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वर्ष २०१० धौलपुर, राजस्थान की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आया!

और फिर………

 

ढेणा! यही नाम बताया था उसने! जल्लाद सा लगता था देखने में! भक्क काला और पहलवान! आज के इंसान की तो एक हाथ से गरदन तोड़ दे! लम्बाई भी बहुत थी उसकी, करीब सात फीट का तो होगा ही! नीचे उसने अंगोछा सा बाँधा था, बाकी शरीर पर कुछ नहीं था! वो देखता था तो उसकी नज़रें कटार जैसी तेज लगती थीं!

“बहुत आये!” उसने कहा,

मैंने सुना!

“बहुत गए!” उसने कहा,

मैंने सुना!

“तू बहुत दिन बाद आया है!” उसने कहा,

मैंने सुना!

“तुझमे हिम्मत है, वाकई!” उसने कहा,

मैंने सुना!

“जा तुझे छोड़ देता हूँ!” उसने कहा,

मैंने फिर सुना!

“अब जा?” उसने कहा,

मैंने सुना!

मैं नहीं गया!

“चला जा!” उसने अब हाथ से इशारा करके कहा,

मैं डटा रहा!

“क्यों प्राण गंवाता है?” उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने सुना!

“चला जा!” उसने फिर से कहा,

मैंने सुना!

पर गया नहीं!

अब उसे क्रोध आया!

“नहीं जाएगा तू?” उसने गुस्से से कहा,

“नहीं!” मैंने कहा,

“तू मुझे नहीं जानता!” वो बोला,

मैं चुप!

अब बिफरा!

अंटशंट के मंत्र बोले उसने!

वो गुस्से में मेरे पास आया!

उसने मेरे चेहरे पर फूंक मारी! मेरी आँखें बंद हुईं!

लेकिन,

कुछ भी न हुआ!

वो हैरान!

वो मुझे फूंक देना चाहता था ज़िंदा! लेकिन मेरा कुछ नहीं हुआ! इसीलिए हैरान था वो! मेरे सिद्ध तंत्राभूषण उसका वार झेल गए थे!

वो पीछे हटा! गड्ढे में कूद गया! वो वापिस नहीं गया था! कुछ सोचने समझने गया था! और अगले ही पल ऊपर आ गया वो! हाथ में एक त्रिशूल लिए! मंत्र बड़बड़ाते हुए!

उसने अब मेरे चारों ओर चक्कर लगाने शुरू किये, तेज बहुत तेज! इतना तेज कि वो गायब!

और तभी मुझे पीछे कमर में कुछ छूने का एहसास हुआ! उसने त्रिशूल घोंपने की कोशिश की थी! लेकिन यम्त्रास विद्या के प्रभाव से कुछ नहीं हुआ! हाँ उसकी चीख गूंजी! और लोप हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने पीछे देखा!

कोई नहीं था!

आगे जैसे ही मुड़ा, वो गड्ढे के पास खड़ा था!

“क्या हुआ ढेणा?” मैंने पूछा,

वो चुप!

“बस?” मैंने पूछा,

अब उसने सुना!

अब मैं हंसा!

“डर गया तू?” मैंने पूछा,

उसने सुना!

मैं फिर हंसा!

“चल! अब जा! छोड़ देता हूँ तुझे!” मैंने कहा,

उसने सुना!

तभी वो भैंसे सा रम्भाया और गड्ढे में कूद गया वापिस! आग शांत हो गयी! आवाज़ें भी शांत हो गयीं!

मैं गड्ढे की ओर बढ़ा अब! नीछे देखा, टॉर्च की रौशनी डाली! कुछ नीचे से आ रहा था ऊपर! जैसे किसी को बोरे में बाँध कर डाला हो, ऐसे हिल रही थी नीचे की मिट्टी! और तभी!

तभी एक कपाल आया नीचे से! फिर दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा! अनगिनत कपाल आने लगे वहाँ, आधा गड्ढा भर गया उनसे! मैं फ़ौरन पीछे भागा! बहुत तेज! जितना तेज भाग सकता था उतना तेज!

और तभी वे सभी कपाल गड्ढे से उछल कर बाहर आ गए! बारिश सी हो गयी उनकी! धम्म धम्म नीचे गिरने लगे!

