वो आ गए!
आ गया विपुल!
लेकिन तेरी तो कोई खबर नहीं उसे!
तालाब के ओर जाते देख अनियंत्रित ह्रदय से निहारती रही वो वृक्ष के पीछे से!
मंत्र-मुग्ध!
इथि!
वे निकल गए वहाँ से! जल-क्रीड़ा करने!
नज़रों के सामने से!
देख ना सके वे इथि को!
उसने छिपा लिया था अपने आपको!
लेकिन, इथि ने देख लिया था!
वहीँ उसी क्षण भारी हो गयी इथि!
जैसे ज़मीन में गड़ गयी!
जैसे बदन की सारी जान निचुड़ गयी हो मात्र एक बार देखने से ही!
वे चले गए,
तालाब की ओर!
रह गयी अकेली इथि!
वहाँ वृक्ष के नीचे!
शान्ति!
घोर शान्ति!
मेरे लिए और आपके लिए!
इथि के लिए नहीं!
द्वन्द!
द्वन्द मचा था उसके ह्रदय में!
क्या करे?
क्या ना करे?
वृक्ष भी जैसे मूक हो गया था!
और, वृक्ष पर बैठे पक्षी जैसे साथ हो गए हों इथि के!
सभी चहचाते हुए द्वन्द में शामिल थे!
द्वन्द!
आत्मद्वन्द!
सबसे विकट स्थिति!
कैसे निकले?
कौन निकाले?
क्या समाधान?
कैसे घंटा बीत गया पता ही ना चला!
कनखियों से तालाब वाली पगडण्डी पर निगाह डाली!
कोई आ रहा था,
बतियाते हुए!
ओह!
ये तो वही हैं!
अनजान परदेसी!
क्या करे?
सम्मुख जाये?
नहीं नहीं!
लज्जा!
लज्जा ने रोका!
फिर?
शीघ्र बताओ!
क्या करे?
वहीँ डटी रहे?
हाँ!
हाँ!
उस समय यही उचित है!
वे चले गए पार करते हुए उस वृक्ष को!
छोड़ गए वही सुगंध!
नेत्र अपने आप बोझिल हो गए इथि के!
नेत्र बंद!
वो दौड़ी! उस मार्ग पर आयी!
जहां से वे गुजरे थे!
वे जा रहे थे!
अरे परदसियो!
ओ परदेसी!
पीछे मुड़ के देख!
देख तो सही!
देख एक ह्रदय कैसे विचलित है!
कैसे पीड़ित है!
ना देखा!
ना देखा उन्होंने!
वे चलते चलते, छोटे और छोटे होते चले गये और हुए ओझल!
बेचारी इथि!
झलक तो मिली परन्तु प्रदाह भी मिला!
प्रदाह!
एक और मुसीबत!
अब?
अब क्या हो?
लौट पड़ी वहाँ से इथि!
अपने आप में नहीं थी!
मेरा मतलब, इथि इथि ना थी!
खोयी खोयी सी चल पड़ी इथि वापिस!
हाय रे प्रेम!
तेरे कितने रूप!
किसी पर तरस खाता है और किसी को तरसाता है!
वाह रे प्रेम!
खेत-खलिहान! वृक्ष और पगडण्डी! वो परिदृश्य!
सब अनजान हो गए इथि के लिए!
बेजान बदन उठाये लौट रही थी!
घर के लिए!
घर पहुंची!
लेट गयी!
माँ ने देखा!
आयी समीप!
"कहाँ गयी थी?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं!
बताया ना!
इथि अब इथि ना थी!
"कहाँ गयी थी?" पूछा माँ ने!
कोई उत्तर नहीं!
"इथि?'' अब माँ चिंतित हुई!
क्या हुआ बेटी को?
कौन जाल में उलझ गयी?
नटखट और उद्दंड इथि ऐसी शांत कैसे हो गयी?
क्या हो गया?
माँ चिंतित!
करीब आ बैठी!
सर पर हाथ फेरा!
माथे पर हाथ फेरा!
शीतल!
एक दम शीतल इथि!
शीतल!
नहीं!
अब कौन समझे उसके प्रदाह को!
कौन?
कोई नहीं!
और समझने वाला था अनजान!
अब क्या हो?
