और बाबा मतंग, विकराल सा रूप धारे, आँखें चौड़ी किये, आह्वान में सतत आगे बढ़ते जा रहे थे! सहसा ही, वाचाल के शब्द गूंजे! कानों में पड़े! कर्ण-पिशाचिनी का अट्टहास सा हुआ! "भरंडा!" ये शब्द गूंजे! भरुंडा! अच्छा! तो भरुंडा का आह्वान हुआ था वहाँ!
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ये भी बाबा सेवड़ा का ही चपल दिमाग था! अर्थात, ऐसे हार नहीं मानने वाले थे ये दम्भी लोग! भरुंडा! दक्खन की एक महाशक्ति! कौलिक तंत्र में पूजित है ये भरुंडा! अति-प्राचीन और महाप्रबल! षटगंड रुपी हुआ करती है ये भरुंडा! एक एक अंग वज्र समान प्रबल हुआ करता है! वार में अचूक और प्राण-हारी हुआ करती है! इसके मन्त्रों से ही मारण-कार्य पूर्ण हुआ करते हैं! कैसा भी विशाल पेड़ हो, इसके मंत्र से अभिमंत्रित जल को यदि उस पेड़ की, जड़ों में डाल दिया जाए, तो मात्र सात दिनों में ही, जीव-द्रव्य सूख जाया करता है उसका!
और रह जाता है मात्र ठूठ! ऐसे ही शत्रुगण! वे भी ढूंठ हो जाया करते हैं! इसीके मंत्रों से, आज भी ऐसे मारण किये जाते हैं! भरंडा को सिद्ध किया था इस सेवड़ा ने! कमाल था! सच में ही कमाल! अज्म-कालिका के समक्ष तो नहीं ठहरती भरुंडा, परन्तु प्राण-दान अवश्य ही करा सकती थी!
और संभवतः यही मात्र एक उद्देश्य था उस सेवड़ा का! इसी कारण से आह्वान आरम्भ हुआ था उसका! चौंसठ रात्रि साधना है इसकी, इक्कीस बलि-कर्म द्वारा पूजित है,
अठारह महा-प्रबल संगिनियों द्वारा सेवित है, रूप में, काली, स्थूल देहधारी, भस्म लपेटे, धूम-वर्णी,
और कालजयी सी प्रतीत हुआ करती है! भुजाओं में, मानव के हाथों से बना माल हुआ करता है, गले में मुंड धारण किया करती है, पांवों में, शिशु-मुंड धारण किया आकृति है, इसकी संगिनियाँ, इसका आसन उठाया करती हैं, जिस पर ये विराजित हुआ करती है,
आसन भी मानव केशों से बुना ही हुआ करता है! जिसमे जगह जगह मानव के अंग बिंधे हुआ करते हैं!
यही है भरुंडा! हाथों में खड्ग और खंडा हुआ करता है! शेष संगिनियाँ त्रिशूल उठाया करती हैं! अफ़सोस होता है कि जब ऐसा कोई साधक, प्रबल साधक, ऐसे खोखले दम्भ के कारण, अपने अंत को प्राप्त होता है, नहीं तो तंत्र-जगत में उसका स्थान कहाँ हो, ये भी तय करना कोई दुःसाध्य कार्य नहीं! लेकिन यहां तो सेवड़ा भरुंडा को भी आड़े ले आया था! वो भी उस असीमनाथ के लिए, ये चिमटा बजाना भी नहीं आता था! इसे क्या कहूँ! मूर्खता! घमंड!
या फिर अभय! असीमनाथ को सेवड़ा और हुँदा का अभयदान! क्या कहूँ! नहीं पता! बस, नितांत मूर्खता!
