वर्ष २०१० नेपाल की ...
 
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वर्ष २०१० नेपाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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जी से कौलव नाथ को फ़ोन लगाने के लिए कहा, फ़ोन मिल गया, नमस्कार आदि हुई, अब कौलव नाथ गुस्सा हुआ कि उसको हमने दिल्ली से चलने से पहले खबर क्यों नहीं की? यहाँ आ गए तो सीधा उसके डेरे पर क्यों नहीं आये, उसका क्रोध जायज़ था, वो जब भी दिल्ली आता है तो मेरे यहाँ ही ठहरता है, उसको समझाया बुझाया किसी तरह और फिर उसको उद्देश्य बता दिया हमने यहाँ आने का, उसने समय दिया और कहा कि दोपहर में आ जाइये, वो स्वयं चलेगा बुमरा बाबा के पास हमारे साथ, बात पक्की हो गयी!

और मित्रगण, हम दोपहर में कोई एक बजे पहुँच गए कौलव नाथ के डेरे पर, उसने बड़ा सम्मान किया हमारा, साथ में मनसुख और महंत भी आये थे हमारे, महंत ने कौलव नाथ को सारी कहानी से अवगत करवाया, कौलव नाथ ने बताया कि बुमरा बाबा पशुपति नाथ में एक जाना पहचाना नाम है और कई औघड़ पानी भरते हैं उसके सामने! एक बात पक्की हो गयी, बाबा बुमरा ताक़त रखता था, ये बात मुझे स्वयं कौलव नाथ ने बताई तो संदेह की गुंजाइश भी ख़तम हो गयी!

अब चले हम बाबा बुमरा के डेरे की ओर! कौलव नाथ ने एक वैन रखी हुई थी कहीं आने जाने के लिए, सो, उसी में सवार हो हम पहुँच गए बाबा बुमरा के डेरे पर! डेरा काफी लम्बा-चौड़ा था! उसका दरवाज़ा भी काफी विशाल था, अब कौलव नाथ उतरा और मैं भी, मैंने शर्मा जी को भी साथ लिया, कौलव नाथ ने स्थानीय भाषा में बात की तो दरवाज़ा खुल गया, हम सब वैन में बैठ अन्दर प्रवेश कर गए! गाड़ी एक जगह पेड़ों की बीच छाया में खड़ी कर दी और आगंतुक-कक्ष में बैठ गए जाकर, वहां सहायक आया तो हमने बाबा बुमरा से मिलने के लिए कहा, कौलव नाथ ने बात की और सहायक ने कुछ पूछताछ की, तो उसके उत्तर कौलव नाथ ने दे दिए, अब हम बैठ गए, पानी मंगवाया गया, पानी पिया, और फिर किया इंतज़ार! और फिर थोड़ी देर बाद, एक शख्स आया, कुरता और पायजामा पहने, कद होगा उसका कोई साढ़े पांच फीट, लम्बी काली सफ़ेद दाढ़ी, माथे पर त्रिपुंड धारण किये हुए, उसने आते ही महंत और मनसुख को देखा और फिर हमे, वो एक कुर्सी पर टिका और बोला, "कहिये, किसलिए आये?"

"आपसे मिलने आये हैं हम" कौलव नाथ ने कहा,

"आप कौन?" उसने पूछा,

"अमीन बाबा के डेरे से आया हूँ मैं, नाम है कौलव नाथ" उसने कहा,

"अमीन बाबा?" वो चौका!

"हाँ जी, कामख्या वाले अमीन बाबा" कौलव नाथ ने कहा,

"मै जान गया हूँ भाई!" वो बोला,

"धन्यवाद" कौलव नाथ ने कहा,

"कहिये, क्या काम है?" उसने पूछा,

अब कौलव नाथ ने सिलसिलेवार सारी बात बताई उसको, उसने सुनी!

"ये पहले भी आये थे यहाँ इसी बारे में, इन्होने मेरा जवाब नहीं बताया आपको?" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताया था, लेकिन हम चाहते हैं कि आप एक बार उन महिलाओं से हमारी बात करवा दें, ताकि हमारी चिंता खतम हो" अब मैंने कहा,

"आप कौन?" उसने पूछा,

"मै दिल्ली से आया हूँ" मैंने कहा,

"अच्छा, चिंता कैसी? वो अपनी इच्छा से रह रही हैं यहाँ, और अब तो किसी से भी मिलने से मना करती हैं, अब ....मै क्या करूँ?" उसने कंधे उचकाते हुये कहा,

"ऐसा नहीं हो सकता" मैंने कहा,

"कैसा?" उसने पूछा और उसका लहजा कड़क हुआ!!

"कि वो मिलने से मना कर दें" मैंने कहा,

"अच्छा!" वो बोला,

"हाँ!" मैंने कहा,

"वो नहीं मिलेंगी" उसने साफ़ नकार दिया ऐसा कह के!

"ठीक है, तो फिर मोहन और चन्दन को बुलाओ आप" मैंने कहा,

"क्यों?" उसने कहा,

"क्योंकि यही हैं वो हरामज़ादे जिन्होंने उनको बरगलाया, और यहाँ लाकर कैद कर दिया, बुलाओ उन कुत्तों को!" मैंने कहा और अब मुझे ताव आया!

"ओ! खामोश! ये तेरे बाप का डेरा नहीं, मेरा है, यहाँ मेरी चलती है, तू कौन होता है मुझे आदेश देने वाला? अब निकल जा यहाँ से, नहीं तो हड्डीयां तुडवा दूंगा तेरी!" वो खड़े हो कर बोला,

"सुन बुमरा! सुन! मैं बताता हूँ मै कौन हूँ, मै शांडिल्य का पोता हूँ, चौथे दर्जे में सिद्ध-हस्त हूँ!" मैंने कहा, और मैंने अपने दादा श्री की पूंज-माला निकाली गले से!

