भादों का महिना था, हवा में ठंडक थी, कुछ उमस भी थी, पसीना सूखता नहीं था आराम से, हर तरफ जैसे उमस का ही एकछत्र शासन था! बादल आते जाते जैसे नीचे बस रहे मानुषों को धमकाते जाते थे! सूर्य भी पस्त थे मेघों के आवरण से, किसको हटायें जो अपनी प्रेयसी भूमि के दर्शन करें! एक को हटाते तो दूसरा प्रबल रूप से जल भर के सूर्य से सम्मुख वार्तालाप करने लगता था! पृथ्वी पर उमड़ते घुमड़ते मेघों की छाया जैसे वृक्षों से लुक्काछिप्पी खेल रही थी! हवा का एक तेज झोंका उठता तो शाख तो शाख नवांकुरित कोंपलें भी शाखों के साथ तालियाँ बजाने लगती थीं!
मै और शर्मा जी जा रहे थे गाड़ी में बैठ मुरादाबाद की तरफ, यातायात भी सुस्त था, और उसने हमे भी सुस्त कर दिया था! रुकते और फिर चाय पानी पीते, थोड़ी देर सन की रस्सी से बुनी चारपाई पर सुस्ताने लगते और फिर आगे चले जाते! हमे मुरादाबाद से पहले ही जाना था, वहाँ एक बुजुर्ग महंत ठहरे हुए थे, आयु काफी थी उनकी सो मैंने ही उनसे कहा था कि वो तक़लीफ़ न उठायें मै आ जाऊँगा उनके पास, सो यही कारण था हमारे वहां जाने का!
और फिर किसी तरह हम पहुंचे मुरादाबाद से कुछ पहले एक स्थान पर, ये स्थान वैसे तो पहले आबादी से दूर था, किन्तु अब वहाँ आबादी बसने लगी थी, शहर बढ़ने लगे हैं और गाँव संकुचित होने लगे हैं! इत्तिला हमने कर ही दी थी, सो हमने वहाँ गाड़ी लगाईं और अन्दर प्रवेश कर गए! अन्दर एक सहायक से बाबा चरण दास के बारे में पूछा तो उसने बता दिया, हम वहीं जा पहुंचे, अन्दर बाबा विश्राम कर रहे थे! दो चार सहायक भी बैठे थे, हमे देखते ही उठ गए बाबा, नमस्कार आदि हुई और हमने अपना अपना स्थान ग्रहण किया! बाबा ने पानी मंगवाया और हमने पानी पिया! बाबा ने चाय के लिए भी कहा, सहायक चल दिए बाहर बाबा के इशारे पर, कमरे से बाहर!
"बताइये बाबा जी, कैसे हैं?" मैंने पूछा,
"ठीक हूँ, काट रहा हूँ शेष समय!" वे हँसते हुए बोले,
"अभी तो बहुत समय शेष है!" मैंने भी हंसके उत्तर दिया!
"चलिए छोडिये, मैंने आपको यहाँ एक विशेष कार्य से बुलाया है" वे बोले,
"बताइये?" मैंने पूछा,
"मेरे एक जानकार हैं, केदारनाथ में, मनसुख, उनका वहाँ एक आश्रम है, उस आश्रम में दो विदेशी महिलायें आई थीं रहने के लिए और ज्ञान संवर्धन के लिए, योग आदि की शिक्षा के लिए" वे बोले,
उन्होंने बात काटी क्यूंकि चाय आ गयी थी,
चाय रख दी तो सहायक चला गया, हमने अपनी अपनी चाय उठाई,
"अच्छा फिर?" मैंने पूछा,
"वो करीब एक महिना यहाँ रहीं और फिर एक दिन बिना बताये वहाँ से चली गयीं, ना जाने कहाँ" वे बोले,
"चली गयीं? कहीं वापिस तो नहीं चली गयीं?" मैंने पूछा,
"नहीं, वापिस नहीं गयीं वो" वे बोले,
"आपको कैसे पता?" मैंने पूछा,
"मनसुख ने फ़ोन किया था उनके देश में, उनके घर" वे बोले,
"फिर?" मैंने पूछा,
"उनके परिजनों ने बताया कि वे वहाँ नहीं पहुंची 'वे बोले,
"ओह! कौन से देश की हैं वो?" मैंने पूछा,
"जर्मनी की" वे बोले,
"उनकी उम्र?" मैंने पूछा,
"एक है उनमे से सिंथिया, उम्र होगी कोई तीस वर्ष और दूसरी गैबी, उम्र होगी कोई बीस बरस" वे बोले,
"ओह! कितने दिन हुए?" मैंने पूछा,
"कोई बीस बाइस दिन हो गए" वे बोले,
"उनका कोई नंबर तो होगा फ़ोन का?" मैंने पूछा,
"नंबर पहुँच से बाहर हैं" वे बोले,
"बड़ी हैरत वाली बात है!" मैंने कहा,
"मुझे डर है कोई दुर्घटना ना हो गयी हो उनके साथ" वे बोले,
"यदि ऐसा होता तो अब तक आपको खबर लग जाती" मैंने कहा,
चुप हुए वो अब!
"किसी ने उनको बाहर आते जाते नहीं देखा उस दिन?' मैंने पूछा,
"बाहर तो वो आती जाती रहती ही थीं, किसी ने शक नहीं किया होगा" वे बोले,
"महंत साहब! आप भी ऐसे ऐसे संकट ले कर आते हो मेरे पास!" मैंने कहा,
"अब क्या करूँ? और किसी पर विश्वास नहीं मुझे" वे बोले,
"ठीक है, क्या उनको कोई फोटो है आपके पास?" मैंने पूछा,
"हाँ है" वे बोले, और फिर एक पोटली में से डायरी निकाली और फोटो निकाल कर दे दी!