और कुछ नहीं! तभी अचानक से, हमारे यहाँ रखे रक्त-पात्रों में कम्पन्न हुआ! भूमि में थिरकन सी हुई! जैसे भूमि को किसी मदमस्त गजराज ने मथ डाला हो! जैसे बड़े बड़े लोहे के घन लगातार भूमि पर गिर रहे हों! भूमि जैसे कराह रही हो! जैसे भूमि का गर्भ फाड़ा जा रहा हो! फिर से ऐसा हुआ! और मेरे हाथों में रखी सामग्री गिरने को हुई! लगता था जैसे कि, भूमि अभी पलट
जायेगी और हम सभी, समा जाएंगे उसमे! बाबा मतंग नाथ ने आहवान तेज किया! स्पष्ट था, अज्म-कालिका के मन्त्र जागृत हो चले थे! वो स्थान अपने अनुसार ढाला जा रहा था! शून्य में नीले नीले अंगार से प्रकट हो रहे थे! वो फट जाते बार बार! छोटे छोटे और नन्हे नन्हे से अंगार! हवा शांत हो चली थी! अब मात्र सन्नाटा ही था आसपास! बस अलख की चटक-चटक की आवाज़ और, वो महामंत्र! बस, इन्ही का शोर था वहाँ! वहाँ भरुंडा का आह्वान हो रहा था! बाबा सेवड़ा,
अपने शरीर को काट काट कर, रक्त निकाल रहा था! वो चाकू से काटता, और रक्त एकत्रित कर लेता, फिर बाबा हुँदा, नाचता, जाता, मंत्र जपता! अपने ईष्ट का नाम लेता, गुरु का नाम लेता! आन-बान सब न्यौछावर कर दिए थे आज तो उसने! मंत्रों को आन लगाता! चिल्लाता! हमें गालियां देता!
और यहां, यहां बाबा मतंग खड़े हुए, रक्त का एक पात्र उठाया,
और सर पर रखा! उसके बाद एक मंत्र पढ़ते हुए, स्नान कर लिया उस रक्त से! घाड़ लाल हो गया था! मेरा दाया कंधा उस गर्म रक्त से, दहक सा उठा था! आह्वान पूर्ण होने को था अब....
और तभी जैसे कई पेड़ एक साथ कड़ाक की आवाजें करते हुए टूटे! उनकी जैसे धूल-मिटटी और मृत-पत्तियाँ हमारे ऊपर आ पड़ी!
आँखों से धुंधला दिखने लगा सभी को! मैंने अपने हाथों से अपनी आँखें साफ़ की! आँखें खुली तो कोई पेड़ नहीं टूटा था वहाँ! मैंने चारों तरफ गर्दन उठाकर देखा था तभी के तभी! लेकिन आवाज़ ऐसी ही थी! अलख ने मुंह फाड़ रखा था अपना! बाबा बच्चा सिंह और मैं, लगातार ईंधन झोंके जा रहे थे उसमे! फट्ट! फट्ट! हूम हूम की आवाजें गूंज रही थीं! बाबा मतंग नाथ ने अपने शरीर की समस्त ऊर्जा झोंक दी थी उस प्रबल आहवान में!
मैं कभी अलख को देखता और कभी बाबा मतंग नाथ के होंठों को! ऐसी ध्वनि थी कि जैसे आज तो स्वर्गारोहण होने वाला है! वो भी देह सहित! ऐसा ताप था उस मन्त्र-ध्वनि में! सब अलौकिक ही था! सब का सब! अब हम काल-यूप में वास करने वाली अज्म-कालिका के साधक, रो रहे थे! गिड़गिड़ा रहे थे! उसकी कृपा-हेतु तल्लीन थे उस महा आहवान में!
और वहाँ भी ऐसा ही सबकुछ था! महाजाप चल रहा था! भरुंडा का गुणगान चल रहा था! मनाया जा रहा था उसको! रक्षण! रक्षण! यही मात्र शब्द थे जो सुनाई पड़ते थे कानों में!
अब बाबा मतंग जो खड़े होकर जाप कर रहे थे, बैठ गए नीचे, अपने केशों में से रक्त को निचोड़ा,
और हो गए सीधे, बैठ गए थे आसन पर! अब उन्होंने अलख में महाभोग दिया! अपना त्रिशूल अभिमंत्रित किया,
और छुआ दिया उस कपाल को, जो चुपचाप हमें ही देखे जा रहा था! जैसे ही छुआ उसको, भन्न की सी आवाज़ हुई और उस स्थान पर, चिता-गंध फैल गयी! वातावरण ऐसा हो गया जैसे, कई मुर्दे जल रहे हों एक साथ वहाँ! ऐसी गंध फैल गयी थी वहाँ!
और ये गंध! जा पहुंची थी उस पार भी! उस गंध ने, जैसे बदन छील दिए थे उनके! उनको तो जैसे काठ मार गया था! बस आह्वान में ही जुटे थे!
