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वर्ष २०१० जिला गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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ने! मेरे मन में उसके लिए मान तो था, लेकिन इस मान रूपी बूरा में, सफ़ेद नमक भी पड़ चुका था! "वज्रपाणिका!" बाबा के स्वर गूंजे! 

ओह! कैसे? 

मैं कैसे साधूंगा वज्रपाणिका को? आपने वज्रपाणि के बार में तो अवश्य ही सुना होगा, यदि नहीं, तो ढूंढ कर पढ़ सकते हैं, बौद्ध-तंत्र में इन्हें डाकिनी और शाकिनियों का प्रधान माना गया है! इन्ही वज्रपाणि की चौदह सेविकाओं में से एक हैं ये, वज्रपाणिका! ये चौदह ही एक रूप से सम्मिलित हुआ करती हैं, इन चौदह का अपना अपना कोई नाम नहीं! ये सम्मिलित होकर ही ये नाम पाती हैं, वज्रपाणिका! एक साथ चौदह का आह्वान? बाबा उठे, पीछे गए, बाबा बच्चा सिंह को बुलाया, 

और ले गए संग अपने, और बाबा बच्चा सिंह ले आये भेरीअपने संग! और बाबा मतंग ले आये अपने संग एक मेढ़ा! बलि आवश्यक थी वज़पाणिका के आह्वान हेतु! ये उसी के लिए था! वज्रपाणिका बलि द्वारा ही प्रसन्न हुआ करती हैं! मेढ़े का पूजन किया गया! अपने खड्ग का पूजन किया, एक बड़ा सा पात्र लाया गया, रक्त-सम्भरण हेतु! 

ये रक्त, इसकी गंध, यही मार्ग प्रशस्त करते उस महाशक्ति का! पूजन आरम्भ हुआ! ये बलि-कर्म पूजन था! बलि-कर्म वहां भी होना था! अतःअभी समय शेष था अभी! मेढ़े को भेरी से सटाया गया! महारुद्र का जाप हुआ, और एक ही वार से, उस मेढ़े का सर, धड़ से अलग हो गया! अब उसको थामने का काम बाबा बच्चा सिंह ने किया, 

और बाबा मतंग ने, मंत्र पढ़ते हुए रक्त का सम्भरण किया! 

GAL 

पूरा पात्र भर गया हमारा! लबालब! अब उस मेढ़े का सर लिया, उठाया, 

और रख दिया कपाल के पास! अब एक दीया जलाया और उसके समीप रख दिया! अब मुझे वज़पाणिका का जाप करना था! आहवान करना था उस महाशक्ति का! अब रक्त से टीका किया सभी ने, 

और तीन पात्र में मदिरा मिला उस रक्त का पान किया! रक्त गरम था, ताज़ा था, अतः, मन्त्र पढ़ने का समय हो चला था! अब मैंने मंत्र साधे! वज्रपाणिका, विलम्ब नहीं करती आने में! रूप अत्यंत ही सुंदर है! नग्न रूप में रहती है, केश सघन हैं, काले केश! देह मज़बूत है, कमर पतली और वक्ष भारी हैं, कोई अस्थि आदि नहीं धारण किया करती, मात्र, आभूषण, वो भी वस्त्रों के बने हए, ऊन के से आभूषण! आहवान तीव्र हुआ! उधर, बाबा मतंग, देख लड़ाई बैठे थे! वहां भी आह्वान चल रहा था! बाबा हँदा, एक काले मेढ़े को भेरी से टिकाये हए था, 

और बाबा सेवड़ा, अपना खड्ग उठाये, मंत्रोच्चार किया जा रहा था! टक्कर सामान थी हमारी! शक्तियों पर शक्तियां भिड़ने वाली थीं! रात अभी जवान थी! हाँ, उसका हस्न ज़हरीला था आज का! कोई मद नहीं था, रक्त की प्यासी थी, आज की रात! चिमटे बज उठे, वहां भी और यहां भी! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उधर, एक ही वार से, बाबा सेवड़ा ने, उस मेढ़े का सर जुदा कर दिया उसके धड़ से! तो अब तंत्र की दो महा-शक्तियों का आह्वान चल रहा था! एक ओर जहाँ त्रिपात्रि अपनी महालीला दिखाने को, आतुर थी, और एक ओर जहां वज्रपाणिका भी तैयार थी, वहाँ हम औघड़ दम साधे, अपने अपने क्रिया-कलापों में लगे थे! बाबा मतंग अलख में ईंधन झोंकते! बाबा बच्चा सिंह अलख में और अलग सामग्री डालते, 

और मैं, वज्रपाणिका के आह्वान में लीन था! बाबा मतंग नाथ नाद किये जा रहे थे, बाबा बच्चा सिंह अलख में ईंधन झोंकते हुए, श्री महाऔघड़ का जाप किये जा रहा थे! । श्मशान में चारों तरफ प्रकाश फैला हुआ था, प्रकाश-पुंज फूट रहे थे, छोटे बड़े! । वे प्रकट होते, और फूट जाते, फिर से प्रकट होते, 

और फिर से फूट जाते! सहसा, भूमि में स्पंदन सा हुआ! भूमि में करर्र की सी आवाज़ हुई, जैसे नीचे की मिट्टी ने स्थान छोड़ा हो, पेड़ हिले, जैसे उनकी जड़ें पकड़ ली हों किसी ने, पौधे ऐसे सिहराये कि जैसे किसी वायु-ताप ने कुम्हला दिया हो उन्हें! हम सभी के शरीर में एक अजीब सी ऊर्जा प्रवेश किये जा रही थी! एक ऐसी ऊर्जा जैसी कभी नहीं महसूस नहीं की थी आजतक! वज्रपाणिका की शक्ति का कोई सानी नहीं हैं! तंत्र में वज्रपाणिका का एक उच्च स्थान है, 

और ऐसी ही उस त्रिपात्रि का भी! हम तो संधान में लगे ही हुए थे, और वहां, 

और वह तो जैसे आज सारा ही सामर्थ्य लगा रहा था! बाबा हुँदा, आकाश को देखता हुआ, नाचे जा रहा था, बाबा सेवड़ा, अपने आहवान में लीन था! 

और वो कमीन असीम नाथ, शीघ्र ही अपनी, 

विजय की पताका फहराने को आतुर था! 

अचानक ही भूमि में से आवाज़ आई, भम्म जैसी! आवाज़ आते ही बाबा सेवड़ा खड़ा हो गया! एक बिंदु सा चमका वहाँ, सेवड़ा उसी को देख रहा था, 

ये बिंद, जो कि पीले रंग का था, अब चक्कर लगाने लगा था श्मशान के! बहुत तेज तेज! ये चिन्ह था कि निपात्रि का आह्वान अब समाप्ति की ओर है, और अब आह्वान केंद्रित हो, मात्र त्रिपात्रि द्वारा ही श्रवित है! साँसें उखड़ने लगी थीं सेवड़ा की, वो इसलिए कि यदि सेवड़ा यहीं कोई चूक कर गया, तो उसके साथ वे सभी साधक, भूमि में समा जाएंगे! उसने अपना त्रिशुल उठाया, मदिरा से अपना मुंह साफ़ किया, कंधे साफ़ किये, अपने छाती पर लटके माल आदि को धोया, अपनी दाढ़ी को सहलाया, मूंछों में अंटे दिए, केश खोल लिए, और लगा अब मंत्र पढ़ने! ये आह्वान के अंतिम मंत्र हुआ करते हैं! मात्र कुछ ही क्षणों में, त्रिपात्रि प्रकट होने को थी! भोग लगा दिया गया था वहाँ, सब तैयार था उनकी तरफ से, बस त्रिपात्रि आये और, उनके शत्रु का मस्तक काट ले जाए अपने संग! 

