“कुछ नहीं बताना उनको” मैंने कहा,
“नहीं, कुछ नहीं” वे बोले,
और फिर नरेश जी को लेकर हम आ गए उस कोठरे में!
हम अंदर आ बैठे!
“कुछ पता चला?” नरेश जी ने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“क्या है जी?” उन्होंने पूछा,
“कोई है यहाँ” मैंने कहा,
वे घबराये!
“कौन?” उन्होंने पूछा,
“अभी मुझे भी नहीं पता” मैंने कहा,
“खतरनाक है जी?” उन्होंने पूछा,
“नहीं” मैंने कहा,
“क्या चाहते हैं?” उन्होंने पूछा,
“पता नहीं” मैंने कहा,
“ओह…: वे बोले,
अब तक दिनेश भी आ चुके थे,
नरेश जी ने उन्हें भी ये बात बता दी,
वे भी चौंक गये!
आदमी चौंकता है है, आखिर कैसे ये अचानक हो गया? पहले तो कभी नहीं हुआ? अब क्यों? ऐसे बहुत से सवाल होते हैं मन में!
इसलिए चौंकना लाजमी है!
“अब कैसे होगी जी?” उन्होंने पूछा,
“देखते हैं” मैंने कहा,
“छुटकारा दिलाओ जी” वे बोले,
“मैं और देखूंगा अभी” मैंने कहा,
फिर मैंने पानी माँगा,
पानी आया,
और पानी पिया मैंने,
शर्मा जी ने भी पिया!
“कभी हमारे बाप-दादाओं के सामने भी ऐसा नहीं हुआ जी, अब पता नहीं कैसे हो गया” वे बोले,
“हो जाता है, कभी-कभार इतिहास जीवित हो जाता है किसी वर्त्तमान के समय-खंड पर!” मैंने कहा,
उन्हें समझ नहीं आया,
अब मेरे सामने एक समस्या थी,
कि कैसे पता किया जाए?
स्थान यहाँ था नहीं कोई भी ऐसा?
घर से कुछ हो नहीं सकता,
बचा ये स्थान,
यहीं से कुछ हो तो हो,
नहीं तो अपने स्थान से ही पता चले!
लेकिन फिर सवाल ये, कि पता कैसे किया जाए?
कौन है यहाँ?
क्या चाहते हैं?
अचानक से कैसे जागृत हो गए?
ऐसे बहुत से सवाल!
बहुत से सवाल थे मन में!
“अब चलिए घर” मैंने नरेश जी से कहा,
“चलिए जी” वे बोले,
दिनेश वहीँ रुकने वाले थे अभी,
सो हम तीन चल दिए वापिस घर के लिए,
पैदल पैदल पहुँच गए घर!
फिर से पानी पिया!
गर्मी ने पानी सोख लिया था, सोखे जा रही थी!
पसीना ऐसे आता था जैसे नहा के आये हों!
फिर किया स्नान!
थोड़ा सुकून मिला!
राहत हुई!
हालांकि फिर से वही हाल होना था दोबारा भी!
फिर भी स्नान करने से गर्मी से कुछ राहत के पल छीन ही लिए थे!
फिर नरेश जी दूध ले आये,
हमने दूध पिया फिर!
डकार आ गयी!
मजा आ गया!
गाँव के दूध की बात ही अलग है! ताज़ा दूध! यहाँ के मवेशी चारा बढ़िया और ताज़ा खाते हैं इसलिए! शहरों का तो बुरा हाल है!
अब हम एक कक्ष में गए!
यहाँ कुछ राहत थी!
“गुरु जी?” शर्मा जी ने कहा,
“हाँ?” मैंने कहा,
“कोई सात्विक सा स्थान जान पड़ता है वो” वे बोले,
“हाँ, ये भूमि ही सात्विकों का गढ़ है” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
“यहाँ दूर दूर तक ऐसा ही है” मैंने कहा,
हाँ जी, लेकिन वो सांप?” उन्होंने पूछा,
“रक्षक” मैंने कहा,
“किसके रक्षक?” उन्होंने पूछा,
“भूमि के” मैंने उत्तर दिया,
“अच्छा, मैंने सोचा धन के” वे बोले,
“हो भी सकता है” मैंने कहा,
“ओह! तभी आपने बताने के लिए मना किया था!” वे बोले,
“हाँ!” मैंने कहा,
“अच्छा! हां! नहीं तो आदमी बौरा जाता है!” वे बोले,
“इसीलिए” मैंने कहा,
अब मैं लेट गया!
