आधी रात होने को थी! हम श्मशान पुजारी, श्मशान के एक कोने में, बैठे हुए थे, भुने हुए आलू और मांस खाया जा रहा था, साथ में मदिरा और चावल भी थे, कई चिताएं शांत हो चुकी थीं, कुछ अभी भी धधक रही थीं! कुछ औघड़ घेरा बना के बैठे थे उनके पास, कोई नाच रहा था, कोई गा रहा था, कोई मदिरा के नशे में चूर, मिट्टी चाट रहा था! मैं भोजन कर चुका था, मेरे साथ बैठी चार साधिकाएं, अपने बदन खजा रही थीं, मच्छर काट रहे थे उनके, अपने बदन से,उनको हटाते समय या मारते समय, फट फट की सी आवाजें आती थीं! मेरे साथ एक और औघड़ देवा बैठा था, वो उड़ीसा से है और वहीं रहता है, जानकार है, कभी-कभार ही मिलता है, रहने वाला तो वैसे मध्य-प्रदेश का है, लेकिन अपना सब घरबार छोड़ कर, अब औघड़ बन चुका है, कभी-कभार ही घर जाया करता है, देवा के कहने पर ही मैं यहां आया था, आज एक क्रिया सम्पन्न हुई थी, हम तीन रातों से लगे हुए थे इसमें, तभी मेरे साथ बैठी एक साधिका ने, मेरे कंधे पर हाथ रखा, मैंने देखा उसे, नशा तो था ही उसे, वो प्रणय-निवेदन था, और मेरी कोई इच्छा नहीं थी,
मैंने हाथ हटा दिया उसका,
और देवा के संग बातें करता रहा, उस साधिका ने फिर से हाथ रखा, अबकी बार, मैं उठा, और चला वहां से, वो मेरे संग ही चली आई, मैं एक कक्ष में गया जहाँ मेरे वस्त्र रखे थे, मैंने वहाँ से नहाने का सामान उठाया,
और चला स्नान करने, उस साधिका को वहीं उसकी कमरे में बिठा दिया था, ये साधिका बंगाल की है, काम इसकी बहुत बड़ी कमज़ोरी है,यूँ कहो कि, काम के बिना सब बेकार है उसके लिए,
खैर, मैं स्नान करके आया, वो वहीं बैठी थी, मैंने अपना बदन सुखाया, तौलिये से पोंछा,और बैठ गया वहीं पर, अब उस से बातें की, समझाया कि मेरी इच्छा नहीं है, लेकिन उसको तो जैसे दौरा पड़ा था, मैंने किसी और के साथ संसर्ग करने के लिए, भगा दिया उसको वहां से, टेढ़ा-मेढ़ा मुंह बनाकर,
और मेरी कर में एक मुक्का मारकर, चली गयी वो वहां से! रात के ढाई बज रहे थे, अब मैंने अपने वस्त्र पहने,
और वो श्मशान-वस्त्र उतार आकर एक पोटली में बाँध लिए, और अब सीधा चला शर्मा जी के पास, जो एक झोपड़ी में सो रहे थे। मैं अंदर गया झोपड़ी में, अपने बैग में अपना सामान रखा, वो पोटली भी, शर्मा जी उठ गए थे, मुझे देखा, खड़े हए, और पानी पिया उन्होंने घड़े से, मुझे भी दिया, मदिरा के नशे के कारण सर में हथौड़े बज रहे थे, स्नान से शान्ति तो मिली थी, लेकिन नींद से और ठीक हो जाता, तो उसके बाद, मैं भी नीचे बिछी चटाई पर, चादर बिछा, लेट गया!
सुबह नींद देर से खुली,आठ बजे थे, शर्मा जी उठ गए थे,और मैं भी उठा तब, दातुन-कुल्ला किया, और फिर स्नान, रात को मच्छर-समुदाय ने अच्छी खबर ली थी! बदन पर जगह जगह उनके मृत्यु-स्थल के चिन्ह बने थे! अब हमें वापिस जाना था अपने डेरे,
और उसके दो दिन बाद फिर दिल्ली वापसी थी, इसलिए हम निकले वहां से,सारा सामान ले लिया था, बाहर चले तो वही बिंदु बंगालन टकरा गयी! उस से हंसी-खुशी बात हुई, और फिर बाद में मिलने की कह कर, निकल आये वहां से, अब कहाँ मिलना था उस से! हम आ गये अपने डेरे वापिस!
दो दिन बीत गए, काशी में शीतला घाट जाना हआ उस आखिरी दिन, तो वहां भी वो बिंदु बंगालन टकरा गयी! फिर से बातें हईं,
और फिर से उसके काम-बाण चले! वो थो ढाल मज़बूत है मेरी, बचता गया मैं! और इस तरह से फिर से एक बार, गच्चा दे दिया उसको!
और फिर आया अगला दिन, मेरी बातें हो रही थीं लगातार अश्रा से, उसने मिलने की जिद पकड़ी, तो हम वहां चले, गाड़ी रात को थी, तो सारा दिन अभी बाकी था मेरे पास, अश्श्रा के यहाँ पहुंचे! उससे मिले! खाना खाया!
और फिर मैं और वो, एकांत में हए, अश्रा जैसी खूबसूरत स्त्री यदि समीप हो, समभाव लिए, तो फिर कौन रुके! मैं नहीं रुका, और उसके रूप और बदन का भरपूर रसास्वादन किया मैंने! हम वहां से कोई चारा बजे वापिस चले,
अश्रा से विदा ली थी, शीघ्र ही दुबारा आने को कहा था, तो हम, वापिस पहुंचे अब काशी, थोड़ा आराम किया, और उसके बाद स्नान करने के पश्चात, श्री श्री श्री जी से विदा ली,
और हम स्टेशन पहुंचे तब, गाड़ी में बैठे, जुगाड़ ले ही आये थे अपने साथ, तो गाड़ी में ही, कोल्ड ड्रिंक की बोतल में मिला, आराम से चुस्कियां लेते रहे! रात हुई,भोजन किया और सो गए! अगले दिन हम पहँच गए दिल्ली, अपने अपने घर गए,
और फिर अगले दिन मिले, मथुरा से बुलावा आया था एक महंत का, तो जी हम मथुरा पहुंचे, खूब खातिरदारी हुई! महंत साहब से काम के बारे में पूछा, उन्होंने बताया और मैंने लिख लिया, अक्सर एक ही काम के लिए बुलवाते हैं ये लोग, जानता तो मैं था ही, लेकिन पूछना भी सही था! उन महंत साहब ने एक चेली रखी थी! आधुनिक चेली! जींस और टी.शर्ट पहनने वाली चेली! चेली मुंबई की थी! बातचीत से तो क्या, हाव-भाव से ही खुर्राट लगती थी! दो तरह के रंग से बाल रंगे थे उसने! झुमके इतने लम्बे थे कि कान भी छोटे पड़ रहे थे! लिपस्टिक ऐसी लगाती थी कि सैंकड़ों लोगों में से, वही नज़र आये! नीले से रंग की लिपस्टिक! नाम पूछने पर अपना नाम अंशिका बताया उसने, खैर, अब महंत साहब ठहरे रंगीले किस्म के, तो ऐसी रंग-बिरंगी चेलियाँ रखें तो क्या अजीब बात! उसी दिन शाम को हम वापिस हो लिए थे, दिल्ली पहुंचे, और सीधे अपने डेरे, रात को भोजन किया, मदिरा का हुस्न लूटा जमकर!