और हमारे यहाँ! हमारे यहाँ अब प्रकाश-पुंज सफ़ेद हो चले थे! भोग के लिए, उस मेढ़े का तौलिया निकाल लिया गया था, यहीं से तिल्ली भी काट ली गयी थी, 

और अब इसी तौलिये में, कलेजा रख दिया गया था, उस मेढ़े का, मेढ़े का कलेजा काफी बड़ा हुआ करता है, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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बकरे के कलेजे से दोगुना था, रंग भी अलग ही हुआ करता है उसका, गहरे भूरे रंग का, और बकरे का लाल सा या काला, हुआ करता है, मेढ़े का कलेजा कठोर और बकरे का, कुछ मुलायम हुआ करता है, बलि-कर्म में, मेढ़ा ही उपयोग होता है, बकरा उसका विकल्प है! यहाँ मेढ़े की काँट-छांट कर ली गयी थी, उसका तौलिया बाहर निकाल लिया गया था, साफ़ भी कर लिया गया था, 

और अब उसी पर, ये सारा भोग रखा गया था! मैं लगातार मंत्रों में उलझा हुआ था, 

और अब समाप्ति की ओर आगे बढ़ रहा था, सिंह के जैसे दहाड़ने की आवाजें आने लगी थीं। जैसे हर तरफ सिंह दहाड़ रहे हों! हर तरफ ऐसी आवाजें थीं, जैसे जंगल में अफरातफरी मची हो! पशु भाग रहे हों एक के पीछे एक! खुरों की आवाज़ थी, जैसे सिंह के डरने से भाग रहे हों, कहीं छिपने के लिए! ऐसा मैंने पहली बार देखा था, सुना था ऐसा होते हुए, सामने रक्त-पात्र भरा था, इसमें बहुत सारक्त था, हवे चलती तो उसमे तरंग सी पैदा होती, वो प्रकाश-पुंज जब फूटते तो उसकी चमक दीखती उसमे, 

और तब बाबा मतंग नाथ उठे, वो खड्ग लिया, और रख दिया अलख के सामने, अब मैं भी खड़ा हुआ, वायु-वेग बह चला! मित्रगण! उस समय कुछ ऐसा हुआ कि, जो मैंने कभी नहीं सोच था! अचानक से, हमे अंधेरे में वहाँ, चमचमाती हुई कई स्त्री आकृतियाँ नज़र आने लगी थीं! अट्टहास लगाते हुए! 

ये क्या था? ये वज्रपाणिका का आगमन नहीं था! ये त्रिपात्रि का आगमन था! अर्थात, त्रिपात्रि उद्देश्य का भान होते हुए, दो स्थानों पर, प्रकट होने वाली थी! ये तो हमने सोचा ही नहीं था! 

और यदि ऐसा होता, तो निःसंदेह हमारे प्राण, आज घोर संकट में पड़ने वाले थे! बाबा मतंग और मैं, बाबा बच्चा सिंह के साथ, अब स्तब्ध खड़े थे! हालांकि, मैं आहवान लगातार किये जा रहा था, 

लेकिन वो आकृतियाँ, चमचमाते हए, कभी इधर, कभी उधर, कभी ऊपर, नज़रे आने लगी थीं! साँसें अटक गयीं थीं! दोस्थानों पर प्रकट होने की उस सामर्थ्यता के विषय में, हमने तो सोचा ही नहीं था! 

और अब,अब मात्र वज्रपाणिका ही हमारे प्राण बचा सकती थी! अतः! मैं डट गया! ज़ोर ज़ोर से वज्रपाणिका का आह्वान करने लगा! अपना त्रिशूल उठाया, 

और अब उच्च-अघोरा की नृत्य मुद्रा में आ गया, ये मुद्रा, विशेष हुआ करती है, इसमें आह्वान अत्यंत जटिल और सटीक हो जाया करता है, मुझे देख, बाबा मतंग नाथ भी, उस मुद्रा में आ गए, बाबा बच्चा सिंह, अलख-गान करते हए, ईंधन पर ईंधन झोंकते चले गए! समय आगे बढ़ा, द्वन्द आगे बढ़ा, 

और तभी......अचानक! त्रिपात्रि का कोलाहल अपने चरम पे जा पहुंचा था! हर तरफ वे आकृतियाँ नज़र आ रही थीं, 

वे कितनी थीं, ये नहीं पता चलता था, पीले और नीले से रंग की वो आकृतियाँ, अत्यंत ही वीभत्स और विशाल रूप वाली थीं! अचानक ही, अचानक ही मेरी अलख ने मुंह फाड़ा, वो चार


   
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श्रीशः उपदंडक
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फ़ीट से होकर, सीधा दस फ़ीट की हो गयी! बहुत विशाल घेरा बनाती हुई और उसमे से जैसे चटक चटक, की आवाजें आयीं, जैसे रक्त ईंधन के रूप में पड़ा हो उसमे! 

और उस अलख की आग में से, सफ़ेद सा धुआं उठा! सीधा ऊपर की ओर उठता हुआ! भराम-भराम की आवाजें आनी शुरू हुई! एक बात और, जैसे ही अलख ऊपर उठी, वो सभी आकृतियाँ लोप हो चली थीं! वहां श्मशान के उस भाग में,अब घोर शान्ति पसरी थी। 

और तभी अचानक से ही, हमारे दायें लगा एक बड़ा सा सेमल का वृक्ष झुका, 

और उसका एक बड़ा सा गुद्दा, सीधा होते हुए, चटाक की आवाज़ करता हुआ नीचे आ गिरा! और इस तरह कई पेड़ और पौधे, अपने गुद्दे, और जड़ें खोते रहे! जैसे भूमि पर, किसी का आसन बिछाया जा रहा हो! 

सबकुछ विलक्षण ही था! ये वज़पाणिका का आगमन था! अब ये स्पष्ट था! चूंकि हवा में गंध आने लगी थीं! भिन्न भिन्न गंधा मुंह में, जीभ पर भी स्वाद चढ़ने लगा था उन गंधों का! हम सब खड़े हो गए, 

अलख अभी भी सात फ़ीट की काया में धधक रही थी! हमारे केश उसके ताप को महसूस कर रहे थे, छाती से लटके हमारे सभी माल, गर्म हो चले थे! मित्रगण! 

अब जो दृश्य सामने प्रस्तुत हुआ, उस दृश्य को मैं आज तलक नहीं भुला पाया! 

और संभवतः कभी भुला भी नहीं पाउँगा! 

