वर्ष २०१० नॉएडा कि ...
 
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वर्ष २०१० नॉएडा कि एक घटना.

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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण! तंत्र-मंत्र के प्रति लोगों में जहां भ्रांतियां फैली हैं, वहाँ रूचि भी है! परन्तु लोग तंत्र एवं मंत्र के विषय में एक सीमा तक ही जानते हैं! उस से अधिक नहीं! उस से अधिक के लिए पुस्तकें, इन्टरनेट आदि खंगालते हैं! कभी अधिक जिज्ञासा हुई तो चले कोई गुरु ढूँढने! गुरु मिला लेकिन ज्ञान न मिला अब! हुई खीझ! अथवा कोई ऐसा कर्म करना पड़ गया, जो गुरु ने बता दिया, कि घिन्न आ गयी! या फिर कर नहीं सके! तो कैसे मिले ज्ञान? ऐसे ही लोग जब असफल हो जाते हैं तब तंत्र के विरुद्ध हो जाते हैं! बकने लगते हैं

अनाप-शनाप! जो समझ नहीं आया वो गलत हो गया!

खैर छोडिये! एक अनुभव 

 

लिखा रहा हूँ मै यहाँ इसी विषय पर! वर्ष २०१० एक लड़का था, नाम था मोहन! नॉएडा में रहा करता था! उसके पिता जी का अपना व्यवसाय था दिल्ली में, इसीलिए धन आदि की कोई कमी नहीं थी उसको! ऐशो-आराम की जिंदगी जीना उसका शौक था! एय्याशी करना, घूमना आदि आदि शौक! वो एक लड़की से प्यार करता था, नाम था रूबी, रहती थी ये लड़की दिल्ली में! उसके पिता एक नामी-गिरामी वकील थे! रूबी एम.बी.ए. कर रही थी! और ये मोहन अपनी पढाई वहाँ से छोड़ चुका था और अब अपने पिता के साथ ही काम करता था, लेकिन उसने रूबी से मिलना न छोड़ा था! मिलना क्या बस देखने आता था! लेकिन रूबी सिर्फ उस से हेल्लो आदि ही बोलती थी अधिक कुछ नहीं! रूबी पढ़ाकू लड़की थी! सुसंस्कृत परिवार से सम्बन्ध रखती थी! अतः आलतू-फ़ालतू के काम में उसकी कोई रूचि न थी! घर से संस्थान और संस्थान से घर! बस!

मोहन वहाँ रोज आता! लेकिन रूबी बात ही नहीं करती, कभी कभी तो नज़रें भी न मिलतीं दोनों की! और अगर कभी मिल भी जातीं तो बस वही एक छोटा सा शब्द हेल्लो! मोहन उसी के ख्यालों में डूबा रहता! दिन रात! उसको देखना एक बार दिन में रोज उसका नित्य नियम बन गया था! वो मरे जा रहा था एकतरफ़ा मुहब्बत में और वहाँ रूबी उस पर ध्यान ही नहीं देती थी! बड़ी विकट स्थिति थी उसकी! काम में भी मन न लगता उसका! उसने हर संभव कोशिश की रूबी का ध्यान आकर्षित करने की लेकिन कुछ भी न हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कहाँ जाए! क्या करे! सब बेकार! किसी को क्या बताये! काम में भी मन न लगे! वो संस्थान तक जाए, गाडी रोके और एक नज़र भर रूबी को देखे! रूबी उसके सामने से गुजर जाए और उस पर ध्यान ही न दे!

एक बार की बात है, उसकी गाडी के टायर में पंक्चर हो गया, गाडी में पंक्चर लगवाने के लिए एक पंक्चर की दुकान पर रुका! पंक्चर जब लग रहा था, तब उसने वहाँ रखा एक अखबार उठा लिया! थोड़ी देर उसके पृष्ठ टटोले और एक जगह जाके उसकी निगाह रुक गयी! वहां एक विज्ञापन था 'मनचाहा काम करवाएं, मूठकरनी, वशीकरण' उसने वहाँ से दो नंबर नोट करके लिख लिए और अपनी जेब में रख लिए!

रात के समय उसने वहाँ फ़ोन किया! फ़ोन किसी आदिल बाबा ने उठाया! मोहन ने उसको काम बताया और कुछ प्रश्न भी किये! बात तय हो गयी! अगले दिन मोहन उस आदिल बाबा के पास दिल्ली चला गया! पहले उसने फ़ोन किया आदिल बाबा को! आदिल बाबा ने उसको बुला लिया! मोहन अन्दर चला गया! अन्दर तंत्र-मंत्र का माहौल बना रखा था बाबा ने! बड़े बड़े फोटो! तस्वीरें, कुछ अजीब सा सामान! कुछ शीशीयों में भरा द्रव्य! और खुद ने पहना हुआ एक काल कुरता और पाजामा! और सर पर बाँधा हुआ रुद्राक्ष से जड़ा साफ़ा!

बाबा ने छूटते ही पूछा, "आप ही हो मोहन?"

"हाँ जी, मै ही हूँ मोहन" उसने कहा,

"बैथ्ये आप यहाँ! अच्छा! हाँ, बताइये क्या काम है?" बाबा ने कहा,

"वो बाबा एक लड़की.........." इस से पहले कि वो पूरी बात करता बाबा ने बीच में ही टोक दिया!

"अच्छा! इश्क का चक्कर है!" उसने हँसते हुए कहा!

"हाँ बाबा!" मोहन ने कहा,

"अच्छा! कोई बात नहीं, बताइये" बाबा ने पूछा और खांस के गला साफ़ किया अपना!

"बाबा एक लड़की है" उसने कहा,

"अच्छा! भाई लड़की ही होगी! ये तो मालूम ही है, नाम बताइये उसका"

"रूबी नाम है उसका" उसने बताया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हम्म!" बाबा ने कहा और नाम एक कागज़ पर लिख लिया!

