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वर्ष २०१० गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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सभी ने देखा!

सुसज्जित!

सभी ने आवाज़ दी!

लेकिन इथि!

ये जा और वो जा!

सीधा पहुंची तालाब पर!

अकेली!

और सांस लेने लगी!

बैठ गयी वहाँ!

अभी मध्यान्ह होने में समय बाकी था!

लेकिन उसने राह तकी!

राह को देखा!

और मुख से बोली “विपुल”

और नेत्र बंद किये!

उसको तभी थाम किसीने, उसके हाथों से पकड़ा!

ये विपुल था!

प्रेम की कच्ची डोर से बंधा चला आया था वो गान्धर्व!

अकेला!

आज सूचित नहीं था उसके साथ!

गले से लग गयी इथि!

संसार भर के शांति प्राप्त हुई!

सरंक्षण प्राप्त हुआ!

सरंक्षण!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाँ!

स्त्री यही देखा करती है पुरुष में!

सरंक्षण!

यही असीम प्राप्त हुआ इथि को!

वक्ष-स्थल से लग कर नेत्र बंद कर लिए इथि ने!

पावन प्रेम!

और अपनी बलशाली भुजाओं में एक गांधर्व ने एक मिट्टी की गुड़िया समान एक मानव-स्त्री को!

प्रेम में ऐसा ही होता है!

विशुद्ध प्रेम!

 

विपुल ने उसको अपने अंक में जकड़ा था!

कितनी देर!

पता नहीं!

“आँखें खोलों इथि!” बोला विपुल,

इथि मद में!

न खोलीं आँखें!

“इथि!” सर पर हाथ फिराते हुए बोला विपुल!

अब खोलीं आँखें इथि ने!

और ये क्या!

परिदृश्य बदल गया वहाँ का!

फलदार झूमते वृक्ष!

शानदार बहते झरने!

बहते निर्मल श्वेत जल की श्वेत धारा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हरियाली!

प्रकृति अपने चरम पर!

सुगन्धित वनस्पतियां!

छोटे बड़े दिव्य-पुष्प!

शीतल मंद बयार!

क्या ये स्वर्ग है?

यही सोचा इथि ने!

वो हैं कहाँ?

चारों और देखा!

वो कहीं शिखर पर थी!

विपुल के साथ!

फिर वही प्रश्न!

क्या ये स्वर्ग है?

मनोस्थिति भांपी विपुल ने उसकी!

और कहना आरम्भ किया अब!

“इथि?” पुकारा विपुल ने!

चौंक पड़ी!

“इथि, जानना चाहती हो मैं कौन हूँ? मैं कोई राजकुमार या राजा नहीं, न ही कोई व्यवसायी, जानना चाहती हो?”

क्या बोले?

जानना चाहेगी?

फिर भी कहा हाँ!

“मैं एक गान्धर्व कुमार विपुल हूँ, ये गांधर्व लोक है!” विपुल ने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई प्रतिक्रिया नहीं दी इथि ने!

प्रेम न जाने काया! प्रेम न जाने माया!

“मुझे प्रेम करती हो?” विपुल ने पूछा,

“हाँ” उसने अब स्वीकारोक्ति की!

“मैं गान्धर्व हूँ, जानते हुए, अब भी?” विपुल ने पूछा,

“हाँ” उसने कहा,

“एक गान्धर्व और मानव का क्या मिलन होता है इथि?” विपुल ने अब समझाया!

“मुझे नहीं मालूम” उसने कहा,

सच में!

कैसे मालूम होता!

“ये सम्भव नहीं है इथि! आपको अपने संसार में लौटना होगा!” बोला विपुल!

धक्का दिया!

जैसे किसी ने धक्का दिया!

गिरा दिया!

बस प्राण निकलने ही वाले थे!

बस थोड़ी ही क़सर!

“वापिस?” बोली वो!

“हाँ इथि” विपुल ने कहा,

“लौट जाओ संसार में अपने” विपुल ने कहा,

“लौट?” उसके मुंह से निकला!

कैसे?

अब कैसे?


   
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श्रीशः उपदंडक
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कहाँ लौट जाओ?