ये रहस्य मैंने अपनी आँखों से देखा था, और जो देखा, वो विश्वास से भी पर था! मैं अनेकानेक शक्तियों का आह्वान किया है, उनका आगमन भी देखा है और पश्चगमन भी, परन्तु वज़पाणिका का वो आगमन, कभी नहीं देखा था! मेरे सामने, बाबा मतंग के सामने, बाबा बच्चा सिंह के सामने, कोई बीस फीट दूर, फूलों की बरसात हुई, ये कनेर के फूल थे, पीले कनेर के फूल, क्योंकि, कनेर के अलावा मात्र दो और ऐसे फूल है, जिनकी रूप-रेखा ऐसी ही होती है, एक विशाल और दूसरा कनकशाल, लेकिन ये दोनों ही पीले नहीं होते, और इनकी, गंध भी ऐसी नहीं होती, द्विशाल को सूंघने से ही, पुरुष में कामभाव जाग जाता है, असीम उत्तेजना हो जाती है, और कनकशाल को यदि कोई, स्त्री सूंघे तो उसमे भी यही काम भाव जाग जाता है, असीम उत्तेजना आरम्भ हो जाती है, देह अपने आप में नहीं रह पाती, अब आप जानिये कि वरमाला क्या होती है! प्राचीन काल में, अधिक नहीं, कोई बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी तक, यही दो फूल, विशाल और कनकशाल, एकत्रित कर, आपस में गूंथ कर, वरमालाएं बनायी जाती थीं, अब आप इसका उद्देश्य जान ही सकते हैं! आजकल जो वरमालाएं बनायी जाती हैं, वे मात्र साधारण से फूल हआ करते हैं, जिन पर, इब बिखेरा जाता है! ये है आधुनिकता! द्विशाल, हरे रंग का एक छोटा सा फूल होता है, बारह पत्री फूल होता है ये, अक्सर पहाड़ी क्षेत्र में पाया जाता है, 

और कनकशाल छोटा होता है आकार में, होता द्विशाल के साथ ही है! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो वहां कनेर के फूल थे, पीले कनेर के फूल, बड़े बड़े, एक टेरी सी बन गयी थी वहां, और वायु जैसे उस ढेरी को, एक कालीन या आसान का सा रूप दे रही थी! उन फूलों की गंध ऐसी थी, भीनी भीनी कि, श्मशान का पूरा क्षेत्र, एक एक कोना, सुगंधित हो उठा था! 

और तभी चार गणिकाएं प्रकट हईं! वे गणिकाएं ही थीं, सर पर आभूषण धारण किये, लगता था जैसी कि, कोई सुंदर और कामुक प्राचीन यूनानी मूर्तियां, संगमरमर की बनी हुईं,जीवंत हो उठी थीं! ऐसा ही रूप था उनका, उनकी कमर से सटे हुए थे चार कलश, 

और फिर उन्होंने उन कलशों में से, उन फूलों पर, जैसे कोई जल उड़ेला! जल ऐसा सफेद था, कि रात को अँधेरे को, चीर कर, अपनी सफेदी झिलमिला गया था! उस से सफ़ेद रंग मैंने आज तलक नहीं देखा! वे कलश खाली हुए! 

और वे आकाश-गमन कर गयीं! सबकुछ अद्भुत था वो सब! हम सभी दम साधे एकटक वहीं देख रहे थे! प्रकृति में क्या क्या बसा है, ये मात्र एक बानगी थी उसकी! अद्भुत! 

बस अद्भुत! थोड़ा सा चक्का घूमा समय का, हम तो ये भी भूल बैठे थे कि, हम द्वन्द में बैठे हैं! कोई झांकी नहीं देख रहे! अचानक से ही, आकाश से उतारते हुए, दो और गणिकाएं देखी हमनें! चटक लाल रंग के वस्त्र पहने, साज-श्रृंगार किये, देह का ऐसा कोई भाग नहीं था जहां, आभूषण न धारण किये हों उन्होंने! उन्होंने सर पर, दो छोटे छोटे कलश उठाये हुए थे, 

और फिर नीचे आते हुए, वे कलश उन फूलों पर खाली कर दिए उन्होंने, डुब्ब-डुब्ब की आवाज़ हुई, जो द्रव्य गिरा, वो हमें नहीं दिखाई दिया! इस संसार का नहीं था वो, इसीलिए, 

या फिर गोपनीय था, या हम नहीं थे अभी उस दर्जे के समान, यही होता है! और यही हआ था! उन्होंने फिर से आकाश-गमन किया, हम एकटक निहारते रहे उनको! 

वे लोप हुई! 

और अचानक ही एक ऐसा पीला प्रकाश फूटा, कि हमारे नेत्र ही बंद हो गए..... वो पीले रंग का प्रकाश ऐसा जलायमान था कि, जैसे वहां की एक एक वस्तु को, पीले रंग की मिट्टी से भर दिया गया हो! फिर कुछ पल शान्ति रही! प्रकाश में श्लेष्मा, मैंने पहली बार ही देखी थी, जैसे कि प्रकाश गाढ़ा हो गया हो! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे पीले रंग की, चटख पीले रंग की, रजाई उढ़ा दी गयी हो वहां सभी को! कैसा नज़ारा था था वो! अद्भुत! कोई यक्षिणी जब प्रकट हुआ करती है तो, इस प्रकार उसका आगमन नहीं हआ करता, लेकिन वज्रपाणिका को बौद्ध-तंत्र ने कयोन अपनाया, अब समझ आ चुका था! बौद्ध-महातंत्र में इस वज़पाणिका को अभय-सूक्त-दात्री कहा जाता है, ये तामसिक है, घोर तामसिक, और तिब्बत में, इसको रक्षिका के रूप में माना जाता है! 

और फिर, हमारे देखते ही देखते, एक विशाल सा मुकुट,रत्नजड़ित मुकुट, एक विशाल सी छाया के रूप में प्रकट हआ! आकाश में, हम सर उठाये उसको देख रहे थे! हमें तो लग रहा था जैसे सफेद से हंस उस मकट के चारों ओर, नृत्य सा कर रहे हों, फिर लगा कि जैसे सफ़ेद रेशम की पताकाएँ सी हिल रही हो! 

बाबा मतंग आगे आये, अलख से भस्म ली, 

और एक महामंत्र जपा! ये महमंत्र एक याचना के स्वरुप हुआ करता है! इसमें एक साधक अपने प्राण-रक्षण हेतु किसी का आह्वान करता है, 

और बदल में, अपने प्राण उस आराध्या को देने की मांग करता है! यही था वो महामंत्र! 

और तभी वो पीला प्रकाश नीले रंग में बदल गया! जहां ताप था, अब शीतलता छा गयी! हवा में ऐसी ठंडक आई कि रोम रोम खड़ा हो गया! सिहरन सी दौड़ गयी! हाथों की उँगलियों के पोरवे ठंड के मारे सिकड़ने लगे! रिमझिम सी बरसात सी होने लगी वहां! 

जैसे ओंस की एक बूंद सहस्त्र हिस्सों में टूट गयी हो! 

और वहां, वहाँ अब माहौल खतरनाक हो चुका था! बाबा हुँदा अनाप-शनाप गाये जा रहा था, ये मुझे अनाप-शनाप ही लगता था क्योंकि, मैं जो सुन रहा था, वो किसी भी भाषा के शब्द नहीं थे! वे सरभंग शब्द थे, उनमे मुद्रा अधिक और प्रस्फुटन एपल होता है। मात्र साँसों की आवाज़ों से ही अभिमंत्रण किया जाता है! बाबा सेवड़ा अपना त्रिशूल लिए भाग रहा था अलख के आसपास! आज तो जैसे मृत्यु को अतिथि बना, हम स्वांग दिखा रहे थे उसको! कब कौन गिरे, और मृत्यु अपनी वस्तु ग्रहण करे! इसकी प्रतीक्षा थी उसे तो उस क्षण! 

