वर्ष २०१० नेपाल की ...
 
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वर्ष २०१० नेपाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं, मुझे आवश्यकता नहीं" मैंने कहा,

"जैसी आपकी इच्छा गुरु जी" कौलव नाथ ने कहा, "धन्यवाद फिर भी!" मैंने हँसते हुए कहा,

 "ठीक है, मै रात आठ बजे आ जाऊँगा आपके पास, आप भोजन कीजिये और विश्राम कीजिये अब" वो बोला,

"ठीक है कौलव नाथ, मै आठ बजे तैयार रहँगा" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी" वो बोला,                         

और वो चला गया,

मै लेट गया बिस्तर पर, शर्मा जी भी लेट गए,

"गुरु जी, क्या सच में आवश्यकता नहीं साध्वी की?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ, नहीं है ज़रुरत" मैंने कहा,

और वो लाया साध्वी तो?" उन्होंने पूछा,

"लाने दो!" मैंने कहा,

"हम्म!" वे बोले,

"रात आठ बजे निकलना है यहाँ से आज, आज बुमरा बाबा बुमरा नहीं रहेगा!" मैंने कहा,

"सुबह पता चलेगा साले का हाल!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने कहा,

"अरे गुरु जी?" अचानक से कहा उन्होंने,

"क्या?" मैंने पूछा, "वो दोनों हरामज़ादे मोहन और चन्दन?" उन्होंने पूछा,

"उनका हाल क्या होगा ये मै आपको बता दूंगा!" मैंने कहा,

"इनकी तो खाल खींच लेनी चाहिए गरु जी!" वे बोले,

"आप देखो तो सही!" मैंने कहा,

"हाँ!" वे बोले,

तभी सहायक आया, और खाने के विषय में पूछा, मैंने खाना लाने को कह दिया, थोड़ी देर में खाना आ गया, हम खाना खाने लगे! खाना स्वादिष्ट था!

"लगता है यहाँ के पानी में सिफ़्त है कोई ख़ास!" वे बोले,

"पहाड़ी-पानी है शर्मा जी ये!" मैंने कहा,

"तभी हर व्यंजन लाजवाब है!" वे बोले,

"हां, यही कारण है!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"और यहाँ सारा सामान ताज़ा भी तो है, शहरों की तरह नहीं!" वे एक गस्सा खाते हुए बोले,

"बिलकुल सही कहा आपने" मैंने कहा,

हमने खाना डट कर खाया, दो बार सहायक को बुलाया खाना लेने के लिए!

और फिर किया हमने विश्राम! थोड़ी देर में ही ऑखें भारी हो चलीं, जम्हाई आने लगीं! लेटे और सो गए!

जब आँख खुली तो शाम के पांच बज चुके थे, हाथ-मुंह धोया और महंत के कक्ष की ओर चले हम, वहाँ पहुंचे, दोनों ही बैठे थे वहां, हमे देख खड़े हो गए,

"हम आठ बजे निकल रहे हैं यहाँ से!" मैंने कहा,

"पता चल गया है हमे" वे बोले,

"अच्छा हुआ कि आपको पता चल गया!" मै बैठते हुए बोला,

"आज तो धडकनें रुकी हुई हैं जी" मनसुख ने कहा,

"मैंने आपको कहा तो है, आप व्यर्थ की चिंता छोड़ें और आराम से रहें! कल काफी काम है आपके पास!" मैंने हँसते हुए कहा,

"आपको कामयाबी मिले हमारा आशीर्वाद है आपके साथ" मनसुख ने कहा,

"निश्चिन्त रहें, कल का दिन आपके लिए इस समस्या का अंत लेकर आएगा!" मैंने कहा,

हाथ जोड़े उन्होंने अब!

और हम वहाँ से उठे अब! उनको नमस्ते की और निकल लिए!

"बेचारे बहुत चिंतित हैं" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ, दुविधा में पड़े हैं" मैंने कहा,

"समझ सकता हूँ मै" वे बोले,

हम अपने कक्ष में आये अब,

"गुरु जी, आपका सामन बांध दूँ?" वे बोले,

"हाँ, बाँध दीजिये, मैं अभी आया" मैंने कहा और कक्ष से निकला, पहुंचा एक पेड़ के नीचे वहाँ भूमि पर एक यन्त्र बनाया और फिर उसको नमन कर वहाँ से वापिस हुआ, कक्ष में पहुंचा तो शर्मा जी ने सामान बांध दिया था मेरा, सब तैयारी हो चुकी थी, अब इंतज़ार था आठ बजने का!

बातें करते रहे, समय बिताते रहे!

और फिर बजे आठ! कौलव नाथ आ पहुंचा था, उसके साथ महंत और मनसुख भी आये थे, चिंता के भाव लिए वे दोनों बुजुर्ग बेचारे उहापोह में फंसे थे!

"महंत साहब! आपको मैंने कहा है न, चिंता न कीजिये!" मैंने कहा,

वे कुछ नहीं बोले, बस बूढी आँखों में नवजात-अश्रु छलक आये उनके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"महंत साहब! ऐसा न कीजिये! मेरी हिम्मत बढ़ाइए!" मैंने उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा!

अब मनसुख और महंत ने मेरे सर पर हाथ रखे और बोले, "धन्य है वो गुरु जिसके आप शिष्य हैं!’’

"धन्यवाद आप दोनों का!" मैंने कहा और मन ही मन मैंने अपने दादा श्री को नमन किया!

"चलो कौलव नाथ!" मैंने कहा,

"जी चलिए" कौलव नाथ ने कहा,

शर्मा जी ने मेरा सारा सामान उठाया और हम चल पड़े अपनी रणभूमि की ओर! बाबा बुमरा की अब विंशोत्तरी में राहु का वेध लगने वाला था!

आठ बजे और हम निकले वहाँ से! वो जागृत-शमशान अधिक दूर नहीं था वहाँ से, हाँ अँधेरा वहाँ घुप्प था, मात्र गाड़ी की रौशनी ही चमक आ रही थी! हम आगे बढे और फिर उस शमशान तक आये जहां समस्त प्रबंध करवा दिया था कौलव नाथ ने! वहाँ के एक सहायक ने दरवाज़ा खोला, कौलव नाथ गाड़ी सीधी अन्दर ही ले गया, अन्दर जाकर मैंने अपना सामान रखा और मै स्नान करने चला, स्नान हाँ एक मिट्टी के तेल की डिबिया जल रही थी, सो वहीँ नहाया, वहाँ से सीधा कक्ष में गया और सारा सामान उठाया! शर्मा जी और कौलव नाथ को देखा! दोनों ही मुस्कुरा रहे थे। उनकी मुस्कराहट ने मेरे साहस को बल दिया और मैं उनसे विदा ले चल पड़ा वहाँ, जहां एक चिता सुलग रही थी, ये एक जवान पुरुष की चिता थी, मैंने उसको प्रणाम किया और फिर अपने शेष वस्त्र उतार दिए, नग्न हुआ और चिता-भस्म से स्नान किया मंत्रोच्चार करते करते! वहाँ अब अपना आसन जमाया मंत्र पढके, फिर त्रिशूल गाड़ा दायें हाथ की तरफ, फिर मंत्र पढ़े, अब कपाल निकाला और अपने समक्ष रखा! समस्त तंत्राभूषण धारण किये,

और वो चिता ही मेरी जीवित-अलख थी! थाल सजाये और उनमे सामान से निकाल कर मांस रखा, तीन दिए जलाए, चिताग्नि से! कपाल को मदिरा भोग कराया! और स्वयं भी किया! अब अपने गुरु को नमन किया और फिर अघोर पुरुष वंदना की! समय कोई दस के आसपास हुआ होगा,

