेढ़ी खीर है ये मामला" वे बोले,

"हाँ, टेढ़ी तो है ही" मैंने कहा और अपना गिलास ख़तम किया,

"पीर बाबा किसी की जान क्यों लेंगे?" उन्होंने पूछा,

"यही तो मैं सोच रहा हूँ" मैंने कहा,

"अगर गुस्से में हैं तो भी जान तो नहीं लेंगे" वे बोले,

"हाँ, सही बात है" मैंने कहा,

"बड़ी अजीब सी बात है, छह मौतें!" वे बोले,

"है तो अजीब ही" मैंने कहा,

"बेचारे मासूम मारे गए" वे बोले, "हाँ, सभी सड़क-दुर्घटना में" मैंने कहा,

"बड़े अफ़सोस की बात है" वे बोले,

"इसीलिए शीघ्र ही जाना पड़ेगा!" मैंने कहा,

"ठीक है, परसों निकलते हैं हम" वे बोले,

"ठीक" मैंने कहा,

हम आराम से खाते-पीते रहे! देर रात तक!

रात्रि समय खा-पीकर सो गए हम! खाना बढ़िया बनाया था शर्मा जी ने! तसल्ली हो गयी थी! सुबह उठे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए और आ बैठे बाहर कुर्सियों पर, सहायक चाय ले आया तो चाय पीने लगे! चाय पी, चाय पीने के बाद थोडा टहलने गए, फूलों को देख कर जी खुश हो जाता है! और फिर गैंदे के फूल मुझे बहुत अच्छे लगते हैं! उनकी खुश्बू का कोई सानी नहीं! मधु-मक्खियाँ और भँवरे लग गए थे अपने अपने दैनिक-कर्मों पर! गुलाब के फूल भी खिले हुए थे! हवा में लहराते हुए गैंदे के फूलों से मुकाबला कर रहे थे! "शर्मा जी, आज दे गा मै, आज कुछ विद्याएँ और मंत्र जागृत कर लूँगा" मैंने कहा,

"जी ठीक है" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"और कल चलते हैं यहाँ से पानीपत" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

अब हम वापिस हुए! "गुरु जी, अब मै चलूँगा" वे बोले,

"ठीक है, रात को आओगे या नहीं?" मैंने पूछा,

"आ जाऊँगा, कुछ विशेष तो नहीं लाना?" उन्होंने पूछा,

"नहीं, कुछ विशेष नहीं" मैंने कहा,

हम वापिस आये तो उन्होंने अपनी चाबियाँ ढूंढ कर अपनी जेब में रख ली और फिर नमस्कार करते हुए चले गए वहाँ से! अब मै अपने कक्ष में जाकर कुर्सी पर बैठ गया, कुछ सामान निकाल एक बैग से और कुछ आवश्यक वस्तुएं निकल ली उसमे से, इन सभी की आवश्यकता पड़ने वाली थी वहाँ, ना जाने किस से साक्षात्कार हो वहाँ! कोई वार हुआ तो झेलना भी था! तंत्राभूषण में ये भी पिरोने थे! सामान निकाल कर व्यवस्थित किया और चल पड़ा क्रिया-स्थल में, जाकर वहां रख दिया वो सामान, फिर बाहर आ गया, अब तक गर्मी का प्रकोप शुरू हो चुका था! मैं अपने कक्ष में जाकर लेट गया, दो चार फ़ोन आये तो वो भी सुने! फिर सहायक शिकंजी ले आया, शिकंजी पी और फिर लेट गया!

तभी शर्मा जी का फ़ोन बजा, मैंने फ़ोन उठाया, शर्मा जी ने बताया कि विनोद का आज एक्सीडेंट होते होते बचा है, अगर सड़क किनारे रेत और बदरपुर नहीं होता तो गंभीर दुर्घटना हो जाती, विनोद के अनुसार उसको उसकी मोटरसाइकिल पर से पीछे से किसी ने धक्का दिया था! उसे शक है कि इस घटना का सम्बन्ध उसी मकान से है, वो सभी बहुत डर गए हैं, और शर्मा जी ने उनको ये बता दिया है कि हम लोग कल आ रहे हैं उनके पास!

