उस लड़की का नाम कंचन था, पढ़ी-लिखी समझदार लड़की, अपना ही व्यवसाय था उसका, वो महिला-वस्त्र , जैसे की सूट, ब्लाउज आदि सिलवाया करती थी और फिर आगे भेज दिया करती थी, उसके यहाँ काम करने वाले करीब पंद्रह लोग थे, दस लडकियां और पांच पुरुष, तीन, तीस वर्ष के आसपास के और शेष दो पचास वर्ष की उम्र के थे, कंचन की आयु भी कोई सत्ताईस या अट्ठाईस वर्ष ही होगी तब, विवाह नहीं किया था उसने तब तक, सुंदर और हंसमुख लड़की थी कंचन, सारे लोग उस से खुश रहते थे, किसी की हारी-बीमारी पर मदद भी किया करती थी! उसके घर में उसके दो बड़े भाई थे, दोनों ही शादी-शुदा और सरकारी नौकरी किया करते थे, दोनों उसकी भाभियाँ घर पर ही रहा करती थीं, गृहणी थीं वो दोनों,
कंचन का काम सही चल रहा था, सदा ही संतुलित रहा करता था, हाँ सर्दियों में काम थोडा ढीला हो जाया करता था लेकिन अक्सर उसकी भी कमी पूरी हो जाया करती थी, काम सही ही था, न सावन सूखे न भादों हरे!
एक बार की बात है, उसके कार्य-स्थल पर एक बार एक औघड़ सा साधू आया, उसने उस से खाना माँगा खाने के लिए, कंचन ने उसको ऊपर घर से एक थाली में खाना डाल कर दे दिया, साधू ने खाना खाया और पानी पीया! फिर कंचन ने उसको पचास रुपये भी दे दिए, साधू खुश हुआ और आशीर्वाद देकर चला गया! कंचन को भी मानसिक शान्ति का आभास हुआ! करीब पंद्रह दिनों के बाद वो साधू फिर आया, इस बार एक और साधू को लेकर, उन्होंने खाना माँगा, कंचन फिर से दो थालियों में खाना डाल कर ले आई, दोनों ने खाया और पानी पीया! फिर कंचन ने उन दोनों को पचास-पचास रुपये दे दिए! दोनों खुश हुए! जो साधू पहले भी आया था उसने अपना नाम बदरी बाबा बताया और जो दूसरा आया था उसने अपना नाम कालू बाबा बताया! उन्होंने बताया की वो काशी के औघड़ हैं, यहाँ आते रहते हैं कभी-कभार! भूख लगी तो खाना खाने आ गए यहाँ पर! कंचन ने इसको अपना सौभाग्य माना! तब बदरी बाबा ने कंचन को उसके सर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया परन्तु दूसरे ने नहीं! बल्कि उसने पूछा, “ब्याह हो गया तेरा?’
“अभी नहीं बाबा” कंचन ने कहा,
“क्यूँ?” कालू बाबा ने पूछा,
“कोई योग्य वर नहीं मिला अभी तक” उसने बताया,
“कैसा वर चाहिए तुझे?” उसने पूछा,
कंचन थोडा झेंपी और फिर बोली, “घर-बार अच्छा हो, सुसंस्कृत हो”
अब कालू बाबा हंसा और बोला, “कम उम्र में दिल लगाने का यही नतीजा होता है!”
“मै समझी नहीं बाबा?” कंचन ने हैरत से पूछा,
“वो साला छोड़ गया ना तुझे ‘छल’ के?”
“क..कौन बाबा?” कंचन फिर से विस्मय हो कर पूछा,
“वो…..वही……….तेरा सहपाठी…..उज्जवल!” बाबा ने अपना त्रिशूल हिलाते हुए बताया!
बाबा के मुंह से ये नाम सुना कंचन ने तो उसके आंसूं निकल आये! वहीँ बैठ गयी बेचारी, साथ साल पहले वाली यादें सिमट आयीं इकट्ठे होकर उसके दिल में! उनकी आंच का ताप आँखों से पानी बनके निकल पड़ा!
“क्या चाहती है तू?” कालू बाबा ने पूछा,
“कुछ नहीं बाबा कुछ नहीं” उसने सुबकते हुए कहा,
“उसकी औलाद ना होती तो तिल तिल करके मारता मै उसको!” बाबा ने कहा,
“नहीं बाबा, अब सब ख़तम हो गया” कंचन ने आंसूं पोंछते हुए कहा,
“कहाँ ख़तम? कहाँ ख़तम?” बाबा ने गुस्से से कहा,
“सब ख़तम बाबा” उसने कहा और आँखों से फिर आंसूं बह निकले उसके!
“रहने दे कालू, अब रहने दे” अब बदरी ने कहा,
“कैसे बदरी, कैसे? इसका नमक खा लिया है मैंने, अब कैसे?” कालू ने कहा,
“इतना कर दे कालू, की ये बेटी अपने घर की हो जाए” बदरी ने कहा,
“ये अपने मुंह से बोले मुझे ऐसा?” कालू ने कहा,
“बेटी, बोल दे, बोल दे ऐसा, जिंदगी पड़ी है तेरे सामने” बदरी ने कहा कंचन से!
