मैंने एक पैग और लिया और रोटी खाता गया!
“ये बलिया बतायेगा कहानी अब!” वे बोले और लेट गए!
“हाँ!” मैंने कहा,
तभी मेरे दरवाज़े पर लगा कोई आया है!
“कौन?” मैंने पूछा,
आवाज़ नहीं आयी!
मैं गया, दरवाज़ा खोला,
ये मीनाक्षी थी!
नशे में चूर!
दरवाज़ा खुलते ही वो जैसे मेरे ऊपर गिरने को हुई, मैंने सम्भाला उसको, वो खड़ी हुई तो मैंने पूछा, “क्या हुआ?”
कुछ न बोली वो!
अब मैंने उसको हाथ से पकड़ कर बिठा लिया वहाँ, बिस्तर पर,
“क्या हुआ? कुछ भूल गयीं क्या?” मैंने पूछा,
उसने गर्दन हिलाकर न कहा!
“तो फिर?” मैंने पूछा,
अब उसने मोटे मोटे आंसू बहाने शुरू किये!
मैंने कोई ध्यान नहीं दिया! बस देखता रहा उसको! उसने उठने की कोशिश की लेकिन उठ न सकी!
जब थोडा शांत हुई तो मैंने फिर पूछा,”क्या हुआ मीनाक्षी?”
उसने अब हाथ जोड़े!
और नशे में आधे चबे हुए शब्द मुंह से निकाले,” गुरु जी”
“हाँ, बोलो?” मैंने पूछा,
“ये काम कर दीजिये” उसने कहा,
मुझे गुस्सा आ गया!
“मैंने क्या कहा था? कि पहले ये बीजक हल कर लूँ, कहा था या नहीं?” मैंने पूछा,
उसने हाँ में अजीब से तरीके से गर्दन हिलायी!
“फिर?” मैंने पूछा,
“गुरु जी, मेरा सारा पैसा खा गए ये लोग” वो बोली,
“क्या?? तुम्हारा पैसा?” मैंने आश्चर्य से पूछा,
“हाँ गुरु जी” वो बोली,
“कैसे?” मैंने पूछा,
“मेरे पति, ये सुनील, ये बाबा बलिया और न जाने ऐसे बहुत से” वो बोली,
“तो लालच तो आपको भी था न?” मैंने पूछा,
“नहीं था” वो बोली,
अब शर्मा जी ने करवट बदली! उसने देखा!
“आप मेरे कमरे में आयेंगे?” उसने पूछा,
“चलो” मैंने कहा,
मैं उसको पकड़ के ले गया उसके कमरे में, वो कुर्सी पर बैठ गयी, आँखें अभी तक आंसुओं से भीगी थीं!
“मेरे पति का जो व्यवसाय है वो मेरा था कभी, मैंने प्रेम-विवाह किया विजय से, विजय तब कमाता भी नहीं था, ये सुनील मेरे पति विजय का दोस्त है” उसने टूटते हुए लहजे में समझाया,
”अच्छा, फिर?” मैंने कहा,
“गुरु जी, ये बात आज से कोई छह साल पहले की है, जब मेरा विवाह हुआ था विजय से, बाबा धौमन से मैं नहीं विजय मिले थे, उन्होंने ही मुझे बताया था और पैसे मांगे थे, मैंने दे दिए, तब से लेकर आजतक मैंने ही सारे पैसे लगाए हैं” वो बोली,
“देखिये ये आपका आपके पति का निजी मामला है, इसमें मेरा कोई काम नहीं, मेरे लायक जो हो वो बताइये मुझे” मैंने कहा,
“आप ये काम कर दीजिये” उसने फिर से हाथ जोड़कर कहा!
“वक़्त तो आने दो!” मैंने कहा,
”फिर मैं तलाक दूँगी विजय को” उसने कहा,
मैं चुप हो गया!
अब भला मैं क्या कहता?
“आपने पूछा नहीं क्यों?” उसने पूछा,
“मुझे क्या काम या लेना?” मैंने पूछा,
“गुरु जी?” उसने कहा,
“हाँ?” मैंने कहा,
“इस विजय ने मुझे आज तक इस्तेमाल किया है” वो बोली,
“इस्तेमाल?” मैंने पूछा,
एक शक सा गूँज उठा भेजे में मेरे!
“हाँ, और वो जो है न बाबा कटकनाथ, उसने भी मुझे……..” वो बोली और रो पड़ी!
मैं समझ गया!
सब समझ गया!
बाबा कटकनाथ!
