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वर्ष २०१० जिला गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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किया उन्हें और चरण स्पर्श किये उनके! वे जानते तो थे ही, गले से लगा लिया मुझे और शर्मा जी को, हम बैठे वहीं, 

और बाबा ने हाल-चाल पूछे, हमने बताया और उनका हाल-चाल पूछा, बाबा भी ठीक थे! अब मैंने बाबा को अपने आने का प्रयोजन बताया, वे मुस्कुराये और आराम करने को कहा, फिर शाम को बात करेंगे, कह कर, अपने सहायक को बुलाया, 

और हमें उसके साथ जाने को कहा! आराम तो करना ही था, रात भी सही तरह से सो नहीं पाये थे हम, सबसे पहले कक्ष में पहुँचते ही, स्नान किया, ताज़गी आई थोड़ी! फिर चाय आ गयी, चाय पी फिर, पानी रखवा लिया वहीं, 

और अब बिस्तर पर लेटे! कुछ ही देर में, आँख लग गयी! 

और हम सो गए फन्ना के! 

जब नींद खुली, तो दो बजे थे। खब अच्छी तरह से सोये थे हम! अब थकावट नहीं थी बाकी! एक सहायक आया और भोजन की पूछी, वो पहले भी चक्कर लगा गया था, लेकिन तब हम सो रहे थे। हमने मंगवा लिया भोजन! भोजन आया और हमने भोजन किया फिर! करेले थे भरवां, हरी मिर्च का अचार, दही, दाल और अचार, रोटियां और चावल! किसी महिला ने ही बनाया था, 

बहुत बढ़िया भोज था, घर के जैसा! मजा आ गया था भोजन कर के! सारी थाली ही साफ़ कर दी हमने! भोजन किया तो टहलने चले हम! बाहर टहले, पेड़ आदि लगे थे कटहल के, बेल लगी हुई थीं! उन पर घीये,तोरई,सीताफल और करेले लग रहे थे! यही था भोजन के स्वाद का राज! ताज़ा सामान था, तो स्वाद तो आना ही था! हम काफी देर तक टहले, 

और फिर वापिस आये, शर्मा जी ने चाय मंगवा ली थी, मैंने नहीं पी, मन नहीं था चाय पीने का, उसके बाद फिर से आराम किया, फिर सो गए, छह बजे उठे हम सोकर, काम तो कुछ था नहीं, बस नींद ही नींद। शाम हुई, 

और मैं बाबा के पास गया, 

बाबा अकेले ही बैठे थे, मैं नमस्कार आकर, बैठ गया साथ में ही, अब बात शुरू की मैंने, "बाबा, क्या सच में उस औघड़ असीम न्थ ने प्रचंड योगिनी को सिद्ध किया है?" मैंने पूछा, वे चुप रहे, 

और फिर मुझे देखा, "नहीं" वो बोले, उनके नहीं करने से जैसे मनों बोझ उतर गया सर से! मुझे पहले ही पता था कि, वो झूठ ही बोल रहा है। अब मैंने बाबा को सारी कहानी बता दी, वो बहुत हँसे! दरअसल, बाबा शैलनाथ के एक शिष्य हैं बाबा देव नाथ जी, इन्ही देव नाथ जी का शिष्य है वो असीम नाथ! "तो उसने झूठ क्यों बोला?" मैंने पूछा, "मूर्ख है!" वे बोले, 

खैर, जो मैंने जानना था, जाना लिया था, वो कोई योगिनी नहीं साध रहा था, बल्कि झूठ साध रहा था! अब बात साफ़ हो गयी थी। अब कौन असीम नाथ! भाड़ में जाए! मैंने तो बाबा को भी बताना था, छिद्दा बाबा को, कि कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है उसके साथ! ऐसे झूठों से दूर ही रहो! मैंने बाबा का धन्यवाद किया! 

और उठ गया, उन्होंने फिर से एक सहायक को बुलाया, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और 'शहरी सामान' देने को कहा, सहायक उठा, मुझे बुलाया, 

और मैं बाबा को नमस्ते कर, चल दिया उसके साथ, वो वक कक्ष में गया और, एक बोतल निकाल आकर दे दी, मैंने ले ली, उसने अभी साथ में खाने के लिए, सामान लाने को कहा, मैं चल पड़ा अपने कक्ष की ओर, 

आ गया कक्ष में अपने, शर्मा जी को बोतल दी, 

और बैठ गया, शर्मा जी ने उस बोतल का मुआयना किया, ये नेपाल की ही शराब थी! थोड़ी ही देर में, वो सहायक आ गया, 

और ले आया था सारा सामान, सलाद, फल कटे हए, 

और साथ में हरी चटनी! पानी भी ले आया था ठंडा! अब क्या था! हुए हम शुरू! 

खाते रहे और पीते रहे! तभी मेरा फोन बजा, मैंने नंबर देखा, नहीं समझ आया, कोई नया नंबर ही था, मैंने बात करने के लिए, 

ओके दबा दिया! ये फ़ोन श्यामा का था! उस से बात हुई, 

और उसने वही बताया जो मुझे, 

बाबा शैलनाथ ने बताया था! मैंने उसका धन्यवाद किया, 

और फ़ोन काट दिया! अब फिर से शुरू हुए, तभी मुझे नीलिमा का ध्यान आया, वो यहीं थीं, पास में ही, कोई एक किलोमीटर दूर ही! कल उस से भी मिलना था! अब यहां तक आये हैं तो, मिलना बनता है! हम फारिग हुए, 

सो गए, अगले दिन कोई नौ बजे, चाय-नाश्ता कर, हम नीलिमा से मिलने चल पड़े! नीलिमा आजकल एक संस्था चलाती है, महिलाओं की, महिलाओं को शिक्षण दिया करती है, सिलाई-बुनाई का, उसकी भी एक कहानी है, दर्दभरी! कभी लिखूगा! मैं पिछले वर्ष मिला था उस से! उसके बाद अब आ रहा था! हम पहुँच गए वहां, हमने पूछा नीलिमा के बारे में, तो एक महिला ने बता दिया, हम सीढ़ियां चढ़ चले, 

और पहुँच गए ऊपर, उसके कक्ष के सामने आये, 

तो वो कुछ लिखत-पढ़त कर रही थी, अब चश्मा लग गया था उसे, चश्मा फब रहा था उसके चेहरे पर, पहले से अधिक तंदुरुस्त लग रही थी! मैंने दरवाजे पर दस्तक दी, उसने देखा, खुश हुई, सारा काम छोड़, भागी चली आई! मुझसे गले मिली, 

और शर्मा जी के पाँव छुए! फिर ले चली एक कक्ष की ओर! 