कैसे?

अंतर्द्वंद में फंसी अब!

 

“लौट जाओ इथि” विपुल ने कहा,

इथि ने नेत्र बंद किये!

अश्रु की कुछ बूँदें नेत्र-पटल से न चाहते हुए भी छलक गयीं!

और सब समाप्त!

इथि ने आँखें खोलीं!

वो उसी तालाब के पास वाले वृक्ष की नीचे थी!

टूटी हुई!

विक्षिप्त सी!

आसपास का दृश्य परिवर्तित हो गया!

सब समाप्त!

अब वहाँ कोई नहीं!

कोई अर्थात विपुल!

विपुल नहीं वहाँ!

बस वे शब्द उसे याद रहे, गूंजते रहे कानों में!

‘लौट जाओ इथि, अपने संसार में’

लौट आयी!

उस क्षण तो लौट आयी वो!

कहाँ जाना है, कुछ पता नहीं!

बस कुछ जाने पहचाने से वृक्ष, एक मार्ग और दूर गाँव से झांकता एक मंदिर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मंदिर के पास एक घर, बस!

वो चलती गयी उस मार्ग पर!

वृक्ष पार हुए!

मार्ग छोटा हुआ!

मंदिर का आकार बड़ा हुआ!

वो चलती गयी, गाँव में प्रवेश कर गयी!

कुछ जान-पहचान वाले लोगों ने गौर से देखा उसको!

वो धीमे क़दमों से चलती चलती अपने घर में प्रवेश कर गयी!

सभी ने देखा उसे,

सभी ने,

कुछ लोग भी थे वहाँ अड़ोस-पड़ोस के, जो अब तक जान चुके थे कुछ अंश उस ओझा के मुंह से!

वे भी देखते रहे!

इथि अपने कमरे में चली गयी!

निढाल सी गिर पड़ी बिस्तर पर!

माँ आयी,

माँ ने उसको देखा,

वो भावहीन थी!

जैसे कोई मूरत,

कोई शोकाकुल मूरत रूप!

माँ घबरा गयी,

“इथि?” माँ ने पुकारा,

कोई उत्तर नहीं!

“इथि?” अब भी कोई उत्तर नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब माँ के आंसू निकले!

बैठी बिस्तर पर,

रोते रोते पुकारा, “इथि?”

इथि शांत,

बस आँखें खोलीं!

“क्या हुआ तुझे मेरो बच्ची?” माँ ने रो रो कर अब आसमान उठाया सर पर!

सभी भागे अंदर!

इथि लेटी हुई थी,

कोई अनहोनी तो नहीं हुई?

पिता जी गहराए, भाई का कलेजा मुंह को आया!

पिता जी चिल्लाये, “इथि? क्या हुआ बेटी? उठ, चल उठ”

नहीं उठी इथि!

लेटी रही!

माँ और बाप आंसू बहाते रहे!

कैसा प्रेम!

किस श्रेणी में रखूं इसको मैं पाठकगण?

सुझाइए?

 

पिता ने बहुत पुकारा! कोई असर नहीं!

वे हट गए वहाँ से!

करवट बदल आँखें बंद कर लीं उसने!

रात हुई!

आँखों में बस वही स्वरुप!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो तो जैसे किसी भटकती आत्मा के समान अटक गयी थी काल-खंड में!

और काल-खंड भी क्या चुना!

विपुल के संग का काल-खंड!

जो स्वयं काल से मुक्त है!

कैसी विडंबना!

करवट बदली उसने!

आँखें बंद कीं,

नेत्रों से जल निकल आया!

निःस्वार्थ प्रेम जल!

तभी लगा कोई उसके केशों में हाथ सहला रहा है!

वो चौंक कर उठी, पीछे देखा!

ये विपुल था!

चाँद से भी अधिक रौशन!

अपने वास्तविक रूप में एक गान्धर्व कुमार!

विपुल आ पहुंचा था!

नज़रें गढ़ाए देखती रही इथि!

“इथि!” उसने कहा,

कुछ न बोली,

बस नैनों की भाषा से उत्तर दिया!

