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वर्ष २०१० गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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सम्भवतः प्रथम बार ही मिले थे वे दोनों किसी मानव-स्वभाव से!

“धन्यवाद” पल्ली ने कहा,

“जी, आपका भी” विपुल ने कहा,

नमस्कार की और चल दिए अपनी डगर!

बैठ गयीं दोनों!

उठ ना सकीं!

गान्धर्व-तेज से पीड़ित हो गयीं!

और इथि?

दोहरी मार लगी उसमे!

एक तेज!

और दूसरी निस्तेज!

कैसी विडंबना!

वे चले गए!

और हो गए ओझल!

 

भाव-शून्य वे दोनों!

कितनी देर बैठी रहीं, पता न चला!

जब मोरों ने पियु पियु गान गाया तो समझ आया कि सूर्य जाने वाले हैं अस्तांचल को!

हड़बड़ा के उठीं वे!

रास्ते भर बात नहीं की उन दोनों ने आपस में!

दोनों अपने अपने ख्यालों में खोयी हुईं!

क्या कहे कोई!

चलती रहीं घर की ओर!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और गाँव पहुँच, अपनी अपनी डगर चल पड़ीं!

पहुंची अपने अपने घर!

अब बात इथि की!

इथि पहुंची अपने घर और हुई बिस्तर पर ढेर!

विपुल!

uska नाम विपुल है!

कितना सुन्दर नाम!

सार्थक होता नाम!

सच में ही वो विपुल है!

व्यवसाई हैं!

परदेसी भी हैं!

फिर एक दम से करवट बदली!

सर के नीचे कोहनी लायी!

परदेसी!

न जाने कब लौट जाएँ!

कभी आयें या न आयें!

फिर कैसे होगी?

इथि!

फिर कैसे होगी!

अब और उलझन!

विकट उलझन!

ये उलझन शिकन वाली थी!

शिकन पड़ गयीं माथे पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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क्या करे?

कह दे?

स्पष्ट कर दे?

बता दे?

कहा दे कि विपुल मैं प्रेम पीड़ित हूँ!

निकालो मुझे इस अगन से!’इस प्रदाह से!

इस बंध से!

मैं घुटती जा रही हूँ!

बह रही हूँ क़तरा क़तरा!

क्या करूँ?

प्रेमाभिव्यक्ति कर दूँ?

नहीं!

नहीं!

लज्जा ने समझाया उसे!

तू है क्या इथि?

उनका रूप देखा?

रंग देखा?

सौंदर्य देखा?

कौन मुग्ध नहीं होगा उन पर!

न जाने कितनी इथियां मुग्ध होंगी!

और तू!

तू ठहरी किसान के पुत्री!

वे ठहरे व्यवसायी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उच्च घराने के व्यवसायी!

तेरी क्या बिसात!

तू है क्या?

तेरा प्रेम क्या है इथि?

मिथ्या-भ्रम!

और कुछ नहीं!

और तभी!

नेत्र से प्रेम के आंसू गिर आये!

न जाने कैसे!

उसे तो पता भी न चला!

कैसे!

इथि ने अपनी तरजनी ऊँगली पर लिया एक आंसू!

आंसू कण!

ये क्या?

इसमें विपुल?

कैसे??

ये कैसे?

चौंकी वो!

प्रेम भड़क गया था!

मित्रगण!

प्रेम भड़क गया था!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रेम भड़क जाये तो हाल खराब ही होता है! अर्थात उचाट देता है दीन-दुनिया से! मैं मैं नहीं रहता और वो और वो हो जाया करता है! जी उचट जाता है! यही हुआ इथि के संग! अब ऐसी अवस्था आ पड़ी कि जी उचटने लगा कर किसी से! अपने आप से भी! और यही स्थिति बहुत विकट होती है! इथि यहाँ और वहाँ इन दो पाटों के बीच थी, पिस रही थी! समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए?

वो लेटी हुई थी! तभी माँ आयी उसकी!

“इथि?” मैंने ने पुकारा!

कोई जवाब नहीं बन पड़ा इथि से!

“इथि?” माँ ने फिर पुकारा!

अनसुना सा कर दिया इथि ने!

माँ को आश्चर्य हुआ!

“इथि?” अबकी तेज पुकारा!