और आराम से पाँव पसार सो गए! तीन दिन बीत गए थे, महंत साहब का काम हो गया था, उनको फोन किया तो उसी रंग-बिरंगी चेली ने उठाया, अंग्रेजी में बात की उसने, मैंने भी अंग्रेजी में ही बात की,
और कह दिया कि महंत साहब को बता दें कि काम हो गया है उनका, और फ़ोन काट दिया मैंने फिर, दो दिन और बीते, और तीसरे दिन मेरे पास एक औघड़ आये, वो, उज्जैन गए हुए थे अब वापिस हुए थे, जाना था उन्हें वापिस गोरखपुर, उस रात मेरे यहीं ठहरे, उन्होंने एक बात बतायी मुझे, बात बहुत अजीब सी थी, विश्वास करना भी मुश्किल था! उनके अनुसार उनके एक जानकार औघड़ ने एक योगिनी प्रचंड को साधा था,
और उसी साधने में किये गए वचन अनुसार, ग्यारह बलि-कर्म करने थे, अभी उस औघड़ ने ये पहला ही किया था, वो तो वहीं रह गया था, लेकिन ये बाबा, छिद्दा, वापिस आ गए थे! अब एक बात यक़ीन करने के लायक नहीं थी! कोई भी पुरुष, साध नहीं सकता योगिनी को, इसके लिए उसके पास, एक साधिका का होना आवश्यक है, लेकिन फिर भी, वो योगिनी, उसी स्त्री से साधेगी उस औघड़ से नहीं! तो इस औघड़ ने कैसे साधा? मैंने बाबा छिद्दा से भी मालूम किया, लेकिन उनके पास भी कि सटीक उत्तर नहीं था! अब तो कीड़ा काटने लगा था! यदि ऐसा हुआ है तो ये अतयंत ही विशेष है, एक ऐसी धारणा का खंडन होने वाला है, जो गत सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही है। और इसका समाधान बस, उस औघड़ से मिलकर ही किया जा सकता था! बाबा छिद्दा मेरी मदद कर सकते थे इसमें!
मैंने बाबा से पूछा कि उस औघड़ का नामा क्या है,
और कब वापिस आएगा? बाबा ने बताया कि उसका नाम, असीम नाथ है, और वो कोई दो हफ्ते बाद गोरखपुर पहुंचेगा, अब क्या था! बाबा छिद्दा को अगले दिन गाड़ी में बिठाया, और हमने दो टिकटें आरक्षित करवा लीं, अभी तो वेटिंग में थीं, लेकिन अधिक वैटिंग नहीं थी, हो ही जाती! मुझे तो अब नींद नहीं आने वाली थी! ऐसा भी हो सकता है, ये तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था! उस औघड़ को कैसे पता चला? किसने बताया था?
और वो योगिनी, प्रचंड! ये तो अचम्भा ही था! प्रचंड, जैसा नाम है, वैसी ही है! महाशक्ति है ये! अब तो दिन रात मैं, इस योगिनी के विषय में ही, जानकारियां जुटा रहा था! श्री श्रीश्री जी को भी अचम्भा था! मैं जिस जिस को जानता था, सभी को खबर कर दी थी, सभी हैरान थे। विस्मय में थे!
असंभव, संभव कैसे हो गया था? कोई ऐसी जड़ है बाकी, जो हमे नहीं पता अभी तक! यदि है, तो ये औघड़ असीम, हमारी मदद कर सकता था!
उसको मदद करनी ही होगी! अवश्य ही! मुझे तो यही उम्मीद थी!
वो पंद्रह दिन कैसे बीते, ये तो मैं ही जानता हूँ! एक एक दिन पहाड़ जैसा था! एक एक रात रेगिस्तान जैसी! न खाना अच्छा लगे, न ही किसी कार्य में मन लगे! आखिर में वो दिन आ ही गया जब, हम दोनों निकले गोरखपुर के लिए, गोरखपुर से कोई अस्सी-पिचासी किलोमटर पूर्व में जाना था, यहीं स्थान था बाबा छिद्दा जहां रहा करते थे! यात्रा सफल हुई हमारी, और हम
गोरखपुर जा पहुंचे, उस रात हम गोरखपुर में ही ठहरे थे अपने एक जानकार के यहाँ, वहीं खाना आदि खाया और फिर सोये, सुबह, चाय नाश्ता किया, और फिर भोजन,
और उसके बाद हम निकल पड़े बाबा छिद्दा के पास जाने के लिए, अब बस पकड़ी हमने, और बैठ कर चल दिए वहां के लिए, कमर का धनुष बन गया उस बस में बैठ कर! जब उतरे, तभी चैन मिला! अब पूछा मैंने एक लड़के से पता उस जगह का, तो पता चला कि कोई दो किलोमीटर है वहां से, अब तो दो किलोमीटर चलना ही था, कोई साधन था ही नहीं, न टेम्पो, न ही कोई अन्य साधन! अब हम चल दिए पैदल ही पैदल! जब हम वहां पहुंचे, तो हालत खराब थी! पसीने छूट चले थे हमारे तो! फिर से पूछा, तो फिर से किसी ने आगे ही बताया, हम फिर चल पड़े, पूछते-पाछते आखिर में हम पहुँच ही गए! वहां पहुंचे तो बाबा छिद्दा न मिले! वो कहीं गए हए थे, और शाम तक आने थे! कोई बात नहीं, हमने आराम किया वहां फिर!
भोजन भी किया हमने कोई चार बजे करीब, हल्का-फुल्का,
और फिर से आराम किया! शाम को कोई सात बजे, बाबा छिद्दा आ गए थे! उनसे मिले हम, बहुत प्रसन्न हए वो! उनके साथ बातें हुईं बहुत सी, और आखिर में मैं, उस असीम नाथ के बारे में बातें करने लगा, असीम नाथ आ चुका था, लेकिन आज शहर गया था किसी काम से, वो कल वापिस आना था, वो जहां रहता था, वो स्थान अधिक दूर तो नहीं था, परन्तु रास्ता कमरतोड़ था वहां का! रात के समय, बाबा ने देसी शराब मंगवा ली थी, नाम था कमांडर! और कमांडर जैसी ही थी वो! पहला गिलास तो गले को पेट तक चीरता चला गया था! बास ऐसी थी कि जैसे, थिनर पी रहे हों! अब क्या करते, पीनी तो थी ही! मैंने नीम्बू निचोड़ लिया था उसमे! साथ में मुर्गा था, वो न होता तो सच कहता हूँ, उस बास से मैं, उलटी ही कर देता! दूसरे गिलास को तो मैंने मना ही कर दिया! फिर बाबा ने एक और दूसरी मंगवा ली थी! इसका नाम था, माल्टा! जो लेबल चिपका था उस पर, उसमे पीले रंग का माल्टा ही बना था!
अब उसी को देख देख कर ही पीनी थी! बोतल खोली, संघी, संतरे की खुश्बू सी आई! ये सही थी! कम से कम उस स्पिरिट और थिनर से तो बचे! बाबा ने वो बची हई दारु, वहीं के सहायकों को दे दी थी! अब वो तो आदि है इस कमांडर के, हम नहीं! कमांडर ने तो हमारी इच्छा ही खत्म कर दी थी शराब पीने की! अब जी वो माल्टा परोसी गयी गिलास में! मैंने डर डर के पहला चूंट भरा! स्वाद तो बढ़िया था!