उसका मुंह खुला रह गया!

"मोहन और चन्दन यहाँ नहीं हैं" उसने कहा,

"कहीं भी हों, वो कुत्ते के बच्चे अब बचने से रहे, और सुन बुमरा, अब मै वापिस जाऊंगा, अवश्य वापिस जाऊंगा, और ये महिलाएं भी मेरे साथ जाएँगी, तुझमे या तेरे बाप में दम हो तो मुझे रोक लेना!" मैंने कहा,

अब हम उठे वहाँ से और बाहर चले, उसने कौलव नाथ को रोक लिया! उस से बातें की और फिर कौलव नाथ भी वापिस आ गया,

कौलव नाथ ने गाड़ी स्टार्ट की, हम बैठे तो मैंने उस से पूछा, "क्या कह रहा था ये?"

"कह रहा था, कि मोहन और चन्दन जब आ जायेंगे तो खबर करवा देगा, मेरा नंबर लिया है उसने" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये कुत्ते की दुम हैं सारे, इतनी आसानी से बज नहीं आने वाले!" मैंने कहा,

"ये तो है ही" वो बोला,

"अब मैं बुमरा का वो हाल करूँगा कि जिंदगी भर अपनी एडियां रगड़ेगा!" मैंने कहा,

"इस कुत्ते के साथ ऐसा ही होना चाहिए!" वो बोला, बेचारे मनसुख और महंत बस हमे सुनते रहे!

हम सीधा कौलव नाथ के डेरे गए, महंत ने और मनसुख ने भी मना नहीं किया, कौलव नाथ ने मनसुख और महंत को एक नीचे का कक्ष दिया और विश्राम करने के लिए कह दिया, सहायक से कह कर उनके लिए फल आदि का प्रबंध करवा दिया, फिर दूध-दही का भी, और हमको लेकर ऊपरी मंजिल पर ले गया, अपने कक्ष में, अपना अंगोछा अपने गले से हटाया और फिर बाहर गया, कांच के जग में ठंडा पानी और उसमें बर्फ डाल लाया, मै उसकी मंशा भांप गया, कार्यक्रम की तैयारी थी ये!

"लीजिये, भोग लगाइए!" वो बोला,

और तीन गिलासों में मदिरा डाल दी!

तभी सहायक अन्दर आया और एक बड़े से डोंगे में मुर्गा परोस लाया, साथ में कटोरे भी ले आया, थोड़े चावल भी थे साथ में!

"अवश्य! बहुत आवश्यकता है इसकी!" मैंने हँसते हुए कहा,

उसने कटोरों में मुर्गा परोसा, चम्मच लगायीं और हम हो गए शुरू

"बड़ा ही ज़ाहिल और ज़लील आदमी है ये बुमरा" शर्मा जी बोले,

"ज़लील के साथ ज़लील बनना पड़ता है शर्मा जी" मैंने कहा,

"हाँ, और कोई रास्ता नहीं" वे बोले,

"बुमरा अपने आपको शहंशाह समझता है साहब!" कौलव नाथ ने कहा,

"अब नहीं रहेगा!" मैंने कहा,

"रहना भी नहीं चाहिए" वो बोला,

"नहीं रहेगा अब" शर्मा जी बोले,

तभी कौलव नाथ ने आवाज़ दी सहायक को, सहायक दौड़ा दौड़ा आया,

"सुन, नीचे वाले कक्ष में जो मेहमान हैं, उनसे भोजन का पूछ लेना, सीमा से कहना वो भोजन तैयार करे उनका, शाकाहारी" कौलव नाथ ने कहा,

"जी, पूछ लेता हूँ" सहायक ने कहा और चला गया,

"ये सीमा कौन है?" मैंने पूछा,

"यहीं की है एक महिला" वो बोला,

"शाकाहारी खाना बनाती है?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, स्वयं भी शाकाहारी है" उसने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"तो मैंने सोचा वे भी भूखे होंगे, जो खाना चाहेंगे वो तैयार हो जाएगा, बुजुर्ग हैं दोनों ही" वो बोला,

"हाँ कौलव, मै भी इसी कारण से यहाँ तक आया हूँ!’’ मैंने कहा,

"ना आते तो यहाँ कैसे आते!" वो मदिरा परोसते हुये बोला,

"हाँ ये तो है" मैंने कहा,

उसने फिर से सहायक को आवाज़ दी, सहायक आया तो उसने उसको डोंगा दिखाया, सहायक गया और, और मुर्गा ले आया, साथ में एक जग और लाया पानी बर्फ डाल कर! और चला गया!