कैसा सोचा मैंने उसे और वो क्या निकला!
अब मैंने उसको चुप कराया!
वो चुप हुई!
“एक बात बताओ मुझे, आज तुम क्यों आयीं यहाँ? वो विजय क्यों नहीं आया?” मैंने पूछा,
“बाबा कटक नाथ ने कहा था, कि जो आदमी अब आ रहा है उस से विजय न मिले, नहीं तो वो उलटे पाँव लौट जाएगा!” उसने कहा,
ये तो सच था!
“तो उसने तुम्हे भेजा!” मैंने पूछा,
“हाँ, आनंद के लिए आपके” वो सर नीचे झुका के बोली,
अब मुझे भयानक गुस्सा!
मुझे अपनी तरह सोच लिया उस कटक नाथ ने?
“ये सुनील जानता है?” मैंने पूछा,
“हाँ” उसने कहा,
अब मैं फंसा!
यहाँ एक विवश स्त्री थी और वहाँ धन!
क्या किया जाए?
यदि मैं मना कर दूँ तो और भी बाबा लोग आयेंगे, और फिर इसका……………
“ठीक है मीनाक्षी, मैं तुम्हारे नुक्सान की भरपाई की कोशिश करूँगा” मैंने कहा,
वो उठी और मेरे पास आयी और बैठ के रोने लगी! मैंने उसको उठाकर कुर्सी पर बिठा दिया!
“आगे तुम जानो मीनाक्षी, जीवन आपका, हाँ कोशिश मैं अवश्य ही करूँगा” मैंने कहा,
वो अब खुल के रोने लगी, कोशिश करती की सिसकी न निकले, लेकिन सिसकियाँ बग़ावत कर रही थीं!
“कोई औलाद है आपके?” मैंने पूछा,
उसने गर्दन हिलाकर मना कर दिया!
अब क्यों नहीं थी, क्या कारण था पूछना बेकार था!
“रात काफी हो चुकी है, अब सो जाओ, सुबह मिलते हैं” मैंने कहा,
उसने गर्दन हिलायी,
और मैं कमरे से बाहर निकल गया!
अपने कक्ष में आया!
क्या सोचो, क्या होता है!
धन के लिए मनुष्य कितना गिर जाता है!
पतन!
इसे ही पतन कहते है!
और यही है धन का मुख्य उद्देश्य!
अब मुझे वो बीजक हल करना था! देखना था वहाँ कुछ है भी या नहीं! मैं सोचता हुआ सो गया!
न जाने कैसे कैसे विचार उमड़ते-घुमड़ते रहे!
रोती हुई मीनाक्षी बार बार ध्यान में आने लगी!
सुबह हुई! नशे की खुमारी अभी बाकी थी! शर्मा जी स्नान आदि से फारिग हो चुके थे, खुल के नींद ली थी उन्होंने! मैं भी तब स्नानादि के लिए चला गया, फारिग हुआ और फिर वापिस आया!
अब मैंने शर्मा जी को रात वाली सारी कहानी बता दी उनको, उनको भी अफ़सोस हुआ मीनाक्षी के लिए, हाँ उनका मिजाज़ कड़वा हो गया बाबा बलिया और उस बाबा कटक नाथ के लिए!
“बड़ा हरामी है साला मादर** ये कटक नाथ तो?” उन्होंने कहा,
“हाँ, मुझे भी कल ही पता चला” मैंने कहा,
“अब? क्या करना है अब?” उन्होंने पूछा,
“अब देखते हैं, पहले तो ये बीजक हल करना है” मैंने वो कागज़ निकालते हुए कहा,
“एक काम कीजिये, आप वहीँ चलिए दुबारा, वहीँ से मदद मिलेगी” वो बोले,
विचार बढ़िया था!
“ठीक है, आने दो सुनील को, मैं देखता हूँ” मैंने कहा,
“हाँ” वे बोले,
और करीब आधे घंटे के बाद सुनील आ गया, चाय-नाश्ता लेकर! उसका नशा अभी तक नहीं टूटा था! खुमारी आँखों में बाकी थी अभी!
उसने नमस्ते की, चाय-नाश्ता रखा और चला गया वापिस!
नहाने धोने गया होगा!
हमने चाय-नाश्ता करना आरम्भ किया और तब कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई, मैंने खोला तो सामने मीनाक्षी खड़ी थी!
“आओ” मैंने कहा,
उसने नमस्ते की और हमने भी!