ऐसा मैंने पहली बार देखा था होते हुए! समझ नहीं आया कि क्या किया जाए! मैंने तभी अभय-मंत्र का जाप कर लिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब!

तब गड्ढे से एक औरत बाहर आयी! एक खौफनाक औरत! एक बार को तो उसका रूप देखकर मुझे भी सिहरन हो गयी! फुरफुरी सी दौड़ गयी शरीर में!

वो औरत बड़ी लम्बी-चौड़ी थी! झाला सा पहना था उसने जो अब चीथड़े हो गया था! उसके गले में हड्डियां लटकी थीं! हाथों में दो तलवार थीं, चौड़े फाल की!

मैं वहीँ रुक गया!

 

हवा चलती थी तो उसके गले में लटके हड्डियों के टुकड़े पीपल के पत्तों के खड़कने की सी आवाज़ें करते! वक़्त ठहरा हुआ था वहाँ! वो कौन है, मुझे नहीं पता था, वो केवल अपना कार्य करने आयी थी, मुझे रोकने, उस अस्थिदण्ड को रोकने! भयानक औरत थी, साक्षात मृत्यु-देवी! उसने अपने तलवारें नीचे कीं, और गुर्रायी, और फिर बोली, “कौन है तू?”

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया!

उसने जैसे प्रतीक्षा की मेरे उत्तर की!

“कौन है?” उसने कहा,

मैंने अब भी कोई उत्तर नहीं दिया!

तभी मेरे सामने एक कपाल लुढ़क के मेरे सामने आया, मैंने उसको देखा, वो हवा में उठा और फट से फट पड़ा! टुकड़े टुकड़े हो गये उसके! कई टुकड़े मुझे मेरे बदन पर आ कर लगे!

मैं चुपचाप दम साधे खड़ा था! एक चूक और क़िस्सा ख़तम! वहीँ दफ़न कर देती वो मुझे!

“कौन है?” उसने पूछा,

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया!

अब जैसे उसको गुस्सा आया! वो चिल्लाई और तभी बहुत सारे कपल उछलने लगे वहाँ, एक दूसरे से टकराते हुए, नष्ट होते हुए! मैंने तभी एक महामंत्र पढ़ा, और पढ़कर नीचे थूक दिया! कपाल गायब हो गए! शान्ति हो गयी वहाँ! उस औरत ने मुझे गौर से देखा और फिर ज़ोर से हंसी!

हंसी ऐसी कि कलेजा छाती से निकल पेट में आ जाए सुनके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“अब तू नहीं बचेगा!” वो चिल्लाई!

मैंने अब भी कुछ नहीं कहा!

वो अब गुस्से में आयी मेरी तरफ!

मैं तैयार था!

मैंने महाताम विद्या का पुनश्चः संधान किया और फिर मुंह में थूक एकत्रित कर लिया, जैस एही वो मेरे सामने आयी मैंने अभिमंत्रित थूक उस पर फेंक दिया! भन्न! भन्न से वो दूर उछली! तलवारे हाथ से गिर गयीं! वो शीघ्रता से खड़ी हुई और सन्न सी मुझे देखने लगी!

तभी जैसे ज़मीन में स्पंदन हुआ! मैंने मजबूती से अपने पाँव वहाँ मिटटी में जमाये! उस औरत ने मेरी और हाथ किया और टूटी फूटी अस्थियां प्रकट हुई, जोड़! मनुष्य के जोड़ों की हड्डियां थीं वो! परन्तु मेरे मन्त्रों के चपेट में आते ही राख हो गए वो! हाँ, मेरी आँखें बंद हो गयी थीं! और जब मैंने आँख खोली तब वहाँ कोई नहीं था! वो औरत जा चुकी थी वहाँ से!

कहाँ गयी?

गड्ढे में?

मैं गड्ढे में देखने चला!

और जैसे ही देखा सिहर सा गया!