कमर सीधी की मैंने!
वे भी लेट गए!
“लेकिन अब पता कैसे किया जाए?” मैंने पूछा,
“कारिंदा?” उन्होंने सुझाव दिया,
“वो नहीं करेगा कुछ” वे बोले,
“इबु?” उन्होंने कहा,
“नहीं, कहीं बात बिगड़ ना जाए” मैंने कहा,
“हाँ, ये तो है” वे बोले,
“अब ये भी नहीं पता ना, कि कौन है वहाँ?” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
तभी जैसे मेरे सर में चाबी सी घूमी!
कुछ हाथ लगा मेरे!
“वो औरतें?” मैंने कहा,
“कौन सी?” वे चौंके,
“वही, जिनके बारे में बताया था दिनेश ने?” मैंने कहा,
“हाँ, तो?” वे बोले,
“उन्होंने पीले वस्त्र, धोती पहनी थीं!” मैंने कहा,
“हाँ?” वे बोले,
“वे साधिकाएं होंगी, निश्चित ही!” मैंने कहा,
“सम्भव है” वे बोले,
“यक़ीनन!” मैंने कहा,
“अच्छा!” वे बोले,
“इसका अर्थ ये स्थान या तो कोई आश्रम है, या फिर कोई दबी हुई समाधि!” मैंने कहा,
“अच्छा!” वे बोले,
“कोई पूज्नीय स्थान, सात्विक स्थान!” मैंने कहा,
“जी” वे बोले,
“लेकिन किसकी?” मैंने कहा,
“ये ही तो पता करना है?” वे बोले,
“हाँ” मैंने कहा,
“भेजना होगा!” मैंने कहा,
किसको?” वे बोले,
“खबीस को” मैंने कहा,
“इबु को?” उहोने कहा,
“हाँ” मैंने कहा,
“कोई गड़बड़?” उन्होंने आशंका व्यक्त की,
“ये रिस्क तो लेना ही होगा” मैंने कहा,
“ओह!” वे बोले,
“आप कमरे से बाहर जाइये ज़रा” मैंने कहा,
“जाता हूँ” वे बोले,
“किसी को नहीं आने देना” मैंने कहा,
“ठीक है” वे बोले,
और बाहर चले गये!
मैंने दरवाज़ा बंद कर लिया!
और अब पढ़ा शाही-रुक्का!
इबु हाज़िर!
उसको उद्देश्य बताया मैंने और फिर,
उद्देश्य जान उड़ चला मेरा सिपहसलार!
मैंने प्रतीक्षा की,
और फिर दूसरे ही क्षण वो प्रकट हुआ!
हाथ में मिट्टी लाया था!
बस मिट्टी!
और कुछ नहीं!
मैं समझ गया!
ये मामला इबु की पहुँच से बाहर है!
अब मैंने इबु को वापिस किया!
दरवाज़ा खोला,
शर्मा जी अंदर आये,
मात्र आठ-दस मिनट ही गुजरे होंगे!
“पता चला?” उन्होंने पूछा,
“नहीं! इबु खाली हाथ आया!” मैंने कहा,
जो सोचा था,
जिसकी आशंका थी,
जिसका भय था!
वही हुआ था!
वहाँ कोई शक्ति काम कर रही थी अपना!
प्रश्न वही!
कौन?
कौन है वहाँ?
उत्कंठा उच्चतम शिखर पर पहुँच गयी!
“अब?” वे बोले,
“अब जाना पड़ेगा उधर ही” मैंने कहा,
“कहाँ उधर?” उन्होंने पूछा,
“खेतों पर” मैंने कहा,
”अच्छा” वे बोले,
“कब?” उन्होंने कहा,
“कल” मैंने कहा,
“रात को?” उन्होंने पूछा,
“सुबह भी” मैंने कहा,
“ठीक है” वे बोले,
मामला उलझ गया था!
कोई सर-पैर नहीं इसका!
कोई सूत्र नहीं!
ये भी नहीं पता,
कि सामने कौन है?
कैसा सामर्थ्य है?
जब इबु ने प्रवेश ही नहीं किया,
या कर पाया तो कोई अत्यंत ही शक्तिशाली अस्तित्व है वहाँ!
लेकिन कौन?
ये प्रश्न सर खुजाये जा रहा था हमारा!
क्या किया जाए?
अब केवल एक ही विकल्प शेष था!