अब बना था काम! अब हुआ दौर शुरू! पहले वाली पीकर तो शर्मा जी भी मह बिचका गए थे। "बाबा? क्या ये सम्भव है?" मैंने पूछा, मैंने बता दिया था उन्हें योगिनी के विषय में,
और वे भी जानते ही थे!
"हाँ, मुझे तो यही कहा था असीम नाथ ने" वे बोले, लेकिन बात अभी भी हज़म नहीं हो रही थी! कहीं कोई बात ज़रूर ही थी! जो छिपी हुई थी! चलो कोई बात नहीं! कल तो पता चल ही जाएगा! असीम नाथ से बात हो जायेगी तो जो संशय मन में है, वो भी खत्म हो ही जाएगा! अब जी पहला माल्टा तो हुआ खतम! अब खुला दूसरा! और दूसरा जब खुला तो मजा सा आया, गर्मी सी दौड़ी बदन में! मैंने टेबल-फैन अपनी ओर कर लिया, कुछ ठंडक सी पहंची! खाना आ
गया तभी, और हमने अब खाना खाया,रोटी भी थीं, चावल भी, माल्टा सारे खत्म हो गए थे, अब तो बस खटिया ही दिखाई दे रही थी! हम खड़े हए तब, और चल पड़े अपने कमरे की ओर, कमरे में तो गर्मी थी, खटिया बाहर लगवा ली हमने, बाहर तो कुछ राहत थी!
खटिया पर लेटते ही, कमर सीधी हई, और फिर थोड़ी देर में ही, बजने लगे खर्राटे! सो गए हम! सुबह उठे! और नहाये-धोये, निवृत हए! उसके बाद चाय पी हमने, साथ में बड़े बड़े फैन खाए साथ में! कोई ग्यारह बजे हमने भोजन कर लिया था,
और फिर मैं गया बाबा छिद्दा के पास, और अब पूछी वहाँ जाने की, वे तैयार थे, उन्होंने एक छोटा सा बैग लिया साथ में,
और हम फिर चल पड़े असीम नाथ के स्थान के लिए, मुख्य सड़क तक आये, बाबा ने एक टेम्पो मंगवा लिया था, ये बढ़िया किया था उन्होंने, अब मुख्य सड़क तक पहुंचे,
और अब आगे चले! रास्ता बढ़िया बना था वैसे तो! लेकिन भीड़ मिलती थी जगह जगह! आखिर में कोई एक घंटे के बाद, हम पहुँच गए उस स्थान पर, बाबा सीधा अंदर ही चले, उनके कई जानकार थे यहाँ,
और वे आते रहते थे, तो सभी जानते थे, सभी हाथ जोड़कर,नमस्कार करते थे उन्हें, हमें भी,
बाबा एक जगह रुके, किसी से मिले, कुछ पूछा,
और फिर आगे बढ़ गए! हम भी बढ़ गए, एक कमरे में पहुंचे, हम भी उनके संग ही थे,
अंदर एक बुजर्ग बाबा बैठे थे, हमने पाँव पड़े उनके,
और तब उन्होंने हमें बिठा लिया, उनका नाम पता चला, कदम नाथ जी थे वो, गोरखपुर में रहते थे! असीम नाथ के बारे में पूछा बाबा ने उनसे, तो पता चला असीम नाथ अभी आया नहीं था वापिस, दोपहर बाद तक आएगा, पानी आया, तो पानी पिया, और उसके कुछ देर बाद, नीम्बू-शिकंजी आ गयी, वो भी पी, अब दोपहर बाद का समय आने में, दो तीन घंटे शेष थे। अब बस इंतज़ार ही किया जा सकता था! तो फिर किया इंतज़ार! हम बाहर आ आगये थे,
और एक जगह जहाँ पेड़ लगे थे, वहीं दरी बिछी थी, वहीं आ बैठे, बाबा तो अंदर ही थे, बातें कर रहे थे,
और यहां हम, बेसब्री से, उस असीम नाथ का इंतज़ार कर रहे थे! हवा बढ़िया थी वहां! माथे से लगती, तो ठंडक पहुंचाती! अब ठंडक मिली, तो आँखें भारी हुई! मेरी तो आँख लग गयी! शर्मा जी जो अब तक बैठे थे, वे भी लेट गए,
अपने फोन में, भजन सुनने लगे, और मैं उन्ही भजन की धुन पर, सो गया था! कोई डेढ़ घंटा सोया होऊंगा, मैं जागा, शर्मा जी भी जागे थे, तभी बाबा छिद्दा आते दिखे,
आये और बैठ गए! बस आने ही वाला था असीम नाथ!
आधा घंटा बीत गया था! लेकिन अभी तक नहीं आया था असीम नाथ! अब तो इंतज़ार भी नहीं हो रहा था! मैंने पानी के लिए कहा बाबा से, उन्होंने आवाज़ दी किसी को, वो आया, और पानी के लिए कह दिया, पानी आ गया तो हमने पानी पिया,
और मित्रगण! कोई एक घंटे के बाद, असीम नाथ आया अपने साथ अपनी एक साधिका को लेकर! असीम नाथ कोई पचास वर्ष का रहा होगा, और उसकी साधिका कोई तीस बरस की, साधिका चुस्त-दुरुस्त थी उसकी! नाम पता चला उसका, श्यामा नाम था उस साधिका का, बहराइच की रहने वाली थी, लम्बी-चौड़ी स्त्री थी वो! चेहरा-मोहरा भी अच्छा था! नैन-नक्श भी तीखे ही थे। आँखें बड़ी बड़ी थीं! साधिका रूप में तो, कमाल ही लगती होगी!
खैर, बाबा छिद्दा ने अब प्रयोजन बताया असीम नाथ को, असीम नाथ ने स्वीकार तो किया बताना लेकिन, मुझे वो आदमी सही नहीं लगा,
घमंडी था, बातचीत में ही अपना दम्भ झलका रहा था! "ऐसा करो, कल मिलो आप" वो बोला, अब कल तो सम्भव था ही नहीं! उसे बताया मैंने कि हम दूर से आये हैं, खास उस से मिलने के लिए ही, लेकिन वो माना ही नहीं! "आज रात्रि का समय दे दीजिये?" मैंने कहा, "आज तो व्यस्त रहँगा मैं" वो बोला, अपने दोनों हाथ उठाकर, "तोशाम को ही बात कर लीजिये?" मैंने कहा, "बताया नहीं आपको मैंने? काम है भई मुझे" वो बोला, "कल, कितने बजे?" मैंने पूछा, "दोपहर को" वो बोला, "ठीक है" मैंने कहा, "ठीक है" वो बोला,
और अपनी साधिका से बातें करने लगा, उसकी साधिका उठी, हम भी उठे, हम नमस्ते कर, बाहर आये,
और साधिका ने दरवाज़ा बंद कर लिया अपना! हम चले वापिस बाबा के साथ, कदम नाथ से मिले.
और विदा ली, बता दिया कि कल आएंगे अब वापिस, हम बाहर आये, सवारी मिल जाती हैं यहाँ से, सवारी ली,
.
