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वर्ष २०१० गोरखपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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आप सभी को विदित होगा कि मैंने एक घटना लिखी थी, लौहिष यक्ष और धनाद्रि की, यदि आपको पता हो! धनाद्रि पर लौहिष, एक यक्ष प्रेमासक्त हुआ था, और इस घटना में एक स्त्री एक गांधर्व पर आसक्त हुई! अब कहाँ एक अलौकिक गांधर्व और कहाँ एक मानव स्त्री!

परन्तु!

प्रेम कुछ नहीं देखता!

हो गया!

सो हो गया!

अब चाहे जिनात हों,

प्रेत हों या फिर कोई यक्ष या गांधर्व!

गांधर्व उप-देव योनि है! इसका कोई सानी नहीं! ये अलौकिक, इच्छा मूर्त करने वाले, अत्यंत बलशाली, सौम्य, सुंदर, रूपवान और संगीत का ज्ञान रखने वाले होते हैं! कला में पारंगत होते हैं!

राक्षस भी इनका सम्मान करते हैं, दानव-दैत्य आदि भी इनका सम्मान करते हैं ऐसा लिखा हुआ है!

यक्ष और गांधर्व!

इन दोनों में अत्यंत लघु अंतर है!

यक्ष जहां देव-सानिध्य में रहते हैं वहीँ गांधर्व आमंत्रित किये जाते हैं! भारतीय तंत्र-शास्त्र में इनको उच्च-कोटि की परम सिद्धियों में स्थान प्राप्त है! गांधर्व-कन्यायों की तो अनेक लोक-गाथाएं हैं! गांधर्व-विवाह सब सुनते तो हैं परन्तु ज्ञान नहीं!

ऐसे ही एक गांधर्व विपुल और एक मानव स्त्री इथि की है ये घटना!

मैं उस समय नेपाल में था जब औघड़ों की जमात लगी थी! कोई दो वर्ष बीते होंगे, सर्दी इतनी कि खून जम जाये! लोहे की टीन की चादर खड़खड़ करती हुई वायु से मिलकर हमसे दगा कर


   
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श्रीशः उपदंडक
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बैठी थी! हवा ऐसे चुभती थी जैसे नश्तर! हालांकि मैंने फौजी जैकेट पहन रखी थी, लेकिन वायु का आघात ऐसा तीव्र था कि सांस जो अंदर गयी थी, अंदर ही विश्राम करती! फेंफड़ों के बीच!

"अरे शम्भु? मरवाएगा क्या?" मैंने कहा,

"कहा करी?" वो बेचारा इक-हल्लर होते हुए बोला!

"सुलपा कहाँ है?" मैंने पूछा,

"बाबा सूंत गए" वो बोला,

कैसे जान पर बनी!

"***** कुछ तो कर?" मैंने कहा,

"रुको" वो बोला, और रेंगते रेंगते पहुँच गया एक के पास!

और वापिस आ भी गया!

"कुछ ना" उसने कहा,

"कुछ ना?" मैंने गुस्से से पूछा,

"हाँ" वो बोला,

अब बात बर्दाश्त से बाहर!

"चल उठ?" मैंने कहा,

"कहाँ?" उसने पूछा,

"चल तो सही?" मैंने कहा,

वो उठा और मैं भी उठा!

दरअसल ये आंधी थी!

ठंडी हवा वाली आंधी!

जान निकल गयी थी!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैं और शम्भू निकले वहाँ से, हवा ने आतंक काट रखा था, प्लास्टिक की बाल्टियां वहाँ मैदान में एक दूसरे से टकराने की होड़ कर रही थीं! पेड़ झाड़ियों से बातें करने लगे थे झुक झुक कर और झाड़ियाँ जैसे सीना चौड़ा कर अपना महत्त्व बता रही थीं पेड़ों को!

सांय सांय की भयानक आवाज़ करती हुई हवा जैसे हमारे पीछे लगी थी! हम भागे वहाँ से पक्के की ओर!

