“मैंने भी कहा था, नहीं!” मैंने कहा,
“तुमने नहीं माना” उसने कहा,
“नहीं मानूंगा” मैंने कहा,
“परिणाम भुगतो फिर” उसने कहा,
“मैं तैयार हूँ” मैंने कहा,
“वरण करो फिर मृत्यु का!” वो बोला,
“सहर्ष तैयार हूँ मैं!” मैंने कहा,
मुझे अपनी विद्या पर, अपने गुरु-मार्ग पर पूर्ण विश्वास था! मैं पीछे नहीं हट सकता था!
तभी वो वायु में उठा!
आधा ही शरीर दिखायी दिया!
और फिर उसने कुछ मंत्र पढ़े!
अलख मुरझायी!
ताप बढ़ा!
मेरे तौतिक ने शांत किया उसको!
फिर से ताप बढ़ा!
एवंग ने झेल लिया वार!
फिर से मिट्टी उड़ी!
तौतिक भिड़ गया!
और फिर सब शांत!
उसका शरीर पूर्ण हुआ!
भूमि स्पर्श हुआ!
और मैं खड़ा हुआ!
अपना त्रिशूल लहराया!
और कृतांग-मंत्र का प्रहार किया!
तान दिया त्रिशूल सामने, उसकी तरफ!
वार हुआ!
और टकराया उस साधू से!
वो उड़ चला!
बहुत दूर!
बहुत दूर!
और लोप!
मैंने फिर से त्रिशूल लहराया!
नमन किया!
और बैठ गया!
अब प्रतीक्षा!
प्रतीक्षा-क्षण बहुत कष्टकारी हुआ करते हैं!
यही हुआ था!
एक एक क्षण एक एक घंटे समान हो गया था!
फिर वहाँ दो ज्योतियां प्रकट हुईं!
चक्र रूप से मिल कर एक हुईं!
मैं खड़ा हुआ!
देखने में अश्व के मुख के समान थीं वो!
मैंने और गौर से देखा!
और गौर से!
ये कोई साधू था!
विशाल कंधे वाला!
विशाल देह!
मालाएं धारण किये हुए!
आँखें ऐसी कि कोई देख ले तो मारे भय के पछाड़ खा जाए!
क्रोधित!
रौद्र मुद्रा में!
भीषण मुद्रा बनाये!
मैं चौकस!
वो सामने बढ़ा!
डील-डौल ऐसा कि जैसे कोई पहलवान!
मुझ जैसे दो बनें उसने से!
एक ही हाथ से तोड़ डाले मेरा हाथ!
करीब साढ़े सात फीट ऊंचा!
चन्दन का टीका लगाए!
पीत-पुंड लगाए!
हाथ में कमंडल लिए!
दंड लिए!
काष्ठ-दंड!
सफ़ेद दाढ़ी उसकी!
कोई ऋषि सा लगता था वो!
हाँ, मुद्रा रौद्र थी उसकी!
सम्भव था, मेरे पिछले वार को वो जान गया होगा!
इसीलिए आया था वो!
तभी देखा मैंने,
उसके पीछे भी कुछ साधू खड़े थे!
मैंने त्रिशूल लहराया!
घुमाया!
और कृतांग-मंत्र का पुनः जाप किया,
त्रिशूल अभिमंत्रित किया और सम्मुख कर दिया उसके!
वो हंसा!
जैसे मेरा उपहास उड़ाया हो!
मैं मुस्तैद खड़ा था!
तभी उसने कमंडल से कुछ निकाला,
और उछाल दिया मेरे सामने!
धुंआ उठा!
और धुंआ लपका मेरी ओर!
मैंने त्रिशूल आगे किया,
त्रिशूल पर बोझ पड़ा!
मैं हिल गया!
जैसे किसी ने पूरे बल से रोका हो मुझे!
कृतांग भिड़ा हुआ था!
मेरा संतुलन डगमगाया!
शर्मा जी ने देखा,
मेरे त्रिशूल की मूठ मेरे ही उदर से जा टकरायी!
