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वर्ष २०१० धौलपुर, राजस्थान की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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“ठीक है, विजय आया क्या?” मैंने पूछा,

“नहीं, मैंने पूछा था, करीब एक घंटे में आएगा वो” उन्होंने बताया,

और फिर थोड़ी देर में मीनाक्षी आ गयी, चाय लेकर!

कप में डालिए और हमने अपने अपने कप उठाये! चाय पीने लगे!

“मीनाक्षी? विजय कहाँ है?” मैंने पूछा,

“बस आने ही वाला है” वो बोली,

“और सुनील?” मैंने पूछा,

“वो उन दोनों को छोड़ने गया है” वो बोली,

“अच्छा!” मैंने कहा,

थोड़ी देर में चाय पी ली हमने, कप रख दिए, मीनाक्षी ने उठाये और बाहर चली गयी!

“गए वो साले दोनों?” मैंने पूछा,

“हाँ, पांच बजे करीब गये थे” वे बोले,

“ठीक है, हरामखोर कहीं के” मैंने कहा,

मैं हाथ-मुंह धोने चला गया!

फिर करीब आधा घंटा बीता!

मीनाक्षी आयी अंदर एक आदमी के साथ, ये विजय था! उसने नमस्ते की, तो हमने भी की, वो वहीँ बैठ गया कुर्सी पर!

“मुझे मीनाक्षी ने बताया आपके बारे में, मुझे बहुत प्रसन्नता हुई!” उसने कहा,

बनावटी लहजा!

विजय कोई होगा अड़तीस साल का सांवला सा व्यक्ति, शक्ल से ही धूर्त दीख पड़ता था!

“उन दोनों के बारे में नहीं बताया मीनाक्षी ने?” मैंने पूछा,

“हाँ जी, बता दिया” वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“वे गुरु हैं तुम्हारे?” मैंने पूछा,

“अ….ब……जी थे अब नहीं” उसने बनावटी हंसी हँसते हुए कहा,

“अच्छा हुआ, खुद तो मरते ही तुम्हे भी मारते वो” मैंने कहा,

नीचे कर लिया चेहरा!

“और बाकी सब ठीक ठाक?” उसने हाथ नचाते हुए पूछा,

“हाँ, सब ठीक ठाक” मैंने कहा,

“बढ़िया लगा” वो बोला,

“और हाँ, वो आपका बाबा धौमन, इसकी क्या कहानी है?” मैंने पूछा,

अब वो चौंका!

“जी…वो….मुझे मिले थे बाबा कटकनाथ के डेरे पर” उसने कहा,

“मुझे बताया मीनाक्षी ने” मैंने कहा,

“जी उन्होंने ही बताया था उस बीजक के बारे में, और जी आज अापने हल किया, आज तक कोई हल नहीं कर पाया, अब तसल्ली हुई, बहुत पैसा बर्बाद हो गया” वो बोला,

“हूँ!” मैंने कहा,

“अरे मीनाक्षी? गुरु जी के लिए प्रबंध करो भई?” उसने मीनाक्षी से कहा,

“हां! हाँ! अभी करती हूँ” वो बोली और चली गयी वहाँ से!

“विजय साहब, आपने मीनाक्षी को भेजा यहाँ, आप क्यों नहीं आये?” मैंने पूछा,

“जी व्यवसाय से सम्बंधित काम था, वो निबटाया और अब अपने एक ख़ास को देकर आया हूँ वो काम, इसीलिए नहीं आ पाया था मैं” वो बोला,

“अच्छा!” मैंने कहा,

और तभी सुनील आ गया!

वे दोनों मिले हंसी-ख़ुशी!

और सुनील ने अब तक की सारी कहानी दोहरा दी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तब तक मीनाक्षी भी आ गयी, एक थैला सा लेकर! सुनील उठा और उसमे से दारु की दो बोतल निकाल लीं, साथ में खाने को भी लाया था, सो वो भी निकाल लिया! अब गिलास रखे उसने पांच!

मैंने मीनाक्षी को देखा!

उसने आज मना नहीं किया!

समझ नहीं आया कि क्यों!

दारु परोसी गयी, बरफ डाली गयी और मैंने अपना पैग उठाया और गले के नीचे!

फिर सभी ने अपने अपने पैग खाली कर दिए!

