वर्ष २०१० नेपाल की ...
 
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वर्ष २०१० नेपाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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पेट के पास रखे थे! तसल्ली से टांगें खोल कर सोये हुए थे! उनको देखते ही इबु के नेत्र सुर्ख हुए अब! उन दोनों की औकात इबु के सामने ऐसी ही थी जैसे हाथी के सामने एक सियार! जैसे थोथा सरकंडा किसी तूफान से मुकाबला करने के लिए चुनौती दे खड़ा हो! पलंग एक ही था वहाँ, एक बड़ा सा पलंग, पीले रंग की चादर बिछी थी उस पर, बिस्तर पर ही एक तरफ एक चश्मा भी रखा था और कोई अखबार भी! खिड़की बंद थी अन्दर से, छत पत्थर की पटियों से बनी थी! बीच में लोहे की कड़ियाँ लगी थीं! इबु की नज़रें टिक गयीं उन दोनों पर! इबु आगे बढ़ा, बिस्तर पर बाहर की तरफ चन्दन सोया हुआ था, अब इबु ने चन्दन को उसके सर से बाल पकड़कर उठाया! चन्दन को समझ नहीं आया कि हुआ क्या, वो जब तक आंख खोलता तब तक इबु उसको फेंक चुका था उठा कर दीवार पर! कराहती और भयाक्रांत आवाज़ निकली उसके गले से! वो जब तक संभालता तब तक मोहन भी आ गिरा उसके ऊपर! अब दोनों के होश फाख्ता! चिल्लाने लगे दोनों! 'बचाओ! बचाओ!' लेकिन इब कहाँ रुकने वाला था! उसने दोनों को उनके बालों से पकड़ा और उछाल फेंका छत की तरफ! छत से टकराते ही खून के फव्वारे छूट पड़े उनके सरों से! दोनों जब नीचे गिरे तो तब तक दरवाज़े पर तेज दस्तक होने लगी! लोग आ पहुंचे थे उनकी मदद को! इबु ने फिर से दोनों को उठाया और मारा फेंक कर दीवार में! अब दोनों हुए अचेत! इबु अभी भी नहीं रुका! वो उनको रुई की पोटली की तरह उछाल रहा था! इबु ने दोनों को फिर उठाया, दोनों का अब बुरा हाल था! पसलियाँ टूट चुकी थीं! आर फट चुके थे! चन्दन के दोनों कंधे टूट गए थे और मोहन की एक टांग टूट कर झूल गयी थी! अब इबु ने उनको उठाकर फेंक कर मारा दरवाज़े पर! दरवाज़ा टूट गया! दरवाज़ा नीचे और वे दोनों दरवाज़े के ऊपर! वहाँ खड़े लोग ये समझ ही ना सके कि अन्दर कौन है या था, जिसने इनका ये हाल किया और जब एक ने उनको उठाने के लिए जैसे ही मोहन का हाथ पकड़ा, वैसे ही एक लात जमाई इबु ने उसे, वो गलियारे में घिसटता हुआ जा गिरा बाहर घास पर, और फिर नहीं उठा! वो बस चिल्लाता रहा, अब जो लोग वहाँ खड़े थे उनको सूंघा सांप! खून जम गया उनका उनकी नसों में ही! आँखों की पुतलियों का हिलना भी बंद हो गया, पाषाण बन गए वो जैसे! तभी उनकी आँखों के सामने एक हैरतंगेज़ हादसा पेश आया, मोहन और चन्दन हवा में उठे और फेंक दिए गए दूर गलियारे में! ये देख कई लोग तो विक्षिप्त अवस्था में भाग छूटे वहाँ से! और जो शेष थे, मारे भय के थर थर काँप उठे! कुछ महिलायें भी थीं वहाँ, जो दूर खड़ी थी, उनमे अफरा-तफरी सी मच गयी! मोहन और चन्दन का तो हिसाब कर दिया था इबु ने! ऐसा मारा था कि अब जीवन में कभी संतुलित होकर ना तो बैठ ही सकते थे और ना खड़े ही हो सकते थे!