एक अहाता पार किया और फिर एक कमरे के बाहर रुक कर दस्तक दे दी, ठण्ड में हाथ कुल्फी हो चले थे! दुबारा दस्तक दी और जैसे ही दरवाज़ा खुला हम दोनों घुस गए कमरे में! दरवाज़ा शर्मा जी ने खोला था और उन्ही ने बंद किया, कमरे में राहत थी, बाहर तो हवा का उत्पात मचा था!

खालिस आतंकवाद!

जैसे सालों बाद क़ैद से छूटकर आयी हो!

अंदर आते ही मैं और शम्भू घुस गए रजाई में!

"बाहर तो कहर मचा हुआ है शर्मा जी!" मैंने कहा,

"हाँ, आंधी चल रही है" वे बोले,

"बड़ा बुरा हाल है, पँसलियां तक काँप गयीं!" मैंने कहा,

"ये पहाड़ी हवा है गुरु जी" वे बोले,

तभी खिड़की खड़खड़ाई!

जैसे हवा ने पकड़ लिया हो हमको छिपे हुए!

तब शम्भु उठा, नीचे अपना बिस्तर लगाया और दो कम्बल एक कर लेट गया, घुस गया और पूरे का आधा हो गया!

अब हम भी सो गए!

रह रह कर फुरफुरी आ जाती थी!

सुबह हुई!

घड़ी देखी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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आठ बजे थे,

मैंने शम्भू के जगाया,

अलसाया हुआ वो उठा और खींच खींच के दो चार अंगड़ाइयां लीं उसने!

"चाय ले आ भाई!" मैंने कहा,

वो कंबलों की तह करके रख रहा था!

"ले आ?" मैंने फिर से कहा,

सुस्ताया सा बाहर जाने लगा!

और फिर थोड़ी देर में चाय ले आया!

हम चाय के घूँट भरने लगे!

चाय ऐसी लगे कि जैसे अमृत!

"आज निकलना है गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"तो अभी निकल लो, बाहर घटाएं छायी हैं, कहीं बरसात हो गयी तो हो गया काम" वे बोले,

"हाँ सही कहा आपने" मैंने कहा,

शम्भू तो वहीँ रहने वाला था, वो बस हवा में नज़रें गड़ाए अपने ख्यालों में ही खोया रहा!

हमने अपना बोरिया-बिस्तरा समेटा और वहाँ से निकलने की तैयारी की, एक दो से मिले और फिर हम निकल पड़े वहाँ से!

बस पकड़ी और अपनी मंजिल की ओर चल पड़े!

रास्ते में टूटे पेड़ों ने बस की गति को लगाम लगा दी थी!

किसी तरह कोई तीन बजे हम पहुँच गए!

पहुंचे बाबा रूद्रपाणि के स्थान पर! बाबा रूद्र बुज़ुर्ग व्यक्ति हैं, भारत की सीमा से लगते हुए ही उनका स्थान हैं, उनका पुत्र ही देखभाल करता है! दयावान और पढ़ालिखा है!

यही थी हमारी मंजिल!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण!

जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वो यहीं इसी स्थान पर मुझे एक औघड़ बाबा कर्मेन्द्र ने सुनायी थी! वे भी अस्सी बरस के हैं! मुंह-ज़ुबानी ये गाथा आज भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपी जा रही है!

आज आप भी सुनिये!

 

ये घटना आज से कोई पौने दो सौ वर्ष पहले घटी थी!

खूबसूरत जंगली क्षेत्र! गोरखपुर!

भारत के नेपाल सीमा की बीच का क्षेत्र!

जहां आज सोनौली है, वहीँ से एक मार्ग जाता है इस गाँव के लिए जहां की थी इथि! एक सौन्दर्यवान और सुशील कन्या!

उन दिनों यहाँ बहुत बड़ा जंगल हुआ करता था! वनस्पति से भरपूर और तालाब आदि से सुसज्जित! कुल मिलकर वन-सम्पदा का एक खजाना!

इथि के पिता किसान थे, खेती से ही गुजारा होता था घर का, इथि के परिवार में उसका बड़ा भाई और एक छोटा भाई था, भाइयों की और अपने माता-पिता की लाड़ली थी इथि! दिन भर अपनी सखियों के साथ घूमा करती, कभी जंगली-क्षेत्र में और कभी तालाब के आसपास! ठिठोली करती हुई सारा दिन गुजार देती! बड़ा भाई पिता के काम में हाथ बंटाता था, छोटा भाई अपनी शिक्षा आदि में लगा रहता! माता सारा घर संभालती, चाचा ताऊ के घर भी आती जाती इथि! सभी को हाथों पर रखती, जब चाहे बात की और जब चाहे उठ पड़ी!