मैंने फोटो अपनी जेब में रख लीं!
समस्या वाकई गंभीर थी, मैंने मनसुख दास के आश्रम का पता ले लिया और शर्मा जी को दे
खैर, एक कमरे में ठहरा दिया हमको उन्होंने, मै विचारों में उलझा अब! समझ नहीं आ रहा था, कहाँ से आरम्भ करूँ और कहाँ से कड़ियाँ जोडूं!
"गुरु जी, ये तो उलझा हुआ मामला है" वे बोले,
"हाँ, है तो" मैंने कहा,
"वो जा कहाँ सकती हैं?" उन्होंने पूछा,
"पता नहीं फिलहाल तो" मैंने कहा,
"कमाल है! कहाँ गयीं? अगर जाना था तो खबर ही कर देतीं?" वे बोले,
"हाँ, बस यहीं कुछ संदेह होता है मुझे" मैंने कहा,
अब मैंने तकिया लगाया और आराम करने लगा! शर्मा जी भी लेट गए!
मैंने अब जेब से वो तस्वीरें निकाली, नैन-नक्श अच्छे थे उन दोनों महिलाओं के, कद भी ऊंचा था, और देखने से पता चलता था की उनका स्वभाव हंसमुख ही होगा, परन्तु उनका एक साथ वहां से गायब हो जाना बड़ा ही अजीब था! वो भी दोनों एक साथ, ना अता ना पता! ना खोज ना खबर! और मन में बड़े अजीब से ख़याल घर करते जा रहे थे, जैसे कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी? कहीं कोई अनहोनी? या फिर किसी साजिश का शिकार तो नहीं हो गयीं वे दोनों? उनका पता ऐसे तो नहीं चल सकता था, ये तो अब कारिन्दा ही बता सकता था, बस यही निश्चित किया और उस समय उस तनाव का टोकरा उतार दिया सर से! अब शर्मा जी के दिमाग में खलबली मची! उन्होंने तपाक से प्रश्न उछाला मेरी तरफ!
"गुरु जी, अब कैसे पता चलेगा? ये तो गेंहू के ढेर में जौ खोजने जैसी बात हो गयी!"
"बिलकुल ठीक कहा आपने!" मैंने कहा, "वैसे उन्होंने किसी को बताया क्यूँ नहीं?" उन्होंने पूछा,
"हो सकता है वो ना चाहती हों बताना?" मैंने कहा,
"हाँ, हाँ! ये सही है!" वे बोले,
"हाँ!' मैंने कहा,
"इसक
कि वे नहीं चाहती थीं किसी को बताना" वे बोले,
"ये तो है, लेकिन क्यों?" मैंने पूछा,
"यहीं तो गाड़ी अटक गयी गुरु जी!" वे बोले,
"किसी की साजिश तो नहीं?" मैंने कहा,
"साजिश?" वो हैरत में पड़े!
"हाँ, साजिश" मैंने कहा,
"कौन करेगा उनके साथ साजिश?" उन्होंने पछा,
"हो सकता है कोई बहका के ले गया हो?" मैंने कहा,
"हाँ, हो सकता है" वे बोले,
"लेकिन उनके मोबाइल भी बंद हैं, ऐसा क्यूँ?" मैंने पूछा,
"अब तो पक्का कोई साजिश है!" वे बोले,
"हाँ, तभी मैंने भी ऐसा कहा" मैंने कहा,
"आपने सही सोचा!" वे बोले,
वे उठे और अपना बैग खोला, उसमे से बोतल निकाल ली और दो प्लास्टिक वाले गिलास भी, जग उठाया और बाहर चले गए, थोड़ी देर में आये तो गिलास में मदिरा डाली और फिर थोड़ी नमकीन भी निकाली बैग से, हो गए हम शुरू फिर!
"वैसे यूरोपियन महिलाओं को कोई कैसे बहका सकता है?" उन्होंने कहा,
"ऐरा-गैरा तो नहीं, हाँ, वो ज्ञान की खोज में आयी हैं, योग-ज्ञान, ऐसा ही होगा कोई, यदि है तो" मैंने कहा और अपना गिलास ख़तम किया,
"ये संभव है" वे बोले,
"तो कम से कम बता तो जाती?" वे बोले,
"जो ले गया, वो नहीं चाहता होगा ऐसा" मैंने कहा,
"वैसे गुरु जी, ये पहेली तो सुजान ही हल कर सकता है, ना जाने कोई और ही बात हो?" वे बोले,
"मैंने भी यही कयास लगाया था शर्मा जी!" मैंने कहा,
"तब तो कल रात को ही पता चलेगा?" उन्होंने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"ठीक है, कम से कम खबर तो पुख्ता मिल जायेगी!" वे बोले,
"हाँ! ये तो है!" मैंने कहा,
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई, शर्मा जी उठे, दरवाज़ा खोला तो सामने महंत बाबा खड़े थे, मैंने अन्दर बुलाया उन्हें!
"ओह! अमृतपान हो रहा है!" वे बोले,
"हाँ जी! आप चखेंगे?" मैंने पूछा,
"नहीं नहीं!" वे बोले,
"अभी मनसुख का फ़ोन आया था, सोचा आपको सूचित कर दूँ" वे बोले,
"क्या कहा मनसुख ने?" मैंने पूछा,
"मनसुख ने अपनी मातहत खोजबीन की थी, उसको किसी ने खबर की थी कि जैसा हुलिया मनसुख ने उन महिलाओं का बताया था, वैसी महिलायें मनसुख के किसी जानकार ने फैज़ाबाद में देखी थीं!"