असीमनाथ की हालत खराब थी! वो तो बस कभी भी, ऐसा लगता था, कि प्राण छोड़ देगा अपने! हलक में प्राण फंसे थे उसे! लेकिन वो मूर्ख! उस द्वन्द का सूत्रधार, अभी भी नहीं समझ सका था अंजाम उस द्वन्द का! अब द्वन्द और आगे बढ़ा! कुछ और कदम आगे!
अब बाबा मतंग नाथ ने अंतिम भोग दिया और लगाया एक प्रबल अट्टहास! हम सभी खड़े हो गए थे!
तभी आकाश एम वाली सा उठा! हरे से रंग के कई छल्ले एक दूसरे से गुंथे हुए, नृत्य की सी मुद्रा में नीचे उतर रहे थे! हाथ जोड़ लिए हम सभी ने!
ये सौरांगिनी थी! उस अज्म-कालिका की प्रधान सहोदरी! सौरागिनी अत्यंत प्रबल है! यही मार्ग प्रशस्त किया करती है उस अज्म-कालिका का! तो अब बिसात बिछ चुकी थी! पल पल दिल ऐसे धड़कता था कि जैसे, अभी रुका और अभी रुका! वो वाले नीचे उतर गए! उस श्मशान में हरे रंग का हल्का सा प्रकाश फ़ैल गया! हम एकटक उसे ही देखे जा रहे थे!
और तभी जैसे दो खंड आपस में टकराये!
आगाज़ हो चुका था! खड़ताल से बज उठे, लगा कोई औघड़-मंडली खड़ताल बजा रही है,
उस,
श्मशान में दूर कहीं!
और जो लय थी वो ऐसी कि देह अपने आप ही थिरके! यही तो आगमन है सौरांगिनी का! फूल बरसने लगे! पारिजात के से, अक्षय फूल! सुगंध ऐसी कि मदहोशी आ जाए!
और फिर रिमझिम सी हुई! जल जैसी रिमझिम! खड़ताल तेज हुए!
और अगले ही पल, सब शांत! जैसे सभी को सांप सूंघ गया हो! सन्नाटा भी बुक्कल मार, कहीं किसी कोने में छिप गया था! वो वाले अब एक हए! एक एक में से बिंधने लगे थे! अद्भुत दृश्य था वो! अद्भुत! अत्यंत अद्भुत! इस संसार से परे! इस भौतिक संसार के नियमों से परे! इस विज्ञान से परे!
मानव-मस्तिष्क की सोच से परे! हाँ, तो वो वलय, अब एक हो चुके थे! एक आकृति बनना आरम्भ हुई! तेज, हरी, चमकती हुई आकृति! कोई चालीस फ़ीट ऊंची! जैसे कोई बड़ा सा आदम-पुतला! हाँ, ठीक वैसा ही! रंग-बिरंगे प्रकाश के कण, उस आकृति के चारों ओर परिक्रमा सी कर रहे थे!
और धीरे धीरे उसीमे समा जाते थे! और तभी भूमि में कम्पन्न हुई! ऐसी कम्पन्न कि, पाँव उखड़ते उखड़ते ही बचे! त्रिशूल हाथों में नहीं होते तो, हम तीनों धूल चाट जाते वहीं के वहीं! भूमि में कम्पन्न लगातार हो रही थी! जैसे नीचे भूमि में कोई क्रीड़ा कर रहा हो,
और अगले ही पल, भूमि फाड़ कर, कोई दैत्य बाहर आने हो! ऐसा ही महसूस हुआ था उस समय! प्रलय का एक छोटा सा अंश देख लिया था हमने उस रात!
और फिर एक कर्ण-बीध अट्टहास हुआ! ऐसा महा-अट्टहास की कानों के पर्दे भी गरम हो गए! मन्त्रों में और,
तंत्राभूषणों में न बंधे होते तो मस्तक ही फट जाता! उस अट्टहास में कुछ ऐसा था कि जैसे, सहस्त्र अट्टहास जो कि किसी गुब्बारे में डालकर, फोड़ दिए गए हों! ऐसा अट्टहास! ये सौरागिनी का अट्टहास था! उस अट्टहास से जहां कान तो गरम हुए ही थे,
आँखें भी बंद हो गयीं थीं! और जब आँखें खुली, तो ऊपर देखा, कोई आठ फ़ीट ऊपर, एक दीर्घ-देहधारी स्त्री खड़ी थी! केश भूमि से बस कुछ ही ऊपर थे! शरीर ऐसा, पहाड़ जैसा! नेत्र ऐसे, कि मेरे सर के बराबर! हाथ ऐसे कि मेरे कमर पकड़ ले तो जीभ तो क्या कलेजा भी बाहर
आ जाए मुंह से! अत्यंत ही विशाल शरीर था उस सौरांगिनी का!