और हम चल पड़े उसके पीछे पीछे! हम कक्ष में घुसे, यहाँ कुर्सियां और सामान आदि रखा था, दो कंप्यूटर भी रखे थे, काम बढ़िया चल रहा था नीलिमा का, नीलिमा ने एक महिला को बुलाया, महिला आई,तो पानी लाने को कहा, "कब आये?" पूछा उसने, "कल आये थे" मैंने कहा, "खबर नहीं की आने की?" उसने पूछा, "क्या खबर करते नीलिमा!" मैंने कहा, "कहाँ ठहरे हैं?" उसने पूछा, "यहीं, बाबा शैलनाथ के पास" मैंने कहा, "अच्छा! बाबा ठीक हैं मुझे दो महीने हो गए मिले उनसे?" वो बोली, "हाँ, ठीक हैं" मैंने कहा, पानी ले आई महिला, हमने पानी पिया फिर, गिलास वापिस दिए, "तुम कैसी हो?" मैंने पूछा, "ठीक हूँ"वो बोली, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"और आप?" उसने पूछा, "हम भी ठीक हैं" मैंने कहा, "यहाँ बाबा के पास आये हो?" उसने पूछा, "हाँ, उन्ही से काम था" मैंने कहा, "हो गया काम?" उसने पूछा, "हाँ, निबट गया" मैंने कहा, "वो शोभना कैसी है?" उसने पूछा, "ठीक है! तुम्हे याद करती है बहुत!" मैंने कहा, "कभी कभार बात हो जाती है उस से" वो बोली, "अच्छा" मैंने कहा, अब चाय और समोसे आ गए थे, बड़े बड़े नेपाली समोसे! वही खाए चाय के साथ! मजा आ गया! गर्मागर्म थे। "और काम कैसा चल रहा है तुम्हारा?" पूछा मैंने, "बढ़िया!" वो बोली, "अब खुश हो?" मैंने पूछा, "हाँ!" वो बोली, "माता जी कहाँ हैं?" मैंने पूछा, "यही हैं" वो बोली, "ठीक हैं?" मैंने पूछा, "हाँ, ठीक हैं" वो बोली, "चलो अच्छी बात है" मैंने कहा, "खाना खा लिया?" उसने पूछा, "अभी नहीं, अब जाकर खाएंगे" मैंने कहा, "बनवा दूँ?" उसने पूछा, "अरे नहीं नीलिमा!" मैंने कहा, "क्यों?" वो बोली, "अभी भूख नहीं" मैंने कहा, "वापसी कब है?" उसने पूछा, "कल निकल जाएंगे" मैंने कहा, 

"इतनी जल्दी?" उसने कहा, "और क्या काम है इधर?" मैंने कहा, "अरे एक दो हफ्ते रुक के जाओ?" वो बोली, "नहीं नीलिमा, वहाँ काम है बहुत" मैंने कहा, अब शर्मा जी उठे, लघु-शंका के लिए, उन्होंने पूछा शौचालय के बारे में, तो बता दिया उसने उन्हें, वे चले गए, "रात आ जाओ इधर?" उसने कहा, "नहीं नीलिमा!" मैंने कहा, "क्यों?" उसने पूछा, "नहीं! सच में, तुम मुझे ऐसे ही अच्छी लगती हो, सच में!" मैंने कहा, 

वो मुस्कुरा पड़ी, 

और मैंने उसका हाथ खींच कर, उसके माथे पर और होंठ पर, एक एक चुंबन दे दिया! हाथ में पसीना आया हुआ था उसे, भाव तो मैं जानता ही था, लेकिन कभी मैंने नीलिमा को, काम-दृष्टि से नहीं देखा था! उसको चूम लिया, बस, यही हद थी मेरी, 

जो मैंने बना के रखी थी! पांच साल से! मुझे वो नीलिमा और ये नीलिमा, सब याद थीं! बहुत दुःख उठाया था इस नीलिमा ने, मैं निकाल कर लाया था उसको, नहीं तो, कहीं आज जोगन बनी बैठी होती, काम-लोल्पों के काम-शैय्या पर बीतते दिन और रात, वो एक बाबा था, जलेसर का, 

दक्खन बाबा! हरामजादा! एक नंबर का घटिया इंसान! उस से द्वन्द तो नहीं हुआ था मेरा, नहीं तो जान ले लेता उसकी, बस मैंने उसको मारा इतना था कि, दो महीने तक बिस्तर पर पड़ा रहा था, सर फाड़ दिया था मैंने, एक घुटना तोड़ डाला था! तब लाया था मैं इस नीलिमा और इसकी माता जी को वहाँ से, तब, नेपाल के एक जानकार, अपने साथ ले आये थे इनको, उन्होंने बहुत मदद की नीलिमा की, हर तरह से, अपनी बेटी ही मानकर! अब नहीं हैं संसार में वो, आधी संपत्ति दे दी थी उन्होंने नीलिमा को! उस इंसान को प्रणाम मेरा, बारम्बार! 

और आज नीलिमा, 

खुश है! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और क्या चाहिए संसार में! आपके कारण किसी को सुख मिले, तो आप अपने आपको धन्य मानिए! कि ऊपरवाले ने ये अवसर आपको दिया! किसी और को नहीं! उस समय की नीलिमा, डरी-सहमी रहती थी! 

और आज! आज इतनी दृढविश्वासी है कि, किसी को टिकने न दे अपने सामने! उसे खुश देखकर मैं बहुत खुश होता हूँ! शर्मा जी आ गए थे तभी, और फिर मैं खड़ा हुआ, और तब नीलिमा ने,रात को खाने के लिए, आमंत्रित कर लिया! 

अभी और भी बातें करनी थीं उस से! तीस की हो चली थी लेकिन अभी तक, ब्याह की नहीं सोची थी उसने! यही समझाना था मुझे उसको! ब्याह कर ले और घर बसाये अपना! अब विदा ली उस से, वो बाहर तक छोड़ने आई हमें, 

और हम चल पड़े वापिस, तभी फ़ोन बजा, 

ये श्यामा थी, बात हुई तो उसने पूछा कि, हम वापिस कब आएंगे? ये अजीब सा सवाल था! हमारी वापसी से उसे क्या मतलब? 

खैर, मैंने बता दिया था उसे कि, दो दिन बाद आ जाएंगे वापिस, लेकिन गोरखपुर, वो गोरखपुर ही मिलेगी, ऐसा उसने बताया, न जाने क्या काम था उसको हमसे, अब जो होगा, देखा जाएगा! हम जा पहंचे बाबा शैलनाथ के पास, उन्हें बताया कि नीलिमा से मिलने गए थे हम, उन्होंने भी नीलिम के विषय में पूछा, कुशल-मंगल पूछी। "आ जाती है बिटिया कभी कभी मिलने!" वे बोले, "ये तो अच्छी बात है!" मैंने कहा, "हाँ, सही बात है" वे बोले, 

और भी बातें हुई, और फिर एक बात से सनसनी मचा दी मेरे दिमाग में! बाबा शैलनाथ ने बताया कि, वो असीम नाथ, उसका फोन आया था, पूछ रहा था कि, वो दिल्ली वाले दो आदमी आये थे क्या? 

अब उसने क्यों फ़ोन किया? बात तो अजीब ही थी! उसने अपने गुरु को भी फ़ोन किया था! बाबा ने सच्चाई बता दी थी उसको! ये भी अच्छा ही हआ था! "सुनो आप लोग, ये आदमी बदमाश किस्म का है,अब नहीं मिलना इस से" वे बोले, मैं हंस पड़ा! वो बदमाश है! दो हड्डी का बदमाश! साले के एक मार तो, केस हो जाए पुलिस में उसी वक़्त! "ठीक है बाबा!" मैंने कहा, "हाँ, बेकार में क्यों झगड़ा मोल लिया जाए?" वे बोले, 'हाँ, सही कहा आपने" मैंने कहा, फिर कुछ और बातें, 

और हम बाहर फिर, कमरे में आये, भोजन पूछने आया सहायक, मंगवा लिया, भोजन किया, स्वाद वाला खाना बनाया था! ताज़ी सब्जियों का खाना! जब बर्तन ले गया वो तो, शर्मा जी ने फिर से गालियों की बौछार का दी! मेरी हंसी छटी! "साला सामने जो आया अब, तो साले की गुल्ली और गोलियां, दोनों ही से हाथ धो बैठेगा! बदमाश बनता है साला! इसकी* की ** में बिजार मूते!" वे बोले! मेरी हंसी दोगुनी हुई! ज़रा कल्पना करके तो देखिये! ऐसी ऐसी नायाब गालियां देते हैं अपने शर्मा जी! "बहन का ** हमसे टकराएगा! साले की आंतें खींच लूँगा बाहर उसकी ** में हाथ डाल 


   
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श्रीशः उपदंडक
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कर!" बोले वो! मैंने शांत किया उन्हें! लेकिन फिर भी गुन गुन करते ही रहे! चाय मंगवा ली उन्होंने! अब मैंने भी पी चाय! 