उस रास्ते तक आये हम,
और फिर वहां से पैदल पैदल, बाबा छिद्दा के स्थान तक पहुँच गए! वो रात हमने वहीं गुजारी,
और अगले दिन हम दोपहर में, भोजन करने के पश्चात वहाँ के लिए निकल पड़े, फिर से बाबा ने टेम्पो बुला लिया था, वो फिर से हमको ले चला उधर, हम करीब एक घंटे बाद वहाँ पहंचे, डेरे में अंदर गए, बाबा कदम के पास पहुंचे, नमस्कार हुई उनसे,
और उनके चरण छुए, उनको भी अच्छा नहीं लगा था कि, कल नहीं बताया था उसने हमें,
और हम इस तरह से फिर परेशान हो गए थे! पानी आया, हमने पानी पिया, पानी ठंडा था, फ्रिज का था, इसका मतलब यहां बिजली आ रही थी, बाबा छिद्दा के यहाँ तो बिजली आने का मतलब था जैसे कि, सावन का महीना आ गया!
खैर साहब! अब हम उठे वहां से, बाबा कदम ने बता दिया था कि वो असीम नाथ कहाँ है, हम चल पड़े उस से मिलने, उस कक्ष का दरवाज़ा बंद था अंदर से, अब दरवाजे पर दस्तक दी बाबा छिद्दा ने, दरवाज़ा उसी श्यामा ने ही खोला, नीले रंग की धोती पहनी थी उसने, उस से नमस्कार हुई हमारी, तो उसने बताया कि असीम नाथ बगीचे में हैं, उसको धन्यवाद किया, और चले बगीचे की ओर, असीम नाथ वहीं बैठा था अपने दो साथियों के संग,
हमे देखा तो बैठे बैठेही, हाथों से इशारा किया, वहाँ आने का, हम चल दिए आगे, पहुंचे वहाँ, वो पेड़ के नीचे एक चटाई पर बैठा था, उसके साथी घास में, उसने बैठने को कहा, हम बैठे वहीं घास पर, बाबा छिद्दा से नमस्कार हई उसकी, हमसे नहीं, हम तो आगंतुक से थे वहां! वो दोनों साथी उसके, उठे और चले गए, "हाँ जी, क्या पूछ रहे थे?" उसने कहा, "मैं कुछ विशेष ही पूछना चाहता हूँ, आप आज्ञा दें तो" मैंने कहा, "हाँ, पूछो" वो बोला, "मुझे बाबा छिद्दा ने बताया था कि आपने प्रचंड योगिनी को साध लिया है, क्या ये सत्य है?" मैंने पूछा, "हाँ सत्य है" वो बोला, मेरी आँखें चमक उठी! "लेकिन मैंने तो सुना है कि कोई पुरुष नहीं साध सकता उन्हें?" मैंने कहा, "कहाँ लिखा है? कैसा गुरु है तुम्हारा? बताया भी नहीं?" वो बोला, मुझे क्रोध भड़क आया, लेकिन मैं दबा गया क्रोध अपना, अभी अपना हाथ दबा हुआ था, नहीं तो ऐसा जवाब देता कि कानों से दिमाग बाहर आ जाता उसका! "क्षमा करें, मेरे गुरु जी अब इस संसार में नहीं हैं, और जो हैं, वो पूज्य हैं मेरे लिए, उन्होंने मुझे यही बताया था कि योगोनि को पुरुष कदापि नहीं साध सकता" मैंने कहा, "यहीं गलती हुई आपके गुरु से" वो बोला, मैं अब भड़का! उसने दूसरी बार, मेरे गुरु श्री को ऐसे अपमानित किया था, एक बार और! एक बार और कहा तो मैं उत्तर दूंगा इसको! खरा और खालिस! "यदि आपने की है यदि प्रचंड योगिनी प्रसन्न, तो क्या आप अघोर के नाते और कल्याण
हेतु विधि बताएँगे?" मैंने पूछा, "पंद्रह वर्ष! पंद्रह वर्ष लगाए हैं मैंने,ये बाल ऐसे ही नहीं सफ़ेद करवा लिए मैंने,और यदि मैं विधि बताऊंगा भी तो, आप नहीं साध पाओगे!" वो बोला, मेरे घुटने पर हाथ मारते हुए कहा उसने! मैं मुस्कुरा पड़ा! अब स्पष्ट था, वो विधि नहीं बताने वाला। कोई बात नहीं। न बताये। "अच्छा असीम नाथ जी, क्या हम क्रिया में बैठ सकते हैं आपके संग?" मैंने पूछा, "न!न! आप नहीं बैठ सकते, हमारी क्रिया विशेष हुआ करती है!" वो बोला, बड़ा ही अजीब इंसान था वो! कोई शर्म-ओ-हया ही नहीं थी! न ये ही ख़याल कि हम दूर से आये हैं उसके पास! अब तो स्पष्ट था कि वो नहीं बताने वाला!
और एक बात और! अब मुझे भी संशय होने लगा था कि ये सिर्फ बड़ग ही मार रहा था! कोई योगिनी सिद्ध नहीं की थी उसने! बस, बड़ी बड़ी बातें ही कर रहा था वो! "आप कहाँ से आये हैं वैसे?" वो बोला, "दिल्ली से" मैंने कहा, "अच्छा, यही जानने आये थे?" उसने कहा, "हाँ" मैंने कहा, "देखो भई, मझे तीन वर्ष लग गए, आप तो समझते ही हैं, क्या क्या करना पड़ता है, लेकिन सिद्ध हो ही गयी, जिसे मैंने एक बार पाना है तो पा के ही रहँगा!" वो बोला, फिर से दम्भ का धुंआ निकला उसके मुंह से! "एक बार दिखाइए तो सही?" मैंने कहा, "माफ़ करो भई!" वो बोला, साफ़ मना! सिरे से खारिज! फिर दुबारा नहीं कहा मैंने! "कोई बात नहीं!" मैंने कहा, अब वो खड़ा हो गया,
कपड़े झाडे उसने, मैं भी खड़ा हुआ, शर्मा जी भी और बाबा भी! बात नहीं बनी थी! वो नहीं बता रहा था कुछ भी! इसी कारण से ऐसी प्राचीन विद्याएँ दबी रह जाती हैं।
और जो जानता है, वो दम्भ होने के कारण, किसी और को बताता भी नहीं!
