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वर्ष २०१० जिला मथुरा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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यही लगा!

मैंने देखा सामने!

कोई तो था,

लेकिन स्पष्ट नज़र नहीं आ रहा था!

और तभी जैसे उसी ने कुछ फेंका हम पर!

ये जल था!

हमारे ऊपर गिरा!

अभिमंत्रित जल!

लेकिन अभय-मंत्र से साधारण जल हो गया था!

“मेरे सामने आओ?” मैंने कहा,

कोई उत्तर नहीं!

“आओ?” मैंने कहा,

कोई नहीं!

कोई नहीं आया!

बस!

बहुत हुआ ये लुकाछिपी का खेल!

मैंने अब भस्म निकाली!

महा-अभिमन्त्रण किया!

और फेंक दिया सामने!

एक चीख गूंजी!

मर्दाना चीख!

चोट लगी थी किसी को!

कोई आ गया था चपेट में मंत्र की!

माहौल भयानक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खौफनाक!

पल में कुछ भी हो सकता था!

कुछ भी!

फिर से मैंने मिट्टी उठायी!

फिर से महा-अभिमन्त्रण!

और फिर से फेंका सामने!

अब सब शांत!

कोई नहीं था!

कोई भी नहीं!

“आओ मेरे साथ” मैंने कहा,

“चलिए” वे बोले,

हम वहाँ गए जहां से वो चीख गूंजी थी!

वहाँ कुछ नहीं था!

तभी!

तभी शर्मा जी को कुछ दिखा,

नीचे बैठे वो!

और कुछ उठाया!

ये एक घंटी थी, छोटी सी!

छोटी सी घुँघरू के बराबर की घंटी!

उन्होंने मुझे दी!

मैंने देखा,

ये सोने की बनी थी!

करीब पच्चीस ग्राम की, अधिक से अधिक!

मैंने बजा के देखी! बजी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुरीली सी आवाज़!

“ये उसकी की होगी! गिर गयी होगी!” मैंने कहा,

“हाँ” वे बोले,

अब सब शांत था वहाँ!

कुछ नहीं हुआ था!

मैंने वो घंटी रख ली अपने बैग में!

“चलो यहाँ से” मैंने कहा,

“चलिए” वे बोले,

और अब चले हम!

घंटे से अधिक हो चुका था!

और युद्ध की रण-भेरी बजा दी थी मैंने!

हम कोठरे में पहुंचे!

बेचैन!

बेसब्र!

वे दोनों!

प्रतीक्षारत!

आँखें फाड़के देखते हुए!

“कुछ पता चला जी?” नरेश जी ने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“क्या गुरु जी?” उन्होंने पूछा,

“शर्मा जी, बता दो इनको” मैंने कहा,

और शर्मा जी ने बताना शुरू किया!

ज्यों ज्यों बताते गये!

वैसे वैसे उनका वजन घटने लगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन दोनों का!

मैंने हिम्मत बंधाई उनकी!

ताक़ीद की कि अब कोई कैला नहीं आये यहाँ!

और आज रात हम, मैं और शर्मा जी, यहीं इसी कोठरे में रहने वाले थे!

भोजन करें के बाद यहीं आना था हमको!

वे मान गए!

“ठीक तो हो जाएगा ना?” दिनेश जी ने पूछा,

“पूरा प्रयास करूँगा!” मैंने कहा,

“बचा लो गुरु जी, यही है हमारे पास बस!” दिनेश जी हाथ जोड़ते हुए बोले,

“घबराओ नहीं” मैंने हाथ नीचे करते हुए उनके, कहा,

वे दोनों डर गए थे!

भयभीत थे!

कारण भी था!

अब यहाँ कुछ भी हो सकता था!

किसी ने चोट खायी थी!

कार्यवाही अवश्य ही होनी थी!

और मुझे प्रतीक्षा थी इसकी!

 

हम तभी वापिस आ गए!

सीधे घर!

घबरा तो गए थे सो उनका जी उचाट था!