वहाँ जो भी है,
वो सात्विक है!
अब उकसाया जाए!
छेड़ा जाए!
लेकिन अपनी हद में रहकर ही!
तभी कुछ पता चले!
तभी नरेश जी आये!
“खाना यहीं लगवा दूँ या वहीँ बैठक में?” उन्होंने पूछा,
“यहीं लगवा दीजिये” मैंने कहा,
“ठीक है” वे बोले,
और फिर खाना लग गया!
घीये का रायता था साथ में!
मजा आ गया!
बेहतरीन खाना!
खा लिया खाना!
बर्तन उठाये गये!
“चाय चलेगी?” नरेश जी ने पूछा,
“चल जायेगी” मैंने कहा,
फिर चाय भी आ गयी!
चाय पी!
और हम लेटे अब!
फिर से वही प्रश्न!
वहीँ उलझे!
“कल ही पता चलेगा, सर खुजलाने स एकोई फायदा नहीं” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
फिर हम बतियाते बतियाते सो गये!
सुबह जागे!
नहाये-धोये!
और फिर चाय पी!
साथ में कुछ नाश्ता भी!
उसके थोड़ी देर बाद दूध!
पेट भर गया इसी से!
अब बजे बारह!
मैंने अपने बड़े बैग से एक छोटा बैग निकाला और शर्मा जी को दे दिया, उन्होंने रख लिया!
“शर्मा जी, नरेश जी कोई बुलाइये” मैंने कहा,
“बुलाता हूँ” वे बोले,
बुलाया गया!
वे आये,
बैठे!
“चलिए खेतों पर” मैंने कहा,
“चलिए जी” वे बोले,
हम खड़े हुए और चल पड़े!
टहलते टहलते पहुँच गए!
दिनेश जी वहीँ था!
नमस्कार हुई!
और हम कोठरे में बैठे!
वे दोनों भी वहीँ थे!
“आप दोनों यहीं रहना, बाहर नहीं आना जब तक मैं न आ जाऊं यहाँ” मैंने कहा,
वे मान गए!
“आओ शर्मा जी” मैंने कहा,
“चलिए” वे बोले,
अब मैंने कलुष-मंत्र चलाया!
और अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित किया,
नेत्र खोले,
और दृश्य बदला!
स्पष्ट हुआ!
“आओ” मैंने कहा,
वे चले मेरे साथ!
तभी मुझे किसी के कुछ मंत्र से जपने की आवाज़ सुनायी दी,
गरदन घुमाई!
सामने केले के पेड़ों के साथ कोई खड़ा था!
“वो देखो” मैंने कहा,
उन्होंने देखा,
“अरे हाँ!” वे बोले और चौंके!
“चलो मेरे साथ” मैंने कहा,
“चलिए” वे बोले,
अब हम चल दिए!
हम वहाँ पहुंचे!
मंत्र-जाप बंद हुआ!
ये एक साधिका थी!
कोई बीस-बाइस बरस की!
सर ढांपे!
धोती पहने!
हम और आगे गये!
उसके सामने!
उसने हमे देखा!
घबरा गयी!
नज़रें मिलीं!
“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,
वो डरी!
“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,
वो पीछे हटी!
और तभी मेरी और शर्मा जी की गरदन के पीछे जैसे किसी ने हाथ मारा! हमने झटके से पीछे देखा, कोई नहीं!
फिर साधिका की तरफ मुड़े,
वो गायब!
“चली गयी!” व एबोले,
“हाँ” मैंने कहा,
“लेकिन ये हाथ किसने मारा?” उन्होंने पूछा,
“किसी रक्षक ने मारा होगा!” मैंने कहा,
हाथ बहुत तेज लगा था वैसे तो!
आवाज़ बड़ी तेज आयी थी!
तभी चौंक पड़े थे हम!
“आओ” मैंने कहा,
हम बढ़े केले के पेड़ों की तरफ!
एक जगह पानी पड़ा था, और कहीं नहीं!
“ये, जल चढ़ाया होगा उसने!” मैंने कहा!
“हाँ गुरु जी” वे बोले,
मैं नीचे बैठा!
उस गीली मिट्टी को छुआ, हाथ में ली, और फिर मैंने शर्मा जी से वो छोटा बैग लिया! और उसमे से मैंने भस्म निकाली!
भस्म मिट्टी में डाली!
मिलाया और फिर अभिमन्त्रण किया!
और फेंक दी आगे!