“चाय-नाश्ता कर लो” मैंने कहा,
“अभी किया है” वो बोली,
अब उसने हमारा इंतज़ार किया कि हम भी फारिग हों!
हम फारिग हो गये!
“मीनाक्षी जी, आज एक काम कीजिये, आज मुझे फिर से वहीँ उस बीजक तक जाना है, आप सुनील से कहिये, साथ में बलिया को भी ले जाना है” मैंने कहा,
“जी, मैं कह देती हूँ” उसने कहा,
“आप भी चलिए” मैंने कहा,
“जी, आप मुझे रात के लिए क्षमा कीजिये. मुझे नशा हो गया था, मैं रोक न सकी और बिना पूछे ही आपके कमरे में आ गयी” उसने कहा,
“कोई बात नहीं” मैंने मुस्कुरा के कहा,
तब वो उठी और बाहर गयी!
उसने बाहर जाकर सुनील से बात की और फिर मेरे पास आ गयी,
“मैंने कह दिया है, सुनील घंटे भर में ले आएगा बलिया को यहाँ, फिर हम निकलते हैं” उसने कहा,
“ठीक है” मैंने कहा,
अब वो चली गयी बाहर!
और मैं और शर्मा जी इस विषय पर बातें करने लगे!
“ये बेचारी फंस गयी” वे बोले,
“प्रेम में ठगी गयी” मैंने कहा,
“यही तो बात है, कि प्रेम और छल एक ही रूप के हैं, बस पता अंत में चलता है” वे बोले,
“लाख टके की बात!” मैंने कहा,
“इसने कभी सोचा भी नहीं होगा कि ऐसा होगा!” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
कुछ और बातें हुईं!
इसी विषय पर!
और फिर मैं बाहर निकला! बाहर मीनाक्षी तैयार होकर खड़ी थी, किसी औरत से बात कर रही थी, शायद चौकीदार की पत्नी थी वो!
वो मुझे देख मेरे पास आने लगी!
डेढ़ घंटा बीत चुका था!
“काफी देर हो गयी, आया नहीं सुनील?” मैंने पूछा,
“फ़ोन आ गया है, वे दोनों को ला रहा है, बलिया बाबा और करौल को” वो बोली,
”अच्छा!” मैंने कहा,
और तभी उसकी गाड़ी चमकी!
वे आ गए थे!
मैंने शर्मा जी को आवाज़ दी और वे भी बाहर आ गए!
“चलिए गुरु जी” मीनाक्षी बोली,
‘चलिए” मैंने कहा,
और हम चले!
बैठे!
उन दोनों ढोंगियों से नमस्कार हुई!
कमीन लोग! कटक नाथ के चमचे, हरामज़ादे!
और अब गाड़ी चल पड़ी उसी बीजक की ओर!
मैं आज अच्छी तरह से अवलोकन करना चाहता था उसका! क्या पता हल हो जाए!
और फिर मित्रगण, हम वहाँ पहुँच गए! रास्ता आज बड़ा मुश्किल लगा, गाड़ी एक जगह पेड़ के नीचे खड़ी की और फिर वहाँ से हुई पैदल-यात्रा शुरू! बड़ी भयानक यात्रा थी वो! सड़ी गर्मी, तपता सूरज! और शरीर से सूखता पानी! कितना पानी पियें! हलक फिर भी सूखा का सूखा! फिर भी हम पहुँच लिए वहाँ! एक कीकर के नीचे छितरी छाया का बड़ा सहारा मिला! सर से बहता पसीना पाँव तक आ गया!
“लो जी शर्मा जी, आ गए हम!” मैंने कहा,
“हाँ जी” उन्होंने पानी पीते हुए कहा,
अब मैंने बलिया बाबा को देखा और बुलाया,
वो आया,
“कहाँ खुदाई लगायी थी तुमने?” मैंने पूछा,
“लगायी ही कहाँ थी?” उसने बताया,
“मतलब?” मैंने पूछा,
“मैं वहाँ खड़ा पढ़ाई कर रहा था(मंत्र पढ़ रहा था) तभी ज़मीन जैसे हिली और मुझे किसी ने पीछे, वहाँ फेंक के मारा” बलिया ने बताया इशारा करके!
“तुम्हे कैसे पता यहाँ धन है?” मैंने पूछा,
“कटक बाबा ने बताया था” वो बोला,
“कब कोशिश की थी?” मैंने पूछा,
“हो गए आठ महीने” वो बोला,
“हम्म” मैंने कहा,
“तो ये बीजक आज तक किसी से नही पढ़ा गया?” मैंने पूछा,
“नहीं जी” वो बोला,
“धन दिखायी दिया, बीजक नहीं!” मैंने हँसते हुए कहा,
उसने सुनकर मुंह बिचकाया!