"अच्छा, अब बताइये क्या काम है, क्या करना है?" उसने कहा,

"जी मै इस से मुहब्बत करता हूँ बहुत......" उसने कहा तो फिर से बाबा ने बात काट दी!

"वो नहीं करती! एक तरफ़ा मामला है, यही न?" बाबा ने कहा,

"हाँ बाबा!" उसने कहा,

"अच्छा! कोई बात नहीं! गुलाम बना देंगे उसको तुम्हारा!" बाबा ने कहा,

ये सुनके तो बांछें खिल गयीं मोहन की! चेहरे पर सुकून आ गया!

"बाबा कब तक?" मोहन ने पूछा,

"ज्यादा नहीं बस पंद्रह दिन!" उसने बताया,

"पंद्रह दिनों में काम हो जाएगा?" मोहन ने पूछा,

"हाँ हाँ! इस से पहले ही हो जाएगा" बाबा ने कहा,

"आपका बहुत बहुत शुक्रिया बाबा जी!" मोहन ने कहा,

"मत घबराओ! अब बाबा का चमत्कार देखो आप!" बाबा ने कहा,

मोहन खुश हो गया! आँखों में सपने तैरने लगे! रूबी का चेहरा सामने आ गया!

"बाबा? मुझे कुछ करना पड़ेगा क्या?" मोहन ने पूछा,

"नहीं! कुछ नहीं! हम बैठे हैं न!" उसने कहा,

मोहन ने जेब से पैसे निकाले और दस हज़ार रुपये बाबा को दे दिए! ये रकम पहले ही तय हो चुके थे! अब मोहन वहाँ से उठा! और बाहर चला गया! आँखों में सपने लिए हुए!

 

आँखों में सुनहरे सपने लिए उस दिन मोहन काफी निश्चिन्त था! पंद्रह दिनों की ही तो बात थी! उस रात उसे नींद नहीं आई! करवटें बदलता रहा रात भर! ऐसा होगा वैसा होगा! ऐसा हो जाए वैसा हो जाए! बस इसी ख़याल में रात काट दी पूरी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पन्द्र दिन भी बीते! लेकिन कुछ न हुआ! रूबी का व्यवहार वैसा ही रहा! उसको बात समझ न आई कुछ भी! वो पहुंचा बाबा के पास! बाबा को सारी बात बताई! बाबा हंसा और बोला,"कोई बात नहीं, घबराओ नहीं, मै अभी पता लगाता हूँ" उसने कहा और अपनी आँखें बंद कर लीं! फिर कुछ बुदबुदाया, और पांच मिनट के बाद आँखें खोल लीं!

फिर बोला,"मेरी ताक़त की काट कराई गयी है वहाँ से! मेरा जिन्न नहीं पहुंचा वहाँ पहले दिन के बाद ही"

"अब क्या होगा बाबा?" मोहन ने पूछा,

"घबराओ नहीं! मै बैठा हूँ यार!" बाबा ने कहा,

"अब दुबारा से करोगे आप?" मोहन ने पूछा,

"नहीं! मै अब उनका कराया काटूँगा" बाबा ने बताया,

"और कितना समय?" उसने पूछा,

"एक हफ्ता तो इंतज़ार करना ही पड़ेगा आपको" बाबा ने कहा,

"कोई बात नहीं बाबा, एक हफ्ता और सही" मोहन ने कहा,

"मै आज ही काट दूंगा" बाबा ने कहा,

"जैसी आपकी इच्छा बाबा! वैसे काम तो हो जाएगा न?" मोहन ने पूछा,

"हाँ! बेशक हो जाएगा काम!" बाबा ने ऐसा कह के उसको विश्वास दिलाया!

मोहन खुश हुआ अब! कि चलो एक हफ्ता और सही! वो उठ खड़ा हुआ तो बाबा ने उसको कहा, "हो सकता है जंग लड़नी पड़े, आप मुझे दो हज़ार रुपये और दे जाओ"

मोहन ने अपने पर्स में से दो हज़ार रुपये बाबा को दे दिए और वापिस आ गया!

मित्रगण! वो बाबा उसको उल्लू बनाता रहा और वो उल्लू बनता रहा! चालीस-पचास हज़ार रुपये हड़प गया बाबा! और फिर एक दिन अपना बोरिया-बिस्तर समेट चम्पत हो गया! फ़ोन अब मिल नहीं रहा था! और अब मिलता भी नहीं!

मोहन जहां से चला था वहीँ आ गया! दुखी, हताश और हारा-थका! अब क्या करे! बुद्धि फिर से खराब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने फिर से ऐसे तांत्रिकों की शरण ली! ना जाने कहाँ कहाँ गया! लेकिन कुछ हांसिल ना हुआ उसे! हिम्मत टूट गयी उसकी! एक दिन गुजरते हुए उसकी नज़र एक किताब पर पड़ी! ये तंत्र-मंत्र और सिद्धियाँ सिखाने वाली किताब थी! लिखी भी किसी तांत्रिक ने ही थी! उसमे तांत्रिक ने सारे प्रयोग स्वयं अनुभूत बताये थे! उसने वो किताब खरीद ली!

रात्रि समय किताब पढना आरम्भ किया! कुछ विधियां उसने एक डायरी पर लिख लीं! कुछ अजीबोगरीब सामग्रियां भी थीं! जो कहीं उपलब्ध भी ना थीं! उसने खोज करनी शुरू की! यहाँ, वहाँ! कुछ सामग्री शहर में मिल गयीं और कई बाहर दूसरी जगहों से!

अब उसने मंत्र याद करने आरम्भ किये! कंटस्थ करने थे! साधना-समय किताब से पढ़कर मंत्रोच्चार नहीं होता!

वक़्त का पहिया आगे बढ़ा! मोहन के जुनून ने रफ़्तार पकड़ी और उसने मंत्र कंटस्थ कर ही लिए! अब उसको स्थान चाहिए था! जहां वो अपनी साधना शुरू कर सके! उसका स्थान भी मिल गया! पास के ही गाँव के एक शमशान में, महा-ब्राह्मण को कुछ पैसे देकर जगह का प्रबंध कर लिया!

