एक दिन दोपहर की बात है, मैं बैठा हुआ था अपने स्थान में ही, गर्मी अधिक थी तो मैंने खटिया बिछवा ली थी एक पेड़ के नीचे, पेड़ नीम का है वो, काफी बड़ा और घना! धूप छन छन के आती थी और चेहरे पर पड़ती थी! काम कुछ था नहीं, बस अलसाया सा लेटा पड़ा था, हवा गरम तो थी लेकिन पेड़ की छाया सुकून दे रही थी! तभी मेरा फ़ोन बजा, ये शर्मा जी का था, मैंने उठाया, तो उन्होंने कहा, कि उनके एक जानकार मिलने के इच्छुक हैं, कुछ समस्या है उनके साथ, इसी विषय पर बात करना चाहते हैं वो, मैंने हाँ कह दी, और शाम को आने को कह दिया और मैं फिर लेट गया!
उनींदा सा था तो जल्दी ही आँख लग गयी! दोपहर की उस गर्मी में पेड़ से राहत थी और इसीलिए नींद आयी थी!
मैं करीब तीन घंटे सोया!
जब उठा तो हाथों और बाजुओं पर रस्सियों के निशान बन गये थे! लेकिन नींद बढ़िया आयी थी! मैं उठा तो अपने कक्ष में चला आया, फिर से लेट गया!
शाम हुई अब!
गर्मी थी तो सोचा स्नान ही कर लिया जाए, तो स्नान करने चला गया! स्नान किया और आकर बैठ गया फिर से कक्ष में!
और फिर शर्मा जी आ गए, अपने एक जानकार के साथ!
हम बैठे,
परिचय हुआ!
उनका नाम नरेश था,
पानी मंगवाया मैंने और पानी पिलाया उनको!
और उसके बाद मैंने उनसे पूछा, “बताइये नरेश जी, क्या समस्या है?”
उन्होंने सोचा कुछ,
शायद घटनाक्रम याद कर रहे थे!
“हम दो भाई हैं गुरु जी, एक मैं और एक बड़े भाई दिनेश, मैं ओ शहर में रहता हूँ और भी गाँव में, हमारी ज़मीन भी वहीँ है, खेती होती है वहाँ और मुझे मेरा हिस्सा मिल जाता है, लेकिन बड़े भाई ने मुझे बताया कि खेत में कुछ अजीब सा हो रहा है” वे बोले,
”क्या अजीब?” मैंने पूछा,
“मैं गया था गाँव कोई तीन महीने पहले, भाई ने बताया तो मुझे ये वहम लगा, लेकिन फिर उन्होंने बताया कि मैं खुद देख लूँ, वहाँ ठहरूं और पता चले” वे बोले,
“आप ठहरे?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“क्या देखा?” मैंने पूछा,
“एक सुबह की बात है, मैं घर में ही था, कि मेरा भतीजा आया मेरे पास और बताया कि मुझे भाई साहब बुला रहे हैं खेत पर, कुछ दिखाना है” वे बोले,
“क्या देखा आपने?” मैंने पूछा,
“जब मैं वहाँ गया तो खेत में तीन तीन फीट के करीब नौ टीले अपने आप बन गए थे, किसी ने भी नहीं बनाये थे, वहाँ की ज़मीन अपने आप उठ गयी थी ऊपर” वे बोले,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“हाँ जी, ये देखा कर मैं हैरान रह गया था!” वे बोले,
“हैरानी की बात तो है ही!” मैंने कहा,
“भाई साहब की बात सही थी, उन्होंने बताया था कि कभी टीले बनते हैं और कभी तीन तीन फीट के गड्ढे हो जाते हैं खेत में” वे बोले,
“कमाल है!” मैंने कहा,
“और क्या बताया था भाई साहब ने?” मैंने पूछा,
“कभी कभार खेत में ऐसा लगता है जैसे कि कोई आवाज़ दे रहा हो कहीं दूर से, नाम पुकार कर, वहाँ देखो तो कोई नहीं होता” वे बोले,
“कोई बाधा लगती है” मैंने कहा,
“हमने भी यही सोचा था” वे बोले,
“फिर क्या किया आपने?” मैंने पूछा,