“आओ शर्मा जी” मैंने कहा और बीजक की तरफ बढ़ा!
“चलिए” वे बोले,
अब मैंने बीजक का मुंह देखा,
वो ईशान कोण में बना था!
मैं उसके सम्मुख खड़ा हो गया,
और अब नीचे बैठा और उसको गौर से देखना लगा, गर्मी में जैसे शकरगंदी भुन जाती है, ऐसा लगे मुझे वहाँ!
गौर से देखा,
वही निशान!
और गौर से देखा,
तभी मुझे वहाँ बनी एक औरत के हाथ में एक चकला बेलन सा दिखायी दिया, वो खड़ी हुई थी, और किसी के हाथ में चकला बेलन नहीं था! मैंने उस औरत के वस्त्र देखे, उसमे रेखाएं बनी थी,
मैंने गिनीं, ये उन्नीस थीं! फिर मैंने उन औरतों की संख्या गिनी, ये सोलह थी! सूरज आकाश में था, पूरा, अर्थात मध्यान्ह, समझ गया! समझ गया मैं! ये यहाँ पर फाल्गुन पूर्णिमा विक्रमी संवत उन्नीस सौ सोलह को गाड़ा गया था, अर्थात् सन अठारह सौ साठ!
ओह! बहुत सुकून मिला!
अब वहाँ पर नव-गृह बने थे, एक पट्टिका पर! मैंने गौर किया, वे क्रम में नहीं थे ,शनि को बृहस्पति से पहले रख दिया गया था! अर्थात् ये बीजक अधूरा है! ये पूर्ण नहीं था!
तो दूसरा बीजक कहाँ है?
ओह!
वो संख्याएँ!
अब उनमे मत्था मारा!
गुणा-भाग, धन-ऋण के पश्चात पता चला, कि दूसरा बीजक वहाँ से दो कोस दूर पश्चिम में है, अर्थात् छह किलोमीटर और चार सौ मीटर! वहाँ उसके पास एक कुआँ है, जिसमे घिरनी नहीं है, उस से वो बीजक पूर्व दिशा में दस दंड दूर, अर्थात् एक रज्जु की दूरी अर्थात् आज के साठ फीट की दूरी पर है!
वाह!
चल गया पता!
मैं बीजक गढ़ने वाले का क़ायल हो गया!
बनाने वाले ने भरमाने के लिए जितनी मेहनत की थी, उतनी मेहनत उसने असली सन्देश को गढ़ने में नहीं की थी!
वे दूर खड़े मुझे देख रहे थे! सभी! बेचारी मीनाक्षी नीचे बैठ गयी थी झाड़ी के पास, एक पेड़ के सहारे!
मैंने सारा बीजक-रहस्य बता दिया शर्मा जी को!
वे भी लोहा मान गए बीजक गढ़ने वाले का!
अब हम पलटे पीछे!
वे संयत हुए!
मीनाक्षी खड़ी हुई!
“चलो यहाँ से” मैंने कहा,
“कुछ पता चला?” सुनील ने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
सभी चकित!
“क्या?” उसने पूछा,
“यही कि ये बीजक अधूरा है!” मैंने कहा,
“अधूरा?” उसने पूछा,
“हाँ, इसका एक दूसरा बीजक भी है” मैंने कहा,
अब तो वे कुँए में गिरे!
“गुरु जी, अब वो कहाँ है?” मीनाक्षी ने पूछा,
“वहीँ चल रहे हैं” मैंने हंस के कहा!
मुझे हँसता देख उसका मन शांत हुआ!
और हम पैदल पैदल वापिस लौटे, गाड़ी में बैठे और चल पड़े उस ओर जहां दूसरा बीजक था!
