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वर्ष २०१० गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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“पिता जी, क्या मैं आज अंतिम बार तालाब पर जाऊं?”

पिता जी स्तब्ध!

कहीं फिर से विक्षप्ति न आ जाए?

कहीं फिर से इथि में परिवर्तन न आ जाए?

कहीं रंग में भंग न पड़ जाए?

लेकिन वे एक पिता था!

हाँ कह दी!

मध्यान्ह हुआ!

खूब सजी-संवरी इथि!

अप्सरा सी लगे!

उसके रूप को देख सब हैरान!

परन्तु खुश!

पल्ली संग वो अब चली तालाब पर!

आज भागी नहीं सो हांफी नहीं!

आज सामान्य ही थी!

धीमे क़दमों से चलती हुई पहुंची तालाब पर!

वृक्ष को देखा!

उस राह को देखा!

उस तालाब को देखा!

मुस्कुरायी!

दिव्य-पुष्प एकत्रित किये!

कुछ देर वहीँ रुकी!

वापिस हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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देवालय पहुंची!

पुष्प अर्पित किये!

और फिर,

और फिर पल्ली संग वापिस आ गयी अपने घर!

मंडप सजा था!

उसने सबकुछ देखा!

अपनी माँ को देखा!

अपने पिता को देखा!

अपने भाई को देखा!

और अपनी सखियों को देखा!

पल्ली को देखा!

मुस्कुरायी!

और अंदर कमरे में चली गयी!

पल्ली पीछे पीछे चली!

परिवर्तित हो गयी थी इथि!

सुधबुध जैसे वापिस आ गयी!

होश आ गया हो जैसे पूरा!

खूब हंसी सखियों संग!

खूब मुस्कुराई!

उस दिन सभी खुश!

घर खुशियों से भर उठा!

चहक उठा!

पल्ली उस रात वहीँ रुकी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बहुत काम बाकी था!

पल्ली की ज़िम्मेवारी थी घर की!

कल विदा होनी थी इथि घर से!

उस रात!

इथि कमरे की खिड़की से अंदर झांकते चाँद को देखती रही!

पल्ली संग बात करती रही!

विवाह के सम्बन्ध में कुछ नहीं पूछा!

पल्ली भी खुश थी!

उसकी आँखों से आंसू रुक नहीं रहे थे!

और फिर दोनों बतियाती सो गयीं!

रात गुजर गयी!

चन्द्र उस रात नहीं हँसे!

तारों ने ठिठोली नहीं की!

अब शांत था!

सब शांत!

इथि भी थी,

शांत!

ओ औघड़!

ये कैसी शान्ति!

कैसी शान्ति!

मित्रगण!

इथि के इस व्यवहार से मैं जैसे अंदर तक सिहर गया, कुछ डर की सी भावना मुझे कुरेदने लगी! मुझे याद है, जब मैंने ये गाथा सुनी थी तो मैं सचमुच वहीँ पहुँच गया था, इथि के घर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे मैंने सबकुछ देखा अपनी आँखों से!

वही लिखा मैंने यहाँ!

खैर,

रात बीती!

मुर्गों ने बांग दी!

सुबह आ पहुंची थी!

 

आज सुबह से ही घर में रौनक छायी थी! जिसको देखो बस काम ही काम! एक काम ख़तम तो दूसरा काम! सभी मन से लगे थे! परदेस से बारात आनी थी और गांव के सम्मान की बात थी! बस, सभी काम में लगे थे! भट्टियां तैयार हो रही थी, नया ताज़ा ईंधन लाया गया था! इथि के माता पिता तो फूले नहीं समा रहे थे! भाई अपने मित्रों संग तैयारी में लगा था!

और उधर कमरे में इथि जागी हुई थी!

उसकी सखी पल्ली भी आन पहुंची थी!

स्नानादि से सभी फारिग हुए और जुट गए अपने अपने काम पर!

माँ आयीं कमरे में और इथि से कहा, “इथि तूने हमारी लाज रख ली बेटी!”

और गले से लगा लिया इथि को!

इथि भी मुस्कुरायी!

फिर पिता जी आये, कुछ सामान लेने! उन्होंने भी उसके सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया! इथि ने न केवल उनका अपितु गाँव का भी नाम ऊंचा कर दिया था! भला आयी है ऐसी बारात कभी गाँव में? नहीं! ये गाँव के इतिहास में पहली बार है! और इसका श्रेय इथि को जाता है! निःसंदेह!

“तू खुश है न बेटी?’ पिता ने नाम आँखों से पूछा,

इथि मुस्कुरायी!

न जाने क्या सोचे बैठे थी!

मैं समझ सकता हूँ, आपको भी भान होगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ न कुछ तो होगा ही उसके ह्रदय में!

उस समय!

और सखियाँ आ गयी!

हंसी ठिठोली आरम्भ हुई!

कक्ष से हंसने और सौहार्द के स्वर फूट रहे थे!

सबकुछ ठीक था!

और मित्रगण!

फिर हुआ मध्यान्ह!

इस मध्यान्ह ने ही परिवर्तिता किया था इथि का जीवन!

इस मध्यान्ह ने ही इथि में प्रेम की अलख जलायी थी!

इस मध्यान्ह ने ही रची थे भविष्य की सारी कहानी!

खिसकी से बाहर झाँका!

आज सूर्य मद्धम थे!

ताप भूल बैठे थे अपना!

आज सारथि को झपकी लग गयी थी उनके शायद!

आज बयार भी नही थी!

आज गति भूल गयी थी अपनी!

धूप आज छिटकी हुई थी!

कहीं कहीं वृक्षों के शिकार पर पड़ रही थी!

