व्यर्थ क्यों प्राणों की आहुति देते हो?” उन्होंने कहा,
अट्ठहास!
हा! हा! हा! हा!
व्यर्थ?
कौन कहता है व्यर्थ!
कैसे व्यर्थ??
नहीं!
व्यर्थ नहीं!
“डर गए बाबा?” मैंने कहा,
वे चौंके!
सन्न!
और मैं हंसा!
एक देहधारी से डरे!
अट्ठहास!
“आओ?” मैंने कहा,
अब बाबा ने हाथ आगे बढ़ाया!
कुछ गिराया नीचे!
और पाँव के नीचे रख लिया!
मेरे चारों तरफ अग्नि भड़क गयी!
मैं क़ैद हो गया उसमे!
भड़का तो मैं भी!
मैंने तभी अपना लिंग पकड़ा!
और मूत्र त्याग करने लगा!
घुमते हुए!
मंत्र पढ़ते हुए!
और अग्नि समाप्त!
अट्ठहास!
महाकाल के गीत!
रुद्रपति के गीत!
उमाराज के गीत!
और वो देखें!
यलक विद्या कट गयी उनकी!
हा! हा! हा! हा!
फिर से कुछ फेंका!
फिर से पाँव रखा!
भूमि में कम्पन्न हुआ!
मैंने थाप मारी भूमि में!
और थूक दिया!
स्थिर!
सब स्थिर!
उन्होंने पाँव से थाप मारी!
मैं हिला!
मेरा त्रिशूल गिरते गिरते बचा!
मुझे क्रोध आया!
मैंने तभी ऊर्वाक्ष-विद्या का संधान किया!
त्रिशूल पर हाथ फेरा!
और कर दिया सम्मुख!
चिल्लाया!
विद्या टकरायी बाबा से!
धड़ाम!
धड़ाम से गिरे!
फिर यकायक उठ पड़े!
क्रोध में!
क्रोध से देखते हुए!
मैंने भी घूरा उन्हें!
त्रिशूल सम्भाला!
वार-प्रतिवार के लिए तैयार!
तभी!
तभी स्याह सा गुबार उठा!
और मुझे गिरफ्त में लेने को भागा!
मैं अड़ गया सामने!
मैं टकराया उस से!
मेरे केश उड़ चले!
आँखें बंद हो गयीं!
मैंने यमत्रास का संधान किया और सब ख़तम!
हा! हा! हा!
“बस? बस?” मैंने चिल्लाया,
“बस? इतना ही?” मैंने उपहास उड़ाया!
वो चुप!
मुझे देखें!
और मैं उन्हें!
अब मैंने त्रिशूल उठाया!
भ्रान्डक-महाविद्या का जाप किया!
और सम्मुख कर दिया त्रिशूल!
बाबा उड़ चले!
बहुत दूर!
बहुत दूर!
फिर प्रकट हुए!
फिर लोप!
फिर प्रकट!
फिर लोप!
कभी यहाँ!
कभी वहाँ!
अभी दायें!
कभी बाएं!
कभी ऊपर,
और कभी नीचे!
भ्रान्डक ने उठा-पटक दिया!
अट्ठहास!
ज़बरदस्त अट्ठहास!
अशरीरी की उठा-पटक!
रंग बदला उनका!
और मैंने विद्या वापिस की!
बाबा लोप!
और मैं हंसा!
अट्ठहास!
खूब अट्ठहास!
“कौन है और?” मैंने कहा,
और नाचने लगा!
मदग्रस्त तो था ही, अब उन्माद भी चढ़ गया!
“आओ?” मैंने कहा,
और तब!
तब एक नौजवान साधू प्रकट हुआ!
काले केश!
सुतवां बदन!
चपल!
और मालाएं धारण किये हुए!
बिलकुल मेरे सामने!
“कौन हो तुम?” उसने पूछा,
“क्यों? बताया नहीं?” मैंने कहा,
“किसने?” उसने पूछा,
“बाबा आंजनेय ने!” मैंने कहा,
और हंसा!
“क्या चाहते हो?” उसने पूछा,
“बाबा से मिलना!” मैंने कहा,
“कौन से बाबा?” उसने पूछा,
“बाबा देवधर!” मैंने कहा,
“असम्भव” वो बोला,
“क्यों?” मैंने पूछा,
“नहीं, तुम नहीं मिल सकते!” वो बोला,
“क्यों नहीं मिल सकता?” मैंने पूछा,
“नहीं, कोई औचित्य ही नहीं” उसने कहा,
मुझे गुस्सा आया!