खबर घबरा देने वाली थी! विनोद के साथ भी ऐसा अब बाहर होने लगा था, इसका अर्थ वो शक्ति या ताक़त चिढ गयी थी विनोद से! लेकिन कारण क्या है? समझ नहीं आ रहा था, अब मुझे रात्रि-समय का इंतज़ार था, बेसब्री से, दिन कटा और शाम आई, शर्मा जी भी कोई आठ बजे आ गए, साथ में मदिरा लाये थे, उन्होंने थोडा आराम किया, सहायक को बुलाया और कुछ सलाद कटवा लिया उस से! और तब मै और शर्मा जी सलाद खाते हुए मदिरा भोग करते रहे! दिन में जो फ़ोन आया था विनोद का उसी विषय में बात करने लगे! अभी बातें कर ही रहे थे कि फिर से शर्मा जी के फ़ोन पर विनोद का फ़ोन आया, विनोद ने बताया कि उसके रसोईघर में अभी अभी आग लग गयी थी अपने आप! गैस-सिलिंडर बंद था, बच गए इसीलिए, बड़ी मुश्किल से आग बुझाई उसने और पड़ोसियों ने आकर! ये भी बुरी खबर थी! शर्मा जी ने विनोद को दिलासा दी, हिम्मत बंधाई और फ़ोन काट दिया!

"गुरु जी, एक दिन में दो बार ऐसा हुआ इसके साथ!" वे बोले,

"हाँ" मैंने गर्दन हिलाई,

"वहीं कारण?" उन्होंने पूछा, "हाँ, कोई नहीं चाहता कि हम वहाँ जाएँ!" मैंने बताया,

"ऐसा?" उन्होंने विस्मय से पूछा,

"हाँ, अब एक बात तय है, सामने जो भी है वो बहुत ताकतवर और जुझारू है!" मैंने बताया!

"ओह!" उनके मुंह से निकला,

अब हमने मदिरा निबटाई,और मै चला स्नान करने, स्नान किया और क्रिया-स्थल में गया, वहाँ आसन लगाया, अलख उठाई और अलख भोग दिया, फिर एक एक करके सभी मंत्र और विद्याएँ जागृत कर लीं मैंने! सारे तंत्राभूषण और वो माला प्राण-पोषित कर दी! ये माला मेरे दादा श्री की हैं! करीब तीन घंटे लगे इसमें, अब मै उठा और सीधा अपने कक्ष में गया! शर्मा जी सो गए थे, मैंने जगाना उचित ना समझा उन्हें, मैं भी पांव पसार सो गया!

सुबह मै जब उठा तो शर्मा जी नित्य-कर्मों से फारिग होकर बैठे थे, मै उठा और स्नानादि से निवृत होने चला गया, वापिस आया, वहीं कुर्सी पर बैठा, सहायक चाय ले आया, चाय पीने लगे हम!

"हो गया कार्य पूर्ण?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"ठीक है, अब कब निकलना है?" उन्होंने पूछा,

"चलते हैं करीब नौ बजे" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी" वे बोले,

चाय ख़तम की, विनोद को इत्तला कर दी कि हम यहाँ से नौ बजे निकल रहे हैं, सीधा उसी के घर आयेंगे, वो कहीं ना जाए वहां से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर बजे नौ! मैंने अपना बैग उठाया और गाड़ी में रख दिया, शर्मा जी और मै कूच कर गए तभी पानीपत के लिए! एक ठेके से दो मदिरा की बोतल भी लेकर डाल ली हमने!

"अब देखते हैं क्या बला है वहाँ" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

"पहले विनोद के घर, फिर सीधा उस मकान पर!" मैंने कहा,

"ये ठीक है" वे बोले,

"मै उसका घर भी जाँच लूँगा" मैंने कहा,

"हाँ" वे बोले,

"कहीं कोई अला-बला तो नहीं घुस गयी, ये पता चल जाएगा" मैंने कहा,

"कल वैसे ही दो बार बचे हैं वो" वे बोले,

"इसीलिए मैंने कहा" मैंने जवाब दिया,

"फंस गया ये बेचारा" वे बोले,

"हाँ, फंस तो गया ही है" मैंने जवाब दिया,

सामने लाल-बत्ती हुई तो हम ठहरे वहाँ!

