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वर्ष २०१० गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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ऐसा ही तो हुआ!

बहुत कुछ हुआ!

"कुछ नहीं माँ" इथि ने कहा,

अब माँ चली बाहर!

अनाज फटकार लिया, एक थाल में रख दिया,

और फिर से लेट गयी इथि!

आज तो बदन भी साथ नहीं दे रहा!

क्या हो गया है?

पहले तो कभी नहीं हुआ ऐसा!

माँ अंदर आयी और अनाज ले गयी! उसको लेटा देखा तो कुछ न कह के बाहर चली गयी!

सोचते सोचते समय बीत गया!

आज तो न भूख थी और न प्यास!

प्रीत की अलख जिसे एक बार झुलसा जाए उसके लिए क्या भूख-प्यास! यही हुआ इथि के साथ!

प्रीत का नन्हा सा कोंपल झाँकने लगा यौवन की धरा से!

एक परदेसी से प्रीत!

जो कभी आये या आये भी नहीं!

कैसी अजीब प्रीत तेरी ओ इथि!

 

उफ़! ये क्या हुआ!

घट घट भर कर जो निशा बीत जाया करती थी आज बूँद बूँद बनकर क्यों बीत रही है? सभी सो गए, लेकिन निंद्रा कहाँ है?

कहाँ छोड़ गयी?


   
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श्रीशः उपदंडक
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रात न कटे अब!

करवटें और करवटें!

बदन में एक नशा!

मस्तिष्क में एक पृथक ही नशा!

दोनों का संपर्क भी पृथक!

ये क्या हुआ है?

कौन बतायेगा?

ये तो हांसी का पात्र बन जाएगा प्रश्न!

किस से कहूं?

किसको बताऊँ?

आज देखा चंद्रदेव का सम्पूर्ण रूप! आज से पहले तो पलक भर नज़र जाया करती थी!

चन्द्र के समीप का तार समूह भी देख लिया!

ये क्या?

चन्द्र भी हंस रहे हैं खिड़की के बाहर से!

किस पर?

मेरी निंदिया पर?

मेरी खीझ पर?

नहीं!

नहीं नहीं!

मेरी उलझन पर!

हाँ!

उलझन पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैं क्या करूँ हे चंद्रदेव!

मुझे खुद नहीं पता!

ज्ञात ही नहीं कि

किस भंवर में डगरा रही हूँ मैं!

ये क्या है?

मुझे नहीं पता!

सच में नहीं पता!

चंद्रदेव नहीं माने!

जैसे एक ठहाका और मार दिया हाथ पर हाथ मार के!

नहीं मानोगे?

ठीक है!

मुंह फेर लिया!

फौरी राहत मिली!

आज नींद सच में बहुत दूर खड़ी थी!

आज गंतव्य भूल गयी थी!

इथि को तो कम से कम भुला ही दिया था आज!

इथि!

क्या करे?

कोई जवाब भी तो हो?

जवाब तो चलो बाद की बात है,

प्रश्न ही क्या है?

ये कैसा झंझावात?


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर वही!

ये कैसी उलझन!

अब तो उलझ गयी थी!

निकलना भी तो नहीं चाह रही थी!

यही तो थी उलझन!

अपनी उलझन के बसेरे में ही तो बस रही थी वो उस क्षण!

प्रेम में पड़ गयी इथि!

सब साक्षी इसके!

निंद्रा! चन्द्र और निशा!

सब साक्षी!

प्रत्यक्ष साक्षी!

आँखें बंद कर लीं इथि ने!

प्रेमानुभूति!

बहुत कच्ची वस्तु है!

सीने में धंस जाए तो पहाड़ बन जाया करती है!

प्रीत का पहाड़ पाल लिया इथि ने सीने में!

वाह इथि!

 

मध्य-रात्रि हुई!

नींद न आयी इथि को!

इतने बसंत उसने गुजारे थे, लेकिन इस बसनत में ताप था, अग्नि दहकने लगी थी! बसंत बसंत न बनके ग्रीष्म-काल बन गया था! पसीने छलक उठे उसके माथे पर, उसने पोंछ के साफ़ किये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पसीने तो आत्म-मंथन की निशानी है इस प्रसंग में!

बसंत में पसीने!

रात्रि का उत्तरार्ध आया और तब जाके कहीं दूर खड़ी निंद्रा ने छू लिया इथि को! सो गयी इथि!

सो गयी!

लेकिन देह!

मात्र देह!

मन नहीं!

मन तो अभी भी वहीँ था, वहीँ तालाब के पास!

विपुल की नज़र में!

उसी उलझन में उलझा हुआ!

अब क्या हो?

चलो अब सुबह होने दो!