मैंने आकाश को देखा, तारे झिलमिला रहे थे, चंद्रमा जैसे मूक दर्शक के समान दृष्टि गढ़ाए बैठा था, ताकते हुए! अब मैंने वाचाल-प्रेत का आह्वान किया! घोर आहवान पश्चात वाचाल-प्रेत प्रकट हुआ, अट्टहास करता हुआ! उसके कडूलों की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी! मैंने उसको भोग अर्पित किया और उसको अपना प्रयोजन बताया! वो मुस्तैद हो गया वहाँ और झप्प से लोप हुआ! मै प्रसन्न हुआ! शत्रु-क्रिया से मै अब किसी भी क्षण अवगत हो सकता था! अब प्रकट करना था, अर्थात कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान! दूरस्थ स्थानों के लिए ये अभेद्य हुआ करती है! पल पल की खबर आपको मिलती रहती है! भूत और वर्तमान की सटीक जानकारी देती रहती है! परन्तु इसकी सिद्धि प्राण-हरणी है, लेशमात्र भी चूक और साधक का शरीर बिखर जाता है असंख्य टुकड़ों में! बिना किसी समर्थ गुरु के इसकी सिद्धि के विषय में कदापि नहीं सोचना चाहिए! मैंने उसका मंत्रोच्चार किया और शीघ्र ही क्रंदन और आलाप-विलाप करती हुई, दुर्गन्ध के भडाकों के साथ वायु से उसी स्थान पर में प्रकट हो गयी! मैंने अपना प्रयोजन बताया और भोग अर्पित किया! तत्पश्चात वो भी लोप हो गयी,अब वो मुझे मेरे कानों में पल पल की खबर देने को तत्पर हो गयी! अब मै उठा और उस चिता की परिक्रमा की, सात बार! साधक को चिता से अपना सम्बन्ध बनाना पड़ता है, उसका सर्वस्व यही चिता होती है! मनुष्य का आखिरी बिस्तर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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परिक्रमा के बाद मै वापिस अपने आसन पर बैठा और वाचाल को हुक्म सुनाया कि वृत्तांत बताये शत्रु-पक्ष का!

अब वहाँ का वृत्तांत आरम्भ हुआ! वहाँ एक चिता के समक्ष बाबा बुमरा बैठा था, साथ में दो साध्वियां! और एक और औघड़! थाल सजे थे वहाँ, बाल्टियों में मदिरा भरी थी! धुप की एक मोटी सी डंडी जल रही थी! चिता में सामाग्री डाल कर उसको भड़काया जा रहा था! चूने से क्रिया-स्थल को सजाया गया था! वहां चूने से त्रिशूल और कुछ महाशक्तियों के प्रतीक-चिन्ह बनाए गए थे। तभी बुमरा बाबा भांप गया मेरी दृष्टि को! वो खड़ा हुआ और अपनी छाती पर हाथ मार मार कर अट्टहास करता रहा! एक प्रकार से मेरा उपहास उड़ा रहा था! उसकी साध्वियां भी हंस रही थीं! तभी उसका सहायक औघड़ वहाँ से उठा और वापिस चला गया! शेष रहा वहाँ अब बाबा बुमरा और उसकी साध्वियां! अब बुमरा बैठा अपने आसन पर! उसने साध्वियों को खड़ा किया और फिर कुछ आदेश दिया, आदेश मिलते ही वो नग्न साध्वियां नृत्य मुद्रा में आ गयीं और उस चिता की परिक्रमा करने लगी! बुमरा उनको मदिरा भोग कराता रहता और स्वयं भी करता जाता!

अब मैंने दृष्टि घुमाई, अपने स्थान पर! मैंने मदिरा एक कपाल-कटोरे में परोसी और गटक गया महानाद करते हुए! मैंने भी अट्टहास किया! समय जैसे ठहर सा गया वहाँ, शमशान में विचरते भूत-प्रेत जैसे दर्शक बन बैठ गए इर्द-गिर्द! आज कौन सी बला आ गयी, ये सोचते सोचते! मैंने मांस का एक टुकड़ा उठाया और उसको चबाया, फिर हाथ में लिया और अपने सामने रख दिया, ऐसा मैंने सात टुकड़ों के साथ किया, फिर उनको एक खाली थाल में सजाया, फिर कलेजी उठाई और वो खाता गया, पूरे नौ टुकड़े!

वहाँ, बाबा बुमरा ने अपना चिमटा बजाया और यहाँ मैंने! फिर उसने अपना त्रिशूल उठाया और सामने देखते हुए उसके फाल को नीचे किया! अर्थात यदि मै हार मानता हूँ तो जीवित रह सकता हूँ! मैंने थूक दिया भूमि पर! अर्थात साफ़ ना! उसने फिर कपाल के सर पर मदिरा चढ़ाई अर्थात यदि मै वापिस जाना चाहूँ तो कभी भी जा सकता हूँ! मैंने भी कपाल के सर पर मदिरा चढ़ाई! अर्थात नहीं! मै अपना उद्देश्य पूर्ण हुए बिना नहीं जाऊँगा!

वो उठा और अपना त्रिशूल लहराया! मैंने भी अपना त्रिशूल लहराया! द्वंद आरंभ होने को ही था अब! अब हम दोनों बैठ गए अपने अपने आसन पर! बुमरा ने अपनी साध्वियों को मदिरा पिलाकर निढाल कर दिया था! वे दोनों बेसुध पड़ी थीं वहाँ! बुमरा ने एक पोटली में से कुछ सामान निकाला, वो एक अखबार के ऊपर रखा! ये रक्त से गुंदा हुआ आटा था! मै समझ गया कि वो क्या करने वाला है! वो दमाक्षी को प्रकट करना चाहता था! एक महाप्रबल यक्षिणी की सहोदरी होती है दमाक्षी! अत्यंत क्रूर और वीभत्स! गर्दन नाम मात्र के लिए होती है, कंधे काफी चौड़े और शक्तिशाली होते हैं, ये रक्त से गुंदा हुआ आटा इसको प्रकट कराने के लिए ही प्रयोग होता है! मैंने फ़ौरन ही भौमाक्षी का आह्वान किया, मैंने मूत्र-त्याग किया और उसकी गीली मिट्टी से एक छोटी सी रोटी बनाई, चिता से एक जलती हुई लकड़ी खींची और वो रोटी उसके ऊपर रख दी. फिर मंत्रोच्चार किया! खड़े खड़े! उसने दमाक्षी से आरम्भ किया था ये द्वंद! मै हैरान था!

बाबा बुमरा घमंड में चूर अट्टहास पर अट्टहास लगाए जा रहा था! मंत्रोच्चार करता और फिर अट्टहास करता! उसकी साध्वियां नशे में धुत्त लेटी हुईं थीं! बुमरा उस चिता के चारों ओर परिक्रमा करता और बीच बीच में घोर नाद भी करता! उसका वो शमशान गुंजायमान हो चला था उसके नाद से! इसे कहते


   
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श्रीशः उपदंडक
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हैं शक्तियों का मद! बुमरा शक्तियों के मद में चूर था! वो दमाक्षी को प्रकट करना चाहता था और मै यहाँ भौमाक्षी को! मैंने अब घोर आह्वान किया, प्रकाश पुंज उत्पन्न होने लगे, चिता के समक्ष परिक्रमा करने लगे! भौमाक्षी प्रकट होने ही वाली थी, मै खड़ा हुआ और एक टांग पर खड़ा हो गया, ये तांत्रिक-मुद्रा है, मुद्रा एक स्तम्भ है तंत्र के पञ्च-मकार में से एक! एक मुख्य-स्तम्भ! श्याम-रजकण मेरे कन्धों पर गिरने लगे और जमने लगे! वहाँ दमाक्षी भी प्रकट होने वाली थी! और यहाँ भौमक्षी! दमाक्षी प्रकट हुई वहाँ, हाथ में खडग लिए! और दूसरे ही क्षण मेरे आह्वान पर भौमाक्षी भी प्रकट हुई! हाथ में वज्रपाश और बिन्दीपाल लिए! पांवों में घुघरू धारण किये हुए और रक्त-रंजित केश लिए हुए जो भूमि को स्पर्श न कर उसकी जांघो में लिपटे हुए था! बुमरा के आदेश पर दमाक्षी शत्रुभेदन के लिए अग्रसर हुई और क्षणमात्र में मेरे यहाँ मेरे मस्तक के ऊपर प्रकट हुई! उसको देखकर भौमाक्षी की भृकुटी तनी