मैंने बहुत समझाया उनको, लेकिन भय जब एक बार मन में घर कर लेता है तो चिपक जाता है, फिर केवल प्रमाण से ही उसको खुरचा जा सकता है! यही था उनके साथ!

घर आये,

पानी पिया और सीधे अपने कक्ष में चले गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैंने अपना बड़ा बैग तैयार किया!

सामान तैयार किया!

सामग्री आदि की जांच की!

और फिर एक कागज़ पर सामान लिखा, ये लाना था, ज़रूरी था!

कागज़ शर्मा जी को दिया,

वे चले बाहर और कागज़ दे दिया नरेश जी को,

नरेश जी तभी चल पड़े सामान लाने के लिए!

और शर्मा जी आ गए मेरे पास!

“आज वहीँ रहेंगे ना?” उन्होंने पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“तो आज फैंसला आ जाएगा!” वे बोले,

“उम्मीद है” मैंने कहा,

फिर लेट गए हम!

थोड़ा आराम करने के लिए!

“वो हाथ बड़ी तेज मारा था किसी ने” वे बोले,

“हाँ” मैंने कहा,

“भुगता भी तो फिर?” वे बोले,

“पता नहीं वो था कि कोई और?” मैंने कहा,

“वही होगा! कोई चेरा-वेरा!” वे बोले!

मुझसे हंसी आ गयी!

बृज-भाषा बोली थी उन्होंने!

चेला को चेरा कहा जाता वहाँ!

ठेठ देहाती भाषा में!

“हाँ कोई चेरा-वेरा ही होगा!” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“चीखा कैसे! जैसे गोली मार दी हो!” वे बोले,

“वो मंत्र गोली ही है!” मैंने कहा,

“अच्छा!” वे बोले,

“हाँ, अशरीरी पर ऐसा ही आघात करता है वो मंत्र!” मैंने कहा,

“तभी! तभी चीखा वो!” वे बोले,

“हाँ!” मैंने कहा,

तभी वो घंटी याद आयी मुझे!

“वो घंटी? निकालना ज़रा?” मैंने पूछा,

“अच्छा” वे बोले,

उठे वो,

बड़े बैग तक गए,

बैग खोला और वो छोटा बैग निकाल लिया!

और फिर घंटी!

बजाई!

सुरीली सी आवाज़!

“ये लीजिये” वे बोले,

मैंने ली,

हाथ में रखी!

उलट-पुलट के देखा,

विशुद्ध सोना!

हाथ से बनी हुई!

उसमे जो घंटक था, वो भी सोने का ही था!

कमाल की कारीगरी थी!

फिर मैंने और गौर से देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई चिन्ह आदि ही मिल जाए?

कुछ नहीं!

कुछ नहीं मिला!

मैंने बजायी!

मीठी सी आवाज़!

अचानक से मुझे कुछ ध्यान आया!

मैंने सुना था, ये ध्वनि-नियंत्रक के रूप में प्रयोग होती थीं!

मैंने फिर से बजायी!

उसकी मधुर गूँज उठी!

मैंने समय पर ध्यान दिया, कि कब तक बजती है!

गूँज कुछ सेकंड की ही थी!

यदि बहुत सारी हों तो काम बनता!

“रख दीजिये” मैंने कहा,

उन्होंने ली,

बजायी!

और फिर रख दी!

तभी नरेश जी आ गए!

सामान ले आये थे सारा!

मैंने जांच की, सब ठीक था!

“ये, रखवा दीजिये नीचे किसी ठंडी जगह में” मैंने कहा,

ये मांस था, आवश्यक था! पूजा में लगता!

“जी” वे बोले,

हाँ, बोतल दो लेकर आये थे वो!

एक हमारे लिए और एक भोग के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे चले गए,

“कब निकलना है?” शर्मा जी ने पूछा,

“खाना खा लें, हल्का-फुल्का, फिर चलते हैं” मैंने कहा,

“ठीक है” वे बोले,

फिर हुई शाम!

रात दूर खड़ी थी अभी!

लालिमा छायी थे अभी पश्चिमी क्षितिज पर!