"कौलव, तेरा डेरा बढ़िया है!" मैंने कहा,

"अभी विकास पर है, ले-दे कर काम होता है!" वो बोला,

"ये तो हर जगह है" मैंने कहा,

तभी कौलव नाथ के फ़ोन पर घंटी बजी, ये फ़ोन बुमरा का था, अन्थन-मंथन पश्चात उसने स्वयं फ़ोन किया था! कौलव नाथ ने फ़ोन उठाया,

"हाँ, बोलिए" उनसे कहा,

दूसरी तरफ बुमरा ही था,

"वे दिल्ली वाले कहाँ हैं?" उसने पूछा,

"मेरे पास" वो बोला,

"क्या चाहते हैं वो?" उसने पूछा,

"तुम्हे बताया तो था?" उसने उत्तर दिया,

"अब वो नहीं आना चाहती तो मैं क्या करूँ?" वो बोला,

"उन्होंने तो केवल उनसे मिलने के लिए ही कहा था ना? वो अपने मुंह से बोल देतीं, बात ख़तम" वो बोला,

"मै इसमें कुछ नहीं कर सकता" वो बोला,

"तो मैं क्या करूँ, फ़ोन क्यों मिलाया तुमने?" कौलव नाथ ने पूछा,

"देखो हम तो स्थानीय हैं, उनको समझाओ" वो बोला,

"समझाऊं? क्या?" उसने पूछा,

"यही कि वो जाएँ यहाँ से, क्यों बखेड़ा खड़ा करते हैं?" उसने कहा,

"बखेड़ा! अभी बखेड़ा खड़ा हुआ कहाँ है बुमरा! तुमने उनको पहचाना नहीं!" उसने चेताया उसको! ”


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उसके दादा का नाम सुना है मैंने, रामपुर के पास" वो बोला,

"हाँ, वही, उनके ही पोते हैं वो" वो बोला,

"कुछ भी हो, हम भी खेले खाए आदमी हैं" वो बोला,

"कोई बात नहीं" उसने कहा,

"मैंने तो इसीलिए फ़ोन किया कि आराम से बात निबट जाए" वो बोला,

"निबट जाती, अगर मिलने देते तो" वो बोला,

"नहीं मिलने दूंगा" वो बोला,

"क्यों?" उसने पूछा,

"मेरी मर्जी" उसने कहा,

"बुमरा, कभी धौला बाबा का नाम सुना है?" उसने पूछा,

"कौन धौला?" उसने पूछा,

"वो असम वाला?" उसने कहा,

"हाँ, हाँ सुना है!" वो बोला,

"वो कैसे बेकार है अब?" उसने पूछा,

"हाँ, किसी से द्वंद में हारा था" वो बोला,

"किसने हराया था?" उसने पूछा,

"ये नहीं मालूम" उसने कहा,

"बात कराता हूँ, ठहरो" उसने कहा और फ़ोन मुझे दे दिया!

"हाँ बुमरा! याद है ना वो धौला?" मैंने कहा,

"हाँ" वो बोला,

"साथ में ग्यारह औघड़ रहते थे उसके" मैंने कहा,

"हाँ हाँ!" वो बोला,

"मुझसे हारा वो!" मैंने कहा,

उसके हाथ से जैसे फ़ोन छूटते छूटते बचा!

"देखो जी, मै आपकी कोई मदद नहीं कर सकता" वो बोला,

"मत करो" मैंने कहा,

"हाँ, मोहन, चन्दन जब आ जायेंगे तो बता दूंगा तुमको" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ठीक है" मैंने कहा और अब फ़ोन कौलव नाथ को पकड़ा दिया,

"मान जाओ" उसने कहा,

"मै असमर्थ हूँ' उसने कहा,

"तो कोई बात नहीं, आज अलख पर बैठना, आग्नेय कोण में आसन लगाना, प्राण-रक्षण जागृत कर लो!" कौलव नाथ ने व्यंग्य किया!

"मुझे धमका रहे हो?" उसने पूछा,

"नहीं, सलाह दे रहा हूँ" उसने कहा,

"अपने पास ही रखो अपनी सलाह, मै नहीं डरता किसी से!" उसने भी हंस के कहा,

"ठीक है, कोई बात नहीं" इतना कह फ़ोन काट दिया कौलव ने!

"नहीं माना?" मैंने पूछा,

"नहीं, काल डोल रहा है साले के सर पर!" कौलव ने कहा,

"कोई बात नहीं कौलव!" मैंने कहा,

"ये साला बारह-चौदह का होगा, कैसे टिकेगा? और इतना घमंड?" उसने कहा,

"थोथा चना बाजै घना!" मैंने कहा,

"सटीक कहा आपने" वो बोला,

अब सहायक आया और ताज़ा ठंडा पानी दे गया, साथ में खाना भी परोस गया!

कौलव ने एक एक गिलास और बनाया और हमने खींचा!

उसने सहायक को आवाज़ दी और उस से महंत और मनसुख के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि उनको खाना परोस दिया गया है!

"चलो कौलव, ये बढ़िया हुआ!" मैंने कहा,

"हाँ जी" वो बोला,

उसने और मदिरा डाली,

"ये फिर से फ़ोन करेगा अब!" वो बोला,

"करने दो साले को" मैंने कहा,

"आप चुनौती दे डालो इसको!" उसने कहा,

"यही एक मात्र रास्ता है कौलव!" मैंने कहा,

और फिर हम खाते-पीते रहे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस रात दिन साहम तलक हम खाते-पीते रहे, कुल मिलाकर योजनायें बनाते रहे, ऐसे किया जाये या फिर वैसे किया जाए, आखिर में निर्णय यही निकला कि बाबा बुमरा को चुनौती दे ही दी जाए, और ये चुनौती उसको मै दूंगा! यही उचित था, ये तो तय था कि वो दोनों महिलायें उसी के डेरे पर थीं, असहाय और ना जाने उन पर क्या बीत रही थी! यही एक चिंता थी जिसमें हम सभी बंधे हुए थे, या यूँ कहिये कि उस चिंता रुपी सुईं ने हम सबको पिरोकर एक धागा बना दिया था! रही बात चन्दन और मोहन की, तो उनको भी सबक देना लाजमी बनता था, नहीं तो फिर वो कहीं और ऐसा करते, लेकिन उस से पहले उनके सरपरस्त को धूल चटाना अत्यंत आवश्यक था! समय बीता, रात ढली, हम सब अब इत्मीनान से सोये, सुबह नित्य-कर्मों से फारिग हए, तो अब अपनी योजना को अमली-जाम पहनाया जाए, ये निर्णय लिया गया! चाय-नाश्ता आया, उस से भी फारिग हुए, महंत और मनसुख भी आ गए हमारे कक्ष में!