“विजय?” मैंने कहा,

“जी?” वो बोला,

“अगर वहाँ कुछ न निकला तो?” मैंने पूछा,

रंग सफ़ेद!

दारु उड़ी!

“बर्बाद हो जायेंगे जी हम तो” वो बोला,

अब तक सुनील ने एक और पैग भर दिया!

“देखते हैं क्या है वहाँ” मैंने कहा,

“आपको क्या लगता है?” विजय ने पूछा,

“ये तो वहीँ पता चलेगा!” मैंने कहा,

जानबूझकर!

हल सा चल गया उसकी छाती पर!

फिर तीसरा पैग!

वो भी ख़तम!

मीनाक्षी सब सुन रही थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“मीनाक्षी?” मैंने कहा,

“हाँ जी?” उसने कहा,

“कल आप यहीं रहना, वहाँ नहीं जाना, विजय आ गए हैं तो हम ही जायेंगे वहाँ” मैंने कहा,

“जी” वो बोली,

विजय ने मीनाक्षी को देखा!

अटपटी निगाह से!

फिर दौर चलता रहा!

बातें हुईं और कुछ!

और सुबह सुबह का कार्यक्रम निर्धारित हो गया!

 

और फिर सुबह हुई! मैंने घड़ी देखी तो सुबह के साढ़े छह के आसपास का समय हो चला था, रात को गर्मी बहुत थी, जैसे तैसे करके हमने सुबह पकड़ी थी! शर्मा जी अभी तक सोये हुए थे, मैंने जगाया उन्हें, वे जाग गए, फिर मैं स्नान करने चला गया! और बाद में शर्मा जी, वे भी फारिग हो गए, अभी मैं वस्त्र पहन ही रहा था कि सुनील चाय-नाश्ता लेकर आ गया वहाँ, उसने नमस्कार की और नाश्ता वहीँ रख दिया, चाय के साथ, मैंने वस्त्र पहने और फिर चाय-नाश्ता करने लगा,

चाय नाश्ता किया तो फिर मैं जूते पहन बाहर गया, सुनील के पास, वो विजय के साथ बैठा था, विजय ने भी नमस्ते की,

“क्या हुआ? मजदूर आदि कहाँ हैं?” मैंने पूछा,

“वो आ रहे हैं, दूसरी गाड़ी से” वो बोला,

“अच्छा, ठीक!” मैंने कहा,

वे सभी तैयार बैठे थे! आज काम ही कुछ ऐसा था!

और फिर करीब आधे घंटे के बाद मजदूर आ गए, सुनील का दोस्त कनाट आदि भी ले आया था, जिनकी वहाँ बहुत ज़रुरत थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“चलिए गुरु जी” विजय ने कहा,

मीनाक्षी भी वहाँ आ गयी थी! उसने नमस्ते की, लेकिन उसको आज नहीं जाना था हमारे साथ, सो वहीँ रुकना था उसको!

और फिर हम गाड़ी में बैठ चल पड़े वहाँ से!

वहाँ पहुंचे!

गाड़ी एक पेड़ के नीचे खड़ी कर दी गयीं और वहाँ से हुई फिर पैदल यात्रा शुरू हुई! बड़ी मुश्किल से हम वहाँ पहुंचे! ऐसा लगा कि जैसे कोई दौड़ का हिस्सा हों और हार गये हों!

थोड़ी देर सुस्ताये हम!

और फिर मैं मजदूरों को वहाँ ले गया! उन्होंने पहले कनाट आदि लगा दीं!

और फिर मैंने वहाँ कुछ मंत्र पढ़े!

और फिर उनको उसी जगह फिर से खुदाई करने को कहा,

उन्होंने वहीँ खुदाई करनी आरम्भ की!

अब मैं वहाँ से हटा और उन तीनों के पास आ गया, सुनील का दोस्त वहीँ अपनी गाड़ी में रह गया था!

कल मुझे वहाँ सिरके की सी महक आयी थी, आज नहीं थी! मतलब यही कि कोई अमास्या नहीं थी नीचे जाने में, अभी फिलहाल तो!

मैं उन तीनों के पास आ गया! और फिर यहाँ वहाँ की बातें करने लगे!