"क्या हुआ इथि?" माँ ने फिर पूछा,
"कुछ नहीं माँ" शब्द बटोरे इथि ने!
माँ चुप रहे बस इसलिए!
वो तो उलझन में थी!
उलझन!
अब और उलझ गयी थी!
"क्या बात है बेटी? बता तो सही?" माँ ने पूछा,
"कुछ नहीं माँ" बोली इथि!
"कल से बहुत चुपचाप है, क्या हुआ?" मैंने ने पूछा,
"नहीं तो माँ" टाली बात कह के ये!
माँ ने कुछ पल देखा और फिर बाहर चली गयी!
लेटी रही इथि!
कौन है वो परदेसी?
कहाँ का रहने वाला है?
यहाँ क्यों आया है?
कौन है वो?
बस यही ख़याल घर कर गया दिल में!
कि कौन है वो!
अब पता कैसे किया जाये?
कौन करे पता!
अब किस से कहे व्यथा अपनी?
कहीं हंसी तो नहीं उड़ जायेगी?
फिर किस से कहे?
हाँ!
याद आया!
उसकी सखी!
उसकी सखी पल्ली!
पल्ली से कर सकती है वो ये बात!
उसको सुना सकती है अपनी व्यथा!
पल्ली सुन भी लेगी!
और फिर कोई हल निकल ही आयेगा!
बिस्तर से उठी वो!
और निकल भागी बाहर!
माँ देखती रह गयी!
क्या हो गया है मेरी बेटी को?
कहाँ खोयी खोयी लगी है?
बताती भी तो नहीं!
इथि भागी अपनी सखी के पास!
पल्ली!
उसके बचपन की सखी!
उसकी हमराज़!
पल्ली के घर पहुंची!
पता किया तो पता चला पल्ली छत पर!
अनाज फटकार रही है!
ऊपर भाग चली इथि!
मिल गयी पल्ली!
दोनों सखियों में आँखों में ही बात हुई और फिर आखिर,
कह ही दी पल्ली से अपने जी की बात!
पल्ली हैरान!
परदेसी?
वही परदेसी?
वो तो कोई राजकुमार लगते हैं?
उनसे कैसे बात हो?
पीछे पड़ गयी इथि!
हार माननी पड़ी पल्ली को!
और तय हुआ कि उनके बारे में पूछताछ करेगी पल्ली!
कल!
कल मध्यान्ह!
समय तय हो गया!
अब खुश इथि!
दौड़ पड़ी घर की तरफ!
धड़धड़ाते हुए घर में घुसी और सीधा बिस्तर पर!
माँ फिर हैरान परेशान!
अब जी में फूल खिलें!
चलो, कल पता चल जाएगा, कौन हैं वो!
कहाँ से आये हैं?
कहाँ ठहरे हैं?
व्यवसायी हैं या फिर कोई राजकुमार!
कल,
पता चल ही जाएगा!
अब इत्मीनान उसे!
लगा जो प्रकृति आज मध्यान्ह तक विरुद्ध थी अब संग है!
अब काटे समय न कटे!
मध्यान्ह कैसे हो?
अभी तो संध्या,
रात्रि, भोर बाकी हैं!
कैसे कटे समय?
बड़ी मुश्किल!
चलो, अनाज फटकार देती हूँ!
यही सोचा!
चल पड़ी अनाज फटकारने!
इथि!
अपनी योजनाओं में लगी थी!
हाय री उलझन!
संध्या बितायी!
रात्रि आयी!
रात्रि बितायी!
भोर हुई!
वर्ष का सा समय लग गया!
कई सक्रान्तियाँ बीत गयीं जैसे!
भचक्र में चाल थम गयी जैसे पिंडों की!
पल्ली सुबह सुबह ही आ गयी इथि के पास!
इथि तैयार!
गयी तालाब तक!
आज यहीं तो होना था साक्षात्कार उन परदेसियों से!
एक ख़ास परदेसी से!
विपुल!
विपुल नाम है उसका!
स्नानादि से फारिग हुई इथि और पल्ली संग योजना बनाते हुए आ गयी घर वापिस! अब मध्यान्ह में जाना था!
ह्रदय में अजीब से स्पंदन थे!
सीने में भारीपन था!
श्वास ठंडी थी!
