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वर्ष २०१० धौलपुर, राजस्थान की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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“सही कहा!” मैंने कहा,

“बताओ कहाँ जाके बसे थे बाबा! वहाँ आज कुछ भी नहीं है, तब क्या हाल होगा!” वे बोले!

“तब वो नगर रौशन रहते होगा शर्मा जी! वहाँ के वो खंडहर इसके गवाह हैं, वो कुआँ, चलता होगा उस समय, उस समय आबादी बस्ती होगी वहाँ” मैंने कहा,

“हाँ, ये बात तो है गुरु जी” वे बोले,

“उस वक़्त ही ये बीजक गाड़ा गया होगा” मैंने कहा,

“हाँ, लें गाड़ा किसने?” उन्होंने पूछा,

“हाँ, यही पता नहीं चला, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं, न बीजक पर और न उन शिलाओं पर” मैंने कहा,

और तभी सुनील कमरे में आया,

वहीँ बैठ गया कुर्सी पर!

“कितने मजदूर बहुत होंगे?” उसने पूछा,

“चार बहुत हैं” मैंने कहा,

“ठीक है, मैं करता हूँ इंतज़ाम, कनात आदि भी रखवा लूँगा” वो बोला,

“हाँ ये ठीक रहेगा” मैंने कहा,

“तो कल सुबह सुबह निकलते हैं” वो बोला,

“ठीक है” मैंने कहा,

“और ये बाबा दोनों?” उसने पूछा,

“ये भी साथ ही चलेंगे” मैंने कहा,

“ठीक है” वो बोला और कमरे से बाहर चला गया!

और हम!

अब एक आध झपकी लेने के लिए आँखें बंद की हमने! थकावट हो चली थी बहुत!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुनील चला गया था, और हमने आँखें बंद कर ली थीं, झपकी लेने के लिए, कुछ देर सोये, और तभी फिर दरवाज़े पर दस्तक हुई, शर्मा जी उठकर गए, सामने सुनील और मीनाक्षी थे, भोजन लाये थे, वे अंदर आये और भोजन रख दिया, मीनाक्षी ने पानी रख दिया, सुनील चला गया वापिस लेकिन मीनाक्षी वहीँ रह गयी!

“भोजन नहीं करोगी?” मैंने पूछा,

“अभी नहीं, आप कीजिये” वो बोली,

हमने अब खाना शुरू किया, दाल और सब्जी थी, बढ़िया, हरी मिर्च के साथ! खाना बढ़िया था!

“गुरु जी, वहाँ कुछ दिखा?” उसने पूछा,

“वहाँ एक पेटी है, उसमे है अस्थिदण्ड” मैंने कहा,

“और कुछ?” उसने इशारे में पूछा,

“और कुछ भी नहीं” मैंने बता दिया,

बुझ सी गयी वो!

मैंने देखा उसे!

“तुम्हारे लायक कुछ न कुछ तो होगा ही मीनाक्षी” मैंने कहा,

उसने देखा मुझे, लाचार सी निगाह से!

“मुझे इस चक्कर से निकाल दो गुरु जी, जीवन भर आपकी अहसानमंद रहूंगी” उसने कहा,

मुझे दया सी आ गयी!

“मैं कुछ न कुछ अवश्य ही करूँगा” मैंने कहा,

वो हलकी सी हंसी और फिर उठकर बाहर चली गयी!

मैंने उसकी लाचारी देखी थी! मुझे उम्मीद टी कि कुछ न कुछ तो होगा ही जिसके कारण मीनाक्षी को वो मिल सके जो उसने खोया है, मेरा अर्थ धन से है यहाँ,

“गुरु जी?” शर्मा जी ने पूछा,

“हाँ?” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस साले विजय को बुलाओ यहाँ” वे बोले,

सुझाव अच्छा था!

“हाँ, सही कह रहे हो” मैंने कहा,

“हाँ, बुलाओ उसको यहाँ” वे बोले,

“कल कहता हूँ सुनील को” मैंने कहा,

अब खाना खा लिया था, बर्तन टेबल पर रख दिए, और फिर पानी पिया!