अभी कोई आधा घंटा ही बीता था कि वे मजदूर वहाँ से भागे! हमारी तरफ! घबराहट सी फैली वहाँ, मैं दौड़ के गड्ढे तक गया, वहाँ देखा तो गड्ढे में से धुआं निकल रहा था!

तिलिस्म!

यही कहा जाएगा इसको!

मैंने तिलिस्म काटने का मंत्र पढ़ा और मिट्टी अभिमंत्रित कर फेंक दी उधर! धुआं पल में ही निकलना बंद हो गया! अब मैंने मजदूरों को बुलाया, उनमे हिम्म्त सी आ गयी! वे जुट गए फिर से खुदाई करने में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मुझे वहीँ ठहरना था ताकि अब कोई मुसीबत हो तो मैं उसका मुक़ाबला कर सकूँ!

फिर से वे चारों मजदूर खुदाई में तल्लीन हो गए!

करीब एक घंटा हुआ और वे मजदूर डरे!

मैंने वहाँ देखा!

नीचे की मिट्टी हिल रही थी! कुछ था उसके नीचे! मैंने फ़ौरन ही कलुष-मंत्र का जाप किया! और नेत्र पोषित कर लिए! नेत्र खोले तो वहाँ मुझे सर्प दिखायी दिए! मायावी सर्प! मैंने माया का नाश करने के लिए उड्डुक-मंत्र का जाप किया और उस से माया नष्ट हो गयी!

अब वहाँ एक भी सर्प नहीं था!

अब मैंने फिर से मजदूरों को खुदाई करने के लिए लगा दिया! वे फिर से तत्पर हो गए, एक नए जोश के साथ! गड्ढा करीब नौ-दस फीट गहरा हो चुका था! अभी और करीब पांच-छह फीट जाना था नीचे!

मैंने मजदूरों की हिम्मत बंधाई और फिर वहाँ से हट गया! उन तीनों के पास पहुंचा, जिनमे से शर्मा जी ने अब तक उन दोनों को शिष्टाचार का असली अर्थ समझा दिया था!

मैं आ गया उनके पास! पानी पिया! और बैठ गया!

“गुरु जी अब कितना समय और है?” विजय ने पूछा,

“कहा नहीं सकते” मैंने कहा,

“फिर भी?” वो बोला,

“कोई बाधा न आये तो अभी कोई एक घंटा!” मैंने कहा,

उसने घड़ी देखी अपनी तब!

“आपके होते हुए कैसी बाधा!” वो बोला,

मैं भी हंस पड़ा!

उनकी मूर्खता पर!

धन के आगे सब बेकार!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे दोनों मूर्ख हंस रहे थे आपस में बातें करके! उन्हें इस मामले की गम्भीरता का भान भी नहीं था! तभी मुझे वे मजदूर भागते दिखायी दिए, अलग अलग दिशाओं में, जैसे जिसको जहां जगह मिली हो वो वहीँ भाग पड़ा हो! वहाँ गड्ढे में कुछ दिखा था उनको! अब मैं वहाँ भाग पड़ा! गड्ढे तक आया और नीचे झाँका! नीचे गड्ढा रक्त से भरा था! झागदार रक्त! मैं समझ गया कि अब विरोध होना आरम्भ हो गया है! मैंने फिर से मिट्टी को अपने हाथ में लिया और अभिमंत्रित किया, और ताम-मंत्र पढ़कर मिट्टी वहाँ फेंक दी गड्ढे के अंदर! रक्त गायब हो गया! और वहाँ रह गए उलटे रखे दो सर! कटे हुए सर! जिनमे से रक्त बहा होगा, गर्दन के रास्ते! मैंने फिर से जामूल-मंत्र का जाप किया और मिट्टी फेंक दी, सर रोये! चिल्लाये और सिकुड़ते चले गए! और फिर भूमि में समा गए! तभी मेरे सर और कंधे पर रक्त की मोटी मोटी बूँदें गिरीं! मैंने सर पे हाथ फिराया तो रक्त से सन गया हाथ! मैंने फिर से औधन-मंत्र का जाप किया और फूंक मार दी तीन बार! रक्त गायब हो गया! वस्त्र से भी गायब हो गया!

अब टकराव का समय आ गया था!