"बस इबु!" मै बुदबुदाया!

"बस!" मैंने कहा,

इबु ने सुना और वो वहाँ से रवाना हुआ! उसके भी हाथ फुरैरी हो गए थे! वो खुश हो गया था! पलक झपकते ही वो मेरे पास आ गया! मैंने उसको देखा और मुस्कुराया! मैंने उसको उसी दिन दुबारा हाज़िर करके भोग देने को कह दिया, इस बार का भोग विशेष होगा उसके लिए! वो लोप हो गया तभी!

अब हुआ मै फारिग! बाबा बुमरा, मोहन और चन्दन के बारे में मै और ज्ञात कर सकता था, परन्तु मैंने नहीं किया पता! छोड़ दिया उनको उनके हाल पर! कोई मरता हो मरे, कोई जीता हो जिए! अब मै चला वापिस चिता के पास, वहाँ से अपना त्रिशूल और अपना सामान उठाया और नमन कर उस जगह से चलता बना! रिहाइश का स्थान वहाँ से कोई एक तिहाई किलोमीटर होगा, वहीं की ओर चला मै, लडखडाता हुआ! ये मदिरा के कारण था! ऊंची-नीची, सूखी-गीली ज़मीन पर, पांवों में कीचड चिपक


   
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श्रीशः उपदंडक
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गयी! पर परवाह किसे! सत्य की जीत का मद ऐसा ही होता है! टीसता ज़ख्म भी हंसने लगता है ख़ुशी के कारण! हँसता हुआ, मुस्कुराता हुआ, त्रिशूल को थामे चलता चला गया मै आगे! आगे जाकर बल्ब टिमटिमाते दिखे मुझे! यहीं जाना था मुझे, मै आगे बढ़ता गया और उन बल्बों की रौशनी तेज और स्पष्ट होती चली गयी! और कुछ देर में मै उस स्थान में प्रवेश कर गया!

मै कक्ष की ओर बढ़ा तो मेरे पदचापों की आवाज़ सुनकर कौलव नाथ और शर्मा जी भागे भागे बाहर आये, मुझे सुरक्षित देख कौलव नाथ ने अलख बजाई 'अलख निरंजन!' और मैंने अपना त्रिशूल उठाते हुए उसका उत्तर दिया, 'अलख निरंजन!' कौलव नाथ ने फ़ौरन ही मेरा सारा सामान उठाया और अपने हाथों में रख लिया, शर्मा जी प्रसन्न हो गए! वो समझ गए बाबा बुमरा, मोहन और चन्दन का हो गया तिया-पांचा! अब मै चला स्नानघर की ओर! टेढ़ा-मेढ़ा, चलता हुआ मै पहुँच गया वहाँ और स्नान आरम्भ किया! ठंडा पानी सर पर पड़ा तो खुमारी दूर होने लगी, मै करीब बीस मिनट तक वहाँ रहा, मुझे अभी भी बाबा बुमरा के वो दृश्य नज़र आ रहे थे जब वो अपनी छाती ठोकता हुआ अट्टहास लगा रहा था! और फिर उसका वो हश्र भी देखा मैंने, जब वो चबूतरे पर अधमरी हालत में पड़ा था! मै कभी हँसता और कभी गंभीर हो जाता! फिर मुझे मोहन और चन्दन के दृश्य भी नज़र आये! वहां की अफरा-तफरी भी नज़र आ गयी मुझे! और फिर सहसा ख़याल आया उन महिलाओं का,जो अभी भी वहीं उसी डेरे में कैद थीं! उन बेचारी महिलाओं को पता ही नहीं था की उनके कैदखाने के तीनों ताले ध्वस्त हो चुके हैं! अब सबसे पहले उनकी सुधि लेनी आवश्यक थी! मैंने स्नान किया और वस्त्र लपेट आ गया बाहर, बदन टूट चला था मेरा, हालत खराब थी, आँखें भारी हो रही थीं और नशे की खुमारी में अंट-शंट के ख़याल आते और जाते जा रहे थे! मै किसी तरह से संयत होता हुआ पहुंचा अपने कक्ष तक, वहाँ शर्मा जी और कौलव नाथ बैठे थे, वे खड़े हुए और मुझे कौलव नाथ ने एक गिलास पानी दिया, मैंने पानी पिया और मै हो गया ढेर गिर कर बिस्तर पर! गिरते ही शरीर का नियंत्रण पूर्ण रूप से आया मस्तिष्क के पास और मै गहरी निंद्रा में तल्लीन हो गया!