"क्या हम भी चलें वहाँ?" मनसुख ने पूछा,

"आप क्या करेंगे वहाँ, वहाँ गाली-गुफ्तार होगी, उसका कोई फायदा नहीं, आप दोनों यहीं रहिये, बढ़िया रहेगा" कौलव ने कहा,

"हाँ महंत बाबा, सही कहा कौलव नाथ ने, वहाँ ना जाने क्या हो? बेहतर है आप यहीं रहिये" मैंने कहा,

"उचित है" महंत ने कहा,

"कौलव नाथ, कब चलना है?" मैंने पूछा,

"चलते हैं कोई एक बजे करीब" वो बोला,

"ये ठीक रहेगा" मैंने कहा,

इसके बाद मै और शर्मा जी उठे वहाँ से और बाहर आ गए टहलने के लिए, शर्मा जी ने एक सिगरेट सुलगाई और फिर हम आगे बढे, पथरीली सी ज़मीन थी वहाँ, लेकिन मौसम सुहावना था, हवा में ठंडक थी और घोर शान्ति! मै और शर्मा जी एक बड़े से पेड़ के नीचे बैठ गए, एक पत्थर पर, पत्थर काफी बड़ा था, तभी शर्मा जी ने प्रश्न किया, "लगता है बुमरा मानेगा नहीं!" वे बोले,

"ना माने, हमने समझाना था, समझा लिया" मैंने कहा,

"हाँ, आखिर लातों के भूत बातों से नहीं मानते!" वे बोले,

"सही कहा!" मैंने कहा,

"बड़ा ही ढीठ और बदतमीज़ किस्म का आदमी है ये बुमरा, अपने आपको शक्तिपीठ का आचार्य समझने लगा है!" वे बोले,

"घमंड में तो मनुष्य ना जाने अपने आपको क्या क्या समझता है!" मैंने कहा,

"हाँ जी, क्या राजा और क्या महाराजा!" वे सिगरेट फेंकते हुए बोले,

"हाँ, लेकिन अब समय आ गया है उसका, आज चुनौती पेश कर दूंगा उसको, दिन वो निश्चित करेगा, देखते हैं, कितने पानी में है और छप्पन में कितना दम है उसमे!" मैंने कहा,

"हाँ! पता चल जाएगा उसको! छप्पन का खेल या छियासी का खेल!" वे हँसते हुए बोले!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मै उठा, शर्मा जी भी उठे, हम और थोडा आगे गए, सामने एक छोटा सा तालाब था, वहाँ कुछ बालक खेल रहे थे, कुछ इकठ्ठा कर रहे थे, शायद चारा आदि, अब हम वहाँ से वापिस हुए, टहलते टहलते वापिस आये, वापिस फिर अपने कक्ष में आ गए, कक्ष में आ कर लेट गए! तभी एक सहायक चाय ले आया, हमने चाय ली और पीने लगे एक एक घुट!

"शर्मा जी, वहाँ कोई कुछ भी कहे, बर्दाश्त कर लेना, मै नहीं चाहता कि वहाँ कोई झगडा हो" मैंने कहा,

"मैं जानता हूँ गुरु जी" वे बोले,

"कौलव नाथ अपने आप सुलट लेगा!" मैंने कहा,

"हाँ ये तो है!" वे बोले,

"हाँ, सही है, कौलव नाथ को वो जान तो गया ही है कि ये स्थानीय है और हमारे साथ है, कोई झगडा तो करने से रहा वो!" वे बोले,

"हाँ, इसीलिए द्वन्द की भूमिका कौलव नाथ ही रचेगा!" मैंने कहा,

"और ये ठीक भी रहेगा!"

अपनी अपनी चाय ख़तम की तो हम फिर से बिस्तर पर पसर गए, पसरे तो आँखे नींद से डबडबा गयीं, एक आड़ झपकी ले ली जाए, ये सोच कर सो गए!

करीब एक बजे दरवाजे पर दस्तक हुई, शर्मा जी उठे और दवाज़ा खोला, ये कौलव नाथ था,

"चले?" उसने मुझसे पूछा,

"हाँ चलो कौलव!" मैंने कहा, अब हमने अपने जूते पहने,

"चलिए" वो बोला और चलने लगा आगे आगे, और हम पीछे पीछे उसके! वो अपनी वैन तक गया और वैन स्टार्ट की, अब घुमा के लाया तो हम बैठ गए उसमे!

"गुरु जी, भूमिका मै बाँध दूंगा, बात गरम होगी, आप दे देना चुनौती साले को!" कौलव नाथ ने हंस के कहा,

"देखते रहो कौलव!" मैंने कहा,

"बस ठीक है अब!" वो बोला,

और हम अब पहंचे बुमरा के डेरे पर, कौलव नाथ ने बात की और गाड़ी अन्दर ले गया, एक जगह खड़ी की और हम फिर आगंतुक-कक्ष में आ गए! एक सहायिका से बुमरा के बारे में पूछा, तो वो हमारा सन्देश लेकर गयी बुमरा बाबा के पास!