“जी बुलाया था एक तांत्रिक को वहाँ खेत पर, वो एक दिन वहीँ रहा था, कुछ पूजा आदि की थी उसने, और कहा कि अब नहीं होगा कुछ भी, बाधा ख़तम हो गयी है” वे बोले,
“लेकिन ख़तम नहीं हुई” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
“क्या हुआ था?” मैंने पूछा,
“अगले ही दिन खेत में फिर से टीले बन गए” वे बोले,
“अच्छा!” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
“फिर?” मैंने कहा,
“तब से ऐसा ही चल रहा है, कई लोगों को बुलाया लेकिन ये समस्या ख़तम नहीं हुई अभी तक, एक बार भाई साहब को रात के समय वहाँ कुछ औरतें भी खड़ी दिखायी दीं थीं” वे बोले,
“औरतें?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“कैसी थीं वो औरतें?” मैंने पूछा,
“ये नहीं पता, भाई साहब ने देखा था” वे बोले,
“गाँव कहाँ है आपका?” मैंने पूछा,
“जी मथुरा से थोड़ा आगे पड़ता है” वे बोले,
”अच्छा!” मैंने कहा,
“ऐसा सिर्फ आपके खेत में ही होता है या आसपास भी?” मैंने पूछा,
“जी केवल हमारे” वे बोले,
“तो गड़बड़ आपके खेत में ही है” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
“क्या हो सकता है गुरु जी?” उन्होंने पूछा,
“अभी नहीं कह सकता, बिना देखे” मैंने कहा,
“अच्छा जी” वे बोले,
“कोई मंदिर आदि तो नहीं है पास में?” मैंने पूछा,
“नहीं जी” वे बोले,
“कोई कुआँ?” मैंने पूछा,
“नहीं जी” वे बोले,
“पिंडियां आदि?” मैंने पूछा,
“नहीं जी” वे बोले,
“कोई चबूतरा वगैरह?” मैंने पूछा,
“नहीं गुरु जी” वे बोले,
कुछ भी नहीं ऐसा!
तो फिर क्या हो सकता है?
ज़मीन के अंदर?
हो सकता है!
लेकिन क्या?
जाने से ही पता चले!
“ठीक है नरेश जी, मैं आता हूँ आपके गाँव” मैंने कहा,
“बहुत बहुत धन्यवाद आपका गुरु जी” वे बोले,
“कोई बात नहीं” मैंने कहा,
“परसों चलें?” मैंने शर्मा जी से पूछा,
“चलिए” वे बोले,
“ठीक है नरेश जी, परसों आते हैं आपके गाँव” मैंने कहा,
“जी” वे बोले,
और कार्यकर्म बन गया हमारा!
फिर शर्मा जी छोड़ आये नरेश जी को और मेरे पास आ आगये दुबारा!
फिर वो दिन आया! नरेश जी को सूचित कर दिया गया, उन्होंने छुट्टी ले ली दफ्तर से और फिर गाँव में अपने बड़े भाई को भी सूचित कर दिया, हम निकल पड़े वहाँ के लिए, मैं आवश्यक तैयारियां कर लीं थीं, ये ज़रूरी भी था, जांच-पड़ताल भी करनी पड़ सकती थी!
हम करीब बारह बजे दिन में मथुरा पहुँच गए और फिर आगे के लिए चले, उनके गाँव तक पहुँचने में और एक घंटा लग गया! गाँव के बाहर एक बड़ा सा बरगद का पेड़ है, वहीँ मिले वो हमको, नमास्कार हुई नरेश जी से
और फिर हमारे साथ बैठ चले गाँव की तरफ! उनके घर पहुंचे! और उन्होंने गाड़ी लगवायी हमारी, गाड़ी हमने उनके घेर में ही लगा दी, पेड़ों के नीचे, कट्ठे के पेड़ थे वो!
और फिर हम उनके घर में चले! देहाती माहौल था, मवेशी बंधे हुए थे, अचरज से वो हम शहरी जानवरों को देख रहे थे!
हम बैठक में बैठे!
बिजली गयी हुई थी!
ये दिक्कत है गाँवों में बहुत!
हाथ-मुंह धोये हमने!
खैर,
पानी आया, तो हमने पानी पिया!
अब नरेश जी के बड़े भाई आये, पहले बाहर थे वो, उनको पता चला तो आ गए वहाँ, हाथ जोड़कर नमस्कार की और बैठ गए!