और फिर आराम किया! अब हई शाम! और लगी गज़ब की हुड़क! मैंने सहायक को बुलाया, 

और सामान लाने को कहा, वो जब आया, तो साथ में एक महिला भी थी, उसने सलाद आदि पकड़ी थी, वो शर्मा जी ने ले ली, 

और बोतल, गिलास और पानी, वो मैंने ले लिए, सलाद से अखबार हटाया तो, मछलियाँ थीं, तली हुईं! मसाले में ढकी हईं! खुशबु ऐसी ज़ोर की, कि कांटे भी खा जाऊं! मैंने एक टुकड़ा लिया उसका, 

और खाया, क्या गज़ब मसाला था! अजवाइन, लहसुन, अदरक, इमली, हल्का सा बेसन और, अन्य कई मसाले डाले गए थे, सरसों थी पीसी हुई! स्वाद ऐसा कि पूछो ही मत! आज मदिरा दोगुना मजा देने वाली थी! हम तो हए शुरू! 

और आराम से एक एक गिलास खींचते चले गए। मछलियाँ खत्म होती, कि वो औरत फिर से आई, 

और रख गयी चार मछलियाँ! बंगाली स्वाद था उन मछलियों में! 

ऊँगली तक चाट डाली थी हमने! 

और वो जो हरी चटनी थी, वो बड़ी तीखी थी! पहाड़ी मिर्च डाली गयी यही उसमे! लेकिन स्वाद ऐसा, कि एक बार चख लो, तो कटोरा भर के पी जाओ! हमने खूब आनंद उठाया मछलियों और मदिरा का उस शाम! 

मदिरा तो खत्म कर ली थी हमने! अब भोजन करना था, और भोजन के लिए, नीलिमा के पास जाना था, लेकिन नशे की इस हालत में, वहां जाना सही नहीं था, अतः हम नहीं गए, वो गुस्सा तो होगी, लेकिन बता दूंगा उसको, खाना यहीं खाना था हमें, सहायक को बुलाया हमने, और भोजन मंगवा लिया, भोजन आया और हमने फिर भोजन किया, 

और उसके बाद हम सो गए! सुबह नींद खुली, नहाये-धोये, चाय-नाश्ता किया, 

और फिर निकले हम नीलिमा के पास जाने के लिए! वहां पहुंचे, गुस्सा थी, नथुने चौड़ा रखे थे! "नहीं आ पाये नीलिमा! नशा बहत ज़्यादा हो गया था!" मैंने कहा, "तो कोई बात नहीं, जो खाना रखा है, वो ले जाओ अपने साथ!" बोली गुस्से से! मैं हंस पड़ा! वो भी हंस पड़ी! हम बैठे फिर, चाय मंगवा ली, साथ में पकौड़े! पकौड़े ज़बरदस्त थे! गोभी और कटहल के! बहुत बढ़िया ही बनाये थे नीलिमा ने! मैंने तो बहुत खाए अब पेट में जगह नहीं थी खाना खाने की! बहुत बातें हुईं उस से! 

एक साल की पूरी कसर ही निकाल दी थी मैंने! उस से शादी की बात की तो, फिर से, हमेशा की तरह टाल दी, बोली, कि शादी नहीं करूंगी! अब मैं क्या बोलता, उसकी मर्जी, मैं तो केवल कह ही सकता था! कह दिया था, शादी उसे करनी थी! वो जाने! उसके बाद अब विदा ली उस से, रुआंसी तो हुई लेकिन समझा दिया कि, जल्दी ही मुलाक़ात होगी उस से दुबारा, या फिर, वो आ जाए कभी दिल्ली, ऐश करवा दूंगा! वो मुस्कुराई और हंसने लगी! फिर हमें बाहर तक


   
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श्रीशः उपदंडक
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छोड़ने आई, हाँ, घर के लिए, कुछ कपड़े दे दिए थे, मुझे भी और शर्मा जी को भी, हमने रख लिए! और हुए वापिस! तभी मेरा फ़ोन बजा, ये फ़ोन श्यामा का था, उस से बात हुई, वो गोरखपुर पहुंच चुकी थी, उसी नकली औघड़ के साथ, 

और दो दिन ठहरना था उसको, मैंने कहा दिया कि हम कल तक पहुँच जाएंगे, 

और मैं आकर वहां, खबर कर दूंगा उसको! श्यामा ऐसे बात कर रही थी कि जैसे, काफी परेशान हो वो, अब बात क्या थी, ये तो पता नहीं था, उस से बात करके ही बात हो पाती! 

खैर जी, हम बाबा शैलनाथ के पास पहुंचे, और अब आज्ञा ली जाने की उनसे, उन्होंने आज्ञा दी, और भोजन करने को कहा, भोजन करना नहीं था, बता दिया था उनको, फिर भी, रास्ते के लिए, खाना बंधवा दिया था! 

रास्ते में भूख लगती तो खा सकते थे हम! हम कोई आधे घंटे के बाद, चल पड़े वहां से, 

बाबा बाहर तक छोड़ने आये, 

अब पैदल पैदल चले, वहीं तक आये, बस ढूंढी, बस मिल गयी, हमने ले ली, और बैठ गए, ये बस कुछ ठीक थी, यात्रा हो जाती आराम से, आधे घंटे के बाद, बस चल पड़ी, रात को पहंचा देती तो भला होता! बस चली, और हमने आँखें बंद की अपनी! 

और हिलते-हिलाते चल पड़े, एक जगह रास्ते में फिर से जांच हुई, ये सेना थी, नीली वर्दी में थे सिपाही, अब तीन भारतीय था बस में, एक और थे, हम सभी का सामान चेक हुआ, कुछ न मिला उन्हें, हाथ मिला कर चले गए, इस तरह कम से कम, पांच-छह हगह चेकिंग हुई, कभी पुलिस, तो कभी सेना! रात हुई, बस रुकी एक होटल पर, वहां हमने साथ लाया हुआ खाना खाया! 

और कोई चालीस मिनट के बाद, बस फिर से चली, मैंने और शर्मा जी ने, होटल में ही बड़े बड़े पैग मार लिए थे! 

अब नींद आती खलकर! 

और हम सो गए फिर, रात करीब बारह बजे, बस रुकी, मैंने बाहर झाँका, बत्तियां जल रही थीं, कुछ गाड़ियां खड़ी थी सेना की, पता चला कि, एक बस गिर गयी है नीचे, 

और जान-माल का काफी नुक्सान हुआ है, इसी कारण से रास्ता जाम है! दो घंटे लग गए वहां से निकलने में, 

ई 

हम फिर से सो गए, रात को फिर से बस रुकी, फिर से जांच हई,और फिर चले हम, नींद आ गयी थी, आराम से सफर कट रहा था! 