इथि बोली कुछ नहीं बस पलट गयी, और आँख से आँख मिली माँ से,

“इथि, कल कोई आने वाला है, तैयार रहना, बहुत दूर से आ रहे हैं, तेरे भाई के जानकार हैं”

कोई आनेवाला है!

कोई वर!

कोई ब्याह के लिए आने वाला है!

बड़ी कोफ़्त हुई इथि को!

आज से पहले कभी नहीं हुई थी!

इथि ने सुना और फिर से चेहरा बिस्तरा में धंसा लिया!

माँ का काम था बताना सो बता दिया!

माँ ने सोचा खुश होगी इथि, लेकिन ऐसा न हुआ! सफ़ेद कोरे कागज़ में लकीरें सी पड़ गयीं स्याह!

सोच में डूबी इथि!

संध्या बीती!


   
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श्रीशः उपदंडक
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रात्रि आयी!

विकट गुजरी!

भोर हुई!

आँखों में ही सबकुछ हो गया!

प्रहर बदल गए!

कोई आने वाला है!

सुबह!

कुछ सोचा और सुबह सुबह ही निकल पड़ी इथि!

बाहर तालाब के लिए!

क्यों जा रही थी!

उसे मालूम तो हमे भी मालूम!

उसे मिलना नहीं था किसी से!

कोई आये या जाए!

वो चल पड़ी तालाब की तरफ!

माँ ने सोच अभी आ ही जायेगी! लेकिन कुछ और ही सोचा था इथि ने तो! वो वहाँ पहुंची और वृक्ष के नीचे बैठ गयी! जानती थी, कोई नहीं आने वाला, लेकिन चोर नज़र फिर से जा टिकी उसी रास्ते पर!

लेट गयी इथि! उस वृक्ष के नीचे!

आँख लग गयी, उस बसंत की बयार में!

मध्यान्ह पूर्व की बात होगी, एक सखी ने जगाया, उसको बताया, लेकिन नहीं मानी इथि! ज़िद पकड़ ली कि नहीं जायेगी घर!

और नहीं गयी!

सखी भी नहीं गयी! वो भी वहीँ बैठ गयी! सखी वही! पल्ली!

उचाट था मन इथि का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब कैसे हो?

कैसे बात बने?

कैसे ज़ाहिर करे?

बड़ी मुसीबत!

खैर,

सूर्यदेव ने बताया कि मध्यान्ह होने को है! आने वाले हैं वो परदेसी!

ह्रदय धक्!

अबकी नहीं छिपी पेड़ के पीछे इथि और उसकी सखी! आज वहीँ बैठ रहीं! और नज़रें बिछा दीं उनके लिए!

वे, जो आने वाले थे बस कुछ ही देर में, वहाँ!

 

और फिर हुआ मध्यान्ह!

वे दोनों खड़ी हुईं और आ गयीं आते हुए मार्ग पर! दूर, कोई दूर से आ रहा था, ये वही दोनों थे, दूर से आते हुए! ह्रदय धक् धक् करने लगा इथि का! वे वहाँ से हटीं और वृक्ष के नीचे बैठ गयीं! उचक उचक के देखतीं वे उन दोनों को! वे करीब आते चले गए! और करीब! और करीब! वे भी चलीं मार्ग की तरफ! शर्तिया उनका मार्ग रोकने!

और फिर!

उन दोनों की निगाह पड़ी दोनों पर!

वे रुक गए!

“नमस्कार!” पल्ली ने कहा,

“नमस्कार!” दोनों ने हाथ जोड़कर कहा!

हँसते हुए!

कुम्हलाती हुई इथि को देखा विपुल ने! खुद को समेटे हुए थी खुद ही में! विपुल ने दोनों को देखा!

अब नमस्कार तो कर ली, अब बात कैसे शुरू हो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बड़ी अजीब सी मुसीबत!

कहीं बुरा न मान जाएँ!

“क्या आप यहीं रहती हैं, आस पास?” सुचित ने पल्ली से पूछा,

“जी, वहाँ, वहाँ है हमारा गाँव, हम वहीँ रहती हैं” पल्ली ने कहा, दूर गाँव की ओर इशारा करते हुए!

उन दोनों ने गाँव की तरफ देखा!

दोनों के चेहरों पर मुस्कुराहट!