हमे देखा तो बैठे बैठेही, हाथों से इशारा किया, वहाँ आने का, हम चल दिए आगे, पहुंचे वहाँ, वो पेड़ के नीचे एक चटाई पर बैठा था, उसके साथी घास में, उसने बैठने को कहा, हम बैठे वहीं घास पर, बाबा छिद्दा से नमस्कार हई उसकी, हमसे नहीं, हम तो आगंतुक से थे वहां! वो दोनों साथी उसके, उठे और चले गए, "हाँ जी, क्या पूछ रहे थे?" उसने कहा, "मैं कुछ विशेष ही पूछना चाहता हूँ, आप आज्ञा दें तो" मैंने कहा, "हाँ, पूछो" वो बोला, "मुझे बाबा छिद्दा ने बताया था कि आपने प्रचंड योगिनी को साध लिया है, क्या ये सत्य है?" मैंने पूछा, "हाँ सत्य है" वो बोला, मेरी आँखें चमक उठी! "लेकिन मैंने तो सुना है कि कोई पुरुष नहीं साध सकता उन्हें?" मैंने कहा, "कहाँ लिखा है? कैसा गुरु है तुम्हारा? बताया भी नहीं?" वो बोला, मुझे क्रोध भड़क आया, लेकिन मैं दबा गया क्रोध अपना, अभी अपना हाथ दबा हुआ था, नहीं तो ऐसा जवाब देता कि कानों से दिमाग बाहर आ जाता उसका! "क्षमा करें, मेरे गुरु जी अब इस संसार में नहीं हैं, और जो हैं, वो पूज्य हैं मेरे लिए, उन्होंने मुझे यही बताया था कि योगोनि को पुरुष कदापि नहीं साध सकता" मैंने कहा, "यहीं गलती हुई आपके गुरु से" वो बोला, मैं अब भड़का! उसने दूसरी बार, मेरे गुरु श्री को ऐसे अपमानित किया था, एक बार और! एक बार और कहा तो मैं उत्तर दूंगा इसको! खरा और खालिस! "यदि आपने की है यदि प्रचंड योगिनी प्रसन्न, तो क्या आप अघोर के नाते और कल्याण
हेतु विधि बताएँगे?" मैंने पूछा, "पंद्रह वर्ष! पंद्रह वर्ष लगाए हैं मैंने,ये बाल ऐसे ही नहीं सफ़ेद करवा लिए मैंने,और यदि मैं विधि बताऊंगा भी तो, आप नहीं साध पाओगे!" वो बोला, मेरे घुटने पर हाथ मारते हुए कहा उसने! मैं मुस्कुरा पड़ा! अब स्पष्ट था, वो विधि नहीं बताने वाला। कोई बात नहीं। न बताये। "अच्छा असीम नाथ जी, क्या हम क्रिया में बैठ सकते हैं आपके संग?" मैंने पूछा, "न!न! आप नहीं बैठ सकते, हमारी क्रिया विशेष हुआ करती है!" वो बोला, बड़ा ही अजीब इंसान था वो! कोई शर्म-ओ-हया ही नहीं थी! न ये ही ख़याल कि हम दूर से आये हैं उसके पास! अब तो स्पष्ट था कि वो नहीं बताने वाला!
और एक बात और! अब मुझे भी संशय होने लगा था कि ये सिर्फ बड़ग ही मार रहा था! कोई योगिनी सिद्ध नहीं की थी उसने! बस, बड़ी बड़ी बातें ही कर रहा था वो! "आप कहाँ से आये हैं वैसे?" वो बोला, "दिल्ली से" मैंने कहा, "अच्छा, यही जानने आये थे?" उसने कहा, "हाँ" मैंने कहा, "देखो भई, मझे तीन वर्ष लग गए, आप तो समझते ही हैं, क्या क्या करना पड़ता है, लेकिन सिद्ध हो ही गयी, जिसे मैंने एक बार पाना है तो पा के ही रहँगा!" वो बोला, फिर से दम्भ का धुंआ निकला उसके मुंह से! "एक बार दिखाइए तो सही?" मैंने कहा, "माफ़ करो भई!" वो बोला, साफ़ मना! सिरे से खारिज! फिर दुबारा नहीं कहा मैंने! "कोई बात नहीं!" मैंने कहा, अब वो खड़ा हो गया,
कपड़े झाडे उसने, मैं भी खड़ा हुआ, शर्मा जी भी और बाबा भी! बात नहीं बनी थी! वो नहीं बता रहा था कुछ भी! इसी कारण से ऐसी प्राचीन विद्याएँ दबी रह जाती हैं।
और जो जानता है, वो दम्भ होने के कारण, किसी और को बताता भी नहीं!
आखिर में, ये विद्याएँ उसके संग ही क्षय हो जाती हैं! उड्डयन का आज यही हाल है! तबंग-विद्या भी लुप्तप्रायः है! कोडीश का भी!
और उड़िया-चिड़िया का भी! जो जानते थे, किसी को बता के नहीं गए! मुझे तो कोई नहीं मिला ऐसा!
और आज! आज तो एक प्रेत सिद्ध क्या हुआ, आश्रम बना लिया! श्री श्री एक हजार आठहो गए! ठुड्डी से माथे तक का टीका हो गया! चांदी के त्रिशूल बना लिए! डमरू के दाने भी चांदी के बना लिए।
और इंसानों में विशेष हो गए! ये है आज का हाल! मुझे तो ये असीम नाथ भी ऐसा ही लगा था! बड़गबाज! कुल मायने में, अनपढ़! एक आद प्रेत सिद्ध किया हो तो किया हो, यही लगता था उस से बातें कर के! "अच्छा! अब मैं चलता हूँ, मुझे कल काशी जाना है, बहुत काम हैं!" वो बोला,
ये कह कर, वो तो डिगर गया! रह गए हम तीन! "आदमी है या टोकरा!" बोले शर्मा जी, मेरी हंसी छूट गयी! "अजीब ही है ये तो, पता नहीं क्या हो गया इसको" बाबा बोले, "भाड़ में जाए! चलो!" शर्मा जी बोले, अब हम चल पड़े, वापिस हुए, तभी श्यामा मिली, गीले कपड़े ले जा रही थी, शायद सुखाने, "मिल गए?" बोली वो, "हाँ" मैंने कहा, "चलो अच्छा हुआ" वो बोली, "हाँ, लेकिन काम नहीं हुआ" मैंने कहा, "कैसा काम?" वो बोली, "पूछना था कि प्रचंड कैसे साधी?" मैंने साफ़ साफ़ कहा, "अच्छा! नहीं बताया?" उसने पूछा, "नहीं जी!" मैंने कहा, "अच्छा.." वो बोली, "आप मदद कर दें?" मैंने कहा, "मैं कैसे?" वो बोली, "आप भी तोसंग होंगी उनके?" मैंने कहा, "नहीं, बाबा शैलनाथ थे संग" वो बोली, "शैलनाथ? वो नेपाल वाले?" मैंने पूछा, "हाँ" वो बोली! लो! कहाँ से आरम्भ और कहाँ अंत! शैलनाथ मेरे भी परिचित थे! श्यामा ने हल कर दी थी मुसीबत! मैंने धन्यवाद किया उसे!
और उसको, एक कागज़ पर लिख कर अपना नंबर दे दिया! उसने रख लिया! अब वो फ़ोन करे तो ठीक, न करे तो ठीक! फिर नमस्कार की उस से,
और चल दिए हम वापिस! हम, घंटे भर से अधिक समय में, वापिस डेरे में आ गए! जब शाम को, मदिरा का दौर आरम्भ हुआ, तब शर्मा जी ने उस असीम नाथ को, असीम गालियों से ढक दिया! हंस हंस के मेरा और बाबा का,
पेट दुखने लगा! "आया है साला योगिनी साधने, अबे कुत्ते की औलाद, पहले अपना ** तो साध ले!" बोले शर्मा जी! बाबा हँसते जा रहे थे!
और मैं भी! मझे तो खांसी उठने लगी थी! "हरामजादा! सपेरा सा लगता है, और नाम देखो, असीम नाथ! अजी **नाथ!" वो बोले, दारु पीनी दूभर कर दी उन्होंने! मैं चुप कराता तो,
और गालियां भांजते! ऐसी ऐसी गालियां, कि कोई सुन ले तो, पांच साल तक सोचता ही रहे!
और जब समझ में आये, तो दस साल तक पेट पकड़े हँसता ही रहे! "क्रिया में नहीं बिठाएगा हमे। अबे तेरी औकात है कमीन! बहन के तेरी के दरियाई घोड़े का **!" बोले वो! दरियाई घोड़ा!
