वर्ष २०१० जिला मथुर...
 
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वर्ष २०१० जिला मथुरा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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अब उसने मेरे चारों ओर चक्कर काटने आरम्भ किये!

मित्रगण!

वो चक्कर काटता और मेरे शरीर में वलय पड़ता!

लगा कि पसलिया टूट जाएंगी!

रीढ़ की हड्डी से पसलियों के जोड़ खुल जायेंगे!

दम घुटने लगा!

अंडकोषों में भयानक पीड़ा हुई!

जैसे सूजन आ गयी हो,

जैसे फट ही जायेंगे,

मेरी नाभि सूज चली,

भयानक पीड़ा!

खून जैसे जम गया!

मैं संतुलन खोने ही वाला था!

तभी कौडांगी कौड़ी मेरे गले में जो पड़ी थी,

पिघल गयी!

टपक गयी नीचे!

मोम की तरह!

मैंने पहली बार देखा था ऐसा होते हुए!

अब प्राण पर बन आयी!

मैंने हिम्मत जुटाई!

चिल्लाते हुए मैंने श्री महा औघड़ का नाम लिया,

और धूजमाला-विद्या का संधान कर डाला!

धम्म!

मैं नीचे गिरा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरा शरीर ऐसे खुला कि जैसे मानो कपडे को निचोड़ा हो बहुत सुखाते समय और फिर छोड़ा हो उसको एक साथ! उसके वलय खुलते हैं जैसे!

ऐसे मेरा शरीर खुला!

श्वास संयत हुई!

मैं खड़ा हुआ!

क्रोध से उस चक्कर लगाते हुए साधू को देखा!

चिल्लाया!

और मैंने फिर त्रिशूल को विपसशः-क्रिया से सृजित किया और फेंक मारा उसके ऊपर!

त्रिशूल टकराया उसके झोले से!

भयानक चीख उभरी!

जैसे परखच्चे उड़े हों किसी के!

जैसे हाथी ने कुचल के किसी के प्राण हरे हों!

मेरा त्रिशूल टकराते हुए भूमि में गड़ गया था!

मैं भागा!

त्रिशूल उखाड़ा और तैनात हो गया!

सन्नाटा!

शान्ति!

मेरी नज़रें सामने आ टिकीं!

एक एक बढ़कर एक मांत्रिक आ रहे थे!

अब चढ़ा औघड़-मद!

अब मैंने शुरू का दीं गालियां देनी!

अब जो हो सो हो!

गाली-गलौज!

मैं चिल्ला चिल्ला के गालियां दे रहा था!

“आओ! मेरे सामने आओ! कहाँ घुस गए?”


   
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श्रीशः उपदंडक
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“आओ?”

“सामने आओ?”

“बताता हूँ मैं!”

“आओ?” ऐसे चिल्ला रहा था मैं!

पसीनों से नहा गया था मैं!

केश मेरे मुख पर आ गए थे!

मैं जटाओं को हाथ से हटा देता था!

वो झूल कर आ जाती थीं मेरे चेहरे पर!

मैं पीछे भागा!

शर्मा जी के पास आया!

मदिरा की बोतल उठायी,

और फिर खोल कर डकोस गया कई घूँट!

अब क्रोध जाग चुका था!

अब या तो बाबा से मुलाक़ात होगी!

या मैं आज की रात तक ही जीवित हूँ!

सुबह का सूरज नहीं देखूँगा!

फ्री से मदिरा के कुछ और घूँट भरे!

और फिर से चिल्लाया!

मैंने भूमि पर त्रिशूल से कई यन्त्र बना दिए!

शक्ति!

चलित!

विध्वंस!

सहस्त्रासक!

“आओ” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“क्यों नहीं आते अब?” मैं चिल्लाया!

और फिर!

क्रोध बढ़ा!

“बाबा देवधर??? आओ??” मैं कह बैठा!

दूसरी भूल हो गयी!

हो गयी!

 

मैं ललकार बैठा!

मद की रौ में बह निकला!

अब पीछे लौटना सम्भव नहीं था!

क्या किया जाए?

बाण छूट गया कमान से!

अब कैसे वापिस हो?

असम्भव!

अब या तो मरो!

या मर जाओ!

दो दिमाग हो गये!

दो फाड़!

ये करूँ?

या ये?

मित्रगण!

व्यक्ति अपने गत और ज्ञात अनुभव से कुछ सीखता भी है!

मैंने सीखा है,

कि क्षमा से बढ़कर कोई दान नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर वो भी एक सिद्ध से!

जन्म-जन्मांतर भी गुजर जाएँ तो भी उनके चरणों की धूल का मात्र एक कण भी नहीं हम!

बस!

इसी सहारे मैं रुका था!

मैं कुछ चाहता नहीं था!

कुछ नहीं!

कोई प्रसाद नहीं!

बस आशीर्वाद!

एक सिद्ध का आशीर्वाद!

अवसर मिला था,

तो कैसे गंवाया जाए?