मैंने अपना त्रिशूल लहराया!
और फिर एवंत्रिक-महाविद्या का संधान किया!
वो पीछे हटा!
और मैंने त्रिशूल को सम्मुख कर दिया!
वो लोप हुआ!
वार से पहले ही लोप हुआ!
मैंने त्रिशूल नीचे किया!
और तभी!
तभी आकाश से बर्तन जैसे कुछ गिरे!
एक मेरे सामने गिरा,
गिरते ही खुला!
धन!
अकूत धन!
बेपनाह दौलत!
कम से कम पंद्रह बर्तन!
आधा ट्रक सोना!
लबालब!
मैं हंसा!
अट्ठहास!
लालच!
लालच दिया मुझे!
मैंने धन को लात मारी!
हीरे-पन्ने बिखर गए वहाँ!
चनक-चनक की आवाज़ें आयीं!
मैं हंसा!
अट्ठहास!
“वाह बाबा देवधर! ये धन! देखो!! धन!” मैंने कहा,
फिर उठाया एक जेवर!
और फेंक मारा सामने!
“ले जाओ इसको! ले जाओ!” मैंने कहा,
मैंने कहा और वो धन लोप!
मायावी धन!
मैं देखता रहा सामने!
तभी नीला प्रकाश फैला!
ऑंखें चुंधिया गयीं!
सर नीचे कर लिया!
फिर सामने देखा!
एक सुंदर स्त्री उतरी आकाश से!
मनमोहक!
आभूषण धारण किये हुए!
सुंदर!
आकर्षक!
कामुक!
अंग-प्रत्यंग में नशा भरा था!
एक एक अंग दैविक सौंदर्य से पूर्ण!
ऊंचा कद!
चित्ताकर्षक चेहरा!
पान के पत्ते सी चिकनी त्वचा!
चमकती हुई!
मेरे सामने आयी!
चलने से उसका वक्ष हिलता था!
घने केश लहराते थे!
मेरे सामने आयी!
मुस्कुरायी!
“मैं सिद्धानी हूँ!” उसने कहा,
क्या?
सिद्धानी?
अप्सरा स्वरुप?
कौन नहीं चाहेगा वरण करना!
कितनी क्लिष्ट साधना है ये!
ओह!
दो फाड़ मन में!
वरण करूँ?
या न करूँ?
औघड़ जाग!
जाग!
सोच!
शीघ्र सोच!
जाग गया!
जाग गया औघड़!
नहीं!
कभी नहीं!
“जाओ सिद्धानी, जाओ!” मैंने कहा,
वो हंसी!
एक मूर्ख था मैं उसके लिए!
मूर्ख!
हाँ मूर्ख ही तो था मैं!
“मैं पूर्ण हूँ!” उसने कहा,
सच में!
सच में वो पूर्ण है!
वो मिल जाए तो किसी भी वस्तु की आवश्यकता है ही नहीं कभी जीवन में!
आयु-दात्री!
धन-दात्री!
यश-दात्री!
रति-सुख दात्री!
क्या नहीं मिलेगा?
सिद्धि-सहायिका!
भार्या सी सेवक!
“नहीं” मैंने कहा!
“मूर्ख नहीं बनो” उसने कहा,
“मैं मूर्ख सही” मैंने कहा!
“लाभ की बात करो!” उसने कहा,
लाभ!
कैसा लाभ!
“नहीं” मैंने मना किया!
प्रकाश कौंधा!
एक नग्न स्त्री!
प्रकट हुई!
ऐसा स्वरुप!
ऐसा कि अप्सरा जैसा!
नज़र टिके तो हटे ही नहीं!
“मैं पूर्णाक्षी हूँ!” उसने कहा,
ओह!
मैंने तो सुना ही था!
देखा आज पहली बार है!
ऐसा स्वरुप!
दैविक!
ले लूँ?
कर लूँ वरण?
नहीं!
कदापि नहीं!
रति-सुख की भौतिक देवी!
ओह!
ये कैसी परीक्षा!
“नहीं पूर्णाक्षी, नहीं!” मैंने कहा!
वो लोप!
फिर से प्रकाश कौंधा!
अब कौन?
ये कौन?
