वर्ष २०१० गोरखपुर क...
 
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वर्ष २०१० गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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क्या करे?

क्या ना करे?

वृक्ष भी जैसे मूक हो गया था!

और, वृक्ष पर बैठे पक्षी जैसे साथ हो गए हों इथि के!

सभी चहचाते हुए द्वन्द में शामिल थे!

द्वन्द!

आत्मद्वन्द!

सबसे विकट स्थिति!

कैसे निकले?

कौन निकाले?

क्या समाधान?

कैसे घंटा बीत गया पता ही ना चला!

कनखियों से तालाब वाली पगडण्डी पर निगाह डाली!

कोई आ रहा था,

बतियाते हुए!

ओह!

ये तो वही हैं!

अनजान परदेसी!

क्या करे?

सम्मुख जाये?

नहीं नहीं!

लज्जा!

लज्जा ने रोका!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर?

शीघ्र बताओ!

क्या करे?

वहीँ डटी रहे?

हाँ!

हाँ!

उस समय यही उचित है!

वे चले गए पार करते हुए उस वृक्ष को!

छोड़ गए वही सुगंध!

नेत्र अपने आप बोझिल हो गए इथि के!

नेत्र बंद!

वो दौड़ी! उस मार्ग पर आयी!

जहां से वे गुजरे थे!

वे जा रहे थे!

अरे परदसियो!

ओ परदेसी!

पीछे मुड़ के देख!

देख तो सही!

देख एक ह्रदय कैसे विचलित है!

कैसे पीड़ित है!

ना देखा!

ना देखा उन्होंने!

वे चलते चलते, छोटे और छोटे होते चले गये और हुए ओझल!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बेचारी इथि!

झलक तो मिली परन्तु प्रदाह भी मिला!

प्रदाह!

एक और मुसीबत!

अब?

अब क्या हो?

लौट पड़ी वहाँ से इथि!

अपने आप में नहीं थी!

मेरा मतलब, इथि इथि ना थी!

खोयी खोयी सी चल पड़ी इथि वापिस!

हाय रे प्रेम!

तेरे कितने रूप!

किसी पर तरस खाता है और किसी को तरसाता है!

वाह रे प्रेम!

खेत-खलिहान! वृक्ष और पगडण्डी! वो परिदृश्य!

सब अनजान हो गए इथि के लिए!

बेजान बदन उठाये लौट रही थी!

घर के लिए!

घर पहुंची!

लेट गयी!

माँ ने देखा!

आयी समीप!

“कहाँ गयी थी?” मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई उत्तर नहीं!

बताया ना!

इथि अब इथि ना थी!

“कहाँ गयी थी?” पूछा माँ ने!

कोई उत्तर नहीं!

“इथि?” अब माँ चिंतित हुई!

क्या हुआ बेटी को?

कौन जाल में उलझ गयी?

नटखट और उद्दंड इथि ऐसी शांत कैसे हो गयी?

क्या हो गया?

माँ चिंतित!

करीब आ बैठी!

सर पर हाथ फेरा!

माथे पर हाथ फेरा!

शीतल!

एक दम शीतल इथि!

शीतल!

नहीं!

अब कौन समझे उसके प्रदाह को!

कौन?

कोई नहीं!

और समझने वाला था अनजान!

अब क्या हो?


   
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श्रीशः उपदंडक
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“क्या हुआ इथि?” माँ ने फिर पूछा,

“कुछ नहीं माँ” शब्द बटोरे इथि ने!

माँ चुप रहे बस इसलिए!

वो तो उलझन में थी!

उलझन!

अब और उलझ गयी थी!

 

“क्या बात है बेटी? बता तो सही?” माँ ने पूछा,

“कुछ नहीं माँ” बोली इथि!

“कल से बहुत चुपचाप है, क्या हुआ?” मैंने ने पूछा,

“नहीं तो माँ” टाली बात कह के ये!

माँ ने कुछ पल देखा और फिर बाहर चली गयी!

लेटी रही इथि!

कौन है वो परदेसी?

कहाँ का रहने वाला है?

यहाँ क्यों आया है?

कौन है वो?

बस यही ख़याल घर कर गया दिल में!

कि कौन है वो!

अब पता कैसे किया जाये?

कौन करे पता!

अब किस से कहे व्यथा अपनी?

कहीं हंसी तो नहीं उड़ जायेगी?


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर किस से कहे?

हाँ!

याद आया!

उसकी सखी!

उसकी सखी पल्ली!

पल्ली से कर सकती है वो ये बात!

उसको सुना सकती है अपनी व्यथा!

पल्ली सुन भी लेगी!

और फिर कोई हल निकल ही आयेगा!