माना,

मैं सात्विक नहीं,

माना,

माना मैं अल्प-बुद्धि जीव हूँ!

कपट भरा है मस्तिष्क में! छल भरा है, लालच भरा है,

अरे मैं तो सर्व दुर्गुण संपन्न हूँ!

मुझसे बड़ा पापी कोई नहीं!

कोई भी नहीं!

तो भी,

तो भी!!

तो भी मेरी अर्ज़ यही है कि बाबा एक बार दर्शन दे दो!

उसके बाद मुक्त कर दो मुझे!

मुक्त!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाँ मुक्ति!

मुक्ति दे दो!

मैं औघड़ हूँ!

लड़ता हूँ!

छीनता हूँ!

लेकिन चुराता तो नहीं?

आपसे माँगा, आपने नहीं दिया,

आपसे लड़ा, और छीन लिया!

यही!

यही तो करता हूँ!

“आओ?” मैं चिल्लाया!

गर्राया!

गुस्से में पाँव पटके!

और भागा सामने!

“कौन है??” मैंने कहा,

“आओ सामने?” मैंने कहा और आया गुस्सा!

आगे भागा!

फिर रुका!

“कहाँ छिप गए??” मैं चिल्लाया!

फिर से ज़मीन में मारा पाँव दबा कर!

“आओ सामने?” मैंने कहा,

और मुझे कोई दिखायी दिया!

कोई खड़ा हुआ!

मैं गुस्से में था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“आओ? सामने आओ?” मैं चिल्लाया!

मैं भागते हुए गया,

अपना त्रिशूल लेकर!

और जैसे ही घोंपने लगा,

रुक गया!

ये मंजरी थी!

वो मुझे विस्मय से देख रही थी!

मैं ढीला पड़ा!

होश क़ाबिज़ हुए!

“क्षमा!” मैंने कहा,

वो चुप!

“क्षमा!” मैंने कहा,

“आप चले जाओ यहाँ से” वो बोली,

“मैं नहीं जाऊँगा मंजरी” मैंने कहा,

“जाना होगा” वो बोली,

“नहीं” मैंने कहा,

“मानो, जाओ यहाँ से” वो बोली,

“नहीं जाऊँगा” मैंने कहा,

“जाओ?” वो बोली,

“नहीं मंजरी” मैंने कहा!

“जाओ यहाँ से, मान जाओ” वो बोली,

अब कोई न कोई बात थी!

अवश्य ही!

“क्या हुआ है?” मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“बाबा आंजनेय क्रोधित हैं” वो बोली,

“क्रोधित हैं?” मैंने पूछा,

“हाँ, अब जाओ, शीघ्र ही” वो बोली,

मैं कुछ कहता,

इस से पहले ही वो लोप हो गयी!

और मैं पीछे हटता वहाँ से, वहाँ एक और बाबा प्रकट हुए!

वे वृद्ध थे!

पीत-वस्त्र धारण किये हुए!

दंड लिया!

काष्ठ से बना दंड!

हाथ में रुद्राक्ष की माला!

मैं ठिठक गया!

“कौन हो तुम?” उन्होंने पूछा,

“आप नहीं जानते?” मैंने कहा,

“हाँ! चले जाओ यहाँ से” वे बोले,

“नहीं” मैंने कहा,

“अब और नहीं, जाओ यहाँ से” वे बोले,

“नहीं जाऊँगा” मैंने कहा,

“जाना होगा” वे बोले,

“नहीं” मैंने कहा,

“तो मैं विवश हूँ” वे बोले,

और किया मेरी तरफ हाथ!

मुझे जैसे किसी ने उठा के फेंका!

मैं मिट्टी में घसिटता चला गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन त्रिशूल नहीं छोड़ा!

मैं उठा, और फिर से हाथ किया,

मैं फिर से घसिटता चला गया!

फिर से उठा!

मुंह में मिट्टी घुस गयी मेरे!

केशों में मिट्टी घुस गयी!

मेरे तंत्राभूषण जैसे कुंद हो गए!

मैं खड़ा हुआ और अब क्रोध आया!

मैं चिल्लाया!

और ब्रह्माक्षी-त्रिकता का जाप कर दिया!

मेरे हाथों में ताप बढ़ा!

मैंने त्रिशूल पर फेरा हाथ!

अभिमंत्रित किया और कर दिया बाबा की तरफ!

रौशनी कौंध गयी!

बाबा को आघात लगा!

टकराई त्रिकता उनसे!

कमंडल छूट पड़ा!

काष्ठ-दंड छूट पड़ा!

अब मुझे हंसी आयी!

अट्ठहास किया मैंने!

अब उस स्थान पर मैंने कब्ज़ा करना था!

बहुत हुआ!

बस!

बहुत हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने मिट्टी उठायी!

अभिमंत्रित की,

और जैसे ही फेंकने लगा,

मुझे मेरे मन ने चेतावनी दी!

मैंने नहीं फेंकी!

खानी पड़ी वो मुझे!

