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वर्ष २०१० गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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रिक्त सी इथि चली वापिस!

घर पहुंची किसी तरह! माँ परेशान! पिता क्रोधित!

"कहाँ से आ रही है?" माँ ने पूछा,

"कहीं से नहीं"

प्रेम झूठ बहुत बुलवाता है!

झूठ बोला इथि ने!

"कहाँ गयी थी इथि?" पिता ने पूछा,

"तालाब तक" उसने कहा,

"सुबह ही गयी थी, तुझे तेरी माँ ने कुछ बताया नहीं था आज का?" पिता ने पूछा,

"बताया था" इथि ने कहा,

"फिर? कहाँ थी" पिता ने अब प्रेम से पूछा,

"पल्ली के साथ" उसने कहा,

"किसलिए?" पिता ने पूछा,

"वैद्य के पास जाना था, सो मैं गयी साथ में" उसने उत्तर दिया!

"आज ही जाना था?" माँ ने पूछा,

"हाँ" उसने कह दिया!

इस से पहले और प्रश्न आते वो अंदर चली गयी! बिस्तर में धंस गयी! माता-पिता का दृश्य और प्रश्नोत्तर आये-गए कर दिए!

उसने मुड़ के देखा!

विपुल ने!

क्यों!

कोई तो कारण होगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुस्कुरा गयी इथि!

मुस्कुराना पड़ा!

हाँ!

पड़ा!

ये भाव सह जाना इतना आसान नहीं!

सीना गरम हो जाता है! आह ठंडी हो जाती है!

यही तो हुआ इथि के साथ!

डूबी रही उन्ही क्षणों में!

उलझन!

इथि की उलझन!

 

अब तो फिर से प्रतीक्षा!

दो गुना बेसब्री!

कल की!

यही तो होता है!

कोरे कागज़ पर एक छोटी सी स्याही की बूँद भी अपना अस्तित्व ज़ाहिर कर दिया करती है! और यहाँ तो प्रेम की ना मिटने वाली स्याही थी!

कभी मुस्कुराती और कभी गम्भीर होती!

कभी आरम्भ में आती,

कभी मध्य, और,

कभी वर्त्तमान में!

सभी पल प्यारे थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सभी महत्वपूर्ण!

कोई कैसे छोड़ा जाए!

कभी इस करवट तो कभी उस करवट!

कभी खुद के शब्द गूंजे, तो,

कभी विपुल के शब्द!

और वे अलौकिक पौधे!

समझ ही ना पायी!

प्रेम में आसक्त इथि!

मित्रगण!

फिर हुई रात!

फिर भोर!

अलख जगी!

अलख जगी आँख खुलते ही इथि के सीने में!

भागी बाहर!

माँ उसके व्यवहार से परेशान!

पिता और भाई हैरान!

ये क्या हुआ अचानक इथि को?

तीन दिन में ही बदल गयी!

प्रेम की गंध बहुत तीव्र होती है मित्रगण!

छिपाए नहीं छिपती!

अब घबराएं इथि के परिवारजन!

कही कोई प्रेम-प्रसंग?


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसे ऐसे अनेक सवाल!

होगा तो इथि स्व्यं बता ही देगी!

चिंता कैसी!

इथि पहुंची पल्ली के पास और नित्य की भंति तालाब पर पहुंची! निवृत हुई स्नान से और फिर देवालय के लिए पुष्प चुने! और हुई अब वापिस!

मध्यान्ह का समय तय हो गया!

इथि आ जायेगी पल्ली के पास और फिर वे दोनों चलेंगी तालाब!

पल्ली तैयार!

घर आयी!

वहाँ से देवालय,

जो कुछ माँगा वो मैं और आप समझ सकते हैं!

भोली इथि!

घर आयी!

अनाज फटकारा!

और अब हुआ मध्यान्ह!

भागी तीर की तरह घर से पल्ली के पास!

पल्ली पहले से ही थी तैयार!

चल पड़ी इथि के संग!

इथि आगे आगे और पल्ली पीछे पीछे!

पहुंची वृक्ष के पास!

सुस्ताने लगीं!

हांफने लगी थीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रेम अगन!

जी की लगन!

उचक कर देखा!

वे आ रहे थे!

दोनों!

इथि ने साहस बटोरा आज!

