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वर्ष २०१० जिला मथुरा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

“आओ!” उसने कहा,

मैं नहीं गया!

“कौन हो तुम?” मैंने कहा,

गंध!

गंध आयी!

एक अतिमादक गंध!

“मैं?” उसने कहा,

“हाँ” मैंने कहा,

वो हंसी!

उसके रसाल रुपी वक्ष हिले!

मैं ठिठक गया!

निहारने लगा उसको!

“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,

“मैं?” उसने फिर से पूछा,

“हाँ” मैंने कहा,

“मैं हूँ अमिय!” उसने कहा!

कामामृत!

काम-अमृत!

सुरभोग!

उसने अपने दोनों हाथ अपने कुक्ष पर रखे!(कुक्ष मायने उदर)

एक-दूसरे में फंसा कर!

“अमिय!” मैंने कहा,

“हाँ?” उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं चुप!

फिर से रदच्छद फैले उसके!(रदच्छद मायने होंठ)

मैंने देखे!

शतपत्र से ओष्ठ उसके!

कमल की पंखुड़ी सी आँखें!

“सरसपान करोगे?” उसने पूछा,

ओह!

मैं जड़!

जैसे भूमि में धंसा!

चुप रहा!

फिर से हंसी!

और आयी मेरे पास!

अपना हाथ बढ़ाया आगे!

मेरी एक जटा पकड़ी!

सुगंध!

अतिमादक सुगंध!

नेत्र भारी हुए मेरे!

मुझ से नहीं हुआ सहन!

मैंने उसके वक्ष पर हाथ रखते हुए पीछे हटा दिया!

निशान पड़ गए मेरे हाथ के वहाँ!

मैंने अपना हाथ देखा,

कम्पन्न!

लरज रहा था!

सुगंध बस गयी थी मेरे नथुनों में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने फिर से देखा!

मैंने भी देखा!

“नहीं अमिय!” मैंने कहा,

वो हंसी!

घूमी!

और वहाँ और भी अमिय प्रकट हो गयी!

वैसी की वैसी ही!

सभी हंसी!

“नहीं अमिय!” मैंने कहा!

“मैं प्रसून हूँ!” एक ने कहा,

“मैं भोगिता!” दूसरी ने कहा,

“मैं शतह्रद” तीसरी बोली!

और एक एक करके,

सभी पंद्रह बोल पड़ीं!

“नहीं अमिय!” मैंने कहा,

एल लोप हुई!

फिर दूसरी!

फिर तीसरी!

और सभी लोप!

अमिय रह गयी!

फिर से हंसी!

“जनम बीत जाते हैं, परन्तु अमिय नहीं आती किसी के पास स्वतः!” उसने कहा,

ये सत्य था!

अकाट्य सत्य!


   
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श्रीशः उपदंडक
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नहीं आती अमिय किसी के पास!

स्वतः तो कभी नहीं!

मैं चुप!

“अभ्यागत हूँ आपकी! मैं! सुखनिता!” वो बोली,

ओह!

ये कैसा लालच!

कैसा घोर प्रपंच!

“आगे बढ़ो! मंडन बन तुम्हारे शरीर को आभूषित करुँगी! सर्वदा!” वो बोली,

नहीं!

और नहीं!

ये कैसा लालच?

कैसा लालच?

नहीं!

नहीं!

“आलिंगन करो! मैं मदलता!” उसने कहा,

“नहीं” मैंने कहा,

वो आगे बढ़ी!

मैं जम्बूक सा कांपा!

पीछे हटा!

और पीछे!

और पीछे!

वो आगे बढ़ी!

और आगे!

और आगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“वारुणी-पान नहीं करोगे?” उसने पूछा,

“नहीं” मैंने कहा,

फिर हंसी!

बस!

अब बस!

मैंने त्रिशूल,

उठाया!

वो हंसी!

और लोप हुई!

भक्क!

मैं बैठा!

नीचे बैठ गया!

तभी जैसे एक आवाज़ हुई!

जैसे कोई तूफ़ान आता है, वैसी!

मैं चौंक के खड़ा हो गया!

सामने देखा!

बाबा आंजनेय!

क्रोध में!

हाथ में ताम्बूल-पत्र लिया!

“अंतिम बार कहता हूँ, चले जाओ!” वे बोले,

“नहीं” मैंने कहा,

“मूर्ख!” वे बोले,

हाँ!

मूर्ख तो मैं हूँ ही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझसे बड़ा मूर्ख और कौन!

सच में!