मैंने मजदूरों को देखा, वे डर के मारे भाग गए थे वहाँ से, उनको देखकर लगता था कि अब वे खुदाई नहीं करेंगे! लाजमी भी था ऐसा! मैं उन मजदूरों को आवाज़ देकर बुलाने लगा! लेकिन वो नहीं आये! वे पहुंचे सुनील के पास! मैं भी अब वहाँ चला! वे आपस में बातें कर रहे थे, उन दोनों के चेहरे देखकर पता चल रहा था कि मजदूरों ने उन्हें वो बात बता दी थी!

काम बंद!

खुदाई बंद!

मजदूरों ने मना कर दिया वहाँ काम करने से, वे बेचारे अपनी मजूरी भी नहीं ले रहे थे! वे डर गए थे! और उनका डर स्वाभाविक भी था!

आखिर फैंसला हुआ कि हम वहाँ से वापिस जायेंगे! और लौटेंगे, रात को! हाँ! यही फैंसला हुआ था और उचित भी था! मुझे कुछ जागृत करने का समय भी मिल जाएगा और नए मजदूर भी मिल जायेंगे!

आखिर हम वहाँ से वापिस हुए! और फिर चल दिए गाड़ियों तक!

वहाँ पहुंचे, गाड़ी में बैठे और चल पड़े वापिस!

वापिस आ गये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैंने अपना कमरा बंद किया और शर्मा जी को बाहर बिठा दिया! मैं कुछ अमोघ मंत्र जागृत करना चाहता था, और मैं फिर लग गया इस काम में! करीब दो घंटे लग गए! लेकिन शक्ति का संचार हो गया!

मीनाक्षी को खबर लग गयी थी! वो अब आयी मेरे पास!

उसने नमस्ते की!

मैंने भी की!

“आज जायेंगे रात को?” वो बोली,

“हाँ” मैंने कहा,

वो चुप हुई!

बाहर चली गयी, समझ गयी कि मैं बात करने का इच्छुक नहीं था!

शर्मा जी अंदर आ गए!

“शर्मा जी, रात के लिए लाइट का इंतज़ाम करवाइये” मैंने कहा,

“मैंने कह दिया है” वे बोले,

“ठीक किया” मैंने कहा,

कुछ पल शान्ति!

“आज टकराव है?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“आप क्रिया करेंगे वहाँ?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“मैंने ये सामान मंगवा लिया है” वे बोले और एक फेहरिस्त मुझे दिखायी,

“सही है” मैंने कहा,

फिर हम लेट गए! अब दिन भर कोई काम नही था सो सोचा झपकी ही ले ली जाए! सो हम सो गये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जब आँख खुली तो सात बजे थे!

शर्मा जी भी उठ गये!

“शर्मा जी चाय का प्रबंध करवाइये” मैंने कहा,

“जी” वे बोले,

और वे बाहर चले गए,

थोड़ी देर में आ गए,

“कह दिया है मैंने विजय को” वे बोले,

“ठीक” मैंने कहा,

मैंने अपना बैग उठाया, और सारा सामान जांचा! सब ठीक था! आज इसकी आवश्यता थी!

चाय आ गयी, सो हमने चाय पी!

और फिर हुई रात!

मैं और सभी लोग तैयार हुए वहाँ जाने के लिए! नए मजदूर आ गए थे! ये बढ़िया था, हम ठीक आठ बजे वहाँ के लिए निकल पड़े!

गाड़ियां वहीँ खड़ी कीं, अँधेरा इतना कि हाथ को हाथ न सूझे! और फिर वहाँ से शुरू हुई, टॉर्च लेकर आगे की पैदल यात्रा!

 

लाइट लगा दी गयीं! साथ में पैट्रोमैक्स लाये थे वे, अच्छी खासी रौशनी थी! वे वहीँ पीछे ही रुक गए, गड्ढे के पास लाइट रख दी गयीं, अब मैं अपना बैग वहाँ रखा, मजदूरों से कहा कि शुरू करें वे खुदाई, तो उन्होंने वहाँ अब खुदाई लगानी आरम्भ कर दी! शर्मा जी वहाँ बहुत दूर तो नहीं, हाँ अच्छी खासी दूरी पर बैठे थे उनके साथ!

तभी कई साँपों की फुफकार आयी! मजदूर भाग खड़े हुए! वे भागे शर्मा जी के पास और यहाँ मुझे कई सर्पों ने घेर लिया!