तभी सुनील आ गया अंदर,

“कुछ और चाहिए?” उसने पूछा,

“नहीं, बस” मैंने कहा,

वो बर्तन उठाने लगा तो मैंने उस से कहा, “सुनील?”

“जी?” वो मुड़ा और बोला,

“विजय को बुलाओ यहाँ” मैंने कहा,

“विजय को?” उसने हैरत से कहा,

“हाँ, विजय को” मैंने कहा,

“किसलिए?” उसने पूछा,

“उस से बात करनी है मुझे” मैंने उत्तर दिया,

उसने कुछ सोचा!

“कब?” उसने पूछा,

“कल बुला लो?” मैंने कहा,

“बात करता हूँ मैडम से” उसने कहा,

“कर लो” मैंने उत्तर दिया,

उसने बर्तन उठाये और बाहर चला गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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न जाने मुझे क्या सूझी कि मैं उठा, जुराब पहने और चप्प्ल पहन कर मीनाक्षी के कमरे के बाहर जाकर दस्तक दे दी, उसने दरवाज़ा खोल दिया और मुझे नाडर आने को कहा,

मैं अंदर जाकर बैठ गया एक कुर्सी पर,

“मीनाक्षी, मैंने कल विजय को बुलाया है यहाँ”

उसे भी हैरत हुई!

“क्या हुआ? नहीं आएगा?” मैंने पूछा,

“नहीं आएगा’ वो बोली,

“उस से बात तो करो!” मैंने कहा,

“मना कर देगा वो” उसने कहा,

“अभी बात करो, इस से पहले कि सुनील बात करे उस से” मैंने कहा,

उसने नंबर मिला दिया, कुछ इधर उधर की बातें कर वो सीधी बात पर आयी, वो नहीं मान रहा था, तो मैंने फ़ोन ले लिया मीनाक्षी से, मैंने उसको डराने वाले लहज़े में बता दिया कि अगर कल आ सकता है तो बढ़िया, नहीं तो कोई माल नहीं मिल पायेगा, आखिर उसने हाँ कर दी! लालची को लालच दीखता है! हमेशा!

“आ रहा है वो” मैंने हंस के कहा,

वो भी हंस गयी!

“ठीक है, अब शाम को चर्चा करते हैं” मैंने कहा और उठा!

“जी” उसने कहा और मैं बाहर आ गया!

अपने कक्ष में आया!

शर्मा जी को बता दिया!

वे भी मान गए कूटनीति!

‘अब आएगा मजा!” वे बोले,

“कैसे?” मैंने मजाक में पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“बाबाओं के पास भागता है न, अब कहीं नहीं जाएगा!” वे हंस कर बोले!

“आने दो उसको, ज़रा देख तो लें!” मैंने कहा,

और फिर हम बैठे बातें करते रहे!

शाम का इंतज़ार करते रहे!

 

और फिर घिरी शाम!

कमरे में मैं और शर्मा जी बैठे थे, तभी सुनील और मीनाक्षी आ गए, बंदोबस्त करके! सारा सामान लाये! सुनील ने सामान रखा और फिर चार गिलास निकाले, मीनाक्षी ने एक गिलास हटा लिया, सुनील ने देखा लेकिन कुछ नहीं कहा, और फिर उसने दो बोतल निकालीं और रख दी वहाँ!

आज मीनाक्षी नहीं पीना चाहती थी!

अच्छी बात थी!

बैठ गए सभी!

“सुनील, बात हुई विजय से?” मैंने पूछा,

“हाँ जी, आपकी बात भी हुई थी न? कल आ रहा है विजय” वो बोला,

और अब लिया गया पहला पैग!

“हाँ, हुई थी, उसका आना बहुत ज़रूरी हैं” मैंने कहा,

“अच्छा” उसने कहा,

उस पैग बड़ा था शायद, मुंह बिचकाया उसने खतम करते ही!

“सुनील, माल निकला तो क्या करोगे?” मैंने बड़का मारा!

“सबसे पहले तो काम ठीक करना है, घाटा बहुत है, क़र्ज़ सर पर चढ़ा है, वो निपटाना है” उसने कहा,

“अच्छा!” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“और मीनाक्षी तुम?” मैंने पूछा,

वो चुप!