“गुरु जी, चाय बनायी जाए या दूध चलेगा?” नरेश जी ने पूछा,
“चाय ही ठीक है” मैंने कहा,
“चलो दूध बाद में पी लेंगे” वे बोले,
“हाँ, ठीक है” मैंने कहा,
थोड़ी देर में गाढ़ी गाढ़ी चाय आ गयी! दूध में और चाय में कोई फ़र्क़ नहीं था, बस दूध में पत्ती लगा दी थी उन्होंने!
हमने चाय पी! साथ में मिठाई आदि भी! वो भी खायी!
अब बात चली खेतों की!
मैंने अब दिनेश जी से ही बात करना सही समझा, क्योंकि वे ही रहते थे वहाँ और वे ही अधिक समय खेत पर रहते थे!
“दिनेश जी, मुझे बताया था नरेश जी में कि आपने खेत में कुछ औरतों को देखा था?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“क्या बजा होगा?” मैंने पूछा,
“सात बजे होंगे” वे बोले,
औरतें कैसी थीं?” मैंने पूछा,
“देहाती ही थीं जी” वे बोले,
“क्या पहना था उन्होंने?”
“धोती थी जी” वे बोले,
“किस रंग की?” मैंने पूछा,
पीले रंग की” वे बोले,
“कितनी थीं?” मैंने पूछा,
“चार थीं जी” वे बोले,
“कहाँ से आयी थीं?” मैंने पूछा,
“पता नहीं जी, खेत में दूर खड़ी थीं” वे बोले,
“अच्छा, कहाँ गयीं थीं?” मैंने पूछा,
“आगे चली गयीं थीं” वे बोले,
“गाँव की ही तो नहीं थीं?” मैंने पूछा,
“नहीं जी” वे बोले,
“कैसे पता?” मैंने पूछा,
“गाँव में ऐसी कोई औरत नहीं है जी, है भी तो मैं जानता हूँ, गाँव अधिक बड़ा नहीं है” वे बोले,
ये बात सही थी!
यक़ीन किया जा सकता था!
“अच्छा, वो मिटटी के टीले अपने आप बनते हैं?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“कब?” मैंने पूछा,
“रात में बनते होंगे, हमारे सामने कभी नहीं बने” वे बोले,
“अच्छा, और अपने आप ही गायब हो जाते हैं?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“और गड्ढे?” मैंने पूछा,
“अपने आप” वे बोले,
“अपने आप बंद भी हो जाते हैं?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
हैरत की बात थी!
बहुत हैरत की!
ऐसा कैसे सम्भव है?
“आपने मिट्टी की सरकारी जांच करवायी थी?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“कुछ आया उसमे?” मैंने पूछा,
“सब सही है जी” वे बोले,
ये शंका भी निराधार!
मिट्टी भी सही है!
“ऐसा कब से हो रहा है?” मैंने पूछा,
“पांच महीने से हो गए जी” वे बोले,
“कभी पहले हुआ है ऐसा?” मैंने पूछा,
“हमारे होशो-हवास में तो कभी नहीं” वे बोले,
“केवल आपके खेतों में ही होता है ऐसा?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“आसपास कहीं नहीं?” मैंने पूछा,
“नहीं जी” वे बोले,
अजीबोगरीब बात थी!
मैंने भी ऐसा कभी नहीं सुना था!
“किसी ओझा, सयाने ने कुछ बताया?” मैंने पूछा,
सब फेल हो गए जी” वे बोले,
तभी खाना आ गया!
पूरियां, अचार, दही और सब्जी!
साथ में प्याज और टमाटर कटे हुए!
“खाना खाओ जी” वे बोले,
अब खाना खाने लगे हम!
लेकिन बात बड़ी अजीब थी!
दिमाग में जैसे हथौड़ा बजा दिया!
ऐसा कैसे सम्भव है?
क्या है वहाँ?
क्या हो सकता है?
किसी की पकड़ में क्यों नहीं आया कुछ?
वो औरतें कौन हैं?
कहाँ से आयीं और कहाँ को गयीं?
कोई सुराग नहीं!
उलझा हुआ मामला था!
और बेचारे ये देहाती जितना जानते थे, बता दिया था!
अब जांच करनी थी!
खाना खा लिया हमने!
बढ़िया खाना था!
वही देहाती स्वाद!
कोई मुकाबला ही नहीं!