और इस तरह, हम सुबह के चार बजे, पहुँच गए, भैरवाहा चौराहा, वहाँ से बॉर्डर के लिए चले एक जीप पकड़ कर, उस दस ग्यारह किलोमीटर में तीन जगह जांच हुई! 

और दो घंटे लगा दिए उन्होंने! आखिर में, सुबह हम पहुँच गए बॉर्डर, सोनौली, अब यहां कुछ खाया पिया, कुछ देर आराम किया, एक नाई की दुकान पर, दाढ़ी बनवायी थी हमने, उसके बाद फिर बस पकड़ी, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम इस तरह से गोरखपुर पहुँच गए! अब यहाँ से हम अपने एक जाने वाले डेरे पर गए, जीवेश के डेरे पर, जीवेश मिला, तो खुश हो गया! अब सारी कहानी बतायी उसको! असीम नाथ को जानता था वो! कुछ राजनैतिक लोग थे, जिनको वो जानता था, उन्ही पर फूला फूला डोलता था! 

खैर, आराम किया, नहाये-धोये, भोजन किया, और फिर मैंने श्यामा को फ़ोन किया, और फ़ोन, उस असीम नाथ ने उठाया! मैंने श्यामा से बात कराने को कहा, 

तो साफ़ नाट गया! कौन बोल रहा है, कैसे फ़ोन किया, कैसे हिम्मत हई आदि आदि! मैंने फ़ोन काट दिया! 

दिन में कोई दो बजे, श्यामा का फ़ोन आया, वो मिलना चाहती थी, मैंने कारण पूछा तो बोली मिल कर ही बताएगी, आखिर मैंने उसको, इस डेरे का पता बता दिया, वो चार बजे तक आ जायेगी, ये बोली, और ठीक चार बजे, श्यामा आ गयी, मैं उसको कक्ष में ले गया, पानी पिलाया, बिठाया, और अब कारण पूछा, 

जो कारण उसने बताया था, उसमे शत प्रतिशत इस श्यामा की जान जानी थी! असीम नाथ, प्रचंड योगिनी को सिद्ध करना चाहता था! इस, श्यामा को मोहरा बना कर! अर्थात, या तो वो मारी ही जायेगी, या फिर ता-उम उसकी गुलाम बन कर रहेगी! लेकिन वो मेरे पास ही क्यों आई? मैंने पूछा तो बोली कि असीम नाथ जान गया था, कि मैं कौन हूँ, मैं काशी वाले धन्ना बाबा का पोता हूँ! इसीलिए श्यामा मेरे पास आई थी, वो कहीं भी भागती तो, वो असीम नाथ ढूंढ सकता था उसको! कहीं भी! वो अपनी जान बचाने की गुहार लेके आई थी, मेरे पास, तो मेरा ये फ़र्ज़ था, एक औघड़ का कर्तव्य था कि, उसकी जान बचाई जाए! मैंने श्यामा को, वहाँ से निकलने को कहा, जो सामान लाना चाहती ही, वो ले आये, 

और यहां आ जाए, बाकी बाद में देखा जाएगा! उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी, मैंने बार बार समझाया, लेकिन सहमी हुई थी, आखिर में मान गयी! जान जोखिम में पड़ी थी उसकी! 

और मरता क्या नहीं करता! मित्रगण! 

वो चार दिन के बाद, अपना ज़रूरी सामान लेकर, 

और अपना फ़ोन वहीं छोड़कर, आ गयी थी जीवेश के डेरे! जीवेश ने भी उसकी मदद करने की ठान ली थी! उसको एक कक्ष दे दिया गया! 

और उसको बिना पूछे कहीं भी न जाए वो, ये सख्ती से समझा दिया गया था! अब मेरे हाथ एक विभीषण लग गया था! असीम नाथ के सारे तार, अब खुल जाने थे, सारी बातें मुझे पता चल जानी थीं, उसका दमखम, बल आदि सब! 

और यही हुआ! श्यामा ने मुझे उसके बारे में सब बता दिया! 

वो दमखम रखता था, 

और अगर वो द्वन्द में उत्तरा तो एक प्रबल औघड़, सेवड़ा बाबा उसकी मदद अवश्य ही करता! ये सेवड़ा बाबा असम का था, और बहुत प्रबल था! यामूक-विद्या का ज्ञाता था! यदि वो यामूक-


   
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श्रीशः उपदंडक
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विद्या का ज्ञाता था, तो उसको कम आंकना, भयानक परिणाम देकर जाता! मैंने जीवेश से मंत्रणा की, 

और सोच-विचार भी किया, जीवेश के होते हुए, मुझे कोई कमी नहीं पड़ने वाली थी यहां, सब उपलब्ध हो जाता! एक हफ्ता बीत गया था! अभी तक तो कोई स्यापा नहीं हुआ था! मैंने एक फ़ोन दे दिया था श्यामा को, 

जीवेश से लेकर, कोई जरूरत पड़ती तो बात आकर लेती थी! 

एक रात उसने फ़ोन किया, मैंने फ़ोन उठाया, उसने मुझे शीघ्र ही उसके पास आने को कहा, मैं चल पड़ा, उसके कमरे में पहुंचा, 

और उसको देखा! उसकी चादर पर खून बिखरा पड़ा था! उसके बदन पर भी खून लगा था! मैंने हाथ लगा कर देखा, खून ताज़ा था! ये पकड़ क्रिया थी! पता लग गया था श्यामा के बारे में उस क्रिया करने वाले को! 

और अब खेल शुरू होने वाला था! मैंने उसको चादर बदलने को कहा, 

और स्नान करने को, उसने चादर बदल दी, 

और स्नान करने चली गयी, मुझे आवाज़ दी, स्नानागार से ही, मैं अंदर गया, वो पीठ किये खड़ी थी, धोती बांधे, लेकिन कमर पर कोई वस्त्र नहीं था, उसकी कमर पर, एक निशान बना था, एक धन का निशान! ये कोई दो इंच चौड़ा था, त्वचा जल गयी थी वहां से, जैसे किसी ने जला कर वो निशान बनाये हों! ये पकड़ क्रिया का प्रभाव था! मैं उसको नहाने को कह कर, 

बाहर आ गया और बैठ गया! वो स्नान करके बाहर आ गयी, 

और बैठ गयी, एक निशान छोटा सा उसके माथे पर भी था, वहां भी दर्द था उसको, बार बार हाथ लगाती थी वहां! वो निशान बड़े अजीब से थे, मैंने गौर से मुआयना किया था उन निशानों का, लेकिन वो निशान ऐसे थे जैसे कि, जैसी जलती हुई अगरबत्ती से देह दागी गयी हो, त्वचा जली हुई थी वहां से, अब तक निशान काले पड़ गए थे, 

और ये जिस क्रिया के तहत की गयी थी, वो क्रिया पकड़-क्रिया थी, इसमें जिस को खोजना होता है, उस स्त्री, या अमुक व्यक्ति का, गूंदे हुए, 

आटे से एक आकृति बनाई जाती है, फिर उस आकृति में, उसका वस्त्र, 

जो जहां का हो, वहीं, उसी स्थान पर वो वस्त्र पहनाया जाता है, असम और बंगाल में, ये आकृति, उस व्यक्ति के वजन के बराबर का आटा गूदा जाता है, 

और फिर ये क्रिया की जाती है, पता करने हेतु, उसकी देह पर, अगरबत्तियां लगाई जाती हैं, 

और कुछ विशिष्ट प्रेतों को, खोज के लिए भेजा जाता है, ये प्रेत, अक्सर, सटीक जानकारियां दिया करते हैं, यदि, कोई क्रिया चल रही हो, अथवा, कोई साधनालीन हो, तो ये प्रेत वहाँ प्रवेश नहीं किया करते! अब यहां ऐसा कुछ भी नहीं था! 