अब साधना आरम्भ करने का समय था!

परन्तु मित्रगण! साधना ऐसे नहीं होती! किताब से आपको मंत्र और विधि तो ज्ञात हो सकती है, जप-संख्या भी पता लग सकती है, किन्तु, स्थान-पूजन, वस्तु-पूजन, दिशा-कीलन,योगिनी-पैठ, कोण, दिशा, स्थानीय--देव-पूजन आदि नहीं पता लगते! लेकिन मोहन पर तो जुनून सवार था! रूबी का जुनून! वो उसको पाना चाहता था! किसी भी कीमत पर! चाहे कुछ भी हो जाए!

अब उसने चुनी मोहिनी-विद्या का सिद्धि! परन्तु निर्बुद्धि मोहन को ये पता ना चला कि इसकी ईष्ट कौन है! ये मोहिनी यक्षिणी की परम सिद्धि है! वो साधना में बैठ गया, रात्रि समय एक बजे! भय नाम की कोई सादृश्यता अथवा अर्थ नहीं था उसके लिए!

उसने यक्षिणी पूजन आरम्भ किया! ये पूजन निरंतर एक ही समय पर, प्रत्येक रात्रि एक बजे से आरम्भ होता है और इकतालीस दिनों तक चलता है! कुछ नियम हैं, जो साधना-काल में मानने पड़ते हैं, वो नहीं किये उसने, अथवा भूल गया या किताब में नहीं लिखा था!

उसने साधना आरम्भ की! उसकी साधना आगे बढती रही! साधना में ठीक इक्कीसवें दिन मंत्र जागृत होने लगते हैं! शमशान जाग जाता है! शमशान में रह रहे भूत-प्रेत जाग


   
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श्रीशः उपदंडक
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जाते हैं और साधक की साधना भंग करने का प्रयास करते रहते हैं! यही कारण है कि तंत्राभूषण एवं अस्थि-माल धारण किये जाते हैं! लेकिन मोहन ने ऐसा कुछ नहीं किया था! ना ऐसा कुछ और ना ही सबसे पहले किया जाने वाला प्राण-रक्षा मंत्र सिद्ध ही किया! अपनी मृत्यु का आह्वान कर लिया था उसने! ये तेरहवीं रात की बात है! मोहन साधना में तल्लीन था! उसके मंत्र ज़ारी थे! साधना के मध्य का समय था! उसी रात उसको वहाँ एक औरत दिखाई दी! साड़ी पहने, सर पर गठरी उठाये! वो उस तरफ पलटी जहां वो साधना कर रहा था! अलख में लगातार भोग दिए जा रहा था! वो औरत वहाँ आई! उस पेड़ के नीचे, ये पेड़ बरगद का था, उस औरत ने वो गठरी उसके सामने रखी! उस औरत का चेहरा साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था! जहां उस औरत ने गठरी रखी थी वो वहीँ बैठ गयी! और फिर जोर जोर से घूमने लगी बैठे बैठे! अब मोहन की हालत खराब हुई! उसको डर लगा! अब उस से एक चूक हो गयी! मारे भय के उसने अपना मंत्रोच्चार रोक दिया! और उस औरत से पूछा, "कौन हो तुम?"

"तेरी माँ" उस औरत ने जवाब दिया!

"माँ?" उसने हैरान होकर कहा!

"हाँ! तेरी माँ मीना" उस औरत ने कहा, और अब हिलना बंद कर दिया और सीधा हो कर बैठ गयी! लेकिन सर से पल्लू नीचे नहीं किया उसने!

यहाँ मोहन घबराया क्यूंकि उसकी माँ का नाम सच में मीना ही था!

"नहीं ऐसा नहीं हो सकता" उसने डर के मारे कहा,

"क्यूँ नहीं हो सकता? तेरा नाम मोहन नहीं है बेटा? और क्या तेरे बाप का नाम कमल नहीं है? क्या तेरी बड़ी बहन नीलिमा नहीं है?" उस औरत ने कहा!

अब मोहन की जान सूखी! ये क्या हो रहा है? किताब में तो ऐसा लिखा ही नहीं था? क्या साधना सम्पूर्ण हो गयी? क्या यही मोहिनी यक्षिणी है? असमंजस में फंस गया मोहन! इस औरत ने जो भी नाम बताये सब सही हैं! ये क्या हो रहा है उसके साथ?

"ऐसा नहीं हो सकता, तुम मेरी माँ नहीं हो?" उसने घबरा के कहा,

"दिखाऊं तुझे?" उस औरत ने कहा,

"क्या दिखाओगी?" उसने घबरा के कहा,

"रुक जा" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब उस औरत ने वो गठरी खोली! गठरी में से कुछ कटे हुए सर निकाले! फिर उस सरों का मुंह मोहन की तरफ कर दिया! एक सर उसकी माँ का! एक सर उसके बाप का! एक सर उसकी बड़ी बहन का था!

उसके बाद उस औरत ने अपने सर से पल्लू नीचे किया! उसके भी सर नहीं था!

मोहन की घिग्घी बांध गयी! आँखों के सामने अँधेरा छा गया! वो भाग खड़ा हुआ वहाँ से लेकिन तभी जैसे उसको किसी ने उठा कर फेंका! सर फट गया उसका! साँसें फूल गयीं उसकी! वो नीचे ज़मीन पर पड़ा था! तभी वो औरत उसके पास आई! कटे सर वाली! उसने अपनी गर्दन नीचे की तो रक्त की बूँदें और मांस के लोथड़े मोहन के शरीर पर पड़े! परन्तु भय का मारा मोहन काँपता सा वहीँ लेटा रहा!

तभी वहाँ एक और व्यक्ति आया! उसने उसको उसकी गर्दन से उठाया और बोला, "साधना करने आया है! हैं? साधना करने आया है?"