और वहां भयानक शोर हुआ! खड़ताल से बज उठे। बाबा हुँदा और बाबा सेवड़ा, आकाश को देखते हुए, ऐसे अट्टहास लगाने लगे जैसे आज तो संसार के स्वामी हो जाने वाले हों! 

और वहां अब धुंआ सा उठा! काले रंग का धुंआ! 

और उस धुंए में से, सोने के आभूषण से चमके! लगा जैसे अग्नि किसी को, जला रही है और वो, निरंतर चमके जा रहा है! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और जो अब सामने देखा, वो ऐसा था, कि जैसे साक्षात शक्त-दुर्गा के दर्शन हो गए हों! ऐसा शरीर! ऐसा गोरा वर्ण! ऐसे शस्त्र! ऐसी शक्तिशाली भगिनियाँ! ऐसा माहौल! भोग अर्पित किया गया! मांस-मदिरा! 

और मनाओ ऐसा लगे कि. जैसे इस पृथ्वी लोक को छोड़ बैठे थे हम! 

और एक हुंकार! हंकार! 

और जैसे हंकार हुई, बाबा सेवड़ा दौड़ पड़ा! लेट गया। ऊपर देखा! 

आंसू बहाये, और उस विशाल देह-स्त्री से कह डाला सबकुछ! बता दिया अपना उद्देश्य! कि तीन औघड़ हैं! तीन औघड़! जिनका काल, तेरे हाथ में है त्रिपात्रि! तुझे आन है, कि बिन प्राण लिए, वापिस नहीं आना! इस साधक का मान रखना, नहीं तो ये साधक कह देगा, कि विपात्रि सामर्थ्यहीन है! उसको साधना, मृत्यु समान है! तुझे आन है, आन, कि उनके प्राण हर ले! बता दे, कि त्रिपात्रि का वर्चस्व था, और है! छाती फलाये, गाल बजाए वो बाबा सेवड़ा! अपना खंजर अपने गले पर रखे, घुटनों पर बैठे, अपने उद्देश्य-पूर्ति हेतु, गिड़गिड़ा गया था! प्रबल हुंकार उठी! श्मशान हिला! 

और पल में लोप वो त्रिपात्रि! और जैसे ही हमारे यहाँ प्रकट हुई वो भगिनियाँ, एक एक कोना जैसे हिल पड़ा! लेकिन! 

उस वज्रपाणिका के आभा-मंडल से, जड़ हो कर रह गयीं वो भगिनियाँ! त्रिपात्रि की मात्र छाया ही विद्यमान रही वहाँ! 

और त्रिपात्रि, ऐसे गयी, 

जैसे कभी आई ही नहीं! वो शीतलता, वैसी की वैसी ही बनी रही! हमारे प्राण बच गए थे। 

आंसू झरझरा गए हमारे! समस्त गुरु-जन मेरे दृष्टि-पटल पर, चलचित्र की भांति, एक एक कर, आते-जाते रहे! और मेरे दादा श्री, जैसे मुस्कुराते हुए, मेरे मस्तक पर हाथ रख चले गए। उनके हाथ की वो तपन, मुझे उस शीतलता में भी महसूस हुई! बाबा मतंग नाथ बैठ गए! 

और मैं भी दौड़ पड़ा उस चन्द्र से मुकुट के पास, वो बहुत ऊपर था, बहुत ऊपर, मैंने प्रणाम किया! और झुक गया! श्री महाऔघड़ का जाप किया! अपने त्रिशूल को चूमा! लहराया! और बैठा गया वहीं! निहारते हुए उस वज्रपाणिका को! 

जैसे धीरे धीरे, इन्द्रधनुष लोप हो जाया करता है, वैसे ही वो चन्द्र-मुकुट, धीरे धीरे, लोप होता चला गया! बाबा मतंग ने, मेरे कंधे थपथपा दिए! एक वृद्ध औघड़ को ऐसा करते देख, एक बार को तो जैसे मेरा अहम भी जागने लगा था! 

और वहां! वहाँ.. वहाँ! वहां जो देखा वो तो ऐसा था जैसे खेड़ा पलट हो गया हो! इस खेड़ा पलट के निशान वहाँ मौजूद थे! वो असीम नाथ, जैसे सीना फट गया हो उसका! छाती पकड़े हुए, अपने दोनों हाथों से, सहलाये जा रहा था! बाबा हुँदा और बाबा सेवड़ा! शायद गलत प्यादे थे इस असीम नाथ के! नाम का तो असीम था वो, लेकिन अब भय का असीम हो चला था! भय के मारे पीला पड़ा गया था! कांपने लगा था, रह रह कर कंपकंपी छूट जाती थी उसकी! वो अब, उन दोनों के संग आ चिपका था, मंत्रणा का दौर आरम्भ था अब वहाँ! अब बाबा हँदा, अपने


   
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केश बाँध, चुप बैठा था, पता नहीं कैसा सरभंग था वो! कुछ कर भी नहीं रहा था! हाँ, बाबा सेवड़ा, उसको जैसे कै लग गयी थी! पेट में मरोड़ उठने लगी थीं उसको शायद! 

और तब बाबा हुँदा उठा, गुस्से में कुछ बकते हुए, अपना त्रिशूल उठाया, किसी का नाम लिया, 

और फिर आगे तक गया, और अब उसने अपने त्रिशूल के फाल से, भूमि पर एक घेरा काढ़ा, बाबा सेवड़ा तो भूमि में नज़रें गड़ाए चुप बैठा था, असीम नाथ बातें कर रहा था उस से, लेकिन सेवड़ा, उसकी सभी बातों को नकारता जा रहा था! 

और यही से पहली बार असीम नाथ को मृत्यु के घंटे बजते सुनाई दिए! अब फिर से कमान बाबा सेवड़ा ने संभाल ली थी, बाबा सेवड़ा कोई क्रिया करना चाहता था, उसने जब घेरा काढ लिया, तो सामने रखे, ढके, एक सामान को हाथ लगाया, अपने दोनों हतहों पर थूका, और कपड़ा खींच दिया, कपड़ा खींचा तो ये एक घाड़ था, एक स्त्री का घाड़! चाल बहुत खूब चली थी उसने! वो उस घाड़ पर आसीन हो, मारण करना चाहता था! 

और इस मारण के लिए, उसको आह्वान करना था किसी, रौद् शक्ति का! बाबा हुँदा ने, उस घाड़ को, उसके बालों से खींचा, उस घाड़ के, हाथ और पाँव सुतलियों से बंधे हुए थे, आँखों पर कपड़ा बंधा था, स्तनों पर, चिन्ह बने थे, और उदर पर, एक ज़ीका कढ़ा था, यही सरभंग निशान था! अब हँदा जो भी करने जा रहा था, वो मैंने कभी नहीं देखा था, मैं कभी ऐसे सरभंग से नहीं भिड़ा था, जो किसी स्त्री-घाड़ से क्रिया करे! ये मेरा पहला अवसर था! और अब, मुझे अपने घाड़ से, जिसका प्रबंध किया गया था पहले से ही, उसकी मदद लेनी थी, मैंने बाबा मतंग नाथ से पूछा था, तो उन्होंने मुझे ही, घाड़-क्रिया करने को कहा था, मैं तैयार था, और अब देर सही नहीं थी, लेकिन एक बात थी, मुझे ये पता होना चाहिए था कि, बाबा हुँदा आह्वान किसका करेगा, 

और इसमें मेरी मदद बाबा मतंग ही कर सकते थे! वे ज्ञानी थे, निपुण थे और उनके मार्गदर्शन में ही हम अभी तक, परास्त नहीं हो पाये थे! इसी कारण से, उनका सरंक्षण मुझे, ढाल के स्वरुप निरंतर मिले जा रहा था! । वहाँ बाबा हँदा ने वो घाइ,अलख के समीप रखा, 

और बाबा सेवड़ा और असीम था को हटने के लिए कह दिया! अब कोई विशेष ही क्रिया थी जो बाबा हुँदा करने लगा था! वे दोनों उठ गए थे वहाँ से, और जा बैठे दर वहीं जाकर, अब बाबा हुँदा जा बैठा उस घाड़ के ऊपर, 

और दहाड़ा बेतरतीब! रक्त का पात्र लिया, और लीप दिया उस स्त्री-घाड़ को रक्त से, फिर अपना शरीर भी रक्त से लीप लिया! और फिर भस्म लपेट ली! और अब किया अलख-नाद! फिर महानाद! 

