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वर्ष २०१० जिला मथुरा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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लम्बे लम्बे केश!

और ऊंचा कद!

“आओ” वो बोला,

हम चले,

वो ले गया हमे अपने साथ, एक वृक्ष के नीचे,

“बैठो” उसने कहा,

हम बैठ गये!

ये एक चबूतरा सा था,

पीपल के फल पड़े थे वहाँ,

हमने हाथ से साफ़ किये वो फिर बैठे,

“कौन हो तुम?” उसने पूछा,

मैंने परिचय दिया उसको!

“अच्छा!” वो बोला,

“आप कौन हैं?” मैंने पूछा,

“सेवक” उसने कहा,

“किसके?” मैंने पूछा,

“बाबा देवधर” उसने कहा,

“कहाँ हैं बाबा?” मैंने पूछा,

“यहीं हैं” वो बोला,

“यहीं कहाँ?” मैंने पूछा,

“समाधिलीन हैं” वो बोला,

“कहना है समाधि?” मैंने पूछा,

“भूमि के अंदर” उसने कहा,

भूमि के अंदर समाधि!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कमाल था!

“कितने वर्ष हुए?” मैंने पूछा,

“इक्कीस” वो बोला,

“मुझे ले जाओ वहाँ?” मैंने कहा,

“आज्ञा नहीं है” उसने कहा,

“कौन देगा आज्ञा?” मैंने पूछा,

“स्व्यं बाबा देवधर” वो बोला,

अब वो क्यों देंगे आज्ञा?

“अब जाओ यहाँ से” वो बोला,

“नहीं” मैंने कहा,

“जाओ, कभी लौट के नहीं आना” वो बोला,

“नहीं” मैंने कहा,

“परिणाम नहीं जानते?” उसने कहा,

“जानता हूँ” मैंने कहा,

“भय नहीं?” उसने पूछा,

“कैसा भय?” मैंने पूछा,

“यहीं क़ैद हो जाओगे!” उसने कहा,

“कौन करेगा क़ैद?” मैंने पूछा,

“वो” उसने इशारा करके कहा सामने,

मैंने सामने देखा,

एक बाबा!

बुज़ुर्ग बाबा!

हाथ में कमंडल!

और हस्त-दंड!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गले में मालाएं!

क्रोध में मुझे देखे!

मैं खड़ा हुआ!

शर्मा जी भी खड़े हुए!

उस बाबा ने मुझे देखा,

और अपने कमंडल से पानी लिया और फेंक दिया हम पर!

घुप्प अँधेरा!

केले के वृक्ष!

हम यथार्थ में धकेल दिए गये थे!

धूप गायब!

बस तिमिर रह गया मात्र!

हम रुके,

आसपास देखा!

दूर हमारे कोठरे से बत्ती की रौशनी आ रही थी!

“चलो” मैंने कहा,

“चलिए” वे बोले,

हम चल पड़े!

वापिस हुए!

और फिर अपने कोठरे में पहुंचे!

“बड़ी प्रबल माया थी!” वे बोले,

दरवाज़ा बंद करते हुए!

“हाँ” मैंने कहा,

“सब असली” वे बोले,

“हाँ, उनका उद्देश्य पूर्ण हुआ” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“उद्देश्य? कैसा उद्देश्य?” उन्होंने पूछा,

“चेतावनी देने का” मैंने कहा,

”अच्छा” वे बोले,

“हाँ” मैंने कहा,

घड़ी देखी!

रात के बारह से अधिक का समय था!

“अब सो लिया जाए?” मैंने कहा,

“जी” वे बोले,

और हम लेट गए!

आँख लग गयी!

हम सो गए,

करीब ढाई बजे!

आवाज़ें आयीं!

खट! खट! खट!

हम दोनों ही उठ गए!

खिड़की से बाहर देखा,

दूर अँधेरे में, मद्धम रौशनी में दो लोग कुछ काट रहे थे, कुल्हाड़ी से!

यही नज़र आया!

मैंने दरवाज़ा खोला,

शर्मा जी को साथ लिया.

और चल दिया उधर ही!

वहाँ पहुंचे,

ये एक पेड़ था,

भूमि पर गिरा हुआ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो उसी को काट रहे थे!

टुकड़ों में!

हमे देखा तो रुक गए!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

इतना सुनना था कि वे दोनों और वो पेड़, गायब!

अब कुछ नहीं था वहाँ!

सो वापिस हो लिए हम!

फिर से कोठरे में आ गए!

और लेट गए!

फिर से खट! खट! खट!

बाहर झाँका,

खिड़की से,

वही दोनों!

मैंने फिर दरवाज़ा खोला!

शर्मा जी को साथ लिया!

और चल दिया वहाँ,

वहाँ पहुंचे,

उन्होंने फिर से देखा,

और चुप!

खड़े रहे!