"फैज़ाबाद?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"हो सकता है कोई और हों?" मैंने कहा,
"हो सकता है, लेकिन मनसुख ने किसी को भेजा है जानकारी जुटाने के लिए फैज़ाबाद" वे बोले,
"ठीक है, जो भी जानकारी आये वो मुझ तक पहुंचा दीजियेगा आप" मैंने कहा,
"हाँ, हाँ! क्यों नहीं!" वे बोले,
मैंने एक और गिलास खींचा अब!
"अच्छा, अब आप विश्राम कीजिये, मै सुबह मिलता हूँ आपसे" वे खड़े होते हुए बोले,
"ठीक है, आप भी विश्राम कीजिये!" मैंने कहा,
वे गए तो शर्मा जी ने दरवाज़ा बंद कर दिया, बैठे, गिलास में मदिरा डाली,
"फैज़ाबाद में?" वे बोले,
"हो सकता है" मैंने कहा,
"चलो मान लिया, कि फैज़ाबाद में हैं, अर्थात अयोध्या के समीप ही हैं, तो कम से कम अपने घरवालों को खबर देने में क्या पाबंदी थी?" उन्होंने संशय से कहा,
"पाबंदी! आपने उत्तर दिया ना!" मैंने कहा,
"पाबंदी?" वे बोले,
"मना किया होगा उनको!" मैंने कहा,
"समझ नहीं आया" वे बोले,
"अब छोडो, कल ही देखेंगे" मैंने कहा,
"हाँ जी, मत्था खराब हो गया!" वे बोले,
उसके बाद मदिरा समाप्त की और सुस्ताने लेट गए, नींद आ गयी उसी समय!
अगली सुबह....... सुबह नींद खुली, नित्य-कर्मों से फ़ारिग हुए, अब प्रस्थान का समय था, चाय आ गयी थी तो चाय पी हमने, तभी महंत आ गए, मैंने उनको अन्दर बिठाया, उनसे चाय पूछी, और पूछा, "कोई खबर आई उसके बाद?"
"नहीं जी, अब तक तो नहीं आई, मनसुख तक ही नहीं आई होगी, इसीलिए मेरे पास खबर नहीं आई अभी तलक" वे बोले,
"और कोई विशेष बात जो बतलाना चाहें आप?" मैंने चाय की चुस्की भरते हुए कहा, और एक बिस्कुट भी आधा तोड़ लिया,
"और विशेष तो कुछ नहीं" वे बोले,
"आपने स्वयं उनको देखा है?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वे बोले,
"ठीक है, अब हम चलेंगे, कोई विशेष खबर, या कोई भी जानकारी आये तो इत्तिला कीजियेगा" मैंने कहा,
"अवश्य करूँगा" वे बोले,
"ठीक है, अब हम प्रस्थान करते हैं" मैंने कहा,
"अरे, नाश्ता-पानी तो करके जाते?" वे बोले,
"अभी सुबह का समय है, भीड़-भाड़ से बच जायेंगे, बाद में तो बुरा हाल हो जाएगा, यही कारण है" मैंने कहा,
"ये बात तो है" वे बोले,
मैंने अपना बैग उठाया और शर्मा जी ने अपना, बैग से गाड़ी की चाबी निकाली और जेब में रख ली,
"सुनिए, ये काम जितना जल्दी हो जाए उतना ठीक रहेगा, बाइस-तेइस दिन तो हो ही चके हैं, विलम्ब जितना हो रहा है, कहानी बिगडती जा रही है" वे बोले,
"मै समझता हूँ, आप चिंता न करें, मै आपको कल खबर कर दूंगा जैसा भी मुझे जांच में पता चलता है" मैंने कहा,
"आपका ही सहारा है अब तो" वे खड़े होते हुये बोले,
"मै भरसक प्रयत्न करूँगा कि इस समस्या का निदान शीघ्र ही हो जाए" मैंने कहा,
"धन्यवाद" वे बोले,
"कोई बात नहीं महंत जी!" मैंने कहा,
और अब हम वहाँ से अपने अपने बैग लेकर निकले, गाड़ी स्टार्ट की और चल पड़े दिल्ली कि ओर!
कोई एक घंटे के बाद शर्मा जी ने सड़क किनारे एक ढाबे के पास गाड़ी रोकी, धूल-धक्कड़ साफ़ की चेहरे की पानी से और वहाँ रखी कुर्सियों पर बैठ गए, शर्मा जी ने कुछ नाश्ते का ऑर्डर दिया और दो चाय भी मंगवा लीं, चाय आई और फिर नाश्ता, लगे नाश्ता-पानी करने! जब निफराम हुए तो कुछ देर आराम कर फिर से गाड़ी में सवार हो, चल दिए आगे! "गुरु जी, कितने दिन बताये उस महंत ने? बीस-तेइस दिन?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"तो इसका मतलब ये योजना एक दो दिन में नहीं बनी" वे बोले,
"मतलब?" मैंने पूछा,
"मतलब ये कि वे जहां भी गयीं अनिच्छा या स्वेच्छा से एक आद दिन में नहीं गयीं, ये योजना साकार होने में कुछ अधिक समय लगा होगा" वे बोले,
"हाँ, ये बात तो है!" मैंने कहा,
"कोई मनसुख के आश्रम का भी हो सकता है आदमी" वे बोले,
"हो सकता है" मैंने कहा,
"चलिए आज रात पता चल जाएगा कि कहानी है क्या" वे बोले,
"हाँ, मै भी इसी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ" मैंने कहा,
फिर मित्रगण, हम पहुँच गए दिल्ली, बारह के आसपास का समय हो चुका था, थकावट हावी थी, हाथ-मुंह धोकर बिस्तर में ढेर हो गए हम!