सूर्य महाराज अस्तांचल में प्रवेश करने वाले थे,

कुछ ही लिखत-पढ़त बाकी थी तब!

कुछ देर में,

वो भी हो गयी!

कर गए प्रवेश अस्तांचल के महल में!

अब सलोनी रात्रि चली!

ठुमकते हुए आ पहुंची!

चन्द्र और तारागण हो गए तैनात!

जैसे सूर्य के प्रकाश से भयभीत थे पूरे दिन भर!

खाना आया!

हमने खाया!

और फिर कुछ सलाद लेकर साथ में, चल पड़े हम खेतों के लिए!

दिनेश और नरेश जी को आज घर में ही रहना था, लेकिन नरेश जी साथ ही चले हमारे, वे खेत तक हमको छोड़कर चले आते वापिस!

हम पहुंचे!

सामान सारा हमारे पास!

अब लौटे नरेश जी वापिस!

और हम गए खेत में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे ही प्रवेश किया!

गड्ढे बन गए वहाँ!

बड़े बड़े गड्ढे!

भयावह स्थिति!

उसमे गिरो,

और दफन हो जाओ!

कुछ पता ही ना चले!

मैंने फिर से अभय-मंत्र चलाया!

मंत्र जागृत हुआ!

कलुष-मंत्र चलाया!

जागृत हुआ!

नेत्र पोषित किये!

अपने भी और शर्मा जी के भी!

फिर तौतिक, एराल, महाताम, एवंग और द्युम्न-मंत्र जागृत किये!

महाताम से शर्मा जी का शरीर सशक्त किया!

तौतिक से उनके प्राण स्थिर किये!

और अब खेत में कदम रखा!

सब ठीक ठाक!

हम सामान उठाकर चल दिए कोठरे तक!

वहाँ पहुंचे,

मैंने ताला खोला,

और अब अंदर प्रवेश किया!

बत्ती जलायी!

देसी-लट्टू जल उठा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने अब सामान रखा एक चारपाई पर!

फिर शर्मा जी ने!

और हम बैठ गए!

अब मदिरापान कर, ध्यान केंद्रित करना था!

ताकि कोई व्यवधान ना हो!

शर्मा जी को भी अपने साथ ही रखना था!

अकेले छोड़ने में बाधा हो सकती थी!

“सलाद निकाल लो!” मैंने कहा,

सलाद निकाल ली,

“पानी ले आइये” मैंने कहा,

गिलास लाये ही थे हम!

शर्मा जी बाहर गए!

और मुझे फिर उनकी आवाज़ आयी!

‘गुरु जी! गुरु जी!’

मैं बाहर भागा,

“वो सामने?” वे बोले,

मैंने देखा!

झुण्ड! झुण्ड साधुओं का!

दूर खड़ा!

बत्ती के मद्धम प्रकाश में उनके पाँव चमक रहे थे! चाँद की रौशनी से वे स्पष्ट दीख रहे थे!

“तो आ गए ये!” मैंने कहा,

मैं आगे तक गया,

फिर लौटा!

“आइये अंदर!” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पानी लिया उन्होंने,

अब मैंने कमरे की दहलीज पर मंत्र से एक रेखा काढ़ दी! सुरक्षा रेखा!

और हम अंदर बैठ गए!

“गिलास बनाओ जल्दी” मैंने कहा,

गिलास बनाया और मैंने एक मंत्र पढ़ते हुए गले से नीचे उतार दी मदिरा!

और फिर उन्होंने भी!

फिर सलाद ली!

आज संग्राम होना था! ये तय था!

 

हमने मदिरापान आरम्भ किया!

और साथ में सलाद!

तभी हवा चली!

बहुत तेज!

बहुत तेज!

दरवाज़े भड़भड़ा गए दोनों ही!

उनमे से छन के गर्म हवा आने लगी अंदर!

ये मन्त्र-प्रोग था!

वे मन्त्र चला रहे थे!

परन्तु हम सुरक्षित थे!

तौतिक-मंत्र ने स्थिर रखे हुआ था हमको!