बिस्तर से उठी वो!

और निकल भागी बाहर!

माँ देखती रह गयी!

क्या हो गया है मेरी बेटी को?

कहाँ खोयी खोयी लगी है?

बताती भी तो नहीं!

इथि भागी अपनी सखी के पास!

पल्ली!

उसके बचपन की सखी!

उसकी हमराज़!

पल्ली के घर पहुंची!

पता किया तो पता चला पल्ली छत पर!

अनाज फटकार रही है!

ऊपर भाग चली इथि!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मिल गयी पल्ली!

दोनों सखियों में आँखों में ही बात हुई और फिर आखिर,

कह ही दी पल्ली से अपने जी की बात!

पल्ली हैरान!

परदेसी?

वही परदेसी?

वो तो कोई राजकुमार लगते हैं?

उनसे कैसे बात हो?

पीछे पड़ गयी इथि!

हार माननी पड़ी पल्ली को!

और तय हुआ कि उनके बारे में पूछताछ करेगी पल्ली!

कल!

कल मध्यान्ह!

समय तय हो गया!

अब खुश इथि!

दौड़ पड़ी घर की तरफ!

धड़धड़ाते हुए घर में घुसी और सीधा बिस्तर पर!

माँ फिर हैरान परेशान!

अब जी में फूल खिलें!

चलो, कल पता चल जाएगा, कौन हैं वो!

कहाँ से आये हैं?

कहाँ ठहरे हैं?

व्यवसायी हैं या फिर कोई राजकुमार!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कल,

पता चल ही जाएगा!

अब इत्मीनान उसे!

लगा जो प्रकृति आज मध्यान्ह तक विरुद्ध थी अब संग है!

अब काटे समय न कटे!

मध्यान्ह कैसे हो?

अभी तो संध्या,

रात्रि, भोर बाकी हैं!

कैसे कटे समय?

बड़ी मुश्किल!

चलो, अनाज फटकार देती हूँ!

यही सोचा!

चल पड़ी अनाज फटकारने!

इथि!

अपनी योजनाओं में लगी थी!

हाय री उलझन!

 

संध्या बितायी!

रात्रि आयी!

रात्रि बितायी!

भोर हुई!

वर्ष का सा समय लग गया!

कई सक्रान्तियाँ बीत गयीं जैसे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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भचक्र में चाल थम गयी जैसे पिंडों की!

पल्ली सुबह सुबह ही आ गयी इथि के पास!

इथि तैयार!

गयी तालाब तक!

आज यहीं तो होना था साक्षात्कार उन परदेसियों से!

एक ख़ास परदेसी से!

विपुल!

विपुल नाम है उसका!

स्नानादि से फारिग हुई इथि और पल्ली संग योजना बनाते हुए आ गयी घर वापिस! अब मध्यान्ह में जाना था!

ह्रदय में अजीब से स्पंदन थे!

सीने में भारीपन था!

श्वास ठंडी थी!

नथुने गरम थे!

कैसा भाव है ये इथि!

और फिर हुआ मध्यान्ह समय!

बदन भारी हुआ!

मस्तिष्क सुसुप्त!

परन्तु केंद्रित!

पल्ली संग चल पड़ी इथि!

मार्ग में बस वही परदेसी और वही परदेसी!

वे उस वृक्ष के पास पहुंची!

जामुन का ये वृक्ष साक्षी था उसके प्रेम-अंकुरण का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पल्ली को मार्ग दिखाया इथि ने!

पल्ली ने उचक कर देखा!

और दोनों की निगाहें उस मार्ग पर आ टिकीं!

कुछ क्षण बीते!

कुछ और क्षण!

बड़े भारी थे वे क्षण!

क्षण क्षण न होकर घटियां बन गए थे!

और घटियां बी इतनी बड़ी कि दिनमान में भी परिवर्तन हो जाए!

कोई अचम्भा नहीं!

लगन में यही होता है!

यही तो है लगन!

उलझन!

अब उलझने वाला समझे!

और फिर!

दूर मार्ग पर आते दिखायी दिए तो अनजान परदेसी!

अनजान??

नहीं नहीं!

अब अनजान कहाँ!

वो तो परसों से बसाये बैठी थी उस परदेसी को ह्रदय में!

अनजान कैसा!

वो तो सम्भवतः जानती थी उसको युगों युगों से!

ऐसे ही थोड़े धड़कता है ये ह्रदय किसीके लिए!

कुछ न कुछ सम्बन्ध होता है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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है न इथि?

सच है न ये?

फ़ौरन दोनों वृक्ष की आड़ में हुए!

पल्ली को एक बार फिर से स्मरण कराया!

क्या कहना है और क्या नहीं!