और कुछ देर बाद आ गया वहाँ पाँव पटकता हुआ बाबा बुमरा! शायद अभी स्नान किया था उसने, केश गीले थे उसके अभी! कौलव नाथ ने उसको नमस्कार कहा, उसने उत्तर दिया, बाबा बुमरा बैठा वहाँ,

"बोलो?" उसने कौलव नाथ से कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या मोहन और चन्दन आये?" उसने पूछा,

"नहीं, अभी नहीं" वो बोला,

"कमाल है!" कौलव नाथ ने कहा,

"क्या कमाल?" उनसे गुस्से से पूछा,

"वे दोनों कहाँ चले गए?" कौलव नाथ ने पूछा,

"मुझे क्या पता?" उसने अनमना सा उत्तर दिया!

"कोई बात नहीं!" कौलव ने कहा,

"किसलिए आये हो यहाँ?" उसने पूछा,

"बताता हूँ! बुमरा, तुमने उन स्त्रियों को यहाँ छिपा के रखा है, ये मुझे पता है, मोहन और चन्दन भी यहाँ हैं, ये भी मुझे पता है, उनका सरपरस्त है तू! तो सुन, तू अपने आपको औघड़ कहता है, है ना! मैं तुझे चुनौती देता  हूँ द्वन्द की! तेरी जब इच्छा हो, बता देना!" मैंने कहा,

"द्वन्द!" उसने मुझे देखा! "हाँ द्वन्द!" मैंने कहा,

"जानता है मै कौन हूँ?" उसने पूछा,

"कायर!" मैंने कहा,

अब वो बिफरा!

"निकल जाओ यहाँ से! द्वन्द! तू मुझसे द्वन्द करेगा! तू?" उसने गुस्से से कहा,

"हाँ! मै" मैंने कहा,

"तो ठीक है, इस नवमी को हो जाना तैयार!" वो बोला!

"ठीक है बुमरा, अब हो जाएगा फैसला!" मैंने कहा,

इतना कहते ही हम निकले वहाँ से, बात बिगड़ सकती थी, निकलना ही उचित था!

नवमी, अर्थान चार दिन बाद!

नवमी! तिथि निश्चित हो गयी थी! और अब मेरे समक्ष तीन प्रबल शत्रु थे एक बाबा बुमरा, दूसरा मोहन और तीसरा चन्दन! मोहन और चन्दन तो परकोटे थे लेकिन ये बाबा बुमरा ही था जो मुख्य खिलाड़ी था, अर्थात बुर्ज था और ये बुर्ज ही गिरानी थी, परकोटे तो कभी भी उडाये जा सकते थे! अब मैंने तैयारियां आरम्भ की, कौलव नाथ ने काफी मदद की, हर वस्तु आदि का प्रबंध कर दिया उसने, यहाँ तक कि वो मुझे खबरें भी उपलब्ध करने लगा उसके डेरे की! वो छप्पन में माहिर था और छप्पन में मै भी पारंगत था! छप्पन और छियासी! ये कुछ कूट-शब्द हैं तांत्रिक-जगत में! कौलव नाथ ने मुझसे एक शमशान का निरीक्षण करवाया, बड़ा ही शांत सा शमशान था ये, था तो छोटा परन्तु था जागृत! कोई भी औघड़ वहाँ आकार बसेरा डाल सकता था! शान्ति और कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था वहाँ! और फिर जागृत! चौन्हिया-मसान का राज था वहाँ! पहली ही दृष्टि में मैंने उसको पसंद कर लिया! मैंने वहां से


   
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श्रीशः उपदंडक
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जाते जाते मसानभोग क्रिया संपन्न कर दी थी! मसान ने स्वीकार कर लिया था भोग! ये प्रथम चिन्ह था शमशान के शक्तिशाली और निर्भयता का! दो दिन बीते, सप्तमी आ गयी, आज से मंत्र और तमाम विद्याएँ जागृत करनी थीं मुझे तो इसीलिए अब मैंने मौन-धारण किया और क्रिया-स्थल में जाकर रम गया! सामग्री उपलब्ध थी वहाँ, तब ताज़ा हालत में! मैंने एक एक करके समस्त मंत्र जागृत कर लिए, आवश्यक विद्याएँ भी जागृत कर ली! द्वन्द रात्रि के प्रथम प्रहर कि दूसरी घटी से प्राम्भ होना था, समय कम था और मुझे कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान भी उक्त उचित समय पर करना था, इसके लिए बलि-कर्म आवश्यक था! एक श्याम-अजः की बलि चढ़ानी थी मुझे, उस शैल पर जिस पर बलि कर्म किया जाता है! मैंने सारा स्थान स्वच्छ किया और धूप-दीया-बाती से शक्ति -संचरण किया और भूमि कीलन किया, भूमि पूजन किया, शमशान का पूजन किया घेराबंदी की, दशदिशा-पूजन किया और फिर शमशान केंद्र में जाकर शमशान भोग दिया! अब शमशान और मै तैयार थे! तैयार जैसे कि मै योद्धा और शमशान मेरा रथ और सारथि!

अष्टमी भी बीती और मैंने फिर से क्रियाएं करनी आरम्भ की वहाँ, कुछ विशेष क्रियाएं! ये छप्पनि क्रियाएं थीं!

मै उस अष्टमी के रोज, बैठा हुआ था, मौन-व्रत तोड़ दिया था, चूंकि कल नवमी थी, मेरे पास मनसुख, महंत, शर्मा जी और कौलव नाथ बैठे थे, तभी महंत ने पूछा," मै आपका कैसे एहसान चुकाऊंगा?"