जवान हो रही थी इथि, उसका रूप-यौवन कुछ ऐसा मेहरबान हुआ था उस पर कि जैसे रचियता ने विशेष रूप से उसकी देह अलंकृत की हो!

माँ-बाप को अब चिंता सताने लगी, कोई योग्य वर हो तो हाथ पीले कर दिए जाएँ उसके, अपने घर की हो और वे अपने कर्त्तव्य से पूर्ण हों!

बात चलने लगी!

कुछ वर आये भी लेकिन इथि के माता-पिता को को कोई इथि के लायक जँचा नहीं! कुछ इथि को नहीं जँचे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस दिन रंगों का त्यौहार था!

होली!

खूब खेली होली इथि!

सभी के साथ!

क्या सखियाँ, क्या रिश्तेदार!

सभी के साथ!

जब पृथ्वी पर बसंत का समय होता है तब गांधर्व पृथ्वी का रुख करते हैं! पृथ्वी पर वास करते हैं, शिखरों पर, वन में, कंदराओं में और तालाब के आसपास! ये उनका ऋतु-प्रवास होता है!

ऐसे ही एक गान्धर्व था विपुल!

अतुलित बलशाली! सौम्य! अत्यंत सुंदर! रूपवान! अलौकिक देहधारी! सुनहरे-श्याम केश! हाथों में पांवों में और गले में, छाती पर आभूषण धारण किये! गौर-वर्ण उसका! पृथ्वी पर कोई अन्य गौर-वर्ण उस जैसा नहीं! कहीं भी!

वो भी ऋतु-प्रवास को आया था!

और दूसरे गांधर्व भी आये थे, कोई कहाँ और कोई कहाँ! पृथ्वी के अमूर्त सौंदर्य के ताप से खिंचे चले आये थे!

हां, होली थी उस दिन!

अन स्नान का समय था,

इथि उस तालाब पर पहुंची स्नान करने, सखियों ने भी स्नान किया, और फिर एक वृक्ष के नीचे बैठ गयीं!

तब वहाँ विपुल नहीं था!

विपुल वहाँ से बहुत दूर अपने मित्र गन्धर्वों के साथ कहीं और था! आकाश मार्ग से उसने उस खूबसूरत तालाब को देखा, हंस तैर रहे थे! जलीय-जीवन अपने उत्कर्ष पर था!

उतर गया विपुल!

कोई देख नहीं सकता था उसको!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो अपने अलौकिक-आभामंडल में था!

उसके साथ एक और मित्र गान्धर्व था सुचित!

वे दोनों ही वहाँ रुके!

स्नान करने को लालायित!

स्नान करा हो तो अलौकिक रूप त्यागना पड़ता है गन्धर्वों को! तब वहाँ का जल अमृत सामान हो जाता है! श्वेत रंग से पूर्ण हो जाता है! मानसरोवर इसका उदाहरण है! जल समतापी हो जाता है! मछलियां श्वेत हो जाती हैं, उन पर सुनहरे रंग के बड़े छोटे बिंदु उभर जाते हैं! चीन में ऐसे कई तालाब हैं, जहां ऐसा होता आ रहा है आज भी!

तभी कुछ हंसी की आवाज़ें पड़ीं उनके कानों में!

ये तो मानव स्त्रियां हैं!

इनको जाने दो पहले!

ता स्नान करेंगे!

समय हुआ,

और समय हुआ!

लेकिन इथि न डिगी वहाँ से!

न ही कोई सखी उसकी!

वो तो जैसे ऋतु-प्रवास पर आयी थीं!

अब कैसे बात बने?

 

क्या करें?

मनुष्य रूप धारण किया जाए?

हाँ!

यही सही रहेगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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यही सोचा विपुल और सुचित ने!

दोनों में मानस-रूप धरा!

अब देखिये!