“मीनाक्षी?” मैंने पुकारा,

“जी?” वो शून्य में ताक रही थी, बाहर निकली!

“क्या करोगी यदि माल निकला तो?” मैंने पूछा,

“अपना व्यवसाय” उसने कहा,

सुनील ने अजीब सी नज़र से देखा उसे!

“ठीक है, कल देखते हैं” मैंने कहा,

और फिर दूसरा पैग ख़तम हुआ!

और फिर मित्रगण! दारु समाप्त हुई! खाना खा लिया और अब सोने का समय था! सभी अपने अपने कमरे में चले गये! और हमने अब लम्बी तान ली!

सुबह हुई,

छह बजे थे, छह के आसपास का समय था,

मैंने शर्मा जी को जगाया,

“चलो शर्मा जी तैयार हो जाओ” मैंने कहा,

“जी” वे बोले,

और फिर पहले मैं और बाद में शर्मा जी स्नान आदि से फारिग हुए, पौने सात हो चुके थे!

अब मैंने अपना बैग उठाया, उसमे सभी वस्तुएं थीं जिनकी आवश्यकता थी वहाँ! मैं बाहर आया, मीनाक्षी के कमरे की तरफ चला, वो अंदर थी, मैंने उसका दरवाज़ा खटखटाया तो उसने दरवाज़ा खोला, पता चला छह बजे करीब सुनील जा चुका है मजदूर लेने!

मैं उसके कमरे में ही बैठ गया!

वो भी तैयार हो चुकी थी जाने के लिए!

उसने बताया कि विजय शाम तक आ जाएगा यहाँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बातें कीं उस से काफी, उसने अपने घर के बारे में बताया, वो एक अच्छे धनाढ्य परिवार से सम्बन्ध रखती थी, अब प्रेम-विवाह के कारण सब सम्बन्ध ख़तम थे उसके अपने परिवार से!

करीब साढ़े आठ बजे मजदूरों सहित आ गया सुनील! एक गाड़ी और आयी थी, ये गाड़ी उसके जानकार की थी, मजदूर इसी में थे! उनका सामान और कनातें भी!

अब हम चले वहाँ! शर्मा जी आ गए, बैग उठाकर!

और हम अब चल पड़े गाड़ी में बैठ कर!

वहीँ पहुंचे, उसी स्थान पर, गाड़ियां खड़ी कीं और वहाँ से अब हुई पैदल यात्रा शुरू! सभी चल रहे थे अपने अपने तरीके से! सर पर सामान लादे मजदूर चल रहे थे, बीड़ी फूंकते वे दोनों बाबा भी चल रहे थे! सुनील उसके साथ था और मीनाक्षी हमारे साथ!

“ये रास्ता बहुत खतरनाक है” शर्मा जी बोले,

“अब क्या करें!” मैंने कहा,

‘हाँ जी” वे बोले,

“मीनाक्षी? इधर आओ” मैंने कहा, वो पीछे पीछे चल रही थी, मैंने उसको संग ले लिया!

और फिर मित्रगण!

हम पहुँच गए!

जीभ हलक से जुदा होने के लिए मचल रही थी!

पानी ऐसे गायब हो रहा था जैसे गर्म तवे पर छिटकीं बूँदें!

अब मैं बीजक तक गया, और सुनील ने कनातें लगवानी शुरू कीं, मजदूरों ने लगानी शुरू कर दीं,

मैंने बीजक को एक बार फिर से देखा!

सब सही था!

अब मैंने मीनाक्षी को बुलाया, वो आ गयी!

“मीनाक्षी, तुम यहाँ इन सबके बीच नहीं रहना, तुम शर्मा जी के साथ बैठना, जब तक न बुलाऊँ नहीं जाना कहीं भी, समझीं?” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अब मैंने एक पेड़ तलाश किया, मिल गया, फिलहाल दोपहर तक तो छाया का आसरा मिल सकता था वहाँ!