नथुने गरम थे!
कैसा भाव है ये इथि!
और फिर हुआ मध्यान्ह समय!
बदन भारी हुआ!
मस्तिष्क सुसुप्त!
परन्तु केंद्रित!
पल्ली संग चल पड़ी इथि!
मार्ग में बस वही परदेसी और वही परदेसी!
वे उस वृक्ष के पास पहुंची!
जामुन का ये वृक्ष साक्षी था उसके प्रेम-अंकुरण का!
पल्ली को मार्ग दिखाया इथि ने!
पल्ली ने उचक कर देखा!
और दोनों की निगाहें उस मार्ग पर आ टिकीं!
कुछ क्षण बीते!
कुछ और क्षण!
बड़े भारी थे वे क्षण!
क्षण क्षण न होकर घटियां बन गए थे!
और घटियां बी इतनी बड़ी कि दिनमान में भी परिवर्तन हो जाए!
कोई अचम्भा नहीं!
लगन में यही होता है!
यही तो है लगन!
उलझन!
अब उलझने वाला समझे!
और फिर!
दूर मार्ग पर आते दिखायी दिए तो अनजान परदेसी!
अनजान??
नहीं नहीं!
अब अनजान कहाँ!
वो तो परसों से बसाये बैठी थी उस परदेसी को ह्रदय में!
अनजान कैसा!
वो तो सम्भवतः जानती थी उसको युगों युगों से!
ऐसे ही थोड़े धड़कता है ये ह्रदय किसीके लिए!
कुछ न कुछ सम्बन्ध होता है!
है न इथि?
सच है न ये?
फ़ौरन दोनों वृक्ष की आड़ में हुए!
पल्ली को एक बार फिर से स्मरण कराया!
क्या कहना है और क्या नहीं!
बड़ी हिम्म्त दिखायी पल्ली ने अपनी सखी के लिए!
अब प्रश्न ये, कि पहले रोका जाए या बाद में?
बाद में!
हाँ!
बाद में!
कहीं कुछ...........??
नहीं!
हो गया तय!
बाद में!
वे आये!
और नज़रों के सामने से चले गए तालाब की ओर!
उनको देख पल्ली हैरान!
पहले रोज नहीं थी न पल्ली वहाँ!
ये कौन हैं?
मुंह से निकला?
कौन है?
देवता?
राजकुमार?
दिव्य-पुरुष?
तो फिर कौन?
ऐसे मानस?
ये क्या देखा अभी!
इथि ने हाथ मारकर तन्द्रा तोड़ी उसकी!
समय बीता!
चार घटियां बीतीं!
वे आये, उनके वार्तालाप का स्वर सुनायी दिया!
"जा पल्ली" बोली इथि!
उसने इथि की आँखों में देखा!
सहज भोलापन!
"जा?" इथि ने कहा,
पल्ली चल पड़ी!
उनका मार्ग रोकने के लिए!
धक्!
धक् इथि वहाँ!
वृक्ष के नीचे!
पल्ली आ गयी मार्ग के बीच!
वे बस कुछ ही दूर!
आ रहे थे!
धमक धमक!
कांपी पल्ली अब!
उसे इथि को देखा!
इथि बदहवास!
हाथ से जाने का इशारा किया!
संयत हुई पल्ली अब!
और...............
वे दोनों आ रहे थे, बतियाते हुए!
और मार्ग के बेच में खड़ी थी पल्ली!
वे आये और करीब!
और करीब!
और करीब!
पास आ गए!
पल्ली को बीच में देख ठिठक कर रुक गए!
ना कुछ वे बोले और ना पल्ली!
कनखियों से देखे इथि!
सीने से बाहर निकलता ह्रदय!
किसी भी पल!
कुछ पल!
ऐसे ही!
और फिर अलग अलग होकर उसको बीच में से छोड़कर आजू-बाजू से हो कर चल दिए वापिस!
पल्ली ने इथि को देखा!
इथि ने दो नज़रें कीं!
पहले उन दोनों को देखा और और पल्ली को!
आँखों ही आँखों में कुछ समझाया!
"सुनिये?" पल्ली ने समझकर कहा,
वे चलते गये!
मानव से क्या सरोकार!
कौन रोकेगा उन्हें!
वे नहीं रुके!