वहाँ दो सर जुड़े बालकों के सी लाश पड़ी थी! कीड़े रेंग रहे थे उनके ऊपर! बड़े बड़े आदमखोर कीड़े! बदबू ऐसी कि मुंह न केवल कड़वा हो जाए बल्कि बेहोशी आ जाए! मेरा मन मिचला उठा और उसी पल मुझे उलटी हो गयी! मैंने नीचे बैठ गया! उलटी पोंछी लेकिन बदबू सर में चढ़ती जा रही थी, मैंने तब्जी कुत्र्रांतिक मंत्र का सहारा लिया, एक नथुना बंद कर एक भाग पढ़ा और दूसरा नथुना बंद कर दूसरा! मंत्र ने काम किया और वो प्रबल महामाया भंग हो गयी! जान में जान आयी मेरे! मैं खड़ा हुआ! गड्ढे में झाँका, वहाँ अब कोई नहीं था!

अब मैं वहाँ से हटा!

और जैसे ही हटा वहाँ हलचल हुई! मुझे लगा जैसे किसी ने मेरा नाम पुकारा! मैंने चारों ओर देखा, वहाँ कोई नहीं था, लेकिन दूर अँधेरे से आवाज़ें आ रही थीं! बार बार मेरा नाम कोई पुकार रहा था! और तो और! वे आवाज़ें मेरे ही परिजनों की थीं! ये भी कोई शक्ति थी! मुझे भरमाना चाहती थी, अब मैंने ध्यान नहीं दिया और पेटी की तरफ बढ़ा! अपना खंजर निकाला


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर जैसे ही पेटी के वो तार काटने लगा, पेटी में आग लग गयी! और अब आवाज़ें आयीं हंसने की! मैं खड़ा हो गया! आग बंद!

“कौन है” मैंने कहा,

कोई नहीं!

“सामने आ?” मैं फिर चिल्लाया!

कोई नहीं!

मैंने पेटी को देखा!

जस की तस!

मैं फिर नीचे बैठा, आँखें बंद कीं और यमशूलिका-त्रिदण्ड का जाप किया! अब मिट्टी मारी मैंने पेटी पर! और हाथ लगाया! पेटी गरम थी! तपती सी गरम! मैंने खंजर लिया और उसका अब एक तार काट दिया! फिर से कोई हंसा! ताली सी मारते हुए! और अब एक एक करके तार काटने लगा! तार कटते चले गए! और अब रह गया वो एक कुंदा, जो कि बेहद मजबूती से बंधा हुआ था! मैंने उसको काटने की जुगत भिड़ाई! खंजर उसमे आ नहीं रहा था! और ऊँगली से मैं छू नहीं सकता था! वो तपी हुई थी! तभी मुझे किसी ने जैसे पीछे मेरे समीप से ही मेरा नाम पुकार कर आवाज़ दी! मैंने पीछे देखा! ये एक साध्वी सी थी! एक जवान सी साध्वी! उसके केश भूमि पर स्पर्श कर रहे थे! उसने काले रंग का वस्त्र धारण किया हुआ था और उस से रक्त की गंध आ रही थी! हाँ, उसने अपने दोनों हाथ पीछे कर रखे थे, अपने केशों में छिपाए थे!

मैं खड़ा हो गया!

वो मुझे देख रही थी और मैं उसे!

वो मुस्कुरायी!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

“मोहना” उसने कहा,

“कौन मोहना?” मैंने पूछा,

“सेविका!” उसने कहा,

मैं चुप!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो भी चुप!

 

“किसकी सेविका?’ मैंने पूछा,

“बाबा की” उसने कहा,

“कौन बाबा?” मैंने पूछा,

वो हंसी!

“कौन बाबा?” मैंने फिर पूछा,

“जिसके लिए तू यहाँ आया है” वो बोली,

मैं?

जिसके लिए?

समझा!

बाबा रोमण की सेविका!

“बाबा रोमण?” मैंने पूछा,

“हाँ” उसने कहा,

अब मंजिल निकट थी!

“लेकिन मुझे रोक कौन रहा है?” मैंने पूछा,

“सेवक” उसने कहा,

“कौन सेवक?” मैंने पूछा,

“यहाँ के सेवक!” उसने कहा,

“कहाँ हैं सेवक?” मैंने पूछा,

“हर जगह” उसने कहा,

“कहाँ?” मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“यहाँ” उसने अपने पाँव से ज़मीन पर मारते हुए कहा,

“भूमि में?” मैंने पूछा,

और तभी मैं उछला!