जब मेरी नींद खुली तो उस समय दिन के साढ़े दस बजे थे, मेरे आँखें खोलते ही फिर से वही दृश्य आँखों के सामने डोलने लगे! ओर से लेके छोर तक सारा किस्सा आँखों के सामने किसी द्रुत गति से भागती रेलगाड़ी के समान गुजर गया! तभी शर्मा जी ने अन्दर परवेश किया, नमस्कार हुई और वे बैठे वहाँ एक कुर्सी पर! मुझे देखा तो मै मुस्कुराया! "बाबा बुमरा का खेल ख़तम?" उन्होंने पूछा,

"हाँ शर्मा जी!" मैंने कहा,

"सुकून मिला!" वे बोले!

"बुमरा को उसके किये की सजा मिल गयी शर्मा जी!" मैंने कहा, और अब वृत्तांत से गत-रात्रि में हुए द्वन्द के विषय में समस्त घटनाओं से अवगत करा दिया उनको! उन्होंने विस्मयता से सारा घटनाक्रम सुना!

"बहुत बढ़िया हुआ! बहुत बढ़िया! कच्ची हंडिया फूट ही गयी!" वे बोले,

"फूटनी ही थी, कितना समझाया उसको, लेकिन मद में चूर बाबा बुमरा नहीं माना!" मैंने कहा,

"अब अंत के लिए भी तो कोई ना कोई कारण बनता ही है ना गुरु जी!" वो बोले,

"हाँ, ये सही कहा आपने!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब आया कौलव नाथ अन्दर! नमस्कार की उसने और बैठ गया, दूध लेकर आया था वो जग में, उसने तीन गिलासों में दूध डाला और एक एक गिलास हमे दे दिया, और फिर बिस्तर पर मेरे सामने बैठ गया!

"ढह गया किला बुमरा का!" वो बोला!

"हाँ कौलव नाथ!" मैंने कहा,

"ढहना ही था, फस का किला जो था और मिट्टी के शस्त्र जो थे!" वो बोला,

"बिलकुल सही कहा तुमने!" मैंने दूध ख़तम करते हुए कहा, "अब कहाँ चलना है, बताइये, धूमनाथ भी आ रहे हैं, मैंने उनको खबर कर दी है बुमरा के बारे में, वे चकित रह गए हैं! आपसे मिलना चाहते हैं और फिर वो भी चलेंगे बुमरा के डेरे, उन महिलाओं को निकालने वहाँ से!" कौलव नाथ ने कहा,

"ये तो बढ़िया रहेगा कौलव नाथ!" मैंने कहा,

फिर हमने मनसुख और महंत बाबा को खबर दी! उनका दिल खबर सुनकर बल्लियों उछल गया! फ़ोन पर ही रो पड़े दोनों! बड़ी मुश्किल से समझाया उन दोनों को!

"कौलव नाथ, एक काम करना मनसुख और महंत बाबा को ले आना, वे पहचान जायेंगे उन महिलाओं को, क्योंकि मै भी नहीं पहचानता उनको" मैंने कहा,

"जी, अवश्य, मै अभी जाता हूँ, वहाँ से उनको लाता हूँ और फिर धूमनाथ से संपर्क करके फिर चलते हैं डेरे उसके, देखते हैं बाकी बचे हैं या निबट लिए!" कौलव नाथ ने हाथ पर हाथ मारकर कहा,

मझे भी हंसी आई! और कौलव नाथ निकल गया वहाँ से! अब शर्मा जी ने बातें आरम्भ की और मैंने उनके प्रश्नों के उत्तर दिए!