"कैसा एहसान महंत बाबा?" मैंने पूछा,

"मुझे नहीं पता था कि स्थिति इतनी गंभीर होगी, यहाँ तो मरने-मारने की नौबत आ पड़ी है, हालांकि मुझे आपके ऊपर सम्पूर्ण विश्वास है कि विजयी आप ही होंगे, परन्तु मेरी खातिर आपने इतना बड़ा रिस्क लिया है" वे बोले,

"नहीं मैंने रिस्क आपके लिए नहीं, उन दोनों महिलाओं के लिए लिया है, जिनको बरगला दिया गया है और जो हमारे मुल्क की बदनामी का वायज़ है, मैंने इसीलिए रिस्क लिया है महंत साहब!" मैंने कहा,

"कुछ कहिये आप, परन्तु कोई नहीं करता ऐसा किसी के लिए" वे बोले,

"ऐसा नहीं है महंत बाबा! सच्चाई वो पौधा है जो झूठ के पत्थर का भी पेट फाड़कर बाहर आ जाता है! और झूठ का ये पत्थर सच्चाई की मामूली बरसात में भी रिस रिस कर धूल बन जाता है!" मैंने कहा,

"सत्य वचन!" मनसुख ने कहा!

"धन्यवाद!" मैंने कहा,

"गुरु जी, आज कुछ रास-रंग हो जाए!" कौलव नाथ ने हंस कर कहा,

"रास-रंग?" मुझे अचरज सा हुआ!

"हाँ! रास-रंग!" वो बोला,

"नहीं कौलव नाथ! ये समय रास-रंग का नहीं है!" मैंने कहा,

"ओफ्फो! रास-रंग, वो असम वाला?" उसने कहा,

"ओह! समझ गया! हाँ ठीक है, कब चलना है?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चलते हैं आज रात ही!" वो बोला,

रास-रंग! असम वाला रास-रंग! यानी औघड़ों का मेला! पशुपतिनाथ के औघड़ों में रास-रंग! मस्त-मलंग!

"कहाँ है ये डेरा?" मैंने पूछा,

"यहीं है, पास में, धूमनाथ का डेरा है, मेरा गुरु भाई है!" उसने कहा,

"वाह! कौलव नाथ भाई मान गए तुझे! तुमने सच में ही तरक्की की है!" मैंने हंस के कहा,

मनसुख और महंत की सर के ऊपर से गुजर रही थीं हमारी बातें! वो कुछ और ही समझ रहे

कुछ घंटे बीते और फिर मैं, शर्मा जी और कौलव नाथ निकले वहाँ से! साथ में मदिरा डाल ली थी कौलव नाथ ने! आज रास-रंग में शामिल होना था! ये बढ़िया भी था और आवश्यक भी!

"वहाँ कहाँ बैठेंगे कौलव नाथ?" मैंने पूछा,

"डेरा खच्चा में!" उसने हंस के कहाँ,

"क्या बात है!" मैंने कहा,

"अब आपको खच्चे में ही बिठाऊंगा गुरु जी!" वो बोला,

"मान गए कौलव नाथ तुझे!" मैंने कहा!

कौलव नाथ ले आया हमे धूमनाथ के डेरे पर! बाहर से एक दम शांत था डेरा! कौलव नाथ ने गाड़ी का हॉर्न बजाय, तो मुख्य-द्वार खुला, बल्ली हटाई गयी और हमने अन्दर प्रवेश किया! अन्दर अभी भी शांति थी, हाँ एक तरह कुछ हलचल ही मची हुई थी, कौलव नाथ ने अपनी गाड़ी लगाईं एक जगह और फिर मदिरा वाला थैला उठाया और फिर बोला, "आइये गुरु जी"

"चलो" मैंने कहा,

अब हम उसके पीछे हो लिए! वो सीधा चलता रहा और फिर एक जगह जाकर हमे रुकने को कहा और फिर एक कक्ष में जाकर घुस गया, वहाँ से दो मिनट में बाहर आया और बोला, "आइये इस तरफ" उसने इशारा किया,

"यहाँ कौन है?" मैंने पूछा,

"ये भण्डार है गुरु जी" वो बोला,

"अच्छा!" मैंने कहा और समझा!

"खाना मंगवा लिया है मैंने वहां खच्चे के लिए, अभी ले आएगा ये वहाँ पर" उसने कहा,

और फिर हम घुसे एक खपरैल से बने एक बड़े से कक्ष में! सामने दरी पड़ी थी, बड़ी सी, कुछ कुर्सियां और कुछ सामान भी, दरी पर एक जगह एक औघड़ लेटा था, वो कौलव नाथ को देखकर खड़ा हुआ! दोनों में मुस्कराहट का आदान-प्रादान हुआ, फिर हम भी जा बैठे दरी पर! कौलव नाथ ने हमारा परिचय करवाया, हमसे मिलकर वास्तव में वो बहुत खुश हुआ! कौलव नाथ ने अब सारी बात वृत्तांत से


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुनाई उसे, उसकी भी त्योरियां चढ़ गयीं! वो मुझे देखता और कभी कौलव नाथ को! अब धूम नाथ ने मुझसे कहा, "ये बाबा बुमरा है तो कमीन आदमी ही, इसको सबक सिखाना बनता भी है, इसने एक औघड़ दिपाल नाथ को मार गिराया था, वर्ष भर में उसकी मृत्यु हो गयी थी, वो औघड़ मेरे गुरु जी के भाई थे"

"ओह, ऐसे ही द्वन्द में?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वो बोला,