कंचन चकित खड़ी थी! क्या बोले वो? उसने तो तय किया था कि अब वो ता-उम्र शादी नहीं करेगी? ओह! ये कैसा संकट?
“बोल बेटी?” बदरी ने कहा,
कंचन ने बहुत सोचा और फिर बोली, “ठीक है बाबा, जैसा आप उचित समझो”
“ले भाई कालू! कह दिया बेटी ने!” बदरी ने कहा कालू से!
“अब देख! अब देख तू!” कालू बोला और अपनी झोली में से एक छोटा सा शंख दिया कंचन को, और फिर बोला,” ये ले, इसे अपने सिरहाने रख कर सोना, आज से!”
कंचन ने वो छोटा सा शंख लिया और अपनी मुट्ठी में भींच लिया!
“चल बदरी, अब हम यहाँ तब आयेंगे जब इसका रिश्ता पक्का हो जाएगा!” कालू ने कहा,
“चल कालू” बदरी बोला,
“सुन बेटी, जैसा कहा वैसा कर” बदरी ने समझाया कंचन को,
“जी बाबा” कंचने ने कहा,
“ये था मेरा आशीर्वाद कंचन बेटी!” कालू ने कहा!
और फिर बिना कंचन को देखे सुने चल पड़े वो औघड़ अपनी यात्रा पर!
कंचन चुपचाप खड़े देखती रही उनको जाते हुए! वो दोनों मस्त थे! थोड़ी देर में ओझल हो गए वहाँ से!
वे दोनों बाबा चले गए! रह गयी ताकते हुए उनको कंचन अकेली! अपने केबिन में आई और मेज की पुश्त पर कमर टिका के बैठ गयी और दोनों हाथ रखे अपने सर पर और खो गयी पुरानी यादों में! सारी यादें सर्प-समान जीवंत हो गयीं! कडवी ज़हरीली यादें! वो न केवल कचोट रही थीं बल्कि फुफकार भी रही थीं!
“मैडम? तभी वहाँ काम करने वाली एक लड़की पुष्पा ने टोका उसे, कंचन की तन्द्रा भंग हुई तब!
“क्या?” कंचन ने पूछा,
“वो कालका वाले अग्ग्रवाल साहब का फ़ोन आया था” पुष्पा बोली,
“अच्छा, क्या कह रहे थे?” कंचन ने पूछा,
“कह रहे थे कि पांच सौ पीस भिजवाने हैं वो हरे वाले” उसने बताया,
“ठीक है, कल भिजवा दो, मै आज मंगवा लेती हूँ” कंचन ने कहा,
पुष्पा चली गयी फिर!
फिर से कंचन बीते दिनों में चली गयी! उज्जवल! एक हंसमुख लड़का था वो! एक धनाढ्य परिवार से सम्बन्ध रखने वाला! तीन वर्ष कंचन उसके साथ प्रेम-सम्बन्ध में थी, पूरे तीन साल, लेकिन जो कंचन ने चाहा वो ना हो सका, अलग हो गए एक दूसरे से! बहुत चोट पहुंची थी कंचन को उस अलगाव से! परन्तु इसको नियति समझ, अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया था कंचन ने! उज्जवल वापिस चला गया इंदौर! फिर कभी लौट के नहीं आया, और अब तो आठ साल भी हो गए! कुछ यादें अन्कीर्ण हो जाती हैं ह्रदय-पट पर, ऐसी ही कुछ यादें थीं कंचन की!
फिर कंचन उठी और ऊपर अपने कमरे में चली गयी, लेटी, तो यादों के जाल में फंस गयी कंचन!
फिर मस्तिष्क उसके बचाव को आया, और नेत्र उसके अश्रु-पूरित हो गए! वो बार बार पोंछती लेकिन आंसूं जैसे विद्रोह कर बैठे उस से! किसी तरह से समझौता किया अपने आंसूओं से कंचन ने! वो उठी और अपना चेहरा धोया! और फिर से अपने कमरे में आ गयी! दर्पण में स्वयं को निहारा और फिर वहाँ से निकल कर अपने केबिन में आ गयी!
कुछ दिन बीते, एक बार कंचन को उसके बड़े भाई ने बुलाया और कहा, “कंचन कुछ सोचा अपने जीवन के बारे में?”
चुप रही कंचन!
“कंचन! माँ पिताजी की बड़ी इच्छा थी तुम्हारी शादी करने की, विशेषतया पिता जी की, लाडली थी ना तू उनकी?” उसके भाई ने कहा,
पिताजी का नाम सुन फिर से आंसूं छलछला आये आँखों में कंचन के! उसको याद आया कि पिताजी कितना खुश होते थे कि कंचन की शादी ऐसे करेंगे वैसे करेंगे! लेकिन फिर कंचन ने स्वयं ही मन कर दिया था विवाह के लिए, माता-पिताजी के तो जैसे स्वप्न-घट में सूराख हो गया हो एक बड़ा सा!