कड़ाक! कड़ाक!
आवाज़ें हुईं!
हम पीछे हटे!
और वहाँ तीन टीले बन गए!
वैसे ही टीले जैसे कि बताये गए थे!
तीन तीन फीट ऊंचे!
“टीले!” शर्मा जी बोले,
“हाँ, देख रहा हूँ” मैंने कहा,
“कमाल है!” वे बोले,
“वे जाग गए हैं!” मैंने कहा,
“कौन?” उन्होंने पूछा,
“कोई सिद्ध!” मैंने कहा,
“ओह…………” वे बोले,
“हाँ, कोई सिद्ध!” मैंने कहा,
“ये तो…….भयानक बात है” वे बोले,
“हाँ, है तो” मैंने कहा,
“ये सात्विक सिद्ध हैं ना?” उन्होंने पूछा,
“हाँ, तभी किसी का अहित नहीं हुआ आज तक!” मैंने कहा!
“अब?” उन्होंने पूछा,
“हो सकता है अहित किसी का, यदि कुछ किया ना गया तो” मैंने कहा!
“ओह…” वे बोले,
मित्रगण!
मैंने धामिया-मंत्र चलाया था!
जानने के लिए कि यहाँ कौन है!
चल गया था पता!
“चलो वापिस” मैंने कहा,
“चलिए” वे बोले,
और जैसे ही मैंने कलुष-मंत्र वापिस लेना चाहा, हमारे पांवों में झटका सा लगा, हम दोनों वहीँ गिर गए! उठना चाहा तो उठा ना जाए! जैसे किसी ने बाँध दिया हो! मैंने उठना चाहा तो मेरे हाथों में भायनक पीड़ा हुई, ऐसा ही शर्मा जी को भी! वे भी कराह उठे, लग रहा था जैसे हमको बिना बेहोशी की दवा दिए ही शल्य-चिकित्सा क्रियान्वित कर दी गयी थी! था कुछ नहीं वहाँ, कुछ भी नहीं, अब मैंने मन ही मन कवाक्ष-मंत्र का जाप किया और फिर अपने ऊपर थूका, मैं झट से ठीक हो गया, मैंने तभी शर्मा जी के ऊपर भी थूक दिया, वे भी ठीक हो गए! किसी ने मंत्र-प्रहार किया था हमारे ऊपर! हम खड़े हुए!
सांस ली!
और अपने कपड़े झाडे!
ये क्या था?
चेतावनी?
धमकी?
बल-प्रदर्शन?
क्या था ये?
मैंने मिट्टी की एक चुटकी ली और फिर हाथ के मध्य में रखी!
अभिमन्त्रण किया थूक का,
और हाथ में थूक दिया,
मिट्टी गीली हुई!
मैंने उसकी छोटी से गेंद बनायीं,
और फेंक दी सामने!
जहां गिरी, वहाँ गड्ढा हो गया!
मैंने फौरन ही अभय-मंत्र का जाप किया और अपने थूक से पहले शर्मा जी और फिर अपना टीका लगाया माथे पर!
“कौन है?” मैंने पुकारा!
कोई उत्तर नहीं!
“छिप के वार करते हो?” मैंने कहा,
“थू!” मैंने थूक दिया!
जहां थूक गिरा वहाँ चिंगारी सी फूटी!
कोई था वहाँ!
अभी भी कोई था!
“शर्मा जी, मेरे पास ही रहना” मैंने कहा,
वे मेरे पास हो गए!
वे सुरक्षित रहें, इसीलिए कहा मैंने!
कान से पसीने की बूँदें चुचिया गयीं!
नाक से बहता पसीना होंठों पर आ गया!
“कौन है?” मैंने कहा,
कोई उत्तर नहीं!
तभी एक वायु का झोंका आया!
तेज, गरम वायु!
चिलचिलाती गरम!
जैसे हम किसी जलती भट्टी के पास खड़े हों!
ये मन्त्र-प्रहार था!
किन्तु कवाक्ष-जागृत था!
झेल गए हम!
“सामने आओ?” मैंने कहा,
कोई नहीं आया!
फिर से वही झोंका!
फिर से मन्त्र-प्रहार!
हम डटे रहे!
अडिग!
नही हिले!
तभी जैसे भूमि हिली!
हमने संतुलन बनाया!
धुंआ!
धूनी का सा धुआं उठा!
खांसी उठ गयी हमको!
खांसे हम!
सामने देखा!
कोई खड़ा था,