“इतनी चिंतित क्यों हो?” विपुल ने पूछा!

काहे उपहास करते हो हे गान्धर्व कुमार!

चिंतित?

अब चिंता के अलावा है ही क्या शेष इथि के पास?


   
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श्रीशः उपदंडक
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“बताओ इथि?” बोला विपुल!

क्या बताये वो!

आप ही बताओ हे गान्धर्व कुमार!

क्या बताये वो!

वो न जीते में और न मरे में!

कुछ न बोली इथि!

“इथि, मैंने कहा था न, लौट जाओ अपने संसार में, ये संसार मेरा नहीं, ये आपका संसार है, मैं काल से मुक्त हूँ, मैं चिरावस्था प्राप्त हूँ! समझ जाओ इथि!” बोला विपुल!

क्या खूब समझाया था!

समझने वाला होता तो समझ लेता!

और वर भी मांग लेता!

अब चाहे कैसा भी वर!

लेकिन इथि!

उसे इतनी समझ कहाँ!

मानव होते हुए भी मानव स्वभाव से रिक्त हो चुकी थी वो तो विपुल के प्रेम सानिध्य में!

वाह रे इथि!

और कहते ही हाथ लगाया विपुल ने इथि को!

जगमगा गयी इथि!

साक्षात दैविक रूप!

कोई गांधर्व!

यक्षिणी सी!

शरीर सम्पुष्ट हो गया!

केश सुनहरी-श्याम हो गए पूर्ण रूप से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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स्त्रियों में श्रेष्ठ हो गयी!

ऐसी कि कोई देवता देख ले तो मानव रूप में जनम ले!

यौवन कूट कूट के भर दिया!

समझ सकते हो मित्रगण किसलिए?

समझ सकते हो?

ताकि कोई महा-श्रेष्ठ मानव ही उसको अंगीकार करे!

कोई नृप अथवा नृप-समान मानव!

और फिर लोप!

विपुल लोप!

और शून्य में ताकती रह गयी इथि!

मध्य-रात्रि का समय था!

चन्द्र इसके साक्षी थे!

चला गया विपुल!

 

शेष रात्रि चिंता में कटी!

भोर की बेला आयी!

उठी इथि!

तब तक पल्ली आ चुकी थी उसके घर!

जब पल्ली अंदर गयी तो!

पहचान ही न सकी इथि को!

इतनी सुंदर स्त्री कभी न देखी थी उसने!

कभी कल्पना में भी नहीं!

वो समझ गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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समझ गयी!

सब समझ गयी!

ये ‘उसी’ का चमत्कार है!

‘उसी’ का!

पल्ली ने बातें कीं इथि से!

इथि ने हा और हूँ में ही जवाब दिया!

बालसखी थी वो सो खूब लड़ी!

हक़ भी बनता था!

बचपन में कई शीत और कई ग्रीष्म और अन्य ऋतुएं काटी थीं उन्होंने संग संग!

पल्ली बाहर लायी इथि को!

और जब दूसरे परिवारजनों ने इथि को देखा!

तो सभी दंग!

इथि कहीं कोई शापित मानवदेहधारी अप्सरा तो नहीं?

कहीं यही बात तो नहीं!

कहीं इसीलिए कोई महाशक्ति आसक्त हुई इथि पर?

ऐसे ऐसे ख़याल सभी के!

अलग अलग!

वे चली गयीं बाहर!

जो भी इथि को देखे वही दंग!

हड़कम्प सा मचा दिया इथि के सौंदर्य ने!

पहुंची स्नान के लिए, निवृत हुई और फिर पल्ली संग इथि चली पल्ली के घर!

वहाँ जिसने देखा वो दंग!

अब तो बात फैलने लगी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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रातों रात कैसे परिवर्तन हो गया इथि में?

सभी अवाक!

मध्यान्ह हुआ!

और अब अगन भड़की!

पल्ली को संग ले चल पड़ी तालाब पर!

मध्यान्ह के पल बीतने लगे!

एक एक करके!

लेकिन कोई नहीं आया!

कोई भी नहीं!

कजरा फ़ैल गया धीरे धीरे गालों पर!

नेत्र गीले हो गए!