पिताजी और माता जी को याद कर लिपट गयी कंचन अपने बड़े भाई से! बड़े भाई के ह्रदय में भी शान्ति का कलश फूट पड़ा! कितने दिनों के बाद आज कंचन भाव-विभोर हुई है! बड़े भाई ने
इसको उसकी स्वीकृति मान लिया! बोले, “कंचन, मै भी तेरे लिए बाप समान हूँ, जितनी ख़ुशी मुझे होगी तुझे ब्याहता देख उस से अधिक ख़ुशी माँ-पिताजी की आत्मा को होगी!”
और ऐसा कह अपनी छोटी बहन को गले लगा लिया उन्होंने! कंचन की आँखों से आंसूं छलछलाते चले गये उस दिन, उस समय!
“कंचन, एक रिश्ता है मेरे पास, यहीं दिल्ली का ही है लड़का, नाम है सुभाष, अपना व्यवसाय है उसका, परिवार अच्छा है, मै चाहता हूँ तुम एक बार गौर कर लो! ठीक है?” उसके भाई ने कहा,
कंचन ने मुंह से तो कुछ नहीं कहा, लेकिन अपनी गर्दन हिल कर हामी भर ली उसने! उस दिन बड़े भाई बहुत खुश हुए! ये बात उन्होंने अपंस छोटे भाई को भी बता दी, उन्हें भी बहुत ख़ुशी हुई!
तीन दिन बीते, वो दोनों साधू कंचन के कार्य-शाला के सामने आये और बोले, “अलख-निरंजन!”
कंचन ने जैसे ही सुना दौड़े दौड़े आई बाहर! आते ही पाँव पड़े उसने दोनों के!
“कैसी है री गुड़िया” बदरी बाबा ने पूछा,
“आपके आशीर्वाद से अच्छी हूँ मै बाबा!” कंचन ने हाथ जोड़ के कहा,
तब कंचन मुड़ी ऊपर जाने के लिए, उनके लिए खाना लाने के लिए, लेकिन कालू बाबा ने रोक लिया उसको, बोला,”कहीं मत जा, बाबा का पेट भरा है आज”
कंचन को हैरत हुई!
“लेकिन खाना?” कंचन ने पूछा,
“खाना कैसा बेटी! तेरे निर्णय से पेट भर गया हमारा! वो लड़का सुभाष अच्छा है, घर भी अच्छा है, अब देर मत कर” बाबा ने कहा,
कंचन फिर से अवाक रह गयी!
तब कंचन ने अपने पर्स में से सौ सौ के दो नोट निकाले उनको देने के लिए तो कालू बाबा ने लेने से मना कर दिया! और बोला, “नहीं बेटी, हम नहीं लेंगे कुछ भी तुझसे अब!” कालू ने कहा,
“क्यूँ बाबा? कोई गलती हुई क्या मुझसे?” कंचन ने पूछा,
“नहीं बेटी, कोई गलती नहीं!” कालू ने कहा,
तब बाबा ने अपनी झोली में से एक फूल निकाला और उसको दे दिया, और बोला,”ले बेटी! जैसे ये फूल खिल रहा है, ऐसे ही तेरा जीवन भी खिलेगा, हमेशा के लिए!”
कंचन ने वो फूल ले लिया, ये गुलाब का पूरा खिला फूल था!
“अब बाबा चलेंगे बेटी! पता नहीं कभी वापिस आयें भी या नहीं! हम बहुत दूर जा रहे हैं, पूजा करने! तू ब्याह कर लेना! जिन्दा रहे तो आ जायेंगे तेरे पास खाना खाने!” बदरी ने कहा,
इतना कह दोनों वहाँ से आगे चल दिए!
कंचन ठगी सी खड़ी देखती रह गयी दोनों को!
वे दोनों बाबा चले गए! कंचन उनको आँखों से ओझल होते हुए देखती रही! कंचन ने वो गुलाब का फूल अपनी मेज की दराज में रख लिया! उसको उन दोनों बाबाओं की शक्ल अभी तक याद थी! जीवन का रुख ही मोड़ डाला था उसका उन दो औघड़ों ने!
समय बीता! एक वर्ष हुआ! कंचन का ब्याह सुभाष से हो गया! सब कुछ ठीक था! कंचन अभी भी कानी कार्य-शाल आती थी रोज! सुभाष के व्यक्तित्व प्रभावशाली और सहज था! दोनों में अथाह प्रेम-भाव था! भाइयों ने अपना सारा प्रेम उड़ेल डाला था कंचन पर! बिलकुल उसके माँ-बाप की तरह! सुभाष का काम काफी बढ़िया था और कंचन का भी!