“शर्मा जी, आप यहीं बैठिये, मीनाक्षी के साथ” मैंने कहा,

“ठीक है” वे बोले,

वो जगह बीजक से बहुत दूर थी!

सुनील उन बाबा लोगों के साथ मशगूल था! और मजदूर मेरा इंतज़ार कर रहे थे! मैं वापिस आया और एक जगह निशाँ लगाया, और उनको वहाँ खुदाई करने को कह दिया!

फिर बलिया और करौल को वहाँ लगा दिया कि वो देखरेख करें!

वे घबरा गए!

पिछली बार की घटना याद आ गयी!

“कुछ नहीं करना, कुछ नहीं होगा!” मैंने कहा,

कांपते से वे वहीँ खड़े रहे!

और अब हुई खुदाई शुरू!

 

खुदाई शुरू हो गयी! और मैं अब वहाँ से हट गया! मुझे हटता देख वे दोनों सिहर गए! मैंने कोई परवाह नहीं की और वापिस चल दिया शर्मा जी के पास, वे दूर बैठे थे, मैं आ गया उनके पास,

“हो गया काम शुरू?” उन्होंने पूछा,

“हाँ, हो गया” मैंने कहा,

“मिट्टी तो नहीं होगी?” उन्होंने पूछा,

“कंकड़ और बजरी हैं” मैंने बताया,

अब मैं भी बैठ गया वहाँ!

“समय लगेगा” वे बोले,

‘हाँ” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“हाँ, बस कोई रुकावट न आये” वे बोले,

“पता नहीं, क्या है नीचे, कहीं और बड़े पत्थर न हों” मैंने कहा,

“हो सकता है, गड्ढा भरने वाले न तो मुक्कमल इंतज़ामात किये ही होंगे” वे बोले,

“शर्तिया किये होंगे” मैंने कहा,

मीनाक्षी बारी बारी से मुझे और शर्मा जी को देख रही थी, हैरान और अवाक!

“मीनाक्षी, यहाँ कुछ न कुछ तो निकलेगा ही, वो मैं तुम्हे दूंगा, सुनील और सभी को सम्भालना आपका काम” मैंने कहा,

“जी” वो बोली,

अब मैं उस चादर पर लेट गया!

तपती चादर! लेकिन कमर तो सीधी करनी ही थी! शर्मा जी भी लेट गए! मैंने लेटे लेटे मीनाक्षी को देखा, वो मुझे देख रही थी!

मैंने गर्दन हिलाकर उसे से इशारे में पूछा कि क्या हुआ,

उसने गर्दन हिलाकर मुझे बताया कुछ नहीं!

कुछ समय बीता, कोई पौना घंटा!

तभी मजदूर हट गए वहाँ से!

करौल ने आवाज़ दी मुझे, मैं खड़ा हुआ, सभी चौंक गए! अब मैं भाग उस तरफ! गड्ढे तक आया, कोई तीन फीट खुदाई हो गयी थी!

मैंने नीचे देखा, वहाँ कांसे के चार कटोरे थे उलटे रखे हुए!

मैं गड्ढे में कूद गया! और हाथ से एक कटोरा उठाया, कटोरा बहुत भारी था! मैंने ऊपर पकड़ा दिया, फिर एक एक करके सरे चारों कटोरे ऊपर रखवा दिए, मजदूर घबराएं नहीं मैंने गड्ढे को कील दिया!

और फिर से खुदाई शुरू हो गयी!

मैं वापिस निकल आया वहाँ से, शर्मा जी के पास चलने को था ही कि करौल भागा भागा आया मेरे पास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“कहाँ जा रहे हो?” उसने पूछा,

“आराम करने” मैंने कहा,

“आप यहीं रुकते तो….” वो बोला,

“क्या फायदा?” मैंने पूछा,

वो चुप!

जवाब न बना उस से!

मैं वापिस लौट आया!

शर्मा जी और मीनाक्षी को सारी बात बता दी!

“कांसे के हैं?” शर्मा जी ने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

‘अच्छा, इनको रखने का औचित्य?” उन्होंने पूछा,

“घेराबंदी!” मैंने कहा,

“घेराबंदी? अर्थात?” अब मीनाक्षी ने पूछा,

“चेतावनी!” मैंने कहा!

