वर्ष २०१० जिला मथुर...
 
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वर्ष २०१० जिला मथुरा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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कुछ मंत्र पढ़े,

और नेत्र बंद किये,

यहाँ मैंने फ़ौरन ही महाताम को जागृत किया,

और जैसे ही उसने अपना हाथ आगे किया,

टनाक!

टनाक की जैसे आवाज़ हुई!

मंत्र टकराए थे!

जैसे दो तलवारें भिड़ी हों एक दूसरे से!

हमारा कुछ अहित नहीं हुआ, और न उसका ही!

बस मन्त्रों में खंजन हुआ!

“जाओ” वो बोला,

“नहीं” मैंने कहा,

“क्या चाहते हो?” उसने पूछा,

“बाबा देवधर से मिलना” मैंने कहा,

“नहीं मिल सकते” वो बोला,

“कारण?” मैंने पूछा,

“कोई कारण नहीं” वो बोला,

“अब जाओ?” उसने फिर से कहा,

“नहीं” मैंने कहा,

अब वो आगे आया,

और फिर से कुछ पढ़ा!

और हाथ आगे किया,

इस से पहले मैं कुछ समझूँ, हम घुप्प अन्धकार में प्रवेश कर गए! माया का नाश हो चुका था! किसी सिद्ध की ये माया था! उसके सान्निध्य की माया! केले के वृक्ष हमारे दायें थे! आकाश में तारागण और चन्द्रमा जैसे हमे ही देख रहे थे! इस भूमंडल पर हम माया के खेल में फंसे थे! एक प्रबल माया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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घड़ी देखी, बहुत समय हो चुका था!

हम वापिस चले!

दूर रौशनी छन रही थी हमारे कोठरे की खिड़की से!

और हम यहाँ माया की खिड़की से बाहर निकाल दिए गए थे!

“चलिए” मैंने कहा,

“चाओ” वे बोले,

और हम चले,

वापिस कोठरे की तरफ!

वहाँ पहुंचे,

पानी पिया!

और लेट गए!

किसी ने कुछ नहीं कहा,

न शर्मा जी ने,

न ही मैंने,

अपने अपने मस्तिष्कों से अपने अपने तरीक़े से पेंच कस रहे थे, फिर निकालते और फिर कस देते!

इसी उहापोह में आँख लगी,

और हम सो गए!

सुबह हुई!

नरेश जी आये!

उन्होंने जगाया!

हम जागे!

हाथ-मुंह धोये, कुल्ला आदि किया और फिर चल पड़े कोठरे को बंद कर हम घर की तरफ!

वहाँ पहुंचे,

स्नान किया और फिर चाय-नाश्ता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम अपने कमरे में आ गए!

रात देर तक जागे थे तो आँखों में नींद भरी थी!

लेट गए,

बिस्तर ने नीद से सुरागरसी की,

तो नींद ने हल्ला बोला!

और हम सो गए!

जब नींद खुली, तो डेढ़ बजा था दोपहर का!

नरेश जी आये,

और भोजन के बारे में पूछा,

भोजन मंगवा लिया गया,

भोजन किया,

और फिर ख़तम किया भोजन!

“गुरु जी, सब सही तो है न?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“काम तो हो जाएगा?” उन्होंने पूछा,

“अवश्य ही” मैंने कहा,

प्रसन्न हुए!

मित्रगण!

अब दो दिन शेष थे पूर्णिमा आने में,

ये दो दिन दो साल से कम न था!

एक एक पल काटना दूभर था!

लगता था कि अभी भी हम उस प्रबल माया से ही ग्रसित हैं!

और मन से, सच में, बाहर ही नहीं आना चाहते हम!

अब जो होना था, वो दो दिन बाद ही होता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन, अब कटे कैसे ये दो दिन?

और दूर भी कहाँ, पहले दिन के कुछ घंटे भी शेष थे!

बड़ी भारी मुसीबत!