एक डेढ़ घंटे देह सीधी करने के बाद खड़े हुए तो सहायक खाना ले आया, थोडा बहुत पेट में डाला!
"ठीक है गुरु जी, मै अब आता हूँ रात को" शर्मा जी बोले,
"ठीक है, आ जाइये" मैंने कहा,
वे चले गए और मै रात की तैयारी में लग गया, क्रिया-स्थल साफ़ किया और सामान संजो कर रखा, फिर दरवाज़ा बंद कर दिया, अपने कक्ष में आया तो दो चार फ़ोन सुने, फिर कुछ लोग आ गए मिलने के लिए, उनके साथ व्यस्त रहा!
और फिर शाम ढली, रात आई, रात गहराई तो शर्मा जी आये, वो सामग्री इत्यादि ले आये थे, मदिराभोग किया और फिर मै जा पहुंचा क्रिया-स्थल में!
अब मैंने सुजान का रुक्का पढ़ा और सुजान झम्म से हाज़िर हुआ, उसको भोग दिया और वो तस्वीरें निकाल कर मैंने देखीं और उसको उसका उद्देश्य बताया, वो उड़ चला! मैंबैठ गया अलख के पास!
करीब दस मिनट के बाद सुजान हाज़िर हुआ! लेकिन खाली हाथ! खाली हाथ! इसका अर्थ ये हुआ कि वो भेद नहीं पाया कोई भी सीमा! प्रवेश नहीं कर पाया! बस वहाँ की गीली मिटटी ले आया! मैंने मिट्टी ली उस से और अलख के पास रख दी! सुजान को वापिस भेजा और यहाँ मेरे माथे पर शिकन उभरी! अब समस्या ही थी सामने, नहीं तो सुजान सटीक जानकारी लेकर आता है हमेशा!
मै सोच में तो पड़ा परन्तु घबराया नहीं, मैंने अब इबु-खबीस का शाही रुक्का पढ़ा और उसको हाज़िर किया, वो मुस्तैद हो हाज़िर हुआ! मैंने उसको उसका उद्देश्य बताया और भेज दिया गंतव्य की ओर! वो झम्म से उड़ चला! मै वहीं अलख के समीप बैठ गया, समय बीतता रहा, पहले पांच मिनट, फिर दस मिनट, फिर पंद्रह और फिर बीस, करते करते अध घंटा हो गया, अब मुझे चिंता हुई! और तभी इबु हाज़िर हुआ! और मै प्रसन्न! चिंता मिट गयी! अब इबु ने बताना शुरू किया, उसके अनुसार वो दोनों महिलायें इस समय नेपाल में हैं, पोखरा से कोई पचास किलोमीटर आगे, वो दो तांत्रिकों के साथ हैं, उनका नाम मोहन और चन्दन है! इबु-ख़बीस से जो पूछा गया था वो उसने बता दिया था, मै खुश हुआ और उसको उसका भोग दे कर वापिस भेज दिया! अब कुछ जानकारी मेरे पास अवश्य ही आ गयी थी, इसके सहारे बढ़ा जा सकता था आगे! अब मै वहाँ से उठा और वापिस शर्मा जी के पास आया, वापिस आकर मैंने सारी बातों से उनको अवगत कराया! उन्हें भी बड़ा आश्चर्य हुआ!
"पोखरा? नेपाल?" उन्होंने विस्मय से पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"और ये काम है मोहन और चन्दन का?" उन्होंने पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"तो गुरु जी, इसका मतलब ये मनसुख अवश्य ही जानता होगा इन दोनों को" वे बोले,
"हो सकता है" मैंने कहा,
"कल आप महंत से बात कीजिये, उनको बताइये और पूछिए यही" वे बोले,
"हाँ, कल पूछता हूँ" मैंने कहा,
इसके बाद और बाते हुई इसी विषय पर, थोडा और मदिरापान किया और फिर भोजन कर सो गए!
सुबह हुई, अलकत भरी सुबह, नित्य कर्मों से हुए फारिग, सहायक चाय ले आया, चाय पीने लगे, उसके बाद थोडा टहले और फिर से इसी विषय पर बात होने लगी!
"शर्मा जी, मुझे लगता है, वो गयी तो अपनी मर्जी से ही होंगी, लेकिन अब आ नहीं पा रही होंगी!" मैंने कहा,
"संभव है" वे बोले,
"या, अब वो आना ही नहीं चाहती होंगी!" मैंने कहा,
"ये भी संभव है!" वे बोले,
"है तो कोई न कोई मुश्किल अवश्य ही!" मैंने कहा,
"हाँ, परन्तु ऐसी क्या मुसीबत हो गयी उनके साथ?" वे बोले,
"ये तो पता नहीं" मैंने कहा,
"वैसे पता चल सकता है क्या?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, चल सकता है, यदि हम नेपाल जाएँ तो, और मै नेपाल नहीं जाने वाला!" मैंने कहा,
"वो क्यों?" उन्होंने पूछा,
"महंत ने हमको केवल उनका पता निकालने के लिए पूछा था, उनको लिवा लेने के लिए नहीं!" मैंने कहा,
"हाँ ये तो है" वे बोले,
"अब मै महंत से बात करना चाहता हूँ, अरे हाँ! उनसे पूछना कि फैज़ाबाद से क्या खबर आई, ज़रा फ़ोन मिलाइये" मैंने कहा,
"अभी लीजिये" शर्मा जी ने कहा,
अब शर्मा जी ने बात की महंत से, नमस्कार आदि हुई तो काम की बात चली, फैज़ाबाद से कोई खबर नहीं मिल पायी थी, वो शायद भ्रम था, अब शर्मा जी ने महंत को बता दिया कि वो दोनों महिलाएं किन्ही दो तांत्रिकों मोहन और चन्दन के साथ हैं, पोखरा नेपाल में, ये सुनकर महंत विचलित हो गए, उन्होंने शर्मा जी को थोड़ी देर में मनसुख से बात करने के बाद फ़ोन करने को कहा तो शर्मा जी ने फ़ोन काट दिया!