फिर एक दिन…………..
एक दिन सुभाष अपने एक मित्र को घर पर लाया, उसको कहीं बाहर जाना था अतः रात को उसके ठहरने की व्यवस्था सुभाष ने अपने घर पर ही कर दी थी! तब तक कंचन अपने घर, यानि सुभाष के यहाँ नहीं आई थी, दोनों मित्र घर में मदिरापान कर रहे थे, कल सुबह सुभाष के मित्र को जाना था दिल्ली से! तभी घर में कंचन का प्रवेश हुआ! सुभाष उठके गए बाहर और कंचन को अन्दर लाये कि वो कंचन को अपने घनिष्ठ मित्र से मिलवाना चाहते हैं! कंचन गयी सुभाष के साथ और जब कंचन ने सुभाष के मित्र को देखा तो उसको झटका लगा, ह्रदयगति जैसे थम सी गयी, नसिकाओं में बहता रुधिर जैसे जम सा गया! कंचन के सामने उज्जवल खड़ा था! उज्जवल भी कंचन को देख के चौंका, लेकिन फिर संयत हो गया! मुस्कुराया! और फिर बोला,”आपसे मिलके प्रसन्नता हुई मुझे”
“धन्यवाद” कंचन ने कहा और कमरे से बाहर चली गयी, सीधे अपने कमरे में! ये क्या हुआ? या कारण है? उसको इस से सम्बंधित इतिहास से नफरत थी, और आज फिर वही? वो भुला चुकी थी इस बारे सारी यादें, और आज इतिहास फिर समक्ष खड़ा हो गया था उसके? क्यों?
रात हुई, कंचन की नौकरानी ने खाना परोस दिया उज्जवल और सुभाष को, कंचन ने भी बस थोडा-बहुत खाया और फिर अपने हिसाब-किताब में लग गयी!
बाद में सुभाष आये कमरे में, और बोला,”ये मेरे दोस्त है उज्जवल, मेरे व्यवसाय से सम्बंधित काम करता है इंदौर में, आज यहाँ आया तो कहने लगा कि रात होटल में काट लेगा, मैंने मना कर दिया और उसको यहाँ ले आया”
कंचन चुप रही, लगी रही अपने हिसाब-किताब में!
“खाना खा लिया कंचन?” सुभाष ने पूछा,
“हाँ, खा लिया” कंचन ने कहा,
“ये मेरा दोस्त है ना उज्जवल, इसकी बीवी बीमार रहती है, डॉक्टर्स के चक्कर लगाता रहता है ये उसको ले ले कर” सुभाष ने बताया,
“क्या बीमारी है उसे?” कंचन ने अपने हिसाब-किताब का पृष्ठ पलटते हुए पूछा,
“उसको उसके गर्भाशय में कोई समस्या है” सुभाष ने बताया,
“अच्छा, कोई बच्चा है क्या उसका?” कंचन ने बेमन से पूछा,
“हाँ एक बेटी है, उसके जन्म के बाद से ही समस्या शुरू हुई उसको, मैंने तो कहा कि उसको एक बार दिल्ली ले आओ, यहाँ अच्छा इलाज हो जाएगा उसका” सुभाष ने जम्हाई लेते हुए बताया,
“तो क्या कहता है?” कंचन ने पूछा,
“कहता है कि अभी वहीँ चल रहा है इलाज, कोई फायदा ना हुआ तो ले आएगा दिल्ली” सुभाष ने कहा,
“वैसे आदमी बहुत बढ़िया, ईमानदार है ये उज्जवल!” सुभाष ने बताया,
कंचन ने कुछ नहीं कहा,
उसके बाद थोड़ी देर तक काम निबटाया कंचन ने फिर सो गयी!
सुबह उठे तो नहा-धो के निवृत हुए सभी! चाय आई तो कंचन ने चाय अपने कमरे में ही मंगवाई, जबकि सुभाष चाहते थे कि कंचन उनके साथ ही चाय पिए, परन्तु कंचन ने अपनी तबियत ठीक ना होने का बहाना कर चाय अपने कमरे में ही मंगवा ली थी!
बाद में नाश्ता आदि से फारिग हुए, तो कंचन ने अपना खाना अपने लंच-बॉक्स में डाला और चली गयी बाहर, अपनी गाडी स्टार्ट की और अपने कार्य-शाला हेतु प्रस्थान कर गयी,
सुभाष को कंचन का ये आचरण पसंद नहीं आया, खैर उसने, खाना खिलाया उज्जवल को और फिर अपनी गाड़ी में बिठा ले गए उसको रेलवे-स्टेशन!
उज्जवल चला गया!
सुभाष भी पहुंचे अपने दफ्तर और दफ्तर पहुँचते ही उन्होंने फ़ोन लगाया कंचन को, कंचन जानती थी कि उसको फ़ोन क्यों लगाया है सुभाष ने, आखिर कंचन ने बताया कि किसी को माल भेजना था आज सुबह बेहद ज़रूरी तो इसी कारण से वो मिल न सकी और जल्दी जल्दी उसको निकलना पड़ा घर से, सहज बुद्धि के सुभाष ने मान लिया ऐसा और बात आई गयी हो गयी!