क्या करें?

कहाँ जाएँ?

क्या तफरीह ली जाए?

तो मित्रगण!

जब बात नहीं बनी, तो दोपहर में ही हम चल दिए उस कोठरे के तरफ! यहाँ आये तो चैन मिला, नज़रें जा टिकीं फिर से केले के वृक्षों पर! नरेश जी भी साथ ही थे! पानी पिया और बैठ गए!

कोई आधे घंटे के बाद मुझे कुछ गंध आयी,

घी जलने की,

कपूर जलने की,

मैं खड़ा हुआ,

बाहर गया,

और सामने देखा,

कोई भी नहीं था,

मैंने तभी कलुष-मंत्र का प्रयोग किया,

शर्मा जी भी आ गए, और नरेश जी भी,

मैंने नरेश जी को अंदर ही बैठे रहने को कह दिया,

और मन्त्र से अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर लिए,

नेत्र खोले,

और सामने देखा,

दीप जले थे सामने तो!

बड़े बड़े दीप!

“आओ” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“चलिए” वे बोले,

और हम चल पड़े!

सामने गए!

रुके!

दीप जहां जले थे, वहाँ कोई नहीं था!

तो फिर ये दीप?

ये कहाँ से आये?

किसने जलाये?

मैंने आसपास देखा,

कोई नहीं था!

कोई तो था वहाँ!

कोई तो अवश्य ही!

अब मैंने प्रत्यक्ष-मंत्र लड़ाया!

मिट्टी उठायी!

और सामने मारी!

ये क्या?

दीप बुझ गए!

फिर खंडित हो गए!

ये क्या हो गया?

मैं चौंका!

घबराया!

अप्रत्याशित घटा!

जो सोचा था, उसके विपरीत!

अब चौकस रहना था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वही हुआ!

वही श्वेत वस्त्रधारी साधू प्रकट हुआ!

दूर, थोड़ा दूर!

क्रोध में फुनकता हुआ!

हाथ में दंड लिए!

मोली का गट्ठर लिए!

क्रोधित!

खा जाने को तैयार!

अब जो हुआ, सो हुआ!

जानबूझकर नहीं किया था मैंने!

अपमान करने की नहीं सोची थी मैंने!

इसी कारण से मैं भी तैयार!

उसने अपना हाथ आगे किया,

कमल-मुद्रा बनायी!

मैं तैयार हुआ,

मैंने हरिण-मुद्रा बनायी!

उसने झटका दिया हाथ को!

मैंने हाथ नीचे किया!

मिट्टी उठी!

धूल उड़ी,

मंत्र टकराए!

मेरे केश उड़े!

आँखें बंद हुईं!

उसके वस्त्र उड़े!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आँखें बंद हुईं!

और जब खुलीं,

तो सामने ही थे हम दोनों!

वो क्रोधित!

परन्तु मैं नहीं!

मैं तो क्षमा मांगने को भी तैयार था!

और फिर से दूसरा आघात!

उसने फिर से नयन-मुद्रा बनायीं!

और मैंने कोपायन!

उसने हाथ आगे किया!

और मेरे पाँव उखड़े!

पाँव धंस चले भूमि में!

अब मैंने आगे किया हाथ!

उसके हाथ खुले!

सामग्री गिर पड़ी नीचे!

और झम्म से लोप हुआ!

आशंका!

अनिष्ट की आशंका!

“भागो!” मैंने कहा,

हम पलटे!

और भागे!

उस क्षण यही सटीक था!

क्रिया की नहीं जा सकती थी!

मंत्र जागृत नहीं थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्राण संकट में आ सकते थे!

मेरी गलती का खामियाज़ा शर्मा जी को भी भुगतना पड़ता!

हम भागे और आ गए कोठरे में!

आते ही फ़ौरन मैंने दहलीज को कीलित किया!

सप्त-मात्रिकाओं का डोरा खींचा और बैठ गए!