"अब महंत जाने और मनसुख, हमारा किरदार ख़तम!" मैंने कहा,
"हाँ जी!" वे बोले,
अब हम एक सहायक की चारपाई पर बैठ गए, सहायक अभी जाग कर गया था वहाँ से!
दो चार बातें और हुईं, फिर फ़ोन आ गया महंत का, शर्मा जी ने फ़ोन सुना, महंत ने बताया कि मोहन और चन्दन पशुपति नाथ में एक औघड़ बुमरा बाबा के चेले हैं, ये मनसुख ने बताया था उनको, और बुमरा की वहाँ पूरी धाक है, वहाँ मनसुख कुछ नहीं कर सकता, हम मदद करें उसकी, शर्मा जी ने मुझे बताया तो मैंने बाद में फ़ोन करने को कह दिया और फ़ोन काट दिया!
"अब ये नयी मुसीबत!" मैंने कहा,
"मना कर दूंगा मै!" वे बोले,
"हाँ, मेरा कोई मन नहीं नेपाल जाने का" मैंने कहा,
"कोई बात नहीं" वे बोले,
अब हम वहाँ से उठे और वापिस चल दिए, शर्मा जी ने भी विदा ली, शाम को आने को कह गए, मै अपने कक्ष में आ गया वापिस!
तभी एक दो जानकार आ गए, कुछ समस्या थी उन लोगों की भी, मैंने इत्मीनान से सुनी और फिर किसी और दिन आने को कह दिया, मैंने उनसे कुछ वस्तुएं लाने को भी कहा था, उन्होंने हामी भरी और चले गये वहाँ से, तंत्र में वस्तुओं जैसे कपडा, कोई अन्य वस्तु अदि लाभदायक होती है क्रिया में, सो इसीलिए मैंने कहा था, तभी एक सहायक आया और शिकंजी दे गया, मैंने शिकंजी पी और गिलास वहीं रख दिया और लेट गया बिस्तर पर, कुछ कागज़ निकाले और कुछ हिसाब-किताब किया, फिर उसके बाद दो और जानकार आ गए मिलने के लिए, वे भी समस्या लाये थे अपनी, उनको भी सुना और नाम, पता लिख लिया अपनी डायरी में, फिर वे लोग चले गए, मैं फिर से लेट गया, और फिर किसी तरह से हुई शाम, शर्मा जी आ गए थे, साथ में सामान लेते आये थे, स्वयं ही पानी आदि का प्रबंध किया, सलाद काटा और फिर हम हुए शुरू महफ़िल जमाने को! तभी शर्मा जी के पास रखा उनका फ़ोन बजा, ये फ़ोन अनजान नंबर से था, उन्होंने फ़ोन सुना, ये मनसुख का फ़ोन था, शर्मा जी ने इत्मीनान से उसकी बात सुनी, करीब पंद्रह मिनट तक, फिर फ़ोन कट दिया,
"किसका फ़ोन था?" मैंने पूछा,
"मनसुख का था" वे बोले,
"यहाँ क्यों किया इसने फ़ोन?" मैंने पूछा,
"गुरु जी, बहुत परेशान है बेचारा" वे बोले,
"तो? उसको बता तो दिया होगा महंत ने?" मैंने कहा,
"तभी तो किया उसने यहाँ फ़ोन" वे बोले, और अपना गिलास ख़तम किया उन्होंने,
"क्या कह रहा था?" मैंने पूछा,
"गिड़गिड़ा रहा था" वे बोले,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"वही, उन महिलाओं के बारे में" वे बोले,
"अब उसको पता बता तो दिया?" मैंने कहा,
"तभी तो कह रहा था कि नेपाल में उसकी पकड़ नहीं है, वो वहां ऐसे किसी को नहीं जानता जो उसकी मदद करे" वे बोले,
"शर्मा जी, मैंने क्या कहा था, मै वहाँ नहीं जाऊंगा" मैंने कहा,
"हाँ, लेकिन गुरु जी, बड़ी आस है उसको आपसे" वे बोले,
"आप क्यों पैरवी कर रहे हो उसकी?" मैंने हंस के पूछा,
"पैरवी नहीं कर रहा, उसकी विवशता ज़ाहिर कर रहा हूँ" वे बोले,
"देखो शर्मा जी, महंत ने पता निकलवाने को कहा, मैंने बता दिया, अब महंत जाने और वो मनसुख, इसमें मै और कोई मदद नहीं कर सकता" मैंने साफ़ कहा,
"वो तो ठीक है, लेकिन......" वो रुके कहते कहते,
"साफ़ बोलिए, लेकिन क्या?" मैंने पूछा,
"मै सोच रहा था......." वे फिर बोलते हुए रुके,
"क्या बोल रहे थे?" मैंने पूछा,
"यही कि यदि आप मदद कर सकते हैं तो मदद करनी ही चाहिए" उन्होंने कह दिया,
"मानता हूँ, लेकिन शर्मा जी, ये मनसुख वहाँ क्यों नहीं जाता? महंत को ले जाये, वहां बुमरा से बात करे, हो सकता है वो मान जाए?" मैंने कहा,
"और ना माना तो?" वे बोले,
"ना माना तो फिर कुछ किया जा सकता है" मैंने कहा,
"सच में?" वे उत्सुकता में उलझे और उन्होंने पूछा,
"हाँ, क्योंकि मै आपका मन जानता हूँ!" मैंने कहा,
"धन्य हो गया मै!" वे बोले,
"चलिए, सुरा परोसिये अब!" मैंने कहा,
उन्होंने सुरा परोसी अब खुशी खुशी से! और फ़ोन पर नंबर डायल कर दिया महंत का! बातें शुरू हुईं और शर्मा जी ने वैसा ही बता दिया जैसा मैंने सुझाया था! महंत को प्रस्ताव पसंद आया, महंत ने बताया कि वो मनसुख से इस विषय पर बात करेंगे और जब नेपाल जाने का कार्यक्रम बनेगा तो वो खबर दे देंगे, यदि बुमरा नहीं मानता तो हमे हस्तक्षेप करना पड़ेगा, शर्मा जी ने हामी भर दी!