संकोच त्यागने का प्रयास किया!

वे आते चले गए!

उन्होंने दूर से ही इथि को देख लिया!

पास आये!

दोनों मुस्कुराये!

"नमस्कार!" इथि ने कहा,

"नमस्कार" वे दोनों बोले!

"आज भी पुष्प एकत्रित करने आयी हैं?" विपुल ने पूछा!

"ह...हाँ!" इथि ने कहा,

झूठ!

फिर से झूठ!

"कर लिए?" उसने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

एक और झूठ!

"कहाँ हैं? हाथ तो रिक्त हैं?" उसने पूछा,

"वो..सखी के पास हैं" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा!" विपुल ने गर्दन हिला कर कहा!

अब दोनों चुप!

सुचित थोडा आगे निकल गया!

"आपका गाँव समीप ही है?" विपुल ने पूछा,

"हाँ, यहीं, समीप ही" वो बोली,

"आप नित्य यहाँ आती हैं?" उसने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"पुष्प एकत्रित करने?" उसने पूछा,

"हाँ" वो बोली,

झूठ पर झूठ!

"देवालय के लिए ना?" उसने पूछा,

"हाँ" बोली वो!

''अच्छा! कल आपके लिए विशेष पुष्प लाऊंगा मैं!" विपुल ने कहा,

चौंक पड़ी इथि!

विशेष पुष्प!

विशेष के लिए किसी!

सम्भवतः!

"धन्यवाद!" उसने कहा,

"कोई बात नहीं!" विपुल ने कहा,

"कुछ ऐसे!" विपुल ने अपनी मुट्ठी आगे करते हुए कहा,

चौंकी इथि!

"हाथ कीजिये?" विपुल ने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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इथि ने हाथ किये!

विपुल ने मुट्ठी खोल दी!

ये क्या!

दैविक-पुष्प!

मजीठ रंग के पुष्प!

गांधर्व-लोक के अलौकिक मजीठ के रंग के छोटे छोटे पुष्प!

"कैसे हैं?" विपुल ने पूछा?

अब क्या उत्तर दे?

ये पुष्प तो उसने देखे ही पहली बार थे!

सुगंध ऐसी कि उसके नेत्र बंद हो गए!

जब नेत्र खुले तो वहाँ नहीं था विपुल!

वो बढ़ चुका था आगे!

इथि पुष्पों को देखती रह गयी!

 

अवाक रह गयी!

विस्मित भी!

उसने मार्ग को देखा जहां विपुल गया था! दौड़ कर गयी वहाँ! वे जा रहे थे! और अब तो काफी दूर चले गये थे!

वो वहीँ आयी वापिस, उसी वृक्ष की नीचे!

जहां पल्ली बैठी थी!

उसने पुष्प पल्ली को दे दिए!

पल्ली ने ऐसे पुष्प पहले कभी न देखे थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अलौकिक थे वे पुष्प!

अब फिर वही प्रतीक्षा!

उनके लौटने की प्रतीक्षा!

और क्या करती!

अब तो नियम सा बन गया था प्रतीक्षा करना!

सुकून मिलता था ह्रदय को उसके!

और फिर प्रतीक्षा हुई समाप्त!

वे दोनों आ रहे थे!

इथि दौड़ के मार्ग पर आ गयी!

बीचोंबीच!

रुक गये वे दोनों!

"आप अभी तक गयीं नहीं देवालय?" विपुल ने पूछा,

"बस, शीघ्र ही" इथि ने कहा,

"उत्तम! मैं कल आपके लिए पुष्प लाऊंगा!" विपुल ने कहा,

शीतल मद!

इतना कहा विपुल ने और अपने राह चल दिए वे दोनों!

उनके गुजरते ही हुई प्रतीक्षा आरम्भ!

वे चलते चले गये!

वो देखती रही!

जब तक कि ओझल न हो गए!

पल्ली आयी वहाँ, दोनों सखियों ने एक दूसरे को देखा और अब लौट पड़ीं गांव की ओर! सबसे पहले देवालय जाएंगी और वहाँ से घर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पहुंची देवालय!

पुष्प अर्पित किये!

सबसे निराली छटा बिखरते पुष्प जैसे और दमक पड़े!

वे ही वे दिखायी पड़े वहाँ!

अब वहाँ से चलीं वापिस!