कोई बाहर नहीं जाने वाला था!

मैं चिंतित था!

बहुत चिंतित!

घंटा बीता!

कुछ नहीं हुआ!

कुछ नहीं हुआ था बुरा!

ये संतोष की बात थी!

मैंने दरवाज़ा खोला,

कोई गंध नहीं!

सब ठीक था!

“आओ” मैंने कहा,

वे उठे,

“नरेश जी, चलो” मैंने कहा,

“चलिए” वे बोले,

और ताला लगा कोठरे को हम चल दिए वापिस,

खेत से जैसे ही निकले हम!

वैसे ही ज़मीन में गड्ढे हो गए!

वहीँ पुराने जैसे!

हम चल दिए वापिस!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तो तैयारी करनी ही थी!

सशक्तिकरण करना था!

और इसके लिए मुझे चाहिए था,

गाँव का श्मशान!

सिवाना!

वहीँ से बात बनती!

वहीँ से आगे की कार्यवाही ज़ारी रखी जा सकती थी!

 

हम घर पहुंचे,

नहाये-धोये!

और फिर चाय-नाश्ता!

और फिर आराम किया!

रात वाली घटना से मन विचलित था!

मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया था, न ही मैं ऐसा कर सकता था! अमानत में ख़यानत हो चुकी थी, और ये वे कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे! कभी भी नहीं!

लेकिन अब मुझे तैयार होना था,

कल पूर्णिमा थी और मुझे इसी का इंतज़ार था अब!

दोपहर हुई!

सूर्य महाराज आज बहुत कुपित थे!

निकट चले आये थे आज भूमंडल के!

त्राहि-त्राहि मचा दी थी!

क्या पेड़, क्या पत्ती, क्या पौधा और क्या घास!

सभी त्रस्त!

और इंसान!

इंसानों की देह का तो पानी निचोड़ डाला था उन्होंने उस दिन तो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लू ऐसी चल रही थी कि खाल उतार फेंके!

उलीच दे, मांस से!

बड़ा बुरा हाल था!

और ऊपर से बिजली भी नहीं थी!

हाथ के पंखे से पंखा झल रहे थे हम!

मक्खियां तो जैसे होड़ में लगी थी, कि उड़ा के देखो, न आ जाऊं तो मक्खी नहीं कहना!

बहुत बुरा हाल था!

छत, दीवारें ऐसे तप रही थीं कि जैसे हम भट्टी में बैठे हों!

खैर,

दोपहर हुई,

भोजन लगाया गया,

भोजन किया और फिर से आराम!

और क्या करते!

नरेश जी वहीँ बैठे थे,

“नरेश जी, यहाँ सिवाना कहाँ है?” मैंने पूछा,

“है जी को दो किलोमीटर दूर” वे बोले,

“आज रात को जाना है वहाँ” मैंने कहा,

“जी” वे बोले,

“संध्या-समय सामान का प्रबंध करना होगा” मैंने कहा,

“जी” वे बोले,

“कल पूर्णिमा है, कल का दिन विशेष है” मैंने कहा,

“जी” वे बोले,

आराम किया तब,

और फिर हुई शाम,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नरेश जी गए सामान लेने,

और मैंने यहाँ अपना सारा सामान तैयार किया,

बाँध लिया,

और इंतज़ार किया सामान का,

नरेश जी आ गए,

मैंने सामान जांचा,

सब सही था!

घिरी रात,

भोजन किया,

और निकल पड़े सिवाने के लिए,

लाठी, डंडा और टॉर्च लिए,

वहाँ पहुंचे,

नितांत सन्नाटा,

कोई चिता नहीं,

कोई नहीं वहाँ!

हाँ, कुछ शेष लकड़ियां थीं वहाँ,

वे ही काम में आ सकती थीं!

अब मैंने उन दोनों को एक अलग जगह बिठाया,

वे बैठे,

और मैं सामान लेकर चला!