रात की खुमारी उतरे तो कोई बात बने!

इथि तो डूब चुकी थी, या यूँ कहा जाए कि गहराई की तरफ बढ़ने लगी थी!

और जी!

हुई अब सुबह!

सभी उठ गए!

न उठ सकी इथि!

ना! ना!

उसकी देह!

देह ना उठ सकी!

मन तो जाग था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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नेत्रबिम्ब तो चलायमान थे नेत्रों की पलकों के भीतर!

सो,

ना उठ सकी देह इथि की!

हाथ से हिलाकर उठाया माँ ने उसे!

वो उठ बैठी!

आँखों में नशा और बदन में खुमारी लिए!

लगा अभी तो सोयी थी!

कब आँख लगी पता ना चला!

और फिर से!

फिर से वहीँ उलझन!

सारा याद आ गया उसको!

वो नज़र!

वो रूप!

वो!

जिसके ख़याल में वो लिपटी थी!

लिपटती जा रही थी!

अंगड़ाई ली!

भोर तो कब की हो चुकी थी! अब तो दिन-चर्या का समय था!

बाहर सखियाँ भी आ गयी थीं बुलाने!

तो चल पड़ी!

मन में कल के ख़याल लिए!

और धक्!


   
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श्रीशः उपदंडक
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नेत्रबिम्ब तो चलायमान थे नेत्रों की पलकों के भीतर!

सो,

ना उठ सकी देह इथि की!

हाथ से हिलाकर उठाया माँ ने उसे!

वो उठ बैठी!

आँखों में नशा और बदन में खुमारी लिए!

लगा अभी तो सोयी थी!

कब आँख लगी पता ना चला!

और फिर से!

फिर से वहीँ उलझन!

सारा याद आ गया उसको!

वो नज़र!

वो रूप!

वो!

जिसके ख़याल में वो लिपटी थी!

लिपटती जा रही थी!

अंगड़ाई ली!

भोर तो कब की हो चुकी थी! अब तो दिन-चर्या का समय था!

बाहर सखियाँ भी आ गयी थीं बुलाने!

तो चल पड़ी!

मन में कल के ख़याल लिए!

और धक्!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो जगह देखी जहां नज़रें उलझ गयीं थीं उस परदेसी से!

वो वहीँ गयी!

सुगंध!

अब तक बाकी थी!

जैसे धरा ने पैबंद कर लिया हो उस सुगंध को!

उसके नेत्र बंद हो गए!

वो फिर से उलझ गयी कल में!

वो नेत्र!

वो दमक!

वो रूप!

वो लावण्य!

अद्भुत!

बस अद्भुत!

सभी सखियाँ देखती रहीं उसे!

कोई कुछ न बोली, लेकिन समझ सब गयीं!

बावरी हुई रे इथि!

हाँ!

बावरी!

इथि हुई बावरी!

जब सुधबुध खो जाए, और मन के अनुसार ही कदम चले तो इसको बावरापन कहते हैं!

यही तो हुआ!

बावरी इथि!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो सुगंध नथुनों से होती हुई ह्रदय तक पहुँच गयी!

समा गयी!

खौलते हुए प्रेम-पात्र में ईंधन और पड़ गया!

भड़क गयी अग्नि!

वो वहीँ बैठ गयी!

स्पर्श से भूमि को खंगाला!

फिर अपना हाथ देखा,

सूंघा!

सुगंध!

सुगंध वाबस्ता हो गयी!

सखियाँ हैरान-परेशान!

ये क्या हुआ इसे?

एक सखी ने आवाज़ दी, "ओ इथि, देर हो रही है, चल अब"

तन्द्रा से जागी अब इथि!

अपने वस्त्र से हाथ साफ़ किया!

और चल पड़ी सखियों के संग!

स्नानादि से फारिग हुई!

और फिर वापिस!

मध्यान्ह समय आया था वो परदेसी!

कैसी अलख जला गया!

शीतल हो तो जलाये और भड़के तो सहलाये!

ये कैसी अलख!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चुचाप चली वापिस अब!

सखियों संग!

सब समझ गयीं उसका हाल!

लेकिन वो चुप!

चुप!

खोयी हुई उलझन में!

घर पहुंची!

दोगुना भार हुआ!

लेट गयी बिस्तर पर!

व्यवहार बदल गया था इथि का!

माँ ने सबको बता दिया!

कोई होश नहीं उसको अब!

बस लेटे रहे, अनमने मन से काम करे!

माँ चिंतित!

फिर से उसी उलझन में क़ैद इथि!

कब होगा मध्यान्ह?

आज गति कैसे थम गयी सूर्यदेव की?

और दिन तो द्रुत गति से चलते थे?

आज विराम कैसा?

किसने रोका?