रात को दोनों घर आ गए, सब कुछ सामान्य था, कोई विशेष बात न हुई और न ही सुबह वाली बात का कोई जिक्र हुआ, खाना खाने के बाद सो गए, सुबह उठे, सुभाष तो गए गुसलखाने और तभी सुभाष के फ़ोन की घंटी बजी, कंचन ने फ़ोन देखा तो ये फ़ोन उज्जवल का था, उसने वो फ़ोन वैसा का वैसा ही रहने दिया, उठाया नहीं, फ़ोन कट गया, फिर दुबारा घंटी बजी, फिर से फ़ोन न उठाया कंचन ने! दो बार फ़ोन बजा और दोनों बार ही फ़ोन न उठाया कंचन ने, इतने में सुभाष आये, उन्होंने कहा,”मेरा फ़ोन आया था क्या कोई?
“हाँ, दो बार बजा” कंचन ने बिस्तर से उतारते हुए कहा,
“किसका था?’ सुभाष ने पूछा,
“पता नहीं” कंचन ने जवाब दिया और बाहर चली गयी,
सुभाष ने फोन देखा तो ये उज्जवल का ही फ़ोन था, उन्होंने दुबारा से फ़ोन मिला दिया, उज्जवल से कहा कि गुसलखाने में होने के कारण फ़ोन नहीं उठा सके वो, उज्जवल ने बताया कि वो सकुशल घर पहुँच गया है और इसीलिए उसने फ़ोन किया था, इसके बाद सुभाष ने फ़ोन
रख दिया, तब तक अपना चेहरा पोंछते हुए कंचन आ चुकी थी अपने कमरे में, सुभाष ने पूछा, “फ़ोन क्यों नहीं उठाया?”
“ऐसे ही” कंचन ने कहा,
“अगर उठा लेतीं तो कोई बुरी बात नहीं थी, मुझे लगता है” सुभाष ने कहा,
“नहीं उठा सकी मै, सर भारी है मेरा” कंचन ने सर पर हाथ लगाते हुए कहा,
“दो बार फ़ोन किया उसने, यही कह देतीं कि मै गुसलखाने में हूँ” सुभाष ने कहा,
“नहीं उठा सकी?” कंचन ने कहा और फिर से कमरे से बाहर चली गयी,
बड़ा अटपटा सा लगा सुभाष को कंचन का ये व्यवहार, फिर भी उन्होंने इसको सहजता से लिया और बात फिर से आई गयी हो गयी!
फिर दोनों ही सहज हो गए!
बाद में अपने अपने काम के लिए निकले दोनों, रास्ते भर कंचन को अपने व्यवहार पर खेद हुआ, आखिर सुभाष की क्या गलती है? उसके साथ तो सहज होके ही रहना चाहिए उसको? इसी कशमकश में पहुँच गयी अपने काम पर कंचन!
यहाँ सुभाष को आश्चर्य तो था लेकिन उसे स्वाभाविक मान दरकिनार कर दिया, और अपने काम में मशगूल हो गए!
और समय बीता!
एक दिन सुभाष ने रात के समय कंचन से कहा, “कंचन?’
“हाँ?” कंचन बोली,
“मेरे दोस्त उज्जवल के छोटे भाई ने वहाँ एक शोरूम खोला है रेडीमेड-गारमेंट्स का, मैंने उसको बताया कि मेरी पत्नी कंचन का यही काम है, वो ऐसे ही शोरूम वालों को माल भेजती है, तो उज्जवल ने कहा है कि कंचन से एक बार इस विषय में बात कर लो, क्या कहती हो तुम?”
“मेरे पास लेबर नहीं है आजकल, गाँव गए हुए हैं, माल भी पूरा नहीं बन पा रहा है, आप उस से कहिये कि कहीं और से ले ले माल”
इस जवाब से मिजाज़ कड़वा हो गया सुभाष का,
“ये क्या बात है? मैंने उसको कह दिया है और वो इस शनिवार को आ रहे हैं दोनों भाई?” सुभाष ने कहा,
“तो अभी शनिवार थोड़े ही आया है? अभी चार दिन बाकी हैं, मना कर दो” कंचन ने करवट बदलते हुए कहा,
“ये तो मेरी बेइज्जती वाली बात हो गयी न कंचन?” सुभाष ने कहा,
“नहीं, कह दो लेबर नहीं है” कंचन ने कहा,
“अब मैंने कह दिया है उनको” सुभाष ने कहा,
“तो आपको मुझसे पूछना चाहिए था न पहले?” कंचन ने अब करवट बदलते हुए कहा,
“ये भी पूछूंगा मै कंचन?” सुभाष ने कहा,
कंचन चुप हो गयी, कुछ न बोली,
“तुमने जवाब नहीं दिया कंचन?” सुभाष ने पूछा,
तब कंचन ने बहुत सोचा कम क्षणों में!