और रूप! रूप ऐसा भयंकर कि कोई साधारण देख ले, तो तभी बदन से प्राण उड़ जाएँ! और जो शरीर मुर्दा होकर गिरे, वो ऐसा हल्का हो कि हवा उसके साथ खेले! नेत्र ऐसे खुले हों कि, बस सील कर ही बंद किये जाएँ!
ऐसा भयंकर रूप था उस प्रधान सहोदरी सौरागिनी का! बाबा मतंग नाथ ने एक और महामंत्र पढ़ा!
और रक्त-पात्र उठा लिया! उसके बाद............................. अग्नि-धाराएं उसके चारों ओर र्थी! चक्कर लगा रही थीं! उसकी देह से फूटती और उसी में समा जातीं! जैसे सूर्य में हुआ करता है! ठीक वैसा ही उस सौरागिनी में था! इसी कारण से उसको सौरांगिनी का नाम मिला था! ठीक ही नाम था! अत्यंत ही सटीक! उसका ताप ऐसा भीषण था कि शरीर का रक्त, मांस के भीतर ही सूख जाए!
और मांस भुन जाए! कुछ ऐसा ही ताप था उस प्रधान सहोदरी का!
और उधर, उधर हड़कम्प मचा था! हमारे यहां सौरांगिनी जो प्रकट हो गयी थी, इसी कारण! असीमनाथ की तो अब जहां बोलती बंद थी, वहीं बुद्धि को भी जंग लग चुका था! अब वो वही निर्णय ले रहा था जो उसे, उसकी आँखें दिखा रही थीं! विवेक तो कभी का साथ छोड़ चुका था!
और अब बुद्धि भी वाष्पीकृत हो चली थी!
हाँ, बाबा हुँदा का जाप कठोर था बहुत! वो हँसता! अपने सर में उन कटे हुए अंगों को मारता!
और फिर खड़ा होता, आकाश की ओर हाथ उठाता और चीख मारता! जैसे जंगल में आदिवासी चीख मारते हैं!
और बाबा सेवड़ा! वो बाबा सेवड़ा जिसको अपने दमखम पर बहुत मान था, घमंड था, अब दबा सहमा सा बैठा था अलख के पास! त्रिशूल को गोद में रखे, अलख में भोग दिए जा रहा था!
भरुंडा! भरुंडा! यही शब्द गूंज रहे थे! रक्षण! रक्षण भरुंडे! रक्षण! रक्षण भरुंडे!
यही याचना थी उन सभी की! अब वार नहीं किया था उन्होंने! मात्र रक्षण! ये हार का पहला चिन्ह था!
और अब ये चिन्ह इतना प्रबल हो चुका था कि, भझंडा भले ही उनको प्राण-रक्षण प्रदान कर देती, लेकिन बाबा मतंग नहीं बख्शने वाले थे उन्हें! और सच पूछिए तो मैं भी ऐसा ही चाह रहा था! मैं चाह रहा था कि ऐसे निकम्मे और तुच्छ श्रेणी के औघड़, यदि यूँ ही छोड़ दिए जाएँ तो ये नाश मचा देंगे! इनको रोकना निःसंदेह आवश्यक था! "असीमनाथ! हँदा! सेवड़ा! सावधान!" बोले बाबा मतंग नाथ!
और तब, तब बाबा मतंग नाथ ने नीचे बैठते हुए, दोनों हाथ जोड़ते हुए, करुण याचना करते हुए, बता दिया अपना उद्देश्य उस सौरांगिनी को! भयानक शोर सा हआ!