“नहीं जाऊँगा!” मैंने कहा,

“प्राण गंवाना चाहते हो?” उसने पूछा,

“हाँ!” मैंने कहा,

वो आगे आये!

कमंडल में हाथ डाला,

फिर ताम्बूल-पत्र से भूमि पर गिरा दिया!

भयानक शोर हुआ!

भूमि में कम्पन्न हुई!

और भूमि फटी!

भूमि से एक औरत निकली!

काली!

एकदम काली!

हाथ में फरसा लिए!

और बढ़ चली मेरी तरफ!

और जैसे ही मुझ पर वार किया!

कवच से टकरायी!

और लोप हुई!

अट्ठहास!

ज़बरदस्त अट्ठहास!

“अभी भी समय है” वे बोले,

“नहीं” मैंने कहा,

अब मैंने त्रिशूल सम्भाला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सामने किया!

और अभिमन्त्रण किया उसका!

त्रिशाला-विद्या का आह्वान किया!

और सम्मुख कर दिया!

विद्या टकरायी!

लेकिन!

लेकिन वे अडिग रहे!

कुछ नहीं हुआ उनका!

त्रिशाला विद्या नष्ट हो गयी टकराते ही!

मेरा सर चकराया!

मैंने फिर से त्रिशूल सम्भाला!

सामने किया!

अभिमन्त्रण किया!

और रुवाक्षी-विद्या का संधान किया!

त्रिशूल सम्मुख किया!

और कर दिया वार!

कुछ नहीं हुआ!

वे अडिग!

टस से मस भी न हुए!

ऐसा कैसे सम्भव?

ये क्या हुआ?

मैं सन्न!

भौंचक्का!

अवाक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हलक में अटक गयी ज़ुबान!

गला सूख गया!

फिर से त्रिशूल लहराया!

सामने किया,

कल्पाज्ञी-विद्या जागृत की!

अभिमन्त्रण किया!

त्रिशूल पर हाथ फेरा!

सम्मुख किया!

और कर दिया सम्मुख!

विद्या चली!

धुंए की रेखा बन!

और टकरायी!

लेकिन!

कुछ न हुआ!

वे अडिग!

केश भी नहीं हिला!

एक केश भी नहीं!

विद्या लौट आयी!

अब मैंने मिट्टी उठायी!

अभिमन्त्रण किया!

शूल-वाहिनी को जागृत किया,

सर्व-रूढ़ को जागृत किया!

मिट्टी काली पड़ी विद्या प्रभाव से!

राख बनी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने फेंक के मारी सामने!

कुछ नहीं हुआ!

कुछ भी नहीं!

मेरी कोई विद्या नहीं चल रही थी!

लेकिन क्यों?

क्या हो गया?

क्यों प्रभाव नहीं हुआ?

किसने सोख ली शक्ति?

“अभी भी समय है!” वे बोले,

“नहीं!” मैंने चिल्लाया!

और भागा सामने!

वार करने त्रिशूल से!

और जैसे ही वार किया,

मैंने झटका खाया!

नीचे गिरा!

त्रिशूल छूट गया हाथ से!

मैं खड़ा हुआ!

इतने में उनकी विद्या से टकरा गया!

अचेत!

अचेत हो गया मैं!

गिर पड़ा!

फिर कुछ याद नहीं!

कुछ भी याद नहीं!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं गिर गया था!

अचेत था!

अब बेचैन हुए शर्मा जी!

सब्र ख़तम हुआ,

अपनी जान की परवाह न करते हुए वे भागे!

वृत्त लांघ दिया उन्होंने!

और आये मेरे पास!

चिल्लाये,

और जैसे ही मुझे छुआ,

धड़ाम!

वे भी धड़ाम से गिरे!

और अचेत हुए!

मैं और वो कितनी देर तक अचेत रहे,

पता नहीं!

सब ख़तम सा हो चुका था!

मित्रगण!

मैं गहरी निद्रा में चला गया था!

बहुत देर बीत गयी!

तभी मुझे मेरे माथे पर कुछ जल की बूँदें टपकती से लगीं!

मेरे बदन में हलचल हुई!

चेतना जागी!

और नेत्र खुल गए!

मैं खड़ा हो गया!

ये कौन हैं?


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक बाबा!

कृशकाय देह!

गाल पिचके हुए,

पसलियां नज़र आती हुईं,

पेट पीछे रीढ़ से लगा हुआ!

बस एक धोती बाँधी थी उन्होंने!

सफ़ेद रंग की!

सफ़ेद दाढ़ी-मूंछें!

बड़ी बड़ी!