मैं रुक गया था!

कुछ सोच कर!

हाँ!

सही रुका था मैं!

आज है चौदस!

और कल होगी पूर्णिमा!

हाँ! कल तक रुको!

करो प्रतीक्षा!

अब मैंने एक महा-मंत्र पढ़ा!

और अपने त्रिशूल से उस केले के स्थान को दग्ध किया!

और आया वापिस!

फिर कोई खेल नहीं हुआ!

मैं आया वापिस!

घूल-धसरित!

वृत्त भंग किया!

शर्मा जी ने सम्भाला मुझे!

सामान टांगा कंधे पर!

और मैं अब चल दिया कोठरे की तरफ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ पहुंचे!

मैंने अपना सारा सामान शर्मा जी को दिया,

उन्होंने बैग में रखा!

अब अपना चेहरा याद आया, धोना है!

“पानी” मैंने कहा,

उन्होंने पानी दिया,

मैंने पिया!

और चेहरा धोया अब!

और मैं लेट गया!

तभी मदिरा का ध्यान आया!

“वो देना ज़रा?” मैंने कहा,

उन्होंने दी,

मैंने ली और गिलास में डाली,

सलाद रखी थी पहले से ही!

मैंने सलाद खायी और गिलास पूरा उतार दिया गले के नीचे!

फिर से दूसरा गिलास बनाया!

और वो भी नीचे गले के!

फिर से सलाद!

“आज तो संग्राम विकट हुआ है” वे बोले,

“आप कल देखना!” मैंने कहा,

“कल तो…” वे बोले,

“कल का दिन ही विशेष है” मैंने कहा,

फिर से एक और गिलास!

और फिर से गले के नीचे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर से सलाद!

और अब मैं लेट गया!

कल की सोचते हुए!

रात करवटें बदल रही थी!

 

और फिर नींद आ गयी!

सो गया मैं!

बाद में कुछ नहीं हुआ!

सब ठीक था!

पौ फटी!

सूरज की रौशनी फ़ैल गयी!

आलिंगन किया उसने पेड़-पौधों से!

फिर हमारी खिड़की से घुसपैठ की,

कमरे में दाखिल हुई!

और नींद खुली!

सर भारी था!

बहुत भारी!

कच्ची नींद थी!

मैं फिर से सो गया!

शर्मा जी से कह दिया कि मुझे जगाएं नहीं,

मैं सोता रहा!

नरेश जी आये,

शर्मा जी से बात हुई,

उन्होंने बताया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मुझे सोने दिया उन्होंने,

मैं सोता रहा!

सोता रहा!

दोपहर हो गयी!

अब खुली आँख,

बारह से ऊपर का वक़्त था!

मैं खड़ा हुआ!

नरेश जी से नमस्कार हुई!

और हम तब चले घर की तरफ!

घर पहुंचे,

नहाये-धोये और फिर चाय नाश्ता!

और फिर से आराम!

फिर दोपहर बाद भोजन!

और फिर आराम!

और मित्रगण!

अब हुई शाम!

दिल धड़का,

और आयी फिर पूर्णिमा की वो घड़ी,

जहां से वो आरम्भ होती थी!

हो गयी!

आ गया वो दिन!

आज बाबा जागने वाले थे!

मैं लालायित था!

उनके दर्शन को!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उनसे मिलने को!

अब घिरी रात!

मैंने अपने केश बांधे!

प्रण लिया!

और समस्त तंत्राभूषण धारण कर लिए!

फिर शर्मा जी को भी धारण करवा दिए!

अब पहुंचे खेत!

मैंने नरेश जी को मना कर दिया था आज साथ चलने को,

वो घर पर ही रहे!

खेत को देखा!

और उसमे कदम रखा!

सुगन्धित और स्नेहिल सुगंध ने हमारा स्वागत किया!

गए कोठरे,

ताला खोला,

और सामान रखा,

उसमे से आवश्यक सामान निकाला!

नमन किया!

गुरु नमन!

अघोर पुरुष नमन!

समस्त दिक्पाल नमन!

योगिनी विचार किया और फिर दिशा पूजन!

भूमि और आकाश पूजन!

मंत्र जागृत किये!

और उनसे देह पोषित की,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपनी भी और शर्मा जी की भी!

सशक्तिकरण किया!

विद्याएँ जागृत कीं!

और फिर खेत के मध्य आये!

वृत्त खींचा!

पूजन किया!

अपना त्रिशूल अभिमंत्रित किये,

आसन बिछाया,

और विराजमान हुआ!

साथ लायी सामग्री खोली!

मांस का एक टुकड़ा लिया,

फूंका,

अभिमंत्रित किया,

मदिरापान किया,

और फेंक दिया सामने!

वो लुढ़का!

और रुक गया!

अब मैंने प्रत्यक्ष मंत्र लड़ाया!

मंत्र खुला!

और फिर……………….

प्रकाश!

दिव्य प्रकाश!

मैं खड़ा हुआ!

वृत्त लांघा!


   
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