और अगले ही पल, सौरागिनी लोप हो गयी! उसके लोप होते ही, वातावरण में फैली गर्मी का भी नाश हुआ,
और ओस की ठंडक हमारे नग्न देहों से आ लिपटी! उस ठंडक में ऊर्जा थी! ऊर्जा से भर गए थे हम सभी! पल भर भी न हुआ और वहाँ सौरांगिनी जा प्रकट हुई! कंपकंपी छूट गयी उन सभी की! जाप करना ही भूल गए जैसे! लेकिन बाबा सेवड़ा डटा रहा और कर दिया महा-आहवान और अंतिम मंत्र पूर्ण भरुंडा का! अलख जा उठी! कोई दस फ़ीट ऊपर तक! सौरांगिनी भी ठहर गयी! यही होता है! यही नियम है! शक्तियां आमने सामने होती हैं एक दूसरे के! एक का आह्वान नहीं तोड़ा जा सकता! और यही हुआ!! सौरांगिनी के समक्ष, लौह-आसन पर विराजित, अपनी अठारह सहोदरियों के द्वारा उठायी हुई,
भरंडा प्रकट हो गयी! कोलाहल सा मच गया हर तरफ! वे तीनों सिमट गए एक दूसरे में!
और हम, पल पल अपनी साँसें थामे, देखते रहे सबकुछ!
अब हमारे हाथों में कुछ नहीं था! न तो उनके ही,
और न हमारे ही! एक भक्षण करने गयी थी,
और एक रक्षण करने आई थी! दोनों ही समकक्ष हैं, एक समान हैं! अब जो होना था, वो, वो जानें! बाण निकल चुके थे कमान से!
अब हमारे हाथ में कुछ शेष नहीं था! और तभी भीषण हुंकार सी उठी! अँधेरा छा गया वहां! कुछ न दिखे! वाचाल चुप, कर्ण-पिशाचिनी चुप! फिर से इंकार उठी!
और जो देखा, वो ये था कि, वे तीनों, वहाँ से हवा में उड़कर पीछे जा गिरे थे!
बस!
बस यही हुआ था! अब न सौरांगिनी ही थी वहां,
और न वो भरुंडा!! लौट चुकी थीं वापिस! हाँ, वे तीनों अभी भी सुरक्षित ही थे! बाबा हुँदा उठा, और पेट पर हाथ मारते हुए, पागलों की तरह से हंसा! फिर सेवड़ा!
सेवड़ा भी हंसा! उनको हँसता देख, वो असीमनाथ भी हंसा!!
और हम चुप हुए! वे बच गए थे, सकुशल थे! हमारा वार, एक प्रकार से खाली ही गया था! बाबा मतंग बैठ गए नीचे! फिर बच्चा सिंह!
और फिर मैं! बाबा मतंग नाथ का चेहरा देखा, अपमान साफ़ झलक रहा था! वे तीनों वहाँ खिलखिलाकर हंस रहे थे! उनकी एक एक हंसी, मेरा वजूद छीले जा रही थी! फिर क्या था!! मुझे क्रोध आया! भयंकर क्रोध! अब या तो वो रहेंगे या फिर हम! मैं उठा, त्रिशूल उठाया,
एक खड्ग लिया, भेरी तक गया, तीन मेढ़ों में से जवान मेधा चुना, उसको भेरी से सटाया, मंत्र पढ़े, खड्ग को माथे से लगाया, बाबा बच्चा सिंह आ गए थे मेरी मदद के लिए, रक्त को इकट्ठा करने के लिए, पात्र ले आये थे! पात्र अपनी जगह लगा दिए गए,
और अब मैंने एक ही वार में, उस मेढ़े की गर्दन धड़ से जुदा कर दी! रक्त का फव्वारा फूटा! रक्त एकत्रित किया गया! फिर उस मेढ़े को चीरा, आवश्यक अंग निकाल लिए गए, उसका कलेजा, उसके गुर्दे, उसके अंडकोष और अन्य अंग! सब एक थाल में सजा दिए गए, अब मदिरापान किया!
और अब जिसका मैंने आह्वान करना था, बस उसी ने इस द्वन्द का काम खत्म करना था!
और वो महा-शक्ति थी, काल-मेखला!! काल-मेखला अर्थात कालाहूति!!!
और जैसे ही चक्रेश्वरी-विद्या से उनके कान में जो स्वर गूंजे, उनके बदन का रक्त जमने लगा! मैं अब और सहन नहीं कर सकता था! उन्होंने, उन तीनों हरामजादो ने बाबा मतंग का उपहास उड़ाया था! ये मुझे अंदर तक छील गया था! कुरेद गया था मेरा जिगर! बस, इसी कारण से अब मेरे अंदर लावा खौलने लगा था! कालाहृति एक महाप्रबल और महाभीषण शक्ति है!