“कैसी चेतावनी?” उसने पूछा,

“कटोरे उलटे हैं, अर्थात इस से नीचे गये तो बहुत बुरा परिणाम होगा!” मैंने कहा,

अब घबरा सी गयी वो!

“डरो मत!” मैंने कहा,

वो घिघिया सी गयी!

फिर थोड़ा और समय बीता!

करीब एक घंटे के बाद मजदूर फिर से हट गए!

करुल फिर चिल्लाया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं वहाँ गया!

पहुंचा!

देखा नीचे एक छड़ी सी थी!

मैं गड्ढे में उतरा,

छड़ी उठाई,

उसको देखा!

छड़ी बांस की थी, उसके ऊपर चांदी का मुलम्मा चढ़ा था! करीब पांच फीट की थी वो छड़ी!

मैं गड्ढे से बाहर आया, और छड़ी लेकर चलता बना शर्मा जी की तरफ! वे सभी देखते रह गए और मजदूर खुदाई में लग गए!

“ये देखो शर्मा जी!” मैंने कहा,

उन्होंने छड़ी ली!

“चांदी का मुलम्मा चढ़ा है इस पर!” हाँ!

अब पानी डालकर साफ़ किया उसे!

और उस पर बने सर्प दिखायी देने लगे!

मुंह फाड़े सर्प!

“ये किसकी हो सकती है?” उन्होंने पूछा,

“पता नहीं” मैंने कहा,

अब वो छड़ी मीनाक्षी ने ली और हैरत से देखने लगी!

“बाबा रोमण की तो नहीं?” उन्होंने पूछा,

“नहीं” मैंने कहा,

“कहीं जिसने ये गड्ढे में गाड़ी उसकी?” वे बोले,

“हो सकता है!” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“कमाल है, कितना साफ़ काम किया है, चांदी का छोर दिखायी नहीं दे रहा!” शर्मा जी ने हाथ लगाते हुए कहा!

“हाँ” मैंने कहा,

मैंने वहाँ देखा,

मजदूर हट गए थे, शायद आराम करने के लिए हटे थे! वे दोनों भी हट गए थे! अब सुनील आ रहा था हमारे पास!

 

सुनील आया, और कुछ बातें की उसने और फिर चला गया वो उन बाबाओं के पास! और करीब एक घंटे के बाद फिर से खुदाई आरम्भ हुई! सभी अपनी अपनी जगह आ गए! वे दोनों बाबा भी वहाँ आ गए! और मैं शर्मा जी के पास से उठकर सीधा गड्ढे की ओर चला! गड्ढे तक पहुंचा, मजदूरों ने गड्ढा चौड़ा कर दिया था, ये सही था, इतना चौड़ा कि मुझ से दो आदमी वहाँ लेट सकते थे! मैं खुदाई देखता रहा! और तभी मुझे उसमे से एक गंध आनी शुरू हुई, तेज सिरके की गंध, कुछ मावा मिली हुई! ये गंध उन दोनों को भी आयी थी!

अब मारा उनको भय का काँटा!

मजदूर न दरें इसके लिए मैंने उनको रोका! वे रुके नहीं और भाग छूटे! मैंने मजदूरों को रोक दिया और बाहर निकाल लिया! मुझे बहुत गुस्सा आया उन दोनों पर उस समय! मैं गया उनके पास, शर्मा जी भांप गए, वे दौड़ कर मेरे पास आने लगे!

वे आ गए!

जान गए मैं गुस्से में हूँ!

“क्या हुआ?” उन्होंने पूछा,

“इनकी बहन की **!” मैंने कहा,

उन्होंने उन दोनों को देखा, वे पेड़ के नीचे बैठ गए थे!

“आना ज़रा मेरे साथ” मैंने कहा,

“चलो” वे बोले,

अब मैं उनके पास जाने के लिए आगे बढ़ा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे देख वो हराम के जने खड़े हो गए!

मैं वहाँ पहुँच गया!

“क्या हुआ?” मैंने उनसे पूछा,

अब दोनों आँखें बचाने लगे!