और उसने भयानक अट्टहास किया! उसके अट्टहास मात्र से दमाक्षी झम्म से लोप हो गयी! अब मैंने भोग अर्पित कर भौमाक्षी को नमन किया! अट्टहास करते हुए वो भी लोप हो गयी! वातावरण सामान्य हो गया! वहाँ ये सब देख बुमरा डरा भी नहीं, सहमा भी नहीं! हाँ अचंभित अवश्य था! उसने झट से मदिरा परोसी एक गिलास में और फिर गटक गया! मूंछों और दाढ़ी पर हाथ फेरा और फिर बैठ गया! उसने नेत्र बंद किये और जामिष-विदया का संचार किया! ये मेरे लिए चिंता का विषय था! वो मेरे गुप्तचरी और 'देख' और 'देखनेवाले' को भेदना चाहता था! ये तांत्रिक-चुनौती का उल्लंघन था! निश्चित तौर पर! अब मै समझा, समझा कि धूमनाथ के गुरु-भाई का अंत कैसे हुआ होगा! बुमरा वास्तव में ही एक जाहिल और कमीन औघड़ था, जामिष-विद्या के संचरण से उसने ये सिद्ध भी कर दिया था! उसने जामिष-विद्या का संधान कर लिया था! उसने अपना त्रिशूल उठाया और भूमि पर तीन बार मारा! फिर डमरू बजाते हुए जामिष-विद्या का प्रयोग किया, मेरे यहाँ मेरा वाचाल-प्रेत झम्म से लोप हो गया! कर्ण-पिशाचिनी और मेरा संपर्क टूट गया! परन्तु मै घबराया नहीं! मैंने भी कामरूप-सुंदरी का आह्वान कर डाला! कामरूप-सुंदरी के आह्वान से उसकी सहचरियां प्रकट हो गयीं! उनके प्रकट होते ही जामिष-विद्या का ह्रास हो गया! ये देख बौखला गया बुमरा! किसी विक्षिप्त औघड़ की तरह अपनी छाती और सर ठोकता रहा! मैंने फिर से वाचाल-प्रेत का आह्वान कर लिया! और कर्णपिशाचिनी से मेरे श्रवण-सम्पर्क स्थापित हो गया! अब तक बुमरा मेरा सामर्थ्य देख चुका था! मित्रगण! तंत्र में 'बस' नहीं होता! जो इस 'बस' को सब कुछ समझ बैठा समझो मृत्यु को निमंत्रण दे बैठा! यही बुमरा ने किया! जामिष-विद्या सीख कर उसने भी 'बस' कह डाला! उसने कामरूप सुंदरी के विषय में यदि पता भी होगा तो उसने ज़हमत नहीं उठाई होगी, क्योंकि उसको छप्पन का खेल जो सीखना था! उसमे पारंगत जो होना था! अब मैंने यहाँ महानाद किया! अट्टहास किया! ये मेरा व्यंग-बाण था उस बाबा बुमरा की खीझ पर!

"बुमरा!" मैं चिल्लाया!

उसने आकाश में देखा और फिर अट्टहास किया!

"बुमरा!" मैंने फिर से चिल्लाकर कहा!

उसने भूमि पर थूका! वो अभी भी डटा था!

"बुमरा!" मैंने फिर चिल्लाया!

"नहीं!" वो चिल्लाया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने अब चिता से एक जलती हुई लकड़ी निकाली और उस से भूमि पर एक वृत्त खींचा! फिर लकड़ी चिता पर वापिस रख दी! और मंत्र पढ़ते ही मै वृत्त में जा खड़ा हुआ! अब मैंने बुमरा को सीख सिखाने की योजना बनायी! मैंने संथाल-चक्रिका का संधान किया! मैंने अपने गले में धारण की हुई एक अस्थि जड़ी माला निकाली और उस से भूमि पर दो स्त्री की आकृतियाँ बनायीं! मैंने दो अस्थि के टुकड़ों को उनके सर में घोंपते हुए गोल-गोल घुमा दिया! और फिर संथाल-चक्रिका का प्रयोग करते हुए शक्तिपात कर दिया उसके शमशान पर! संथाल-शक्तिपात होते ही उसके धुत्त पड़ी साध्वियों को जैसे किसी ने उनके बालों से उठाया और तीव्र गति से जलती हुई चिता की परिक्रमा आरम्भ की! बुमरा समझ नहीं पाया कि ये कौन सी विद्या है!

और जब तक वो समझ पाता साध्वियां हो गयी निढाल, धूल-धसरित होकर गोल गोल घूमने लगीं! समझ गया बुमरा बाबा ये विद्या! उसने शीघ्र ही एक गिलास में मूत्र-त्याग किया और फिर वो मूत्र उन दोनों साध्वियों के ऊपर डाल कर, मंत्र पढ़ते हुए संथाल-चक्रिका भेद डाली! मेरी हंसी छूट गयी! मैंने मदिरा की बोतल ली और गटक गया करीब एक पव्वे से अधिक! और फिर अट्टहास किया खड़े होकर!

अब बाबा बुमरा क्रोध में भड़का! उसने चिता से दो लकड़ियाँ निकाली, एक दूसरे के ऊपर रखीं, धन(+) का चिन्ह बनाते हुए! फिर उसने मदिरा डाल कर उनको भड़काया! ये महाकाल-नृप क्रिया होती है! उसने अब नृत्य करना आरंभ किया, अपना त्रिशूल हवा में लहराते हुए! वो जो कुछ भी करने वाला था वो महा-भीषण होने वाला था! संथाल-चक्रिका से भड़क गया था बाबा बुमरा! मेरे नेत्र चौड़े हुए अब! कान उल्लू की श्रवण-मुद्रा में आ गए!

बाबा बुमरा साम, दाम, दंड, भेद से ये द्वन्द अपने नाम करना चाहता था! ये स्पष्ट था! उसने मेरे वाचाल-प्रेत को लोप कर दिया था और कर्ण-पिशाचिनी से संपर्क में अवरोध उत्पन्न कर दिया था! कम अज कम उसने ये जता दिया था कि वो इस हद तक भी गिर सकता है! जिस प्रकार युद्ध में अपने प्रतिद्वंदी के निहत्थे होने पर उसको मारा नहीं जा सकता, क्योंकि ये युद्ध का उल्लंघन होता है, यदि निहत्थे शत्रु को मार दिया जाए तो उसकी हत्या करना माना जाता है, युद्ध में खेत नहीं, उसी प्रकार तंत्र-द्वन्द में एक दूसरे के सहायक 'देख' को नहीं कीलित किया जाता! ये नियम भूल गया था बुमरा बाबा अथवा वो जानबूझकर ऐसा कर रहा था! वो वहाँ शमशान में किसी विक्षिप्त औघड़ की तरह नृत्य कर रहा था, महाकाल-नृप को जगा रहा था! महाकाल-नृप! अत्यंत शक्तिशाली और अभेद्य महाशक्ति! श्री महा-औघड़ के गणों के सेवकों में से एक होता है महाकाल-नृप! इनके कुछ मंदिर भी है, मध्यकाल में निर्मित, आज खंडित हैं, अथवा समय के साथ नष्ट हो गए हैं! झांसी से कुछ दूर आगे एक ऐसा ही मंदिर पड़ता है, जिसे जरा का मठ कहा जाता है, ये आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की संपत्ति है, ये मंदिर ऐसे ही एक महाकाल-नृप के लिए समर्पित है, मंदिर के गर्भ-गृह में कोई मूर्ति नहीं होती वरन दीवारों पर कुछ अप्सराएँ अन्कीर्ण होती हैं, हाथों में थाल लिए, उनमे सामिष पदार्थ लिए हुए, यदि आप ऐसा कोई मंदिर देखें तो समझ जाएँ ये किसी महाकाल-नृप का ही मंदिर है! । मध्यकाल तंत्र का युग था, ऐसे कई मंदिर बनाये गए जो बाद में सत्ता परिवर्तन के समय तोड़फोड़ दिए गए, आज कुछ खंडहर मात्र शेष हैं, हाँ, आज भी जो कुल-देवता अथवा ग्राम-देवता होते हैं वे यही महाकाल-नृप हैं! अब जिस महाकाल-नृप का बाबा बुमरा आह्वान कर रहा था वो धनात्मक महाशक्ति है, नाम है शिशिम्भ! शिशिम्भ जैसे कई महाकाल-नृप हैं! भद्रक, काम्बोज(पंजाब में एक जनजाति है जो कम्बोज नाम लगाती है अपने नाम के साथ, यही कम्बोज पाकिस्तान में कम्बोह हो जाता है, कुछ ऐसे ही


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुस्लिम भारत के दोआब क्षेत्र में भी हैं), उरुवेशा, तौविल, किरीट, तवक, अमूहपाश, व्याघ्रांत आदि आदि!