चिमटा उठाया, और खड़खड़ाया! 

स्वर गूंज पड़े कर्ण-पिशाचिनी के! पुण्ड-भंजिनी! 

ओह! पुण्ड-भंजिनी! अर्थात, गेस्आक्षी! महारौद्र गेरूआक्षी! ये आज भी तांत्रिक जगत में पूजी जाती है! हैरत होगी आपको जानकार कि, ये भी एक सात्विक-चरित्र की गर्भ-रक्षिणी की शक्ति है! नाम नहीं बताऊंगा उसका! इस सरभंग के बारे में बात करते हुए, उस परम सात्विक शक्ति


   
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का नाम नहीं ले सकता मैं, ये जहां उनका अपमान होगा, वहीं मेरे लिए पाप होगा! तो ये सरभंग अब गेरुआक्षी का आह्वान कर रहा था! आज भी एक पर्वत पर, इसका मंदिर है, कुछ ही लोग यहां तक पहुँच सकते हैं, 

और जिसने इसको सिद्ध किया है, वो विशेष ही हो जाया करते हैं! विशेष! इस सरभंग जैसे! ये दम्भ की देवी है। दम्भ कूट कूट के भरा है इसमें! ये कालकूटिका, पुण्ड-भंजिनी, सहरुद्रा, पुण्ड-कपालिनी आदि नाम से जानी जाती है, इक्यावन रात्रि साधना है इसकी, चौबीस बलि-कर्म से पूजित है, तरह महारौद्र सहोदरियों द्वारा सेवित है! जाम-चर्म इसका आसन है, साधक, इसी चरम पर, इसका आह्वान किया करता है, सिद्धि हेतु, उसके पश्चात, पुनः आह्वान पर, स्त्री-घाड़ इसका आसन बनाया जाता है! 

हाथ में त्रिशूल और एक खड्ग धारण किया करती है! बाबा मतंग नाथ के स्वर गूंजे! वामिनि! उरु-वामिनि! अत्यंत ही रौद्र शक्ति है ये! प्राणों को एक ही फूंक मैं सुख देने वाली, ये उरु-वामिनि आज विंध्याचल में पूजित है! इसके अन्य कई मंदिर हैं! 

ये मुख्य देवी-देवताओं के साथ पत्थरों में अंकीर्ण है। ये अलग बात है कि, आज कोई पहचानता नहीं है इसको, मात्र सेविका ही कहा जाता है इसको, यदि पूछा जाए तो! पूर्ण-ज्ञान आज दुर्लभ है! 

और जिनके पास है, वो बताते नहीं! वहाँ पर एक प्रसिद्ध महाऔघड़ का मंदिर है, उसके बाएं खम्बे पर, उरु-वामिनि की मूर्ति बनी हुई है! ये प्रधान सहोदरी के रूप में स्थित है वहां! जिसने भी ये मंदिर बनवाया होगा, 

उसने उरु-वामिनि को सिद्ध किया होगा! ये कुल चौरासी हैं, जिनकी साधना अत्यंत आवश्यक है, जो द्वन्द के लिए अत्यंत ही आवश्यक हैं! अन्यथा, कच्चा होते हुए, कभी भी, 

द्वन्द में नहीं उतरना चाहिए! आगे,आपका सामर्थ्य और विवेक है, कि कौन सा धनुष आपने लिया है, 

और कौन सा अमोघ बाण! मैंने उरु-वामिनि का आह्वान आरम्भ किया! उधर पुण्ड-भंजिनी और यहां, उरु-वामिनि! 

उरु-वामिनि का आहवान मात्र घाड़ को आसन बना कर ही किया जा सकता है, जिस प्रकार उस पुण्ड-भंजिनी का! 

ये दोनों ही परम घोर-तामसिक शक्तियां हैं, इसी कारण से, इनमे मान रखने हेतु ये आह्वान किया जाता है! यदि ऐसा नहीं किया जाए तो प्राणों का संकट खड़ा हो जाएगा! इसी कारण से घाड़ का प्रबंध होना अत्यंत ही आवश्यक है! अब वहां पुण्ड-भंजिनी का आह्वान आरम्भ हुआ, अलख उठी और ईंधन झोंका गया! ईंधन में वहां भी और यहाँ भी, मांस और रक्त का ईंधन डालते जाना था! अतः वही किया हमने! मंत्र पढ़ते जाते हम दोनों और अलख अपना पेट भरे जाती! बाबा मतंग मंत्रोच्चार में मेरा साथ देते, बाबा बच्चा सिंह अलख में सामग्री डालते, मांस के टुकड़े बना बना उस अलख में झोंकते जाते! अब द्वन्द भड़क गया था, न वो कम ही थे, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और न हम ही कम! सामर्थ्य की लड़ाई थी, ज़ारी थी अभी! अचानक ही बाबा हुँदा चिल्ला पड़ा! अर्थात, उसको भान हो चला था कि, पुण्ड-भंजिनी, उसकी आराध्या जाग चली थी! और मेरे यहाँ भी, प्रबल वायुवेग बह चला था! हवा में ताप बढ़ चुका था, मिट्टी गरम हो चली थी! 

और अचानक से ही वहाँ मांस के गर्म गरम लोथड़े गिरने लगे! उनमे में रक्त पिचकारियों की भांति बहे जा रहा था, सफ़ेद सफ़ेद चर्बी चिपकी थी, लगता था जैसी कि वे मांस के लोथड़े ताज़ा ही हों! कुछ मेरी गोद में गिरे, कुछ बाबा मतंग नाथ के ऊपर, मैं रक्त से नहा गया था! मांस के टुकड़े चिपक गए थे मेरे शरीर से, 

मैं मंत्र पढ़ता जाता और लगातार वो लोथड़े, नीचे गिरते जाते, यदिइकट्ठा किया जाए तो, कम से कम बीस-पच्चीस किलो तो हो ही जाते! 