यक्षिणी?
या आसुरिक माया?
या साक्षात् मेनका?
कौन है ये?
कांच के सामान देह उसकी!
ऐसे सुडौल वक्ष नहीं देखे मैंने कभी!
कौन है ये?
ऐसा बदन नहीं देखा कभी!
“मैं कल्पा हूँ” वो बोली,
ओह!
सिद्धि-दात्री कल्पा!
ओह!
ये कैसा प्रपंच!
कहाँ फंसा दिया मुझे?
इकत्तीस सिद्धियाँ एक ऊँगली में!
मिल जाए तो………….
किसी सिद्धि की आवश्यकता ही नहीं!
सोच!
विचार कर!
“नहीं कल्पा, नहीं!” मैंने कहा,
और वो भी लोप!
सिद्धानी हंसी!
मुझे देखा!
“मूर्ख!” वो बोली,
पीछे हटी!
और लोप!
मैं जड़ता से बाहर आया!
“माया दिखाते हो?” मैं चिल्लाया!
वो नौजवान साधू फिर से प्रकट हुआ!
हंसते हुए!
आल्हादित होते हुए!
“मूर्ख!” उसने कहा,
मेरी ओर इशारा करते हुए!
मैं हंसा!
अट्ठहास!
वो भी हंसा!
“मूर्ख!” उसने कहा,
मुझे क्रोध आया!
मैंने त्रिशूल लहराया!
ऊर्वाक्षी जागृत की,
त्रिशूल पर फेरा!
और कर दिया सम्मुख!
महानाद किया!
और विद्या चली!
और वो हुआ लोप!
फिर से लोप!
मैं भागा आगे!
“आओ?” मैं चिल्लाया!
तभी कोई आया!
मैंने त्रिशूल लहराया!
और सामने देखा!
मंजरी!
मैं रुक गया!
“मंजरी?” मैंने कहा,
उसने मुझे देखा,
मैंने उसे!
“आप जाओ” उसने कहा,
“नहीं मंजरी” मैंने कहा,
“आंजनेय आ रहे हैं” वो बोली,
“आने दो” मैंने कहा,
“नहीं, अभी जाओ” उसने कहा,
मैं कुछ कहता, वो लोप!
अब मैं अकेला!
आ रहे हैं आंजनेय!
दुबारा!
शक्ति-संवर्धन के पश्चात!
वो लोप हो गयी थी!
आंजनेय!
आ रहे हैं!
यही बताया था उसने!
धन्यवाद मंजरी!
बहुत बहुत धन्यवाद!
आंजनेय उच्च-कोटि के प्रबल मांत्रिक थे!
ये मैं जानता था!
मैं तो भिड़ा हुआ था अपनी शक्तियों के सहारे!
उनपर विश्वास के सहारे!
उनके सहारे!
अब मैंने श्री महा औघड़ का जाप किया!
एक महाविद्या जागृत की!
और कवच धारण कर लिया!
औघड़-कवच!
अब आये कौन सी विद्या टकराती है मुझसे!
“आओ? आओ सामने?” मैं चिल्लाया!
प्रकाश कौंधा!
मैं चौंका!
एक और अप्सरा!
हाँ!
अप्सरा सामान ही!
पूर्ण नग्न!
केश भूमि से टकराते हुए!
अतुलनीय सौंदर्य!
अंग अंग से कामरस टपकता हुआ!
मैं देखता रह गया!
कौन है ये?
कोई माया?
या अन्य कोई?
कौन है?
वो मेरे सामने आयी!
उसके उन्नत वक्ष-स्थल पर मेरी नज़र गड़ गयीं!
चौड़े कंधे!
पतली सी कमर!
और चौड़े ही नितम्ब!
साक्षात यक्षिणी!
मेरे सामने आयी!
उसकी बेहद सुंदर देह में अंकीर्ण सुंदर सी नाभि!
उसकी स्निग्ध जाघों को मैं देखता रह गया!
जैसे रचियता ने किसी बेहद कुशल कारीगर से बनवाया हो उसको!
मुझसे भी ऊंची!
वो आ खड़ी हुई!
मुझे देखा!
मुस्कुरायी!
उसके कामुक होंठ फैले!
जैसे रम्भा का फल! (केला)
उसने अपनी भुजाएं आगे फैलायीं!
“आओ!” उसने कहा,
मैं नहीं गया!