एक यक्ष! या गांधर्व यदि मानस-रूप धरेगा तो उसका रंग-रूप, देह, कद-काठी, यौवन और वर्ण कैसा होगा?

यही नहीं समझा दोनों ने!

उन्होंने जो रूप धरा ऐसे मानस तो कभी किसी ने नहीं देखे थे! साक्षात देव-प्रतिमा! अब वे क्या जानें!

रूप धर लिया!

वे दोनों चले अब आगे!

तालाब की तरफ!

नज़र पड़ीं उन सखियों की उन पर और अवाक!

ये कौन है?

कोई राजा?

राजकुमार?

देव?

कौन हैं ये?

खबर पहुंचायी गयी इथि तक!

इथि ने भी देखा और अवाक!

पुरुष-देह और इतनी सुन्दर!

कौन हैं ये?

कोई यक्ष?

कोई माया?


   
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श्रीशः उपदंडक
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कौन?

अचंभित सभी!

वे दोनों उनके करीब से होते चले गए!

सभी खुली आँखों से घूरते रहे उनको!

उनके गुजरने के बाद वहाँ का वातावरण सुगन्धित हो गया! फूल जैसे खिल उठे, जैसे सूर्य केंद्रित हो कर अपने समस्त ऊर्जा उन पर ही प्रकाशित करे!

वे दोनों उतर गए तालाब में!

जल-क्रीड़ा!

किसी से नहीं रुका गया!

वे सभी मंत्र-मुग्ध सी चल पड़ीं उनके पीछे पीछे तालाब तक!

तालाब में स्वछन्द तैरते गांधर्व!

विपुल और सुचित!

इथि पर तो जैसे सबसे बुरा प्रभाव पड़ा!

विपुल को देखा जैसे वो जड़वत हो गयी!

कौन है ये?

कैसे पता किया जाए?

कोई तो होगा इनके साथ?

वो पीछे मुड़ी!

को दिख ही जाए!

कोई नहीं!

न कोई व्यक्ति, न कोई सहायक ही!

न कोई घोडा-गाड़ी, न ही अश्व!


   
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श्रीशः उपदंडक
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किस से पूछे!

वो फिर से मुड़ी,

तालाब तक आयी!

वे स्नान कर चुके थे!

उनके हास्य-व्यंग्य से प्रतीत होता था तालाब बहुत पसंद आया उन्हें!

वे दोनों वस्त्र धारण कर वापिस चले अब!

सभी सकाहिए पीछे, वृक्ष के पीछे हो गयीं!

रह गयी इथि!

अकेली इथि!

वे आते गए सामने!

इथि न हटी वहाँ से!

कैसे हटती!

वो रुकी ही कब थी!

उसको तो रोक दिया गया था!

किसी के लावण्य ने रोक दिया था!

नहीं रुकी थी वो जानकर!

बस!

विवश थी!

मार्ग में खड़ी थी, सो विपुल और सुचित उसे देख रुक गए, कि वो हट जाए!

हट जाए?

कैसे?

नज़रें मिलीं विपुल और इथि की आपस में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उलझन!

उलझ गयी आँखें!

कौन सी तेरी और कौन सी मेरी!

पता नहीं!

 

और फिर, पहली बार नज़रों की उलझन सुलझती नहीं, जितना सुलझाओ और उलझन पैदा हो जाती है! वही हुआ इथि के साथ! विपुल के साथ नहीं! विपुल को तो मार्ग चाहिए था! बस!

जब नहीं हटी वो तो विपुल ही उसकी दूसरी तरफ से निकल गया! और दोनों बतियाते चल दिए अपनी राह!

इधर उलझन में उलझी हुई इथि देखती रही! निहारती रही! प्रतिबिम्ब छप गया उसकी आँखों में विपुल की नज़रों का!

अब सखियों का भी नशा टूटा!

भागी भागी आयीं इथि के पास!

इथि उनको देखती रही, जब तक वो ओझल न हो गए!

अब बात चली!

"कौन थे वे?" एक न पूछा,

"पता नहीं" दूसरी ने कहा,

"परदेसी जान पड़ते हैं" तीसरी बोली,

"हाँ" चौथी ने उत्तर दिया!

और इथि!

अभी तक उलझी थी!