और नीचे गिर गया!

किसी ने मुझे धक्का सा दिया था, पीछे से!

मैंने पीछे देखा, कोई नहीं था! और वो खिलखिलाकर हंस रही थी!

“कौन है?” मैंने पूछा,

कोई नहीं आया!

अब मैंने लघु-प्रत्यक्ष् मंत्र का प्रयोग किया! लेकिन तब भी कोई नहीं प्रकट हुआ! कोई बहुत शक्तिशाली शक्ति थी वहाँ!

“क्या चाहिए तुझे?” उसने पूछा,

“कुछ नहीं, बस वो अस्थिदण्ड” मैंने कहा,

अब तो जैसे मैंने उसके प्राण मांग लिए हों!

क्रोधित हो गयी!

“उसके अलावा क्या चाहिए?” उसने पूछा,

“कुछ नहीं” मैंने कहा,

“उस औरत के लिए भी नहीं?” उसने पूछा,

मर्म!

मर्म पकड़ लिया उसने मेरा!

मैं चुप!

वो हँसे!

“ले!” उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और ज़मीन पर पाँव मारा!

पाँव मारते ही घड़े आ गए वहाँ ज़मीन से निकल कर! घूमते हुए! सोने से भरे हुए! अकूत दौलत! कौन नहीं चाहेगा वो! कोई भी चाहेगा! मेरे हाँ करने की देर थी और वे मूर्त हो जाते!

“ले! ले जा!” उसने कहा,

क्या लालच दिया था!

मैंने देखा उन घड़ों को! कुल बारह थे वो! चमकदार! पीले पीले रंग से सुशोभित!

मैं शांत खड़ा था!

“नहीं मोहना!” मैंने कहा,

वो मुस्कुराये!

“नहीं चाहिए?” उसने पूछा,

“नहीं” मैंने कहा,

“मूर्ख कहीं का” उसने कहा,

“हाँ, मैं मूर्ख सही” मैंने कहा,

और तभी धड़ाम सी आवाज़ हुई!

गड्ढे के मुहाने से एक साधू सा प्रकट हुआ! त्रिपुंड धारण किये हुए! मस्तक पे विराजे! देखने में सात्विक सा लगा मुझे! लेकिन वस्त्रों से प्रबल तामसिक! त्रिपुंड धारण किया था, अर्थात वो उत्तर भारत से था! ऐसे औघड़ बैज शाखा से होते हैं, मैं जान गया!

अत्यंत विशाल शरीर था उसका! खड़िया से शरीर का रेखांकन कर रखा था उसने! सर्प जैसे लहरदार! केश बंधे हुए! बहारी केश-राशि! उम्र कोई सत्तर के आसपास! उसको देखकर मोहना उसके पास दौड़ी चली गयी!

“कौन हो तुम?” उस साधू ने कहा,

अब मैंने अपना परिचय दे दिया!

“क्या चाहिए?” उसने पूछा,

“वो अस्थिदण्ड” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“किसलिए?” उसने पूछा,

अब मैं अटका!

कटकनाथ को तो देना नहीं था, तो फिर किसलिए?

मैं अटक गया!

 

किसलिए! इसका क्या जवाब था! कोई भी नहीं! किसलिए चाहिए था वो अस्थिदण्ड? पता नहीं! कटकनाथ? नहीं! फिर? फिर किसलिए! कुछ न सूझा! कुछ न सूझा तो मैंने अब बाबा को सब सच सच बता दिया! क्या छिपाता! कुछ नहीं! कुछ था ही नहीं छिपाने के लिए!

उन्होंने जाना और फिर मुझे देखा!

मैंने उन्हें देखा!

उन्होंने फिर अपनी सेविका को देखा!

सेविका ने मुझे देखा!

और अगले ही पल बाबा आये उस तरफ, मेरी तरफ बढे और रुके, फिर पेटी को देखा, और हाथ लगाया, हाथ लगाते ही पेटी गायब हुई! मेरी आँखों के सामने ही वो पेटी गायब हो गयी!

फिर बाबा ने मुझे देखा!

मुस्कुराये और फिर अपने हाथ से मेरी तरफ इशारा किया और बोले, “वक़्त पर आना”

इस से पहले मैं कुछ समझता, वे लोप हो गए!