और ये पकड़-क्रिया सफल हो गयी। अब देख चालू थी उनकी, और हम यहाँ अब प्रतीक्षा कर रहे थे! अब आगे सबकुछ साध के रखना था, 

पकड़ तो सफल हई ही थी, स्थान भी जान लिया गया था, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और यही बात सबसे विशेष थी, खैर, अब जो हुआ था, सो हुआ था, मैं, सीधा ही जीवेश के संग क्रिया-स्थल पर गया, वहाँ, अब एक ब्रह्म-दीप प्रज्ज्वलित कर दिया था, 

अब कोई देख नहीं लड़ाई जा सकती थी वहाँ! वैसे भी कोई देख लड़ाता तो स्पष्ट रूप से पकड़ा जाता। मैं फिर से श्यामा के पास गया, वो घबराई हई थी! मैंने उसको समझाया-बुझाया और आश्वस्त किया, उसकी हिम्मत बंधी, 

और मैं फिर अपने कक्ष में आ गया! नींद नहीं आनी थी, सो नहीं आई, सुबह के चार बजे से सुबह छह बजे तक, ऊंघता रहा मैं! 

और अब सारी बात शर्मा जी को बताई, वे चौंके, लेकिन तैयार थे वो! जानते थे कि ऐसा तो होगा ही! अगली शाम की बात है, मैंने एक प्रत्यक्ष देख लड़ाई, मेरी देख जा भिड़ी उस असीम नाथ से! असीम नाथ अब तैयारियों में लगा था, लेकिन उसके साथ एक प्रबल बाबा था! बाबा सेवड़ा! 

और उस गुरु-भाई, बाबा हुँदा! बाबा हुँदा सरभंग था! 

और उसका सरभंग होना, मेरा पलड़ा कमज़ोर कर सकता था, जीवेश में वो कड़काई नहीं थी, कि बाबा हुँदा का सामना करे! बाबा हुँदा, सरभंग होने की वजह से, मात्र कुछ ही क्षणों में, प्राणहारी विद्या से, उसका जीवन संकट में डाल सकता था! समस्या गंभीर थी, 

मैंने उस रात ही, श्री श्री श्री से बात की, वे भी चिंतित हुए, लेकिन, उनके पास अनुभव काफी था, सरभंगों की तोड़ करना उन्हें आता था, बस, उसके लिए एक घाड़ की आवश्यकता पड़ती, 

और उस घाड़ को क्षत-विक्षत भी करना पड़ सकता था! उन्होंने मुझे कई तरीकों से अवगत करवाया, 

और मुझे उनके तरीके जंच गए! और उनमे से भी एक विशेष था, वही, घाड़ वाला! अब एक बात निश्चित थी, कि, अब तो द्वन्द होना ही था! ये असीम नाथ, ऐसे नहीं मानना चाहता था, कोई बीच का रास्ता नहीं! अभी मैं उस समय अपनी अलख पर बैठा यही सोच रहा था, कि मेरी अलख, भक्क से शांत हई! 

और अलख के नीचे की भूमि, अचानक से धंस गयी नीचे! मेरी पकड़ उस रात काट दी गयी थी, 

और ये काट, बाबा सेवड़ा ने की थी! बाबा सेवड़ा की आयु, सत्तर वर्ष होगी, 

और उस सरभंग हुँदा की कोई, साठ वर्ष! बाबा हँदा, नर-मांस भोग किया करता था, डरता किसी से नहीं था, ये सरभंग, जलती चिताओं में से, मानव-मांस का भोग लगाए करते हैं, विशेष तौर पर, 

पाँव का, पिंडली का, ये कहते हैं कि, इस से उन्हें शक्ति प्राप्त होती है, किन्तु ऐसा नहीं है, 

अघोर जगत में, मानव-भक्षण करना त्याज्य है, 

और अब कोई भी शाखा, इसको नहीं मानती, ये तंत्र में महा-पाप कहा जाता है, पंचभूत तत्वों का सबसे बड़ा अपमान! लेकिन गिनती के ये सरभंग, आज भी ऐसा ही करते आ रहे हैं, अब औघड़ लोग, इनको देखते ही, भड़क उठते हैं, और ये, खून-खराब करने से भी नहीं चूकते! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम भी, इनको अपना प्रबल शत्रुही मानते हैं! एक ही गुरु के, ये भी शिष्य, अब एक साथ थे! हुँदा सरभंग के मार्ग पर चल पड़ा था, 

और सेवड़ा, अपनी शक्तियों के मद में चूर, एक प्रबल औघड़ बन चुका था! जितनी मदद वो श्यामा कर सकती थी, कर रही थी! मुझे बहुत कुछ जानने को मिल रहा था, लेकिन ये कार्य, मैं अकेला सम्पन्न नहीं कर सकता था, मुझे एक सहायक औघड़ की आवश्यकता थी, लेकिन वो मिले कहाँ? ये थी समस्या ! 

और इस समस्या का हल,मात्र जीवेश ने ही किया, जीवेश ने मुझे एक, वृद्ध औघड़, मतंग नाथ से मिलवाया, सारी कहानी बतायी उन्हें, श्यामा मेरे संग की थी, बाबा मतंग ने सारी बातें सुनी, 

और यही कहा, कि वो प्रतिवार नहीं करेंगे, बस, मुझे चेताते रहेंगे! मेरे लिए तो यही बहुत था! शेष कार्य वो वाचाल महाप्रेत और वो कर्ण-पिशाचिनी ही करती! वे तैयार थे, सौभाग्य मेरा! अब प्रतीक्षा थी वो बस तिथि की! 

और बाबा हुँदा की देख और कलम-क्रिया से, मुझे वो तिथि भी प्राप्त हो गयी! उस तिथि को आने में, अभी कोई पंद्रह दिन शेष थे! नियमों का पालन होना था! निहत्थे, साधनालीन, स्त्री, साध्वी, वृद्ध पर, कोई प्रहार नहीं करना था! घाड़ को नुकसान नहीं पहुंचाना था! 

द्वन्द, स्वेच्छा से, अपनी हार स्वीकार कर, कभी भी त्यागा जा सकता था! फिर कोई भी वार-प्रतिवार नहीं होना था! 

असीम नाथ के, एक औघड़, बाबा रुक्कू ने, ये खबर सुनाई थी! ये अघोर-जगत है। 

द्वन्द ऐसे ही लड़े जाते हैं, जा रहे हैं। खैर, अब तीन मुख्य आवश्यकताएं थीं, जिनको पूर्ण करना था! 