“अच्छा, नरेश जी, आज दिखाओ मुझे खेत” मैंने कहा,
“हाँ जी, शाम को दिखाते हैं” वे बोले,
“ठीक है” मैंने कहा,
“अब आप आराम कीजिये” वे बोले,
अब हमने आराम करने की सोची!
और लेट गए!
और आराम किया!
गर्मी थी, लेकिन हवा चल रही थी, थोडा सुकून था!
प्यास लगी!
पानी माँगा और पानी पिया!
शर्मा जी ने करवट बदली!
मेरी तरफ हुए,
“क्या मामला लगता है?” उन्होंने पूछा,
“बड़ा अजीब सा मामला है” मैंने काह,
“हाँ, उलझा हुआ है” वे बोले,
“बहुत उलझा हुआ!” मैंने कहा!
“आज शाम को देखते हैं क्या होता है” वे बोले,
“हाँ जी” मैंने कहा,
और फिर थोड़ा आराम!
और फिर हुई शाम! गर्मी ने तो कहर ढा दिया था, ऊपर से मक्खियां! नाक में दम कर दिया था! हाथों से पंखा झलते झलते हाथ भी दुःख गए थे! जहां रुकता, वहीँ गर्मी टूट पड़ती, हावी हो जाती! पसीना गवाही देता उसकी सत्ता की! पेड़ झूम तो रहे थे लेकिन लू के मारे वो भी अब बेजान हो चले थे, उनकी पत्तियाँ कुम्हला चुकी थीं उस भीषण गर्मी से!
खैर,
शाम हुई!
और नरेश जी आये!
मैंने पानी माँगा, पानी आया और पिया!
“चलें नरेश जी?” मैंने पूछा,
“हाँ जी, चलिए” वे बोले,
मैंने रुमाल से पसीना पोंछा,
और अब मैंने और शर्मा जी ने अपने अपने जूते पहने!
और चल दिए!
बाहर आये,
खेत दूर नहीं थे शायद, इसीलिए हम पैदल ही चले, दिनेश जी पहुँच चुके थे खेतों पर पहले ही!
टहलते टहलते हम चल रहे थे!
वहाँ पहुँच गए!
खेत तो काफी बड़े थे! भूमि काफी थी दोनों भाइयों के पास! साथ ही वाले खेत में पॉपुलर के पेड़ लगे थे, सरकारी पेड़!
हम घुसे खेत में!
सब सामान्य था!
कुछ असहज नहीं!
हम खेत में बने एक कोठरे में जा पहुंचे,
वहाँ बैठे,
चारपाई पड़ी थी वहाँ और एक निवाड़ वाला पलंग भी! खेस बिछा था, हम बैठ गए!
“पानी लाऊं?” दिनेश जी ने पूछा,
“हाँ, ले आइये” मैंने कहा,
वे पानी लेने चले गए!
और फिर पानी ले आये!
पानी पिया! घड़े का पानी था! मिट्टी की गंध बसी थी उसमे! पानी बढ़िया और शीतल था! मैंने एक गिलास और पिया!
खेत में ये कोठरा दायें बना था, साथ में शीशम और नीम के पेड़ लगे थे! पेड़ काफी बड़े बड़े थे और काफी पुराने थे!
एक बात और, वहाँ खेत के बाएं कोने पर केले के पेड़ लगे थे! काफी जगह घेर कर! जैसे लगाए गए हों वे पेड़!
“वो केले के पेड़ लगाए हैं?” मैंने पूछा,
“हाँ जी, पिताजी ने लगाए थे, तब से अपने आप ही फूट पड़ते हैं” नरेश जी बोले,
“काफी जगह घेर ली है” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
“केले आते हैं?” मैंने पूछा,
“हाँ जी, लेकिन बालक तोड़ लेते हैं कभी-कभार” वे बोले,
”अच्छा!” मैंने कहा,
“आना शर्मा जी ज़रा?” मैंने कहा,
वे उठे,
“चलो” और बोले,
हम चले बाहर,
नरेश जी भी साथ ही चले हमारे,
“आऒ देख कर आते हैं” मैंने कहा,
“चलिए” वे बोले,
हम चले,
उन्ही केले के पेड़ों की तरफ!
वहाँ पहुंचे!