रह गयी सेविका!

उसने मेरी तरफ कुछ फेंका!

वो मेरे पास आकर गिरा!

ये एक पोटली सी थी!

उसने इशारे से मुझे वो उठाने को कहा,

मैं झुका,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वो पतली उठायी,

पोटली भारी थी!

मैंने उठायी,

सामने देखा,

वहाँ कोई नहीं था!

चली गयी थी वो सेविका वहाँ से!

रहा गया वहाँ केवल सन्नाटा!

और मैं!

वो गड्ढा!

और अँधेरा!

सब ख़त्म!

सब!

अब मैंने टॉर्च ली, और चला वहाँ से, वो पोटली उठाये हुए!

धीरे धीरे!

घड़ी देखी रात के तीन बज चुके थे, मैं थका हुआ था, फिर भी चलता रहा, और करीब साढ़े चार बजे मैं वहाँ पहुँच गया जहां पहुंचना था! मैं वहाँ से भी बाहर चला, और सामने मैंने एक गाड़ी आते देखी, इसमें दो लोग बैठे थे उन्होंने गाड़ी की बत्तियां जलायीं बुझाईं, मैं समझ गया, ये शर्मा जी हैं, और पास में बैठी थी वो मीनाक्षी! थोड़ी ही दूर पर उन्होंने गाड़ी रोकी और दौड़ के मेरे पास आये! मीनाक्षी भी बाहर आ गयी!

“आप ठीक हैं न?”उन्होंने हाथों से मुझे छू कर देखा!

“हाँ, ठीक हूँ” मैंने कहा,

उन्होंने मेरे सर को छू कर देखा, फिर कमर!

मीनाक्षी वहीँ खड़ी थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चुप!

मैंने वो पोटली उसको दे दी! उसने वो पोटली अपने पास रख ली!

“चलिए अब” मैंने कहा,

“हाँ” वे बोले,

मैं गाड़ी की पिछली सीट पर जाकर लेट गया! दर्द हो रहा था बदन में, भयानक दर्द! और हम फिर उस जगह पहुँच गये! मैं अपने कमरे में आया और आते ही सो गया!

जब सुबह उठा तो ग्यारह से ऊपर का वक़्त था!

शर्मा जी थे वहाँ!

“सब ख़त्म” मैंने कहा,

“जानता हूँ” वे बोले,

“वे दोनों कैसे हैं?” मैंने पूछा,

“ठीक हैं, लेकिन हड्डियां टूटी हैं उनकी, घाव बहुत हैं” वे बोले,

तभी मीनाक्षी आ गयी!

मैंने तभी कटकनाथ को फ़ोन लगाया!

और कहा,

“कटकनाथ! मैं जीत के बहुत करीब था! सबको देखा, हराया, लेकिन स्व्यं बाबा रोमण आ गए, मैंने खूब लड़ाई की, लेकिन मैं हार गया, उन्होंने दया दिखायी जो मेरे प्राण बख्श दिए, आगे तुम समझदार हो, भूल जाओ वो अस्थिदण्ड!”

फ़ोन काट दिया!

मित्रगण!

आज दो वर्ष होने को आये! मीनाक्षी को जो पोटली मैंने दी थी, उसमे पर्याप्त धन था, उस से उसने वही किया जो उसने कहा था, अगस्त २०१३ में उसका विजय से तलाक हो गया, सुनील कहाँ है, पता नहीं मुझे, मीनाक्षी अपने परिवार में माता-पिता के पास लौट गयी थी! इस बीच


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो मुझसे मिलने दिल्ली कई बार आयी, आखिरी बार पिछले महीने नवंबर में आयी थी! आज उसका अपना व्यवसाय है! वो हंसी-ख़ुशी रह रही है!

और अब वो बाबा रोमण!

मुझे नहीं पता कि वो बाबा रोमण थे या कोई और! बस मुझे यही पता है कि उन्होंने कहा “वक़्त पर आना!”

तो अभी बहुत वक़्त शेष है!

मैं कभी वहाँ दुबारा नहीं गया!

वो रात मैं आज तक नहीं भूला हूँ!

साधुवाद!


   
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