वे शर्मा जी के ऊपर जल छिड़क रहे थे!

जल उनके हाथ से निकल रहा था!

सहसा,

वे भी जाग गए!

खड़े हो गए!

और समझने लगे सबकुछ!

दौड़कर मेरे पास आये, और खड़े हो गए!

मैं उन बाबा को देखता रहा!

वे चल दिए वापिस!

मैं दौड़ा और उनके पाँव पकड़ लिए!

उन्होंने उठाया मुझे!

“आप कौन हैं बाबा?” मैंने पूछा,

“देवधर!” वे बोले,

ये बोल वो चल दिए आगे!

मैं भागा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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‘बाबा! बाबा’ कहता हुआ!

वे रुक गए!

तभी प्रकाश चमका!

सभी!

वे सभी वहाँ खड़े थे!

सभी!

मंजरी!

आंजनेय!

सभी!

सभी मुस्कुरा रहे थे!

बाबा ने मुझे देखा,

अब मेरे आंसू छलके!

“सैंकड़ों वर्ष बीत चुके हैं, मैं सोया हुआ था, अब जाग गया हूँ” वे बोले,

“मैं धन्य हो गया बाबा!” मैंने कहा,

वे मुस्कुराये!

“मैं पुनः सो जाऊँगा! सैंकड़ों वर्षों तक!” वे बोले,

सैंकड़ों वर्षों तक!

ये है एक सिद्ध की पहचान!

मैं धन्य हो गया था!

मैं झुका और पांवों में लेट गया!

उन्होंने उठाया!

माथे और सर पर हाथ फेरा!

और लोप!

मैं चकराया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा! बाबा!

चिल्लाया!

बहुत चिल्लाया!

तभी आंजनेय प्रकट हुए मेरे सम्मुख!

मैं झुक गया!

पाँव पड़ गया उनके!

उन्होंने उठाया!

माथे पर हाथ फेरा!

“सभी प्रसन्न हैं तुमसे! तुम्हारे साहस से! तुम्हारे ज्ञान से! तुम्हारे सामर्थ्य से! और तुम्हारे हठ से!” वे बोले,

मेरे आंसू बह चले!

उन्होंने मुझे गले से लगा लिया!

मिल गया आशीर्वाद!

और क्या चाहिए!

उन्होंने हाथ आगे किया!

मुझे हाथ आगे करने को कहा,

मैंने किया!

और मेरे हाथ में एक रत्न आ गया!

ये रत्न है मेरे पास आज भी!

लाल रंग का!

“वर्षों बीत जायेंगे!” वे बोले,

“हाँ बाबा!” मैंने कहा,

“हम आगे बढ़ जायेंगे सब! आज ही!” वे बोले,

मैं समझ गया!

आगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सब समझ गया!

प्रकाश हुआ!

दिव्य प्रकाश!

मंजरी प्रकट हुई!

मुस्कुराते हुए!

“स्मरण रहोगे सर्वदा!” वो बोली,

मैंने हाथ जोड़ लिए!

नेत्र बंद हो गए!

और जब खोले,

तो कोई नहीं था वहाँ!

वे बढ़ गये थे आगे!

अगले पड़ाव की ओर!

मैं अपने हाथ में वो रत्न लिए खड़ा रहा!

देखा उसको!

चमक रहा था!

बाबा आंजनेय की निशानी!

तभी शर्मा जी आ गये,

मैंने देखा उन्हें!

“सब चले गए” मैंने कहा,

“हाँ” वे बोले,

मैं आगे गया!

केले के वृक्षों तक!

सन्नाटा!

कुछ नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सब ख़तम!

हम लौट पड़े!

कोठरे में पहुंचे!

मित्रगण!

इस घटना के बाद मैं बीस-पच्चीस दिनों तक ठीक से सो नहीं पाया! वही रत्न देखता रहता! बाबा देवधर को याद करता! मंजरी, आंजनेय! सबको याद करता!

नरेश जी अब खुश थे!

सब ठीक हो गया था!

बाबा देवधर!

वो साधिका मंजरी!

और वो बाबा आंजनेय!

मैं कभी नहीं भूल सकता!

मेरी शक्तियां क्यों नहीं चलीं??

क्योंकि बाबा जाग चुके थे!

आंजनेय उनके सरंक्षण में थे!

मेरी क्या हैसियत उनके सामने! मैं उनसे टकरा गया था, यही कम न था! जीवित था! ये बाबा देवधर का ही चमत्कार था!

बाबा देवधर!

जय हो!

जय हो!

साधुवाद!


   
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