बदन कांपने लगा,

कदम लड़खड़ाने लगे!

दम सधे न सधे!

किस पल निकले, पता नहीं!

श्वास बेकाबू हो गयीं!

और धड़ाम!

गिर पड़ी इथि!

मित्रगण!

सुना है ऐसे ही इस अवस्था में चार दिन बीत गए! इथि अपने घर में अपने बिस्तर पर पड़ी रही!

सभी चिंतित थे!

माँ बाप का कलेजा फटने को था!

लेकिन किसी का कलेजा न पसीजा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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न पसीजा!

कैसे पसीजता!

वो एक गांधर्व था!

एक गान्धर्व कुमार!

वो अपने संसार में लौट गया था!

और इथि अपने संसार में!

ये दो संसार कैसे जुड़ सकते थे?

असम्भव!

 

इथि की हालत ऐसी जैसे कोई मृतप्रायः शरीर!

कोई क्या करे?

कैसा दुःसाध्य रोग लगा था इथि को!

कोई औषधि नहीं, कोई जड़ी नहीं!

वैद्यराज भी क्या करें?

रोग समझ ही न आये!

उस रात,

मध्य-रात्रि में,

सोयी थी इथि, सोयी क्या पलकें ढांपी थीं,

नींद तो कब की छोड़ जा चुकी थी!

प्रकट हुआ गांधर्व कुमार विपुल!

चमकता हुआ और दमकता हुआ!

इथि ने सर उठकर देखा!

जान में जान आ गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शरीर में संचार होने लगा प्राण वायु का!

हाथ बढ़ाया विपुल ने!

हाथ थामा इथि ने,

और उठाया इथि को उसने!

इथि फ़ौरन ही उसके अंक में खिंच आयी!

कोई और होता तो उसके ताप से भस्म हो जाता!

परन्तु दशा समझता था विपुल!

जानता था सबकुछ!

“इथि?” बोला विपुल,

इथि ने सर हिलाया, अनके में भरे हुए!

“मुझे विवश न करो” विपुल ने स्पष्ट शब्दों में कहा,

विवश?

विवश!

किसने किस को विवश किया हे कुमार विपुल!

ये तो सभी जानते हैं!

मनुष्य हैं तो मनुष्य का ही पक्ष सर्वोपरि है हमारे लिए तो!

कुछ न बोली इथि!

“मैं आज पुनः आया यहाँ, आपसे मिलने, विवश हो कर!” विपुल ने कहा,

और इथि कहाँ जाए?

कुछ न बोली!

“हठ का त्याग करो” बोला विपुल,

अब भी कुछ न बोली!

कुछ पल ऐसे ही बीते!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“इथि, आप मानव हो,मेरा विश्वास करो, यदि आप गान्धर्व कन्या होतीं तो मैं अवश्य ही प्रेम स्वीकार करता आपका!” कह दिया विपुल ने!

अब इसमें इथि का क्या दोष?

भोला भाला सा ह्रदय धड़क बैठा किसी के लिए!

अब ये ‘किसी’ कोई ‘और’ हो तो क्या कहा जाए!

पता कहाँ था इथि को!

“इथि, मैं अब पुनः कभी नहीं आउंगा, आपको बताने आया हूँ, आप अपने मानव जीवन का निर्वाह करो, भविष्य में कभी आपको और इस घर में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं होगी” कहा विपुल ने!

तभी झटके हट गयी इथि!

थोडा दूर हुई!

नेत्र से नेत्र मिलाये!

विपुल ने भी देखा!

अपलक!

“मुझे भी संग ले चलो” कहा इथि ने!

शांत विपुल!

“ले चलोगे?” पूछा इथि ने,

अश्रु बह उठे पूछते हुए!

सीने में वायु जम गयी!

“ये सम्भव नहीं इथि, ये आप भी जानती हो!” कहा विपुल ने!

“आपके लिए क्या असम्भव?” पूछा इथि ने!

“परन्तु ये सम्भव नहीं” बोला विपुल,

“तो मुझे अपने हाथों मृत्यु प्रदान करो” बोली इथि आज खुल के!


   
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