मोहन को लगा कि जैसे उसके प्राण चले जायेंगे! साँसे मद्धम होती जा रही थीं! फिर वो व्यक्ति चिल्लाया,"साधना करने आएगा? आएगा दुबारा?" और फिर उसने उसको फेंक के मारा ईंटों के ढेर पर! मोहन नीचे गिरा और अचेत हो गया!

मित्रगण! ये जो स्त्री है, कटे सर वाली, ये करुपा है! शमशान में सफाई करने वाली चुड़ैल! वो जो व्यक्ति है, वो कंबुक महाप्रेत है! ये शमशान का रखवाला है! ये दोनों सदैव शमशान में रहते हैं! साधना करने से पहले कंबुक और करुपा को भोग लगाया जाता है! ये स्थानीय-देव हैं शमशान के! किसी भी साधक के प्रथम बार साधना करने पर ये दोनों उसके सम्मुख अवश्य प्रकट होते हैं! हाँ, प्राण नहीं हारते केवल एक चेतावनी देकर छोड़ देते हैं! ऐसा ही इस मोहन के साथ हुआ था!

मित्रो! आरम्भ में मेरे दादा श्री को इन दोनों ने नमस्कार किया था जब मेरे दादा श्री ने प्रथम बार मुझे साधना में बिठाया था! मेरे दादा श्री कंबुक द्वारा लायी हुई मदिरा व करुपा द्वारा लाया हुआ भोजन स्वयं भी खाया पिया और मुझे भी खिलाया! करुपा के सर नहीं होता! सदैव रक्त-रंजित रहती है ये! कंबुक सदैव काला साफ़ा पहने, चमड़े की तरु-जूतियाँ पहने रहता है! नीचे लुंगी पहनता है और तन नग्न रहता है उसका!

किताबों से ये ज्ञान प्राप्त नहीं होता! अतः किताबें आप पढ़िए परन्तु, उन पर अमल न कीजिये! किताबी-ज्ञान अधूरा है! पूर्ण नहीं है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मित्रगण! रहा मोहन! मै मोहन के साथ जो हुआ आपको बता ही रहा हूँ! और भी बाकी बताता हूँ अगले अपडेट में! प्रातः काल शमशान सरंक्षक आया, उसने मोहन को देखा, मोहन खून से लथपथ था, फ़ौरन ही सहायकों की मदद से अस्पताल पहुंचाया गया, पुलिस भी आई जांच करने, लेकिन मोहन किसी भी प्रकार से अपने बयान देने में असमर्थ था, खैर, वक़्त बीता, मोहन ठीक हुआ उसे अपनी गलती का भी एहसास हो गया था, माता-पिता ने चौकसी बढ़ा दी थी! लेकिन मोहन के सर से भूत नहीं उतरा रूबी का!

अब मोहन किसी योग्य गुरु की खोज में भटकने लगा, कुछ महीने बीते, उसको एक गुरु मिला, नाम उदुप नाथ था उसका, अपने आपको रुद्रपुर का महा-तांत्रिक कहा करता था! उदुप नाथ आगरे में रहता था, उदुप नाथ ने उसको भी पारंगत करने का बीड़ा उठाया! परन्तु एक शर्त पर! उदुप नाथ का सार खर्च मोहन ही उठाएगा! ये मोहन ने स्वीकार कर लिया!

यहाँ मोहन खुश था कि चलो उचित गुरु मिल ही गया वहाँ उदुप नाथ भी खुश था! अब अँधा कहा चाहे! दो आँखें! बस! परन्तु मित्रगण! ये उदुप नाथ भी खोखला तांत्रिक था! वो शमशान तो जाता था कुछ प्रयोग करने परन्तु अपने एक गुनिया मित्र के साथ! मोहन का भाग्य उसके पक्ष में नहीं था, उसके फिर से गलत राह पर ले जा रहा था!

अब फिर से वही कहानी दोहराई जा रही थी!

मोहन ने उस गुरु का सारा खर्च उठाया! लेकिन कुछ सिखाया नहीं! मोहन उसको बार बार टोकता तो वो उदुप नाथ उसको टालता रहता! अब मोहन ने जिद पकड़ी तो उस गुरु ने अपने गुनिया मित्र से संपर्क साधा! गुनिया आया और पैसे का लालच देख वो दोनों को शमशान ले जाने लगा! वहाँ शराब-कबाब की दावत होती और कभी कभार शबाब का भी प्रबंध किया जाता! ऐसे ही तीन महीने बीत गए! मोहन के हाथ कुछ नहीं आया! पैसा लगातार बर्बाद हो रहा था! आखिर में उस गुनिया ने मोहन को सिखाना आरम्भ किया! उसने उसको कुछ काम दिए करने को, जैसे मुर्गा काटना और उसकी अंतड़ियां निकाल कर साफ़ करना! बकरा कटवाना और उसको फिर चिरवाना आदि आदि! ऐसा करने में मोहन हिचकिचाया तो लेकिन जुनून के कारण वो ऐसा करने में माहिर हो गया! कसाई-कर्म में निपुण कर दिया था उस गुनिया ने!

एक रात गुनिया ने मोहन से कहा कि वो अब साधना के लिए तत्पर हो जाए! मोहन यही तो चाहता था! वो तैयार हो गया! गुनिया उसको लेकर एक गाँव के शमशान में पहुंचा, वहाँ उसने तैयारिया कीं! उदुप नाथ भी साथ था! गुनिया ने एक स्थान चुन, वहाँ की