और अब अपने अपने घर!

घर पहुंची तो जैसे खुमारी चढ़ी थी! ये खुमारी दैविक-तत्व से साक्षात्कार करने की थी! इसमें शरीर से जैसे संपर्क टूट जाता है मस्तिष्क से! प्रत्येक अंग जैसे निढाल हो जाता है, सुन्नावस्था चढ़ जायी है कुछ देर के लिए!

वहीँ हुआ!

वही हुआ इथि के साथ!

वो धम्म से बिस्तर पर लेट गयी!

अपने हाथ देखे!

जिसमे पुष्प लिए थे!

मजीठ रंग अभी तक शेष था!

हाथ सूंघे तो वहीँ दैविक-सुगंध!

नेत्र बंद उसके!

और पटल पर विपुल!

मुस्कुरायी वो!

और करवट ले ली!

पटल पर विपुल को लिए!

माँ ने कितनी बार पुकारा, पता ही न चला!

दो तीन बार हाथ से धकेला भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन अब होश कहाँ!

माँ चिंतित!

हैरान!

परेशान!

ये क्या हुआ इथि को?

आखिर माँ ने माथे और सर पर हाथ फिराया!

आँखें खुलीं उसकी!

माँ को देखा!

और अलसायी हुई सी बैठ गयी!

"अनाज?" उसने पूछा,

"मैंने कर लिया, तेरा तो पता ही नहीं रहता, कहाँ रहती है?" माँ ने पूछा,

रहती है नहीं जी! रह रही है! देह ही तो यही हैं! आत्मा तो विपुल के संग गयी! उसी के संग विचरण कर रही है!

"क्या हुआ है तुझे?'' माँ ने पूछा,

"क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं?" इथि ने कहा,

झूठ!

कितने झूठ, इथि!

"तू कैसे बदल गयी इथि? सभी पूछ रहे हैं" माँ ने पूछा,

अब सबकी चिंता ही कहाँ! कौन सब!

अब केवल विपुल!

काश!

वो पूछे ये प्रश्न!


   
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श्रीशः उपदंडक
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काश!

माँ समझ गयी! अपने आपे में नहीं है इथि! कुछ न कुछ तो है ही, चलो बुला के लाते हैं किसी को! वो बतायेगा कि कौन सी बला इसके पीछे लगी है! माँ उठी, और इथि बिस्तर में धंसी!

माँ चिंतित थी बहुत!

कही जाकर ये बात उसके पिता से! पिता भी परेशान! कुछ न कुछ तो हुआ है इथि को! चपलता और चंचलता पता नहीं कहाँ छोड़ आयी है!

तालाब पर!

हाँ, उसी मार्ग, तालाब और उस वृक्ष के नीचे!

वहीँ तो छोड़ा उसने चपलता और चंचलता को!

इसी होली की बात है!

"ठीक है, मैं बुला के लाता हूँ किसी को, जाँच लेगा वो इथि को" आश्वस्त किया पिता ने इथि की माता को!

आश्वस्त हुई माँ!

और चले गये पिता जी, मन में शंकाएं लिए!

अब मरता क्या नहीं करता वाली बात थी!

माँ दौड़ के गयी अंदर इथि के पास, वो सो गयी थी! सोयी नहीं थी, विचरण कर रही थी! कहीं और!

संध्या हुई!

पिता जी ले आये एक ओझे को!

गाँव का ही ओझा था वो!

बैठ गए अहाते में दोनों!

पानी पीने के बाद बुलाया इथि को!

"बुलाइये लड़की को" उसने हाथ में एक माला लपेटते हुए कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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माँ अंदर गयी!

झकझोर के उठाया इथि को!

जैसे दौड़ते घोड़े की लगाम खींच दी गयी हों!

उठ गयी इथि!

"क्या है माँ?" इथि ने पूछा,

"आ, बाहर आ, पिता जी बुला रहे हैं" माँ ने कहा,

सोचा फिर से कि रिश्ता आदि वाली बात होगी, मना कर देगी वो! चाहे जो भी हो! उतरी बिस्तर से और चली बाहर माँ के संग!

वो बाहर आयी औ उसको देखकर ओझे ने मन्त्र चलाया!

और!

ओझा सन्न!

सन्न!