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कोई आम घोड़ा नहीं! हंस हंस कर,
बाबा छिद्दा तो लेट ही गए! हाथ जोड़ने लगे! कि बस! बस! अब बस! मेरा भी हाल खराब था हंस हंस कर! अब कभी दरियाई घोड़ा, तो कभी जिराफ! कभी करकैंटा,
तो कभी बिजार! सभी को मौके दिए जा रहे थे शर्मा जी! "अरे शर्मा जी, करकैंटा क्या करेगा?" मैंने पूछा, "सुनो!!! उसकी कमर पर कांटे होते हैं न! अब समझ जाओ!" वो बोले, हंसी का बम फूटा!
असीम नाथ यदि सुन लेता तो शर्म के मारे, ज़मीन में सर घुसा कर, शीर्षासन कर रहा होता! बाबा छिद्दा तो हंस हंस कर, दोहरे हो गए थे! वो तो, बस बस, चिल्लाने लगे थे! शर्मा जी खुद भी हँसते जाते,
और उस असीम नाथ की धज्जियां उधेड़े जाते! हंस हंस कर पेट में मरोड़ उठने लगी थी!
आखिर किसी तरह से हमने अपने आपको संभाला, दर्द हो चला था पेट में अब तो! कोई बात याद आ जाती तो फिर से हंसी आ जाती! बड़ी मुश्किल से हमने अपनी मदिरा ख़त्म की, हम सब उठे, शर्मा जी को नशा चढ़ गया था काफी,
और पीने की ज़िद कर रहे थे। मैंने समझाया उन्हें, लेकिन नहीं माने,
आखिर में एक चवन्नी और मंगवा ली,
और दे दी उन्हें! वे खटाक से दो ही पैग में साफ़ कर गए! मेरा तो कोटा पूरा हो गया था, अब बस भोजन करना था और, सो जाना था! हमने खाना खाया फिर, शर्मा जी ने शोर मचा दिया था उसको गालियां दे देकर! बड़ी मुश्किल से सुलाया उन्हें!
और फिर मैं सोया! सुबह हुई, मैं जाग गया था, लेकिन शर्मा जी अभी तलक सोये थे! मैंने सोने दिया था उन्हें,
रात को बहुत हुड़दंग मचाया था उन्होंने, और दारु भी ज़्यादा ही पी ली थी! मैं आ गया नहा-धोकर! शर्मा जी अभी तक सोये, मैं बाहर चला गया था, घूमने के लिए, चाय भी पी आया था वहीं से, शर्मा जी उस दिन दस बजे सो कर उठे, सर में दर्द था और उस दिन पेट खराब हो गया था उनका, दिन में दवाई लेनी पड़ी उन्हें। शाम तक, हालत ठीक हो गयी उनकी, लेकिन आज नहीं पी सकते थे वो! शाम को मैंने और बाबा छिद्दा ने ही पी और खाया! शर्मा जी के लिए आज दलिया बनाया गया था! वही खाया उन्होंने! रात हुई, और हम सो गए! अगले दिन वापिस जाना था गोरखपुर,
और वहां से नेपाल, शैलनाथ बाबा से मिलने के लिए, उनसे बात हो जाती तो सारा रहस्य ही खुल जाता!
सुबह हुई, अब शर्मा जी का पेट सही था, हमने, चाय-नाश्ता किया, ग्यारह बजे करीब भोजन किया, फिर मैं बाबा छिद्दा से मिला, उनसे मिलकर, विदा ली उनसे,
अब हम चले गोरखपुर, बस पकड़ी,
और चल पड़े, कमर फिर से धनुष बन गयी!
और आखिर हम पहुँच ही गए गोरखपुर, वहाँ अब अपने जानकार के पास गए, वहीं ठहरे और वहीं भोजन किया, सुबह नेपाल जाना था, तो खा-पी कर जल्दी ही सो आगये हम, सुबह हुई, फारिग हुए, चाय-नाश्ता क्या, नाश्ता क्या, खाना ही था समझो, फिर भारत-नेपाल बॉर्डर की बस पकड़ ली, अब यहाँ से सोनौली पहुंचे, बॉर्डर पार किया,
और घुस गए नेपाल में! यहाँ से भैरहवा चौराहा पहुंचे,
और वहां से बस पकड़ ली, अब बस की यात्रा थी! ये यात्रा बड़ी ही दुखदायी हुआ करती है! पहाड़ों की यात्रा है, अधिक हरियाली देखकर, मितलियाँ सीआने लगती हैं। मैदानी लोग अक्सर इस से परेशान हो जाया करते हैं। हमें तो आदत है खैर,
लेकिन अभी रात का सफर भी था, सुबह कोई चार बजे ही पहुँचते, बीच बीच में, नेपाल की पुलिस और सेना, जांच करती थी, खासतौर से भारतीय लोगों की, सामान आदि जांचा जाता था,
और यदि शराब हो भारत की, तो, उनकी हथेली गरम करनी पड़ती थी! कोई कोई, बोतल ही मांग लेता है! इसीलिए, एक बोतल फ़ालतू ले ली जाती है! बस चली,
और हम भी चले, शाम के बाद एक जगह बस रुकी, यहाँ खाना पीना हुआ, और थोड़ी बहुत दारु भी गटक ली! रात को फिर रुकनी थी बस, तो बाकी का कोटा वहां पूरा हो जाता!
और यही हुआ, रात को बस रुकी,
और मैंने बची हुई मदिरा गटकी! एक चांट का पत्ता भी लिया, फ्रूट-चांट का, उसी के सहारे मदिरा जका स्वाद आया,
अब बस, चले, न चले, बारिश हो, चाहे पत्थर गिरें, अब नींद वहीं खुलनी थी, जहाँ हमें जाना था!
और अब हम सो गए बस में जाकर, मौसम बढ़िया था बाहर,
गर्मी से राहत थी, बस कब चली, कब नहीं, कुछ नहीं पता! सुबह कोई साढ़े पांच बजे, नींद खुली, बाहर बारिश थी, मौसम खुशगवार था,
और हमारी मंज़िल आने में, अभी कोई घंटा भर था! फिर से पुलिस चढ़ी,
और फिर से जांच हुई, और फिर से बस चली, आगे जाकर, सेना ने बस की जाँच की, भारतीयों के, हाथ खड़े करवाये कि, कौन कौन भारत से है। बस में हम दो ही थे! हमने ही हाथ खड़े किये थे! हंस कर, वो जांच करते!
और कहते, क्या साहब, कुछ ले ही आते! मतलब भारत की शराब!
खैर, हमारी मंज़िल आ गयी थी, हम उतरे!
और चाय पीने गए! यहाँ चाय बढ़िया मिलती है, साथ में नेपाली आमलेट खाए बिना नहीं जाइए! बढ़िया बनाते हैं नेपाल में! हम पहँच तो गए थे, लेकिन अभी जहाँ हमें जाना था, वो जगह दूर थी!
कोई पचास किलोमीटर! अब जब नाश्ता कर लिया, तो एक और बस पकड़ ली, छोटी चाइनीज़ बस! शाओलिन कंपनी की! बैठेजी, सारे नेपाली ऐसे देखें जैसे हम, अजीब ही लोग हैं। बस चली,
और हम भी आगे बढ़े, सीट बहुत छोटी होती हैं इन बसों की, घुटनों को सजा मिला करती है! बस किसी तरह से वो दो घंटे काटे,
और हम पहुंचे वहां, अब यहाँ से पैदल जाना था, पैदल चले!