   
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श्रीशः उपदंडक
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सफाई करवाई गयी, सफाई मोहन ने ही की, जगह साफ़ करने के बाद वहाँ तीन गड्ढे खोदे गए, करीब दो दो फीट गहरे! प्रत्येक गड्ढे में अपने साथ लायी गयीं मुर्गियां एक एक करके जीवित ही गड्ढे में दबा दी गयीं! और उनको मिट्टी से ढक दिया गया! फिर ऊपर से काले कपडे से बना आसन बिछा दिया! और तीनों अपने अपने आसन पर बैठ गए! अब गुनिया ने तीन थाल निकाले! तीनों थालों में तीन तीन कटोरियाँ रखी थीं! अब तीनों ने साथ लाये तीन काले मुर्गे एक एक करके काटे और उनका रक्त उन थालों में रखी एक एक कटोरी में रख लिया संजो कर! और मुर्गे को साफ़ करके थाल में सजा दिया गया! आंतें गले में डाल ली गयीं मालाएं बना कर! और उनके पंखों से अपने चारों ओर एक घेर बना लिया गया,वृत्त के सामान! फिर शराब निकाल कर एक एक कटोरी में डाल दिया गया! फिर थोडा और सामान वहाँ थालों में सजा दिया गया! जैसे कि बिंदिया, लिपस्टिक, चोली आदि! स्त्रियों से सम्बंधित वस्तुएं! रात्रि का एक बज रहा था! और मोहन आनंद से था! कि चलो आज तो कोई न कोई सिद्धि प्राप्त हो ही जायेगी!

अब गुनिया ने मंत्र पढने आरम्भ किये! ये कोई लम्बे चौड़े मंत्र नहीं होते, एक पंक्ति वाले शाबर-मंत्र होते हैं, जिनमे वार, मुहुर्त, दिशा, कोण आदि का विचार नहीं किया जाता! ये जो गुनिया कर रहा था ये भूत-पकड़ विद्या होती है, तंत्र में निम्न-कोटि का एक वामाचार प्रयोग! इस सिद्धि में जब मंत्र पढ़े जाते हैं तो भूखे भूत या 'कच्चे' प्रेत आदि वहाँ आ जाते हैं! खाना मांगने! कभी-कभार कोई चुड़ैल भी आ जाती है! चूंकि आप मंत्र पढ़ रहे होते हैं तो वो आप पर प्रहार नहीं करेंगे, मंत्र में शक्ति जागृत होते ही मंत्र के ईष्ट का ध्यान लग जाता है, उसकी आन लग जाती है! इस मंत्र में श्री गोरखनाथ जी की आन लगी थी!

मंत्रोच्चार आरम्भ हुआ और इसी तरह से एक घंटे से अधिक हो गया! अब वहाँ हरकत होने लगी! घेरे के पंख किसी के वजन तले दबने लगे! ये पंख उन तीनों के आसपास दबने लगे थे! अर्थात भूत-प्रेत वहाँ आ गए थे!

तभी वो गुनिया चिलाया, "जो कोई भी है, सामने आये और अपना भोग ले यहाँ आकर हमारे साथ!"

अब मोहन को डर सताया! पिछली घटना याद आ गयी! फिर संयत भी हो गया कि उसका गुरु तो उसके साथ ही है न! तभी वहाँ खुसर-फुसर होने लगी! गुनिया फिर चिल्लाया, "जो कोई भी है, वो यहाँ आये सामने!"

तभी वहाँ नौ भूत-प्रेत नज़र आ गए! सभी का कमर से ऊपर का हिस्सा ही दिख रहा था, नीचे का नहीं! लेकिन अब गुनिया भी घबराया! मुर्गे तीन और मेहमान नौ! अब क्या होगा? तो ऐसे में मित्रगण, सबसे बलशाली भूत अथवा प्रेत को ही भोग दिया जाता है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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परन्तु किसका बल अधिक है और किसका नहीं, ये कैसे जाना जाए? भूत और प्रेतों में उनकी आयु से बल आता है! एक मंत्र है, इसे बलसाधन-मंत्र कहते हैं! इक्कीस दिनों की ये साधना कहीं भी, कभी भी की जा सकती है, बस मंत्रोच्चार सही और जप-संख्या तक पहुंचे! तब ये मात्र स्वयं-सिद्ध हो जाता है, ऐसी स्थिति में वो मंत्र पढ़ के मिट्टी की एक चुटकी उठा के हवा में फेंक दी जाती है, जिस प्रेत का बल सबसे अधिक होता है वो पूर्ण रूप से दिखाई दे जाता है और भोग उसे ही अर्पित किया जाता है! बदले में उस से कोई भी एक काम करवा लिया जाता है! ये होती है भूत-पकड़ विद्या! अब गुनिया ने एक चाल चली! गुनिया हुनरबाज था! उसने सबसे पहले अपना थाल उठाया और खड़ा हो गया! और चिल्लाया, "अब जो खाना चाहे वो यहाँ आ जाए, ले जाए अपना भोग!"

ये चाल भी काम करती है! छोटा व कम शक्तिशाली भूत या प्रेत बड़े के सामने गुस्ताखी नहीं करेगा! सबसे पहले बड़ा और ताक़तवर ही आगे बढेगा! इसीलिए गुनिया खड़ा हुआ था पहले अपना थाल लेकर! तभी किसी प्रेत ने थाल में रखे मुर्गे को चट कर दिया और कटोरी की शराब भी ख़तम कर दी! अब वहीँ खड़े खड़े गुनिया ने अपना एक काम बोल दिया जिसके लिए वो किसी से पैसे लेकर आया था उसका काम करने! उसने तो भोग दे दिया और नीचे बैठ गया! अब उदुप नाथ उठा और वही कहा उसने भी, उसका भोग भी खा लिया एक प्रेत ने! अब मोहन उठा, बड़ी हिम्मत जुटाकर! उसने कहा, "जो कोई भी हो यहाँ, आये और अपना भोग ले ले!"

लेकिन कोई भी नहीं आया आगे! उसने घबरा के गुनिया को देखा! गुनिया ने कुछ इशारा किया! मोहन ने फिर कहा, "जो कोई भी है यहाँ, अपना भोग ले ले!"

लेकिन अब भी कोई नहीं आया!