“सुनील?” मैंने कहा,

“जी?” वो बोला,

“इन माँ के ** को ले जाओ यहाँ से इसी वक़्त!” मैंने कहा,

सन्न!

वे सभी सन्न!

“क्या हो गया?” सुनील ने पूछा,

“इनकी माँ का ***! साले कुत्ते डर गए! हवा सरक गयी! गड्ढे के पास से ऐसे भागे जैसे दलाल पुलिस को देखकर भागते हैं!” मैंने कहा,

अब भी नहीं समझा वो!

“मैं समझा नहीं” वो बोला,

“इनसे पूछो?” मैंने कहा,

उसने उनसे पूछा तो अटक गए! जवाब न बना!

“भगाओ इन सालों को यहाँ से, और मैं भी जा रहा हूँ अब, अब चलो यहाँ से” मैंने कहा,

घबराया वो!

नीचे ही गिर पड़ता!

“गुस्सा न कीजिये, ये चले जायेंगे, आप तो काम ज़ारी रखो?” उसने कहा,

“अपशकुन कर दिया इन मादर** ने, अब काम आज नहीं होगा, कल होगा!” मैंने कहा,

अब मैं पलटा वहाँ से, शर्मा जी भी पलटे और हम चले वहाँ से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मीनाक्षी वहीँ खड़ी थी, उसको आभास हुआ कि कहीं कुछ गड़बड़ है!

“क्या हुआ?” उसने पूछा,

“हरामजादों को धन चाहिए लेकिन साले कुत्ते उन गरीब मजदूरों को मरवाने के लिए वहाँ से भाग आये!” मैंने कहा,

अब वो समझ गयी!

और तभी मैंने फ़ोन किया कटकनाथ को!

खरीखोटी सुनाई उसको!

उसने उनको समझाने को कह के फ़ोन रख दिया!

“अब चलो यहाँ से, कल आयेंगे” मैंने कहा,

सुनील अब तक सब अटरम-शटरम समेटवा चुका था मजदूरों से, सो हम चले अब वापिस वहाँ से!

पैदल चल पड़े!

‘अब कल करेंगे?” पूछा मीनाक्षी ने!

“हाँ” मैंने कहा,

“ये तो डरपोक निकले” वो बोली,

“विजय के ही गुरु हैं, देख लो” मैंने कहा,

“समझती हूँ मैं” उसने कहा,

“आने दो विजय को, मैं बात करूँगा उस से!” मैंने कहा,

‘आज आ जाएगा वो” वो बोली,

और फिर हम झाड़ियों से बचते बचाते अपनी गाड़ी तक आ गए!

वे भी आ गये!

वो गाड़ी में बैठने लगे तो मैंने उनके कंधे पकड़ के हटा दिया उनको और उस दूसरी गाड़ी में आने को कह दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ न कह सके वो! कैसे कहते!

अब गाड़ी में हम चार थे! मैं, शर्मा जी, मीनाक्षी और सुनील!

चल पड़े वहाँ से!

रास्ते भर मैं गालियां सुनाता रहा उनको!

“सिद्धेश और जयेश के समय भी ये ही थे यहाँ?” मैंने पूछा,

“हाँ”, मीनाक्षी ने बताया!

“कमीन इंसान कहीं के” मैंने कहा,

“इनको सालों को ऐसा सबक दूंगा कि न घर के न घाट के!” मैंने कहा,

हंस पड़ी मीनाक्षी!

“विजय कब तक आएगा?” मैंने पूछा,

“छह बजे तक” सुनील ने बताया,

“ठीक है” मैंने कहा,

“सुनील अब इनको भेज देना वहीँ जहां से लाये थे इनको” मैंने कहा,

“हाँ” वो बोला,

और हम आ गए फिर अपनी जगह!

मैं बहुत गुस्सा था उस दिन!

अब शाम का इंतज़ार था!

 

शाम हुई! और मेरी नंद खुली, करीब छह बजे थे, शर्मा जी जागे हुए थे!

“खुल गयी नींद?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“चाय आने वाली है, मीनाक्षी आयी थी अभी” वे बोले,


   
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