इधर पल्ली के चेहरे पर लेकिन इथि गम्भीर!

“आप कहाँ ठहरे हैं?” पल्ली ने पूछा,

बड़ा विस्मयकारी प्रश्न था!

परन्तु उत्तर दिया सुचित ने!

“हम यहाँ से दूर एक सराय में ठहरे हैं” सुचित ने कहा,

“यहाँ नित्य आते हैं?” पल्ली ने कहा,

“हाँ, स्नान करने” सुचित ने उत्तर दिया,

अब तक सर झुकाये इथि भी आ चुकी थी वहाँ!

साथ ही खड़ी हो गयी!

“आप कितने दिन और ठहरेंगे?” पल्ली ने सोचा समझा प्रश्न पूछा,

“कोई एक माह और” सुचित ने कहा,

एक माह?

बस?

फिर?

फिर क्या होगा?

ये चले जायेंगे?


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर?

प्रश्न-चक्र घूमा इथि के मस्तिष्क में!

अब दोनों सखिया चुप!

चुप वे भी!

“आप किसलिए आती हैं यहाँ?” विपुल ने पूछा,

पल्ली को ऐसे प्रश्न की आशा ही नहीं थी!

शब्द खो गये उसके!

“जी पुष्प एकत्रित करने” अब बोली इथि!

विपुल ने देखा और!

नज़र भर!

“पुष्प! देवालय के लिए?” विपुल ने इथि से पूछा!

इथि से पूछा!

एहसान किया!

सर्द हवा मार गयी इथि को!

“जी..जी” इथि बोली,

“लेकिन यहाँ तो कोई पुष्प नहीं!” अपने आसपास देखते हुए विपुल ने कहा,

और सचमुच!

वहाँ कोई पुष्प नहीं थे!

इथि ने भी देखा, पल्ली ने भी देखा! कहीं दिखायी पड़ जाएँ! लेकिन कहीं नहीं!

“आज तो कोई पुष्प एकत्रित नहीं किया आपने?” विपुल ने इथि से पूछा,

इथि चुप!

फिर बोली, “हाँ”

वे गान्धर्व थे! जिसको देना चाहते हैं बिन मांगे दे देते हैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“आइये” विपुल ने कहा,

वे संकोच में खड़ी रहीं!

“आइये? संकोच न कीजिये, वहाँ पुष्प ही पुष्प हैं!” विपुल ने कहा,

वे चल पड़ीं उसके पीछे!

और मित्रगण!

जहां कभी जंगली झाड़ियाँ थीं, वहाँ पुष्पों से लदे पौधे खड़े थे!

अचम्भा!

आश्चर्य!

अकल्पनीय!

ऐसा कैसे हुआ?

अभी सोच ही रही थीं कि विपुल ने कहा, “लीजिए, जो चाहे ले लीजिये, देवालय के लिए!”

इतना कह विपुल पीछे मुड़ गया!

अपने मित्र की ओर!

और वे!

अवाक!

सन्न!

हेप!

कौन हैं ये?

देव?

मायावी?

कौन?

यहाँ पुष्पों के पौधे कैसे आये रातों ही रात?

इन्हे कैसे पता?


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये तो सीधे आते हैं, चले जाते हैं, परदेसी भी हैं, इन्हे कैसे पता?

और फिर?

यहाँ पुष्प कैसे?

कहाँ से आये?

ये क्या माया है?

ऐसे ऐसे कई प्रश्न!

प्रश्न-माला!

 

परन्तु एक बात है ना मित्रगण! प्रेम प्रश्न कहाँ मानता है! वो तो उत्तर लादता है! जैसे लदी है उत्तर से इथि! वे चले गए थे! अपने स्नान को! और वे वहीँ बैठ गयीं, उन्ही पुष्प के पौधों के पास! दोनों ही मंत्रमुग्ध! पुष्पों की सुगंध से सराबोर! पुष्प भी दिव्य! तो उनकी गंध भी दिव्य!

मन में प्रश्न!

प्रश्नमाला!

किन्तु!

उत्तर भी संग ही संग उपज रहे थे मस्तिष्क में!

अब प्रतीक्षा थी उनके वापिस आने की!

सो प्रतीक्षा की!

क्षण बहुत लम्बे हो चले थे!