किसी के न आने की एक वजह थी! वजह ये कि मोहन ने उस रात शराब नहीं पी थी! गुनिया जो शराब लाया था वो देसी शराब थी! और क्यूंकि वो देसी शराब पीता नहीं था! ये बात गुनिया समझ गया और उसने देसी शराब एक कटोरी में डाल के उसको दे दी और हुक्म भी दिया कि वो इसको पी ले नहीं तो उसके साथ साथ वे सब मार खायेंगे बुरी तरह! मार खाने के नाम से वो डर गया और शराब गटक गया! और फिर उसने वही दोहराया! अबकी बार उसका भोग ले लिया किसी ने! अब मोहन ने अपना काम बोल दिया और नीचे बैठ गया!

यही वजह है कि तंत्र में मदिरा का वही महत्त्व है जो की पवित्र-जल का! क्यूंकि मदोन्मत्त होने पर साधक अपने और साध्य व साधन के मध्य तारतम्यता बिठा पाता है! उसका


   
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श्रीशः उपदंडक
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ध्यान एकाग्रचित हो जाता है! भय का नाश हो जाता है! ध्यान केन्द्रित होने पर वो साधना में सिद्धि को प्राप्त कर लेता है!

भूत-प्रेत मांस और मदिरा के शौक़ीन होते हैं! कई स्त्री-सुख के भी शौक़ीन होते हैं! वो साधक पर अस्थायी वास कर स्त्री-सुख भोगते हैं! जो व्यक्ति मांस-मदिरा से परहेज रखते हों वो कदापि तंत्र के क्षेत्र में न आयें! मांस के आठ प्रकार हैं! ये सभी भोज्य होते हैं किसी भी प्रबल साधक के लिए! मदिरा के चार प्रकार हैं, चारो ही पेय-योग्य हैं! स्त्री-सुख ग्यारह प्रकार का है, ये ग्यारह प्रकार साधक की सीढियां हैं! सभी पर चढ़ना होता है, या यूँ कहिये कि चढ़ना पड़ता है! एक बार आगे बढे तो पीछे जाने का कोई मार्ग नहीं!

चलिए, कहानी आगे बढाता हूँ! मोहन का भोग स्वीकार हो गया, उसने काम भी बोल दिया! लेकिन मित्रगण! ये आवश्यक नहीं कि आपका काम हो ही जाएगा! जिस प्रेत ने आपका भोग लिया वो सीमित-अवस्था वाला भी हो सकता है, किसी अन्य प्रेत का सेवक भी हो सकता है, किसी परिसीमन से बंधा भी हो सकता है! परन्तु मोहन ने सोचा कि अब तो उसका काम हो ही गया! परन्तु ऐसा नहीं हुआ! ये प्रयोग भी असफल हो गया! रूबी का व्यवहार वैसा ही रहा कोई बदलाव नहीं आया!

उसने गुनिया से इस बाबत पूछा, गुनिया ने बता दिया कि ऐसा होता है कभी कभी! अब मोहन हताश हो गया! अब क्या करे वो? कहाँ जाए? वहाँ परिजन उससे पूछताछ करते थे और यहाँ वो स्वयं समस्याग्रस्त था!

अब गुनिया ने मोहन को एक सर्व-मनोकामना-सिद्धि के बारे में बताया! हालांकि ये सिद्धि उस गुनिया ने भी नहीं की थी, लेकिन मोहन अपने प्राण देने पर आमादा था! उसने वो सिद्धि करना निश्चित कर लिया! और उसके लिए गुनिया के बताये दिशानिर्देश के अनुसार साड़ी तैय्यारियों में जुट गया!

गुनिया के दिशानिर्देश सही थे! भय पर काबू पाना था! मंत्रोचार नहीं तोडना था! और सबसे पहले उस मंत्र के ईष्ट का पूजन अनिवार्य था! इस सिद्धि की ईष्ट यम-रूढ़ा डाकिनी होती है! (डाकिनी के विषय में आप स्वयं विभिन्न स्रोतों से खोज कीजिये, मै यहाँ इसका उत्तर नहीं दूंगा) उसकी पूजा के लिए सवा-नौ किलो भेड़ का मांस, सवा तीन किलो काले बकरे की कलेजी, चार शराब की बोतलें, स्त्री का समस्त श्रृंगार आवश्यक होता है!

मित्रगण! आखिर वो साधना-रात्रि आ गयी! गुनिया और उदुप नाथ वहीँ बैठे थे, ये साधना एक रात्रि में ही पूर्ण हो जाती है! यम-रूढ़ा डाकिनी प्रसन्न होने पर, स्मरण रहे , केवल


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रसन्न होने पर ही अभीष्ट सिद्धि प्रदान करती है! इस सिद्धि से व्यक्ति भूत-विजयी और प्रेत-विजयी हो जाता है! कोई भी भूत-प्रेत उसका अहित नहीं कर सकता! वरन वो उस साधक का कार्य भी करेगा! चाहे शुभ चाहे अशुभ! परन्तु भोग अवश्य ही लेगा!

मोहन ने साधना आरम्भ की, गुनिया के बताये मार्गानुसार वो एक एक कदम फूंक फूंक के रख रहा था! साधना का मध्य-समय आया! डाकिनी के सेवक और सेविकाएँ जागृत हो गए! यम-रूढ़ा डाकिनी के चालीस प्रेत सेवक और तैंतीस पर्जनिकाएं सेविकाएँ होती हैं! अब उनकी आमद के प्रमाण मिलने लगे थे! वायु-संचार थम गया था! वातावरण में जलते मांस की गंध आने लगी थी! चक्रवात जैसी ध्वनि भी आने लगी थी! अलख भड़क गयी थी!