ये मानव-मांस था, कुछ वराह-मांस और कुछ सूखी हुई हड्डियां, चूर्ण भी था अस्थियों का, मांस में से गंध नहीं आ रही थी, अर्थात ये आगमन पूर्व के चिन्ह थे! उरु-वामिनि मांसभोजी है, मांस और रक्त प्रिय है उसे, जब भोग लेती है, तो कुण्ड के कुण्ड पी जाए, भक्षण कर जाए एक साथ कई मानवों का! या मांस के भोग का! वर्ण में काली, 

भीषण, विशाल काया वाली, बलिष्ठ भुजाओं वाली, नर-मुण्डों से सुशोभित, मानव-हाथों से बनी मालाओं द्वारा शोभित, ये उरु-वामिनि, अत्यंत ही रौद्र हुआ करती है! प्राचीन समय में, नर-बलि से इसका पूजन हुआ करता था, 

अब चूंकि, नर-बलि त्याज्य है, अब मेढ़ा प्रयुक्त हुआ करता है। इसीलिए, बाबा मतंग नाथ ने, पहले से ही, कई मेढ़ों का प्रबंध किया हुआ था, एक बलि-कर्म का मेढ़ा, दूसरी शक्ति को अर्पित नहीं किया जा सकता, अतः, बाबा बच्चा सिंह ने,और बाबा मतंग ने, पहले वाला भौग हटा दिया था वहाँ से! 

और अब भेरी ल दी गयी थी वहाँ! भेरी को साफ़ किया गया, और फिर मदिरापान किया! फिर खड्ग को मदिरा से धोया! मेढ़े का पूजन किया, 

और उसकी गरदन उस भेरी पर सटा दी गयी! 

मैं उठा, 

खडग उठाया, माथे से लगाया, मंत्र पढ़े, 

और एक ही वार में मेड़े की गरदन सामने जा पड़ी! रक्त का फव्वारा बह उठा, 

और अब उस रक्त को, पात्र में भरना आरम्भ किया बाबा मतंग नाथ ने! कुल चार बर्तन भर गए थे। सारे बर्तन इकडे कर लिए गए, 

और रख दिए गए अलख के पास! मांस छीलना आरम्भ हुआ, खाल छील दी गयी, 

और फिर उसके आवश्यक अंग काट लिए गए, जिगर निकाल लिया गया, तिल्ली काट दी गयी, तौलिया निकाल लिया गया, 

और अब उसी पर, ये कलेजा रख दिया गया, मदिरा से स्वच्छ किया गया, एक दीया प्रज्ज्वलित किया गया, कुछ धूपबत्ती भी जला दी गयी, कुल मिलाकर, तांत्रिक-पूजन कर लिया गया! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब भोग तैयार था! और अब में अंतिम चरण के आहवान में बैठ गया! अब गहन मंत्रोच्चार हुआ! वहाँ, वहाँ भी यही चल रहा था, हुँदा, बेतहाशा चीख-पुकार मचाये हुए था! पूरा श्मशान उसने अपने मंत्रोच्चार से, सर पर उठाया हुआ था! 

बाबा सेवड़ा, घबराया हुआ सा, अपने त्रिशूल की फाल जांच रहा था! बाबा असीम नाथ, भय के मारे दुल्लर हुए बैठा था! हँदा बीच बीच में उठ जाता, रक्त के पात्रसे, रक्त के घूट भरता, 

और लाख में झोंक देता! ये सरभंग अब अपने शिखर पर पहुँचने वाला था! और अब दवन्द किसी भयानक अंजाम की ओर, अग्रसर हो चुका था! हुँदा ने, अपने खंजर से, उस स्त्री घाड़ के हाथ में एक चीरा लगाया, 

और रख लिया हाथ अपने मुंह में, चूसने लगा उसका जमा हुआ रक्त, ये एक सरभंगी क्रिया है, इसमें उस स्त्री-घाड़ से अंगीकार हुआ जाता है, कई बार तो, कई सरभंग संसर्ग भी किया करते हैं इस घाड़ के संग! अचानक से रक्त के पात्र हवा में उठे वहां, 

और अलख के पास जाकर खिंड गए! पुण्ड-भंजिनी जागृत हो चुकी थी! उसकी संगिनियाँ, रक्त से लिपी हुई भूमि पर ही, प्रकट हुआ करती हैं, और, यही हुआ था! दहाड़ उठा हुँदा! चीख उठा! 

और मैं! मैं अपने आह्वान में और सतत हो चला! 

दोनों ही महा-शक्तियां अब जागृत हो चली थीं! भयानक माहौल था हर तरफ! वहाँ भी, और मेरे यहां भी! दोनों की ही अलख मुंह फाड़े, भोग लिए जा रही थीं! "मुखाहुति दो!" बोले बाबा मतंग! बाबा बच्चा सिंह ने तभी, 

आदेश का पालन करते हुए, दे दी मुखाहुति! जैसे ही मुखाहुति दी गयी, भयानक अट्टहास हुआ! श्मशान का कोना कोना जाग उठा! एक एक पेड़, जैसे अपनी जड़ को संभालने लगा! रात्रिकालीन पक्षीगण उड़ चले! उनके पंखों की आवाजें गूंज उठीं! कीट-पतंगे, जो जहां थे, वहीं ठहर गए! कइयों के पंख झुलस उठे, कई भस्म हो चले! और कई भाग छूटे! मंझीरे शांत हो गए थे! झींगुर, सब जैसे एकांतवासी हो चले थे! श्मशान में अब द्वन्द अपने चरम पर चढ़ चला था! "पुण्ड-भंजिनी! जाग! जाग पुण्ड-भंजिनी!" बाबा हुँदा कहक उठा! नाचे, क्रोध करे, आह्वान को अंतिम स्वरुप दे! बाबा सेवड़ा, असीमनाथ, भूमि पर माथा टिकाये, 

आँखें बंद किये, हाथ जोड़े, लेट गए थे! पुण्ड की संगिनियाँ, जो पहले से ही आवानित हो चली थीं, 

अब बस उद्देश्य-पूर्ति हेतु, सजग हो चली थीं! 

और हमारे यहां! "उरु-वामिनि! रक्षा! प्रकट हो! प्रकट हो!" मेरे मुंह से निकला! प्रकाश कौंध चला! नज़रों के सामने ही, भूमि में एक बवंडर सा उठ चला! हवा सारी सोख ली गयी थी उस बवंडर द्वारा! केंद्र बन चला था वो बवंडर! हम भाग चले उधर ही दौड़ कर! 

और लेट गए, दंडवत हो गए! भम्म! भम्म! भम्म! भम्म! ऐसी भारी भारी आवाजें फट पड़ीं उस बवंडर से! वो बवंडर, ऊपर उठा! घूमा! 

और अब एक आकृति का रूप लेने लगा! एक आकृति! भयानक आकृति! किसी स्त्री की आकृति! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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दीर्घ-देहधारी स्त्री! और फिर प्रकाश! अद्भुत प्रकाश! ताप वाला प्रकाश! झुलसा देने वाला प्रकाश! 

और सहसा ही, 

पुण्ड-भंजिनी की संगिनियाँ, क्रंदन करती हुई, प्रकट होने लगीं! और एक अग्नि का गोला सा प्रकट हुआ! बढ़ा हमारी ओर! नाश करने हमारा! अपने साधक का मान रखने हेतु आगे बढ़ा! उद्देश्य पूर्ण करने हेतु आगे बढ़ा! 

और तब ही! वो गोला, फूट पड़ा! उसे असंख्य टुकड़े हो चले! हर दिशा में वो टुकड़े बिखर गए, और लोप होते चले गए! उरु-वामिनि का अट्टहास गूंजा! और पुण्ड-भंजिनी प्रकट हुई! उरु और पुण्ड, दोनों समक्ष! हम, मात्र दर्शक ही लग रहे थे! अमोघ शक्तियां एक दूसरे के सामने थीं! शोर मच रहा था! जैसे अग्नि में मनों तेल डाल दिया गया हो! अग्नि जैसे गाढ़ी हो गयी थी! 

