नहीं! नहीं!
मुझे जाना ही होगा!
दरवाज़ा पीट लिए उसने!
चीखी-चिल्लाई!
अब कौन सुने!
प्रेम की कौन सुनता है!
जो जलता है उसका हाल वो ही जानता है!
ऐसी ही जली इथि!
हाथ जोड़े!
पाँव पड़े!
बस एक बार!
बस एक बार!
जाने दीजिये!
बस एक बार जाने दीजिये!
इथि?
शैल कबसे सुनने लगे?
नहीं जानती तू?
जानबूझकर अंधी हुई तू?
प्रेम में अंधी हुई तू!
हाँ!
अंधी!
प्रेमान्ध!
इथि को रोता देखा माँ भी रोये,
पिता भी चेहरा फेरे!
बड़ा भाई भी उठ जाए वहाँ से!
माँ! एक बार!
पिता जी! एक बार!
भैया! एक बार!
मैं मर जाउंगी!
प्राण दे दूंगी यहाँ!
कोई असर नहीं!
ये इथि नहीं!
उसमे बसी बला बोल रही है!
हाँ वो ही बला जिसके बारे में बताया है ओझा ने!
रोते रोते बेहोश हुई इथि!
और मध्यान्ह गुजर गया!
जीवन का एक हिस्सा कट के गिर गया कहीं!
रात्रि का तीसरा प्रहर!
जागी अस्त-व्यस्त इथि!
माँ ने पकड़ा उसको!
वो भागी दरवाज़े की ओर!
मध्यान्ह बीत जाएगा माँ!
मध्यान्ह बीत जाएगा!
कौन सुने!
बेचारी इथि!
बहुत बुरा बीता समय इथि का! समय का ज्ञान ही न रहा! कब रात हुई कब सुबह और कब मध्यान्ह! उसके केवल मध्यान्ह का समय ज्ञात रहा! पिछले दिन नहीं जा सकी थी वो तालाब पर! वे आये होंगे और ढूँढा होगा, फिर चले गए होंगे! न जाने क्या सोचा होगा उन्होंने!
क्यों रोका मुझे!
यही सोचा था उस समय इथि ने!
मध्यान्ह पूर्व की बात है, ओझा ले आया अपने संग एक बाबा को, बाबा वृद्ध थे, संग दो चेले उनके! उनकी अच्छी खातिरदारी हुई!
माँ बाप अब संतुष्ट की इथि कि व्यथा अब समाप्त होने को है! चलो! शीघ्र ही निबट गया या दुःख का समय! इस बार तो जैसे ही इथि सही होगी, आनन-फानन में ब्याह रचा ही देंगे!
"लड़की को बुलाइये" बाबा ने कहा,
माँ अंदर भागी!
दरवाज़ा खोला!
और बेसुध इथि को ले आयी वहाँ, सामने एक पीड़े पर बिठा दिया!
"क्या नाम है तेरा?" बाबा ने इथि से पूछा,
इथि चुप!
"बता लड़की?" बाबा ने पूछा,
इथि फिर चुप!
"बेटी, बता नाम अपना?" पिता जी ने पूछा!
इथि की निगाह ज़मीन के चुम्बकत्व में चिपकी रही!
नहीं उठायी नज़र!
नहीं हिलाए होंठ!
बाबा ने आँखें बंद कीं!
और एक मंत्र जागृत किया!
एक चुटकी मिट्टी उठायी और सामने दे मारी इथि पर!
ये क्या!
बाबा जैसे उछल पड़े!
उनके चेले स्तब्ध!
माँ-बाप का मुंह खुला रह गया!
वो मिट्टी ऐसे किसी ढाल से टकरा के गिरी जैसे किसी शक्ति ने इथि को अपने मध्य में लिया हो!
ये देख बाबा हैरान!
"अवश्य ही कोई बड़ी शय है" बाबा बुदबुदाये!
अब बाबा ने अपने थैले में से कुछ निकाला, ये कुछ बाल से थे, कुछ अंभिमन्त्रित बाल! उन्होंने प्रत्यक्ष-मंत्र का जाप करते हुए, उठते हुए वे बाल फेंक मारे इथि पर!
परन्तु!
बाल भरभरा के जल उठे!
राख हुए!
ये देख बाबा जैसे गुरुत्वाकर्षण खोने वाले हों!
सभी के सभी उपस्थित वहाँ हेप!
इथि के माँ बाप को काटो तो खून नहीं!
और बाबा ने अपना अमोघ मंत्र खोया! उनके मात्र का नाश हुआ!