बाबा बुमरा त्वंड-मुद्रा (तंत्र में एक विशिष्ट मुद्रा) में झुका, और महा-मंत्रोच्चार आरम्भ किया! अब मैंने भी उसका सामना करने हेतु घंटाकर्ण महावीर की अलख बजाई! अलख बजाने का अर्थ है खड़े खड़े मंत्रोच्चार करना, हाथ में चिता की जलती लकड़ी लिए हुए! मै गहन प्रस्फुटन में पहुंचा और फिर एकाग्रचित होकर चिता की परिक्रमा करने लगा! तभी जैसे बिजली सी कड़की चिता के मध्य! मित्रगण! जब किसी महाशक्ति का आह्वान किया जाता है तो सदैव उस महाशक्ति के सेवक, सेविकाएँ, सहोदर, सहोदारियाँ आदि प्रकट होते हैं, सीधे वो महाशक्ति नहीं! सो, जब बिजली कड़की तो मैं समझ गया, घंटाकर्ण महावीर जागृत होने ही वाले हैं, ये महासिद्धि है, बहुत तीक्ष्ण और प्राण-हारी सिद्धियों में से एक! मेरे कानों में घंटों के स्वर गूंजने लगे, जैसे दसों दिशाओं में से घंटे बज रहे हों! क्या भूमि और क्या आकाश! हर जगह! घंटाकर्ण महावीर भी किसी ऐसी ही महाशक्ति के वीर हैं! ये पुरुष महाशक्ति हैं! द्वन्द में सदैव धन से धन और ऋण से ऋण शक्ति ही टकराती है! वहाँ, बुमरा के समक्ष जलती हुई चिता की अग्नि भड़क गयी, उसमे त्रिशूल जैसी लपटें उठने लगीं! तीन फाल जैसी अग्नि! महाकाल-नृप शिशिम्भ भी जागृत होने वाले ही थे! अब अट्टहास किया बाबा बुमरा ने! नृत्य थम गया उसका! हॉफते हुए उसने अपना त्रिशूल लहराया और फिर डमरू बजाते हुए चिता की परिक्रमा करने लगा! यहाँ मैंने अब अपना त्रिशूल संभाला और अपने पास रखे कपाल के सर पर रखे कपाल-कटोरे में मदिरा डाल कर गटक गया! फिर उस कपाल से वार्तालाप किया, क्या वार्तालाप? ये मै नहीं बता सकता मित्रगण! ये निषिद्ध है! चिता की अग्नि भड़की अब और फिर सिंहनाद सा हुआ! और अब मै बैठ गया अपने आसन पर! त्रिशूल अपने समक्ष रख लिया! और डमरू बजाते हुए संधान किया मन्त्रों का! और खो गया डमरू की मधुर खड़-खड़ ध्वनि में! शमशान में डमरू बजाने से वैसे ही भूत-प्रेत जागृत हो जाते हैं मित्रगण! हाँ, परन्तु कौन सा डमरू?? ये है प्रश्न! डमरू के दाने जो पटल पर बजते हैं वो मानव अस्थि के होते हैं, जो रस्सी होती है वो केश होते हैं, आपस में गुंथे हुए, आखिरी हद तक! जो पटल होते हैं वो मानव-चर्म होती है, कभी-कभार ये चर्म किसी विशेष पशु की भी होती है! किसी विशिष्ट पशु की! इस चर्म के लिए आप उसकी हत्या नहीं कर सकते, न ही उसको पालतू बना सकते! तभी मै बहार निकला उस ध्वनि से!

"बुमरा?" मैंने कहा और दो बार डमरू बजाया!

उसने भी दो बार बजाया अपना डमरू!

"बुमरा?" मैंने फिर से दो बार बजाया!

उसने भी दो बार बजाया!

"बुमरा?" मैंने फिर एक बार बजाया!

उसने अब तीन बार बजाया! अर्थात वो टिका हुआ था! चूर था शक्ति-मद में!

"बुमरा! अक्षत..........................................हुम फट!" मैंने एक मंत्र पढ़ा!

उसने भी मेरे मंत्र का उत्तर दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अब जैसे पर्दा उठा और खेल आरम्भ हुआ! वहाँ प्रकट हुए दो गण-सेवक! शरीर पर चर्म धारण किये हुए! हाथों में अस्थियों से बने शस्त्र लिए हुए! लम्बे बिखरे केश उनके! बुमरा का सीना चौड़ा हो गया! नेत्रों में कुटिलता भर गयी! नथने चौड़े हो गए! विजय की गंध से उन्मादित हो गया बाबा बुमरा!

और यहाँ, यहाँ प्रकट हुआ एक महाभट्ट वीर! हाथों में मुग्दर लिए हुए, शक्तिशाली भुजाएं उसकी! शैल-रुपी जंघाएँ और धूम्र-वर्णी रूप-काया! बलिष्ठ देह! शरीर पर अनगढ़ आभूषण धारण किये हुए! रुक्ष केश! भयानक और क्रोध में! साक्षात् मृत्यु का परकाला!

समय को विराम लग गया! मै और बुमरा पारलौकिक-लोक में विचरण करने लगे! मूर्त-संसार से उठ गए थे हम दोनों! दोनों अपने उद्देश्य-प्राप्ति हेतु अडिग थे! वहाँ बुमरा आमने मद में चूर था और मै यहाँ उसके आगामी कृत्य की प्रतीक्षा में था!

क्षण प्रतिक्षण द्वन्द गहराए जा रहा था! बुमरा नीचे अपने आसन पर बैठा और गण-सेवकों को उसने अनुनय किया शत्रु-भेदन हेतु! वे झम्म से लोप हुए और मेरे यहाँ आकाश से प्रकट हुए, मेरे शरीर में प्रदाह-अग्नि भड़क उठी! परन्तु ये क्षणिक ही थी, मेरे यहाँ घंटाकर्ण महावीर का वीर उपस्थित था! उसकी प्रबल तेजस्विता से प्रभावित हो गण-सेवक लोप हो गए! ये देख बुमरा के सीने में जमी काई फटी! उसका ये प्रहार भी विफल हो गया था! मैंने तत्काल ही उस महावीर को नमन किया और वो उसी क्षण लोप हो गया! बाबा बुमरा को सांप सूंघ गया! ये मै जान गया था! अब मै खड़ा हुआ और फिर मदिरा का एक गिलास चढ़ाया! और फिर अट्टहास किया!

"बुमरा?" मैंने चिल्लाया!

उसने उलट-पलट के ऊपर नीचे देखा!

"बुमरा?" मै फिर से चिल्लाया!

वो गुस्से में फुनक उठा!

"बुमरा?" मै फिर से चिल्लाया! और अपना त्रिशूल लहराया! बुमरा भयभीत सा इधर उधर डोलने लगा! यही स्थिति होती है जब किसी औघड़ को उसकी हद पता चलती है! वो यहाँ से भी पलट सकता था, घुटने के बल बैठ कर अपना त्रिशूल भूमि पर लम्बवत रख सकता था! किन्तु नहीं! उसके अपने छप्पन के खेल में माहिर होने का घमंड था! वो इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था!