जैसे कोई मृग-छौना फंस जाए अकेला सिंह के झुण्ड में!

आँखें फट गयीं ओझे के!

'बस, बस, भेज दो अंदर इसको!" ओझे ने पाँव ऊपर चारपाई पर करते हुए कहा!

भेज दिया गया!

माँ और पिताजी अब चिंतित!

भयाक्रांत वो ओझा भी!

उठ बैठा वो चारपाई से!

"उठो, मेरे संग बाहर आओ" उसने इथि के पिता जी से कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे उठे और ओझे संग बाहर आ गए!

"क्या बात है?" पिता जी ने पूछा,

"सुनो, ध्यान से सुनो, आपकी बेटी किसी भयानक शक्ति की लपेट में है, मैं उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता, मैं कुछ नहीं कर सकता इसमें, हाँ, मेरे एक जानकार हैं, बनारस में, वे सुलझा सकते हैं ये मामला, लेकिन उसके लिए मुझे बनारस जाना होगा!" ओझा बोला,

पिता जी हेप!

पाँव की नीचे से भूमि खिसक गयी उनके!

दिन में अन्धकार हो गया जैसे!

"कोई प्राणघातक संकट तो नहीं?" पिता जी ने पूछा,

"नहीं बता सकता मैं अभी, वे ही बताएँगे" ओझा बोला,

"ठीक है, मैं आपको पर्याप्त धन दे देता हूँ, आप ले आइये उन्हें यहाँ, आपका बहुत एहसान होगा हम पर!" पिता जी ने मारे भय के कहा,

"ठीक है, मैं कल तड़के ही निकलूंगा वहाँ के लिए" ओझे ने कहा,

तब पिता जी अंदर गये और धन लाकर दे दिया ओझे को, ओझे ने अपने जेब में खोंस लिया!

"एक बात और!" ओझे ने कहा,

"क्या?" उन्होंने डर के मारे पूछा,

"जब तक मैं न आ जाऊं, तब तक इस लड़की को बाहर नहीं निकलने देना, समझे?" ओझे ने चेताया!

"जी" पिता जी ने हाथ जोड़कर कहा,

और ओझ पाँव पटकता चला गया वहाँ से!

कल वो बनारस जाएगा!

इथि का इलाज करवाने!

घर में जैसे सन्नाटा पसर गया! साफ़ साफ़ ताक़ीद कर दी गयी कि इथि कहीं बाहर नहीं जायेगी! कहीं भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जान कर इथि पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा!

कैसे जियेगी वो?

क्या करेगी?

ये कैसी परीक्षा?

उसने क्या किया ऐसा?

इथि सच में ही परेशान!

किन्तु, माँ बाप के विरुद्ध कैसे जाए?

विडंबना!

घोर विडंबना!

 

वहाँ अंदर कक्ष में माँ और इथि! इथि को बता दिया गया था कि वो अभी बाहर नहीं जा सकती घर से, अब फंसी इथि! एक तो अगन पुरजोर! दूसरा उसमे खुद भस्म होती इथि! क्या करे?

और कल तो पुष्प भी लायेंगे वे, उसके लिए?

अब!

बहुत रोई!

गिड़गिड़ायी!

कोई असर नहीं!

बल्कि पिता जी ने और डांट दिया!

सख्ती से समझा दिया गया!

अब चुप इथि!

क्या हो अब?

ऐसे तो दम घट जाएगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मर जायेगी इथि!

देह ही तो यहाँ हैं, परन्तु

जीवात्मा तो वहाँ है!

विपुल के पास!

कौन सा पाप कर दिया इथि ने?

क्यों रोका गया है उसको?

क्या वजह है?

कुछ समझ नहीं आया उसको!

संध्या हुई!

और फिर रात्रि!

पूरी रात जल बिन मछली सी कटी उसकी!

भोर हुई!

अब तो नेत्रों से अश्रु भी विदा ले चुके थे!

गले से आवाज़ भी बाहर नहीं आ रही थी!

पिए जा रही था अपना असीम दुःख इथि!

और फिर आया मध्यान्ह!

अब तो उससे रहा न गया!

क्षण बीते जा रहे थे!

वे आने वाले होंगे वहाँ!

पुष्प देने के लिए!

वो वहाँ नहीं होगी तो........?

क्या सोचेंगे?


   
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