बड़ी हिम्म्त दिखायी पल्ली ने अपनी सखी के लिए!

अब प्रश्न ये, कि पहले रोका जाए या बाद में?

बाद में!

हाँ!

बाद में!

कहीं कुछ………..??

नहीं!

हो गया तय!

बाद में!

वे आये!

और नज़रों के सामने से चले गए तालाब की ओर!

उनको देख पल्ली हैरान!

पहले रोज नहीं थी न पल्ली वहाँ!

ये कौन हैं?

मुंह से निकला?

कौन है?

देवता?

राजकुमार?


   
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श्रीशः उपदंडक
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दिव्य-पुरुष?

तो फिर कौन?

ऐसे मानस?

ये क्या देखा अभी!

इथि ने हाथ मारकर तन्द्रा तोड़ी उसकी!

समय बीता!

चार घटियां बीतीं!

वे आये, उनके वार्तालाप का स्वर सुनायी दिया!

“जा पल्ली” बोली इथि!

उसने इथि की आँखों में देखा!

सहज भोलापन!

“जा?” इथि ने कहा,

पल्ली चल पड़ी!

उनका मार्ग रोकने के लिए!

धक्!

धक् इथि वहाँ!

वृक्ष के नीचे!

पल्ली आ गयी मार्ग के बीच!

वे बस कुछ ही दूर!

आ रहे थे!

धमक धमक!

कांपी पल्ली अब!

उसे इथि को देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इथि बदहवास!

हाथ से जाने का इशारा किया!

संयत हुई पल्ली अब!

 

वे दोनों आ रहे थे, बतियाते हुए!

और मार्ग के बेच में खड़ी थी पल्ली!

वे आये और करीब!

और करीब!

और करीब!

पास आ गए!

पल्ली को बीच में देख ठिठक कर रुक गए!

ना कुछ वे बोले और ना पल्ली!

कनखियों से देखे इथि!

सीने से बाहर निकलता ह्रदय!

किसी भी पल!

कुछ पल!

ऐसे ही!

और फिर अलग अलग होकर उसको बीच में से छोड़कर आजू-बाजू से हो कर चल दिए वापिस!

पल्ली ने इथि को देखा!

इथि ने दो नज़रें कीं!

पहले उन दोनों को देखा और और पल्ली को!

आँखों ही आँखों में कुछ समझाया!

“सुनिये?” पल्ली ने समझकर कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे चलते गये!

मानव से क्या सरोकार!

कौन रोकेगा उन्हें!

वे नहीं रुके!

चलते गए!

अब भागी पीछे पल्ली!

“सुनिये?” फिर बोली,

अबकी रुके वे!

वे दोनों!

दोनों ने एक दूसरे को देखा!

कौन रोक रहा है उनको?

समझ नहीं पाये!

रुक गये वो!

और रुकते रुकते बचा इथि का ह्रदय!

“जी, कहिए?” कहा सुचित ने!

आश्चर्य!

कितनी मधुर और खनकती वाणी!

“जी, एक प्रश्न है मान्यवर” पल्ली ने शर्माते, संकुचाते हुए पूछा,

“प्रश्न?” सुचित ने पूछा,

“जी” बोली पल्ली!

कुछ पल शांति!

“जी, पूछिए?” अब पूछा विपुल ने!

उफ़!


   
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श्रीशः उपदंडक
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छिपी ना रह सकी इथि!

तने से छिपती ना रह सकी वो!

नज़र पड़ ही गयी विपुल की इथि पर!

इथि और विपुल की नज़रें दुबारा उलझ गयीं!

“जी, पूछिए?” अब सुचित ने पूछा,

“आप कौन हैं?” पल्ली ने पूछा,

“व्यवसायी है, परदेस से आये हैं, यहाँ स्नान करने आते हैं” सुचित ने कहा,

“कौन परदेस?” पल्ली ने पता पूछा जैसे!

“बहुत दूर! बहुत दूर है यहाँ से!” विपुल ने ऊपर इशारा करते हुए कहा,

ना समझ सकी पल्ली!

और उधर!

मंत्र-मुग्ध सी इथि खिंची चली आयी!

वार्तालाप के मध्य!

सुचित ने देखा!

विपुल ने देखा!

विपुल के देखते ही नज़रें नीची कर लीं इथि ने!

“कोई समस्या है?” सुचित ने पूछा!

समस्या!

हाँ! समस्या ही तो है!

लेकिन जाने कौन!

और बताये कौन!

“क्या मैं आपका नाम जान सकती हूँ?” पल्ली ने लरजते हुए पूछा,

“जी, अवश्य! मैं विपुल हूँ और ये मेरे मित्र सुचित!” विपुल ने कहा,


   
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