रक्षक आ पहुंचे थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये मायावी सर्प नहीं थी, असली थे! मन्त्रों से बंधे वे आ गए थे वहाँ! सभी ज़हरीले! बड़े बड़े सर्प! उन्होंने मुझे जैसे घेर लिया था, मेरे चारों ओर थे वो! कोई फुफकार रहा था, कोई तैयार था मुझे काटने को! वहाँ काट ले तो अस्पताल तक जाने में ही मौत हो जाए!

अब मैंने सर्प-मोचिनी विद्या का संधान किया! विद्या जागृत हो गयी! मैंने अब सर्पों को देखा, उन्होंने उस विद्या की गंध ली और पीछे हटने लगे! और एक एक करके सभी अँधेरे में गायब हो गए!

अब मैं चला मजदूरों के पास! वे वहीँ जमे बैठे थे, डर गए थे! मैंने समझाया उन्हें! तब जाकर वे माने और हिम्मत कर मेरे साथ चले!

खुदाई फिर से आरम्भ हुई!

करीब एक फीट नीचे कुदाल किसी लोहे से टकराई! चिंगारी सी फूटी! मजदूर घबराये और वे तीनों बाहर आ गए! मैंने उनको वापिस भेज दिया! यही था वो जिसकी मुझे तलाश थी! वो लोहे की पेटी! वो आ गयी थी!

मैंने गड्ढे में नज़र मारी टॉर्च के रौशनी के साथ, वहाँ एक कुंदा दीख रहा था! यही था वो! यही थी वो पेटी! मैं गड्ढे में उतर गया टॉर्च के साथ और तभी! तभी जैसे मैंने उस पेटी पर पाँव रखा वो धसकने लगी! पकड़ने के लिए कुछ नहीं था, सो मैं भी धसकने लगा उसके साथ! मैंने फ़ौरन एवंग-मंत्र पढ़ा और वो स्थिर हो गयी! खतरा टल गया था! फौरी तौर पर तो!

अब मैं बैठा वहाँ! टॉर्च जो मेरे हाथ से गिर गयी थी, उठायी, और बैठ गया! पेटी का ऊपर का हिस्सा दीख रहा था, मैंने मिट्टी और पत्थर हटाये वहाँ से, तो पेटी का कुंदा दिखायी दे गया! सारी पेटी पीतल के मोटे तारों से बंधी हुई थी! उसका खोलना नामुमकिन था! मैंने कुंदा देखा, और जैसे ही कुंदे को हाथ लगाया, मुझे याद है अच्छी तरह से, कि मुझे मेरी कमर से उठाकर गड्ढे के बाहर फेंक दिया गया था! मैं गड्ढे से निकली मिट्टी पर गिरा था, कोई हड्डी नहीं टूटी थी! बच गया था मैं!

लेकिन मुझे फेंका किसने?

अब मैंने महाताम विद्या का संधान किया! और फिर से नीचे देखा! पेटी जस की तस थी! पेटी को उठाना मेरे बस की बात नहीं थी, मैं फिर से गड्ढे में उतरा! और कुंदे को हाथ लगाया, अब कुछ नहीं हुआ! विद्या ने बचाव कर दिया था!

मैं गड्ढे से बाहर निकला आया फिर! और उन तीनों की तरफ चला! वे मुझे देख खड़े हो गए! मैं वहाँ पहुंचा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“सुनील, विजय? चलो मेरे साथ, एक रस्सा ले लो” मैंने कहा,

वे चौंके! लेकिन कोई प्रश्न नहीं पूछा उन्होंने!

सुनील रस्सा ले आया!

“चलो मेरे साथ” मैंने कहा,

वे चल पड़े!

मैं उनको लेकर गड्ढे तक आया!

‘वो देखो, क्या है वो?” मैंने पूछा,

उन्होंने टॉर्च की रौशनी डाली और टॉर्च की रौशनी से तेज उनकी आँखें चमकीं!

अब मैं नीचे उतरा और वो रस्सा बाँध दिया उस पेटी के कुंदे से! और बाहर आया!

“खींचो इसके” मैंने कहा,

अब जान लगा दी मैंने और उन्होंने, लेकिन पेटी नहीं हिली! रत्ती भर भी! जैसे किसी ने पकड़ी हुई हो वो नीचे से!