और अगले ही पल! पुण्ड-भंजिनी और उसकी संगिनियाँ, फूलों की बरसात करते हुए, लोप हो चली थीं! हमारे तो नेत्र फ़टे रह गए! हम उठे, भाग चले उस आकृति की तरफ! वो धूमिल आकृति थी, बस, प्रकाश की लपटें ही नाच रही थीं उस 

आकृति पर! बाबा मतंग ने उस 'देवी' का एक मंत्र पढ़ा! मैं उठा, और वही मंत्र पढ़ा! घोर अट्टहास हुआ! अब वो आकृति एक स्त्री का रूप लेने लगी! 

और हमारे देखते ही देखते, एक अप्सरा समान 'देवी' प्रकट हो गयी 

थी! 

उद्देश्य पूर्ण हो गया था! हमारे प्राण बच गए थे! अभी तक, इस धरा पर, धड़कते हृदय समेत, जीवित थे! भोग अर्पित किया गया! 

और फिर मंत्र पढ़े! और इस प्रकार, उरु-वामिनि लोप हो गयी! बाबा मतंग नाथ से, मैं चिपट गया था! 

आंसू बह चले थे! घुटनों की जान, चली गयी थी! बाबा ने संभाला मुझे और लगा लिया गले अपने! सर पर हाथ फेरा, पीठ पर थपथपाया, 

और मेरे आंसू पोंछे! और ले चले मुझे अलख की ओर! हम वहाँ बैठ गए अख के पास! अलख में भोग दिया और अलख भड़की अब! 

और अब वहाँ! वहाँ तो जैसे, खेड़ा पलट गया था! 

बाबा हुँदा, अपने हाथ-पाँव फैलाये, भूमि पर पड़ा था! बाबा सेवड़ा, जैसे विक्षिप्त हो चला था! अपने चिमटे से, वहीं बैठ कर, मिट्टी खोद रहा था! 

और वो असीमनाथ! वो तो जैसे अब धकेल दिया गया था, अपनी ही मृत्यु का साक्षात्कार करने! उनकी अलख, जैसे जान चुकी थी कि, अब उसका अंत होने को ही था! 

और हमारे यहाँ! बाबा मतंग नाथ का अट्टहास गूंजा! कपाल-कटोरों में, मदिरा परोसी गयी! बाबा ने और मैंने, एक साथ ही गटक ली! 

और अब मैंने भी अट्टहास लगाया! बाबा मतंग ने, अपना चिमटा उठाया, खड़े हुए, चिमटा खड़खड़ाया! आगे बढ़े! "सेवड़ा! हुँदा! असीमनाथ!" गरजे वो! उन तीनों ने आकाश हो देखा, जैसे


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा मतंग नाथ, स्वयं ही प्रकट हुए हों वहाँ! चेहरे सफेद, फक्क पड़े थे उनके! अब बाबा मतंग ने, भूमि पर थाप लगाई! 

और फिर से चिमटा बजाया! 

कुल ग्यारह बार! बाबा सेवड़ा उठ बैठा! 

और...... 

झूमते हुए बाबा मतंग आगे बढे, एक चुटकी मिट्टी उठायी, और लगा ली अपने माथे से! मैं समझ गया उनका आशय! अब द्वन्द का अंतिम चरण था! बाबा सेवड़ा का झूठा अहम अब उजागर होने को था! 

और बाबा हुँदा! बाबा हुँदा का शायद ये अंतिम और निर्णायक द्वन्द होने को था! 

और वो भीरु असीमनाथ! वो तो ऐसे काँप रहा था जैसे कि, किसी तूफ़ान में सफेदे के दरख़्त की पत्तियाँ काँप जाया करती हैं! कुल मिलाकर, असीमनाथ को अब अपनी सीमा दिखाई देने लगी 

थी! लेकिन कहते हैं न! कहते हैं कि घमंड इस समय पर तो और हावी हो जाया करता है, 

और वही तो हो रहा था! बाबा सेवड़ा और बाबा हुँदा, हार की कगार पर थे, लेकिन अहम! उनका अहम अभी भी सर उठाकर इटा था! अब या तो अंत हो, या फिर बाबा मतंग की दया! तभी कुछ सम्भव था! द्वन्द मेरा था, लेकिन कमान अभी तक, बाबा मतंग ने ही संभाली थी! उस वृद्ध औघड़ ने, अपने अनुभव का निचोड़, आज निकाल दिया था इस द्वन्द में! 

बाबा पीछे आये और अपना त्रिशूल उखाड़ लिया भूमि से, 

और लहराया उसको तीन बार, फिर शीश झुकाया, आशय स्पष्ट था, यदि अभी भी वो क्षमा मांग लें, तो प्राण बच सकते थे! लेकिन वो दोनों! वो दोनों नहीं माने! और न ही मानना था उनको! अब तो निर्णय की घड़ी आन पहुंची थी! बाबा मतंग के वृद्ध होंठ फैले, एक हल्की सी मुस्कुराहट आई उन पर, मुझे देखा, आँखों में, एक चमक थी! अब बाबा बैठे अलख पर, अब वार उन्होंने करना था! मुझे इशारा किया, और बुलाया, मैं उठा, गया उनके पास, "अपने गुरु का वंदन कर लो, अब ये अंतिम प्रहार होगा!" वे बोले, गुरु वंदन! अर्थात, उनका आशय था कि मैं अपने गुरु से आज्ञा ले लूँ! मैंने नेत्र बंद किये, और ध्यान में लगा! गुरु-नमन किया और आज्ञा प्राप्त करने हेतु, गुरु-मंत्र जपा! 

और नेत्र खोले! "सेवड़ा! हुँदा! असीमनाथ! सावधान!" बोले मतंग बाबा! अब उठे वो! और जा बैठे उस घाड़ पर! घाड़ जैसे आज अपने भाग्य पर इतरा रहा था! जैसे उद्देश्य पूर्ण हुआ था उस पंच-तत्व शरीर का! अब बाबा ने मंत्र जपे! 

और जो मंत्र उन्होंने जपे, वो महाप्रबल मंत्र थे! अज्म-कालिका के मंत्र! अज्म-कालिका! एक महारौद्र महाशक्ति! मैंने कभी सिद्ध नहीं की थी, कभी नहीं! हाँ, सुना अवश्य ही था! बाबा मतंगनाथ, अपनी सिद्धियों के कारण, आज इस अज्म कालिका का आहवान करना चाहते थे! मैं तो धन्य हुआ था! बहुत गर्व हुआ मुझे बाबा मतंग नाथ के शिष्यत्व में उस समय! किसको नहीं होता! लाजमी ही था! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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खैर, बाबा ने अलख में ईंधन झोंका, बाबा बच्चा सिंह भी उस आह्वान में जुट गए! अलख में ईंधन झोंकते, और जाप करते जाते! बाबा बच्चा सिंह ने रक्त-पात्र आगे रखे, मांस के टुकड़े उनमे डुबोकर, थाल में सजाये, अलख-श्रृंगार किया! अलख-भोग दिया! मैंने दीप प्रज्ज्वलित किये! कुल अठारह दीप! बना दिया उनसे एक वृत्त! यही है विधि अज्म-कालिका के आहवान की! अज्म-कालिका! 