एक घंटे से अधिक समय हुआ और फिर तभी कौलव नाथ के साथ धूमनाथ, महंत बाबा और मनसुख ने प्रवेश किया! महंत बाबा लिपट गए मुझसे! मनसुख अपनी ऊँगली के पोरों से अपनी आँखों में आये आंसू छिटकाने लगे! इस से पहले वे कुछ कहते मैंने हाथ के इशारे से उनको चुप कराया!

धूमनाथ छाती चौड़ी करके मुझसे गले मिला और मेरी पीठ और कंधे ठोंके उसने!

"सुनिए, चलिए, चलकर उन महिलाओं को लाते हैं!" मैंने कहा,

"चलिए!" मनसुख ने कहा,

अब हमारी दोनों गाड़ियाँ सरपट दौड़ चली बाबा बुमरा के डेरे की ओर! हुम डेरे पहुंचे, डेरे के बाहर कुछ लोग खड़े थे, धूमनाथ ने अपनी गाड़ी अन्दर घुसेड़ी और फिर कौलव नाथ ने! कौलव नाथ ने हमको गाड़ी में बैठने के लिए ही कह दिया और स्वयं धूमनाथ के साथ चल पड़ा मालूमात करने बाबा बुमरा के बारे में!

और फिर पंद्रह-बीस मिनट के बाद कौलव नाथ वहाँ आया, मुस्कुराया और कहा, "आइये आप सब!"

हम सब गाड़ी से निकले, वहाँ सन्नाटा पसरा था! हम आगंतुक-कक्ष में गए, वहाँ धूमनाथ बैठा था एक बुजुर्ग औघड़ के साथ, मुझे देखते ही उसने मुझे प्रणाम किया, धूमनाथ ने मेरा परिचय उस से करवाया


   
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श्रीशः उपदंडक
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और निश्चित तौर पर उस बुजुर्ग औघड़ को सारी कहानी बता दी थी धूमनाथ ने! उस औघड़ का नाम कीना बाबा था! मैंने भी प्रणाम किया उसको!

और फिर कुछ ही देर में दो सहायिकाओं के साथ दो विदेशी महिलाओं ने अन्दर प्रवेश किया, सूट-पायजामी में थीं वे दोनों महिलाएं, मनसुख को देखते ही उसके पाँव पड़ गयीं और रोने लगीं! मित्रगण! भाव सदैव अपनी मूल भाषा में ही निकलते हैं, वे अपनी मूल भाषा जर्मन में ही कुछ बोले जा रही थीं! रोते रोते! सहायिकाएं उनका सामान भी ले आई थीं, वहाँ और ठहरना सही नहीं था, कौलव नाथ ने इशारा किया और फिर हम उन महिलाओं को लेकर वहाँ से निकल गए! अब जाकर मेरा उद्देश्य पूर्ण हुआ था, मुझे शीतल एवं परम-शांति का एहसास हुआ, जैसे घुटते हुए गले को एकदम से सांस मिल जाए! महंत, मनसुख, और वे दोनों विदेशी महिलायें बैठी धूमनाथ की गाड़ी में और शेष हम बैठे कौलव नाथ की गाड़ी में!

"चारों भर्ती हैं अस्पताल में!" कौलव नाथ ने कहा,

"चारों कौन? तीन होने चाहियें?" शर्मा जी ने कहा,

एक और है, वो भी लपेटा गया मॉहन और चन्दन के साथ" कौलव नाथ ने कहा,

"हाँ! एक सहायक है वो, हाँ ठीक है, चार हैं" मैंने कहा,

हम पहुंचे कौलव नाथ के यहाँ डेरे पर! वहाँ धूमनाथ पहुँच चुका था उन सबको लेकर! और जैसे ही हमने वहाँ प्रवेश किया, वे दोनों महिलायें मेरे पाँव पकड़ कर बैठ गयीं! महंत ने सारी बात बता दी थी उनको! मैंने उठाया उनको! और बिठाया वहाँ!