क्षण जैसे स्थिर हो गए हों!

और फिर वे दोनों खड़ीं हुईं!

बीच मार्ग में आयी!

वे आ रहे थे!

धमक धमक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इथि ने देखा!

सखी ने देखा!

वे आये और ठहर गए!

विस्मय!

“आपको पुष्प नहीं मिले?” विपुल ने इथि से पूछा,

“मि…मिल गए” संकुचाते बोली इथि!

“फिर? किसी की प्रतीक्षा है आपको?” विपुल ने पूछा,

“न..नहीं तो” इथि ने कहा,

“तब आपने मार्ग क्यों रोका है हमारा!” प्रश्न भाव में नहीं पूछा विपुल ने!

अब क्या जवाब दे!

इस से पहला ही जवाब गलत दिया था!

प्रतीक्षा तो थी!

प्रतीक्षा के कारण ही तो यहाँ थी इथि!

कह दूँ?

कैसे??

नहीं!

नहीं!

उचित नहीं ये!

वे मार्ग से हट गयीं!

वे दोनों गुजर गए आगे!

और विपुल ने पीछे मुड़ कर देखा!

इथि को!

मर गयी इथि!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इतना बोझ!

इतना बड़ा एहसान!

मर गयी इथि!

मुड़के वो मुस्कुराया भी था!

धम्म!

बैठ गयी इथि जस की तस!

अब खोए सच में होश!

हो गया रिक्त संज्ञान-कोष!

सखी!

कैसे बताऊँ क्या हुआ मुझे!

परन्तु सखी समझदार!

बाल-सखी थी ना!

इसीलिए!

पल्ली ने उठाया उसको! जैसे तैसे उठी!

रिक्त सी इथि चली वापिस!

घर पहुंची किसी तरह! माँ परेशान! पिता क्रोधित!

“कहाँ से आ रही है?” माँ ने पूछा,

“कहीं से नहीं”

प्रेम झूठ बहुत बुलवाता है!

झूठ बोला इथि ने!

“कहाँ गयी थी इथि?” पिता ने पूछा,

“तालाब तक” उसने कहा,

“सुबह ही गयी थी, तुझे तेरी माँ ने कुछ बताया नहीं था आज का?” पिता ने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“बताया था” इथि ने कहा,

“फिर? कहाँ थी” पिता ने अब प्रेम से पूछा,

“पल्ली के साथ” उसने कहा,

“किसलिए?” पिता ने पूछा,

“वैद्य के पास जाना था, सो मैं गयी साथ में” उसने उत्तर दिया!

“आज ही जाना था?” माँ ने पूछा,

“हाँ” उसने कह दिया!

इस से पहले और प्रश्न आते वो अंदर चली गयी! बिस्तर में धंस गयी! माता-पिता का दृश्य और प्रश्नोत्तर आये-गए कर दिए!

उसने मुड़ के देखा!

विपुल ने!

क्यों!

कोई तो कारण होगा!

मुस्कुरा गयी इथि!

मुस्कुराना पड़ा!

हाँ!

पड़ा!

ये भाव सह जाना इतना आसान नहीं!

सीना गरम हो जाता है! आह ठंडी हो जाती है!

यही तो हुआ इथि के साथ!

डूबी रही उन्ही क्षणों में!

उलझन!

इथि की उलझन!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तो फिर से प्रतीक्षा!

दो गुना बेसब्री!

कल की!

यही तो होता है!

कोरे कागज़ पर एक छोटी सी स्याही की बूँद भी अपना अस्तित्व ज़ाहिर कर दिया करती है! और यहाँ तो प्रेम की ना मिटने वाली स्याही थी!

कभी मुस्कुराती और कभी गम्भीर होती!

कभी आरम्भ में आती,

कभी मध्य, और,

कभी वर्त्तमान में!

सभी पल प्यारे थे!

सभी महत्वपूर्ण!

कोई कैसे छोड़ा जाए!

कभी इस करवट तो कभी उस करवट!

कभी खुद के शब्द गूंजे, तो,

कभी विपुल के शब्द!

और वे अलौकिक पौधे!

समझ ही ना पायी!

प्रेम में आसक्त इथि!

मित्रगण!

फिर हुई रात!

फिर भोर!


   
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