और फिर हम रुकते-रुकाते, भीड़-भाड़ से निकलते हुए पहुँच ही गए पानीपत! विनोद को फ़ोन किया गया, विनोद ने स्थानीय चिन्ह बताये और हम वैसे ही आगे बढ़ते रहे, और फिर पहुँच गए हम विनोद के पास! नमस्कार हुई और फिर विनोद ने मेरा बैग उठाया, मेरे मना करने के बावजूद भी! घर में घुसे तो नीलम हमे मिलीं अपने दोनों बेटों की साथ, चेहरे पर भय व्याप्त था उनके, हम अन्दर बैठे, पानी आया तो पानी पिया, उसके बाद उन्होंने चाय तैयार करवा दी, चाय पी! उसके बाद उन्होंने गत रात्रि के विषय में बताया कि कैसे अपने आप ही रसोईघर में आग लग गयी थी! मैंने स्वयं रसोईघर देखा, वहाँ निशान अभी तक पड़े थे, प्लास्टिक जल कर अभी भी चिपकी थी वहाँ, आग अवश्य ही वीभत्स रूप ले सकती थी यदि बुझाई न गयी होती तो! अब मै वापिस आ कर बैठा, अब नीलम ने कुछ कहना चाहा,

"बोलिए नीलम जी" मैंने कहा,


   
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"गुरु जी, कल मुझे सपना आया, डरावना सपना" वे बोलीं,

"क्या सपना?" मैंने पूछा,

अब उन्होंने अपने बेटों को हटाया वहाँ से,

"एक लम्बा-चौड़ा बाबा सा है, उसके आसपास उसके चेले चपाटे हैं, सभी के हाथ में शराब है, सभी पी रहे हैं, नाच रहे हैं, मुझे वहाँ तभी दो औरतें घसीट कर लायीं और बाबा ने ठहाका लगाया" वे बोलीं,

"चेले चपाटे कैसे हैं?" मैंने पूछा,

"सभी ने सफ़ेद कपड़े पहने हैं, कुर्ते जैसे" वे बोलीं,

"और औरतें?" मैंने पूछा,

"वे नग्न हैं" वे बोलीं,

नग्न हैं? यदि नग्न हैं तो मामला बेहद संगीन हैं! इसमें कोई शक नहीं! ये तंत्र की एक शाखा है, अब लुप्तप्राय सी है, कुछ जगहों पर आज भी हैं, कहीं कहीं,

"अच्छा, और बाबा के बारे में बताओ ज़रा" मैंने पूछा,

"बाबा ने एक चोला सा पहना हैं, कमर पर हड्डियां लटकी हैं, छाती खुली है, मालाएं ही मालाएं पहनी हैं, जटाधारी है" वे बोलीं,

"अच्छा, जब वो आपको घसीट कर लाती है तो कहाँ लाती हैं?" मैंने पूछा,

"मुझे, बाबा के सामने खींच कर पटक देती हैं" वे बोलीं,

"अच्छा! फिर?" मैंने उत्सुकता से पूछा,

"बाबा मुझे बालों से पकड़कर उठाता है और तमाचे मारता है, और कहता है 'जान से मार दूंगा यदि होशियार बनी तो, तुझे तेरे पति और बेटों के साथ जला के भस्म कर दूंगा' मै डर जाती हूँ, और औरतें मुझे उठाकर ले जाती हैं, और तभी मेरी नींद खुल जाती है" वे बोलीं,

ये तो चेतावनी है! उस बाबा की चेतावनी! नीलम के द्वारा चेतावनी दिलवाई है बाबा ने!

"कोई बात नहीं, आप घबराइये नहीं" मैंने कहा,


   
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तभी विनोद बाहर गए, घंटी बजी थी घर की, कोई मिलने आया था, मिलकर वो वापिस आये और बैठ गए,

"क्या बताऊँ गुरु जी, हमने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया, ना जाने कैसे फंस गया मै उस ज़मीन के मामले में, ज़मीन अब पूरी तरह से बदनाम हो चुकी है, कोई लिवाल नहीं उसका" वे बोले,

"समस्या तो अवश्य है वहाँ, खैर, हम वहीं चलते हैं" मैंने कहा,

"चलिए गुरु जी" विनोद ने कहा,

तभी नीलम ने खाने के लिए पूछा तो मैंने बाद में कह कर बात टाल दी,

अब मै और शर्मा जी, विनोद के साथ चल पड़े उसी मकान की तरफ! वो अधिक दूर नहीं था, कुछ ही समय में हम वहाँ पहुँच गए!