"बहुत बुरा हुआ यह तो" मैंने कहा, "हाँ जी, मै आपसे कहूँगा कि आप भी एहतियात रखें, आदमी खतरनाक है ये" उसने कहा, "कोई बात नहीं, वैसे आपका धन्यवाद!" मैंने कहा,

कुछ पल शान्ति से गुजरे! फिर कौलव नाथ के कंधे पर हाथ रख कर कहा धूमनाथ ने, "अरे भाई, मेहमान हैं, इनको तर तो करो!" ।

"अभी लीजिये!" उसने कहा और कौलव नाथ ने थैले में से शराब की दो बोतलें निकाल ली, और रख दी सामने! अब धूमनाथ ने बड़ी सी हंसी हंसी! और एक सहायक को बाहर भेजा, तभी एक सहायक दो थाल सजा के ले आया, मांस और सलाद था उसमे! बर्फ, ठंडा पानी और बड़े बड़े पीतल के गिलास! ये है खच्चे की निशानी!

"लीजिये लीजिये!" धूमनाथ ने कहा,

"शुक्रिया!" मैंने कहा,

अब कौलव नाथ ने मदिरा परोसी गिलासों में, बर्फ डाली और मांस का थाल आगे कर दिया! गिलास उठा के दिया और फिर धमनाथ ने कहा, "अलख निरंजन!"

मैंने भी यही कहा और फिर हम रम गए! बातें होती रहीं कुछ इधर की, कुछ उधर की, कुछ नयी और कुछ पुरानी! और सारी बातें आकर फिर से बाबा बुमरा पर आ टिकतीं!

"कौलव नाथ! मेहमानों को कुछ पेश करो भाई!" धूमनाथ ने कहा,

"अवश्य!" कौलव नाथ ने कहा, तो मैंने उसका हाथ पकड़ के नीचे बिठा लिया,

"रहने दो कौलव नाथ!" मैंने कहा,

"अरे गुरु जी! धूमनाथ ने पेश करना है!" वो बोला,

"नहीं! समझा करो!" मैंने कहा,

"ऐसा ना कहो आप" धूमनाथ ने कहा,

"नहीं, मेरा मन भी नहीं है और कुछ क्रियाएं भी अभी शेष हैं" मैंने कहा,

"अच्छा! कोई बात नहीं, बाद में सही!" धूमनाथ ने कहा!

और इस तरह हम रास-रंग की महफ़िल में रमे रहे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम रात करीब डेढ़ बजे फारिग हुए वहाँ से, रास-रंग की महफ़िल अधिक ही लम्बी हो चली थी, सो अब वहाँ से वापिस चले हम कौलव नाथ के डेरे पर, धूमनाथ से आज्ञा ली वापिस जाने की और फिर वापिस चल पड़े! रस्ते में धूमनाथ के साथ बीते घंटों को याद कर हम बातें करते रहे! खैर, हम पहुँच गए डेरे पर, वहां महंत और मनसुख सो चुके थे अब तक, बुजुर्ग आदमी थे दोनों ही, खाना खिला कर सुला दिया गया था उनको, और कल की रात निर्णय की रात थी! इसी उहापोह में नशा भी नहीं हुआ था! हम अपने कमरे में आये, कौलव नाथ हमे छोड़ने आया था, फिर उसने सहायक को बुलाया और रात के लिए पानी इत्यादि रखवा दिया उसने और चला गया वापिस, अब हम दोनों पसरे अपने अपने बिस्तर पर! आँखें बंद की तो पूर्व में गुजरी कछ औघड़ों के साथ द्वन्द की घटनाएँ आँखों के सामने घूमने लगीं! एक से एक प्रबल औघड़! ना जाने कैसे कैसे विचार दम घोंटने लगे मेरा! मै बार बार करवटें बदलता और कभी बैठ जाता! शर्मा जी का ध्यान मुझ पर गया तो पूछा उन्होंने, "क्या बात है गुरु जी?"

"बस कुछ नहीं" मैंने कहा,

"कल द्वन्द की चिंता?" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"चिंता कैसी गुरु जी!" वे बोले और बैठ गए!

"चिंता तो कोई नहीं शर्मा जी" मैंने कहा,

"अब उसने चुना है अपना भाग्य, तो अब वो भुगते?" वे बोले,

"हाँ, ये बात तो सही है" मैंने कहा,

"अब सो जाइये, कल की कल देखेंगे" वे बोले और एक गिलास पानी दिया मुझे, मैंने पानी पिया और गिलास रख दिया,

"हाँ, कल की कल ही देखेंगे" मैंने कहा,

उसके बाद मै लेटा और नींद में डूबने की अथाह कोशिश की, अंत में जाकर दूर खड़ी निंद्रा-देवी को मुझ पर दया आई और उसने करीब आकर मेरे ऊपर अपना पल्लू डाल ही दिया! मै सो गया!

सुबह हुई, मस्त सुबह! मुझे कहना चाहिए, ताज़गी भरी सुबह! शर्मा जी उठ चुके थे, मै ही तनिक विलम्ब से उठा था, मै नित्य-कर्मों से फारिग होने गया और स्नान करने के पश्चात आ गया वापिस कमरे में, चाय आ चुकी थी, सो चाय की चुस्कियां लेने लगे हम! चाय ख़तम की तो अब उठकर बाहर चले, थोडा घूमा जाए! अब बाहर आये हम, चले डेरे से थोडा सा दूर उत्तर दिशा की तरफ, शांति पसरी थी वहाँ, जैसे सभी को, पेड़-पौधे, झाड़ियों व पत्थरों को हमारे आने की आहट ने चौंका दिया हो और वो निस्तब्ध हो गए हों! हम एक जगह एक झूमते से पेड़ के नीचे जा बैठे, एक टूटे हुए शहतीर पर, ये शहतीर भी कई कीड़ेमकौडों की पनाहगाह बन चुका था! सब अपने अपने काम में मशगूल थे! चींटियाँ कतार बना कर समूह-गान करते हुए दैनिक-कर्म में लगी थीं! कुछ कीड़े संभवतः उनसे मुकाबला करने को खड़े थे! परन्तु समूह के आगे साहस ना जुटा पा रहे थे!