ये देख बाबा के जहाँ एक और होश उड़े वहाँ जान के लाले भी पड़ने लगे!
क्या करें?
भाग जाएँ?
परन्तु,
ये शक्ति है क्या?
कौन है?
पता तो करना होगा!
"ऐ लड़की, क्या नाम है तेरा?" अब बाबा ने गुस्से से पूछा!
इथि चुप! उस भोली को तो ये भी नहीं पता कि क्या हुआ था अभी बाबा के प्रयोगों का!
नहीं बोली इथि!
अब बाबा ने दिनचर्या पूछी इथि की उसके माँ-बाप से! उन्होंने सब बता दिया!
इसका अर्थ जो कुछ है वो बाहर से आया है!
मध्यान्ह बीत चुका था!
संध्या आने को थी!
"सुनो! मैं आज रात यहाँ क्रिया करूँगा" बाबा ने कहा,
सभी राजी! और होते भी क्यों न!
सभी ने देख लिया था, बाबा ने जांच लिया था!
इथि की माँ अंदर ले गयी इथि को! इथि निढाल सी लेट गयी बिस्तर पर! दुखी और टूटी हुई! रिक्त और परेशान!
रात हुई!
बाबा ने भोजन किया, चेलों के साथ और फिर अपनी क्रिया का सामान निकाला! आज घर की हदबंदी करनी थी! ताकि कोई न आ सके और न कोई जा सके!
रात्रि समय अब तैयार बाबा!
और फिर!
रात में सारी तैयारियां कर ली गयीं! इथि बेचारी एक करवट पर अपनी एक भुजा सर के नीचे लिए मूर्छित सी लेटी, न दिन का होश न रात का पता! कैसी प्रेम लगन! जान को आ गयी!
वहाँ!
बाबा ने अलख तैयार की!
सारा सामान संजो कर रख दिया अलख के पास!
एक चेला दायें बैठा और एक बाएं!
और अब बाबा ने अलख उठायी!
रुकिए!
रुकिए!
ये क्या!
अलख उठी ही नहीं!
मन कर दिया अलख ने उठने से!
वाह रे बाबा! अब भी न समझा!
बाबा ने ईंधन डाला और महानाद करते हुए एक बार पुनः प्रयास किया! लेकिन!
न उठी अलख!
अब घबराये बाबा!
चौगुने घबराये चेले!
ऐसा कभी नहीं हुआ!
ये कौन सी महाशक्ति है जो इस लड़की का रक्षण कर रही है?
कौन है वो?
"हे? कौन है तू?" बाबा ने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
कुछ भी नहीं!
"कौन है? मेरे कार्य में बाधा डालने वाले तू कौन है?" बाबा चिल्लाया!
कोई उत्तर नहीं!
अब बाबा परेशान!
क्या करे और क्या न करें!
"ठीक है! तू जो कोई भी है, मैं उठाता हूँ तुझे!" बाबा ने कहा और आँख बंद कीं!
और तभी!
तभी वहाँ तेज पवन बहने लगी!
सारा सामान अस्त-व्यस्त हो गया!
सभी के नथुनों में मिट्टी घुस गयी!
खखार उठे वे सब!
अब बाबा की सिट्टी-पिट्टी गुम!
उठ पड़े वहाँ से!
जिसको जहां जगह मिली वो वहीँ शरण ले बैठा!
पवन बंद!
किसी ने रोक दिया था बाबा को!
बाबा की समझ से बाहर ये खेल!
"युक्ति! हाँ युक्ति अपनानी होगी!" बाबा ने बुदबुदाया!
उठ गये वे सभी वहाँ से और अपने कक्ष में पहुंचे!
कल सुबह मुक्त कर देंगे वो लड़की को!
अब ये लड़की ही राह बताएगी!
और पता चल जाएगा कि कौन है वो!
सो गये सभी!
भोर हुई!
क्रिया असफल!
बताया गया इथि के माँ बाप को इस बारे में!
सभी सन्न! भयाक्रांत!
"अब क्या होगा बाबा?" पिता ने पूछा,
"कुछ नहीं" बाबा ने कहा और युक्ति सुझा दी उनको!
"मुक्त कर दो लड़की को! जहां जाना चाहे, जाने दो!" बाबा ने कहा,
दरवाज़े खोल दिए गए!
लेकिन न उठी इथि!
शिथिल सी पड़ी रही!
जब दरवाज़े से छनी रौशनी पड़ी उसके ऊपर तो होश सा आया!