उसकी उलझन और उलझ गयी!

यूँ कहो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कि और उलझा लिया उसने अपने आपको!

आँखें अभी तक वहीँ टिकी थीं जहां वे गए थे!

"चल इथि" एक ने कहा,

"चल, देर हो गयी है" दूसरी बोली,

"चल अब" तीसरी बोली,

"परदेसी थे, अब गए" चौथी ने कहा,

चल पड़ी!

वापिस गाँव की ओर!

सभी अपने अपने कल्पिनीय क्षेत्र में उलझी हुईं!

लेकिन इथि!

इथि तो न केवल उलझी थी, बल्कि भटक भी गयी थी!

कोई मानस ऐसा सुंदर भी हो सकता है?

यदि हां, ये वही है, तो कौन?

कौन है ये मानस?

ये परदेसी?

और?

और?

क्या?

कल फिर से आएगा ये वापिस?

बेचैन!

लज्जा का आँचल दरका जाये!

किसी तरह से पहुंची आने घर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सीधे अपने बिस्तर पर!

फिर से वही उलझन!

विपुल के नेत्रों की चमक!

उसका मुझ-मंडल!

उसकी सम्पुष्ट देह!

सारा आंकलन कर लिया था इथि ने!

अब बढ़ी बेचैनी!

कल कैसे आये?

शीघ्रता से!

कैसे आये?

बहुत समय शेष है!

कुछ कहने सुनने का मन न करे!

कहीं जाने का मन न करे!

खाने पीने की सुधबुध ख़तम!

बस उलझन!

और उलझती चली गयी!

बेचारी इथि!

ये कैसा भाव है?

वो एक परदेसी है, न जाने आये भी न!

कैसा खाली खाली भाव है!

व्यर्थ का चिंतन!

बहुत समझाए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उलझ जाए!

वो सुगंध!

लगे वो सुगंध अभी भी साथ है उसके!

यहीं तो है वो!

वो परदेसी!

तभी इथि की माँ कक्ष में आ गयी!

 

माँ कक्ष में आयी तो अपनी सुधबुध खो लेटी हुई थी इथि बिस्तर पर, पेट के बल! माँ को अजीब सा लगा!

"क्या हुआ?" माँ ने पास बैठते हुए पूछा,

"कुछ नहीं" उसने कहा,

"तबियत खराब है क्या?" मैंने ने फिर पूछा,

"नहीं" उसने उत्तर दिया,

'फिर क्या बात है? ऐसे क्यों लेटी है?" मैंने पूछा,

"ऐसे ही माँ" उसने कहा,

"दिन चढ़ा आया है, अनाज फटाकर ले" माँ ने कहा,

"अभी फटकार दूँगी" उसने कहा,

माँ ने कुछ पल देखा और चली गयी,

भावहीन सी लेटी रही!

फिर एक करवट बदली, एक हाथ से अपनी एक लट पकड़ी और उस पर उंगलियां चलाने लगी!

आज मन कहीं और था इथि का!

विपुल का चेहरा और वो नज़र भूल नहीं पा रही थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर से करवट बदली!

और फिर से उलझन!

क्या हो गया उसको!

कैसे सारे बदन ने और मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया?

कैसे मैं आज मैं नहीं रही?

क्या हो गया मुझे आज?

तभी माँ की आवाज़ आयी!

आज बड़ी कर्कश सी लगी आवाज़!

क्यों?

कैसे?

वो अनमने मन से उठी, कोने से अनाज उठाया और फिर छाज, बेमन से अनाज फटकारने लगी!

माँ अंदर आयी, तो देखा अनाज फटकारना भूल गयी है इथि!

"क्या हुआ?" माँ ने पूछा,

कोई उत्तर नहीं दिया उसने,

अनाज फटकारने लगी!

माँ ने गौर किया आज कहीं खोयी सी है इथि!

"क्या हुआ? सच बता, कहाँ खोयी हुई है?" माँ ने पूछा,

"कुछ नहीं माँ" इथि ने बात कटी!

"कहाँ गयी थी आज? तालाब पर?" माँ ने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

'फिर? ऐसा क्या हुआ?" माँ ने पूछा!

ऐसा!


   
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