वर्ष २०१० नॉएडा कि ...
 
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वर्ष २०१० नॉएडा कि एक घटना.

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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Joined: 2 years ago
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अब मैंने अपनी अलख उठायी! अलख भोग समर्पित किया! भोग-थाल सम्मुख रखे! और यम-रूढ़ा का जाप किया! आधा घंटा बीता! वातावरण में परिवर्तन आ गया! वायु-संचार थम गया! उल्लू आने लगे वहाँ उस पेड़ पर! ये पेड़ पिलखन का है! उल्लू रोने लगे वहाँ! अलख भड़क रही थी और मै जाप करने में मग्न था!

रात्रि सवा दो बजे यम-रूढ़ा के सेवक उतरे! साफ़-सफाई आरम्भ हुई! फिर सेविकाएँ उतरीं एक एक करके! उन्होंने भी साफ़-सफाई की, भूमि को रक्त से लीपा! अब सन्नाटा छाया! हर सजीव प्राणी वहाँ शिथिल हो गया! व्योम से एक प्रकाश पुंज उत्पन्न हुआ! उसका आकार बढ़ा! मैंने अपना त्रिशूल उठाया और एत्र्हास-विद्या का जाप करना आरम्भ कर दिया! इस विद्या से डाकिनी कितनी भी शक्तिशाली हो आपका कोई अहित नहीं कर सकती! कुछ ही क्षण में रजत-सिंहासन प्रकट हुआ और उस पर प्रकट हुई यम-रूढ़ा!

वो आगे बढ़ी! मैंने मंत्रोच्चार बंद कर दिया! मै अपने आसन से उठ गया! यम-रूढ़ा के सेवक और सेविकाएँ उसको घेर के खड़े हो गए! डाकिनी और आगे आई! उसका सिंहासन भी आगे बढ़ा! काल-रुपी यम-रूढ़ा मेरी एत्र्हास-विद्या भांप गयी! अब सिंहासन पर ही कड़ी हो गयी! और गर्जन करते हुए बोली, "कौन है तू?"

"चांडाल कित्रांग!!" मैंने कहा,

डाकिनी ने पलकें पीटीं अब!

"कित्रांग का खिंडा कहाँ?" उसने पूछा,

"काले ढोर के पास!" मैंने कहा,

उसने ये सुन के अट्टहास लगाया!

और फिर बोली," तिक्ता ख्चीड़ी योमाष!!"

अर्थात मेरे भोजन का प्रबंध हो गया!

"तेराल कलीची भोमाष!" मैंने अपना त्रिशूल लहराते हुए कहा,

अर्थात बिना जंग के हम घुटने नहीं टेकते!

डाकिनी हुई अब क्रोधित!

"द्राक्ष खिड़ना भूंडी अलोमा!" उसने कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अर्थात तेरे जैसे साधक का रक्त मीठा होता है!

मै चाहता तो उस डाकिनी को ऐसा पाठ पढाता कि दुबारा मेरे सामने नहीं आती! परन्तु मुझे इन्द्राल को हाज़िर करवाना था, बस यही कारण था!

"ऐन्द्रिक्श खुय्र्त्गा भोमाला!" मैंने कहा,

अर्थात जो बस में हो कर ले!

डाकिनी को आया क्रोध! आई नृत्य-मुद्रा में!

और फिर लोप हो गयी!

अब इन्द्राल का आने का समय था! और मै यही चाहता था! यम-रूढ़ा लोप हो गयी थी! मैंने उसको क्रोधित कर दिया था! अब इन्द्राल आने वाला था! महा-भट्ट महाप्रेत! और मै यही चाहता था! कुछ क्षण बीते! अतिक्रंदन करता हुआ अब इन्द्राल प्रकट हुआ! कम से बारह फीट का इन्द्राल मुझे दोगुना था! प्रक्स्त होते ही वो अपने गंतव्य की ओर अर्थात मेरी ओर बढ़ा! मेरे समीप आते ही वो रुका! पीछे हटा! उसने मेरी तामस-विद्या की गंध ली और वहीँ रुक गया!

"कौन है तू?" उसने पूछा,

"चांडाल कित्रांग!" मैंने जवाब दिया!

उसने सुना और चुप हो गया! वो वहीँ डटा हुआ था! डाकनी का आदेश मानना था उसे! पालन करना था!

"इन्द्राल! यदि मै चाहूँ तो तुझे भी तोड़ सकता हूँ" मैंने कहा और अपने त्रिशूल उठाया!

उसने अट्टहास लगाया! और बोला, " मुझे जानता है मै कौन हूँ?"

"हाँ! जानता हूँ! तू यम-रूढ़ा का सेनानायक है!" मैंने कहा,

"फिर भी भय नहीं?" उसने गुस्से से कहा!

"भय और तुझसे?" मैंने कहा और मदिरा का प्याला गटक लिया!

उसको भयानक क्रोध आया और कुछ बड़बडाता हुआ मेरी ओर बढ़ा! मैंने अब भ्रू-विक्ष-मंत्र पढ़ा! वो ठहरा! फिर से रुक गया! उसे हैरानी हुई! मेरी जगह कोई और होता तो उसके तीन टुकड़े कर देता!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"क्या हुआ इन्द्राल?" मैंने पूछा और मुस्कुराया!