उसने देखा बाहर!
मध्यान्ह होने में समय था!
माँ ने देखा उसे!
"इथि?" माँ ने पूछा,
"हूँ?" बोली इथि!
"कैसी है तू?" माँ ने पोछा,
कुछ न बोली वो!
प्रतीक्षा फिर से आरम्भ!
मध्यान्ह की प्रतीक्षा!
घंटों में तब्दील पल!
एक एक भारी पल!
और मित्रगण!
हुआ मध्यान्ह!
प्रेम बावरी भाग छूटी घर से!
कमान से तीर की तरह!
वो आगे आगे!
और बाबा उसके पीछे पीछे, चेलों संग!
हाँफते, दौड़ते भाग रही थी इथि!
उसी वृक्ष के पास!
आज अपनी सखी को भी न लायी थी!
पहुंची वृक्ष के पास!
बाबा जा छिपे झाड़ी के पीछे!
उचक उचक के देखा!
एक एक क्षण भारी!
विकट!
और तभी!
वे आते दिखायी दिए!
बेसब्र!
बेचैन!
इथि!
तकने लगी राह!
आज विलम्ब अधिक लग रहा था! स्वाभाविक भी था! कल का मध्यान्ह रिक्त गया था! इसी कारण से आज विलम्ब लग रहा था!
मार्ग के बीच में आयी इथि!
दूर उसे दिखायी दिए वे दोनों आते हुए!
ह्रदय की धड़कन अपने चरम पर पहुंची!
वे आते गये,
दूरी मिटती चली गयी!
आज बेसब्र थी इथि!
वे आये, रहे होंगे कुछ ही दूर!
भाग पड़ी इथि!
तेज!
उनकी तरफ! वे ठहर गए!
और फिर सम्मुख आयी!
अपने लरजते होंठों को संयत किया, आँखों में अश्रु लिए लिपट गयी विपुल के चौड़े वक्ष-स्थल से!
विपुल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की!
जैसे कि वो जानता हो सबकुछ!
जानता हो!
सम्भव है!
वो एक कुमार गांधर्व है!
वो सब जानता है!
लिपट पड़ी इथि!
विपुल ने कुछ नहीं कहा,
बस,
अपनी एक बाजू से अंक में भर लिया इथि को!
उफ़!
शब्द नहीं हैं मेरे पास!
वर्णन नहीं कर सकता!
आपसे प्रार्थना करता हूँ, उस लम्हे हो खुद ही जियें!
खुद महसूस करें!
साकार हो उठी इथि की मुहब्ब्त!
बिना कुछ कहे!
बिना जताए!
कौन है ऐसा खुशनसीब तेरे जैसा इथि!
कौन!
कोई नहीं!
तू तो विशेष हो गयी!
आंसू झर झर बहें!
सुचित वहाँ से हट गया!
हटने से पहले पुष्पों की डलिया ले ली विपुल से!
और अब दोनों भुजाओं में क़ैद इथि उसके!
बाबा और चेले हैरान!
ये कौन हैं?
ये तो राजकुमार लगते हैं!
ये कोई अला-बल नहीं हैं!
ये तो साक्षात देव लगते हैं!
देव कुमार!
अरे बाबा!
जब इथि अपने प्रेमी गांधर्व के अंक में भरी हो तो कौन सी शक्ति उन्हें पृथक कर सकती है?
सोच बाबा!
बहुत देर वो ऐसे ही नेत्र बंद किये चिपकी रही उस से!
आलिंगन मुद्रा में!
विपुल की बलिष्ठ भुजाओं में सुरक्षित हो गयी इथि!
दोनों भुजाओं ने ढक लिया था इथि को!
कुछ देर ऐसे ही और रहे!
फिर अपने हाथ से अश्रु पोंछे विपुल ने इथि के!
गान्धर्व ने मानव-अश्रुओं का मोल जान लिया था!
"क्या हुआ इथि?" अब पूछा विपुल ने!
इथि रोये ही जाए!
कुछ न बोले,
बोले क्या बोलना बन ही न पड़े!
"मुझे बताओ इथि?" याचना सी की एक गान्धर्व ने मानस से!
इथि नेत्र बंद किये चुप!
"भयभीत हो? मुझे बताओ, कौन सा भय है, मुझे बताओ?' विपुल ने पूछा,
भय!
कौन सा भय!
कोई भय नहीं!
विपुल के रहते भय!
असम्भव!
अभी उनका वार्तालाप चल ही रहा था कि बीच में झाड़ियों के पीछे छिपा बाबा आ गया सामने!