“ये बढ़िया है! फूल आ रहे हैं केले पर!” मैंने कहा,
“हाँ जी” शर्मा जी बोले,
“इस से बढ़िया क्या होगा कि केले मिलते रहे घर के ही!” मैंने कहा,
“हाँ जी” नरेश जी बोले,
हम वहाँ से आगे बढ़े!
और खेत का मुआयना किया!
“नरेश जी?” मैंने कहा,
वे दौड़ के आगे आये,
“हाँ जी?” वे बोले,
“वो टीले कहाँ बनते हैं?” मैंने पूछा,
“सारे खेत में ही बनते हैं” वे बोले,
“किस जगह?” मैंने पूछा,
“वहाँ ज्यादा बनते हैं” वे बोले, इशारा करके!
“चलो” मैंने कहा,
हम वहाँ के लिए चले!
और वहाँ पहुँच गये!
मैंने मिट्टी उठायी, और सूंघा!
सब सामान्य!
कोई गड़बड़ नहीं!
नीचे फेंक दी मिट्टी!
“गड्ढे भी यहीं बनते हैं?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“अच्छा” मैंने कहा,
अब तक तो सब सही था!
कोई गड़बड़ दिख नहीं रही थी!
“वो औरतें कहाँ दिखी थीं?” मैंने पूछा,
“वहाँ” वे बोले,
“चलो” मैंने कहा,
हम वहाँ चले,
सब सामान्य!
कुछ नहीं वहाँ!
अब मैंने सोचा कि क्यों ना कलुष-मंत्र से जांच की जाए?
मैंने उनको रोका,
शर्मा जी को लिया साथ,
और मंत्र चलाया!
और नेत्र पोषित किये,
अपने भी और शर्मा जी के भी!
फिर नेत्र खोले!
और जैसे ही खोले!
सामने का दृश्य बदल गया!
भूमि पर फूल ही फूल पड़े थे!
सुगन्धित माहौल था वहाँ का!
किसी देवालय जैसा!
मिट्टी का रंग पीला हो गया था!
गेरुए रंग का!
ये है क्या?
कोई माया?
या फिर असलियत में यही सब!
“ये क्या है शर्मा जी?” मैंने पूछा,
“कमाल है!” वे बोले,
“ये फूल देखिये!” मैंने कहा,
“हाँ!” वे बोले,
चमेली और गैंदे के फूल थे वो! बड़े बड़े हज़ारी गैंदे के फूल!
“कोई मंदिर सा लगता है” मैंने कहा,
“हाँ” वे बोले,
तभी सामने धुआं सा उठता दिखा,
“वो देखो” मैंने कहा,
“धुआं” वे बोले,
“चलो उधर” मैंने कहा,
“चलो” वे बोले,
हम पहुंचे वहाँ,
ये धुआं ज़मीन में से निकल रहा था!
पास खड़े हुए तो ये गुग्गल का सा धुआं लगा!
धूनी थी शायद!
“नीचे कुछ है” मैंने कहा,
“लगता तो यही है” वे बोले,
तभी सांप की सी फुंकार आयी!
हम दोनों ने पीछे देखा!
चार सांप!
बड़े बड़े!
सभी फन फैलाये!
मायावी सांप!
फुंकार मारें वो!
कि जैसे धमका रहे हों, भाग जाओ, भाग जाओ!
हम डटे रहे!
नरेश जी दूर खड़े थे!
उन्हें कुछ मालूम नहीं था कि क्या हो रहा है यहाँ!
साँपों ने फिर से फुंकार भरी!
फिर से आगे बढ़े!
फिर से रुके!
“यहाँ कुछ ना कुछ गड़बड़ है बहुत बड़ी!” मैंने कहा,
“हाँ” वे बोले,
सांप फिर से आगे बढ़े!
अब मैंने माया-नाशिनी विद्या का जाप किया,
मिट्टी उठायी,
और फेंक दी सामने!
झम्म!
झम्म से लोप वे चारों सांप!
और वो धुंआ भी बंद!
केवल रह गया वो सूराख!
अब मैंने कलुष-मंत्र वापिस किया,
नेत्र खोले!
ना सूराख और ना ही धुंआ!
ना फूल और ना ही उनकी सुगंध!
कुछ नहीं!
सब सामान्य!
हम दोनों ने एक दूसरे को देखा!
“ये कोई माया नहीं है!” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
“आओ मेरे साथ” मैंने कहा,
और हम लौट चले!