मैंने फ़ौरन उप्प्लाविद-मंत्र का जाप किया मन ही मन!
और थूक दिया सामने!
धुंआ हट गया!
वो साधू अवाक था!
मेरी विद्या से अवाक था!
काटो तो खून नहीं!
मैं यदि उप्प्लाविद-मंत्र नहीं लड़ाता तो निःसंदेह मेरे त्रिशूल का मूठ मेरे उदर में घुस चुका होता! मैं बच गया! झेल गया वार!
मैंने फिर से त्रिशूल लहराया!
वो साधू और आगे आया!
विकट ‘योद्धा’ था वो!
उसने फिर से कमंडल में हाथ डाला!
मैंने त्रिशूल का फाल उसकी तरफ किया!
झुका!
और फिर!
उस साधू ने फिर से कुछ फेंका,
ये काष्ठ का टुकड़ा था!
बवंडर उठ गया!
भूमि में कम्पन हुआ!
मैं नीचे हो गया, टांगें चौड़ा लीं,
संतुलन बनाया!
और अंगार का एक गोला फटा!
आया मुझसे टकराने!
मेरी देह से टकराया!
तंत्राभूषण भरभरा गए!
मेरे भी और शर्मा जी के भी!
अंगार के चिरक टकराए मेरे केशों से,
केश सुलग उठे!
मैंने त्रिशूल को भूमि में मारा!
और अघोर नाद किया!
उप्प्लाविद जा भिड़ा!
अंगार शांत हो गया!
शांत!
चिरक कागज़ के जले टुकड़ों की तरह भूमि पर गिरने लगे!
प्राण बच गए!
नहीं तो अस्थियों समेत मिट्टी में मिल गए होते हम दोनों!
वो साधू!
वो हैरान!
परेशान!
मैं भिड़ा था!
डटा था!
अब तो मैदान में था!
या तो मार दे या मर जा!
बस और कुछ नहीं!
कोई और उद्देश्य नहीं!
अँटिस्म श्वास के अंतिम लघु-खंड तक मरने-मारने को तैयार था मैं!
मुझे कुछ सूझा,
नेत्र बंद किये!
ऋशूल-विद्या जागृत की!
और नीछे बैठा!
वो साधू देखता रहा!
मैंने ऋशूल से अभिमंत्रित कर अपना त्रिशूल किया उसकी तरफ!
रेखा सी खिंच गयी भूमि पर!
धवल-रूप रेखा!
चीरती हुई भूमि को!
उस साधू से टकरायी!
साधू लड़खड़ा गया!
और फिर भक्क से लोप हो गया!
ऋशूल जटा-शक्ति है श्री महा औघड़ की! परम विद्या है!
इसके सहारे किसी से भी भिड़ा जा सकता है!
मैंने भी यही किया था!
इसकी अमोघता नहीं कटती!
बहुत मुश्किल है!
वो लोप हो गया, नहीं तो भूमि द्वारा सोख लिया जाता!
सहसा!
वो फिर से प्रकट हुआ!
भूमि से एक फुट ऊपर!
वाह!
ऋशूल से बचने का उत्तम मार्ग!
ऋशूल लौट आयी!
अब साधू ने कमंडल में हाथ डाला!
कुछ निकाला,
और फेंक दिया मेरी तरफ!
भूमि में चकमक के पत्थरों जैसी आवाज़ और चिंगारी छूटी!
ओह!
विनाशिनी!
स्थूल-विनाशिनी!
संहारक!
स्थूल-तत्व संहारक!
मैंने तभी कौडिम्भ-मंत्र का जाप किया और थूक दिया नीचे!
भयानक टंकार हुई!
भिड़ गए दोनों मंत्र!
मैं गिर पड़ा नीचे!
नीचे गिरते ही वृत्त से बाहर हुआ और मेरी कोहनी से ऊपर का हिस्सा भूमि से स्पर्श हो गया,
जल गया मैं वहाँ!
परन्तु वो लोप!
लोप हो गया!
मैं उठा,
वृत्त में हाथ खींचा!