पहला, एक जवान घाड़! दूसरा, एक सतत साध्वी, तीसरा, एक जागृत-श्मशान! जागृत-श्मशान की व्यवस्था, श्री श्री श्री जी ने करवा दी थी, घाड़ की व्यवस्था, जीवेश के ताऊ श्री के ज़िम्मे थी, 

और साध्वी के लिए, मुझे एक जानकार, सिद्धेश जी से मिलना था, 

समय कम था और, समस्याएं अधिक, मैं सिद्धेश जी से मिला, उन्हें समस्या बतायी, मित्रगण, चौदह साध्वियों में से, एक मुझे सही ऊँची, नाम थे, ऋतुला, आयु में, इक्कीस-बाइस वर्ष की होगी, शरीर भारी और मज़बूत था, अंग-प्रत्यंग पुष्ट थे, वक्ष, भार सह सकते थे, कमर, काफी मज़बूत थी, 

और कोहनियों और नितम्बों पर, उन्नत मांस था, ये सबसे बड़ी आवश्यकता है, नहीं तो अस्थियों के टूटने की, प्रबल संभावना रहा करती है, मैंने उस साध्वी को, कुछेक निर्देशन दिए, उसको निरंतर ग्यारह दिनों तक, विशेष खाद्य-पदार्थ, कछ रसायन, कुछ औषधियों का, सेवा करना था, ऋतु-चक्र नहीं होना था उसे, 

और शरीर में,ऊर्जा भर जानी थी इस से, उसके बदले में उसे, उचित धन, प्रसाद और एक मुंह-मांगी, भौतिक वस्तु देनी थी, वो वस्तु, श्रृंगार आदि भी हो सकता था, अथवा अन्य कुछ और


   
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श्रीशः उपदंडक
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भी! लेकिन जो मुझे उस से चाहिए था, यदि उसने चूक की तो, उसे एवज में कुछ भी प्राप्त नहीं होता! ये है नियम! घाड़ का भी इंतज़ाम हो ही जाना था, 

जीवेश विशेष ध्यान रख रहा था, जागृत-श्मशान मैं देख ही आया था, सब ठीक था, अभी, फिलहाल तक तो! श्यामा डरी तो हुई थी, लेकिन उसे दुःख था कि, मैंने उसे साध्वी नहीं बनाया था, अब समझाया उसको, खूब समझाया, यदि उसके कोई क्षति पहचती, तो मुझे बहुत बुरा लगता! इसी कारण से, मैंने उसे सुरक्षित रखने के लिए, एक विशेष स्थान दे दिया था! दिन बीते, कोई चार दिन, 

और मैंने एक देख पकड़ी! ये बाबा हुँदा की देख थी! बाबा हँदा की देख जब पकड़ी, तो पता चला कि,हँदा, सबसे अधिक प्रबल है उनमे शायद! ये देख, रुद्र-देख थी, श्मशान से सीधी भेजी हुई! मैंने भी देख भेजी, एक रिक्ताल-देख! 

और जैसे ही देख वहाँ पहुंची, बाबा हुँदा की देख भूमि में समा गयी! अलख उछली और कुन्द पड़ी! ये देख, बाबा हुँदा ने अट्टहास किया! एक ज़ोरदार अट्टहास! मेरी देख पकड़ना, इतना सरल नहीं था! हँदा को भी बताना था कि सामने वाला, प्रतिद्वंदी भी कुछ कम नहीं! मुझे कम आंकना उसके लिए घातक हो सकता था! तभी बाबा हुँदा ने, मदिरा का घूट भरा, 

और कर दिया कुल्ला अलख में! अलख ईंधन पा, लपलपा गयी! एक छोटा सा द्वन्द आरम्भ हो गया! एक उपहास सा! मैं अपने क्रिया-स्थल में बैठा था, 

और वो अपने श्मशान में! ज़ोर-आजमाइश हुई शुरू! कभी वो आगे, 

और कभी मैं आगे! जब उसके वार कटते, तो भूमि में थाप देता था वो! ये खीझ थी,स्पष्ट था! ये द्वन्द करीब घंटे भर चला! न कोई हारा और न कोई जीता! वो उठ गया, और फिर मैं भी! रात के दो बज चुके थे, मैं स्नान कर, वापिस आया, 

और सो गया,नींद थोड़ा देर से आई, लेकिन आ गयी थी, मैं हँदा की कार्यशैली को देख रहा था, जांच रहा था, वो तेज था! वार करने में तेज! 

और द्वन्द में ये तेजी ही, काम आया करती है। 

खैर, अभी बहुत समय शेष था, श्री श्री श्री मेरा उचित मार्गदर्शन करने में लगे थे, नित्य ही, एक नवीन विद्या से परिचित करवा दिया करते थे! मैं यहां, योजनाबद्ध तरीके से सारा कार्य कर रहा था, सभी नियमों का पालन करता हुआ, द्वन्द को ही लक्ष्य बनाये हआ था! ये द्वन्द, अब तक का सबसे भीषण द्वन्द होने जा रहा था! ये तो मैं जानता ही था! 

कोई सातवें दिन, असीम नाथ का एक खबरिया आया जीवेश के पास, मुझे से भी मिला, उस खबरिये ने वही सबकुछ कहा कि, अभी भी समय है, सोच लो, प्राण जा सकते हैं, नुक्सान दोनों तरफ हो सकता है, आदि आदि आशंकाएं! खैर, वो मात्र खबरिया था, अपना कर्तव्य निभाने आया था, हमने खातिरदारी की उसकी, खिलाया, पिलाया, 

और उसको, वही आशंकाएं,असीम नाथ को भी कहने को कहा, वो तैयार था, नमस्कार कर, चला गया वहां से! अब उसने कही, न कही, कुछ पता नहीं! अगले दिन, बाबा मतंग नाथ आये, संग में उनके एक और औघड़ भी था, बच्चा सिंह बाबा! ये बच्चा सिंह बाबा, जानता था उन तीनों


   
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श्रीशः उपदंडक
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को, अब उसने जो बात बतायी, उस से तो लगता था कि, बाबा हुँदा, सेवड़ा बाबा ही मुख्य खिलाड़ी हैं! असीम नाथ तो मात्र धन निकालने के कार्य किया करता है! सेवड़ा बाबा की जो खासियतें थीं, वो पता चली! मदनी यक्षिणी सिद्ध थी उस से! 

और मदनी का सिद्ध होना, अपने आप में एक विलक्षण सिद्धि है! मैंने कभीमदनी नहीं सिद्ध की थी, 

मात्र उसकी सहोदरियों तक ही सीमित हो गया था मैं, लेकिन मैंने, कपालिका यक्षिणी को सिद्ध किया था! ये ये यक्षणी, मदनी पर भारी थी! इसकी चिंता मुझे,अब नहीं करनी थी! हाँ, सेवड़ा के पास, कई ऐसी विद्याएँ थीं, तोशूल से भी घातक थीं! ऐसी विद्याएँ कि, कोई अपने बचाव में, आह्वान भी न कर सके! तो एक बात पता चली, कि, इन विद्याओं की काट करनी थी, और इन विद्याओं का रास्ता रोकना, अब बाबा मतंग के कांधो पर था! मझे पूर्ण विश्वास था बाबा मतंग नाथ पर! अब बाबा हुँदा के विषय में पता चला, बाबा हुँदा, सबसे अधिक प्रबल था! वो आज तक, पराजय का मुख नहीं देख पाया था! इसी से बचना था, क्योंकि, बाबा हुँदा, न नियम मानता था और न ही मर्यादा! बाबा सेवड़ा ने, इसी कारण से उसको बुलाया था! 