“अच्छा, बुला लीजिये, जितना बन पड़ेगा, उतना देख लेंगे” कंचन ने कहा,
“ये हुई न बात!” सुभाष ने कहा और कंचन को खींच के अपनी बाजू पर ले लिया!
उस दिन कंचन अपने दफ्तर चली गयी थी, सुभाष ने बताया था उसको कि वे लोग सुभाष के साथ दिन में कोई दो तीन बजे तलक आ जायेंगे, उस दिन कंचन को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, अपनी ही जगह में खुद जैसे एक अनजान सी बन के रह गयी थी कंचन! क्या करती! और वैसे भी जब इतिहास अपने आपको दोहराता है तो ऐसा ही महसूस हुआ करता है, कंचन के साथ भी कुछ अलग नहीं हो रहा था, बस एक जानी-पहचानी आवाज और एक जाने-पहचाने शख्स से घबरा रही थी!वो नहीं चाहती थी कि उज्जवल और उसकी आँखें एक बार फिर दुबारा से मिलें! मित्रो! दिल और दिमाग तो दगा नहीं देते लेकिन ये आँखें ही हैं जिनके ऊपर दिमाग का भी जोर नहीं! आँखें ही दगाबाज़ हुआ करती हैं! दिल में उतरने का रास्ता ये आँखें ही हुआ करती हैं! उस दिन, कंचन ने कुछ तैयार माल छटवाया और फिर अहमद मियां को कुछ निर्देश दिए कि फलां फलां आदमी को फलां फलां कपडे दिखाने हैं, और ऐसा कह वो अपने भाई के
कमरे की तरफ मुड़ गयी! कमरे में जाकर लेट गयी और फिर उसको बीते सालों के वो ख़ास महीने और वो ख़ास दिनों के वो ख़ास लम्हे याद आने लगे!
यादों ने जैसे उसके वजूद को जंजीरों से क़ैद कर लिया! साँसों में तेजी आ गयी! दिल धड़कने लगा तेज तेज! यादों का वो चक्र ऐसा घूमा कि चक्रव्यूह बन गया! उलझ गयी कंचन उस चक्रव्यूह में! फिर अचानक उसका फ़ोन बजा! चक्रव्यूह टूट गया! उसने फ़ोन उठाया तो दूसरी तरफ सुभाष था, सुभाष ने बताया कि उज्जवल और उसका भाई घर आ गए हैं और कोई दो घंटों के बाद वो उन दोनों को लेके आ रहा है वहाँ!
तब कंचन नीचे आई और अहमद मियाँ को थोडा और कुछ समझाया, अहमद मियां ने हामी भरी और अपनी सफ़ेद दाढ़ी सहलाई! अहमद मिया सालों से उसके इस व्यवसाय की देखभाल किया करते थे और वैसे भी उनकी उम्र कंचन के पिता समान ही थी! अहमद मियां जानते थे कि कंचन के पति आ रहे हैं वहाँ तो उन्होंने इस बात का ख़याल रखा कि किसी भी तरह से कैसी भी तकलीफ न होने पाए उनको!
और फिर, कुछ समय बाद वे लोग आ गए, दो घंटे से ज्यादा समय हो चला था, उज्जवल उतरा नीचे अपने भाई के साथ, कंचन का घर देखा उसने और फिर उसकी कार्य-शाला! सुभाष ने उज्जवल का हाथ थाम और कंचन के केबिन की तरफ चल दिए, केबिन में आये तो अहमद मियाँ ने चाय-पानी का पुख्ता इंतजाम कर रखा था, बातचीत हुई अहमद मियां से लेकिन कंचन वहाँ ना थी, सुभाष ने अहमद मियां से पूछा, “कंचन कहाँ है?”
“यहीं है जी वे, कह रही थीं कि सर में थोडा दर्द है, इसीलिए ऊपर गयी हैं आराम करने” अहमद मियां ने चाय का एक प्याला उज्जवल को देते हुए कहा,
“बुला लीजिये उनको अब” सुभाष ने चाय का एक घूँट भरते हुए कहा,
“जी अभी बुलाये देता हूँ उनको” अहमद मियां ने कहा और एक लड़की को ऊपर भेज दिया कंचन को बुलवाने के लिए, लड़की ऊपर चली गयी बुलाने!
थोड़ी सी देर में लड़की नीचे आई और बताया कि कंचन अभी आ रही हैं, और फिर थोड़ी देर बाद कंचन आ गयी नीचे, केबिन में गयी और अपनी सीट पैर बैठ गयी, ना तो नज़रें सुभाष से मिलाईं और ना ही उज्जवल से! कितना मुश्किल होता है ऐसा करना, गोया आप वहाँ हैं ही नहीं! कैसे यकीन दिलाना पड़ता है दिल को! कैसे नज़रें चुरानी पड़ती हैं ऐसे लम्हों पर!