विनोद ने चाबी निकाल कर घर का गेट खोला, आसपास के लोग हमे उत्सुकता से देखने लगे, शायद हम खरीदार हैं उस मकान के यही सोच रहे होंगे वे! गेट खुला, हम अन्दर घुसे, अन्दर घुसते ही मुझे ऐसा लगा जैसे अन्दर आग लगी हुई हो और उस आग में मांस भूना जा रहा हो! मैंने शर्मा जी और विनोद को वहीं रोका, मैंने तभी कलुष-मंत्र जागृत किया और अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए, अब मैंने विनोद से चाबी ली और उसे बाहर भेज दिया, मै नहीं चाहता था किसी प्रकार की भी खुटीक हो! अब मैंने ताला खोला, वापिस कुंदे में लगाया, अब दरवाज़ा खोला, अन्दर अँधेरा सा था, परन्तु दिखाई दे रहा था, मै उस तरफ बढ़ा जहां से वो ताप और गंध आ रही थी! ये एक बड़ा सा कमरा था, मैंने उसका दरवाज़ा खोला, दरवाज़ा खोलते ही भभका आया गर्मी का और दुर्गन्ध! मैंने उस कमरे की बत्ती जलाई, और बत्ती जलाते ही सामने अजीब सा नज़ारा देखा! कमरे में मिटटी की ढेरियाँ बनी थीं, वहाँ दीमक, कानखजूरे काले और सफ़ेद रंग के रेंग रहे थे, दीमक अपने अंडे ले जा रही थीं! बिच्छु अपना डंक उठाये घूम रहे थे! हमे देख एक क़तार सी बना कर खड़े हो गए! ये सब प्रबल माया थी! मेरे एक मंत्र से सब स्वाहा हो जाता वहाँ! परन्तु रहस्य यहीं था, इसी मकान में! यह सिद्ध हो गया था! अब हम वहाँ से बाहर निकले, दूसरे कमरे में गए, वहाँ भी ऐसा ही माहौल था! कानखजूरे घूम रहे थे! हरे, काले, सफ़ेद! छिपकलियों के टूटे अंडे पड़े थे! छोटी छोटी छिपकलियाँ दीवारों पर चढ़ीं थीं! मै वहाँ से भी बाहर निकला, एक और कमरे में गया, वहाँ भी यही माहौल! फिर से बाहर आया, मकान के पिछले हिस्से में! वहाँ आते ही मेरे शरीर में पीड़ा आरम्भ हुई, ये वहाँ बिसरी हुई शक्ति का प्रभाव था, मैंने एक मंत्र पढ़ा और पीड़ा को शांत किया! तभी मेरी निगाह भूमि के अन्दर गयी! वहाँ पत्थर की हौदी


   
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श्रीशः उपदंडक
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थी, ज़मीन में कोई पंद्रह फीट नीचे! ये हौदी है या कोई समाधि? मै सोच में डूबा तब! मैंने महामंत्र पढ़ा, और जांच करने के लिए वहाँ की मिट्टी उठाई और फिर वहीं फेंकी! मिट्टी जस की तस रही! महामंत्र विफल हो गया उसी समय! अब मेरा हैरान हो जाना कोई आश्चर्यजनक नहीं था! यहाँ टक्कर थी, प्रबल टक्कर!

अब मै वापिस आया वहाँ से! बाहर निकला, ताला लगाया और विनोद की गाड़ी में आ बैठा!

मै गाड़ी में आके बैठा तो विनोद ने जिज्ञासावश पूछा, "कुछ पता चला गुरु जी?"

शक्तिशाली है यहाँ वो जो कोई भी है" मैंने कहा,

वो घबराए अब!

तब मैंने सबकुछ बता दिया विनोद को, विनोद को जैसे सांप सूंघ गया! बस चीख मारने की देर थी।

"आज रात को आऊंगा मै यहाँ, करीब दस बजे" मैंने कहा,

"जी गुरु जी" विनोद ने कहा और अब गाड़ी स्टार्ट की, हम बढ़ चले उनके घर की तरफ, घर पहुंचे तो खाना तैयार मिला, हाथ-मुंह धो कर खाना खाया और फिर आराम करने चले गये एक कक्ष में जहां हमारा ठहरने का प्रबंध किया गया था! मैं जा लेटा बिस्तर पर, कुछ थकान तो थी ही और कुछ मस्तिष्क उलझा हआ था उस मकान में! मैंने आज तक ऐसा कहीं नहीं देखा था, न ऐसा कोई टकराया था मुझसे! इस बार द्वन्द समान ही था, या यूँ कहो कि मेरा पलड़ा हल्का था, क्यूंकि मै अभी तक उस 'वास' के बारे में नहीं जान पाया था, बस इतना ही जितना मुझे नीलम के सपनों ने बताया था! खैर, अब मै आगे बढ़ चुका था, पीछे हटने का सवाल ही नहीं था, तभी शर्मा जी ने प्रश्न किया, "गुरु जी, क्या हो सकता है वहाँ?"