"वैसे ये बुमरा है कौन?" उन्होंने पूछा,
"पशुपति नाथ में ऐसे बहुत औघड़ हैं, होगा उन्ही में से कोई" मैंने कहा,
"हम्म" वे बोले,
"तो उसको दिखाई नहीं दे रहा कि वो विदेशी महिलायें हैं?" उन्होंने पूछा,
"दीखता तो ऐसा क्यों होता?" मैंने कहा,
"नहीं, उसके चेले कुछ भी करते रहें, उसको कोई फ़र्क नहीं पड़ता?" उन्होंने पूछा,
"कैसा फ़र्क?" मैंने पूछा,
"उचित अनुचित का?" वे बोले,
"नहीं, नहीं पड़ता!" मैंने कहा,
"ये तो धींगामुश्ती हो गयी" वे बोले,
"शर्मा जी, क्या पता वे महिलायें ही ना आना चाहती हों? तब तो क्या ये महंत, वो मनसुख और मै, क्या कर सकते हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ, ये तो है" वे बोले,
"अब इनको जाने दो, देखते हैं, क्या होता है?" मैंने कहा,
"हाँ, ये हो कर आयें पहले वहाँ" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा और अपना गिलास गटका!
और फिर तीन दिन बीते, महंत का फ़ोन आया कि वो मनसुख और अपने दो साथियों के साथ नेपाल जा रहे हैं, पोखरा, जाकर बात करते हैं बुमरा बाबा से यदि मान जाए तो, और ये कि स्थिति भी पता चल जायेगी कि असलियत आखिर है क्या? क्यूँ ऐसा हुआ? क्या उन महिलाओं को बरगलाया गया था? क्या वो स्वेच्छा से वहाँ से गयीं थीं? कौन ले गया था? मोहन और चन्दन? यदि हाँ तो क्यों ले गया था? यदि वो महिलाएं स्वेच्छा से जाना चाहती भी थीं तो वो मनसुख के आश्रम में खबर भी तो कर सकती थीं? खबर क्यों नहीं की उन्होंने? आदि आदि प्रश्न! मैंने महंत को दो चार बातें और समझा दी, कि कैसे बात करे वहाँ जाकर, बेच आदमी! दया तो आई और इसी दया के कारण मैंने उसकी मदद की थी! महंत के मै पहले भी तीन काम उलझे हुए सुलझा चुका था, महंत आदमी दिल से इमानदार है, सम्मान के लायक है, इसीलिए मै उसका सम्मान करता हूँ!
खैर, वे लोग उसी दिन चले गए नेपाल के लिए, मैंने शर्मा जी को खबर कर दी इस बारे में, अब इंतज़ार था तो केवल महंत के फ़ोन आने का, तभी पता चलता कि वहाँ हुआ क्या?
एक दिन बीता,
फिर दूसरा दिन भी बीता,
फिर तीसरे दिन दिन में कोई दो बजे फ़ोन आया महंत का, शर्मा जी ने फ़ोन मुझे पकड़ा दिया, मैंने फ़ोन लिया और नमस्कार आदि हुई, मैंने पूछा, "क्या हुआ?"
"कहानी बहुत खराब है" वे बोले, "कैसे?" मैंने पूछा,
"बुमरा बाबा ने मना कर दिया" वे बोले,
"किस बारे में मना कर दिया?" मैंने पूछा,
"वो बात करने को राजी ही नहीं है" उन्होंने बताया,
"वो महिलाएं वहीं हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"आप मिले उनसे?" मैंने पूछा,
"मिलने ही नहीं दिया बुमरा ने" वे बोले,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"कहता है वो महिलायें अपनी इच्छा से यहाँ है, वो नहीं चाहती हमसे मिलना" वे बोले,
"झूठ बोल रहा है साला, कमीना!" मैंने कहा,
"झूठ तो बोल ही रहा है, ये बात तो सच है" वे बोले,
"मोहन या चन्दन से बात हुई?" मैंने पूछा,
"नहीं, बुमरा बताता ही नहीं उनके बारे में" वे बोले,
"अच्छा" मैंने कहा,
"अब आप बताओ क्या करें?" वे बोले,
"आप कहाँ हो?" मैंने पूछा,
"पोखरा आ गए हैं हम अब" वे बोले,
"ठीक है, मै आपको अभी आधे घंटे में फ़ोन करता हूँ" मैंने कहा,
"जी ठीक है" उन्होंने कहा और फ़ोन काट दिया,
"लो शर्मा जी, वही हुआ जो मै सोच रहा था" मैंने कहा,
"हाँ, मैंने सुना" वे बोले,
"अब क्या करना है?" मैंने पूछा,
"करना क्या, मदद तो करनी ही पड़ेगी महंत साहब की" वे बोले,
"हाँ करनी तो पड़ेगी है अब तो" मैंने कहा,
"गुरु जी, मनसुख भी बेचार सत्तर बरस का है और ये महंत भी, और आपके ऊपर विश्वास करते हैं, वो भी विभिन्न मार्गी होकर, अब आप सोचिये" वे बोले,
"सही कहा, मै भी आदर करता हूँ इनका" मैंने कहा,
"ठीक है गुरु जी, मैं प्रबंध करता हूँ, मै आज ही गोरखपुर के लिए टिकेट करा लेता हूँ, वहाँ से सोनौली और फिर वहां से पोखरा, जितना जल्दी हो सके मैं करता हूँ" वे बोले,
"ठीक है, करा लीजिये" मैंने कहा,
कुछ देर शांत रहे हम, अपने अपने तौर पर अपने अपने ताने-बाने बुनते रहे, तभी शर्मा जी बोले, "गुरु जी, बुमरा ने मना क्यों किया? मिलने तो देता उनसे यदि उनकी स्वेच्छा है ये?"