“ये मेरे दोस्त उज्जवल का छोटा भाई है नितिन, इन्ही ने खोला है वहाँ शोरूम वहाँ, रेडीमेड-गारमेंट्स का, अब ये कपडे देखने आये हैं, जैसा कि मैंने तुमको बताया था” सुभाष ने अपने हाथ से नितिन की तरफ इशारा करते हुए कहा,
“अच्छा, तो आपने वहाँ केवल लेडीज-सूट ही रखें हैं या सभी तरह के कपडे?” कंचन ने नितिन से पूछा,
“जी सभी तरह के हैं वैसे तो” नितिन ने बताया,
तब ऐसा सुन, पास में ही खड़े अहमद मिया को इशारा किया कंचन ने, अहमद मियां नितिन को लेकर अन्दर चले गए, कपडे दिखाने, नितिन चला गया उनके साथ, अब रह गए वहाँ सुभाष, उज्जवल और कंचन!
“सर दर्द था क्या?” सुभाष ने पूछा,
“हाँ, हल्का-फुल्का सा था” कंचन ने बताया,
“अच्छा, अहमद ने बताया इस बारे में” सुभाष ने कहा,
“हाँ, मैंने ही कहा था कि मै थोडा आराम कर लूँ” कंचन ने बताया,
फिर सुभाष उठे और वो भी अन्दर चले गए, नितिन की मदद करने के लिए! अब रह गए कंचन और उज्ज्वल!
थोड़ी देर वहाँ मुर्दानगी छा गयी!
कंचन का जैसे दम घुटने लगा, उसने कनखियों से देखा कि उज्जवल उसको ही देखे जा रहा है!
“कैसी हो कंचन?” उज्जवल ने कहा,
कंचन को काटो तो खून नहीं जैसे! फिर उसके नथुने फड़क गए!
“मिसेज़ सुभाष कहिये आप मुझे” कंचन ने आँखें ना मिलाते हुए कहा,
“ओह सॉरी, हाँ, कैसी हैं आप मिसेज़ सुभाष?” उज्जवल ने पूछा,
कंचन ने कोई जवाब नहीं दिया, वो उठी और अपने केबिन से निकल अन्दर चली गयी, जहां अहमद कपडे दिखा रहा था नितिन को!
“कंचन, ये वाला माल इनको पसंद आया है” सुभाष ने कंचन को एक सूट उठाकर दिखाते हुए कहा,
“अच्छा, हाँ ये नयी वैरायटी आई है” कंचन ने बताया,
“तो यही लेना चाहते हैं ये” सुभाष ने कहा,
“कोई बात नहीं, अहमद बता देंगे इस बारे में” कंचन ने कहा!
तब कंचन वहाँ से निकल वापिस अपने केबिन में आ गयी, पीछे पीछे सुभाष भी आ गए, बैठ गए वहाँ और बोले, “शोरूम के लिए इनको लगातार माल चाहिए होगा, ये तुम्हारे व्यवसाय के लिए भी ठीक रहेगा”
कंचन ने कोई जवाब नहीं दिया!
“कंचन, क्या बात है, तुम मुझे ऐसी रुआंसी सी अच्छी नहीं लगती” सुभाष ने कहा,
“ऐसी कोई बात नहीं है, आप देख लीजिये कि कितना माल चाहिए उनको, मै तैयार करवा दूँगी, आजकल ये सीजन का समय है, बस यही बात है” कंचन ने कहा,
“मै तो यही चाहता हूँ कि तुम्हारा व्यवसाय फ़ैल जाए” सुभाष ने कहा,
तभी केबिन में अहमद मियाँ कुछ कपडे लेकर आ गये, और साथ ही साथ उज्जवल और नितिन भी आ गए, दोनों बैठे वहाँ कुर्सियों पर,
“मैडम, इनको ये वैरायटी पसंद आई है, और मैंने इनको भाव भी बता दिया है, इनको जंच गया है और ये शुरू में दो सौ पीस मांग रहे हैं” अहमद ने वो कपडे कंचन को दिखाए,
कंचन ने वो कपडे देखे और उस पर पेन से निशान लगा दिए,
“ठीक है, आप एक काम करें अहमद जी, कल के.सी. शर्मा जी से और कपडा मंगवा लीजिये, और इनका काम शुरू करवा दीजिये” कंचन ने अहमद से कहा,
“जी ठीक है, मै कहे देता हूँ और कपडा मंगवा लेता हूँ” अहमद मियां ने कहा और वो कपडे संजो कर उठाये और बाहर चले गए केबिन से!
तब नितिन ने कुछ पैसे अपने बैग से निकाले और कंचन की तरफ बढ़ा दिए, कंचन ने फिर से अहमद को बुलाया और वो पैसे बतौर एडवांस कोई बीस हज़ार थे, अहमद मियां ने गिने और
मैडम को थमा दिए, कंचन ने अपने हिसाब वाला रजिस्टर निकाला और नितिन के नाम का एक हिसाब बना दिया और उस एडवांस की कुल रकम वहाँ लिख दी!