वहाँ बैठा,

लकड़ियां इकठ्ठा कीं,

और फिर उठा दी अलख!

अलख भोग दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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नमन किया!

गुरु नमन किया!

अघोर-पुरुष वंदना की!

और क्रिया आरम्भ!

मन्त्रों से वो स्थान गुंजायमान हो उठा!

अब मैंने एक एक करके समस्त आवश्यक मंत्र और विद्याएँ जागृत कर लीं! मुझे पूरे तीन घंटे लगे!

अब मैं उठा,

नमन किया!

और फिर वहाँ से सामान उठाया अपना!

और चल दिया!

वे दोनों ही वहीँ थे!

मेरी प्रतीक्षा करते हुए!

मैं आया तो खड़े हुए, और चल पड़े!

वहाँ से घर आये!

मैंने स्नान किया,

और फिर सोने के लिए बिस्तर थाम लिया!

नींद आ गयी!

आराम की नींद!

सुबह हुई!

हम उठे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए!

और फिर से चाय-नाश्ता!

और फिर से आराम!

हुई दोपहर!

किया भोजन!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर आराम!

अब रात की प्रतीक्षा!

अब हुई शाम!

और आयी रात!

रात को अर्धांगिनी स्वरुप मानते हैं औघड़!

ये समस्त सुख प्रदान करती है!

समस्त सुख!

रात से विशेष प्रेम होता है!

काम, रति, मद, क्रिया और कर्मठता का प्रतीक होती है रात!

सृजन-समय होता है ये!

सृष्टि की रचना रात्रि से हुई थी!

दिवस समय पोषण हुआ था!

इसी प्रकार ये रात समस्त सुख प्रदात्री है!

हाँ,

हुई रात!

और चले हम अब वहाँ!

मैंने सारा सामान लिया,

आज टक्कर थी!

ये टक्कर भयानक भी हो सकती थी!

प्राणहारी भी!

हम खेत तक पहुंचे,

नरेश जी वापिस हुए,

नमस्कार करते हुए!

जैसे ही पाँव रखे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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भूमि में कम्पन सा हुआ!

मैं समझ गया!

आज सम्भावना है कि आज संग्राम होगा!

मैंने यमत्रास-मंत्र का जाप किया,

तौतिक को सम्मुख भिड़ाया,

और चल दिए आगे!

रास्ता बनता चला गया!

बिना किसी अवरोध के!

कोठरे तक पहुंचे,

ताला खोला,

और अंदर प्रवेश किया!

सामान रखा,

मैंने खोला सामान, अपना त्रिशूल लिया,

और फिर अपना आसन!

कुछ ईंधन,

मांस,

सामग्री,

मदिरा,

भस्म-दान,

खंजर,

यवुटी,

खंचिका,

ये सारा सामान उठाया,

और शर्मा जी को साथ लिया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब आसन बिछाया,

शर्मा जी को साथ बिठाया,

और ईंधन लिया,

और मंत्र पढ़ते हुए सुलगा दिया!

खेत के मध्य भाग में एक अलख भड़क उठी!

अलख भोग अर्पित किया,

आसन-पूजन किया!

अलख-पूजन किया,

और फिर,

तंत्राभूषण निकाले,

स्वयं पहने और उनको भी धारण करवाये!

और फिर महानाद किया!

अघोर-नाद!

और सामने!

सामने मैंने अब मांस का एक टुकड़ा अभिमंत्रित करके फेंका!

जैसे ही वो टुकड़ा गिरा,

वैसे ही जैसे भंवर उठ गयी वहाँ!

प्रकट हो गया वो श्वेत वस्त्रधारी!

वही साधू!

वो आया उधर!

द्रुत-गति से!

जैसे पाँव में पहिये लगे हों!

ये सामर्थ्य था उसका!

“मैंने कहा था, चले जाओ!” वो बोला,


   
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