मैंने रस छोड़ा, और फिर से नीचे उतरा गड्ढे में, कुदाल साथ ले ली थी, उस पेटी को देखा, वो पीछे से एक बड़े से पत्थर से रुकी हुई थी, मैंने कुदाल से वो पत्थर निकाल दिया! पेटी हिलने लगी!

अब मैं ऊपर आ गया!

“अब खींचो इसे” मैंने कहा,

और फिर पेटी आने लगी ऊपर!

पेटी आ गयी ऊपर!

इस से पहले कि मैं जाता उस पेटी तक, वे दोनों भागकर गए वहाँ, मैंने रोका भी, पर कौन सुने! और जैसे ही हाथ लगाया दोनों ने, वे हवा में उछले करीब बीस फीट! और फिर नीचे गिरे! हड्डियां टूट गयीं उनकी! कहाँ की, पता नहीं! मैं दौड़कर उनके पास गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे कराहने लगे थे! मैंने आवाज़ देकर शर्मा जी और मजदूरों को बुलाया, वे आये और मैंने उनको उन्हें उठाकर ले जाने को कहा, वे उठा के ले गए! वे बुरी तरह से चिल्लाने लगे थे! दर्द बहुत था, विजय की टांगें नहीं हिल रही थीं, उसके कूल्हे की हड्डी टूट गयी थी शायद!

सुनील का सर भी खुल गया था! वो बेहोश हो गया! मुश्किल खड़ी हो गयी थी! क्या किया जाए, इनको यहाँ रोका तो अनहोनी हो सकती थी! मैंने शर्मा जी को कहा कि इनको उठाकर ले जाओ और इनको फौरन ही अस्पताल में दाखिल करो, अब तक विजय भी होश खो चुका था!

मजदूरों ने डरते हुए उनको उठाया, और वे लेकर चले उनको!

“और आप?” शर्मा जी ने पूछा,

“मैं यहीं रुकूंगा” मैंने कहा,

उन्होंने बहस करनी शुरू कर दी, लेकिन मैंने उनको आश्वासन दिया और वे चले! गाड़ी वो चला सकते थे, इसीलिए भेजा उनको!

औ मैं चला वापिस उस पेटी की ओर!

 

अब मैं बढ़ा उस तरफ! यहाँ जो कोई भी था वो मुक़ाबला करने को तैयार था, मैं टॉर्च की रौशनी में आगे बढ़ा! और उस गड्ढे तक आ गया! पेटी मेरे सामने ही पड़ी थी, तारों से खची हुई! वो तार सोने का सा आभास दे रहे थे! वहाँ मैं अकेला था! मैं और मेरी विद्याएँ! और गुरु का आशीर्वाद!

मैं पेटी की तरफ बढ़ा, नीचे बैठा और पेटी को जैसे ही हाथ लगाया, पेटी सरक गयी! एक तरफ! जैसे किसी ने सरका दी हो! मैं खड़ा हो गया! एक मंत्र पढ़ा और फिर नीचे बैठा, पेटी को हाथ लगाया, पेटी फिर से सरक गयी! कोई था वहाँ! लेकिन नज़र नहीं आ रहा था! वो कलुष मंत्र की हद में भी नहीं था!

लेकिन कौन?

मैंने अपना सर घुमाया, आगे पीछे देखा, कोई नहीं था! अब मैंने फिर से एक मंत्र पढ़ा और पेटी को हाथ लगाया, अबकी पेटी नहीं खिसकी! और तभी मुझे लगा कि वहाँ कोई है! मैंने देखा सामने! अपने चारों ओर! असंख्य महिलायें खड़ी थीं! सभी ने एक जैसी वेशभूषा धारण की हुई थी! काले रंग का लहंगा सा था और पूरी बाजू की कमीज सी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैं खड़ा हो गया! फ़ौरन बैग खोलकर मैंने तंत्राभूषण धारण कर लिए! अब मैं किसी से भी टकरा सकता था!

ये क्या बला है?

मैंने ध्यान दिया, वे वहीँ खड़ी थीं, न आगे जा रही थीं न पीछे!

“कौन हो तुम लोग?” मैंने पूछा,

और तभी एक वृद्ध सी महिला आयी उनमे से मेरे सामने, मैं तैयार हो गया! ये संघर्ष की चेतावनी थी!