सोलह महाभीषण सहोदरियां समाहित हैं इसमें! ये एक उच्च-कोटि की महाविद्या की अस्त्र-वाहिनी है! बस एक ही उद्देश्य हुआ करता है उसका, विध्वंस! संहार! शत्रु संहार!
और इसी कालाहति का मैंने अब आह्वान करना आरम्भ किया! वैज-मुद्रा में बैठा मैं उस समय! और कर दिया आह्वान! जब बाबा मतंग ने मेरे मंत्र सुने, तो लपक कर मेरे पास आ बैठे,
और स्वयं ही, अलख में ईंधन झोंकने लगे! जब मैं ये जाप कर रहा था तब बाबा मतंग ख़याल में डूबे थे कहीं, हमारी बात तो हो नहीं रही थी, लेकिन नज़रों से मैं सब भांप गया
था,
वे खोये हुए थे कहीं, निश्चित रूप से, पर उस समय मैं पूछ नहीं सकता था, मेरा जो प्रयोजन था, वो ही पूर्ण करना था!
और वहाँ! वहाँ तो जैसे सबकुछ लुट चका था! बस देहों में प्राण शेष थे! कैसे रोकें? क्या करें? किसे बुलाएं? किसका आह्वान करें? कैसे बचें? ये प्रश्न बुलबुले समान उनके दिमाग में बनते, और फूटते! उनकी हालत अब ऐसी थी कि जैसे भूखे सिंहों के बीच कोई, निरीह
और मासूम मृग फंस जाए! सामने खाई, पीछे सिंह! बाएं अग्नि और दायें जल! क्या किया जाए!! बस! यही था हाल उनका! कालाहुति! कालाहुति अथवा काल-मेखला! एक सौ इक्कीस रात्रि साधना है इसकी! बहती नदी किनारे, शव पर बैठ कर, इसकी साधना हुआ करती है, शव को सरंक्षित रखा जाता है, विधियां हैं उसकी, एक शव, चार पांच दिन निकाल जाता है, बस धूप नहीं लगनी चाहिए उसको, अन्यथा सड़न पैदा हो जायेगी उसमे,
और उसका जीव-द्रव्य बाहर रिसने लगेगा, मांस अस्थियां छोड़ने लगेगा, अस्थियां काली पड़ने लगेंगी, जोड़ अकड़ जाएंगे और उनको सीधा करने के लिए, काटने ही पड़ेंगे, बाद में ऐसे शव का दाह-संस्कार कर दिया जाता
अतः, शव मिलते रहें, इसका प्रबंध पहले ही किया जाता है! डरे सहमे चूहों की भांति भगदड़ मच गयी थी वहां! अब तो मात्र क्षमा ही उनको बचा सकती थी! और ये स्पष्ट था कि न तो बाबा हुँदा, न ही सेवड़ा,
और न ही वो नकली औघड़ असीमनाथ इतना बूता रखता था कि,
इस काल-मेखला से बचा जाए! हँदा और सेवड़ा रिक्त थे! मैंने विवशतावश कालाहुति का आह्वान किया था! जहां बाबा मतंग नाथ के उपहास का जवाब देना था, वहाँ, इनको अब इनकी औकात भी बतानी थी!
औघड़ मद चढ़ा था उस समय मुझ पर! अलख ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रही थी! ईंधन झोंका जाता तो लपक कर भक्षण कर लेती उसका! मेरे हाथों और हाथों की उँगलियों के बाल भी झुलस उठते थे उसकी लपटों से! अब बाबा मतंग नाथ भी मेरे संग जाप करने लगे थे, एक एक मंत्र पर जाप करते जाते!
और मैं आगे बढ़ता जाता अपने आह्वान के मार्ग पर! आहवान विशेष था ये! कालकूट जैसा! हलाहल जैसा! हाँ! हलाहल जैसा! उन कमीन औघड़ों के लिए हलाहल ही तो था वो! तभी बाबा सेवड़ा गुर्राया वहाँ! खड़ा हुआ! हँदा को उठाया,
और अपना त्रिशूल उठाया! वो ऐसे नहीं मरना चाहते थे! लड़ के मरना चाहते थे! अब उन्होंने जो किया, वो महा-रक्षण था! त्रिशूल और चिमटों की सहायता से मिट्टी खोदी उन्होंने!