क्या हुआ?

खिड़की से बाहर झाँक देखा सूर्यदेव को!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो तो सही समय पर आन पहुंचे थे खगोलीय स्थान पर अपने! एक क्षण की भी देरी नहीं थी!

इथि!

अभी समय है!

और फिर वो परदेसी!

आये न आये!

लेट गयी बिस्तर पर!

मुंह छिपाए!

चेहरा खुली किताब होता है!

देखने वाला पढ़ लेता है सारे भाव!

इसीलिए छिपाया चेहरा!

लेटी रही!

 

किसी तरह समय की डोर खींचे खींचते मध्यान्ह का समय हुआ! आज मध्यान्ह बहुत विलम्ब से आया था, लगा कि समस्त प्रकृति उसके विरुद्ध हो गयी है! हवा उसको छेड़ रही है, ठिठोली कर रही है, सूर्य और हवा दे रहे हैं उसकी अगन को!

अब कौन समझे!

अतृप्त, मनोज, सागर!

कौन समझे! बताओ सन्देश! बताओ कौन समझे!

समझने वाला कोई नहीं!

और तो और!

समझाने वाला कोई नहीं!

उठी बिस्तर से, वस्त्र संयत किये, दर्पण में निहारा!

दर्पण ने भी जैसे हंस के ठिठोली की!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बताया ना!

समस्त प्रकृति!

प्रकृति ही कुछ समय में विरुद्ध हो गयी है!

दर्पण में केश सँवारे!

चेहरे का रंग बदला!

हाँ रंग!

प्रेम का रंग!

क्या खूब चढ़ा था!

कोई प्रेमी ही इस रंग को देख सकता है!

चटख रंग!

यौवन के संग मिल और चटख हो गया था!

बाहर पक्षियों के गान ने उसको बताया!

मध्यान्ह हुआ!

इथि!

मध्यान्ह हुआ!

दौड़ पड़ी!

उस तालाब के लिए!

माँ ने देखा!

बड़े भाई ने देखा!

इथि!

ये जा और वो जा!

गाँव से बाहर की पगडण्डी पर आयी, चल पड़ी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आज!

रास्ता अधिक लम्बा हो गया था!

कल से पहले तक तो कुछ ही दूर था!

कभी सांस नहीं फूली थी!

आज क्यों?

पता नहीं!

सच में ही पता नहीं!

लेकिन सांस अवश्य ही फूली थी!

सांस सम्भालते, बेसुध बावरी चल पड़ी थी!

वहीँ, उसी तालाब की ओर!

जहां कल उलझ गयी थी एक परदेसी के साथ उलझन में!

ना ये पता कौन देख रहा है, ना ये पता कौन आ रहा है, ना ये पता कौन गुजर गया है समीप से!

कुछ याद नहीं!

उसको तो बस एक झलक देखनी थी!

एक झलक!

जिसके लिए कल से तड़प सी उठी थी!

तड़प!

हाँ अब ये शब्द सार्थक हुआ!

तड़प ही तो उठी थी वो!

पहुँच गयी इथि!

पहुँच गयी उसी वृक्ष के नीचे!

जहां कल देखा था उस परदेसी को!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक आस लिए!

आस!

कि वो आएगा!

अवश्य आएगा!

कैसे इथि?

ऐसी आस क्यों?

ना आये तो?

तब क्या होगा?

पता नहीं!

कुछ पता नहीं!

एक आस है!

भले खोखली ही सही!

वृक्ष की नीचे खड़ी इथि निहारती रही उसी मार्ग को जहां कल वो आया था!

ओ परदेसी!

चला आ!

हाँ, अब तो हम भी कहते हैं, चला आ!

देख किसी ह्रदय का स्पंदन सुन!

प्रेम का चटख रंग देख!

देख किसी की वाणी की लरजता!

देख किसी की बेसब्री!

देख तो सही किसी की प्रतीक्षा!

बार बार आँखें खोल, गड़ाए देखे इथि!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर!

दूर!

बहुत दूर,

कुछ दिखायी दिया!

आ रहा था कोई!

दो, हाँ दो थे वे!

आ रहे थे इसी ओर!

धक्! धक्!

सिमट गयी इथि!

लगा चोरी पकड़ी गयी!

रंगे हाथ धरी गयी!

जैसे सभी ने देखा उसको!

वृक्ष, धरा, आकाश और स्व्यं के मन ने!

सभी ने देखा उसे!

और वो!

आ रहा था!

पीछे हटी इथि!

और पीछे!

वृक्ष के तने के पीछे हो गयी!

नज़र टिकाये!

और कुछ क्षणों में आ गए वहाँ विपुल और सुचित बतियाते हुए!

इथि!


   
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