"स्वेच्छा नहीं है, तभी तो नहीं मिलने दे रहा" मैंने कहा,
"ये भी साला कमीनों की श्रेणी में है, लगता है!" वे बोले,
"ये साबित कर दिया इसने मना करके!" मैंने कहा,
"अच्छा, गुरु जी, पोखरा में तो कौलव नाथ है ना अपना?" शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ, आज उसको इत्तिला कर दूंगा अपने आने की" मैंने कहा,
"ये ठीक रहेगा" वे बोले,
"हाँ, वो प्रबंध कर लेगा सब, जो हमे चाहिए होगा शर्मा जी!" मैंने कहा,
"हाँ!" वे बोले,
"ठीक है, मै आज रात आवश्यक मंत्र, विद्याएँ आदि जागृत कर लेता हूँ, अवश्य ही आवश्यकता पड़ने वाली है इनकी!" मैंने कहा,
"ठीक है गुरु जी!" वे बोले,
फिर कुछ और बातें हुईं और फिर मैं लेट गया! दरअसल रणनीति बनाने लगा! शर्मा जी चले गए थे, कुछ काम था उनको, मैंने भी अपने एक दो काम निबटाये और फिर विश्राम किया! फिर हुई रात! शर्मा जी आ पहुंचे थे, टिकेट करा लिए गए थे, मैंने उनको वहीं बिठाया, वे समझ गए!
मै क्रिया-स्थल में गया और आरम्भ किया क्रिया-कलाप! एक एक कर समस्त आवश्यक मंत्र और विद्याएँ जागृत कर ली! अब मै तैयार था! शमशान था ही कौलव नाथ के पास, अब चिंता की आवश्यकता नहीं थी! मै उठा वहाँ से और वापिस कक्ष में आया, वहाँ शर्मा जी भजन सुन रहे थे अपने फ़ोन में!
"अभी तक जागे हो?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, नींद नहीं आ रही" वे बोले,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"वहीं की सोच रहा हूँ" वे बोले,
"नेपाल की?" मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
"क्या सोच रहे हो?" मैंने पूछा,
"यही कि कैसा कैसा होता है इस संसार में!" वे बोले,
"अच्छा!" मैंने कहा, और मै भी लेट गया अपने बिस्तर पर!
"गुरु जी, ये मोहन और चन्दन वहीं मिलेंगे?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, मिलने तो चाहियें" मैंने कहा,
"हम्म!" वे बोले,
"क्या इरादा है?" मैंने पूछा,
"मोहन को मोहिनी-विदया में डालना है और चन्दन को घिसना है!" वे बोले,
मेरी हंसी छूटी!
"बात तो सही कही है आपने, ऐसे दुष्कृत्य से हमारे देश का नाम कलंकित होता है, सजा तो मिलनी ही चाहिए इन दोनों को, ये इसी के योग्य हैं!" मैंने कहा,
"मेरा अर्थ भी यही था!" वे बोले,
"सजा तो दूंगा उनको मै!" मैंने कहा,
"ज़रा मुझे भी हाथ-पाँव फुरैरी करने हैं!" वे बोले, अपने हाथ चटकाते हुए!
"कर लेना फुरैरी!" मैंने कहा,
"सालों को ऐसी मार मारूंगा, ऐसी मार मारूंगा, कि जिंदगी में किसी भी महिला की परछाई से भी डरेंगे!" वे बोले!
मेरी फिर से हंसी छटी!
"परछाईं से भी!" मैंने कहा,
"हाँ! हाथ लगाना तो दूर रहा जी!" वे बोले,
"वाह!" मैंने कहा,
"आप देख लेना स्वयं ही!" वे बोले,
"ठीक है, आपको छूट दी!" मैंने कहा,
फिर बातें करते करते नींद लग गयी, दोनों ही पसर गए बिस्तर पर!
सुबह हुई,
उठे हम, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, स्नानादि किया और फिर सहायक चाय ले आया, चाय पी, और फिर शर्मा जी ने विदा ली, गाड़ी आज की ही थी सो उन्होंने सही समय पर आने को कह दिया, वे गए तो मैंने अपना सारा सामान तैयार कर लिया, शेष सामान तो मिल ही जाना था कौलव नाथ के यहाँ!
दोपहर हुई, थोडा आराम किया हमने और कुछ योजना बनाई, साढ़े छह बजे तो हम निकले वहाँ से, ऑटो किया, स्टेशन पहुंचे, गाड़ी आने में समय था, थोड़ी देर बैठे और फ़ोन कर दिया महंत को कि हम दिल्ली से निकल रहे हैं, वे खुश हो गए! गाड़ी प्लेटफार्म पर लगी तो अपने डब्बे में घुस बैठ गए अपनी अपनी सीट पर! गाड़ी चली तो हमने ऊपर बर्थ पर बैठ, साथ लायी हुई मदिरा पर एहसान कर दिया। उसके बाद खाना खाया और बतियाते रहे, फिर सोने की तैयारी की! नींद लग गयी!