"तू है कौन??'' उसने गुर्रा के पूछा!

"बताया ना कि मै चांडाल कित्रांग हूँ!" मैंने कहा,

"नहीं! झूठ बोलता है तू" उसने क्रोध से कहा!

"सच बताया मैंने!" मैंने कहा,

"मै तुझे नहीं छोडूंगा, चाहे तो कोई भी हो" उसने कहा,

"अच्छा? क्या करेगा?" मैंने अपना त्रिशूल उसको दिखाते हुए कहा!

"तेरा रक्त पिऊंगा मै! अपनी क्षुधा शांत करूंगा मै" उसने क्रोध से कहा!

"अच्छा! तो रुक इन्द्राल! मै अब तुझे बताता हूँ मै कौन हूँ!" मैंने कहा और मै अपने आसन पर बैठ गया! अब मैंने कपाल-मालिनी का आह्वान किया! कपाल-मालिनी का आह्वान-जाप सुन उसके सेवक और सेविकाएँ वहाँ से लोप हुए! इन्द्राल वहीँ डटा रहा!

कुछ ही क्षणों में कपाल-मालिनी प्रकट हुई! भयानक अट्टहास करती हुई! मनुष्य-अंगों से सुसज्जित कपाल-मालिनी अपना श्वास-गुंजन कर रही थी! ये कपाल-मालिनी शत्रु-भंजन मंत्र की अधिष्ठात्री शक्ति है! अमोघ वार करती है! मैंने उसको नमन किया!

वहाँ! वहाँ इन्द्राल खड़ा खड़ा निरंतर कपाल-मालिनी को देख रहा था! मैंने इन्द्रालको देखा वो भय का मारा दिख रहा था!

मैंने अब कपाल-मालिनी को वापिस भेज दिया! भयानक शोर करती हुई वो लोप हो गयी! अब मै उठा और मुडा इन्द्राल के ओर! वो चुपचाप खड़ा था!

"इन्द्राल! देखा तूने? मैंने अपना परिचय दे दिया! मै चाहता तो तेरी डाकिनी को भी क़ैद कर लेता! लेकिन मै किसी का अहित नहीं चाहता! ना डाकिनी का और ना ही तेरा!" मैंने कहा,

इन्द्राल खड़ा खड़ा सब सुने जा रहा था! अब मै फिर से नीचे बैठा और इन्द्राल से कहा, "इन्द्राल! जो तेरा कर्म है जो तेरा कर्त्तव्य है वो तू करता है! और मेरा कर्त्तव्य है वो मै निभाता हूँ! मेरा एक काम है बाकी, बोल करेगा?" मैंने उस से कहा,

"क्या काम है?" इन्द्राल ने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अब उसे मेरा सामर्थ्य पता चल गया था!

"वो देख! वो लड़का तेरा मारा हुआ है, जा उसको ठीक कर दे! वापिस ले ले अपना प्रहार!" मैंने उस से कहा और मोहन की ओर इशारा किया!

इन्द्राल ने मोहन को देखा और फिर मोहन तक गया! और अपना प्रहार वापिस ले लिया!

"जा! अब जा सकता है तू!" मैंने कहा!

इन्द्राल को जैसे क़ैद से मुक्ति मिली! वो भम्म की आवाज़ करते हुए लोप हो गया!

मै अब उठा वहाँ से! अलख को नमन किया! और मदिराभोग दिया! फिर उठकर मोहन तक गया! मोहन शिथिल पड़ा हुआ था!

मेरा कार्य पूर्ण हो चुका था! मै वहाँ से चला अब अपने उस स्थान की ओर जहां मोहन के माँ बाप बैठे थे! प्रतीक्षारत! अपने बेटे के सलामती की प्रार्थनाएं करते हुए!

मै थक गया था इसीलिए धीमे धीमे चलते हुए मै वहाँ आया और उनको बता दिया कि अब मोहन ठीक है! वो भागे उसकी तरफ! शर्मा जी उनके साथ गए! मोहन से लिपट कर उसके माँ बाप रो पड़े! मोहन अचेत था! अब उसको जब भी होश आना था वो एक दम ठीक हो जाना था!

और यही हुआ!

मोहन को होश आया, उसने अपने चारों तरफ देखा और फिर अपने माँ बाप से लिपट कर रो पड़ा! फफक फफक कर उसके माँ बाप भी रो पड़े! उनका बेटा अब बिलकुल ठीक हो गया था!

मित्रगण! ये होता है अर्ध-ज्ञान का फल! बिना पूर्ण हुए कभी भी ऐसी साधन अथवा प्रयोग नहीं करना चाहिए! कदापि नहीं!

एक हफ्ते के बाद मोहन का परिवार मेरे पास आया मोहन को लेकर! मैंने मोहन को समझा दिया एकांत में ले जा कर! उसने फिर भी रूबी के बारे में बात की! मै उसकी इसमें कोई मदद नहीं कर सकता था अतः मैंने मना कर दिया!

ये बात मैंने मोहन के माँ बाप को बता दी थी! अब वो जानें और मोहन!

जो मै कर सकता था कर दिया था! आगे उसका भाग्य!

----------------------------------साधुवाद---------------------------------


   
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