अब मै कुछ प्रयोग करना चाहता था, मैंने एक थाल उठाया, उसने अपनी 'देख' से मुझे देखा, मैंने थाल में से चार टुकड़े कलेजी के उठाये और कच्चा ही चबा गया मै, अब मैंने एक मंत्र पढ़ा और एक आसुरिक-वान्यादल का आह्वान किया, ये कुल संख्या में चौबीस कन्यायें होती हैं! बलशाली सौंदर्य से सम्पूर्ण और मादक परन्तु विषैली! वे तुरंत प्रकट हुईं, एक दूसरे के हाथ थामे हुए! वे मुस्कुरायीं और फिर मैंने उन्हें भेजा बाबा बुमरा के पास! बाबा बुमरा अपनी 'देख' से ये देख चुका था! वो फ़ौरन पीछे भाग और एक बड़े से पत्थर पर जा बैठा! वन्यादल तभी आघात करेगा जब चाँद की रौशनी में आपकी छाया आपके सम्मुख होगी, अन्यथा नहीं, वान्यादल प्रतीक्षा करेगा और करता रहेगा, चाँद के कुम्हलाते ही वो लोप हो जाएगा! बुमरा बाबा ने यही किया! उसने अपनी परछाईं को पीछे की ओर, अपने शरीर को घुमाते हुए कर लिया! बुमरा


   
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श्रीशः उपदंडक
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औघड़ था, समझदार था, जब वान्यादल वहाँ प्रकट हुआ तो उसने उनकी काट करते हुए चौबीस बार मंत्रोच्चार करते हुए अपने त्रिशूल को भूमि पर मारकर उनको लोप कर दिया! उस दल की काट हो चुकी थी! और यहाँ मै मुस्कुरा रहा था!

"बुमरा!" मैंने कहा ज़ोर से!

वो अब उठा वहाँ से! दाढ़ी पर हाथ फेरा, और फिर मदिरा की बोतल गटकने लगा!

"बुमरा!!" मैंने फिर से कहा,

वो ठहाका मार के हंसा अब!

"बुमरा!!!" मैंने अब अपना त्रिशूल उसकी दिशा की ओर करते हुए कहा! उसने मदिरा की खाली बोतल में एक लात मारी जमकर! और गुस्से में धधकते हुए उसने अपनी एक साध्वी को बाल से पकड़ कर घसीटा, चिता तक लाया! उसको उल्टा लिटाया, पेट के बल और फिर उसके ऊपर मूत्र-त्याग किया, फिर अपने दोनों हाथों से साफ़ किया उसको! अर्थात अब वो किसी भयानक संग्राम की तैय्यारी में था! वो उस पर चढ़ गया, खड़ा हो गया और फिर उस साध्वी के हाथ फैला दिए उसने, हाथ फैला कर उसकी टांगें भी फैला दी, फिर बैठ गया उस पर! अब एक ठहाका मारा उसने!

"क्या कर लेगा मेरा! हैं! क्या कर लेगा! आज जिंदा नहीं छोडूंगा तुझे! तुझे मारकर ही दम लूँगा में, मै बाबा बुमरा हूँ, बाबा बुमरा! तेरे जैसे मैंने कितने निपटा दिए!" उसने गर्रा के कहा! "अभी भी अवसर है बुमरा!" मैंने हँसते हुए कहा!

"भाड़ में जा तू!" उसने कहा,

मुझे हंसी आ गयी!

"बुमरा से टकराएगा! हा! हा! हा! हा!" उसने हँसते हुए कहा!

मै उसको देखता रहा, देखता रहा कि आगे की क्या रणनीति अपनाता है बुमरा!

वो शांत हुआ और मंत्रोच्चार करने लगा! ये कौहित्र-मंत्र थे! अर्थात वो अक्षोत्तम-सहोदरी को प्रकट करना चाहता था! ये सहोदरी भयानक, रूप बदलने वाली, शत्रु-भेदन करने वाली, स्वर्णप्रभा यक्षिणी की सहोदरी है! बेहद नपा-तुला और सटीक वार चुना था बुमरा ने! मेरे पास कोई साध्वी नहीं थी, ये उसको मालूम था, और इस सहोदरी का आह्वान साध्वी को आसन बना के ही किया जा सकता है! मुझे फ़ौरन काट करनी थी उसकी, सहसा मुझे किन्धक यक्ष सहोदर का ध्यान आया, ये सक्षम होता है किसी सहोदरी को संभालने में! मै तुरंत दौड़ा चिता की ओर और उसकी उलटी परिक्रमा की, इक्कीस बार और फिर उसके मुंड के ऊपर रखी एक मोटी सी लकड़ी उठायी, और उस से एक चतुर्भुज बनाया और उस लकड़ी को वापिस वहीं रख दिया, चिता में मुंड कुछ ऐसी स्थिति में था जैसे मुझे ही देख रहा हो! वो भी खीझ कर! मैंने उसी लकड़ी से वो मुंड सीधा कर दिया!

अब मै उस चतुर्भुज में बैठा और मंत्रोच्चार करने लगा, फट, फट, खाम, खाम, ठ: ठ: की ध्वनि से शमशान में जैसे प्राण संचार कर गए! शमशान में जान आ गयी! मेरे मंत्रोच्चार और तीव्र होते चले गए, तभी मुझे मेरे शरीर पर रक्त की बूंदें पड़ने का आभास हुआ, ये बूंदे किसी सिक्के के समान बड़ी थीं! किन्धक की आमद का ये पहला चिन्ह है! मैंने और तीव्र मंत्रोच्चार किया और फिर तत्पश्चात मुझे मेरी


   
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श्रीशः उपदंडक
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पसलियों में अकड़न महसूस हुई! ये दूसरा चिन्ह है! और तीव्र मंत्रोचार और फिर मेरे उदर में शूल उठा, कुछ क्षण के लिए! लगा कि जैसे के आने वाली हो, ये तीसरा चिन्ह!

और वहाँ बाबा बुमरा भी अपने हाथ हिला हिला कर आह्वान में मग्न था!

बुमरा बाबा लगा हुआ था घोर आह्वान में! उसके शरीर की मुद्रा बताती थी कि कितना समय और है अक्षोत्तम-सहोदरी को प्रकट करने में! मै भी किन्धक सहोदर का आह्वान कर रहा था, किन्धक वज्र की भांति प्रहार करता है, रातों रात तालाब को सुखा सकता है! वृक्षों पर बसंत में भी पतझड़ लाद सकता है! ये अत्यंत क्रूर और निर्दयी होता है, क्या बालक, क्या महिला और क्या वृद्ध, सामने जो आया उसके प्राण हर लेता है, इसके प्रहार के बाद देह काली पड़ जाती है, कृशकाय हो जाती है, देह का रक्त सूख जाता है! अग्नि में भी देह जल नहीं पाती! खैर, मै किन्धक के आह्वान में खो गया था, मंत्र-ध्वनि ने वहां के प्रत्येक पक्षी की नींद उड़ा दी थी और रात्रि में विचरण करने वाले पक्षी भी इसे खलल समझ रहे थे! अब मै उठा और मदिरा का एक गिलास भरा फिर उसको चिता के सर के पास जाकर गटक गया! और फिर से मंत्र पढने लगा! अब मदिरा ने आवेश धारण कर लिया था, मै और स्व-केन्द्रित हो चला था, औघड अपने रूप में आ चला था! अब तो जैसे मर जा या मार दे! मेरे मंत्र और तीव्र होते गए!

वहाँ बाबा बुमरा भी जैसे बावला हो चला था! और तभी वहाँ केशों के गुच्छे गिरने लगे! ये देख बुमरा ने गला फाड़कर मंत्र पढ़े! धनुषाकार मुद्रा में वो झुका और उस अदृश्य शक्ति को नमन किया! और एक पल में ही अक्षोत्तम-सहोदरी प्रकट हो गयी! लाल रंग के चमकते हुए वस्त्र में लिपटी हुई, लम्बी कद-काठी और बाहुबल से भरपूर ये सहोदरी अत्यंत रौद्र और दामिनी के समान होती है, दामिनी-प्रताडन से किसी भी शक्तिशाली शत्रु के परखच्चे उड़ा देती है एक ही क्षण में! अक्षोत्तम-सहोदरी ने अट्टहास लगाया! त्वरित वायु को विराम लग गया! भड़कती चिताग्नि शांत हो गयी, जैसे भयभीत हो गयी हो! झींगुरों और मंझीरों की आवाज़ भी शांत हो गयी! रात्रि के प्रहरी अपना कर्तव्य भूल बैठे! और यहाँ, यहाँ एक भयानक चक्रवात के साथ मेरे समक्ष वायु-प्रवाह आया! वायु में मेरे केश रुक्ष हो गए, मेरी सांस घुटने लगी सीने में, छाती में गयी हुई हवा वापिस नहीं आ रही थी, और सांस मै ले नहीं पा रहा था! अब मैंने मन ही मन फिर से मंत्र पढ़े तो तभी वो वायु-प्रवाह शांत हो गया! मै धम्म से बैठ गया अपने आसन पर! और फिर मेरे अंतिम मंत्र के अंतिम शब्द पर 'भनाक' की आवाज़ हुई! जैसे किसी शांत पानी में कोई हाथी उठा के फेंक दिया गया हो! मै भी हिल गया पूरा का पूरा, मेरे आसन के पास की मिट्टी दूसरा स्थान ढूँढने लगी! ये किन्धक की आमद थी! किन्धक प्रकट हो गया था! उसके घुटनों के नीचे अग्नि प्रज्ज्वलित थी, नीले रंग की अग्नि, कभी पीली होती और कभी चक्राकार रूप में घूमती! मैंने खड़े होकर किन्धक को नमन किया! किन्धक यथावत ठहरा रहा वहाँ! उसने गले में शंख-माला ऐसे चमक रही थी कि जैसे श्वेत सर्प धारण किया हुआ हो! कमर तक उसके केश और भुजाओं में बंधे अस्थि-माल! उसने हाथ में एक स्वर्ण-परशु धारण किया हुआ था, एक इंसान की छाती के बराबर उसका फाल रहा होगा!