“कौन हो तुम लोग?” मैंने पूछा,

“सेवक” वे बोले,

“किसके?” मैंने पूछा,

“बाबा देवधर के” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“कहाँ हैं बाबा?” मैंने पूछा,

“समाधि में हैं” मैंने कहा,

“कब उठेंगे?” मैंने पूछा,

“उठने को हैं” वो बोले,

“कब उठेंगे?” मैंने पूछा,

“कुछ दिनों बाद” वे बोले,

और फिर से पेड़ की कटाई शुरू!

“कितने दिन रहे समाधि में?” मैंने पूछा,

“इक्कीस बरस” वे बोले,

“अच्छा” मैंने कहा,

फिर से खट! खट! खट!

“ये किसलिए काट रहे हो?” मैंने पूछा,

“ईंधन” वे बोले,

“अच्छा” मैंने कहा,

“किसलिए?” फिर से पूछा,

“पंगत बैठेगी न!” उसने कहा,

“अच्छा!” मैंने कहा,

फिर से कटाई शुरू!

और मैं देखूं उन्हें खड़े खड़े!

 

खट! खट! खट!

वो अपने काम में मग्न थे!

कुशलता से काम कर रहे थे!

लकड़ी काटते और फिर एक जगह रख देते!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“सुनो?” मैंने कहा,

वे रुके,

मुझे देखा,

“मुझे ले जाओगे बाबा के पास?” मैंने पूछा,

एक दूसरे को देखा उन्होंने!

“आज्ञा नहीं है” वे बोले,

“आज्ञा कौन देगा?” मैंने पूछा,

“बाबा” वे बोले,

“बाबा देवधर?” मैंने पूछा,

“नहीं” वे बोले,

अब मैं चौंका!

“तो फिर?” मैंने पूछा,

“बाबा आंजनेय” वे बोले,

“बाबा आंजनेय?” मैंने पूछा,

“हाँ, बाबा आंजनेय” वे बोले,

“कहाँ हैं बाबा आंजनेय?” मैंने पूछा,

“अपनी कुटिया में” वे बोले,

कुटिया!

अच्छा!

वो तो वहीँ थी!

लेकिन वहाँ कोई नहीं था!

“मुझे ले चलो उनके पास?” मैंने कहा,

“चलो” एक बोला,

एक काम में लग गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“आओ शर्मा जी” मैंने कहा,

और वो चला आगे!

फिर से धूप हुई!

और मुझे हैरत!

“आओ” वो बोला,

हम चले,

मवेशी रम्भाये!

कुटिया आ गयी!

“यहाँ हैं वो” वो बोला,

“धन्यवाद” मैंने कहा,

अब हम चढ़े ऊपर,

और फिर आये कुटिया के सामने,

जूते उतारे,

और अंदर चले,

अंदर एक दीप जला था!

बड़ा सा!

दो साध्वियां और एक साधू बाबा बैठे थे!

हमे देखा उन्होंने!

नज़रें मिलीं!

“आओ, बैठो” वो बोला,

हम बैठ गये!

फूस बिछी थी वहाँ!

सब ओर पूजा का सामान फैला था!

फूल, गुग्गल और न जाने क्या क्या!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“आप ही बाबा आंजनेय हैं?” मैंने पूछा,

“हाँ” वे बोले,

“प्रणाम” मैंने कहा,

“प्रणाम” वे बोले,

मैंने साध्वियों को देखा,

हमको ही देख रही थीं!

“प्रयोजन बताइये?” वो बोला,

“मुझे बाबा देवधर से मिलना है” मैंने कहा,

“नहीं मिल सकते” वो बोला,

:क्यों?” मैंने पूछा,

“समाधिलीन हैं” वो बोला,

“कब उठेंगे?” मैंने पूछा,

“अभी समय है” वो बोला,

“कितना समय?” मैंने पूछा,

“है अभी समय” वो बोला,

“मुझे कैसे पता चलेगा?” मैंने पूछा,

हंसा वो!

पता चल जाएगा!

पता चल जाएगा!

अर्थात?

क्या अर्थ हुआ इसका?

कैसे पता चलेगा?

“अब जाइये आप” वो बोला,

हम खड़े हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और चले गए बाहर!

जूते पहने,

और वापिस हुए!

जैसे ही पलक बंद हुई,

वैसे ही घुप्प अँधेरा!

न वो पेड़!

न कुटिया!

न वे दोनों!

कुछ नहीं!

केवल अँधेरा!

बस!

घुप्प अँधेरा!

दूर कोठरे से आती रौशनी बस!

और कुछ नहीं!

हम बढ़ चले कोठरे की तरफ!

पहुंचे,

दरवाज़ा बंद किया!

घड़ी देखी!

सवा चार!

अब हम लेटे!

“क्या अजब-गज़ब माया है!” वे बोले,

“हाँ!” मैंने कहा!