ये कालिका, नौ हैं, रोड़का-कालिका, धुवस-कालिका, रूम-कालिका, अज्म-कालिका, भंवर-कालिका, संयथाल-कालिका, गवस-कालिका, प्रलय-कालिका और करुक्ष-कालिका! ये अत्यंत ही महाप्रबल और महारौद्र हैं! जिस प्रकार नाहर सिंह वीर स्वतंत्र हैं, उसी प्रकार ये नव-कालिकाएँ 

भी स्वतंत्र हैं! अज्म-कालिका की सिद्धि चौरासी रात्रि की है, इक्कीस बलि-कर्म द्वारा पूजित है, नौ रक्त-स्नान द्वारा सुशोभित है, साधक को अपना रक्त भी चढ़ाना पड़ता है इसको सिद्ध करने के 

लिए! 

मानव-चर्म का आसन उपयोग में लाया जाता है, मानव अस्थियों से बने तंत्राभूषण ही प्रयोग में लिए जाते हैं, नौ साध्वियां, भी अत्यंत आवश्यक है, शेष कार्य गूढ़ है, और बताने के लिए प्रतिबंधित हैं! जिस समय अज्म-कालिका प्रकट होती है तो उस समय समझिए 

कि, 

स्वयं मृत्यु से साक्षात्कार हुआ करता है! अंतिम तीन रात्रि-काल में, ये जागृत होती है, अपनी एक सौ चौरासी सहोदरियों द्वारा सेवित है, वही सर्वप्रथम प्रकट हुआ करती हैं! इस समय, साधक, मूक हो जाता है, बस नेत्र ही काम किया करते 

शेष इन्द्रियाँ शिथिल हो जाया करती हैं, 

साधक, स्वयं अपनी आवाज़ भी नहीं सुन सकता! इसी महारौद्र महाशक्ति को सिद्ध किया था बाबा मतंग नाथ ने! तो गर्व क्यों न होता! होता! अवश्य ही होता! 

और फिर, मैंने तो ये भी निर्णय ले लिया था कि, बाबा मतंग नाथ का शिष्यत्व ग्रहण कर, इस अज्म-कालिका को साधा जाए! ये मेरा अहोभाग्य होता! और मुझे फिर भी गर्व होना ही था! महामंत्र गूंज उठे! श्मशान में जैसे स्वयं श्री महा-आद्या का स्वागत होना था! आह्वान ऐसा विकट था कि, कोई सुन ले तो पत्थर ही बन जाए! न हिले ही बन पाये, न जड़ रहे ही बन पाये! क्या भूत और क्या प्रेत! सभी भाग लेते हैं इस जाप को सुन कर! कौन चाहेगा कि उसकी शक्ति सोख ली जाए! कोई भी नहीं! अब श्मशान शांत था! स्वागत में सतत लगा था उस अज्म-कालिका के! अज्म-कालिका को आज इस जगत में एक अन्य नाम से जाना जाता है, 

और ये पूजित है, हाँ, इस विषय में अधिक आज शायद ही किसी को मालूम हो, पर मूल उसका यही अज्म-कालिका ही है! तांत्रिक-जगत में ये कालिकाएँ, पूजित हैं! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो अब आह्वान हो रहा था! खबर तो उनको भी थी! अब बाबा हुँदा और बाबा सेवड़ा, और वो भीरु बाबा असीमनाथ! अलख के चारों ओर आ बैठे थे! चक्रेश्वरी-विद्या ने बता दिया था कि, आह्वान किसका है! 

चेहरों पर उनके, जैसे धुंध छा गयी थी! देह में जैसे सर्प-विष दौड़ रहा था! असीमनाथ के तो शब्द भी नहीं निकल रहे थे मुंह से बाहर! 

और बाबा हुँदा, और बाबा सेवड़ा, बढ़ रहे थे अपने अंजाम की ओर! वो जो विधि अपना रहे थे, वो रक्षण था! मूर्ख कहीं के! रेत से सागर के जल को नहीं बाँधा जा सकता! 

अज्म-कालिका के लिए वो रक्षण भेदना ऐसे ही था कि जैसे, किसी हाथी के समक्ष रुई की दीवार लगा दी हो! त्रिशूल अभिमंत्रित कर लिए गए थे, अलख में भोग डाल दिया गया था! 

और अब, अज्म-कालिका को रोकने में, लगे थे वो सभी दम्भी तीन औघड़! बाबा हँदा और बाबा सेवड़ा, दोनों ही अपने अपने ढंग से रक्षण करने में जुटे थे! बाबा असीम नाथ कभी बाबा हुँदा के करीब बैठता और कभी बाबा सेवड़ा के पास! 

हवाइयां! हवाइयां उड़ी थीं चेहरे पर उसकी! जैसे अंत बस निकट ही खड़ा हो! असीम नाथ ने तो नाम भी नहीं सुना था उस अज्म-कालिका का! हाँ, बाबा हुँदा जानता था! इसीलिए लगा हुआ था बाबा सेवड़ा संग अपने प्राण-रक्षण में! अपनी देह-रक्षण में! लेकिन आज, आज तो उस सरभंग का अंतिम द्वन्द था! एक न चली थी उनकी आज के द्वन्द में! हर वार खाली गया था, और अब हमारी बारी थी वार करने की! ये वार अचूक हो, अमोघ हो, इसीलिए, आह्वान जारी था! एक महाप्रबल आह्वान! अब देखना ये था कि वे तीनों कैसे रक्षण करते अपना! समय आगे बढ़ता जा रहा था, 

और उन तीनों और उनके अंत की बीच का ये फांसला, अब कम हुए जा रहा था! ऐसा नहीं था कि उनको ये पता न हो, उनको पता था, उनका अंत अब निश्चित है, ये जानते थे वो! लेकिन हैरत इस बात की, कि अभी तक भी अपने किये पर, कोई सवाल नहीं छेड़ा था उन्होंने! दम्भ में ऐसे डूबे थे कि, मर जाएँ लेकिन दम्भ न छूटे! वे क्षमा मांगते, तो उनको सर्व-दान मिल जाता! यही तो नियम है द्वन्द का! क्षमा मांग लेते तो आज असीम नाथ का वो हाल न होता जो आज 

सेवड़ा आज भी जीवित होता, 

और हुँदा, आज भी सरभंग के रूप में जाना जाता! अफ़सोस! ऐसा हुआ नहीं, और न ही होना सम्भव था! जिस दम्भ की ढाल के नीचे वे बैठे थे, अब वो बिंधने जा रही थी! 

और ढाल भी कैसी! फूस की बनी ढाल! कागज़ की ढाल! मुझे श्यामा का चेहरा याद आया उसी समय! श्यामा का वो डरा चेहरा, प्राणों की भीख मांगता वो चेहरा! उस चेहरे पर छलछलाती हुई पसीने की वो बूंदें! सब याद आ रही थीं! श्यामा! अब कोई कुछ नहीं कहेगा तुझे! कोई भी नहीं! जा! तुझे तेरे प्राण मिल ही गए! ऐसा मान हुआ मुझे बाबा मतंग नाथ के उस आहवान के मंत्रो में! अचानक ही बिजली सी कड़क उठी! उस प्रकाश में नहा गए हम सभी! बाबा बच्चा सिंह नेत्र बंद किये हुए, जाप में लीन थे! हाथों में सामग्री थी, मंत्र पूर्ण होते ही, अलख में झोंक देते! 


   
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