आशय अब स्पष्ट था! और फिर वो असीम नाथ! मों का व्यवसाय करता था! घाड़ का प्रबंध करना, अस्थियों का प्रबंध करना, कपाल तैयार करना, आदि आदि! कुल मिलाकर, एक जोगिया बस! तो इस से भय खाना, ऐसे ही था कि जैसे केंचुएं को सांप बना देना! अब बस ये दो ही थे, 

और इन्ही का इंतज़ाम करना था! मैंने बाबा मतंग नाथ का धन्यवाद किया, बच्चा सिंह बाबा का भी! वे चले गए वापिस, अब मैंने उसी रात, श्री श्री श्री से बात की, उन्होंने मुझे और भी कुछ बताया, कि किसी सरभंग को, कैसे पस्त किया जा सकता है! उसकी देह जब तक उसके साथ है, वो अपराजित ही रहेगा, इसीलिए, उसकी देह को लक्ष्य बनाना था! बात पते की थी, मैंने श्री श्री श्री से वो काट भी जान ली, 

अब दो दिन इसी का संधान करना था, 

और वो ही किया! एकरात, मेरे क्रिया-स्थल में, श्यामा चली आई, मोटे मोटे आंसू डबराये हुए आँखों में! कारण वही कि, मैं अनजान होते हुए भी, उसके लिए जान की बाजी लगा रहा हूँ! मैंने समझाया उसको, 

और ये भी कहा, कि इस द्वन्द के बाद, वो चली जाए कहीं भी, अपने घर-परिवार में, लेकिन, अफ़सोस, उसके घरवाले सभी, उस से नाता तोड़ चुके थे, मैंने फिर भी हिम्मत बंधवाई उसकी, 

और कहा, कि कहीं न कहीं कोई, उचित प्रबंध हो ही जाएगा! फिर उसको भेज दिया वापिस, 

वो चली आगयी, और मैं, अपनी क्रियायों में लगा रहा! मैं रात को क्रिया आरम्भ करता, 

और भोर में समाप्त किया करता था! दिन में भी कभी कभी, क्रिया-स्थल चला जाता, 

और क्रियाएँ आरम्भ करता! बारहवें दिन, मेरी साध्वी आ गयी वहां, 

अब उसको मेरे संग ही रहना था, अब मैंने उसको क्रिया में बिठाया, सशक्तिकरण किया उसकी देह का, कुछ विद्याओं में उसकी देह को, पोषित किया, और उसको प्रत्येक नियम, से अवगत


   
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श्रीशः उपदंडक
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करवा दिया! वो कुशाग्र बुद्धि की थी, जल्दी ही सीख गयी! अब मैंने उसकी देह की जांच की, जहां जहां वो तांत्रिक-शक्तियों के आवरण में, लिपट जाती, 

और मैं उसकी देह पर, रक्षण-चिन्ह काढ देता! तो तैयारियां जोरों से चल रही थीं, और मैं लगातार अपनी विदयाएँ संवर्धित किये जा रहा था! इस से, मुझे एक आत्मिक-बल प्राप्त होता है, एक दिन शाम को मैं श्यामा के पास ही बैठा था कि श्यामा ने मुझे एक विशेष बात बतायी, कि ये असीम नाथ दरअसल बाबा सेवड़ा के संग ही योगिनी सिद्ध करना चाहता था, और इसके लिए गत एक वर्ष से तैयारियां चल रही थीं! बड़ी ही अजीब बात थी ये! 

गत एक वर्ष में,श्यामा को ये आभास नहीं हआ? ऐसा सम्भव तो नहीं था, इसीलिए मैंने उस से पूछ ही लिया, "क्या तुम्हे मालूम नहीं था?" मैंने पूछा, "मुझे यही बताया गया था कि ये रनिया माता की सिद्धि होगी" वो बोली, उसके बताएं एके भाव, सत्य थे, गहराई थी उनमे, सच की रंगत से रंगी थी, मैं समझ गया था कि वो असत्य नहीं बोल रही! "रनिया माता?" मैंने आश्चर्य से पूछा, "हाँ" वो बोली, "जानती हो? कौन है ये रनिया माता?" मैंने पूछा, "नहीं तो" वो बोली, "ये कौलिक देवी है" मैंने बताया, 

वो जानती थी कौलिक देवियों के बारे में, इन देवियों को, सुप्त देवियाँ कहा जाता है, और इन्हे ही जागृत कर, तांत्रिक सिद्धियां प्राप्त किया करते हैं, ये देवियाँ, श्मशान में ही सिद्ध हुआ करती है, एक हैं ऐसी ही रनिया माता, जिनको ये सात्विक जन एक विशेष नाम से जानते हैं, उनकी महिमा गाते हैं। बात वही है, जाना है दक्षिण, 

जा रहे हैं उत्तर में! लेकिन ये सात्विक देवी कतई नहीं हैं! इनके नाम का खुलासा नहीं करूँगा, अन्यथा व्यर्थ का विवाद उत्पन्न होगा और, कई सात्विकों को बुरा भी लग सकता है। इसीलिए कोई खुलासा नहीं करूँगा! ऐसे ही, कई देवी देवता हैं जिनके बारे में, 

प्रचलित मान्यताएं सर्वथा गलत हैं, लेकिन श्रद्धावश कोई ध्यान ही नहीं देता! वैसे मुझे ये अचरज की बात लगती है! उस ने हम मनुष्यों को अन्य सभी पशुओं से भिन्न और पृथक बनाया, हमको विवेक प्रदान किया, उनको नहीं, 

उनको मात्र सहज प्रवृति! 

और कुछ नहीं! अब यदि, हम अपना विवेक ही त्याग दें, तो हम में और इन पशुओं में क्या अंतर? है कोई अंतर? नहीं! कोई नहीं! पर, हम कभी विचार ही नहीं करते! क्योंकि, ऐसी मान्यताएं हमारे मन-मस्तिष्क में, ऐसे कूट कूट के भर दी गयी हैं कि, किसी प्रश्न का तो कोई प्रश्न ही नहीं! 

खैर, अब ये विषय त्यागता हूँ और मूल विषय पर आता हूँ! तो श्यामा अनुसार, गत एक वर्ष से ये बाबा सेवदा और वो असीम नाथ, योगिनी सिद्ध करने की सोच रहे थे, 

और बलि का मुख्य मोहरा थी ये श्यामा! और यदि बलिन भी होती, तो भी दास तो अवश्य ही रहती वो उनकी! और जब मृत्यु का भान हुआ, तो श्यामा बिदकी! प्राण किसे प्यारे नहीं होते! लेकिन इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी, उसको झूठ बोला गया था, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और जब सत्य सामने आया, तो उसको आभास हुआ! मेरी श्री श्री श्री से बातें होती रहती थीं, वे पग पग पर मेरा ध्यान रखते, यहां, जीवेश ने सभी तैयारियां पूर्ण कर ली थीं, घाइ, साध्वी, सामग्रियाँ आदि सब का प्रबंध किया जा चुका था! 

मित्रगण! 