और पहुँच गए नीलकंठ डेरा! यहीं थे बाबा शैलनाथ! शैलनाथ बाबा, देखिये, अजमेर के हैं! इनके गुरु, बाबा बैकुंठ नाथ, नेपाल के थे, इसी कारण से अब सारी जिंदगी उन्होंने, नेपाल में काट दी है! नेपाल में,
औघड़ लोग, पूजे जाते हैं, सच्ची हिन्दू-संस्कृति यहाँ मिलती है! लोग औघड़ों को, घर आमंत्रित किया करते हैं। वस्त्र, धन, शराब, चावल आदि दान दिया करते हैं। बाबा शैलनाथ तो वैसे ही,
प्रबुद्ध थे। उनका बड़ा मान है वहां!
औघड़ों का, हजूम रहता है उनके साथ, हमेशा! मेरा परिचय उनसे, श्री श्री श्री ने ही करवाया था! कानों में अस्थियां धारण किया करते हैं!
और सच में, देह उनकी, शैल समान ही है! अब हमने थोड़ा आराम किया वहाँ, रात भर बस में बैठ कर, शरीर अकड़ गया था!
और टांगों का तो बुरा हाल था! मैंने बस में जूते उतार दिए थे,
और अपने देसी अंदाज़ में, टांगें ऊपर चढ़ा के बैठा था! शर्मा जी ने भी यही किया था,
खैर, हमने करीब एक घंटा आराम किया, ठंडा पिया, और फिर चले हम बाबा के स्थान के लिए, रास्ते में मंदिर बहत पड़ते हैं, नेपाली स्थापत्य में बने ये मंन्दिर, दूर से तो गौतमालय प्रतीत होते हैं, बौद्ध-विहार जैसे,
और अंदर से, हिन्दू मंदिर जैसे! यही खासियत है इन मंदिरों की! हम चलते चले गए और जा पहुंचे, एक पहाड़ी सी पर, यहाँ छिट-पुट ही आबादी थी, खाली पड़ा था वहां का स्थान, लोग नज़र आते थे तो, सर पर सामान लादे हुए! मेहनती लोग हैं ये देहाती यहां के! हम आगे चले तो, बाबा शैलनाथ का स्थान दिखा, उस हरियाली में, सफ़ेद रंग से पुता हुआ वो स्थान, बेहद सुंदर लग रहा था! लाल और पीले झंडे लगे थे वहाँ!
बीच में एक मंदिर भी बना था! यही था बाबा शैलनाथ का स्थान! हम अंदर चले अब, एक व्यक्ति ने अता-पता पूछा, मैंने बता दिया की हम बाबा शैलनाथ से मिलने आये हैं, दिल्ली से, तो उसने अंदर जाने दिया, हम अंदर आये, लोग अपने अपने कामों में लगे थे,
औरतें अपने कामों में लगी थीं, बकरिया और उनके बच्चे, उछल-कूद मचा रहे थे।
जो भी रास्ते में आता, नमस्ते करता, हम भी नमस्ते करते उसे! क्या औरत और क्या मर्द,
और क्या बालक-बालिकाएं! बाबा का ये स्थान काफी बड़ा है, कुछ भूमि उन्होंने एक चिकित्सालय के लिए दे रखी है, और कुछ भूमि, एक प्राथमिक सरकारी विद्यालय को, शिक्षा भी मुफ्त ही की है! गरीब बच्चे पढ़ने आते हैं उधर,
और बाबा शैलनाथ, और कुछ और दानकर्ता आदि, इसके अध्यापकों को वेतन आदि दिया करते हैं!
ये नेकी का कार्य है! पिछली बार मैंने दो बोरी अन्न और बीस लीटर घी, दिया था इधर,
खैर, हम आगे चले, और अब कक्ष आने लगे थे, कक्ष भी ऐसे बने थे जैसे की कोई विद्यालय! एक कतार में करीब बीस कक्ष! दायें भी, और बाएं भी! छत के लिए खपरैल लगी थीं, बहुत सुंदर स्थान है ये! एक महाशय मिले हमें, उनसे पूछा बाबा के बारे में, उसने बता दिया कि कहाँ हैं वो बाबा शैलनाथ,
हम वहीं चल पड़े!
और आ गए हम उनके कक्ष के सामने, पर्दा पड़ा था कमरे की चौखट पर, हमने जूते उतारे और पर्दा उठाया, बाबा अंदर ही लेटे हुए थे, हम अंदर चले, उन्होंने देखा हमें, उठ बैठे, हमने प्रणाम किया उन्हें और चरण स्पर्श किये उनके!
वे जानते तो थे ही, गले से लगा लिया मुझे और शर्मा जी को, हम बैठे वहीं,
और बाबा ने हाल-चाल पूछे, हमने बताया और उनका हाल-चाल पूछा, बाबा भी ठीक थे! अब मैंने बाबा को अपने आने का प्रयोजन बताया, वे मुस्कुराये और आराम करने को कहा, फिर शाम को बात करेंगे, कह कर, अपने सहायक को बुलाया,
और हमें उसके साथ जाने को कहा! आराम तो करना ही था, रात भी सही तरह से सो नहीं पाये थे हम, सबसे पहले कक्ष में पहुँचते ही, स्नान किया, ताज़गी आई थोड़ी! फिर चाय आ गयी, चाय पी फिर, पानी रखवा लिया वहीं,
और अब बिस्तर पर लेटे! कुछ ही देर में, आँख लग गयी!
और हम सो गए फन्ना के! जब नींद खुली, तो दो बजे थे! खूब अच्छी तरह से सोये थे हम! अब थकावट नहीं थी बाकी!
एक सहायक आया और भोजन की पूछी, वो पहले भी चक्कर लगा गया था, लेकिन तब हम सो रहे थे! हमने मंगवा लिया भोजन! भोजन आया और हमने भोजन किया फिर! करेले थे भरवां, हरी मिर्च का अचार, दही, दाल और अचार, रोटियां और चावल! किसी महिला ने ही बनाया था, बहुत बढ़िया भोज था, घर के जैसा! मजा आ गया था भोजन कर के! सारी थाली ही साफ़ कर दी हमने! भोजन किया तो टहलने चले हम! बाहर टहले, पेड़ आदि लगे थे कटहल के, बेल लगी हुई थीं! उन पर घीये, तोरई, सीताफल और करेले लग रहे थे! यही था भोजन के स्वाद का राज! ताज़ा सामान था, तो स्वाद तो आना ही था! हम काफी देर तक टहले,
और फिर वापिस आये, शर्मा जी ने चाय मंगवा ली थी, मैंने नहीं पी, मन नहीं था चाय पीने का, उसके बाद फिर से आराम किया, फिर सो गए,
छह बजे उठे हम सोकर, काम तो कुछ था नहीं, बस नींद ही नींद! शाम हुई,
और मैं बाबा के पास गया, बाबा अकेले ही बैठे थे, मैं नमस्कार आकर, बैठ गया साथ में ही,
अब बात शुरू की मैंने, "बाबा, क्या सच में उस औघड़ असीम न्थ ने प्रचंड योगिनी को सिद्ध किया है?" मैंने पूछा, वे चुप रहे,
और फिर मुझे देखा, "नहीं" वो बोले, उनके नहीं करने से जैसे मनों बोझ उतर गया सर से! मुझे पहले ही पता था कि, वो झूठ ही बोल रहा है। अब मैंने बाबा को सारी कहानी बता दी, वो बहुत हँसे! दरअसल, बाबा शैलनाथ के एक शिष्य हैं बाबा देव नाथ जी, इन्ही देव नाथ जी का शिष्य है वो असीम नाथ! "तो उसने झूठ क्यों बोला?" मैंने पूछा, "मूर्ख है।" वे बोले,
खैर, जो मैंने जानना था, जाना लिया था, वो कोई योगिनी नहीं साध रहा था, बल्कि झूठ साधरहा था! अब बात साफ़ हो गयी थी! अब कौन असीम नाथ! भाड़ में जाए! मैंने तो बाबा को भी बताना था, छिद्दा बाबा को, कि कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है उसके साथ! ऐसे झूठों से दूर ही रहो! मैंने बाबा का धन्यवाद किया!