जब यम-रूढ़ा के सेवक आते हैं तो उस स्थान की साफ़-सफाई करते हैं, फिर सेविकाएँ आती हैं! वे भी यही कार्य करती हैं! रक्त से भूमि को लीपती हैं और तब जाकर यम-रूढ़ा अपने सिंहासन समेत वहाँ प्रकट होती है! भयानक रूप में! पूर्णतया नग्न! कृष-देह रुपी, कमर में मुंड-माल धारण किये, गले में शिशु-मुंड धारण किये, भुजाओं में अस्थियाँ धारण किये और जिव्हा बाहर निकाले हुए! भयानक अट्टहास करती हुई वो प्रकट होती है! साधारण मनुष्य तो उसको देखते ही गश खा के गिर जाए! डाकिनी का अब आगमन होने को ही था! शमशान में उल्लू पक्षी एकत्रित होने लगे थे! सर्प और अन्य विषैले जीव-जंतु वहाँ से भागने लगे थे! उदुप नाथ और वो गुनिया वहाँ से कुछ दूर बैठे थे, मोहन वहाँ निरंतर मंत्रोच्चार कर रहा था! तभी अचानक से मोहन के मंत्रोच्चार तीव्र हुए, क्यूंकि सेवक प्रेतों का आगमन हो चुका था! सेवक प्रेत वहाँ की साफ़-सफाई में जुट गए थे! फिर सेविकाएँ भी प्रकट हो गयीं! तेज अट्टहास करती सेविकाएँ भी अपने कार्य में जुट गयीं! मोहन ने आधा पड़ाव पूर्ण कर लिया था! बस आधा पड़ाव बाकी था!

तभी अचानक से जैसे बिजली कौंधी! तेज प्रकाश प्रकट हुआ! और उसके सामने जाके स्थिर हो गया! उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं! प्रकाश का आकार और वृहद् होता गया! और फिर प्रकट हुई रौद्र रूप में डाकिनी यम-रूढ़ा! उसके रूप को देख कर मोहन की घिग्घी बंध गयी! कंपकंपी छूट गयी! सामने अपने रजत-सिंहासन पर वो डाकिनी बैठी थी! उसके सेवक और सेविकाएँ उसे आसपास इकट्ठे हो गए थे! सभी की दृष्टि मोहन पर टिकी थी! रजत-सिंहासन आगे बढ़ा! डाकिनी ने घूर के, बिना पलक मारे मोहन को देखा! और कहा, "कौन है तू?"

उसका स्वर अत्यंत कर्कश एवं भीषण था! मोहन तो अन्दर से पहले ही खोखला हो चुका था भय के मारे! अतः उसके मुख से स्वर नहीं निकला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कौन है तू?" डाकिनी ने फिर गरज के पूछा,

मोहन मारे भय के काँप गया! मंत्रोच्चार टूट गया!

"कौन है तू?" अब डाकिनी ने क्रोध से पूछा, आँखें फैला के कहा!

लेकिन मोहन के मुंह से चाहते हुए भी एक शब्द ना फूटा!

बस! डाकिनी मात्र तीन बार ही पूछती है! फिर उसको क्रोध आता है और उसके क्रोध का अर्थ है अनर्थ होना! अब यही होना था! डाकिनी लोप हुई उसी क्षण और वहाँ प्रकट हुआ डाकिनी का प्रधान महाप्रेत इन्द्राल!

इन्द्राल आगे बढ़ा और मोहन को उसके केशों से पकड़ कर उठाया और फिर उस पेड़ पर फेंक के मारा! मोहन के मुंह से दर्दभरी चीख निकली! मोहन का ये हाल देख उदुप नाथ और गुनिया वहाँ से भागे! इन्द्राल ने मोहन को फिर उठाया और उसको फिर हवा में उछाला! हड्डियां टूटने की आवाजें साफ़ साफ़ आयीं! मोहन अचेत हो गया! इन्द्राल ने उसे फिर से उठाया और उसके नेत्रों पर एक अमोघ प्रहार किया, नेत्रों से रक्त धारा फूटने लगी! उसके बाद इन्द्राल वहाँ से लोप हुआ अपने सभी प्रेतों व अन्य सेविकाओं के साथ!

मोहन अचेत पड़ा था रक्त से लथपथ! उसकी पसलियाँ टूट गयी थीं! उसके कंधे टूट गए थे, खोपड़ी तीन स्थान से टूट गयी थी! एक पाँव टूट गया था! एक घंटे के बाद उदुप नाथ और गुनिया वहाँ आये, उन्होंने मोहन का हाल देखा, वो भी घबरा गए, जल्दी जल्दी वो उसे उठा के अस्पताल की और भागे, सारे शरीर से रक्त निकल रहा था! उसको अस्पताल में भर्ती कराया गया! उसका उपचार हुआ!

कोई चार महीने बीते! मोहन की स्मृति लोप हो गयी और साथ साथ उसके नेत्र-ज्योति भी! उसके माता-पिता ने बहुत इलाज करवाया उसका, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, पसलियाँ भी जुड़ गयीं थीं और पाँव भी परन्तु पाँव में अब लंगड़ापन आ गया था!

उसके माँ-बाप बहुत परेशान थे! माँ का हाल काफी खराब था, बेटा अँधा हो गया था, बाप की चिंताएं लगातार बढती जा रही थीं! जब चिकित्सा से कुछ ना हुआ तो ओझा गुनिया आये! लेकिन कोई कुछ ना बता सका! जो जैसा बताता वैसा किया जाता लेकिन कोई लाभ नहीं!

ऐसे ही, एक बार किसी ने उसको अलीगढ ले जाने के लिए कहा, वहाँ कोई तांत्रिक था जो ऐसा ही इलाज करता था! जब उसके पास उसे ले गए तो उसने अपने किसी प्रेत से


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसका हाल जानने के लिए कहा उसका प्रेत भयभीत हो गया! वो डाकिनी यम-रूढ़ा का नाम नहीं ले सकता था! अतः चुप हो गया! तांत्रिक समझ गया कि कोई बहुत ही विकट समस्या है इस लड़के पर!

उसने मोहन के माँ-बाप से कहा कि पैसा खर्च होगा लेकिन लड़का ठीक हो जाएगा! अब माँ बाप पैसा देखें या इलाज? माँ बाप ने हाँ कर दी! तांत्रिक ने उन्ही किसी ख़ास दिन बुलाया और कहा कि जो सामान उसको चाहिए वे लेकर आयें! उन्होंने हाँ कर दी! अपने मन में सुकून ले कर उसके माँ बाप वहाँ से वापिस आ गए!