“कोई विश्वास करेगा?” उन्होंने कहा,

“नहीं” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“क्या क्या है संसार में!” वे बोले,

“अद्भुत!” मैंने कहा,

फिर हम सो गए!

आ गयी नींद!

सुबह करीब आठ बजे आये नरेश जी!

आवाज़ दी,

हम उठे!

नमस्कार हुई!

पानी पिया!

हाथ-मुंह धोये!

और फिर चले घर!

सामान लेकर!

घर पहुंचे!

नहाये धोये!

और फिर चाय-नाश्ता!

आंजनेय बाबा की शक्ल याद थी मुझे!

अभी भी!

और वे दोनों साध्वियां भी!

दोपहर हुई!

भोजन किया!

और फिर आराम किया!

शाम हुई!

रात घिरी!

सामान का प्रबंध करा लिया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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भोजन किया और अपना सामान लेकर चल दिए हम खेतों की तरफ!

नरेश जी लौट गए!

आज कोई वार नहीं!

न पानी!

न गड्ढे!

और न ही टीले!

सब शांत!

कोठरे तक आये,

खोला और अंदर गए!

सामान रखा!

और फिर पानी पिया!

आज गर्मी हद से अधिक थी!

मैं बाहर आया,

सामने देखा!

कुछ नहीं था!

फिर से अंदर आ गया मैं!

“सलाद निकालिये” मैंने कहा,

सलाद निकाल ली,

“पानी ले आओ” मैंने कहा,

“पानी लाता हूँ” वे बोले,

और बाहर चले!

तभी उनकी आवाज़ आयी!

मैं भाग कर बाहर गया!

“वो सामने” वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सामने चार साधिकाएं खड़ी थीं!

जैसे पूजन के लिए आयी हों!

मैं भागा उस तरफ!

शर्मा जी भी!

आज कोई मंत्र जागृत नहीं किया था!

इस से वे गंध लेकर भाग जाते थे!

हम वहाँ पहुंचे!

साधिकाओं ने देखा!

एक मुस्कुरायी!

वो कल बाबा आंजनेय के साथ थी!

“प्रणाम!” वो बोली,

“प्रणाम!” मैंने कहा,

वो आगे आयी!

“पूजन हेतु आये हैं?” मैंने पूछा,

“हाँ” वो बोली,

“क्या नाम है तुम्हारा?” मैंने पूछा,

“मंजरी” वो बोली,

“अच्छा!” मैंने कहा!

“बाबा आंजनेय वहीँ हैं?” मैंने पूछा,

“हाँ, वो वहीँ रहते हैं” वो बोली,

“मंजरी, मेरी मदद करोगी?” मैंने पूछा,

“कहिये?” उसने कहा,

“मुझे बाबा देवधर से मिलवा दो?” मैंने कहा,

“वे समाधिलीन हैं अभी” वो बोली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“कब तक?” मैंने पूछा,

“पूर्णिमा तक!” उसने कहा,

हां!

अब बनी थी बात!

यही तो मैं पूछना चाहता था!

कोई नहीं बता रहा था!

मंजरी ने बता दिया!

मैं मुस्कुराया!

“मदद के लिए आपका आभारी हूँ!” मैंने कहा,

वो मुस्कुरायी!

थाली से एक पुष्प लिया,

और मुझे दिया!

वो पुष्प आज भी है रखा हुआ!

ये गैंदे का पुष्प है!

मैंने उसके कुछ बीज बोये थे, वे आज भी चल रहे हैं!

मैंने पुष्प रख लिया!

“अब हम चलती हैं” वो बोली,

“अच्छा!” मैंने कहा!

और वे सब चली गयीं!

मैं ताकता रह गया!

मंजरी!

और हाँ!

पूर्णिमा!

हिसाब लगाया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पूर्णिमा आने में अभी तीन दिन थे!

अब मारा जिज्ञासा ने दंश!

हुआ बेहाल!

जल्दी आये पूर्णिमा!

जल्दी!

कैसे कटे समय?

कैसे?

“जाओ लौट जाओ” आवाज़ आयी!

मैं घूमा,

शर्मा जी घूमे!

पीछे एक बाबा खड़ा था!

श्वेत वस्त्रों में!

साधू!

साधू बाबा!

 

वर्ष २०१० जिला मथुरा की एक घटना – Part 2

Posted on December 2, 2014 by Rentme4nite

“जाओ, अब लौट जाओ” वो बोला,

वो हमसे करीब दस फीट दूर था, और उसकी आवाज़ बहुत दमदार और प्रभावी थी, गूँज रही थी! हाथ में एक पीतल का पात्र लिए और साथ में कुछ दूब की घास लिए वो खड़ा था,

“जाओ अब” वो बोला,

“नहीं, हम नहीं जायेंगे” मैंने कहा,

“जाओ इसी क्षण” वो बोला,

“नहीं” मैंने कहा,

तब उसने दूब वाला हाथ आगे किया,


   
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