अब द्वन्द होने में, मात्र दो दिन शेष थे, अगले दिन, मेरा मौन-व्रत था, अतः जो कुछ करना था, वो सब आज ही करना था! सीन में,दो मेढ़े लाये गए, उनकी पूर्ण जांच हुई, 

और फिर पूजन कर, बाँध दिए गए वो! जीवेश ने मुझे अपनी भेरी भी दी, उसका भी पूजन हुआ, 

और फिर एक ढालिया फरसा मिला मुझे, ये फरसा, बीच में से मज़बूत, और उसी धार, उसके फाल पर, करीब डेढ़ इंच तक कढ़ी होती है। यदि हाथ भी लगाया जाए, ऊँगली फेरी जाए तो, ऊँगली को चीर देगा ये फरसा! इस फरसे पर, एक मंत्र भी गुदा हुआ होता है, बलि-कर्म समय यही मंत्र पढ़ा जाता है, 

और फिर अपने ईष्ट का नाम लेकर, ये बलि-कर्म पूर्ण किया जाता है! फरसा बहुत बढ़िया था! बेहद ही भारी और जानदार! एक वार और बलि-कर्म पूर्ण! फिर सामग्रियों की जांच हुई, 

नौ थाल थे, पीतल के, बड़े बड़े! इक्कीस पात्र, छोटे बड़े सब! इक्यावन दीये, लकड़ियाँ, जिनमे दीमक आदि न लगी हो! एक विशेष तेल, ये चर्बी से बनाया जाता है, एक विशेष प्राणी के चर्बी से! सब जांच लिया गया था! कहीं कोई त्रुटि नहीं थी! 

साध्वी अपने कलापों में प्रवीण हुए जा रही थी! मुझे संतुष्टि थी उस से! फिर हुई शाम! 

और अब मैं बैठा अपने क्रिया-स्थल में! वहां मदिरा, मांस और अन्य सामग्रियाँ पहंचा दी गयी थीं, साध्वी मेरे साथ ही थी, मैंने अलख उठायी, 

आज आखिरी क्रिया थी, इसके बाद की क्रिया, कल ही होती! उस रात, ये क्रिया रात दो बजे तक चली! 

और उसके बाद मैंने साध्वी को वापिस भेज दिया, वो चली गयी तो, मैंने अलख को नमन कर, वापसी की राह पकड़ी। 

आज भूमि-शयन करना था, एक वृक्ष के नीचे, वही किया, 

और इस प्रकार, सुबह हुई, स्नान आदि से निवृत हो कर, फिर से क्रिया-स्थल पहुंचा, अब अपना सारा सामान निकाला बैग से, अपने त्रिशूल को साफ़ किया, इमरू को कसा, बजा के देखा, सब सही था, दाने कसे उसके और फिर ताल दी, सही ताल थी उसकी! फिर चिमटा, वही बजाया, सब सही था! फिर आसन, आदि तंत्राभूषण की जांच की, 

सब ठीक था! और तभी मुझे मेरे दादा श्री का दिया हुआ, एक अस्थि-माल दिखा! बारीक अस्थियों से बनाया गया था वो! 

ये उनके गुरु श्री की भेंट थी! मैंने वो लिया, अभिमंत्रित किया, और सर से लगा कर, रख दिया! अब कल उसको धारण करना था! उस दिन, मेरा मौन-व्रत आरम्भ हुआ, मैं संध्या समय तक, क्रिया-स्थल में, सूर्य की रौशनी से बचता हुआ, अँधेरे में ही रहा, आँखों पर पट्टी बांधे! संध्या हुई,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सूर्य देव वापिस हए अस्तांचल में! और अब शुरू हुआ औघड़ समय! शाम कोई साढ़े सात बजे, बाबा मतंग नाथ अपने एक सहायक के संग, आ पहुंचे उधर! कुछ बातें हुईं, 

और फिर हम, निकले जीवेश के संग, उस जागृत-श्मशान के लिए, जहां आज खेल खेला जाना था! मैंने श्री श्री श्री से उनका आशीर्वाद प्राप्त कर ही लिया था! 

और इस प्रकार, हम निकल पड़े वहाँ से! हम सभी पहुंचे वहाँ उस श्मशान में, संग हमारे श्यामा भी थी, श्यामा भयभीत तो अवश्य थी, पर उसे हम पर भी पूरा विश्वास था, हम दम्भ हेतु नहीं, 

अपनी शक्तियों का प्रदर्शन हेतु नहीं, अपितु, किसी अहंकारी का दमन करने एकजुट हुए थे, अन्यथा ये अहंकारी, अपने लिए ही नहीं, शेष समाज के लिए भी एक गंभीर खतरा थे, एक विदया है, इसको दमलूक-विदया कहते हैं, 

और ये सत्य है, इसमें कोई भी औघड़, किसी भी स्त्री को, पुरुष को, किशोर को, किशोरी को, 

किसी भी प्राणी के स्वरुप में परिवर्तित कर सकता है, 

अक्सर ऐसा, बंगाल, असम, छत्तीसगढ़, मणिपुर, उड़ीसा और, तटवर्ती क्षेत्रों में होता है, मैंने स्वयं देखा तो नहीं, परन्तु सुना था, अपने कई विश्वासपात्रों से, जिन्होंने ऐसा देखा था! कई स्त्रियां, मेंढकी स्वरुप में कैद कर ली गयी थीं, 

और उनका शोषण हुआ करता था, दिन रात, जब चाहें तब! दमलूक-विद्या एक आसुरिक विद्या है, बाली देश में आज भी, कई तांत्रिक ऐसा ही कर रहे हैं, इसी कारण से वहाँ गुमशुदा इंसानों की फेहरिस्त सबसे अधिक है, हालांकि, दमलूक-विद्या एक मियादी विद्या है, और, एक समय के पश्चात ये समाप्त भी हो जाती है! परन्तु ऐसा बहुत कम ही होता है! तब तक तो वो व्यक्ति, जी दमलूक से पीड़ित है, तब तक अपनी पूरी याददाश्त भूल जाता है, 

और शेष जीवन ऐसे ही व्यतीत किया करता है! दमलूक-क्षेत्र में जाते ही, इंसान को, गले में काली कौड़ी धारण कर लेनी चाहिए, इस से दमलूक-विद्या असर नहीं करती! गुरु मछेन्द्र नाथ, इसी दमलूक विद्या से घेरे गए थे, रानी मैनाकी द्वारा, बा दमे, दमलूक विद्या को नष्ट किया था, श्री गोरख नाथ जी ने और इस प्रकार गुरु मछेन्द्र नाथ, मुक्त हुए थे! चलिए अब मुख्य विषय पर आता हूँ! श्मशान में सभी आन पहुंचे थे, बाबा मतंग नाथ, सारा सामान लेकर, प्रस्थान करने चले गए थे क्रिया-भूमि पर, और मैं, उस घाड़ को देखने चला गया था, मेरे संग शर्मा जी भी थे, 

और कुछ सहायक औघड़ भी! 

घाड़ एकदम बढ़िया था, कोई पच्चीस तीस वर्ष का रहा होगा, उसकी आँखें काले धागे से सिल देनी थी अब, ताकि पुतलियाँ न दिखाई दें, ये आवश्यक भी होता है, मैंने उसको उलट-पलट के देखा, कोई ज़ख्म आदि नहीं था उसके, हाँ, कुछ जन्म के निशान आदि अवश्य ही थे, अब उसके नाखून देखे गए, वे भी ठीक थे, फिर उसका लिंग भी देखा गया, 

अंडकोष भी, वो पूर्ण पुरुष होना चाहिए था, अन्यथा, लेने के देने पड़ जाते हमें! सब ठीक था उसमे, अब उसको स्नान करवाया गया, सुसज्जित किया गया, जैसे जीवित हो, वैसा ही सजीव बनाया गया! फिर उसके गले में, कमर में, बाजुओं में, कुछ मालाएं भी धारण करवाये गए! 


   
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