खैर,


   
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"शर्मा जी, मै नौ बजे यहाँ से निकलूंगा आज रात, आप मेरे साथ चल रहे हैं, वहाँ जो कुटिया है, आप वहाँ कौलव नाथ के संग ही रहना" मैंने कहा,

"जी, अवश्य" वे बोले,

"द्वन्द कितना चलेगा, मुझे नहीं पता, परन्तु आप अपने स्थान से डिगना नहीं" मैंने कहा,

"नहीं, कभी नहीं" वे बोले,

"और हाँ, मेरे करीब किसी को नहीं आने देना शर्मा जी!" मैंने कहा,

"जी, समझ गया मै" वे बोले,

 "चलिए चलते हैं यहाँ से अब" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

अब हम चले वहाँ से, पहुंचे डेरे पर, वहाँ महंत और मनसुख हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे,

हम जा बैठे वहाँ,

"कैसे हैं आप?" मैंने महंत से पूछा,

"हृदय विचलित है मेरा" वे बोले,

"क्यूँ?" मैंने पूछा,

"पता नहीं, एक अनजाना सा भय है, सारी रात सो नहीं सका मै" वे बोले,

"भय? कैसा भय?" मैंने पूछा,

"आज द्वन्द का भय" वे बोले,

"भयमुक्त हो जाइये, मै आज जैसा हूँ सुबह भी वैसा ही होऊंगा!" मैंने कहा,

"मै भी यही चाहता हूँ" वे बोले,

"तो फिर घबराइए नहीं" मैंने कहा,

"आप हमारे लिए अपने प्राण दांव पर लगा रहे हैं, भय होना स्वाभाविक ही है!" अब मनसुख ने कहा,

"आप चिंता न कीजिये, आपकी समस्या का कल अंत हो जाएगा!" मैंने कहा,

"हम किस प्रकार ये एहसान उतारेंगे आपका?" वे बोले,

"एहसान जैसे शब्द न प्रयोग कीजिये!" मैंने हंस के कहा,

"ये आपका बड़प्पन है, आप विलोम-मार्गी होते हुए भी हमारे लिए इतना कुछ कर रहे हैं" वे बोले,

"कोई बात नहीं ऐसी, आप चिंता न करें!" मैंने कहा,

अब हम उठे वहां से, अपने कक्ष की ओर चले! कक्ष में पहुंचे, तभी कौलव नाथ आ गया, उसने मुझसे सारी सामग्री पूछी तो मैंने सारी सामग्री बता दी उसको, उसने लिख लिया और चला गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये कौलव नाथ मुझे बहुत पसंद आया गुरु जी!" शर्मा जी बोले,

"हाँ, आदमी बढ़िया है!" मैंने कहा,

"मददगार भी है" वे बोले,

"हाँ, ये तो है" मैंने कहा,

"कल हम जश्न मनाएंगे गुरु जी, विजय का जश्न!" वे बोले,

"अवश्य!" मैंने कहा,

"कल की रात्रि जश्न की रात्रि होगी!" वे बोले,

"हाँ, अवश्य ही होगी!" मैंने कहा,

"इस बुमरा को भी पता चल जाएगा कि औघड़ी-विद्या होती क्या है, कमीना कहीं का, साला!" वे बोले ताव से!

"हाँ, इसका मै वो हाल करने वाला हूँ कि इसने कभी स्वपन में भी नहीं सोचा होगा शर्मा जी!" मैंने कहा,

"ऐसे कमीन इंसान के साथ ऐसा ही होना चाहिए गुरु जी!" वे बोले,

"ऐसा ही होगा!" मैंने कहा,

तभी एक सहायक आया, नाश्ता-पानी दे गया, हमने नाश्ता-पानी करना आरम्भ किया, ये कोई चावल से बनी हुई खीर सी थी, कुल मिलाकर थी स्वादिष्ट! साथ में कुछ फल भी कटे हुए थे, हम खाते गए स्वाद लेकर!

"ये कोई खास व्यंजन लगता है!" शर्मा जी बोले,

"हाँ, कोई नेपाली व्यंजन है" मैंने कहा,

"है तो ज़ायकेदार!" वे बोले,

"हाँ!" मैंने गर्दन हिलाई!

नाश्ते से निबटे हम! हाथ-मुंह धोया और फिर से बिस्तर पर टिक गए!

तभी आया कौलव नाथ!

"आओ भाई कौलव नाथ!" मैंने कहा,

"सार प्रबंध हो गया है, एक बात और, अगर कोई साध्वी की आवश्यकता हो तो अभी बता दीजिये, मै अभी प्रबंध करवा देता हूँ धूमनाथ से कह कर" वो बोला,

"नहीं, मुझे कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी कौलव नाथ" मैंने कहा,

"सोच लीजिये" उसने कहा,

कहा तो उसने सही था, परन्तु मुझे नहीं कोई आवश्यकता नहीं पड़ने वाली थी, वो बारह-चौदह का होगा, उसके लिए मै किसी साध्वी के संग क्रिया करना उचित नहीं समझता था!


   
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