और अपनी कोहनी देखी!
वहाँ जल गया था मैं!
मैं फिर से खड़ा हो गया!
मुस्तैद!
चौकस!
बिना पलकें पीटे!
खड़ा रहा!
वो लोप हो गया था!
उन सभी के साथ!
कुछ क्षण समय ने अवशोषित किये!
कुछ और!
और फिर गंध आयी वहाँ!
विषैली गंध!
भूमि में सूराख होने लगे!
चारों ओर!
और मित्रगण!
अजीब अजीब से विषैले सांप उनमे से निकलने लगे!
सारे भाग छूटे हमारी ओर!
जैसे हांका गया हो हमारी तरफ उन्हें!
सुरक्षा-वृत्त से टकराए और पीछे फिंके!
वे टकराते और फिर से प्रयास करते!
डसने को तैयार!
मैंने कण्डप-वाहिनी शक्ति का आह्वान किया और फिर अपना त्रिशूल भूमि से स्पर्श करा दिया! वे जहां थे, वहीँ समा गए!
नाश हो गया उस सर्प-माया का!
कुछ क्षण और बीते!
और फिर से भूमि में टीले बनने लगे!
हम जहां थे, वहाँ भी!
मेरे वृत्त के मध्य भी!
सामने ही चार और प्रकट हुए!
और फिर वही डील-डौल वाला पुनः प्रकट हुआ!
इस से पहले कि मैं कुछ करता,
मेरे त्रिशूल पर वार हुआ!
मेरा त्रिशूल गिरा!
मेरे पांवों से टकराया!
हम मुसीबत में थे अब!
बहुत बड़ी मुसीबत में!
मेरा हाथ झन्ना गया था!
“भागो! शर्मा जी भागो! खेत से बाहर भागो!” मैं चिल्लाया,
लेकिन वो नहीं भागे!
“नहीं!” वे बोले,
“भागो!” मैंने कहा,
“नहीं!” वे चिल्लाये!
“मारे जाओगे?” मैं चिल्लाया,
“नहीं, मैं नहीं जाऊँगा!” वे बोले,
“जाओ?” मैंने चिल्लाया,
वे नही गए!
अब मैं बैठा!
और अपन त्रिशूल उठाया,
अभिमंत्रित किया और खड़ा हुआ!
वृत्त भंग हो गया था!
तभी त्रिशूल गिर गया था मेरे हाथ से!
मैंने आव देखा न ताव!
भाग छूटा उनकी तरफ!
त्रिशूल ताने!
और कवारीक्षा-विद्या का जाप करते करते मैंने त्रिशूल भूमि में गाड़ दिया! जैसे आवेश उठा विद्युत् का वहाँ! एक घेरा बना!
और सब गायब!
परन्तु समाप्त नहीं!
मैं लौटा!
जल्दी से एक वृत्त खींचा!
“आओ, जल्दी आओ!” मैंने कहा!
वे आ गए!
सुरक्षित थे हम!
फिलहाल के लिए!
सहसा!
फिर से जैसे बिजली कौंधी!
और हमारी आँखें चुंधिया गयीं!
मैंने और शर्मा जी ने अपने अपने हाथ आगे किये उस प्रकाश से बचने के लिए!
सामने देखा!
आठ डंडे गड़े थे वहाँ!
जैसे ध्वज के लिए गाड़े जाते हैं!
बड़े बड़े!
क्या औचित्य था? पता नहीं!
कुछ नहीं पता!
वे डंडे खम्भ थे!
हाँ!
खम्भ ही थे!
पूरे आठ!
लेकिन किसलिए?
ऐसा मैंने कभी नहीं देखा था,
न किसी भित्ति-चित्र में और न ही कहीं गुप्त-चित्रण में?
तो फिर ये था क्या?
किसलिए गाड़े गए थे वे खम्भ?
हम निहारते रहे वहाँ!
और कोई था नहीं!