"कौन है तू?" बाबा ने पूछा,
विपुल ने बाबा को देखा!
ऐसी नज़रों से कि बाबा का रोम रोम सिहर गया!
विपुल ने चेलों को भी देखा!
वे सभी बाबा की पीछे आकर चिपक से गए!
"बता कौन है तू?" उसने पूछा,
कुछ न बोला विपुल!
"नहीं बतायेगा? तो देख!" बाबा ने कहा और ऐनत्रास मंत्र पढ़ दिया! मंत्र पढ़ते ही काट हुई और वे तीनों उछल के पड़े पीछे, झाड़ियों के मध्य!
अब इथि ने देखा उन्हें!
अब जानी उन्हें!
तब तक सुचित भी आ गया वहाँ!
वे दो हुए!
और बाबा अकेला!
सर पे पाँव रख के भाग खड़ा हुआ!
वो गाँव भी नहीं गया होगा! सीधा ही भाग गया होगा वाराणसी! मुझे ऐसा लगता है! क्योंकि आगामी कथा में उसका कहीं कोई उल्लेख नहीं!
मित्रगण!
अधिकाँश पाठकों ने सोचा होगा कि विपुल का मिलन हो गया इथि से! उसको अंक में जो भर लिया था, परन्तु ऐसा है नहीं! विपुल ने इथि की मनोदशा को भांप लिया था, वो समझ गया था कि इथि का क्या हाल है! वो गांधर्व है! उसके पास सम्यक ज्ञान एवं संज्ञान है! वो पंचतत्व से निर्मित नहीं है! वो दैविक तत्व से निर्मित है! इसी कारण वो भांप गया था इथि की मनोदशा! उसने अंक में भरा उसको, इसीलिए, कि इथि की मनोस्थिति स्व्यं इथि के नियंत्रण से बाहर थी! और ऊपर से वो खेल खेलता बाबा! वो अपना तो अहित करता ही, इथि को भी अनर्थ का भागी बना सकता था! अतः विपुल ने इथि को रक्षण प्रदान किया!
अब आगे...
इथि आलिंगन-मुद्रा से अलग हुई! सुचित ने वो पुष्पों की डलिया विपुल को दी, विपुल ने ली और कहा, "ये लो इथि, जैसा मैंने कहा था, विशेष रूप से आपके लिए ये पुष्प"
इथि ने पुष्पों को देखा!
बक्किम रंग के वे अनोखे पुष्प!
सुगंध ऐसी की आकाश में उड़ते पक्षी भी थम जाए!
अल्हड़ बसंत-बालिका भी अपना श्रृंगार करते हुए उन्हें केश में खोंसने के लिए लालायित हो उठे!
डलिया ली इथि ने!
"जाओ इथि, अब घर जाओ" विपुल ने कहा,
घर कैसे जाए?
घर पर तो सभी शत्रुवत हो चुके हैं?
अपने नेत्रों में लिख दिया ये इथि ने और पढ़ लिया यही विपुल ने!
"कोई कुछ नहीं कहेगा आपको" विपुल ने आश्वासन दिया!
"मुझे संग ले चलो" बोला इथि ने!
न जाने कैसे बोला!
बड़ी हिम्म्त की!
अब विपुल संग कैसे ले जाए!
कैसे समझाए!
कैसे समझाए उस प्रेमान्ध को!
"इथि, अभी उपयुक्त समय नहीं, मैं स्व्यं आपको कुछ बताऊंगा" कहा विपुल ने!
इथि चुप!
"इथि, अब घर जाओ" विपुल ने कहा,
भारी क़दमों से लौट पड़ी इथि अपने घर!
अब तक इथि उनको जाते देखा करती थी, आज स्थिति उलट थी! आज विपुल देख रहा था उसको जाते हुए!
इथि बार बार पीछे मुड़ के देखती और विपुल वहीँ खड़ा मुस्कुराता!
वो एक गांधर्व है! एक समर्थ गांधर्व! वो सब जानता है! भूत, वर्त्तमान और भविष्य! वो सब जानता है!
इसीलिए उसने कहा कि अभी उपयुक्त समय नहीं आया!
आएगा!
उपयुक्त समय भी आएगा मित्रगण!
इथि चलती गयी!
सीधा!
देवालय पहुंची!
और पुष्प अर्पित किये!
वहाँ से अपने घर पहुंची!
सीधे अपने कमरे में!
और बिस्तर पर धम्म से गिर गयी!
माँ ने देखा!
पिता ने देखा!