अब हम चले वहाँ से, दो कोस चलना था पश्चिम में, उसी सीध में, पता चला कि गाड़ी का रास्ता नहीं है, पैदल ही चलना होगा, ये सबसे बड़ी मुसीबत थी! उस भयंकरगर्मी में एक कदम चलना मुश्किल था और फिर दो कोस! खैर, अब चलना था तो चलना था, मुश्कें कसीं और चल पड़े! मीनाक्षी हमारे साथ हो गयी, अब तीन तीन लोगों के दो गुट हो गए, हम आगे और वे पीछे, बड़ा ही खतरनाक सा जंगल था! झाड़ियां एक दूसरे से जकड़ी पड़ीं थीं! बड़ी मुश्किल से हम उनको पार करते थे, जहाँ समतल भूमि आती थी वहाँ पत्थर पड़े हुए थे और ज़मीन इतनी गरम कि गिर जाओ तो छाले पड़ जाएँ! रास्ता बेहद मुश्किल था! हमारे पीछे आते वे तीनों भी मुश्किल से ही आगे बढ़ रहे थे, तभी वहाँ एक बड़ा सा पेड़ दिखा, छायादार, वहीँ रुक गए हम! थोडा आराम किया! वे तीनों भी आ गए, उन्होंने भी आराम किया, लू ऐसी चल रही थी कि
जैसे हमने उसके साम्राज्य पर आक्रमण किया हो! वो बखूबी से गोरिल्ला-लड़ाई कर रही थी! जब लू टकराती तो दम फुला देती!
“बड़ा बुरा हाल है!” शर्मा जी ने कहा,
“हाँ, प्रबल भाटा है!” मैंने कहा,
“एक तो यहाँ का भूगोल ऐसा है कि यहाँ गिर-गिरा जाओ तो कभी किसी को खबर ही न लगे!” वे बोले,
“सही कहा आपने” मैंने कहा,
मैंने मीनाक्षी को देखा,
गरमी उसपर असर करने लगी थी, मैंने पानी दिया उसको, उसने पानी पिया,
“अब ठीक हो?” मैंने पूछा,
“हाँ” वो बोली,
“चलें?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वो बोली,
और हम फिर चल पड़े आगे!
चलते रहे जैसे बन पड़ा! धीरे, तीज, रुक रुक कर!
और फिर उस जगह आ गए!
यहाँ भी पिछली जगह की तरह खंडहर से थे! दीवारें टूटी हुई थीं! अस्त-व्यस्त था वहाँ का भूगोल!
“शर्मा जी यहाँ कुआँ होना चाहिए एक” मैंने कहा,
उन्होंने और मैंने नज़रें दौड़ायीं आसपास! कोई कुआँ दिखायी नहीं दिया!
अब मैंने सभी को आसपास में कुआँ ढूंढने के लिए कहा, सभी अलग अलग चले, हाँ मीनाक्षी हमारे साथ ही बनी रही!
कोई पंद्रह मिनट बीते होंगे, करौल बाबा चिल्लाया! हम सभी भागे वहाँ, वो जहां खड़ा था वहाँ एक कुआँ था, बड़ा सा कुआँ, अब टूटा हुआ! कुँए की चारदीवारी भी टूटी हुई थी! पत्थर
बाहर पड़े थे, कुछ अंदर गिर गए होंगे! मैंने झाँक कर देखा, सूखा कुआँ था, हाँ, तल नहीं दिखायी दे रहा था उसका!
अब यहाँ से पूर्व दिशा में, जहां से हम आये थे, वहाँ उस बायीं तरफ जाना था साठ फीट और वहाँ था एक दूसरा बीजक!
मैंने सभी को वहाँ जान एको कह दिया, सभी लालायित हो उठे और दौड़ के पहुंचने लगे वहाँ, मैं टहलता हुआ वहाँ पहुँचने लगा,
तभी सुनील ने आवाज़ दी, उसको बीजक मिल गया था!
मैं भी वहाँ पहुंचा!
अब मेरे सामने ही था वो बीजक!
सभी देखने लगे उसको!
मीनाक्षी की आँखें फटी रह गयीं!
अब उन्हें लगने लगा कि अब उद्देश्य पूर्ति होने ही वाली है!
अब मैंने उस बीजक को देखा, ये भी पहले जैसा ही था, हाँ वो ऊपर से चौकोर था और ये गोल, शेष सब समान, उसमे जो संकेत अंकीर्ण किये गये थे वे बहुत अलग थे! मैंने गौर से देखा! उसमे सभी क्रम सही थे! कोई त्रुटि नहीं थी उसमे! बेहद अजीब था! हाँ! हाँ! उसमे एक अस्थिदण्ड बना हुआ था! बायीं तरफ, एक घोड़े के पास!
इसका अर्थ यहाँ अस्थिदण्ड है, ये सत्य है! मुझे संतोष हुआ! मेहनत खराब नहीं गयी! हाँ, धन का कोई निशान नहीं था वहाँ! और ये बात मैंने छिपा ली उनसे! ये अस्थिदण्ड एक चौथाई रज्जु से थोडा ऊपर था, एक लोहे की पेटी में रखा हुआ! और जिसका था ये उसका नाम भी लिखा था, बाबा रोमण!