“शर्मा जी, आप वृत्त में ही रहना, बाहर नहीं जाना” मैंने कहा,
“ठीक है” वे बोले,
अब मैंने वृत्त लांघा,
और बाहर चला,
त्रिशूल मेरे साथ ही था,
त्रिशूल कंधे पर ताने मैं चल दिया आगे,
देखने,
कि ये खम्भ हैं क्या?
उनके पास आया,
गौर से देखा,
ये तो ज़मीन फाड़कर बाहर आये थे!
किसी मंदिर के भी नहीं थे,
ये पत्थर था,
लाल रंग का बलुआ पत्थर!
कोई कारीगरी नहीं की गयी थी उन पर,
बस आकार गोल दिया गया था!
ऐसा खम्भ मैंने एक बार एक मंदिर के गुह्य-स्थान में देखा था,
लेकिन उसमे दीपमाल के लिए खांचे बने थे,
इसमें ऐसा नहीं था?
आठ!
आठ थे वे!
मैंने उनको देखा कि कैसे निकले हैं वे वहाँ?
एक खम्भे से दूसरे खम्भे के बीच की दूरी कोई छह फीट रही होगी,
ये तो सटीक था!
लेकिन ये था किसलिए?
तभी आवाज़ हुई!
मैं पीछे हटा!
वे खम्बे वापिस भूमि में जाने लगे!
और फिर चले गए!
रह गए मात्र सूराख!
ये था क्या?
कोई माया?
या क्या??
कुछ समझ नहीं आया!
“लौट जा!” एक आवाज़ आयी!
भारी-भरकम आवाज़!
जैसे आकाश दहाड़ा हो!
जैसे किसी यक्ष ने चेतावनी दी हो!
मैंने आगे पीछे देखा!
कोई नहीं था!
सामने भी कोई नहीं!
आये-दायें भी कोई नहीं!
“कौन है?” मैंने पूछा,
कलुष की जद से बाहर था वो!
“लौट जा!” फिर से आवाज़ आयी!
मैं खड़ा रहा!
“कौन है?” मैंने फिर से कहा,
कोई प्रतिक्रिया नहीं!
“सामने आओ?” मैंने कहा!
दो!
दो साधू!
झोला लटकाये!
मेरे सामने थे!
एक ने कमल-माल धारण किया हुआ था,
और दूसरे ने वैजन्ति-माल!
मैंने त्रिशूल कंधे से उतारा!
सामने किया!
और तैयार हो गया!
एक साधू ने झोले से कुछ निकाला!
मैंने देखा,
ये कनेर का पुष्प था!
श्वेत-कनेर!
मेरी तरफ उछाल दिया!
मुझे झटका लगा!
चेतना शून्य होने लगी!
सर में पीड़ा हुई!
पिंडलियों में जैसे सर्प-दंश सी पीड़ा जागी!
जलने लगे पाँव मेरे!
खड़ा न हुआ जाए!
मैंने तभी तौतिक का संधान किया और भूमि पर थूका!
थूकते ही वे पीछे हटे!
और मैं ठीक हुआ!
“जा, लौट जा!” उनमे से एक ने कहा,
“नहीं” मैंने कहा!
“प्राण गँवा देगा!” वो बोला,
“मैं बिना मिले नहीं जाऊँगा!” मैंने कहा,
“ये तेरा सौभाग्य नहीं!” वे दोनों बोले अब!
“तुम कौन होते हो ये कहने वाले?” मैंने पूछा,
वे चुप!
एक लोप हुआ!
और दूसरा सामने आया!
वो हंसा!
बहुत ज़ोर से हंसा!
मुझे देखा!
और फिर हंसा!
“जा!” वो बोला,
“नहीं” मैंने कहा,
“जा!” वो फिर से बोला,
“नहीं” मैंने कहा,
उसकी त्यौरियां चढ़ीं!
नथुने फड़के!
और उसके मुख से जैसे धुआं सा निकला!
मुझसे टकराया!
मैं नीचे गिरा!
चेतनाशून्य होने ही वाला था कि तौतिक ने काट की उसकी!
मैं खड़ा हो गया!
ये देख वो हैरान!