वहाँ बुमरा ने अपनी व्यथा सुनाई और अक्षोत्तम-सहोदरी क्रोध से भयानक आक्रान्त अवस्थ में लोप हुई वहां से और मेरे पलक झपकते ही वहां प्रकट हुई! प्रकट होते ही उसने मुझे क्रोध से देखा और तभी उसके और मेरे मध्य किन्धक पूर्व स्थान से लोप हो, प्रकट हो गया! बुमरा के सीने में जैसे हौला उठा! जैसे सीने के आरपार कोई त्रिशूल हो गया हो! वो नीचे बैठता चला गया! यहाँ, यहाँ मै नहीं देख सका कि अक्षोत्तम-सहोदरी कैसे लोप हुई! हाँ केवल इतना ही कि जब मै खड़ा हुआ तो किन्धक भी लोप हो


   
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श्रीशः उपदंडक
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गया! उसका उद्देश्य पूर्ण हुआ था और अब वहाँ ठहरने का कोई औचित्य नहीं था! तभी शमशान में लगा एक बड़ा से पेड़ का एक बड़ा सा तना नीचे झुका और भूमि पर गिर गया कड़कड़ की आवाज़ करता हुआ! ये किन्धक की उपस्थिति से निकली ऊर्जा के कारण हुआ था!

अब मेरा ध्यान बुमरा पर गया! बुमरा को अब जैसे काठ मार गया! उसका अभेद्य अस्त्र भोथरा हो कर टूट गया था! उसका थोथा दंभ अब जैसे धुंआ बनता जा रहा था! अब वो ऐसा ही प्रतीत होता था जैसे कि एक दंतहीन और नख-हीन सिंह! मात्र दहाड़ ही रहा था, सकता था!! मै खड़ा हुआ! डमरू उठाया और तीन बार बजाया!

"बुमरा?" मैंने चिल्ला के कहा!

वो ऐसे डरा जैसे आकाश से बिजली कडकी हो और कोई सोता हुआ बालक फ़ौरन उठते ही रो पड़े!

"बुमरा?" मैंने फिर दोहराया!

उसने अपना त्रिशूल मेरी ओर किया! मुझे हंसी आई और मै रोक न सका!

"बुमरा?" मैंने फिर से आवाज़ लगाईं!

उसने अपना चिमटा बजाया अब और चिमटा चिता के सर के पास जाकर भूमि में गाड़ दिया! वो पुनः तैयार था अगले वार के लिए! कहते हैं ना रस्सी जल गयी लेकिन बल नहीं गए! वहीं हो रहा था बाबा बुमरा के साथ!

मैंने अपने पास रखा एक अस्थि-माल उठाया और हवा में उछाला और फिर लपक लिया! इसका अर्थ था कि मै उसको खाली कर दूंगा शीघ्र ही! ये एक इशारा था बाबा बुमरा को मेरा! कि अभी भी समय है!

बुमरा नहीं माना, वो बिफर और किसी उन्मत्त औघड़ की तरह से अट्टहास किया! ज़ोरदार

अट्टहास!

"बुमरा?"

"बुमरा?"

"बुमरा!"

मैंने तीन बार कहा और आखिरी बार हंस कर कहा!

वो नहीं माना! नहीं माना वो घमंडी औघड़! जबकि उसके किले के परकोटे एक एक करके ध्वस्त हुए जा रहे थे!

"मान जा बुमरा! मान जा!" मैंने चेताया उसको!

"कभी नहीं! कभी नहीं!" वो चिल्लाया!

"मान जा!" मैंने फिर कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने गुस्से में मेरी ओर अपना त्रिशूल ही फेंक मारा! त्रिशूल कुछ दूर जाकर भूमि में गड़ गया और ये देख मेरे होंठों पर मुस्कान आ गयी!

जब बुमरा बाबा ने अपना त्रिशूल फेंक के मारा था, उस से साबित हो गया था कि वो द्वन्द नियंत्रण खो रहा है! संयम चू चला था उसका! घमंड का भार अभी भी उसके मस्तिष्क में था, और यही घमंड उसको अब ले डूबने वाला था! मैं अभी भी नियंत्रण में था, मैंने अभी तक कोई वार नहीं किया था, बस उसके वारों का ही जवाब दिया था! मैंने वहाँ 'देख' ज़ारी रखी अपनी, बाबा बुमरा उठा अपने आसन से और एक जगह गया, वहाँ उसने एक बोरे से एक झोला निकाला, उसने अब उस झोले से एक पन्नी निकाली और उस पन्नी के अन्दर से 'छोटा पेठा' निकाला! वो अब एक किलष्ट क्रिया करना चाहता था! ये एक गंभीर बात थी, बाबा बुमरा एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहा था ये द्वन्द जीतने के लिए! अब उसने वो 'पेठा' एक थाल में रखा! फिर थाल लेकर अपने आसन पर बैठा, थाल अपने सम्मुख रखा! और अब मंत्रोच्चार किया! 'पेठा' भिन्न भिन्न साधनाओं में काम आता है, अब वो कौन सी क्रिया कर रहा था ये नहीं पता चल रहा था! क्रिया की मध्यावस्था तक मुझे उस पर दृष्टि जमाये रखनी थी! और फिर तत्पर भी रहना था! तभी बुमरा बाबा खड़ा हुआ, और चिता तक गया, वहाँ से एक जलती हुई लकड़ी निकाली और और उसको अपने सम्मुख रखा, फिर मदिरा के छींटे दिए उसे! और कुछ कलेजी के टुकड़े उस पर रख दिए, फिर कुछ देर शांत रहा, फिर कलेजी के टुकड़े उठाये और चबाने लगा! चबाते चबाते वो अपनी चारों दिशाओं में नज़र घुमा के देखता और फिर खड़ा होकर अट्टहास करता था। उसने फिर मांस के टुकड़े उस लकड़ी पर रखे, मदिरा के छींटे दिए और आग भड़का ली! अब उसने एक विशेष मुद्रा में बैठ कर आह्वान किया! अब मै समझ गया! ये कि उस मुद्रा में किस का आह्वान होता है! ये तड़ित-रोड़का का आह्वान था! तड़ित-रोड़का! एक प्रबल महाशक्ति की सेविका है, ये उस महाशक्ति के त्रिशूल की शक्ति-वाहिनी होती है! दिन में पृथक रूप और रात में पृथक रूप धारण करती है, सर्वकाल बली होती है! यदि बुमरा ने तड़ित रोड़का को सिद्ध किया है तो वो सच में ही ऊंचे दर्जे वाला औघड़ है! वो बारह-चौदह का नहीं, सत्रह-अठारह का है! मेरा अंदाज़ा गलत निकला था! अब मेरे लिए ये चिंता का विषय बन चला था! वो मुद्राओं का जानकार था, उसके गुरु ने वास्तव में ही बहुत मेहनत की होगी उसके साथ! वो भिन्न भिन्न मुद्राओं में मंत्रोच्चार कर रहा था! उसने शीर्ष-मुद्रा धारण की फिर बकः मुद्रा, अब कोई संदेह शेष नहीं था कि वो तड़ित-रोड़का का ही आह्वान कर रहा था! अब मुझे उसका उत्तर देना था!