वो गड्ढे के पास आकर खड़ी हो गयी! मुझसे कोई चार फीट दूर!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

उसने कोई उत्तर नहीं दिया!

बस मुझे घूरती रही!

“जवाब दो?” मैंने पूछा,

“चला जा यहाँ से इसी बकत” वो बोली, गुस्से से!

बकत! हाँ, यही बोला था उसने!

“और न जाऊं तो?” मैंने कहा!

“तेरे सौ टुकड़े कर दूँगी मैं” उसने धमकाया!

“अच्छा?” मैंने कहा,

वो कुछ न बोली!

“नहीं जाऊँगा” मैंने कहा,

वो चिल्लाई!

उसे चिल्लाते देख वे सभी चिल्लायीं!

कान के परदे फटने को हो गए!

मैंने तभी यम्त्रास-मंत्र पढ़ डाला! वे शांत और फिर वहाँ से लोप! रहा गयी वो बुढ़िया वहाँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने सभी को देखा, सभी लोप!

“चला जा” उसने कहा,

“नहीं जाऊँगा” मैंने कहा,

तब उसने अपने वस्त्रों में छिप एक खंजर निकाला! और मेरी तरफ बढ़ी! मुझ पर वार करते ही लोप हो गयी! यम्त्रास मंत्र ने उसको भेज दिया वापिस, वहाँ, जहां से वो आयी थी!

मैं फिर से पेटी की तरफ बढ़ा, नीचे बैठा और फिर पेटी को हाथ लगाया, हाथ लगाते ही जैसे ज़मीन हिली! मैं गिर गया बैठे बैठे ही! आसपास देखा! कोई नहीं था! हाँ, ऐसा लगा कि कि जैसे गड्ढे में कोई है, वहाँ लपटें सी उठ रही थीं! मैं उठा और गड्ढे तक गया, नीछे झाँका, वहाँ एक आदमी था! जिसके हाथ बंधे हुए थे आगे की तरफ, वो लपटों में घिरा था, लेकिन तड़प नहीं रहा था!

मैंने उसे देखा और उसने मुझे, उसने अपने दोनों हाथ मेरी ओर बढाए! एक दम चुपचाप वो! ये निःसंदेह प्रेत माया नहीं थी! ये किसी का सिद्धि-फल था! और ये सब कपट था!

“मुझे बचा लो” वो बोला,

मैं वहीँ खड़ा रहा!

उसने अनाप-शनाप मंत्र से पढ़े!

मैं चुपचाप उसको देखता रहा!

“मुझे बचा लो, धन ले जाओ फिर” वो बोला,

मैं चुप रहा!

और तभी उसने एक छलांग मारी! सीधे ऊपर आया! खड़ा हो गया! भयानक काला था वो! लम्बा-तगड़ा! वो मुझे देख मुस्कुराया!

न जाने क्यों!

उसने तभी अपने हाथ में बंधा रस्सा तोड़ दिया! अंगड़ाई ली!

“कौन है तू?” उसने पूछा,

मैंने कुछ नहीं कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“जवाब दे?” उसने पूछा,

मैंने कोई जवाब नहीं दिया!

वो हंसा!

बहुत तेज!

अट्ठहास!

और उसने अब मेरे परिवारजनों के नाम बोलने शुरू किये! सभी के नाम! हाँ, मेरे दादा श्री का नहीं!

“तू कौन है?” मैंने पूछा,

उसने फिर से अट्ठहास लगाया!

“तुझे मारने आया हूँ मैं!” वो बोला,

मैं हंसा!

उसने मुझे गर्दन नीचे करके देखा!

आँखें चमकीं उसकी!

“कौन है, बता?” मैंने डांटते हुए पूछा!

वो फिर हंसा!

“आज तेरी आखिरी रात है! चल आ जा मेरे साथ इस गड्ढे में!” उसने कहा,

उसने कहा और गड्ढे से कई रोती-चिल्लाती आवाज़ें आ गयीं!

समझ गया! वे आवाज़ें उन्ही की थीं जिनको इसने मारा होगा!

“नाम बता अपना?” मैंने कहा,

“बता दूँ?” उसने पूछा,

“हाँ, बता?” मैंने कहा,

“ढेणा!” उसने कहा और खिलखिलाकर हंसा!


   
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