उस नियत तारीख को मोहन के माँ बाप उसको तांत्रिक के पास ले आये! तांत्रिक ने पूजा का सारा प्रबंध कर रखा था! मोहन के माँ बाप ने सारा मंगवाया हुआ सामान तांत्रिक को दे दिया! अब तांत्रिक ने मोहन के एक जोड़ी कपडे, उसके बाल लिए और अपनी अलख में बैठ गया! तांत्रिक ने उसको वहाँ से हटा कर एक दूसरे कमरे में बिठा दिया!

अब तांत्रिक ने अपना महाप्रेत प्रकट किया! उस से कारण पूछा! लेकिन महाप्रेत भी नै बोल सका उसका नाम! तांत्रिक को समझ नहीं आया कि ये माजरा है क्या? उसने फिर एक और बड़ी शक्ति का आह्वान किया! ये थी चंडूलिका चुड़ैल! उसने चुड़ैल को भोग दिया तो उसने अब उस से उस लड़के के बारे में पूछा! चुड़ैल ने एक नाम बताया! वो नाम था इन्द्राल!

इन्द्राल नाम सुनकर तांत्रिक के पेट में मरोड़ उठी! इन्द्राल तो कभी उन्मुक्त विचरण नहीं करता! वो तो प्रधान महाप्रेत है यम-रूढ़ा डाकिनी का! वो भला इसको कैसे लिपट गया? ये उसकी समझ से बाहर था! अब तांत्रिक ने हाथ खड़े कर दिए! कारण था प्राण-भय! इन्द्राल से भिड़ने का अर्थ था यम-रूढ़ा को चुनौती देना!

तांत्रिक ने उसके माँ बाप को कह दिया कि अब इस लड़के का काम और इलाज असंभव है, कोई इलाज नहीं कर सकता इसका! उसके माँ बाप का तो जैसे कलेजा फट गया ये सुनके, भारी मन से आंसूं बहाते हुए वो वापिस आ गए अपने घर!

और समय बीता, करीब आठ महीने और फिर एक दिन.....................

 

एक दिन मेरे एक जानकार ने ये अजीबोगरीब सी घटना मुझे बतायी! उनका नाम है किशोर, वहीँ नॉएडा में ही रहते हैं, मैंने कहानी ध्यान से सुनी, ये नहीं की उस मोहन का हाल साधना के दौरान हुआ है, बल्कि ये, कि किसी और तांत्रिक ने हाथ खड़े कर लिए हैं, मुझे बस यही से इस घटना में रूचि हुई थी! किशोर से मैंने कह दिया था कि किसी


   
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श्रीशः उपदंडक
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रोज हम स्वयं वहाँ आयेंगे और उस मोहन को देखेंगे! किशोर ने ये बात मोहन के माँ बाप को बता दी थी, वे भी तैयार हो गए हो फिर लगातार फ़ोन करते रहे! बेचारे तड़प रहे थे अपने बेटे के लिए! आखिर मैंने उनको हाँ कह ही दी!

उसके अगले दिन मै और शर्मा जी उसके घर पहुंचे! वहाँ किशोर भी मिला हमको, अब मैंने मोहन को देखने को कहा, मोहन बेचारा अपने पलंग में बेसुध सा पड़ा था, भाव-विहीन! मुझे उसको देख कर दया आ गयी! आखिर उसके साथ ऐसा क्या हुआ? यही मैंने जानना चाहा! बात वो करता नहीं था, अपना नाम भी नहीं बताता था बस, हां..हाँ...ही कहता रहता था! स्मृति-लोप हो चुकी थी उसकी!

मैंने उसको देख लिया था, अब मै कारण जानना चाहता था, अतः शीघ्र ही वहाँ से वापिस आ गया,

मै अपने स्थान पर वापिस आ गया था, मै उसी रात क्रिया में बैठ गया! अलख उठायी और अलख भोग दिया! अब मैंने अपना एक मजबूत खबीस प्रकट किया! इसको मै शाही-खबीस कहता हूँ! बेहद जुझारू और पकड़ वाला है ये! खबीस को मैंने उस लड़के मोहन के साथ जो हुआ उसकी जानकारी लाने के लिए उसे भेजा! उसने भोग लिया और झम्म से उड़ा! इतनी तेज कि मेरी भी आँखें बंद हो गयीं!!

दस मिनट के भीतर वो आ गया और उसने सारी बातें बता दीं! अब रहस्य से पर्दा उठ गया! मैंने शाही को और भोग दिया और वो फिर झम्म करता लोप हो गया! अब कहानी पता चल गयी थी और निदान भी मेरे पास था! एक बात थी कि निदान के लिए इन्द्राल को ही बुलाना था! और ये संभव भी था! अब मुझे आवश्यकता थी शमशान की! अतः मैंने अपने शमशान में इसका प्रबंध करा दिया और फिर मोहन के माँ बाप को भी बता दिया कि किस तिथि को वो मेरे पास आये, और वे बेचारे असहाय इलाज की इच्छा करते मेरे पास समय से पहले ही आ गए! मोहन अभी भी बेसुध सा ही था! मैंने उसको एक जगह बिठाया और उसके हाथ-पाँव और गले में कुछ मालाएं डालीं और कुछ अभिमंत्रित सूत्र बाँध दिए! उसको भी क्रिया में बिठाना था!

रात्रि एक बजे मुझे क्रिया करनी थी, सारा प्रबंध कर रखा था मैंने! अतः मै क्रिया-स्थल में पहुँच गया! मदिरा भोग किया, मांस-भोग किया और फिर तामस-विद्या से स्वयं को सशक्त किया! अब इन्द्राल तो क्या उसका बाप भी मेरे सामने खड़ा नहीं हो सकता था! मोहन बेचारा अब तक सो चुका था, अतः मैंने उसको वहीँ एक चारपाई पर लिटा दिया और उसके चारों और अपने त्रिशूल से घेरा बना दिया!


   
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