और उठ गया, उन्होंने फिर से एक सहायक को बुलाया,
और 'शहरी सामान' देने को कहा, सहायक उठा, मुझे बुलाया,
और मैं बाबा को नमस्ते कर, चल दिया उसके साथ, वो वक कक्ष में गया और,
एक बोतल निकाल आकर दे दी, मैंने ले ली, उसने अभी साथ में खाने के लिए, सामान लाने को कहा, मैं चल पड़ा अपने कक्ष की ओर,
आ गया कक्ष में अपने, शर्मा जी को बोतल दी,
और बैठ गया, शर्मा जी ने उस बोतल का मुआयना किया, ये नेपाल की ही शराब थी! थोड़ी ही देर में, वो सहायक आ गया,
और ले आया था सारा सामान, सलाद, फल कटे हुए,
और साथ में हरी चटनी! पानी भी ले आया था ठंडा! अब क्या था! हुए हम शुरू! खाते रहे और पीते रहे! तभी मेरा फोन बजा, मैंने नंबर देखा, नहीं समझ आया, कोई नया नंबर ही था, मैंने बात करने के लिए,
ओके दबा दिया! ये फ़ोन श्यामा का था! उस से बात हुई,
और उसने वही बताया जो मुझे, बाबा शैलनाथ ने बताया था! मैंने उसका धन्यवाद किया,
और फ़ोन काट दिया!
अब फिर से शुरू हुए, तभी मुझे नीलिमा का ध्यान आया, वो यहीं थी, पास में ही, कोई एक किलोमीटर दूर ही! कल उस से भी मिलना था! अब यहां तक आये हैं तो, मिलना बनता है। हम फारिग हुए,
सो गए, अगले दिन कोई नौ बजे, चाय-नाश्ता कर, हम नीलिमा से मिलने चल पड़े। नीलिमा आजकल एक संस्था चलाती है, महिलाओं की, महिलाओं को शिक्षण दिया करती है, सिलाई-बुनाई का, उसकी भी एक कहानी है, दर्दभरी! कभी लिखूगा! मैं पिछले वर्ष मिला था उस से! उसके बाद अब आ रहा था! हम पहँच गए वहां, हमने पूछा नीलिमा के बारे में, तो एक महिला ने बता दिया, हम सीढ़ियां चढ़ चले,
और पहुँच गए ऊपर, उसके कक्ष के सामने आये, तो वो कुछ लिखत-पढ़त कर रही थी, अब चश्मा लग गया था उसे, चश्मा फब रहा था उसके चेहरे पर,
पहले से अधिक तंदुरुस्त लग रही थी! मैंने दरवाजे पर दस्तक दी, उसने देखा, खुश हुई, सारा काम छोड़, भागी चली आई! मुझसे गले मिली,
और शर्मा जी के पाँव छुए। फिर ले चली एक कक्ष की ओर!
और हम चल पड़े उसके पीछे पीछे! अब हमने थोड़ा आराम किया वहाँ, रात भर बस में बैठ कर, शरीर अकड़ गया था!
और टांगों का तो बुरा हाल था! मैंने बस में जूते उतार दिए थे,
और अपने देसी अंदाज़ में, टांगें ऊपर चढ़ा के बैठा था! शर्मा जी ने भी यही किया था,
खैर, हमने करीब एक घंटा आराम किया, ठंडा पिया, और फिर चले हम बाबा के स्थान के लिए, रास्ते में मंदिर बहुत पड़ते हैं, नेपाली स्थापत्य में बने ये मंन्दिर, दूर से तो गौतमालय प्रतीत होते हैं, बौद्ध-विहार जैसे,
और अंदर से, हिन्दू मंदिर जैसे! यही खासियत है इन मंदिरों की! हम चलते चले गए और जा पहुंचे, एक पहाड़ी सी पर, यहाँ छिट-पुट ही आबादी थी, खाली पड़ा था वहां का स्थान, लोग नज़र आते थे तो, सर पर सामान लादे हुए! मेहनती लोग हैं ये देहाती यहां के! हम आगे चले तो, बाबा शैलनाथ का स्थान दिखा,
उस हरियाली में, सफ़ेद रंग से पुता हआ वो स्थान, बेहद सुंदर लग रहा था! लाल और पीले झंडे लगे थे वहाँ! बीच में एक मंदिर भी बना था! यही था बाबा शैलनाथ का स्थान! हम अंदर चले अब, एक व्यक्ति ने अता-पता पूछा, मैंने बता दिया की हम बाबा शैलनाथ से मिलने आये हैं, दिल्ली से, तो उसने अंदर जाने दिया, हम अंदर आये, लोग अपने अपने कामों में लगे थे,
औरतें अपने कामों में लगी थीं, बकरिया और उनके बच्चे, उछल-कूद मचा रहे थे!
जो भी रास्ते में आता, नमस्ते करता, हम भी नमस्ते करते उसे! क्या औरत और क्या मर्द,
और क्या बालक-बालिकाएं! बाबा का ये स्थान काफी बड़ा है, कुछ भूमि उन्होंने एक चिकित्सालय के लिए दे रखी है,
और कुछ भूमि, एक प्राथमिक सरकारी विद्यालय को, शिक्षा भी मुफ्त ही की है!
गरीब बच्चे पढ़ने आते हैं उधर,
और बाबा शैलनाथ, और कुछ और दानकर्ता आदि, इसके अध्यापकों को वेतन आदि दिया करते हैं! ये नेकी का कार्य है! पिछली बार मैंने दो बोरीअन्न और बीस लीटर घी, दिया था इधर,
खैर, हम आगे चले, और अब कक्ष आने लगे थे, कक्ष भी ऐसे बने थे जैसे की कोई विद्यालय! एक कतार में करीब बीस कक्ष! दायें भी, और बाएं भी! छत के लिए खपरैल लगी थीं, बहुत सुंदर स्थान है ये!
एक महाशय मिले हमें, उनसे पूछा बाबा के बारे में, उसने बता दिया कि कहाँ हैं वो बाबा शैलनाथ, हम वहीं चल पड़े!
और आ गए हम उनके कक्ष के सामने, पर्दा पड़ा था कमरे की चौखट पर, हमने जुते उतारे और पर्दा उठाया, बाबा अंदर ही लेटे हए थे, हम अंदर चले, उन्होंने देखा हमें, उठ बैठे, हमने प्रणाम