फिर से हवा चली!

एकदम गरम!

ये आगाज़ था!

आमंत्रण था मैदान में आने का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम निश्चिन्त बैठे थे!

आराम से अपनी मदिरा रानी का हुस्न छान रहे थे!

वो भी अपने हुस्न की क़वायद से हमको उकसा रही थी!

मैं खड़ा हुआ!

दरवाज़े की झिरी से बाहर झाँका!

वे वहीँ थे!

टहलते हुए!

सभी!

सभी का निशाना हम थे!

फिर से हवा चली!

इस बार छोटे छोटे कंकड़ आ टकराए दरवाज़े से!

लगता था जैसे आंधी चली हो!

जबकि पेड़ शांत थे!

एक पत्ता भी नहीं हिला था!

और फिर हमने कर लिया मदिरापान!

अब मंत्र होने थे तीक्ष्ण और बलवान!

मैं उठा!

दरवाज़ा खोला!

अपना बैग खोला, अपना त्रिशूल लिया और अभिमन्त्रण किया! फिर तंत्राभूषण धारण किये, मैंने भी और शर्मा जी को भी धारण करवाये!

अपने साथ शर्मा जी को लिया,

और चल दिए बाहर!

वे सब वहीँ थे!

उन्ही केले के पेड़ों की तरफ!

वे हुए चौकस!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मैं हुआ मुस्तैद!

मैं रुका!

एक जगह!

और अपने त्रिशूल से एक वृत्त खींचा भूमि पर!

“आओ इसमें” मैंने कहा,

वे आ गये!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

ठहाका!

हंसी!

उपहास वाली हंसी!

“सामने आओ मेरे?” मैंने कहा,

और तब!

तब एक आया सामने!

काली दाढ़ी-मूंछों में! हस्त-दंड साथ लिए,

हाथ में रुद्राक्ष-माल लिए!

सामने रुका!

कोई दस फीट!

श्वेत वस्त्रों में!

“कौन है तू?” उसने पूछा.

“तू कौन है?” मैंने पूछा,

“परिचय दे?” उसने कहा,

अब मैंने बताया!

“चला जा, ये तेरा विषय नहीं” वो बोला,

“मैं नहीं जाऊँगा, ये तुम्हारी भूमि नहीं” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ठहाका!

सभी हँसे!

“ये हमारी भूमि है!” वो बोला,

“नहीं” मैंने कहा,

“चला जा, कहे देता हूँ” उसने कहा,

“नहीं जाऊँगा” मैंने कहा,

“देह से प्राण हर लिए जायेंगे!” वो बोला,

“प्रयास कर सकते हो” मैंने कहा,

उसने तभी अपना हाथ आगे किया,

और दिया झटका!

गरम झोंका!

बाल तक उड़ चले हमारे!

लेकिन कुछ नहीं हुआ!

तौतिक भिड़ गया था!

हम सुरक्षित थे!

वो भौंचक्का!

फिर से हाथ आगे किया!

मंत्र पढ़ा!

और झटका दिया!

फिर से गरम झोंका!

हमारे वस्त्र भी हो गए गरम!

परन्तु हम सुरक्षित!

अवाक!

सन्न!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने पीछे देखा,

एक और आगे आया!

वो भी वैसा ही था!

उसने भी हाथ आगे किया और झटका दिया!

मंत्र प्रहार!

फिर से गरम झोंका!

फिर से वस्त्र गरम!

परन्तु!

कुछ नहीं हुआ!

तौतिक डटा हुआ था!

तभी हम सुरक्षित थे!

और वे अवाक!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

“सेवक” वो बोला,

“किसके?” मैंने पूछा,

“बाबा के” वो बोला,

“कौन बाबा?” मैंने अगला प्रश्न किया,

“बाबा देवधर” वो बोला!

अब समझा!

समझा!

तो ये बाबा देवधर का स्थान है!

“कहाँ हैं बाबा?” मैंने पूछा,

“यहीं हैं” वो बोला,

“बुलाओ बाबा को?” मैंने कहा,


   
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