तब नितिन ने पूछा, “मैडम, वैसे ये माल हमको कब तक मिल जाएगा?”
“कम से कम बीस दिन तो मानिए, लेकिन हम पचास पचास पीस बना कर आपको भिजवाते रहेंगे” कंचन ने कहा,
“जी ठीक है” नितिन ने कहा,
उसके बाद वे सभी उठे वहाँ से! तब नितिन ने कंचन से नमस्कार की, लेकिन उज्जवल ने नहीं की! सुभाष उनके साथ उठे और बाहर जाने से पहले बोले, “कंचन, आज रात ये हमारे मेहमान हैं, कुछ खरीदारी करनी है इन्होने, मै वहीँ ले जा रहा हूँ, तुम कब तक आओगी घर पर?”
“मै कोई आठ बजे तक पहुँच जाउंगी” कंचन ने कहा,
सुभाष ने सुना और फिर बाहर चले गए, गाडी में सभी सवार हुए और चले गए! कंचन को कुछ याद आया अब! “कैसी हो कंचन?” ये शब्द! ये शब्द उसने सुने थे, आज से आठ साल पहले! वो तरसती थी उन शब्दों की मिठास के लिए! और आज? आज कितने कड़वे हो गए थे ये ही शब्द!
खैर, वो इस झंझावत से निकली और फिर अहमद को बुलाया, अहमद मियां आये तो कंचन ने कहा,”कल शर्मा जी से बात कर लेना, कपडा मंगवा लो, और पचास हज़ार दे देना उनको”
“ठीक है, मै दे दूंगा उनको” अहमद मिया बोले,
तब कंचन ने दफ्तर की मेज की ड्रावर से पचास हज़ार रुपये निकाल अहमद को दे दिए, अहमद ने पैसे रख लिए और वापिस अपने काम पर चले गए!
फिर से ख़याल उभरने लगे! गुजरे वक़्त के ख़याल!
उसको एक बात याद आई! करीब आठ साल पहले की याद! वो और उज्जवल गए थे कहीं घूमने, तब सर्दी के दिन थे, उज्जवल और कंचन बैठे हुए थे एक पार्क में, तब कंचन के लिए उज्जवल एक सूट का कपडा लाया था, कपडा बेहद खूबसूरत था, उसका सूट पहनते ही कंचन सच में ही बहुत सुंदर लगती! तब उज्जवल ने कहा था, “कंचन, ये जो रंग है ना? गहरा नीला? ये मुझे बेहद पसंद है”
“अच्छा!” कंचन ने वो कपडा देखकर कहा था!
“अब ना जाने तुमको पसंद आये ना आये” उज्जवल ने कहा,
“क्यों पसंद नहीं आएगा?” कंचन ने पूछा,
“मुझे लगा ऐसा कंचन” उज्जवल ने उसके गाल पर हाथ रखते हुए कहा था,
“ऐसा ना सोचो उज्जवल, मुझे तुम्हारी सभी पसंद, पसंद हैं” कंचन ऐसा कहते हुए शरमा गयी थी!
“कंचन, ना जाने भविष्य में क्या लिखा है, कभी हम एक होंगे या नहीं, पता नहीं” उज्जवल ने कहा था,
“ऐसा ना सोचो उज्जवल” कंचन ने एक अनजाने भय से डर कर ऐसा कहा,
“मै नहीं सोचता कंचन, लेकिन अगर ऐसा हुआ ना, तो मै क्या………..क्या करूँगा?” उज्जवल गंभीर हो गया,
“ऐसा ख़याल ना लाओ, मेरा क्या होगा उज्जवल? कभी सोचा है?” कंचन ने कहा,
बहुत अन्तरंग बातें हुई उनकी उस दिन!
“कंचन?” उज्जवल ने कहा,
“हाँ?” कंचन ने पूछा,
“अगर ऐसा हुआ, और हम कभी दुबारा मिले, तो मुझे दरकिनार तो नहीं करोगी?” उज्जवल ने उसका हाथ पकड़ के पूछा,
“मै ऐसा नहीं सोचती उज्जवल” कंचन ने कहा,
“बताओ ना?” उज्जवल ने कहा,
“मुझे नहीं पता” कंचन ने एक ओर मुंह फेरते हुए कहा,
‘मुझे नहीं पता’ इसका अर्थ आज जानी थी कंचन! क्यों पूछा था उज्जवल ने कि दरकिनार तो नहीं करोगी?
“दरकिनार?” क्या अर्थ था इसका? यही तो कहा था उज्जवल ने कंचन से, दरकिनार तो नहीं करोगी कंचन? उलझ गयी कंचन उन्ही ख्यालों में, ये क्या हो रहा था उसकी जिंदगी में? उसने