"अभी नहीं पता मुझे" मैंने कहा,

"वहाँ कितना भयानक माहौल है गुरु जी" वे बोले,

"हाँ! सो तो है" मैंने कहा,

"मुझे कोई तांत्रिक लगता है ये कोई" उन्होंने संशय जाहिर किया,

"हो भी सकता है" मैंने कहा,

"अब तक वही है, इसका अर्थ वहाँ या तो इसकी समाधि है या फिर इसका स्थान" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"हाँ ऐसा ही कुछ है" मैंने कहा, "तो आज रात दस बजे चलेंगे हम?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

दरअसल मै कुछ सोच रहा था, गहन चिंतन में था, इसीलिए हां, हूँ में उत्तर दे रहा था, शर्मा जी ने ये भांपा और वे चुप हो गए, अपने बिस्तर पे जा लेटे! और मै खो गया विचारों में, कोई अठारह वर्ष पहले चला गया, मुझे मेरे दादा श्री का एक एक शब्द सुनाई देने लगा! एक एक निर्देश और एक एक दिशा-ज्ञान! सहसा, मुझे ध्यान आया कि उन्होंने मुझे एक औघड़ के संग भेजा था, कुछ सीखने के लिए! हाँ, याद आया! अब मेरे चेहरे पर रौनक आई और नेत्रों में दादा श्री की स्मृति से आंसू!

मै विचारों में खोता-खाता सो गया, गहरी नींद में!

जब आँख खुली तो सात बजे थे! मै स्नान करने गया, स्नान किया और फिर वस्त्र पहन कर अपना बैग खोला, बैग में से अपने तंत्राभूषण निकाले, स्वयं धारण किये और शर्मा जी को भी धारण करवाए! फिर मैंने एक पोटली खोली, उसमे से वो माला निकाली, खास माला, और मंत्र पढ़ते हुए मैंने वो धारण कर ली! कुछ मंत्र जागृत किये और अघोर-पुरुष और अपने गुरु को नमन किया! अब तक आठ बज चुके थे, खाने को मैंने मना कर दिया था, खाने से डकार आती, डकार आती तो मंत्र टूटता, मंत्र टूटता तो सांस टूट जाती! मैंने कुछ और सामग्री निकाली और अपनी जेब में रख ली! अब आराम से बैठा और रणनीति बनाने लगा, तब चाय अ गयी, चाय पी और फिर कोई एक घंटे के बाद मैंने मदिराभोग किया! अब ताम-विद्या जागृत की, यमत्रासविद्या पोषित की, प्राण-रक्षण एवं देह-रक्षण मन्त्रों से अपनी और शर्मा जी की देह पुष्ट की! अब चले हम उस मकान की ओर! मैंने विनोद को बुलाया और हम चल पड़े वहाँ से! वहाँ पहुंचे, मैंने विनोद से चाबियाँ ली और गेट खोला! गेट खोलते ही 'घुम्म घुम्म' की आवाजें आने लगीं! मैंने और शर्मा जी ने अन्दर प्रवेश किया, मकान काफी बड़ा था ये, मैंने कलुष-मंत्र जागृत किया

और अपने एवं शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! अब हम कमरे में घुसे, वहाँ रेंगते, कीड़े-मकौड़े, कानखजूरे, दीमक, छिपकलियाँ ताम-विद्या के प्रभाव से भस्म होने लगे, लोप होने लगे! मै सीधा चलता हुआ मकान के पीछे वाले स्थान पर आया! वहाँ एक औरत का कटा हुआ सर पड़ा था! उसके बाल रक्त-रंजित थे, आँखें अधखुली थीं, और मांस के लोथड़े उसके इर्द-गिर्द पड़े थे! हाँ धड नहीं था उसका वहाँ! मै आगे बढ़ा और उस सर को एक लात मारी, सर लुढका और उसकी आँखें खुल गयीं!

"जा, भेज अपने मालिक को यहाँ!" मैंने कहा,


   
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