सबकुछ देखा इथि ने!

कुछ और समय बीता,

और अब बारात आने का समय हुआ!

नगाड़ों की आवाज़ आने लगी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अंदर कक्ष में!

क्या खूब सजी-धजी थी आज इथि!

रूप खिल के उभरा था!

साक्षात अप्सरा सी लग रही थी इथि!

देव भी सूक्ष्म शरीर में आकर निहार गये हों तो कहा नहीं जा सकता!

मानव सौंदर्य की अनुपम कृति लग रही थी इथि!

बारात आ गयी!

भव्य स्वागत हुआ बारात का!

भोज आरम्भ हुआ!

उदय के परिवार की कुछ महिला सदस्य देखने गयीं इथि को, देखते ही दांतों तले ऊँगली दबा लीं!

इतनी सुंदर इथि!

मान गए लोहा उदय का!

कुछ समय पश्चात….

बारात ने भोजन किया,

बाराती अपने अपने स्थान पर चले गये विश्राम के,

घराती अपने अपने घर!

ब्रह्म-मुहूर्त आ गया!

फेरों का समय आया!

उदय सेहरा बांधे बैठा था वहाँ!

बेसब्र!

बेचैन!

और उसके कुछ विशेष परिजन और मित्र!

वो बलभद्र भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तब पल्ली और कुछ विशेष परिजन लाये इथि को वहाँ!

बिठा दिया!

बैठ गयी!

अब कर्म आरम्भ हुआ!

और जब पंडित जी ने हाथ माँगा इथि से……………..

तो उसने हाथ नहीं दिया!

नहीं दिया!

ये देख पंडित जी हैरान!

सभी परेशान होना आरम्भ हुए!

इथि पत्थर की मूर्ति समान बैठी थी!

अपनी दोनों मुट्ठियां बंद किये!

अब उसके माता पिता जी घबराये!

खून जम सा गया उनका!

भाई की आँखें फटी की फटी रह गयीं!

वेदिका जल रही थी!

शांत!

वो भी देख रही थी उस समय वहाँ का दृश्य!

जब इथि ने हाथ नहीं दिया तो उदय ने ज़बरदस्ती हाथ उठाना चाहा!

ज़बरदस्ती!

नहीं मानी इथि!

उसने और ज़बरदस्ती की!

माँ आयी समझाने,

कुछ सखियाँ भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन नहीं!

इथि जस की तस!

जब और ज़बरदस्ती हुई तो घूंघट हट गया इथि का!

आंसुओं ने कोहराम मचा दिया था चेहरे पर!

कजरा आभूषणों तक बह चला था!

लेकिन नहीं माने वे!

जज़बरदस्ती हाथ खींचा तो खींचातनी सी हो गयी इथि और उनके बीच!

इथि पीछे गिर पड़ी और उसने तीन बार आवाज़ लगायी!

“विपुल! विपुल! विपुल!”

और झम्म!

झम से प्रकट हुआ विपुल वहाँ!

क्या विवश हो कर?

नहीं, सौ प्रतिशत नहीं!

विवश हो कर नहीं!

अपनी प्रेयसी के लिए!

सभी दंग रह गए!

जो जहां था वहीँ गड़ा सा रह गया!

पंडित जी पत्थर से बन गए!

उदय मारे भय के काँप गया!

माँ बेहोश हो गयी!

पिताजी सन्न!

सामने एक गांधर्व कुमार खड़ा था!

सजा-धजा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शक्तिशाली!

अद्वित्य!

सौन्दर्यवान!

इथि ने उसको देखा और भाग छूटी!

चिपक गयी विपुल से!

विपुल ने उसको भुजाओं में जकड़ लिया!

हार गया गान्धर्व कुमार इथि के आगे! आना पड़ा!

इथि चिपकी रही, एक पल, दो पल!

और फिर उसके हाथ शिथिल हुए!

बंद मुट्ठियां खुल गयीं!

उसमे से गिरे, वहीँ मजीठ रंग के छोटे दिव्य-पुष्प!

विपुल ने जैसे ही अलग किया इथि को, वो शान्त थी!

अपने नेत्र खोले!

अभी भी किसी की प्रतीक्षा में!

देह त्याग चुकी थी इथि!

गांधर्व कुमार ने प्रलाप में हुंकार भरी!

सभी काँप गए!

बस धरा फटने की कमी थी!

और अगले ही पल!

वो लोप हुआ!

इथि के शरीर के साथ!

रह गए भूमि पर गिरे वे पुष्प!

जो अभी तक ताज़ा थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण!

इथि इस पृथ्वी पर बस इसी क्षण तक के लिए थी!

कहाँ गयी, कुछ नहीं पता!

विपुल कहाँ गया, कुछ नहीं पता!

ये थी इथि और विपुल की प्रेम-गाथा!

इस गाथा ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और मेरे ह्रदय में रचियता की सबसे गूढ़ रचना स्त्री के लिए सम्मान कई गुना बढ़ा दिया!

मेरा मस्तक झुक गया! हाथ अपने आप जुड़ गए!

मैंने मन ही मन उस इथि को प्रणाम किया!

गाँव नहीं गया,

हिम्मत ही नहीं हुई!

ऐसी पावन भूमि पर मुझ जैसे पापी के पाँव क्यों पड़ें? बस यही सोच नहीं गया!

अब आप निर्णय लें मित्रगण!

ये कैसा प्रेम था इथि का!

और ये कि,

विपुल क्यों आया था वहाँ उस क्षण?

इस प्रश्न का उत्तर न मुझे कभी मिला, और सम्भवतः न मिल सकेगा!

एक थी इथि!

साधुवाद!


   
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