सुबह उठे! गोरखपुर आने में अभी पांच घंटे थे, थोड़ी बातचीत की, समय काटा चाय-कॉफ़ी पी और फिर तब जाकर गोरखपुर उतर गए हम! बाहर आये, बाहर से एक वैन की सोनौली के लिए, ये नेपाल और भारत की सीमा में एक दूसरे देश में जाने के लिए प्रवेश द्वार है, सोनौली पहुंचे और फिर नेपाल में प्रवेश कर गए, जाँच हुई, वहाँ से निकले और फिर भैरहवा चौक पहुंचे, थोडा सा आराम किया और फिर वहाँ से बस ले ली पोखरा के लिए! अब हुई दुर्दीत यात्रा आरम्भ! हाथ-पाँव थका देने वाली यात्रा! सोते, जागते हम जा पहंचे पोखरा! पोखरा जहां महंत और मनसुख ठहरे थे! महंत ने हमको वहीं बुलवाया था, महंत को फ़ोन किया तो महंत ने पता बता दिया, हम सवारी पकड़ कर जा पहुंचे वहाँ महंत के पास! थकावट के मारे देह की चूलें हिल चुकी थीं हमारी तो! महंत के पास पहुँच गए तो जाके पसर गए वहाँ! यहाँ मौसम अच्छा था, पहले तो स्नान की आवश्यकता थी, सो सबसे पहले स्नान किया, थकावट मिटी, राहत मिली! और फिर थोड़ी देर आराम किया, थोड़ी देर भी दो घंटे की थी!
देह सीधी हुई तो मै और शर्मा जी महंत के पास जा पहुंचे, वहां मनसुख भी था और उसके दो साथी भी, मनसुख दरम्यानी देह वाला सीधा साधा सा बुजुर्ग व्यक्ति था, तेजी नहीं थी उसमे ये साफ़ पता चलता था!
"कैसी रही यात्रा आपकी!" महंत ने पूछा,
"पूछो ही मत! देह अकड़ गयी है!" मैंने कहा,
वे हँसे!
"अच्छा! क्या कहा था बुमरा ने?" मैंने मनसुख से पूछा,
"पहले तो घुसने ही नहीं दे रहे थे उसके आदमी, किसी तरह से अन्दर गए तो बड़ा गुस्सा हुआ वो, बोला कि भागो यहाँ से कोई नहीं है यहाँ, जब हमने मोहन और चन्दन के बारे में बताया तो तब वो बोला कि वो औरतें अपनी इच्छा से आई हैं यहाँ, अब भागो यहाँ से" मनसुख ने बताया,
"अच्छा, ऐसा कहा?" मैंने पूछा,
‘’बहुत बुरा व्यवहार किया उसने" वो बोला,
"हम्म!" मैंने कहा,
"तो आप कहते कि एक बार उनसे मिलवा दो?" शर्मा जी ने पूछा,
"वो सीधे मुंह बात ही नहीं कर रहा था, जब हमने कहा तो बोला, जहां से आये हो वहीं चले जाओ, नहीं तो छप्पन के खेल में डाल दूंगा!" वो बोला,
"छप्पन का खेल?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, हमे तो मालूम नहीं, क्या है ये छप्पन का खेल" मनसुख बोला,
"मैं बताता हूँ, पशुपति नाथ में छप्पन का खेल खेला जाता है औघड़ों के बीच! मै खेलूंगा ये छप्पन का खेल!" मैंने कहा,
"ये क्या खेल है जी?" महंत ने पूछा,
"तलवारबाजी!" मैंने कहा,
"कैसी तलवारबाजी?" उन्होंने पूछा,
"होती है, शमशान में!" मैंने बताया,
"ओह!" वे बोले!
"क्या उम्र होगी उसकी?" मैंने पूछा,
"होगी करीब पचास बरस" मनसुख ने बताया,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"अब आप मिलोगे उस से?" महंत ने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"कब?" उन्होंने पूछा,
"कल" मैंने कहा,
"संभल के जाना, आदमी खतरनाक है वो" महंत ने पूछा,
"चिंता न करो, यहाँ मेरा एक जानकार है बाबा कौलव नाथ! वो जाएगा मेरे साथ!" मैंने कहा,
महंत मुस्कुराए! और मनसुख भी!
उस रात हमने आराम किया, कमर सीधी करनी थी इस से पहले कि वक्र का शिकार हो! मनसुख को महंत ने बता दिया था कि हम खाने-पीने वाले लोग हैं, इसीलिए मनसुख ने खानेपीने का प्रबंध करा लिया था, वो केवल पीता था, हाँ खाता नहीं था, वो भी हमारे साथ शामिल हुआ, उस रात को हमने थकावट मिटाने वाली बूटी का रसपान किया! बाबा बुमरा के विषय में बातें हुईं, और उन महिलाओं के बारे में भी, और फिर कुछ ओर बातें भी, रात के साढ़े ग्यारह बज गए, अब सोने की तैयारी की हमने, और फिर अपने अपने बिस्तर पर ढेर हो गए!
नींद बहुत बढ़िया आई, सोने के बाद तो पता ही नहीं चला कि भूमि हिंदुस्तान की है या नेपाल की! जब सुबह आँख खुली तो रुका हुआ चक्री-यन्त्र पुनः चलायमान हो उठा, एक एक याद ताज़ा हो गयी.किसलिए आये हैं और आगे क्या करना है.खैर. नहाए-धोये और फिर चाय पी हमने तब मैंने शर्मा