और बनाया एक पुतला सा उस से! जल्दी जल्दी! कुल मिलाकर, वो एक मानव आकृति सी ही थी, जिसको शराब डाल कर गूंद लिया गया था! ये कार्य बहुत शीघ्रता से किया था उन्होंने! ये विद्या कैटभी-विद्या कही जाती है! इस विद्या से, रक्षण सम्भव हो जाता है! और यही किया था उन्होंने! रक्षण के स्वर और मंत्र गूंज उठे! मन्त्र फूटने लगे उधर और यहां, मेरे यहां! मेरे यहां अब जाप पूर्ण होने को था! वहाँ उन्होंने उस पुतले को, अलख के समीप ही रख दिया था!
और अब जैसे वे उस पुतले को पूज रहे थे! आशय स्पष्ट था, कालाहुति उनके प्राण न ले, बल्कि इस पुतले में सृजित प्राणों का भक्षण कर डाले! योजना तो सही थी! लेकिन क्रियान्वन गलत था! ऐसे समय पर, वो रक्षण कार्य नहीं करेगा!
या फिर, भेदना आसान होगा! कहते हैं न, विनाशकाले विपरीतः बुद्धि! ये सटीक उदाहरण था उसके लिए! मित्रगण!
मेरे यहां जैसे मेह बरस उठा! रक्त की बरसात सी होने लगी! मांस ले लोथड़े टपकने लगे! शीतल, हिम में जमे शीतल वो लोथड़े,
हमारे ऊपर भी गिरते! अलख में गिरते तो अलख में प्राण फुक जाते! फिर सब शांत हो गया!
अब, आगमन ही शेष था! तभी ऐसी ध्वनि हुई जैसे कोई घड़ा खाली किया जा रहा हो पानी से! शीतलता बिखरी थी हर तरफ! ऐसी शीतलता कि उस पसीने वाली गर्मी में भी, हमारी पेशानी
पर छलके पसीने भी जैसे ओंस बन गए थे! हमारे मुंह से धुआं निकलने लगा था! ऐसी ठंड लग रही थी! तभी फिर वहाँ अंगार से उठे! भूमि में से अंगार से प्रकट हुए!
और वो अंगार के छोटे छोटे कण आकाश की ओर चल दिए! ये सब वातावरण बनाने के लिए हो रहा था! हम सभी जानते थे!
लेकिन प्रसन्न थे, कि हमारा आह्वान पूर्ण और सफल हुआ था! तभी बाबा मतंग नाथ ने, औघड़ नाद किया!
श्री महाऔघड़ का नाम लिया, कोई ग्यारह बार!
और त्रिशूल लहराया! "असीमनाथ! हँदा! सेवड़ा! अंत! अंत!" वे चिल्लाये!
और चिल्लाते ही रहे! मैं हैरान हो गया था उनको ऐसा करते देख! उनको अब अपनी विजय का भान हो चला था!
और वहां!
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वहां तो जैसे भय की बाढ़ ने सबकुछ बहा लिया था अपने संग! बाबा सेवड़ा और हुँदा! लेटे हुए थे उस पुतले के पास दोनों ही!
और वो हरामजादा असीमनाथ! मारे भय के सिकुड़ गया था अपने आप में! वहाँ रक्षण चल रहा था!
और यहाँ भक्षण करने, कालाहुति चल पड़ी थी! भक्षण उन औघड़ों की शक्तियों का भक्षण करने! उनकी देह को नष्ट करने से लाभ नहीं था! वो तो किसी काम की थी ही नहीं! हाँ, बस अब सबक मिलने में, मात्र कुछ ही क्षण शेष थे!
और उसके बाद जो हुआ वो........ वहाँ तो हाल अब पता ही था! बस, अब करना ये था कि इनको सबक कैसे सिखाया जाए! क्या हाल किया जाए! कैटभी-विद्या का तो भंजन तभी हो जाता जब कालाहुति के सेवक वहां पहुँचते! वो भी अदृश्य रूप में! अब निर्णय की घड़ी आ पहुंची थी!
और तभी घनघोर बिजली सी कड़की! पीले रंग की अद्भुत रौशनी चमकी! पूरा स्थान पीला हो गया था! बिजली अलग थी! हाँ, अलग! साधारण से अलग!