पाठको! उसके बाद अगले दिन, मैंने मनसुख, महंत और उन दोनों महिलाओं को रवाना कर दिया महंत के आश्रम के लिए! भारी मन परन्तु प्रसन्न हो कर वे चारों निकल गए वहाँ से! और अब हम रह गए वहाँ! धूमनाथ ले गया हमको अपने डेरे पर! दो दिन हम वहीं रहे और फिर अगले दिन हमने उन दोनों से विदा ली!

मोहन और चन्दन बच तो गए थे, परन्तु शारीरिक रूप से अपंग हो चुके थे, अब बिना सहारे के ना उठ सकते थे और ना बैठ सकते थे! बाबा बुमरा कोमा में चला गया था, मै नहीं चाहता था कि वो प्राण त्यागे, आगे उसकी इच्छा!

हम स्वदेश पहुंचे, महंत के आश्रम आये, महंत, मनसुख और वो दोनों महिलाएं वहीं थीं, प्रसन्न

और स्वस्थ! उनको मोहन और चन्दन ने बरगलाया था, अध्यात्म की सूक्ष्म-ज्ञान उपलब्ध कराने के लिए, और वे बेचारी मासूम फंस गयीं थीं उन बहेलियों के जाल धन्यवाद की लड़ी लगा दी सभी ने! हम एक रात वहीं रुके और फिर अगले दिन हम उनसे विदा लेकर चल दिए अपने शहर! दिल्ली!

करीब सात दिनों के बाद उन दोनों महिलाओं का फ़ोन आया, वे अब वापिस अपने घर जाना चाहती थीं और उनकी फ्लाइट दिल्ली से ही थी, वे एक बार मिलना चाहती थीं हमसे, मैंने सहर्ष स्वीकार किया और एक नियत समय पर मै उनसे मिला, नेत्रों से बहे जल की कोई भाषा नहीं होती, मै भी समझ गया था उनका आशय! मैंने उनको बहुत समझाया कि क्या उचित है और क्या अनुचित! ज्ञान प्राप्ति का पहला चरण तो स्वयं से आरम्भ होता है, ये चरण किसी और को डोज तो आपके पास कुछ शेष नहीं


   
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श्रीशः उपदंडक
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रहेगा! खैर, वे शुक्रवार की संध्या को विदा ले चली गयीं अपने देश! महंत को खबर दे दी गयी, वहाँ से मनसुख को भी खबर मिल गयी!

कौलव नाथ की खबर आई मेरे पास, बुमरा कोमा से बाहर आ गया था, परन्तु अब केवल मृतदेह प्रायः ही शेष था बाबा बुमरा!

वे दोनों महिलायें आज भी मेरे साथ संपर्क में हैं, विशेष पर्वो और विशेष अवसरों पर शुभकामनाएं देती हैं! मै भी उनका आदर करता हूँ, ये आदर मेरे देश का आदर है! मेरे देश पर ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए! जो स्वदेश का नहीं हुआ, वो स्वधर्म, स्वकुल, स्वपरिजन और स्वयं का कदापि नहीं हो सकता!

कर्तव्य निर्वाह कीजिये! मृत्य-भय, कष्ट भय त्याग दीजिये! फिर देखिये, कांटे कैसे मोम और कंकड़ कैसे फूल बन जाते हैं आपकी राह के! बस, बस निष्ठा चाहिए, लग्न चाहिए! देखिये निर्जीव जगत भी कैसे सजीव होता है तब! आपको प्रत्येक वस्तु से मदद मिलने लगेगी! क्योंकि सत्य के साक्षी बहुत हैं, अनगिनत! और असत्य! साक्षीहीन!

------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------


   
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