इसका अर्थ हुआ कि बाबा रोमण बहुत पहुंचे हुए और सिद्ध रहे होंगे! अठारह सौ साठ में यदि उनकी मृत्यु हुई तभी ये अस्थिदण्ड बना होगा, अब प्रश्न ये कि ये अस्थिदण्ड यहाँ किसने गाड़ा?
ये था मूलभूत प्रश्न!
और किसी भी बीजक पर ये नहीं खुदा था!
इसका मात्र एक ही अर्थ था! कि यहाँ अब खुदाई करके वो पेटी निकाली जाए! अन्य कोई चारा शेष नहीं था!
वर्ष २०१० धौलपुर, राजस्थान की एक घटना! – Part 2
Posted on November 28, 2014 by Rentme4nite
जो जानना था सो जान लिया था, बाबा रोमण का अस्थिदण्ड यहीं था, ये सिद्ध हो चुका था! बीजक गढ़ने वाले ने कमाल कर दिखाया था! कुशाग्र बुद्धि का रहा होगा वो बीजक गढ़ने वाला, इसमें कोई संदेह नहीं था! अब मैं और शर्मा जी लौटे वहाँ से, उन सभी के पास आ गए! वे सभी कौतुहल की दृष्टि से हम पर ही नज़रें गढ़ाए हुए थे! सोचा इनको असलियत बता दूँ, लेकिन ऐसा करना सही नहीं था, और अब मैं ये चाहता था कि ये अस्थिदण्ड उस कमीन और निकृष्ट बाबा कटकनाथ के हाथ कभी न लगे! उसने मुझसे फरेब किया था, झूठ बोला था, सही तथ्य छिपाए थे मुझसे!
“क्या हुआ?” सुनील ने पूछा,
“मिल गया!” मैंने कहा,
आँखें चमकीं उनकी सुनकर ये!
“क्या मिल गया?” सुनील ने और कुरेदा!
“वही! जो तुमको चाहिए!” मैंने इशारा किया!
“कहाँ है?” उसने पूछा,
“इसके नीचे” मैंने कहा,
“आपका मतलब नीचे गड़ा हुआ है?” उसने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“तो खुदाई कब करें?” उसने पूछा,
“जब आप चाहो” मैंने कहा,
“कल कैसा रहेगा?” उसने पूछा,
“जैसी आपकी इच्छा!” मैंने कहा,
उस मूर्ख व्यक्ति की आँखों में धन के अम्बार लग गए! वे दोनों बाबा जैसे अब ख्वाब में अपने आपको मुख्य-संचालक समझ बैठे!
और मीनाक्षी!
उसकी आँखों में संतोष आया अब! मैंने जान लिया!
“अब चलें?” सुनील ने पूछा,
‘चलो” मैंने कहा,
और फिर हम फिर से उस बियाबान में चल पड़े! खटर-पटर आवाज़ें आतीं जूतों से! एक पक्षी भी नहीं था वहाँ, इंसान की तो क्या बिसात! हम फिर भी चलते रहे! रुकते रुकाते! पेड़ों की शरण लेते, सुस्ताते, पानी पीते और फिर चल पड़ते!
आखिर हम गाड़ी तक पहुँच गये!
गाड़ी में घुसे!
लगा कि जैसे किसी भट्टी में घुस गए हैं, पसीना ऐसा दौड़ा कि जैसा बाँध टूट गया हो! और फिर उसने गाड़ी का ए.सी. चलाया, तब जाकर जान में जान आयी!
गाड़ी दौड़ पड़ी उसी जगह की ओर जहां हम ठहरे थे! वहाँ आ गए सभी! सब अपने अपने कमरे में घुस गए! मैंने जूते खोले, जुराब उतारे और उंगलियां सहलायीं, ऐसा लग रहा था जैसे खौलते हुए पानी से बार निकाली हों! मैं जल्दी से हाथ-मुंह धोने गया, लेकिन बात नहीं बनी, आखिर में स्नान ही करना पड़ा!
अब शान्ति आयी!
लेकिन गर्मी के कारण सर घूम रहा था, अभी भी! पानी पिया और लेट गया! शर्मा जी ने भी स्नान किया और वे भी लेट गये!
“आज तो हालत खराब हो गयी” वे बोले,
“हाँ!” मैंने भी कहा,
“पाँव काँप रहे हैं, जान ही ले ली उस बंजर ने तो!” वे बोले,