मै उठा और चिता तक गया, कुछ और बड़ी लकडियाँ डालीं उसमे, और फिर कुछ देर ध्यान करने के लिए बैठ गया वहाँ! उसका ताप मेरे वक्षस्थल पर तपिश मार रहा था! मेरी मालाएं एवं तंत्राभूषण तापग्रस्त हो चुके थे! ताप असहनीय हो रहा था अब, परन्तु मै ध्यानमग्न ही रहा, या कहिये ऐसा कि रहना पड़ा! मैंने ध्यान पूर्ण किया और अब वहाँ से उठा, उठकर अपने आसन पर आके बैठ गया, एक गिलास में मदिरा डालकर रख दी सामने और फिर पोटली में से एक विशेष कपाल निकाला, उसको मदिरा से धोया, साफ़ किया, और फिर रख दिया त्रिशूल के पास! ये विशेष कपल होता है, इसका प्रयोग भीषण क्रियायों में किया जाता है, जहां साधक को अपनी मृत्यु स्पष्ट दिखाई दे रही हो वहाँ! अब मै तत्पर हुआ और ज्वाल-मालिनी का आह्वान किया! ये तड़ित-रोड़का से ऊपर है, वो महाशक्ति की सहोदरी है और ये भी एक तीक्ष्ण महाशक्ति की सहचरी है! भीषण एवं अचुक प्रहार करती है! ये ढाल बन जाए तो साक्षात मृत्यु-दूत भी न ठहर सकते इसके समक्ष! बलिष्ठ देह वाली, नाक में बड़ा सा कुंडल पहने, माथे पर आभूषण धारण किये हुए! हाथों में कड़े, कोहनी तक! और काले रंग के कपडे धारण


   
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श्रीशः उपदंडक
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किये हुए होती है! उद्देश्य की पूर्ति क्षणों में करती, शत्रु-भेदन उसके लिए ऐसा है जैसे कोई गजराज किसी पेड़ की डाल को बिना किसी प्रयास के तोड़ डालता है! तड़ित-रोड़का और ज्वाल-मालिनी दोनों ही भयानक और विकराल हैं! इस संसार में ऐसे अनगिनत रहस्य हैं, अनगिनत शक्तियां हैं, जिनके बारे में केवल अल्प मात्र मनुष्य ही जानते हैं, और जो जानते हैं वो बताते नहीं और किसी को!

अब मैंने आह्वान आरम्भ किया! वहाँ बुमरा भी गहन मंत्रोच्चार में डूबा था! वो अब आर-पार की लड़ाई चाहता था! और मै उसको और मापना चाहता था, ये तड़ित-रोड़का अंतिम है इसके पास अथवा इस से भी कहीं अधिक है उसके पास? ये मुझे नहीं पता था, ये मुझे उसके वार से ही पता चल सकता था! अब मैंने कपाल पर कुछ मंत्र पढ़े और फिर अट्टहास लगाया! हाथ में उठाये हुए कपाल से पुनः वार्तालाप किया और फिर उसको चूमा! और उसके सर पर हाथ फिराया! उसको दोनों हाथों से उठाया और फिर एक महानाद किया! फिर मैंने उसको चारों दिशाओं में घुमाया और फिर रूद्र-मन्त्र का जाप किया! मैंने आसन पर बैठा! कपाल को गोद में लिया!

"बुमरा कौन?" मैंने कहा,

बुमरा ने आकाश में देखा!

"बुमरा कौन?" मैंने फिर से कहा,

उसने फिर से आकाश में देखा!

"बुमरा कौन?" मैंने फिर से कहा!

उसने फिर से आकाश में देखा!

अर्थात उसका ध्यान भंग नहीं हुआ!

"बुमरा?" मैंने फिर से पुकारा!

"चुप कर!" उसने बोला!

अब मै हंसा! और बुमरा बौखलाया!

ये द्वन्द में एक विशेष नीति होती है!

बाबा बुमरा अभी भी अडिग था! उसने आह्वान के लिए अंतिम क्रिया की और 'पेठा' हाथ में लेकर उठाया जैसे किसी को अर्पित किया हो, ऐसी मुद्रा बनाई, यहाँ मैंने ज्वाल-मालिनी का आह्वान करने के लिए एक विशेष क्रिया आरम्भ की! अब हम दोनों शांत हुए और अपने अपने क्रिया-पथ पर आगे बढ़ चले! वहाँ भी घोर जाप और यहाँ भी घोर जाप! मदिरा जब जलती हुई लकड़ी पर पड़ती तो ईंधन का काम करती! पात्र में एकत्रित रक्त के छींटे जब लकड़ी पर पड़ते तो छन्न की आवाज़ आती और एक गंध उठती! इसे औघड़ी-गंध कहते हैं! यदि कोई सामान्य व्यक्ति भी अपने रक्त के छींटे किसी जलती चिता की लकड़ी पर मारे तो वहाँ उपस्थित भूतप्रेत उसको साक्षात दिखाई देने लगते हैं! समय रात्रि का हो और शमशान जागृत होना चाहिए! अन्यथा वे भूत-प्रेत उस व्यक्ति को क्षति पहुंचा सकते हैं! क्योंकि वे प्रश्न और औचित्य एवं उद्देश्य पूछते हैं, आप चुप हुए तो समझो हुई अनहोनी! और वैसे भी किसी योग्य गुरु अथवा व्यक्ति के अनुसरण में ही ऐसी क्रिया करनी चाहिए! खैर, हम दोनों ही क्रियायों में मग्न हो गए! और कुछ ही देर बाद वहाँ चांदनी रौशनी कौंधी! और मेरे यहाँ धूसर-पीत रौशनी! अब आपको


   
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बताता हूँ तड़ित-रोड़का के विषय में, तड़ित-रोड़का सर्व-काल बली होती है, इस सहोदरी की भी कुल चौरासी सहोदरी होती हैं, जिनमे डाकिनी-शाकिनी आदि होती हैं! रोड़का के मंदिर भी हैं जहाँ इसको प्रधान-देवी के रूप में पूजा जाता है, परन्तु ये भूल है! ऐसा नहीं है, इसका नाम भी मुख्य शक्ति से मिलता-जुलता है! और अब ज्वाल-मालिनी! प्रबल महासंहारक! शक्ति-वाहिनी के नाम से विख्यात है! भूमंडल पर ऐसा कोई जीवित प्राणी नहीं जो इसकी संहारक शक्ति से बाहर हो! मैंने इसीलिए उसका आह्वान किया था! और चूंकि इसका सृजन तड़ित-रोड़का से पहले हुआ था अतः तड़ित-रोड़का उसका मान रखती है, शक्तियां अपने से प्रबल शक्तियों का मान रखती हैं, अहित करने का सोच भी नहीं सकतीं! यही कारण है कि अपने समक्ष किसी प्रबल शक्ति को देख वो लोप हो जाती हैं!

वहाँ आकाश से स्वांजने के फूलों की बरसात हुई, गद्दा सा बिछ गया वहाँ स्वांजने के फूलों से! स्वांजने के फूलों से ही तड़ित-रोड़का का पूजन होता है! कसैली सी महक छा गयी वहाँ बुमरा के यहाँ! बाबा बुमरा बैठ गया वहाँ घुटनों के बल! और यहाँ अमलतास के फूलों की बरसात हुई! पीले रंग के झुमकों जैसे फूल, वो मेरे सर पर पड़ते तो मेरी लटों में अड़ जाते! उन फूलों ने गिर कर भूमि पर आकृति बना ली, एक विशिष्ट आकृति! मै भी अब अपने घुटनों के बल बैठ गया! हाथ में त्रिशूल ले कर लहराया मैंने!

वहाँ बुमरा प्रतीक्षारत था तड़ित-रोड़का के लिए! और यहाँ मै ज्वाल-मालिनी के लिए! बुमरा मंझा-मंझाया खिलाड़ी था, ये मुझे अब स्पष्ट रूप से विदित हो गया था! तड़ित-रोड़का को सिद्ध करना कोई सरल कार्य नहीं होता!