उसमे शोर नहीं था! बस, घनघोरता थी उसमे!
और तब आवाजें आणि शुरू हुई! जैसे कोई पूरी अलौकिक सेना बढ़ रही हो उस स्थान की तरफ! पत्थर भी हिल रहे थे और वहाँ पड़े मिट्टी के ढेले भी! कम्पन्न ऐसी थी, कि पांवों में खून उतर आया, मांस-पेशियाँ अकड़ गयीं! और हाथों की पकड़, त्रिशूल पर जकड़ गयी! लग रहा था कि जैसे भूमि में घुसने वाले हैं हम!
और फिर से प्रकाश कौंधा! ऐसा भीषण प्रकाश की आँखों के सामने अँधेरा ही छा गया! अँधेरा! समझ के देखिये कि कैसा अँधेरा! आँखें होते हुए भी अंधे हो गए थे उस पल तो हम! और फिर वो हुआ, जो होना ही था! अट्टहास हुआ! महा-अट्टहास! रूह को भी जमा देने वाला अट्टहास! हमारे सामने, शून्य में से, महाभट्ट योद्धा से प्रकट हुए! गुंजन करते हुए! हम हूम की आवाजें करते हुए! वे कुल चौबीस होंगे! सुसज्जित! कोई सहोदरी नहीं! बस सेवक! और सेवक भी ऐसे, कि ब्रह्म-राक्षस का आभास दें! एक ही योद्धा, पर्याप्त था उन तीनों औघड़ों को हलाक करने के लिए! मैं आगे बढ़ा! बाबा मतंग संग भागे मेरे! बाबा बच्चा सिंह भी भागे!
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हुंकार हुई! कंडक होता है प्रधान! सवा चौदह फ़ीट का परिमाप है इन योद्धाओं
का! अब हम बैठे! भोग अर्पित किया!
और फिर उद्देश्य बता दिया! मारना किसी को नहीं था, बस सबक ही देना था! कंडक हुआ लोप वहाँ से! और हुआ प्रकट वहां! और जैसे ही प्रकट हुआ! साक्षात मृत्यु के दूत आ पहुंचे थे! अब मची भगदड़! कैसी भगदड़? बताता हूँ! उनकी एक एक शक्ति पनाह मांगने लगी! हुँदा, आँखें फायदे, उन योद्धाओं को देख रहा था!
सेवड़ा, अपना अंत जानता था, अतः शांत था! असीमनाथ! उसकी तो लंगोट खुलकर टखनों में आ गिरी थी!
और अगले ही पल! वो पुतला, धधक उठा! फट गया! चीथड़े उड़ गए उसके! रक्षण भेद दिया गया था उनका! नहीं पता कि क्या हुआ!
कुछ नहीं पता! जो हुआ, पलों में ही हुआ!
और जब हमारी देख खुली, तो क्या देखा, असीमनाथ के दोनों हाथ, और दोनों पाँव, कहाँ गए, नहीं पता!!! बाबा हुँदा, दो-फाड़ हो गया था!! बीच में से ही! ये मेरे द्वन्द इतिहास की पहली हत्या थी! करनी पड़ी!
और बाबा सेवड़ा, दोनों नेत्र बाहर आ चुके थे उसके! मित्रगण!
अब अधिक नहीं लिखूगा मैं, कि क्या हुआ, कैसे हुआ! बस इतना कि, श्यामा मुक्त थी! बाबा सेवड़ा आज रतलाम में, अपने पुत्र के साथ रहता है, बोल सकता नहीं, चल सकता नहीं, न हग सकता, न मूत ही सकता, बिना मदद लिए! और औघड़, अब वो औघड़ नहीं! मात्र एक जिंदा लाश! बाबा असीमनाथ, कब देह छोड़ जाए, पता नहीं! तो मित्रगण! ये थी कथा जो मैंने लिखी!
एक सबक लिया, कभी दम्भ न कीजिये! विवेक और बुद्धि, सदैव इनकी ही सुनिए! कल, एक नयी शुरुआत करूँगा, एक नए संस्मरण की!
आप सभी को बहुत याद किया मैंने! बहुत! आपके बिना, सम्भव नहीं रहना मित्रगण!
आपका प्रेम, ऐसा है, कि एक औघड़ भी, औघड़ न रहे!
------------------साधुवाद! ---------------------