सहसा मेरे यहाँ, धुंआ उठा! पीत-धूम्र! गंधक के रंग का! ज्वाल-मालिनी का तेज प्रकट होने लगा! धुंए में हलचल होने लगी! मेरी नज़रें वहाँ टिक गयीं! और कुछ क्षण पश्चात, महा-भीषण रूपधारी ज्वाल-मालिनी प्रकट हो गयी! और वहाँ चांदनी बिखेरते हुए तड़ित-रोड़का! महाबलशाली तड़ित-रोड़का! साष्टांग प्रणाम किया बाबा बुमरा ने! और फिर अपना उद्देश्य बताया मूक भाषा में! संचार-भाषा में! उद्देश्य प्रेषित हुआ और तड़ित-रोड़का क्रोधावेश में लोप हुई यहाँ से और एक क्षण के सौंवे भाग में ही प्रकट हुई मेरे समक्ष! यहाँ तड़ित-रोडका ने देखा ज्वाल-मालिनी को और तभी शून्य में अवशोषित हो गयी! बाबा बुमरा के शरीर में सिहरन दौड़ गयी! सांप सूंघ गया! मृत्यु दिखाई देने लगी उसको उसी समय! क्योंकि अभी तक मैंने ज्वाल-मालिनी को अपना उद्देश्य प्रेषित नहीं किया था, और जो उद्देश्य प्रेषित करना भी था वो आप सभी पाठकगण अब तक जान चुके होंगे! बाबा बुमरा जान गया! वो कटे पेड़ सा धम्म गिरा भूमि पर! और मित्रगण! फिर मैंने प्रेषित कर दिया अपना उद्देश्य!

बुमरा भूमि पर गिर गया था! लेकिन छप्पन के खेल का क्या हुआ? कहाँ गया वो छप्पन का खेल? भूल गया या जान गया कि छप्पन बड़ा नहीं, छियासी बड़ा है! छप्पन हाथ का अखाड़ा बड़ा या छियासी हाथ का! समझ गया था बुमरा! वो चाहता तो अभी भी समय था, मै क्षमा कर देता उसे! परन्तु उसका दंभ इस कदर हावी था उस पर कि सोचने समझने के विवेक पर पर्दा डाल दिया! वो नीचे पड़ा जैसे गिनती गिन रहा था कि कब ज्वाल-मालिनी वहाँ आएगी और बुमरा को उसके कृत्यों का दंड मिलेगा! कैसा दंड? मृत्यु से बड़ा तो कोई दंड नहीं? तो फिर क्षमा-मुदा में क्यूँ नहीं उठा बुमरा? क्या हुआ उसे? यही सब सोच मैंने और फिर मैंने उद्देश्य प्रेषित कर दिया! प्रेषित होते ही झौम्म से लोप हुई ज्वाल-मालिनी और जा प्रकट हुई अदृश्य रूप में वहाँ! मात्र बाबा बुमरा ही देख सकता था उसको! उसके अतिरिक्त और कोई नहीं! बाबा बुमरा ने देखा और उचक कर खड़ा हुआ, जैसे किसी जल्लाद ने उसका नाम पुकारा हो! पाँव काँप गए उसके, टांगें जैसे मस्तिष्क के नियंत्रण से बाहर होकर बेकाबू हो गयी हों! मुंह


   
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से शब्द बाहर ना आ सके! स्नायु-तंत्र को जैसे फालिज़ और देह को कुठाराघात मार गया हो! जीवन में पहली बार ज्वाल-मालिनी के दर्शन हए और वो भी संहारक रूप में! दूसरों को कंपाने वाला बुमरा आज स्वयं भीगे श्वान की भांति काँप रहा था! तभी बुमरा छिटक कर पीछे गिरा! उसके मुंह से भयाक्रांत श्वान की जैसी पुकार निकली! उस पर प्रहार हुआ था ज्वाल-मालिनी के सेवक द्वारा! बुमरा की आँखों में जैसे गर्द जम गयी, उठने के लिए भमि पर हाथ रखना है या आकाश पर, सब भूल गया! हाथ ऐसे हिलाए जैसे किसी पाषाण अथवा स्तम्भ के सहारे की आवश्यकता हो उठने के लिए! तभी उसको उसके केशों से पकड़ कर उठाया किसी ने और ऊपर उछल, एक मिमियाती आवाज निकली उसके गले से! और वो करीब बारह-चौदह फीट से नीचे गिरा! कमर के बल! मालाएं अवं अन्य तंत्राभूषण टूट गए, मनके और रुद्राक्ष बिखर गए! इस से पहले की वो संभालता उसकी पसलियों में किसी ने वार किया, वो ज़मीन पर रगड़ता चला गया करीब दस फीट तक! कंकड़-पत्थरों से उसकी देह लहूलुहान तो हुई ही, उसके मुंह, नाक से भी रक्त-प्रवाह आरम्भ हो गया! उसने उठने की कोशिश की, लेकिन उसका दायाँ कन्धा टूट चुका था! पसलियाँ टूट चुकी थीं, पित्त की थैली भी फट चुकी थी! अब बेहोशी की कगार पर आ पहुंचा था बाबा बुमरा! ज्वाल-मालिनी के सेवक यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने उसको उठाया और फिर से फेंक के मारा सीधी तरफ, इस बार वो एक कंक्रीट के बने एक चबूतरे के कोने पर गिरा और उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गयी उसी क्षण! वो बेहोश हो गया! वो आधा ऊपर था और आधा नीचे, धीरे धीरे रड़क कर नीचे आ गिरा!

बस! बस! इतना बहुत है! उसका जीवित रहना आवश्यक है, ताकि जीता-जागता उदाहरण बने वो इस संसार के लिए, उन दम्भी और लालची औघड़ों के लिए! मैंने तभी अपने त्रिशूल पर कपाल टांग कर ऊपर उठाया और चिमटा बजा दिया! ज्वाल-मालिनी वहाँ से मेरे समक्ष नमन किया और फिर मैंने भोग-थाल अर्पित किया और एक मंत्र पढ़ा! भोग स्वीकार हुआ और फिर ज्वाल-मालिनी लोप हुई! मेरा वाचाल-प्रेत अट्टहास लगता हुआ प्रकट हुआ! मैंने उसको भोग दे वापिस किया! कर्णपिशाचिनी प्रकट हुई, उसको भी वापिस भेजा! बुमरा गिर चुका था, उसके सहायक आये या नहीं ये नहीं मालूम चला! परन्तु किस्सा अभी समाप्त नहीं हआ था! मोहन और चन्दन अभी भी निश्चिन्त घूम रहे थे, अब मै चिता तक गया, उसको नमन किया और फिर कुछ और लकड़ियाँ डाली वहाँ! उसकी भस्म से स्नान किया! और फिर ग्यारह परिक्रमा कर मै वहाँ से एक अँधेरे भरे स्थान में चला गया!

यहाँ मै एक जगह रुका, दो या ढाई का वक़्त रहा होगा, बाहर से गुजरते बड़े बड़े और भारी ट्रक के पहियों का सड़क से होती हुई बहस के स्वर सुनाई दे रहे थे! अब मैंने रुक्का पढ़ा! शाहीरुक्का! ये शाही रुक्का था मेरे सबसे प्रिय खबीस इबु का! मोहन को मोहिनी का स्वाद और चन्दन को घिसना था अब! खिलखिलाते हुए इबु-खबीस हाज़िर हुआ! उसके पीले नेत्र जैसे दहकते हुए अंगार!

मेरे होंठों पर भी हंसी सी आ गयी! मैंने अब इबु को उसका उद्देश्य बताया! उसने सुना! और उड़ चला मोहन और चन्दन की देह तोड़ने का फरमान ले कर! मैं वहीं बैठ गया! उसकी प्रतीक्षा में! मोहन और चन्दन अब कहीं भी हों! उनका सरपरस्त और पनाह देने वाला आज स्वयं जीवन की पनाह मांग रहा था!

मैंने अब अपनी 'देख' लगाई (ये देख भी प्रेतादि से ही होती है) मै वहां का नज़ारा देखना चाहता था! मोहन और चन्दन को अब पता चलने वाला था कि बुमरा बाबा का सरंक्षण अब ख़तम हो चुका था! तो अब जब इबु-ख़बीस वहां उतरा तो मोहन और चन्दन एक कक्ष में सोये हुए थे, इत्मीनान से! मसनद


   
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